भाषा – मानवीय अस्मिता की परिचायक (गुजरात के परिप्रेक्षप में) - डॉ. रानू मुखर्जी

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भाषा मनुष्य के विचार विनिमय का साधन है तथा संप्रेषण व्यवस्था का अंग है। एक तरफ संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था है तो दूसरी ओर सोचने विचारने का ...

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भाषा मनुष्य के विचार विनिमय का साधन है तथा संप्रेषण व्यवस्था का अंग है। एक तरफ संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था है तो दूसरी ओर सोचने विचारने का माध्यम, तीसरी ओर भाषा है साहित्यिक, साहित्यिक सर्जना का कलात्मक साधन है।

महादेवी वर्मा जी ने हिन्दी भाषा के प्रति अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कहा है “किसी दूसरी भाषा को जानना सम्मान की बात है लेकिन दूसरी भाषा को राष्ट्रभाषा के बराबर का दर्जा देना शर्म की बात है”।

डॉ. सीताकान्त महापात्र ने “शब्द और संस्कृति” में कहा है –

“मेरे शब्द में अनन्त काल से मिली रहती है अनगिनत कामनाऍ

और दुःख के तीव्र कोलाहल मेरी भाषा में पडी रहती हे

सभी छोटी आशा और आकांक्षाएं।

यही संबंध है मनुष्य का अपनी भाषा से जहाँ वह केवल शब्दों से जुड़कर अपने अस्तित्व को खोने नहीं देता है। निसन्देह प्रत्येक भाषा विज्ञानी जानता है कि एक शब्द, एक भाषा के निर्माण उसके विकास की प्रक्रिया कितनी जटिल है। संसार की नई पुरानी समस्त भाषाओं और बोलियों का निमार्ण इसी प्रकार हुआ है। यह सर्व विदित है कि अपने बाह्य रुप से अत्यन्त तथ्यपरक अनुभूत होनेवाला भाषा विज्ञान अपनी चेतना की गहराइयों में मानव अस्तित्व की उसके विचारों के विकसित परिपक्व रुप की अर्न्तकथा कहता है। हर शब्द स्वयं में एक कथा है और जब वह किसी प्रयोग में लाया जाता है तब उसका प्रयोग व्यक्ति विशेष के द्वारा किस रुप में किया जाता है उसकी कथा अलग होती है इस रुप में शब्द की सत्ता सर्वप्रमुख होती है। उसकी चेतना की अपनी कथाएं होती है। वास्तव में शब्दों के मध्य जीवित रहते हुए हम अपनी उन चेतनाओं को जीते है जिन्हें कभी हमारे पूर्वजों नें भी अनुभूत किया था।

भाषाओं का विसर्जन ऐतिहासिक दृश्यों के द्वारा केवल नापा तोला जा सकता है। अपनी आरंभिक अवस्था में स्मृति के द्वारा अपने कुछ मानसिक बिम्बों के साथ वह एक व्यक्ति तक ही सीमित रह जाता है। जबतक वह साहित्य का आकार ग्रहण नहीं कर लेता है। निस्संदेह कोई भी साहित्यिक रचना अपने समय को संस्कृति परिवेश के चित्र को न केवल प्रस्तुत करती है अपितु अपने समय की विभिन्न अच्छाईयों, बुराइयों का विस्तृत विश्लेषण भी करती है।

हमारी हिन्दी भाषा का विकास इतिहास के बन्द किवाडों की सुरक्षा के भीतर नहीं, साहित्य की खुली हवा मुक्त थपेडों के बीच हुआ है।

हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि हिन्दी की खडी बोली, जिसमें अधिकांश हिन्दी साहित्य की रचना हुई है। मुश्किल से सौ देड सो वर्ष पुरानी है। हिन्दी की सांस्कृतिक जडे भले ही पांच हजार वर्ष पूर्व संस्कृत वांग्यमय और लोक भाषाओं में हो, खडी बोली में रचा साहित्य शायद दुनिया के युवातम साहित्यों में गिना जाएगा। मैथलीशरण गुप्त से लेकर निराला तक लेखकों को अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी काव्यात्मक भाषा स्वयं गढनी पडी थी, बंगला या मराठी लेखकों की तरह उन्हें वह बनी बनाई विरासत नहीं मिली थी। यह सोचने वाली बात है कि इतने कम समय में हिन्दी ने इतनी मंजिले कैसे तय कर ली। यह गर्व का विषय है कि कैसे विपरीत स्थितियों का सामना करते हुए हिन्दी लेखकों ने इन सौ वर्ष के दौरान एक ऐसा संवेदनात्मक तंत्र तैयार किया जिसमें संस्कृत की शास्त्रीय परंपरा की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण थी, जितना स्थानीय बोलियों और लोक भाषाओं का योगदान।

भाषा केवल एक लिपी मात्र नहीं है भाषा विचारों का भावनाओं का संवेदनाओं का स्रोत है। भाषा हमें विचार देती है या यह भी कहा जा सकता है कि भाषा स्वयं विचार है, ऐसे विचार जो लिपिबद्ध होकर सदियों-सदियों तक एकत्रित होते हैं और एक पीढी से दूसरी पीढी को एक धरोहर या आशीर्वाद के रुप में प्राप्त होते है।

आत्मउत्खनन या आत्मान्वेषण का सबसे सक्षम आयुध भाषा है। भाषा मनुष्य की देह का अदृश्य अंग है जो उसे अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है। भाषा और मानव के अन्तर्मन का यह संबंध मानव को समस्त जीव जन्तुओं से अलग श्रेष्ठ स्थान पर स्थापित करता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाषा हमें विचारों की वह सशक्त भूमि प्रदान करती है जिसपर हम यथार्थ का आकलन कर सकते हैं।

मैंक्समूलर जैसे विद्वानों का कहना है कि “जबतक भारत में संस्कृत और उससे उदभूत भाषाएं परस्पर संवाद और चिंतन के लिए जीवित रहती है तब तक उसकी सांस्कृतिक अस्मिता बची रहेगी”।

संस्कृत से चलकर हिन्दी तक आने वाला प्रत्येक मुहावरा और लोकोक्ति अपने आप में एक बडी कथा से युक्त है। जिनको हम अपनी भाषा के माध्यम से जान जाते हैं और उसे अपनाते हैं। कोई भी भाषा बहुत देर तक सरकारी अनुदानों अथवा मौखिक आत्म प्रशंसाओं द्वारा जीवित नहीं रहती उसकी संजीवनी शक्ति का बहाव ऊपर से नहीं नीचे से आता है उन अथाह गहराइयों से जहाँ उस समाज के संस्कार और स्मृतियाँ वास करती है।

भाषा हमें वह भूमि देती है जिसके मध्य से हम अपने यथार्थ का आकलन करते हैं।

संप्रति भारत ही नहीं विश्व मंच पर हिन्दी प्रासंगिक है। भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची में स्वीकृत बाईस भाषाओं के मध्य अपनी सरलता और सहजता के कारण हिन्दी ने प्रथम स्थान हासिल किया है। उच्चारण एवं वर्तनी की इसी सहजता एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता के कारण अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी को प्रधानता मिली है। अहिन्दी भाषी प्रदेशों से संबंध होने के बावजूद इसकी सहज संवादधर्मी विशेषता के कारण काश्मीर से कन्याकुमारी एवं आसाम से गुजरात तक स्वतंत्रता संग्राम में यह संप्रेषण का माध्यम बना।

भाषा का प्रवाह एक ऐसी नदी की तरह होता है जो हमेशा अविरल बहती रहती है। भाषा का स्वरुप निरंतर बदलता रहता है और यह सभी भाषाओं के बारे में कहा जा सकता है। हम जानतें है कि वर्तमान हिन्दी का उदभव संस्कृत भाषा से हुआ और कालानुक्रमानुसार पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के पश्चात अपने वर्तमान स्वरुप पर पहुंची है। अपने भाषा के प्रति सम्मान न रखने वाला निश्चय ही –

हिन्दी संस्कृत साहित्य विहीनः

साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः ॥

गुजरात संत-सूफियों, महाजनों, राजाओं, महाराजाओं, सुल्तानों, व्यापारियों, उद्योगकारों, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, टाटा रतनजी, डॉ. साराभाई, झवेरचंद मेघाणी, नरसिंह मेहता और महाराजा सयाजी राव का गुजरात ही नहीं बल्कि जो इस धारा का अमृत पीकर यहां बसा फला-फूला उन सब का गुजरात है।

यहां विश्व के तो प्रवासी मिलेंगे ही पर भारत का एक भी राज्य छूटा नहीं है जिसके निवासी सदाकाल से आज तक उद्योग, रोजी-रोटी, कला-कौशल्य बताने आते रहे और समृद्ध गुजरात की विविध संपदा से समृद्ध होकर यहां बस भी गए। विविधता में एकता का सुन्दर उदाहरण गुजरात है।

गुजरात की एक दूसरी विशेषता है जो चकित करती है वह यह है कि गुजरात समुद्र किनारे की संपदा से समृद्ध है। अनेक बड़े-बड़े बन्दरगाह आदिकाल से विदेशियों का आवागमन ने गुजरात की संस्कृति, रहन-सहन पर प्रभाव डाला है। भुज, भावनगर, खंभात, सूरत ने विश्व में अपनी पहचान बनाई। व्यापार आदि के लिए विदेश गमन के कारण सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यिक विचारों का आदान-प्रदान लगातार होता रहा। इन सभी व्यापार में भाषा की बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

गुजरात में मात्र हिन्दी भाषियों की संस्था इतनी अधिक है मानों गुजराती बडी बहन बन गई हो और हिन्दी अनुजा की तरह अपनी संपूर्ण कलाओं विद्याओं में खिलकर विकसित है। अपना ओजस संपूर्ण भारत में फैलाने में सफल हो गई है।

आश्चर्य की बात तो तब लगती है जब गुजराती भाषी प्रदेश में रहकर हिन्दी में साहित्य सर्जन करना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि बन जाती है। यहां की यूनिवर्सिटी कालेजेस में हिन्दी विषय को लेकर बी.ए , एम.ए , के साथ हजारों विद्यार्थी पी.एच.डी की उच्चतम उपाधि पाने में रत हैं। गुजरात के अनेक शहरों से आधा दर्जन से भी अधिक हिन्दी की पत्रिकाएं विशेषतः साहित्यिक पत्रिकाएं निरंतर निकल रही है।

गुजरात के हर शहर में दो-चार हिन्दी संस्थाओं का भी बहुत बड़ा योगदान है। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ, हिन्दी साहित्य परिषद, हिन्दी साहित्य अकादमी गांधीनगर का गुजरात में हिन्दी के फलने-फूलने के लिए बहुत बड़ा योगदान है। अकादमी की पत्रिका “नूतन भाषा सेतु “ जिसके संस्थापक अंबाशंकर नागर जी थे, वे हिन्दी के लिए अनेकों महत कार्य किए। इनके साथ ही डॉ. राम कुमार गुप्ता जी का हिन्दी साहित्य में अनमोल योगदान है।

प्रान्तीय राष्ट्रभाषा प्रचार केन्द्र से प्रकाशित “ नूतन राष्ट्रवीणा “ हिन्दी के लेखकों को सतत प्रोत्साहित करती रहती है। हिन्दी साहित्य अकादमी गांधीनगर, तो हिन्दी के नवोदित रचनाकारों को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनकी रचना शीलता को आधार दिलाती है। जेठालाल जोशी, आचार्य रघुनाथ भट्ट, मालती दुबे आदी इनके लोह स्तंभ है। जिनका हिन्दी साहित्य के प्रती अत्याधिक सम्मान है और हिन्दी में निरन्त्र रचनाए करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहे है।

कच्छ् का ब्रजभाषा पाठशाला का उल्लेख अगर न करें तो कहना पूर्ण नहीं होगा। इन्होंने गुजरात में हिन्दी की पैठ को मजबूत बनाया यहां के लोगों की यह विशेषता रही की हर प्रकार के भाषा और संस्कृति को अपने अंदर इस प्रकार से संजो लेते है कि जैसे यह भी यहाँ के लोगो की जीवन प्रणाली का एक अंग है।

यह तो बात सहयोग की है पर यह अविरोध की बात नहीं है। यह तो बात है हमारे संपूर्ण सहयोग की अपेक्षा करना। सबसे पहली बात तो यह है कि हिन्दी की शिक्षा स्कूली कक्षा में केवल सातवीं कक्षा तक ही सर्व सामान्य रुप से है। उसके बाद यह संस्कृत, गुजराती के साथ घुलमिल कर विद्यार्थियों के चयन प्रणाली पर निर्भर करता है। इससे एक बात स्पष्ट है की विद्यार्थी यों की हिन्दी भाषा पर रुचि कम हो जाती हैं और बोर्ड में इस विषय के बदले अन्य विषय पढ़ने में अधिक रुचि रखते हैं। जैसे गुजराती या संस्कृत या अन्य कोई भी भाषा। जिस स्कूल में जैसे उपलब्ध कराई जाती है वैसे। इससे यह होता है की विद्यार्थियों की रुचि हिन्दी भाषा में निरंतर कम होती दिखाई पड़ती है।

इसी प्रक्रिया या बहाव में अगर पैंठ या अपनी राह बनाने की चाह हो तो वहाँ पर अवरोधो के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।

गुजरात भी इस विषय में नितान्त अकेला नहीं। बाजारवाद के कारण भाषा का सार्वजनीकरण आवश्यक हो चला है। पर साधारण जनता जो मुलतः मातृभाषा को ही आधार बनाकर हर क्षेत्र में अपना कदम रखती हैं। वहाँ हिन्दी को अपना साम्राज्य स्थापित करना हो तो संघर्ष आवश्यक है जन साधारण अपनी मातृभाषा को ही समझती हैं और उसी भाषा का व्यवहार करने वालों को भी अपना समझती है। अतः एक प्रेमभाव भी प्रादेशिक हो या प्रादेशिक भाषा के प्रति औदार्य की भावना से ओतप्रोत रहता है।

सरकारी कामों में भी गुजराती भाषा का प्रभुत्व देखा जाता है। जैसे इलेक्ट्रिक बिल, टैक्स के पेपर, किसी भी प्रकार के सरकारी कागजात, कोर्ट के कागज, कोर्ट की भाषा, आदि मूल रूप से गुजराती में ही हैं। जिससे की इतर प्रदेश से आने वालों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्र में दुभाषिए की आवश्यकता आन पड़ती है।

भुमन्डलीकरण और बाजारवाद के इस समय ने अपनी भाषा के प्रति लगाव कभी-कभी प्रगति के पथ पर या इतर भाषा भाषी प्रदेश के लोगों के प्रति विद्वेश का भाव देखने में आता है ऐसे में हिन्दी समझ नहीं पाते ऐसा नहीं है पर प्रयोगविधि के प्रति रसहीनता का आभास होता है बाजार एक ऐसी जगह है जहाँ सामान के साथ साथ धैर्य, सहनशीलता, संस्कार, लेनदेन की भाषा आदी की प्रधानता होती है। इस लिए मूल रूप से इस जगह की भाषा में स्थानीय भाषा का आधिपत्य देखने में आता है।

पर गुजरात के लोग संस्कारी और सहयोगी होने के कारण उसका प्रभाव यह पड़ता है कि बड़े धैर्य के साथ और धीरे-धीरे हिन्दी यहां पर अपना प्रभुत्व विस्तार कर रही है। लोग अगर बोल नहीं पाते तो कोई बात नहीं पर समझ जरुर लेते हैं। और सवाल जवाब का सिलसिला इस तरह से आगे बढ़ता जा रहा है।

मेरे विचार से हिन्दी को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। अंग्रेजी में कहावत है “Slow and Steady wins the race” वही यहाँ पर चरितार्थ होगी। एक न एक दीन सभी जगह पर हिन्दी का झंडा फहराएगा। कोर्ट कचहरी तो क्या सरकारी कार्य क्षेत्र में भी हिन्दी ही आगे आयेगी।

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परिचय

नाम - डॉ. रानू मुखर्जी

जन्म - कलकता

मातृभाषा - बंगला

शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय

शिक्षा परिषद, यु.पी.)

लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण आनुवाद कार्य में

संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।

प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी

संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।

उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम

पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रिय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमि गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।

अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक

पुस्तकों क परिचय कराना।

संपर्क -

17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,

एच.टी.रोड,सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.

Email –ranumukharji@yahoo.co.in.

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रचनाकार: भाषा – मानवीय अस्मिता की परिचायक (गुजरात के परिप्रेक्षप में) - डॉ. रानू मुखर्जी
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