विज्ञान कथा - अंक 60 - राकेट // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय

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विज्ञान कथा राकेट डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय फ रवरी मास की प्रातःकालीन शीतलता अपनी मादकता से पूरित थी। उसे अपने ट्रैक्टर की सीट पर बैठने में उ...

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विज्ञान कथा

राकेट

डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय

रवरी मास की प्रातःकालीन शीतलता अपनी मादकता से पूरित थी। उसे अपने ट्रैक्टर की सीट पर बैठने में उस मादकता का नहीं वरन् उस शीतलता की अनुभूति हो रही थी, जो रात्रि में निरभ्र आकाश के नीचे खड़े ट्रैक्टर की सीट में प्रवेश कर, उसके तापक्रम को घर के ताप से पाँच डिग्री न्यून कर चुकी थी।

उसने अपनी उम्र की ही भाँति के मैसी फरग्यूसम ट्रैक्टर को स्टार्ट करने का प्रयास किया। पर स्टार्टर एक बार घुर्र कर रुक गया। शायद वह उसे यह बताना चाहता था कि उसका भी ठन्डक लगती है। दूसरे प्रयास में घुर-घुरहट बढ़ी और घड़घड़ाहट की ध्वनि के साथ उस हाइड्रोजन गैस चालित ट्रैक्टर की चिमनी से मात्र भाप निकली। परन्तु रामेश्वर को इसकी कोई चिन्ता थी ही नहीं। उसे तो अपने खेत को जोतने की चिन्ता थी। उसने ट्रैक्टर की स्टियरिंग को पूरा घुमाया और कुछ ही क्षणों में उसका ट्रैक्टर सीर की सीमा पार कर चुका था। उसी समय रामेश्वर की दृष्टि उस आकृति पर टिक गयी।

उसने अपने टै्रक्टर को उस आकृति की तरफ बढ़ाना चाहा, परन्तु उसका टै्रक्टर एक झटके के साथ, अड़ियल हाथी की भाँति रुक गया। रामेश्वर का हर प्रयास उसे आगे बढ़ाने, उसे स्टार्ट करने की दिशा में असफल रहा। झल्लाहट भरे स्वर में, उसने अपनी पत्नी सुपर्णा को पुकारा ‘‘सुपर्णा वह आकृति सीर की तरफ जा रही है।’’ वह इतना उत्तेजित था कि वह अपने ‘‘टू-वे’’ रेडियो का प्रयोग करना भूल गया।

उसके घर की तरफ से सुपर्णा की आवाज आयी

‘‘कहाँ हो तुम?’’

‘‘मैं सड़क पर हूँ।’’

‘‘और तुम?’’

‘‘मैं बाथरूम में हूँ।’’

‘‘यह न जाने क्यों बार-बार इधर आता है... हरा.

.मी...साऽऽ ‘‘उस आकृति को गाली देता हुआ रामेश्वर बड़बड़ाया। टै्रक्टर को सड़क के किनारे खड़ा करके वह घर के भीतर आया। टायलेट के फ्लशिंग की आवाज के साथ ही सीढ़ियों से धड़धड़ाती सुपर्णा उसके सामने खड़ी थी।

‘‘कहाँ है वह?’’

‘‘करीब नौ सौ मीटर दूर’’ रामेश्वर ने कहा।

‘‘ठीक है-दो मिनट और’’ कहती हुयी सुपर्णा ने अपना ड्रेसिंग गाउन उतारा और अपनी मिलिट्री सेवाकाल की ड्रेस पहन कर तेजी से अल्मारी से चाभियों का एक गुच्छा लेकर दूसरी अल्मारी के ताले को खोला।

‘‘यह रही तुम्हारी शॉटगन, और उसके बारह बोर के कारतूस! रामेश्वर ने कारतूसों को गन की मैग्नीज में डाला। गन की इलेक्ट्रानिक पावर और आटोमेटिक लाइट आन हो गई। गन पूरी तरह से चार्जड थी। उसने गन को कंधे से लटकाया। ‘‘अब बताऊँगा उसको’’ कहता हुआ वह उस आकृति के आगे बढ़कर सीर के पास तक आने की प्रतीक्षा करने लगा।

न जाने कैसे उस आकृति की गति को नापते हुए उसको धीरे-धीरे सीर की तरफ आता हुआ देखते हुए, रामेश्वर का मन अपने पूर्वजों से सुनी हुयी बातों की वीथिकाओं में विचरण करने लगा।

उसने अपने एक सौ बसंत देख चुके परबाबा-प्रपितामह से सुना था कि इस सीर के मालिक-मौजूदा बाबू के प्रपितामह के पितामह ने, उस समय की तहसील उतरौला में, राजा देवीबक्श सिंह के अंग्रेजों से हार जाने पर, सन् 1868 ई. में छः ग्रान्टों को खरीदा था। इस सोलह सौ एकड़ के, शीतलगंज ग्रान्ट को सबसे पहले इसका जंगल कटाकर बसाया गया था। उसके बुजुर्ग उसी समय के चौधरी शीतल प्रसाद के वफादार और खास थे। इस सीर के मालिक भी रामेश्वर पर पूरा भरोसा रखते हैं। सीर में लगे आम के बाग की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उसी पर है।

उसके पूर्वजों को बाबू के पूर्वजों ने बसाया था। पीढ़ी दर पीढ़ी का उसका कच्चा मकान आज पूरी तरह से आधुनिक सुख सुविधायुक्त है। वह सम्पन्न है, बाबू के वंशजों की कृपामय सहयोग से। सारा शीतलगंज आज आबाद है और बाबू ने अधिकांश जमीन निकाल कर सिर्फ सीर बचा रखी थी। उनके आम के बाग की सुरक्षा उस पर है। लेकिन यह दुष्ट अजीब सी आकृति.....।

उसके विचारों की श्रृंखला, एक विचित्र प्रकार की आवाज़ के कारण, ध्वनि के कारण टूट गई। उसने उसको ध्यान से देखा... उसकी आकृति अब स्पष्ट दिख रही थी। रामेश्वर ने शाटगन कंधे से उतार कर हाथ में ले ली। वह आकृति मध्यम कद की थी। उसकी काली त्वचा के भीतर के अंग स्पष्ट दिख रहे थे। उसकी कृत्रिम कोशिकाओं में लगे सूक्ष्म यंत्र उसकी गति के साथ संबद्ध थे, उसकी सक्रियता स्पष्ट दिखती थी। वह एक टै्रक्टर से ऊँचा और बड़ा था और उसके रुक जाने से सड़क का मार्ग अवरूद्ध हो गया था। उससे यीस्ट और पेट्रोल की मिश्रित महक आ रही थी।

रामेश्वर ने उस आकृति को लक्ष्य कर पूछा ‘‘तुम यहाँ क्यों आये?

‘‘तुमसे मिलने!’’

‘‘ठीक से बताओ!’’

‘‘मैं अपना मस्तिष्क बेचना चाहता हूँ। क्या तुम खरीदोगे?’’

‘‘मैं बेकार की बातों में समय नष्ट नहीं कर सकता’’ रामेश्वर ने कहा।

‘‘मैं सीरियस हूँ, गम्भीर हूँ- मेरा मस्तिष्क ले लो।’’

रामेश्वर ने देखा कि दूसरे क्षण उसके सर पर आधे दर्जन छोटी बन्दगोभी की भाँति की आकृतियाँ निकल आयीं।

‘‘मुझे तुम्हारे ब्रेन की, मस्तिष्क की जरूरत नहीं है’’

रामेश्वर ने अपनी शाटगन को उस पर उठाते हुए कहा।

‘‘न जाने किस तरह के आदमी तुम हो, मुझ पर शाटगन उठा रहे हो, मत लो मेरा ब्रेन, मेरा दिमाग, पर मुझसे कायदे से, प्यार से, बातें तो करो’’ वह आकृति कह उठी।

‘‘क्या तुम इस लायक हो?’’

‘‘तुम अपने को न जाने क्या समझते हो?’’ कहती हुयी वह आकृति सीर से लगी सड़क पर पीछे की तरफ जाने लगी। रामेश्वर ने चैन की साँस ली। उसे अभी अपनी क्लोन की हुयी गायों को हटाना था। वे अभी जुगाली कर रही थी और उनका गोबर घुटनों तक ऊँचा हो गया था। कभी-कभी रामेश्वर सोचता था कि समस्या से दुर्गंध से मुक्ति पाने के लिए वह भी अन्य किसानों की भाँति बायो-फैब्रीकेटर लगा ले जो भूसे, घास, चूनी, चोकर को दूध में बदल दें- उस दूध को एकत्र कर, पैक करके वह मार्केट में असली गाय का दूध कहकर बेच सकता है। दूध सेन्थेटिक हो या गाय का, वह हर तरह से दूध ही रहेगा। प्रोद्यौगिकी ने असली और नकली का भेद समाप्त कर दिया है। गोबर हटाने की समस्या से मुक्ति उसी समय मिल सकती है जब वह बायोफैब्रीकेटर लगा ले.. .पर तब तक तो...।

वह आकृति धीरे-धीरे चलती सीर की सड़क से दूर होती जा रही थी उसी समय सुपर्णा आ गयी।


‘‘क्या कह रही थी वह आकृति तुमसे?’’

‘‘वह अपना ब्रेन बेंच रही थी और कह रही थी कि वह प्यार चाहती है’’ रामेश्वर ने कहा।

‘‘उसे कौन प्यार करेगा?’’ सुपर्णा ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा।

‘‘कोई पूर्ण स्त्री नहीं’’ रामेश्वर का उत्तर सुनकर सुपर्णा मुस्कुरा उठी। उसे लगा कि रामेश्वर को उसके पूर्ण स्त्री होने पर अब विश्वास हो गया है। वह मन ही मन मुदित हो उठी।

‘‘इस आकृति ने हमारे पूरे दो घण्टे बरबाद कर दिये। सात बज रहा है मैं नाश्ता तैयार करने जा रही हूँ’’ सुपर्णा ने कहा और तेजी से वह किचन में दौड़ती चली गयी। रामेश्वर तेजी से गोबर एकत्र करने वाली आटोमेटिक मशीन चलाकर सारी गौशाला साफ कर चुका था। उसने दुर्गंधनाशक एयरोसाल स्प्रे किया ही था कि सुपर्णा की ‘‘नाश्ता तैयार है’’ आवाज आयी।

वह उसकी आवाज में आ रहे आरोह-अवरोह से समझ गया कि सुपर्णा के मेमोरी-टेप का एडजस्टमेन्ट, संतुलन ठीक करना अब, आवश्यक है। वह यही सोचता, किचन से सटे डाइनिंग रूम में चला गया। उसे सुपर्णा के साथ डाइनिंग रूम में, नाश्ता करना प्रिय था।

चाय पीती हुयी सुपर्णा ने कहा ‘‘तुम अपने सोलर-जनरेटर से जोड़कर, बिजली के तार से सीर की फेसिंग कर दो, जिससे जानवरों के घुसने से और इस आकृति की समस्या से, वृक्षों के फलों को चुराने की समस्या से मुक्ति मिल सके।’’

‘‘मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ, एक दो दिन में कर दूँगा फेसिंग’’ अपनी ब्रेड पर होम-मेड-चीज को नाइफ से बराबर करते रामेश्वर ने कहा।

‘‘शार्दूल कहाँ है? आज वह आया नहीं?’’ चिन्तित स्वर में सुपर्णा ने रामेश्वर से पूछा।

‘‘सो रहा होगा।’’

‘‘उसे बुलाना चाहिये। मैंने उसके लिए भी उबले अण्डे रखे है’’ सुपर्णा के स्वर में आग्रह था।

रामेश्वर ने दीवाल पर लगे टी.वी. स्क्रीन से दृष्टि हटा ली और वायस रेडियो पर उसने शार्दूल को गायों की रखवाली छोड़कर किचन में आने के लिए बुलाया और इसी अन्तराल में उसने अपनी ब्रेक-फास्ट की डिश, चाय के कप, चम्मच आदि को वाशबेसिन में रखकर हॉट-वाटर टैप आन कर दिया। आटोमेटेड वाश बेसिन से सारी चीजें धुलकर, उसके प्लेटफार्म पर आ गयीं।

वापस डायनिंग रूम में शार्दूल अभी तक नहीं आया था। सुपर्णा ने टी.वी. ऑन कर जियो पोजीशनिंग-सिस्टम ऑन कर दिया। इससे वह सीर के भीतर लगे आम के पेड़ों को, सागौन के, इयूकैल्टिस के पेड़ों को देखती उस तालाब के पास पहुँची जहाँ पर उस आकृति ने आकर मछलियों का शिकार किया था बिना उससे या रामेश्वर से पूछे।

उसकी दृष्टि टी.वी. स्क्रीन पर जम गयी। शार्दूल अपने मुख में एक तीन किलों की रोहू दबाये भागता चला आ रहा था। सुपर्णा चकित थीं, कैसे शार्दूल ने उसके लंच में रोहू मछली बनाने के विचार को समझ लिया।

मुख में दबी रोहू के कारण शार्दूल भौंक नहीं रहा थ।


सुपर्णा को लगा कि शायद शार्दूल भी उसकी तरह...। लंच लेते हुये रामेश्वर ने मछली के स्वादिष्ट होने की चर्चा की, उसके प्रतिउत्तर में सुपर्णा की मात्र मंद मुस्कान-स्वीकार्य तथ्य की, प्रशंसा की, सराहनीय की, सूचक थी परन्तु शार्दूल तो भूँककर, गुर्राकर, चप-चप की आवाज निकालकर, दुम हिलाकर अपना हिस्सा मांगने के प्रयास में लगा था।

उसे शान्त करने के लिए सुपर्णा ने शोरबे से तरकर एक रोटी दे दी। शार्दूल पूरी रोटी एक ही बार में सफाचट करके पुनः अपनी गुर्राहट शुरू कर दी। उसकी यह क्रिया उस समय तक चलती रही जब तक उसे उसका अंश मिल नहीं गया। दो लोगों के लिए मछली और वह भी तीन किलो की, अधिक थी इस कारण उसे फ्रिज में रखकर, अपनी प्लेटों को साफकर सुपर्णा और रामेश्वर आधे घण्टे के लिए आराम करने, बेडरूम में चले गये।

जाते हुये रामेश्वर ने शार्दूल को क्लोन्ड बकरियों की रखवाली करने को निर्देश दिया।

अपनी आदत के अनुसार शार्दूल ने भांककर जिम्मेदारी स्वीकार कर ली।

रामेश्वर को आज शॉपिंग करने जाना था। अपने लिए कुछ सामान तथा सीर में लगे पेड़ों में, आम के वृक्षों में डालने के लिए बायो-फर्टिलाइजर और इंसेक्टीसाइडों को खरीदना था। वह अपनी हाइड्रोजन चालित बाइक से मसकनवा बाजार पहुँचने के पहले ट्रेन के बैरियर पर रुका।

यह बैरियर बाजार के ठीक पहले होने के कारण भीड़ नियंत्रक का भी कार्य करता था। वहीं पर रामेश्वर रुक कर ट्रेन के पास हो जाने की प्रतीक्षा करने लगा।

बैरियर को पार करने के बाद उसने काफी दिनों से, बाजार न आ सकने की कमी को, बातूनी यूनुस के ‘‘मसनकवा-रेस्ट्राँ’’ जो पूरा ए.सी. था में बैठकर, कुछ ताजा बातों को सुनकर, पूरा कर लेना चाहा।

यूनुस ने उसका स्वागत किया। उसका रेस्ट्राँ अब पूर्णरूपेण आधुनिक हो गया था। रामेश्वर के लिए ट्राँसपैरेन्ट, पारदर्शक र्पोसीलिन के प्याले में चाय और भाप छोड़ती ताजी खस्ता कचौरी आ गयी और सामने की चेयर पर, कुर्सी पर बैठ गया बातूनी युनूस, सारे क्षेत्र की खबरों का भंडार को लिये।

चाय की सिप के साथ बातों का सिलसिला चल निकला। ‘‘आजकल एक अजीब सा जानवर किसानों को परेशान किये हुये है। वह उनकी खेतों को रौंद डालता है, फसल को नष्ट कर देता है और भगाने पर अजीब सी भाषा जो हमारी आप की भाषा से, जुबान से मेल नहीं खाती है, पर जिसे हम समझ सकते हैं, बोलता है’’ युनूस ने कहा।

‘‘लगता है कि तुम उस आकृति के बारे में बात कर रहे हो जो टै्रक्टर से लम्बी है और खेतों को, आम के पेड़ों को, वृक्षों को हानि पहुँचाती है’’ रामेश्वर की टिप्पणी थी।

‘‘हाँ वही जिसका रंग काला है और जब वह चलता है तो उसके शरीर के भाग दूर से झलकते हैं। अजीब जानवर है वह। हमने तो बहुत से जानवर देखे हैं पर आदमियों की तरह की भाषा बोलने वाला जीव मैंने पहली बार देखा है’’ यूनुस का स्पष्टीकरण रामेश्वर को अच्छा लगा।

‘‘वह पिछले दिन बाबू की सीर में घुसने के चक्कर में था...’’

‘‘फिर तुमने क्या किया?’’

‘‘यूनुस भाई! मैने अपनी आटोमेटिन इलेक्ट्रानिक शाटगन कंधे से उतारकर उससे कहा कि यहाँ से भागो नहीं तो मैं तुम पर फायर कर दूँगा।’’

‘‘वह क्या बोला?’’

‘‘उसने कहा कि फसल को नुकसान पहुँचाने नहीं आया हूँ। मैं तो फूलगोभी की भाँति के अपने मस्तिष्क बेचने आया हूँ... मुझे तो चन्द्रमा पर जाना है’’ रामेश्वर ने बताया।

‘‘क्या समझे तुम उसके चन्द्रमा पर जाने के विषय में?’’

‘‘मुझे तो वह बकवाद करता लगता है, यूनुस।’’

‘‘नहीं यह पूरा सच नहीं है...’’ यूनुस ने कहा।

‘‘फिर तुम्हीं बताओ’’ रामेश्वर अब सुनने की मुद्रा में था, बातों का रसपान करने के मूड में था।

‘‘जब से किसानों ने...’’ यूनुस अपनी बात पूरी न कर सका उससे मुर्गों के लिए वैक्सिन, जो यूनुस के छोटे से कारखाने में बनती थी, वो खरीदने कुछ किसान आ गये।

यूनुस उठकर अपनी दुकान के भीतर गया। स्टोर जो कि पूरा कोल्ड रूम था, से निकलकर जेनेटिक रूप से तैयार की गयी चिकेन-वैक्सिन की शीशी, ग्राहक के हैण्डबैग की तरह के कोल्ड बाक्स में डाल दी।

अपने पर्स में रूपयों को रखता, मन ही मन सोचता कि क्यों आज वैक्सिन के ग्राहक कम आये, यूनुस रामेश्वर की टेबिल के पास जाकर कुर्सी पर बैठ गया।

रामेश्वर की चाय अभी भी गर्म थी, वह उसका सिप ले रहा था।


‘‘क्या शॉपिंग करने आये हो?’’ यूनुस ने मौन तोड़ते हुए जानना चाहा।

‘‘हाँ! काफी दिनों से इधर आया नहीं था, सोचा शॉपिंग के साथ तुमसे ताजा खबरें भी सुना चलूँ’’ ‘‘अच्छा किया आ गये। अब तो आम के बाग में बायोजीन की खाद भी डालनी होगी।’’

‘‘हाँ वह तो है ही, साथ ही साथ मुझे इयूकेलिप्टस द्वारा तैयार की गयी नाइट्रेट-खाद भी बेचनी है’’ रामेश्वर ने चाय को समाप्त करते हुये कहा।

‘‘यदि तुम चाहो तो इस नाईट्रेट को मैं खरीद लूँ।

कितने बैग होगी?’’

‘‘करीब 150 बैग’’ रामेश्वर ने बताया।

‘‘पचास किलो वाले बैग हैं न?’’ यूनुस की आँखों में चतुर व्यापारी की चमक थी।

‘‘हाँ भाई! पचास किलो के बैगों में भरी रखी है यह नाइट्रेट’’ रामेश्वर का उत्तर था।

‘‘कैसे तैयार करते हो यह नाइट्रेट-खाद?’’

कुल पल मौन रहकर, विचारों को सुव्यवस्थित कर रामेश्वर ने बताया ‘‘पौधों की मेटाबालिज्म में जैव प्रौद्योगिकी द्वारा विकसित जैव-रसायन परिवर्तन कर देते हैं और फिर तुम तो जानते ही हो कि इस कार्य के लिए इयूकैलिप्टस के पेड़ अत्यन्त उपयोगी है।’’

‘‘किस तरह?’’ यूनुस जिज्ञासु बन गया।

‘‘सामान्य वृक्षों से यह वृक्ष अधिक मात्रा में जमीन से पानी सोखते हैं और यहीं पर जैव रासायनिक पदार्थ इन वृक्षों के जाइलम में अपना कार्य पूरा करते हैं रामेश्वर ने एक शिक्षक के अंदाज में बताया।

‘‘तो जाइलम में जब पूरी तरह से नाइट्रेट भर जाता होगा, उस अवस्था में....’’ यूनुस ने बात अधूरी छोड़ दी।

‘‘उस अवस्था में यह इयूकैलिप्टस के पेड़ तेजी से बढ़ना शुरू करते हुये दो सौ फिट की ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं।’’

‘‘कितने दिनों में?’’

‘‘एक साल में’’ रामेश्वर ने बताया।

‘‘और फिर?’’

‘‘एक साल के बाद इन वृक्षों की जड़ों में जेनेटिक-कंट्रोल करने वाले इंजाइमों को काफी मात्रा में पानी में मिलाकर डालने के एक दो मास बाद इयूकैलिप्टस के वृक्ष सूखने लगते हैं। इन सूखे वृक्षों को चीर कर, पानी भरे टैंकों में डाल दिया जाता है। नाईट्रेट पानी में आ जाता है, जिसके वाष्पीकरण के बाद शुद्ध नाईट्रेट मिल जाता है।’’

‘‘पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखकर बहुत अच्छी तकनीक यह है’’ यूनुस ने रामेश्वर को अर्थपूर्ण नेत्रों से देखते हुये कहा।


‘‘क्या रेट रहेगा इस सात?’’

‘‘पिछले वर्ष से एक सौ ज्यादा।’’

‘‘ठीक है’’ रामेश्वर का संक्षिप्त उत्तर था, लेकिन एक बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ?’’

‘‘वह क्या है’’ चकित भाव से यूनुस ने जानना चाहा।

‘‘वह आकृति या तुम्हारे शब्दों में वह जानवर क्यों चन्द्रमा पर जाने की बात करता है?’’ रामेश्वर के इन शब्दों ने यूनुस को कुछ सोचने पर बाध्य कर दिया।

कुछ सेकेन्डों के बाद, उसने उत्तर दिया’’ तुम तो जानते हो कि जब भी तुम्हारे इस इयूकैलिप्टस की लकड़ी जलाई जाती है तो उसमें निहित नाईट्रेट तेजी से जलता हुआ, आतिशबाजी का नजारा उत्पन्न करता है। कभी-कभी पूरा का पूरा पेड़ आग लगने पर रावण की तरह जलता है। चिनगारियाँ छोड़ कर धू-धूकर जलता है। वह मूर्ख जीव इसको राकेट समझता होगा...’’ कह कर यूनुस अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने लगा। दूसरे क्षण रामेश्वर ने बात पूरी कर दी ‘‘इसी पर बैठकर वह चन्द्रमा तक जाने का विचार करता होगा।’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूँ’’ यूनुस कहने लगा ‘‘मगर उसकी अक्ल तो देखो?’’

रामेश्वर उठ गया। यह देख यूनुस ने ट्रक भेजने की बात की।

रामेश्वर ने सहमति का संकेत देकर बाइक स्टार्ट कर दी। आवश्यक सामान खरीदता, लोगों से मिलता हुआ जब वह वापस घर पहुँचा, उस समय रात्रि हो गयी थी। अपना गेट खोल वह मकान के पास पहुँचा-वहाँ भी सन्नाटा था। कहाँ है शार्दूल? उसे देखूँ! यह सोच सामान अपने बरामदे की टेबिल पर रख, वह शार्दूल के रूम की ओर चल दिया।

वह शार्दूल के कमरे की दीवार के पास पहुँचा ही था कि एक तेज गुर्राहट ने उसका स्वागत किया।

वह शार्दूल की आवाज से परिचित था।

शार्दूल का थूथुन कमरे से बाहर निकला। गुर्र गुर्र की आवाज के साथ उसकी नाक से धुवाँ निकला।

यह खुशबूदार किमाम का धुवाँ... शार्दूल की नाक से।

शार्दूल उठ गया, उसके मुख में हुक्के का पाइप दबा था जिस पर उसने दम लगाया था। धुयें का गुब्बारा छोड़ता वह, रामेश्वर के पास खड़ा हो गया।

चकित रामेश्वर शार्दूल के बौद्धिक विकास को देख रहा था। वह बरामदे की तरफ चला और दुम हिलाता शार्दूल उसके पीछे-पीछे चला आया।

शाम का खाना खाते समय रामेश्वर और सुपर्णा से बातें हुयी उसी बीच रामेश्वर ने शार्दूल के हुक्का पीने की बात भी बताई। सुनकर चौंकती हुयी सुपर्णा ने कहा ‘‘शार्दूल उसके मस्तिष्क में लगी ‘‘चिप्स’’ के कारण जरूरत से अधिक बुद्धिमान हो गया है, क्यों न उसकी एक चिप को डिएक्टीवेट कर दिया जाये?’’

कुछ सोचते हुये रामेश्वर ने कहा ‘‘फिर वह कोई काम करेगा हो नहीं।’’

सुपर्णा मौन रही।

रामेश्वर सुपर्णा के मौन से परिचित था। वह प्रतीक्षा कर रहा था सुपर्णा के शब्दों की।


‘‘क्या आज रात हम आराम से सो सकेंगें?’’

‘‘तुम्हें शक है?’’

‘‘हाँ!’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मेरा इंथ्यूशन, मेरी प्रेरणा कह रही है कि आज रात में वह आकृति सीर में घुसकर दशहरी आमों को तोड़कर भक्षण करेगी’’ सुपर्णा ने कहा।

‘‘मैं उसका इस बार इंतजाम कर दूँगा’’ कहता रामेश्वर उठा और अपनी ट्रंपमैलाइजिंग राइफल उठा लाया।

टयूबोक्यूरारीन एक मसल टिसैक्सेन्ट (मांसपेशियों को ढीला करने वाला) एलकोलायड है। यह शरीर की मांसपेशियों को शिथिल कर देता है- उन्हें निष्क्रिय कर देता है इतना ही नहीं यह चेहरे की, मस्तिष्क के न्यूट्रानों को भी प्रभावित कर, सभी प्रकार के नियंत्राणों को नष्ट करने में सक्षम है’’ इतना ही नहीं मैं इस डार्ट-सीटिंग में एट्रोफीन भी डाल रहा हूँ।’’

‘‘तुम तो जानती हो सुपर्णा, कि यह, इन एसलकालायडों का मिश्रण उस जीव को, आकृति को, सदैव के लिए सुला देगी’’ रामेश्वर सुपर्णा को बता रहा था।

‘‘सामान्य डोज इस डार्ट में तुमने भरी है या...’’ ‘‘नहीं! सामान्य से दस गुना अधिक मात्रा में इन दोनों एलकोलायडों के मिश्रण को मैंने इस डार्ट में भरा है’’ रामेश्वर ने स्पष्ट कर के डार्टगन किनारे खड़ी कर दी। नींद उसकी आँखों को भारी कर रही थी।

शार्दूल की गुर्राहट ने लगातार भौंकने ने शंका निमग्न निद्रित रामेश्वर की नींद को उड़ा दिया। उसने सुपर्णा को जगाया, सर्चलाइट और डार्ट-राइफल लेकर वह तेजी से उस तरफ चल पड़ा जिधर से शार्दूल के भौंकने की आवाज आ रही थी। वह आकृति दशहरी आमों को तोड़ तोड़कर खाती जा रही थी-गिठली सहित।

यह देख कर रामेश्वर का खून खौल उठा।

‘‘यह क्या कर रहे हो तुम?’’

‘‘आमों को खा रहा हूँ।’’

‘‘क्या तुम इलेक्ट्रिक फेस कूदकर आये?’’

‘‘यह तो तुम समझ ही रहे हो।’’

‘‘अब तुम्हारी यह हरकत बंद हो जानी चाहिये।’’

‘‘ठीक समय पर तुम मुझे यह चेतावनी दे रह हो।

करीब एक क्विंन्टेल आम खाने के बाद मैं जब राकेट से चन्द्रमा से मिलने जाना चाहता हूँ।’’

यह कहता हुआ वह जीव, वह आकृति तेजी से इयूकैलिप्स के पेड़ों की तरफ बढ़ चली। अब उसके हाथ में एक इलेक्ट्रिक लाल रंग का इग्नाइटर-आम लगाने वाला यंत्र था।


‘‘तुम क्यों इन वृक्षों को जलाना चाहते हो?’’

‘‘तुम्हारे लिए यह वृक्ष है पर मेरे लिए चन्द्रमा तक ले जाने वाला राकेट है’’ उस जीव ने यह कहते हुये, एक सूख रहे इयूकैलिप्टस के वृक्ष में इग्नाइटर से आग लगा दी।

नाइट्रेटयुक्त वह वृक्ष आतिशबाजी सा छोड़ता धू धू कर जलने लगा।

यह दृश्य देखकर उस आकृति ने अट्टहास किया।

उसे विध्वंस के दृश्य ने मुदित कर दिया था।

वह दूसरे वृक्ष को आग लगाता, इसे पूर्व डार्टगन का डार्ट उसके शरीर में चुभ गया।

एक जोरदार चीत्कार के साथ वह आकृति, वह जीव जड़वत हो गया। अगले पलों में वह झुकता हुआ गिर पड़ा।

वह कह रहा था ‘‘तुमने मुझे मार दिया, क्या तुम अपनी साईर्बोग पत्नी और कुत्ते को भी मार दोगे?’’

रामेश्वर घर की तरफ जा रहा था कुछ व्यथित सा, चिंतित सा।


ई मेल : rajeevranjan.fzd@gmail.com

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: विज्ञान कथा - अंक 60 - राकेट // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय
विज्ञान कथा - अंक 60 - राकेट // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय
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