श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग // श्रीराम का निस्वार्थ मित्र निषादराज गुह कैसे? // डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री‘, ‘मानस शिरोमणि’’ एवं विद्यावाचस्पति

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  डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री‘, ‘मानस शिरोमणि’’ एवं विद्यावाचस्पति महाभारत के सम्बन्ध में प्रायः ऐसा कहा जाता है कि, जो महाभारत म...

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डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता

‘मानसश्री‘, ‘मानस शिरोमणि’’

एवं

विद्यावाचस्पति

महाभारत के सम्बन्ध में प्रायः ऐसा कहा जाता है कि, जो महाभारत में नहीं है, वह भारत में भी नहीं है। यही बात रामायण के सम्बन्ध में भी चरितार्थ होती है बल्कि, रामायण के सम्बन्ध में एक (कदम) च़रण आगे बढ़कर यह कहा जाता है कि, जो रामायण में नहीं है, वह विश्व में भी नहीं है, क्योंकि रामायण केवल भारत की ही प्राचीन धरोहर नहीं है, वरन वह मानव मात्र की महिमा का गुणगान करने वाली कालजयी (अमर) रचना है। यह देश काल और व्यक्ति की परिकल्पित सीमाओं से अत्यधिक परे हैं। श्रीराम अपने पिता दशरथ तथा माता कैकेयी के आदेश का पालन करने हेतु सीताजी एवं छोटे भाई लक्ष्मणजी के साथ चौदह वर्ष वनवास हेतु गये। उस समय वनवास में उनकी तीन मित्र राजाओं से भेंट हुई। सर्वप्रथम श्रृंगवेरपुर के राजा निषादराज (गुहराज) दूसरे किष्किन्धा नरेश बालि का भाई सुग्रीव एवं अंत में तीसरे लंकेश रावण के भाई, विभीषण से जिन्हें रावण वध के पश्चात् श्रीराम ने लंका के राज्य सिंहासन पर बैठाया।

श्रीराम ने तीनों को मित्र का स्तर व सम्मान दिया किन्तु यदि गम्भीरतापूर्वक शोध किया जावे तो मात्र निषादराज ही निस्वार्थ, निष्काम मित्र की श्रेणी में कसौटी पर रखे जाने पर खरे उतरते हैं। अब यदि सुग्रीव एवं विभीषण के मित्र बनने के प्रसंग पर दृष्टिपात करें तो यहाँ दूध का दूध और पानी का पानी प्राप्त हो जाता है। सुग्रीव ने श्रीराम से बड़ी परीक्षा करने के बाद मित्रता करने के योग्य श्रीराम को स्वीकार किया। यथा -

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा।।

दुंदभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।

श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड 7 - 6

सुग्रीव ने कहा - हे रघुवीर! सुनिये बालि महान बलवान् और अत्यन्त रणधीर है फिर सुग्रीव ने श्रीराम का दुन्दुभि राक्षस की हड्डियाँ और सात ताल के वृक्ष दिखलाये। श्रीराम ने भी उन्हीं सातों वृक्षों को बिना ही परिश्रम आसानी से ढहा दिया। इस तरह ताल वृक्ष के एक साथ छेदन कर तथा राक्षस दुन्दुभि की हड्डियों को मात्र पैर के अँगूठे से दस योजन फैंककर अपनी शक्ति - शौर्य - बल की परीक्षा देना पड़ी। इसके पश्चात् ही सुग्रीव ने अग्नि को साक्षी रखकर श्रीराम से मित्रता का सम्बन्ध बनाया।

विभीषण को भी रावण एवं मेघनाद से प्रताड़ित - अपमानित होने के पश्चात् ही सोचना पड़ा कि अब क्या किया जाय। विभिन्न रामायणों में ऐसा वर्णन है कि, उसकी माता कैकसी ने उसे कहा कि, बेटा अब तू श्रीराम की शरण में चला जा, क्योंकि रावण का कुल सहित नाश होने वाला है। तेरे बच जाने से ही यह वंश समाप्त हो जाने से बच जावेगा। रावण ने विभीषण का जो अपमान किया है वह इस प्रकार है -

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीति। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।

अस कहिं कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।।

श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड 41-3

रावण ने विभीषण से कहा मेरे नगर में रहकर तपस्वियों (श्रीराम - लक्ष्मण) पर मूर्ख प्रेम करता है। उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी। किन्तु छोटेभाई विभीषण ने रावण के द्वारा लात मारने पर भी उसके चरण बार - बार पकड़े। विभीषण अपने मंत्रियों सहित समुद्र के उस पार जहाँ, श्रीराम की सेना थी पहुँच गया। वानरों में जो पहरेदार थे तुरन्त सुग्रीव को सूचना दी कि, शत्रुपक्ष का कोई विशेषदूत आया है। सुग्रीव ने भी श्रीराम को रावण के भाई के आने की सूचना दी तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा कि मित्र अब तुम्हारी क्या राय है?

सुग्रीव ने श्रीराम से राक्षस होने के कारण इच्छानुसार रूप बदलने वाला तथा मायावी होने, सेना का भेद लेने वाला बताकर बाँधकर रखने का परामर्श दिया इस परामर्श के उपरान्त श्रीराम ने कहा कि हे मित्र तुमने तो अच्छी नीति बतायी है किन्तु मेरा प्रण - संकल्प तो है कि, शरणागत के भय को हराना है। श्रीराम ने सुग्रीव से कहा -

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।

श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड 44 - 3

जो मनुष्य निर्मल मन (हृदय) का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं अच्छे लगते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है। मैं इसे प्राणों की तरह रखकर रक्षा करूँगा। इतना ही नहीं श्रीराम ने उसे उस समय ही लंकेश कहकर सम्मान सहित पूछा -

कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।

श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड 45 -2

हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है। इतना ही पर्याप्त नहीं है श्रीराम ने तत्काल समुद्र का जल मंगवाकर उसका राजतिलक कर मित्र घोषित कर दिया। इस तरह विभीषण ने मित्रता के बदले लंका का राज्य प्राप्त किया।

श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में श्रृंगवेरपुर में गंगा के तट पर श्रीराम-लक्ष्मणजी, सीताजी एवं मंत्री सुमन्त्र सहित गंगा की महिमा जानकर सबने स्नान किया। यहीं निषादराज गुह ने यह समाचार सुनकर कि, श्रीराम यहाँ आये तब वह

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बौलाई।।

लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरष अपारा।।

(श्रीरामचरितमानस अयो. - 88 - 1)

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आनन्दित होकर अपने प्रियजन और परिवार को बुला लिया और भेंट देने के लिये फल - मूल (कन्द) लेकर उन्हें भारों में भरकर श्रीराम से मिलने के लिये चल पड़ा। उसका हृदय श्रीराम के आगमन से अपार हर्ष से भर गया। निषादराज अपनी ये भेंट श्रीराम के सामने रखकर प्रेम से उन्हें देखने लगा। श्रीराम ने उसे स्नेहवश अपने पास बैठाकर उसके कुशल होने का पूछा। निषादराज ने श्रीराम से कहा कि, आपके चरणकमल के दर्शनमात्र से कुशल हूँ। यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका ही है। मैं तो आपका दास हूँ। निषादराज ने श्रीराम को श्रृंगवेरपुर में पधारने का निमंत्रण दिया। श्रीराम ने उससे कहा कि, पिताजी ने तो मुझे और ही आज्ञा दी है।

दोहा . - बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारू।

ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारू।।

श्रीरामचरितमानस अयो. दो - 88

हे निषादराज (गुहराज) मेरे पिता की आज्ञानुसार मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारणकर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बड़ा दुःख हुआ।

निषादराज ने श्रीराम को ले जाकर वह स्थान दिखाया जो कि, सब प्रकार से सुन्दर था। गुह द्वारा कुश और कोमल पत्तों की सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी। सीताजी, सुमन्त्रजी, लक्ष्मण सहित फल खाकर श्रीराम विश्राम करने लगे तब लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लग गये। श्रीराम को सोते हुए, जानकर एवं सुमंत्र जी को सोने का कहकर लक्ष्मणजी वहाँ से कुछ दूर जाकर वीरासन से बैठकर जागते हुए पहरा देने लगे। गुह भी अत्यन्त विश्वसनीय पहरेदारों को बुला श्रीराम का पहरा देने का आदेश देकर स्वयं भी कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा।

श्रीराम को जमीन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया। उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं का जल बहने लग गया। उसने लक्ष्मणजी से प्रेमपूर्वक कहा जो श्रीराम और सीता कोमल तकिये और गद्दे जो कि, दूध के फेन के समान बिस्तर पर सोते थे, आज घास - फूस की साथरी पर सोये देखकर, विधाता की प्रतिकूलता ही है।

रामचँदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधिबाम न केही।।

सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू।।

श्रीरामचरितमानस अयोध्या 91 - 4

सीताजी के पति श्रीरामचन्द्रजी हैं, वही जानकी आज जमीन पर सो रही है। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता है! सीताजी और श्रीरामजी क्या वन के योग्य हैं? लोग सत्य कहते हैं कि, कर्म (भाग्य) ही प्रधान है। इतना ही नहीं उसने लक्ष्मणजी से कैकेयी को भी भला - बुरा कहा। इतना सुनकर लक्ष्मणजी ने निषादराज से कहा -

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

श्रीरामचरितमानस अयो. 92 - 2

लक्ष्मणजी ने निषादराज गुह को समझाते हुए कहा कि, संयोग - वियोग, भले -बुरे, शत्रु - मित्र और उदासीन ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म - मृत्यु, सम्पत्ति -विपत्ति, कर्म और काल जहाँ तक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह - अज्ञान ही है। परमार्थ ये नहीं हैं। ऐसा विचारकर क्रोध का परित्याग करना चाहिए। किसी को भी व्यर्थ दोष नहीं देना चाहिए। विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब अज्ञानता का नाश हो जाता है और, श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम हो जाता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के चरणों में प्रेम होना ही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ तथा पुरूषार्थ है। इस प्रकार श्रीरामजी के गुण - गान कहते -कहते सबेरा हो गया।

श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान किया, फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनायीं। यह दृश्य देखकर सुमन्त्रजी के नेत्रों में आँसुओं की धारा बह निकली। श्रीराम एवं सीताजी ने सुमंत्रजी को समझा - बुझाकर अयोध्या जाने हेतु कह दिया। इसके पश्चात् केवट द्वारा श्रीराम के चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर, अपने पितरों को भवसागर से पारकर आनन्दपूर्वक श्रीरामजी को गंगानदी पार ले गया। गंगा पार कर उतरते ही श्रीरामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि, भैया! अब तुम घर जाओ। यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गयी। निषादराज गुह ने हाथ जोड़कर कहा हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिये। मैं आपके साथ रहकर रास्ता दिखाकर आपके चरणों की सेवा करना चाहता हूँ आप जहाँ वन में रहेंगे वहाँ मैं आपके लिये पर्णकुटी बना दूँगा। अंत में निषादराज गुह अपने जाति के लोगों को विदाकर श्रीराम के साथ हो गया।

श्रीरामजी ने रात को भरद्वाजजी के आश्रम में विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके प्रसन्नता के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाकर श्रीसीताजी,लक्ष्मणजी और निषादराज गुह के साथ चल पड़े। श्रीराम के साथ भरद्वाज मुनि ने चार ब्रह्मचारियों को मार्गदर्शक के रूप में साथ भेज दिया। आगे कुछ चलकर श्रीराम ने चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया तथा यमुनाजी पारकर उसमें स्नान किया। यमुनाजी के किनारे रहने वाले स्त्री - पुरूषों को यह ज्ञात हुआ कि, निषादराज के साथ दो परम सुन्दर पुरूष और एक सुन्दर स्त्री आ रही है तो वे सब अपना कामकाज छोड़कर इनके दर्शन हेतु दौड़ पड़े। इसके पश्चात् -

दो. तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।

राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह।।

(श्रीरामचरितमानस अयो. दोहा - 111)

तब श्रीरामचन्द्रजी ने सखा गुहराज को अनेक तरह से समझाकर घर लौट जाने को कहा। श्रीरामचन्द्रजी की बात मानकर, आज्ञा सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया। यही गुहराज की श्रीराम के वन गमन में प्रथम भेंट थी।

श्रीरामचरितमानस में निषादराज गुह का पुनः दूसरी बार भरतजी के चतुरंगिणी सेना तथा परिजन सहित चित्रकूट जाने के पूर्व वर्णन किया गया है।

यथा - सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।

समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सविषादा।।

कारन कवन भरतु बन जाहीं। हैं कछु कपट भाउ मन माहीं।।

जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।

श्रीरामचरितमानस अयो. 189 - 1 - 2

भरत परिजन एवं सेना सहित रातभर सई नदी के किनारे निवास करके प्रातःकाल वहाँ से चल दिये और सब श्रृंगबेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार सुने तो वह अत्यन्त ही दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा कि क्या, कारण है जो भरतजी वन को जा रहे हैं, मन में कुछ कपटभाव अवश्य है। यदि इनके मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों लेकर चले हैं? निषादराज गुह श्रीराम के अनन्य सखा थे, अतः उन्होंने, अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए अपनी जातिवालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। सबसे पहले नावों को हाथ में (कब्जे में) कर लो फिर इन्हें डूबो दो तथा सब घाटों को रोक दो। इतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि भरत से युद्ध में लड़कर मरने को तैयार हो जाओ।

निषादराज ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि युद्ध में मरण फिर गंगाजी के तट, श्रीरामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर, भरत श्रीराम के भाई और राजा तथा मैं नीच सेवक - बड़े भाग्य से ही ऐसी मृत्यु मिलती है। इस प्रकार श्रीराम के लिये एक श्रेष्ठ सखा - मित्र के रूप में अपने प्राण-समर्पण करने का दृढ़ निश्चय करके तुरन्त ही तरकस,धनुष और कवच मँगवाकर तैयार हो गया। निषादराज के सभी जातिगण भाथियों बाँधकर,धनुहियों पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर तैयार हो गये। कुछ निषाद कवच पहनकर सिरपर लोहे का टोप रखकर, फरसे, भाले, बरछों सहित युद्ध हेतु तैयार हो गये। निषादों ने कहा कि आज श्रीरामजी के प्रताप और आपके बलपर भरत की सेना को वीरहीन तथा अश्वहीन कर देंगे। तभी एक वृद्ध ने बायीं ओर छींक सुनकर निषादराज को भरतजी से मिलने का कहा तथा यह भी कहा कि शकुन कहता है कि आज लड़ाई नहीं होगी। भरतजी श्रीरामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं।

निषादराज गुह ने कहा कि जल्दी में बिना विचारे कोई काम करके मूर्ख पछताते हैं। अतः भरतजी का शील स्वभाव बिना समझे और युद्ध करना उचित नहीं है। गुहराज ने अपने लोगों से कहा कि मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूँ। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह जानकर ही अलग प्रबन्ध करूँगा। ऐसा कहकर निषादराज गुह ने सर्वप्रथम वशिष्ठजी को देखा तथा अपना नाम लेकर दूर से ही दण्डवत प्रणाम किया। वसिष्ठजी ने उसे श्रीराम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया तथा भरतजी को कहा कि, यह राम का मित्र है। इतना सुनते ही भरतजी रथ से उतर गये। निषादराज गुह ने भी अपना गाँव, जाति और नाम सुनाकर उनका माथा टेककर जोहार की।

दो. करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।

मनहुँ लखन सन भेंट मई प्रेमु न हृदय समाइ।।

श्रीरामचरितमानस अयो. 193

दण्डवत करते हुए निषादराज गुह को देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। भरतजी को ऐसा लगा मानो उनकी लक्ष्मणजी से भेंट हुई हो। यह दोनों का मिलन अद्भुत था, उस समय की सामाजिकता, समानता,समरसता का श्रेष्ठ उदाहरण है। श्रीरामसखा निषादराज से भरतजी प्रेमपूर्वक मिलने के पश्चात् उससे उसकी कुशल - मंगल और क्षेम पूछी। भरतजी के शील और प्रेम को देखकर निषादराज गुह विदेह हो गया अर्थात् प्रेम के सागर में उसे अपनी देह की सुध भी नहीं रही। इसी समय निषादराज गुह शत्रुघ्नजी के साथ ही साथ अपना परिचय देकर सभी रानियों को आदरपूर्वक जोहार की। रानियों ने उसे लक्ष्मणजी के समान मानकर सौ लाख वर्षों तक सुखपूर्वक जीवित रहने का आशीर्वाद दिया।

निषाद ने उन सबको साथ ले लिया। सभी सेवकों को इशारे से इन सबके ठहरने की व्यवस्था इंगित कर दी। भरतजी ने निषाद से कहा कि, मुझे उस स्थान पर ले चलो, जहाँ सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मण ने रात्रि बितायी थी। निषादराज गुह ने वह पवित्र अशोक वृक्ष बताया जहाँ श्रीरामजी और सीताजी ने विश्राम किया था। भरतजी ने उस स्थान पर दण्डवत प्रणाम किया। कुशों की साथरी को देखकर प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। भरतजी को दो चार स्वर्णबिन्दु दिखे जो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया। लक्ष्मणजी की प्रशंसा कर कहा कि ऐसा भाई न तो किसी के हुए न हैं, न होने के ही हैं। भरतजी ने कहा कि विधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामिद्रोही बना दिया। यह सुनकर निषादराज ने भरत को समझाया तथा कहा कि, दोष तो प्रतिकूल विधाता का है। श्रीरामजी अन्तर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचारकर और मन में दृढ़ता लाकर विश्राम करने के लिये निषादराज ने भरत से कहा।

चार घड़ी में सब गंगाजी के पार उतर गये। भरतजी ने निषादगणों को आगे रास्ता दिखलाने हेतु साथ ले लिया। भरद्वाज मुनि के आश्रम में रूककर फिर निषादराज के ही साथ चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया। रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वत शिरोमणि कामदगिरि भरतजी को दिखलाया जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर श्रीसीताजी सहित दोनों भाई निवास करते हैं। उसी समय कोल - भीलों ने आकर भरत - शत्रुघ्न का चतुरंगिणी सेना सहित आगमन का समाचार श्रीराम से कहा श्रीराम भरतजी के चरित्र को जानते थे अतः उन्होंने उसकी चिन्ता नहीं की। यथा

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।

कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।

श्रीरामचरितमानस अयो. 233 - 1

यदि जगत् में भरत का जन्म न होता,तो पृथ्वी पर सम्पूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता ? हे रघुनाथजी! कविकुल के लिये अगम (उनकी कल्पना से अतीत) भरतजी के गुणों की कथा आपके सिवाय और कौन जान सकता है? फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरू और मंत्री की आज्ञा प्राप्तकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ सीताजी और श्रीरघुनाथजी थे। लक्ष्मणजी ने प्रेमसहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा हे रघुनाथजी - भरत आये एवं आपको प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्रीरघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा कहीं तरकस कहीं धनुष और कहीं बाण श्रीराम भरत - मिलन का प्रसंग श्रीरामचरितमानस का सर्वाधिक मार्मिक एवं आकर्षक प्रसंग है। श्रीरामजी इसके बाद शत्रुघ्न एवं निषादराज से मिले। लक्ष्मणजी से भरतजी प्रेमपूर्वक मिले। लक्ष्मणजी बड़ी उमंग के साथ छोटे भाई शत्रुघ्न से भी मिले। भरतजी को श्रीराम ने समझा - बुझाकर खड़ाऊँ (चरण पादुका) देकर अयोध्या जाने को कहा। फिर -

बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह विषादू।।

कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जौहारि जोहारी।।

श्रीरामचरितमानस अयो. 321-1

सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला गया तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह, बड़ा भारी विषाद था। फिर श्रीरामजी ने कोल - किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया। वे सब जोहारकर (वंदनाकर) लौट गये।

निषाद और श्रीरामजी के मित्रता का अंतिम वर्णन मानस के उत्तरकाण्ड में प्राप्त होता है। यहीं प्रसंग श्रीराम और निषादराजगुह का मानस में मित्रों - वानरों के विदाई के समय वर्णित है। यथा -

दो. अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।

श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दो. 16

श्रीराम के राज्याभिषेक हो जाने के पश्चात् उन्होंने अपने सभी मित्रों - वानरों को कहा - हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करनेवाला जानकर अत्यन्त प्रेम करना। इन मित्रों में विभीषण,सुग्रीव, निषादराजगुह के अतिरिक्त जाम्बवानजी, नील, अंगद हनुमान आदि भी थे। अंत में निषादराजगुह के विदाई के अवसर पर श्रीराम ने उसे इस प्रकार विदा किया।

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हें भूषन बसन प्रसादा।।

जाहु भवन मम सुमिरन करेहु। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहु।।

तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।

बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।

श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड20 - 1-2

कृपालु श्रीरामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र, प्रसाद देकर कहा अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन,वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार रहना। तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो। अयोध्या में सदा आते - जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसको बहुत अधिक सुख प्राप्त हुआ। उसके नेत्रों में श्रीराम के प्रेम और आनन्द के आँसुओं की जलधारा बह निकली। अंत में श्रीराम के चरणकमलों को हृदय में रखकर अपने घर आ गया।

श्रीराम का निषादराजगुह बाल्यावस्था का निष्कपट अनन्य मित्र था। उसकी मित्रता के पीछे कोई निजी स्वार्थ नहीं था। बाल्यावस्था के मित्र आज भी निषादराज के समान हमें हमारे जीवन में बहुत कम मिलते हैं। युवावस्था के मित्र अवसरवादी-स्वार्थी तथा ईर्ष्यालु देखे गये हैं। श्रीराम की मित्रता सबसे ही निस्वार्थ और प्रेम की रही है। यथा -

वाल्मीकीय रामायण में भी मित्रता के सम्बन्ध में इस प्रकार वर्णित किया गया है कि -

स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते। (युद्ध कां. 63,27)

सारा काम नष्ट हो जाने से दुखी हुए मित्र पर अकारण (निःस्वार्थ) अनुग्रह (सहायता) करने वाला ही मित्र है।

सौहृदाज्जायते मित्रमपकारोsरिलक्षणम्। (युद्ध कां. 127,47)

स्नेहपूर्ण व्यवहार से मित्र और बुरे व्यवहार से शत्रु बनते हैं।

‘‘रामहि केवल प्रेमु पिआरा, जानि लेउ जो जाननिहारा।।

श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड 137 - 1

श्रीराम को केवल प्रेम ही प्रिय है जो जानना चाहे वह इसे समझ ले।

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डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता

‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि, एवं विद्यावाचस्पति,

सीनि. एमआईजी - 103, व्यासनगर, ऋषिनगर

विस्तार उज्जैन, (म.प्र.) पिनकोड - 456010

 

Emai drnarendrakmehta@gmail.com

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग // श्रीराम का निस्वार्थ मित्र निषादराज गुह कैसे? // डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री‘, ‘मानस शिरोमणि’’ एवं विद्यावाचस्पति
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग // श्रीराम का निस्वार्थ मित्र निषादराज गुह कैसे? // डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानसश्री‘, ‘मानस शिरोमणि’’ एवं विद्यावाचस्पति
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