एक दीवाली दो व्यंग्य // अशोक गौतम

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1 दीवाली पर्व और दिवालिया उल्लू दीवाली तक आते आते पूरी तरह दिवालिया हो चुका हूं। बस , लक्ष्मी से अब यही कामना है कि मेरे पिछले चार साल से सर...

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दीवाली पर्व और दिवालिया उल्लू

दीवाली तक आते आते पूरी तरह दिवालिया हो चुका हूं। बस , लक्ष्मी से अब यही कामना है कि मेरे पिछले चार साल से सरकार के पास फंसे पंद्रह लाख दिलवा दें तो मैं चार चार लोनों की किस्तों से फ्री हो जाऊं। पंद्रह लाख के चक्कर में पता नहीं किस किससे सीना चौड़ा कर उधार ले चुका हूं । समझदारों से मेरी बस यही अपील है कि वे सबके झांसे में आएं , पर कम से कम सरकार के झांसे में मर कर भी न आएं।

अपने दिवालिएपन से निजात पाने के लिए डिजिटल इंडिया के दौर में दूर दूर तक कोई उल्लू जुआरी नहीं दिख रहा। मैं हारे हुए राजनीतिज्ञ की तरह अब कोई भी दाव चलने को तैयार हूं। असल में जिंदगी में दिवालिया हुआ आदमी और राजनीति में कुर्सी से हारा राजनीतिज्ञ कुर्सी पाने के लिए कोई भी दाव चलने को सीना तान कर तैयार रहता है।

काश! दीवाली साल के अंत में न आकर साल के शुरू में आ जाया करती। भैया, यहां तक आते आते पेट्रोल, गैस ने खाली गाड़ी , बुझी रसोई के पेट में गैस बनानी तो शुरू कर ही दी है, मेरे खाली पेट में भी गैस बननी शुरू हो गई है। खाली पेट में भी गैस बनती है, अब पता चला। दूर दूर तक अंधेरा नजर आ रहा है। हे मेड इन चाइना के चांद तुम कहां हो?आओ, आकर हमारी भौतिकता की अमावस्या को हरो। हमारा भौतिक, धार्मिक गुजारा तुम्हारे बहिष्कार के बिना संभव नहीं। कहने वाले जो चाहे कहते रहें। हे मेड इन चाइना के राम तुम कहां हो? हे मेड इन चाइना की लक्ष्मी तुम कहां हो? हमारे पूंजीपतियों के उद्योगों ने अब अपने भगवान का उत्पादन करना बंद कर दिया है। कहते हैं , उनके यहां के भगवान पर उत्पादन खर्चा चाइना के मुकाबले अधिक बैठता है। अपने भगवान अपनी फैक्टरी में बनाना घोटे का सौदा है। उद्योगपति सब कुछ कर सकता है पर घोटे का सौदा कभी नहीं कर सकता। देश धर्म के हित में तो कतई नहीं। वैसे भी अपने राम तो बेचारे राजनीति का शिकार हुए बैठे हैं। राम ही जाने उन्हें अपने देश के राजनीतिज्ञों से कब मुक्ति मिले?

दिवालिया होने के बावजूद भी मैंने पटाखे फोड़ने का पूरा दम भरा हुआ है। जहां पटाखे हैं, वहां उल्लास है। शाम हो तो दो घंटों के बीच ही इतने पटाखे फोड़ दूं कि... कोर्ट को पता चले कि दो घंटे में भी हम पूरे दिन के बराबर पटाखे फोड़ने की महारत रखते हैं। धर्म के तो धर्म के, मेरे कान भी बहरे हो जाएं तो हो जाएं। वायु प्रदूषण अपने चरम पर चला जाए तो चला जाए। अब धर्म पटाखों के बीच ही तो बचा है। हे धर्माधिक्कारियो! जहां चोंचलापन नहीं , समझ लो वह धर्म धर्म संकट में है। वैसे राजनीतिक पटाखे छोड़ने वाले तो बिन दीवाली भी पटाखे छोड़ते रहते हैं कभी इस मंच से, तो कभी उस मंच से। समझ में नहीं आता कोर्ट ऐसे पटाखे छोड़ने वालों पर समय की पाबंदी क्यों नहीं लगाता? इनके छोड़े पटाखों से सामाजिक , धार्मिक, राजनीतिक प्रदूषण इतना फैलता है कि पूछो ही मत।

दीवाली को राम का इंतजार वे भी कर रहे हैं जिन्हें आदर्शों से सख्त परहेज है। उन्हें लगता है शायद अब के राम उनकी भी राजनीतिक नाव पार लगा दें। राम आने के लिए कोर्ट के आदेश से लेकर अध्यादेश , धर्मादेश का मुंह ताक रहे हैं। राम अपने पर भी हंस रहे हैं और समाज पर भी। किस राजनीति में फंस गया यार? राजनीति के पाटों के बीच फंसना सबसे खतरनाक होता है। इनमें से जो बचकर निकल जाए सोई सुजान!

घर की वैभव लोलुप लक्ष्मी स्वर्ग की लक्ष्मी के इंतजार में बार बार बेचैन हो बाहर के दरवाजे की ओर ताक रही है, उसके कान उल्लू के पंखों की फड़फड़ाहट सुनने को बेचैन हैं। कारण, मुझ जैसे उल्लू के मुंह से तो अब आह भी नहीं निकलती।

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मिठाई चाटने वाली, मिठाई बांटने वाली

मैं थर्ड क्लास सफल कारोबारी हूं, सो हर तीज त्योहार को अपने घर मिठाई ले जाना भूल जाऊं तो भूल जाऊं, पर जिन अफसरों से मेरा साल भर काम करवाने के लिए वास्ता पड़ता रहता है, उनके घर मिठाई ले जाना नहीं भूलता। उन्हें भी पता है कि कोई तीज त्योहार पर उनके घर आए या न , पर मैं जरूर आऊंगा। इसलिए वे मेरे आने का इंतजार करते रहते हैं।

पिछले त्योहारों की तरह अबके फिर दीवाली को सारे काम छोड़ अपने काम आने वाले अफसरों के घर मिठाई देने की रस्म निभाने बाजार की तरफ ज्यों ही निकलने लगा कि बीवी ने मेरे रास्ते में टांग अड़ाते कहा,‘ अजी, कहां जा रहे हो? लक्ष्मी के आने का वक्त हो रहा है और तुम...’

‘ अरी भागवान! मेरी लक्ष्मी तो वे हैं जिनकी वजह से सारा साल रेत की दीवारें चिनता रहता हूं। आज उनकी पूजा का दिन है सो.... आप तो जानते ही हैं कि तीज त्योहार के बहाने जो किसी काम आने वाले अफसर को गिफ्ट दे दिया जाए तो साल भर के डर का झंझट खत्म हो जाता है। तभी तो मेरी बगल में रहने वाले अफसर के घर तीज त्योहार पर गिफ्ट देने वालों की इतनी भीड़ लगी होती है कि जितनी छोटे मोटे गिफ्ट वाले की दुकान पर भी न लगती होगी।

तीज त्योहार असल में अफसरों को गिफ्ट देने का एक शास्त्रसम्मत बहाना होता है। उन्हें भी पता होता है कि फलां बंदे ने त्योहार पर साल भर का एडवांस उन्हें दे रखा है। अब जैसे भी हो उसका काम तो करना ही पड़ेगा, गिफ्ट की लाज तो बचानी ही पड़ेगी। अपनी बचे या न। आजकल समाज में अपनी लाज से अधिक बड़ी गिफ्ट की लाज हो गई है सर!

इसलिए गिफ्ट देने का एक और पवित्र बहाना हाथ आया देख मैं घरवाली की परवाह किए बिना उठा और सीधा मिठाई वाले की दुकान पर जा पहुंचा। तथाकथित त्योहारी हलवाई उस वक्त मिठाई की चाश्‍नी में सना अपने गमछे से मिठाई पर से मक्खियां उड़ा रहा था। मैंने मिठाई पर बैठी मक्खियों की ओर कोई ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि मुझे पता था कि यह मिठाई कौन सी अपने घर ले जा रहा हूं। मुझे तो एक परंपरा निभानी है बस। सो हलवाई से कहा,‘ भैया! मिठाई के आठ डिब्बे देना।’

‘कौन से वाली? इधर वाली या उधर वाली?’

‘इधर उधर वाली से क्या मतलब? अरे ये दे दो,’ मैंने उसकी उस ओर की मिठाई को दूर से उंगली लगाई। राम जाने दीवाली की खुशी के बहाने कंबख्त क्या बेच रहा होगा? कहीं छूने भर से ही जो बीमारी ने लपक लिया तो.... सैंपल भरने वालों का क्या! वे तो उससे दीवाली वसूल अपने हो लिए हैं। मिठाइयों के सैंपल जाएं भाड़ में। खाने वाले जाएं भाड़ में।

‘ अरे बाबू जी भड़क काहे रहे हो? मिठाई दो तरह की है। ये वाली अलग , वो वाली अलग।’

‘दो तरह की बोले तो?’

‘ एक चाटने वाली तो दूसरी बांटने वाली।’

‘मतलब? मिठाई तो जो भी हो, चाटने वाली ही होती है न?’

‘जो घर को ले जानी हो तो चाटने वाली ले जाओ और जो किसी को गिफ्ट देनी है तो बांटने वाली। बोलो कौन सी दूं?’ उसने मिठाइयों का त्योहार सम्मत वर्गीकरण किया।

‘बांटने को ले जानी है,’ मैंने दबे स्वर में कहा तो वह चहकते बोला,‘ तो खुलकर बोलो न बाबूजी! तीज त्योहारों पर लोग बांटने वाली ही मिठाई अधिक ले जाते हैं।’

‘तो बांटने वाली ही दे दो,’ मैंने चार पैसे बचाने की सोची और बगल में बांटने वाली मिठाई के थ्री डी डिब्बे दबा उनके घर को हो लिया, उन्हें दीवाली शुभ कहने।

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अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़

नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

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रचनाकार: एक दीवाली दो व्यंग्य // अशोक गौतम
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