आलेख // शब्द // अजय अमिताभ सुमन

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अजीब विरोधाभास है शब्दों में। अजीब द्वंद्व है शब्द भरोसे में, विश्वास में, आस्था में, घृणा में, प्रेम में। दरअसल शब्दों का कार्य है एक खास तरह के विचार को प्रस्तुत करना। किसी मनःस्थिति, परिस्थिति, भाव , वस्तु , रंग, दिशा, दशा, जगह, स्थान, गुण, अवगुण इत्यादि को दर्शाना। शब्दों का मानव के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। शब्दों के कारण वो पशु से अलग हो पाया। अपने मन के दशा के प्रस्तुतिकरण में मानव ने शब्दों का बहुत ही खूबसूरत उपयोग किया।

जरा सोचिए अगर किसी  बंदर को कोई चीज मीठी लगती है तो वो  उस मीठेपन के एहसास को अपने किसी अन्य बंदर  मित्र को कैसे बता पाएगा? ठीक इसी तरह से बंदर खट्टापन, तीखापन आदि स्वादों के अनुभवों को अपने मित्रों के साथ बंटा नहीं सकता। बंदर मीठापन, खट्टापन, तीखापन में अंतर को समझा नहीं सकता। भाव की अनुभूति तो पशु और जानवरों के स्वभाव में भी है पर मानव की तरह जानवरों में शब्दों द्वारा सम्प्रेषण करने का अभाव है।

जानवर और मानव में इन शब्दों के कारण बहुत बड़ा अन्तर पैदा हुआ है। मानव अपने शब्दों के उपयोग के कारण मीठापन, खट्टापन, तीखापन इत्यादि में अन्तर को बोल कर या लिख कर बता सकता है। अपने मन की दशा को शब्दों के द्वारा बोलकर भी बता सकता है और लिपिबद्ध कर दूसरों को दर्शा सकता है। जरा सोचिए अगर किसी हाथी को ये ज्ञात होता है कि लगभग दस किलोमीटर दूर एक दलदल है, तो इस बात को वो अपने मित्रों को कैसे बताएगा? जबकि मानव के पास इसके शब्द, इसके अक्षर हथियार है जिसका उपयोग कर वो अपने मित्रों को राह के मार्ग में आने वाले खतरों के बारे आगाह कर सकता है। वो खतरनाक जगहों पे चेतावनी का साइन बोर्ड लगा सकता है।

शब्दों का उपयोग मानव एक विशेष भाव, दशा, वस्तु या निरीक्षण आदि को दृष्टि गोचित करने के लिए करता रहा है। यानी कि यदि कोई चीज मीठी है तो उसे मीठा कहता है। यदि कोई वस्तु खट्टा है तो उसे खट्टा कहता है। खुशी, निराशा, लाल, पिला, दुखी, हंसी, प्रेम, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या इत्यादि शब्द उसके मिलते जुलते भाव या रंग को परिलक्षित करते हैं। ये शब्द वो शब्द हैं जिन्हें मानव ठीक वैसे ही इस्तेमाल करता है जैसे ये हैं। यानी पहाड़, नदी, झरना आदि शब्दों का इस्तेमाल करता है तो हर बार ये शब्द पहाड़, नदी, झरना आदि ही बताएंगे। सेब मीठा है तो मीठा बताने के अलावा कोई उपाय नहीं है। जबकि वो मिर्च को मीठा कह ही नहीं सकता। जब तक मानव इन चीजों को दर्शाने के लिए शब्दों का इस्तेमाल करता रहा, तबतक शब्द वो ही अर्थ बताते थे, जिसके लिए इन्हें बनाया है।

समय बीतने के साथ मानव द्वारा इन शब्दों का इस्तेमाल अलग तरीके से किया जाने लगा। यह शुरू हुआ मानव के व्यक्तित्व के निर्माण के साथ। शुरुआत में मानव मानव हीं था। जब मानव का विकास व्यक्ति में परिवर्तित हो होने लगा वो कालांतर में  ऐसे अनगिनत शब्दों का उपयोग होना शुरू हो गया जो वास्तव में जिस अर्थ को परिलक्षित करने के लिए बनाए गए, वास्तव में वो उसके विपरीत अर्थ परिलक्षित करने के लिए इस्तेमाल किये जाने लगे। इन विरोधाभासी शब्दों के कारण आदमी आदमी हो पाया। पर इन शब्दों के कारण आदमी आदमी रह भी नहीं पाया। आदमी के स्वभाव के समझने के लिए शब्दों का ज्ञान होना ही काफी नहीं है। शब्दों का वास्तविक अर्थ तो अनुभव से समझ में आता है।

भरोसा, विश्वास, आस्था , प्रेम इत्यादि ऐसे ही शब्द हैं। जब तक मानव शब्दों का इस्तेमाल वस्तुओं के प्रस्तुतिकरण के लिए करता रहा तब तक शब्दों का इस्तेमाल सही रहा। जैसे कि आलू, टमाटर, गाजर, लाल, पिला, नदी, पहाड़ इत्यादि शब्द आलू, टमाटर, गाजर, लाल, पिला, नदी, पहाड़  को परिलक्षित करते हैं। मानव यदि किसी भी परिस्थितियों में इन शब्दों का इस्तेमाल करता है तो ये शब्द उन्हीं वस्तुओं या तथ्यों को दृष्टिगोचित करते हैं।

समस्या तब हुई जब मानव ने अपने भावों का का सम्प्रेषण शब्दों के द्वारा करना शुरू किया । भरोसा, विश्वास, आस्था , प्रेम ऐसे ही शब्द हैं जिनमें विरोधाभास आपने आप में छिपा है। जब भी आदमी विश्वास , भरोसा या आस्था की बात करता है तब वो संशय और अनास्था को दृष्टिगोचित करता है।

आप अपने हाथ मे सेब रखकर कभी नहीं कहते हो कि मैं भरोसा करता हूँ कि सेब है। यदि सेब हाथ में है तो फिर भरोसा करने की क्या बात है?सेब हाथ में है तो हाथ में है। आप कभी भी ये नहीं कहते है कि मैं भरोसा करता हूँ कि सूरज है। आप सूरज को रोज देखते हैं, फिर विश्वास करने की जरूरत क्या है?सूरज है तो सूरज है। इसमें विश्वास की कोई बात ही नहीं । इसमें भरोसे की कोई बात ही नहीं।

माँ को कभी भी अपने बेटे को कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि उसे अपने बेटे से प्रेम है। यदि माँ है तो बेटे से प्रेम का होना स्वाभाविक है। एक व्यक्ति को अपनी प्रेमिका को बार बार कहना पड़ता है कि उसे प्रेम है, क्योंकि संदेह है वहाँ पर। यदि कोई कहता है कि सच बोल रहा हूँ, इसका मतलब कोई झूठ छुपा रहा है। यदि मानव बार बार  ईश्वर पे भरोसे की बात करता है तो इसका कुल मतलब ये है कि उसे ईश्वर पे भरोसा नहीं है।

जबतक मानव मानव रहा, तब तक शब्द शब्द रहे और इनका अर्थ अर्थ रहा। शब्दों के खेल के व्यापार का आरम्भ समाज द्वारा मानव के ऊपर व्यक्तित्व आरोपित करने के कारण हुआ। पहले मानव मानव था, क्योंकि पहले गुस्सा आने पर क्रोध करता था। यदि वासना के अभिभूत होता तो मर्यादा की दुहाई देने वाला कोई नहीं था। समस्या तब शुरू हुई जब समाज द्वारा मानव पर व्यक्तित्व का लबादा लादा गया। अब उसे क्रोध करने, प्रेम करने के अनगिनत मर्यादाओं में बांध दिया गया। अब क्रोध आने पे प्रेम का खिलवाड़ करना पड़ता। जाहिर सी बात थी प्रेम का ज्यादातर उपयोग क्रोध को छिपाने के लिए ही किया जाने लगा। आस्था का उपयोग वहीं किया जाने लगा जहाँ पे संशय होता था।

समय के साथ मानव ने जिन शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू किया, उसका कुल मतलब इतना होता ही था कि वो शब्द अपने अर्थों के विपरीत अर्थ को निहित किये हुए उपयोग किये जाते थे। यानी विश्वास शब्द अविश्वास को छिपाए हुए है। यद्यपि विश्वास शब्द भरोसे को दिखाने के लिए बनाया गया पर इसका इस्तेमाल होता हीं वहीं है जहां संशय है। इस तरह शब्दों के प्रयोग का कुल इतना ही मतलब है कि मानव का व्यक्तित्व स्वयं में विरोधाभासों के समुच्चयिकरण का निचोड़ है जहाँ पे शब्द उसके विपरीत भावों का ही प्रतिफलन करते हैं और इसका मूल कारण है समाज द्वारा मैन पे छद्म व्यक्तित्व का आरोपण।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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