प्राची - जनवरी 2019 : संपादकीय - प्रजातंत्र बनाम राजतंत्र - राकेश भ्रमर

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1. उस आजाद मुल्क के एक प्रदेश में एक ग्वालापुत्र मुख्यमंत्री बना तो पन्द्रह सालों में वह अरबपति बन गया। जब वह बेरोजगार था और चप्पल घसीटता हु...

1. उस आजाद मुल्क के एक प्रदेश में एक ग्वालापुत्र मुख्यमंत्री बना तो पन्द्रह सालों में वह अरबपति बन गया। जब वह बेरोजगार था और चप्पल घसीटता हुआ राजनीति करता था तो उसे अपने ससुर से पांच हजार रुपये उधार लेने पड़े थे और अब वह अपनी बेटियों की शादी में करोड़ों रुपये का दहेज देने की क्षमता रखता है।

2. एक दूसरे प्रदेश के मुख्यमंत्री भी इसी तरह अरबपति बन गए। राजनीति में आने के पहले वह एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे और पहलवानी करते थे। थोड़ी बहुत खेती की जमीन भी थी, परन्तु अब उनका और उनके वारिसों का करोड़ों रुपये का निवेश बड़ी-बड़ी कंपनियों में है।

3. एक और मुख्यमंत्री भी राजनीति की बदौलत अरबपति बन गईं हैं। वह भी अध्यापिका थीं और सत्ता में आने के पहले सवर्णों को गालियां देती थीं। अब अमीर बनने के बाद वह सभी को अपना दोस्त समझने लगी हैं, लेकिन अपनी जाति के लोगों से घृणा करती हैं।

सम्पादकीय

प्रजातंत्र बनाम राजतंत्र

राकेश भ्रमर

एक अनाम देश जब आजाद हुआ तो कुछ आभिजात्य वर्ग के लोगों से सोचा कि अब देश में कौन सी शासन व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। अभी तक देश में बहुत सारे राजे-रजवाड़े थे और वह एक विदेशी सत्ता के साए में अपने-अपने ढंग से राजकाज चला रहे थे। परन्तु अब देश आजाद हो चुका था। राजाओं का अस्तित्व समाप्त हो गया था। देश में एक सत्ता की आवश्यकता थी। बहुत विचार-विमर्श के बाद यह तय हुआ कि देश में जो शासनतंत्र लागू किया जाए, उसे प्रजातंत्र का नाम दिया जाए। इसके पीछे यह विचारधारणा कार्य कर रही थी कि वास्तविक रूप में चूंकि शासन अब जनता के हाथों में आया है तो इसे प्रजातंत्र का नाम देना उचित और सामयिक होगा। जनता के कुछ कुलीन, अमीर और सभ्य लोगों द्वारा तय की गई यह व्यवस्था सभी लोगों को बहुत भाई कि देश में अब प्रजा यानी जनता यानी आम आदमी का राज्य होगा और वह अपनी इच्छा से जिसे चाहेगा उसके हाथों में सत्ता सौंप सकेगा। जो व्यक्ति या व्यक्ति समूह सत्ता पर काबिज रहेगा वह देश का शासन तो चलाएगा, परन्तु जनता पर शासन नहीं करेगा। अतएव एक शुभ दिन इस देश का संविधान भी पारित हो गया और संविधान में इसे गणतंत्र नाम की संज्ञा से विभूषित किया गया। हालांकि आम जनता को यह नाम न तो याद है, न उसे याद रहता है। स्कूल, कालेजों और सरकारी संस्थाओं में अवश्य इसकी वर्षगांठ के उपलक्ष में विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, तभी शिक्षित लोगों को पता चलता है कि हमारा देश एक प्रभुसत्ता संपन्न गणतंत्र देश है। अशिक्षित और गंवार जनता को तो ये भी पता नहीं है कि इस देश में उनका ही शासन है, जिसे प्रजातंत्र, लोकतंत्र, गणतंत्र और जनतंत्र जैसे नामों से जाना जाता है, परन्तु जनता की तंत्र में भागीदारी कहां तक है, उसे नहीं पता। हां केवल वोट देना ही अगर प्रजातंत्र में प्रजा की भागीदारी है, तो वह पूरी तरह से इस देश का शासन चलाने के लिए जिम्मेदार है।

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जनता के कुछ आभिजात्य वर्ग के लोगों द्वारा प्रारंभ किया गया प्रजातंत्र अब पूरी तरह से जनता के उस वर्ग के लोगों के कब्जे में आ गया है, जो पैदा तो आमजन की तरह हुए थे, परन्तु अपने कुछ विशेष गुणों के कारण, यथा- गुण्डागर्दी, बदमाशी, चोरी-डकैती, कत्ले-आम, लूट-पाट, शोषण, अत्याचार, व्यभिचार, बलात्कार और भ्रष्टाचार के माध्यम से आम जनता से दूर होते गये और बाद में आम चुनाव जीतकर सत्ता के गलियारों में अपनी दुकान लगाकर बैठ गये। ऐसे लोग हाथ में कटोरा लेकर पैदा हुए थे, परन्तु अपने बाहुबल से अपने ही भाई बंधुओं का माल छीनकर मालामाल हो गये। जब विधान सभा और संसद भवन में उनकी दुकान लग गई तो उनके और भी वारे न्यारे हो गये। दुबे चौबे ही नहीं छब्बे बन गये और जनता टुकुर-दुटुर उन्हें निहारती ही रह गयी। अब वह विचार करती है कि क्या यह हमारे बीच का ही आदमी है, जो एक दिन हमारे आगे हाथ जोड़कर भिक्षा की तरह वोट मांगता था और अपनी वाणी से इतना निरीह लगता था कि अगर उसे वोट नहीं मिला तो वह भूख से बिलबिलाकर मर जाएगा। परन्तु चुनाव जीतने के बाद वह दिन में तारों की तरह लुप्त हो गया। अब तो कभी-कदा अगर दिख भी जाता है, तो ऐसी चमचमाती गाड़ी में नजर आता है कि आम आदमी की आंखें ही

चुंधियाकर रह जाती हैं और वह उसकी झलक तक नहीं देख पाता कि तब तक उनका प्रतिनिधि पुच्छल तारे की तरह आंखों से ओझल हो जाता है।

इस महान देश की अनगिनत महान गाथायें हैं, जिन्हें गाने में उस देश के कवि बहुत कुशल हैं और उसकी महानता और संपन्नता के इस तरह गुण गाते हैं कि न केवल उस देश के लोग उसे लूटने के लिए व्याकुल हो जाते हैं_ बल्कि अन्य देशों के अत्याचारी शासक भी उसे लूटने के लिए आ धामकते हैं। आज उस देश को आजाद हुए लगभग पैंसठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, और उसके शासकों (जनता द्वारा चुने गये) ने उसे प्रजातंत्र, लोकतंत्र और जनतंत्र के नाम पर खोखला बनाने में कोई कसर नहीं रखी है। इसके साथ ही उन्होंने दूसरे देश के व्यवसायियों को पूरा मौका दिया है कि वह भी आकर इसे लूटने में उनकी मदद करें। आज देश के हर कोने में मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला है और उस देश का शिक्षित नागरिक इतना जागरूक हो गया है कि वह अपने देश की बनी चीज को घटिया समझता है और दूसरे देश की घटिया वस्तु को सर्वोत्तम मानकर उसे सिर माथे लगाता है और दुगुने-तीगुने दाम देकर उसे खरीदता है और गर्व का अनुभव करता है। हद तो यह है कि उस देश का प्रबुद्ध वर्ग अपनी मातृभाषा में बात करने में भी अपनी तौहीन समझता है।

उस देश की एक प्रभावशाली प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव क्षेत्र में एक टेलीफोन फैक्टरी का निर्माण करवाया। उसमें स्थानीय लोगों को प्रमुखता से भर्ती किया गया। कुछ सालों तक तो फैक्टरी ठीक-ठाक चली और टेलीफोन से संबंधित उपकरण भी बनते रहे, परन्तु आधुनिक युग इतनी तेजी से बदलता है कि एक दिन पहले की चीज अगले दिन तक पुरानी हो जाती है। बुरा हो अमेरिका जैसे संपन्न देशों का जो गरीब मुल्कों का ख्याल किए बगैर रोज नई-नई तकनीकें गरीब देशों को देते रहते हैं। कुछ तो तकनीक बदलने से और कुछ स्थानीय लोगों के निकम्मेपन और कामचोरी से फैक्टरी बंद होने के कगार पर आ गई। ऐसे में फैक्टरी के समझदार कर्मचारियों और

अधिकारियों ने बहू-बेटों को नाम पर दुकानें खुलवा दीं और सुबह ऑफिस जाकर, अपनी हाजिरी लगाकर दुकान पर बैठने लगे। इस तरह आम के आम और गुठलियों के दाम वसूलने लगे। उधर फैक्टरी से बिना काम किए तनख्वाह मिल रही थी तो दिन भर दुकानदारी से अच्छी-खासी आमदनी हो जाती थी।

उसी फैक्टरी के चौथी श्रेणी के एक कर्मचारी को यूनियनबाजी का चस्का लग गया। यूनियन का अध्यक्ष बना तो और भी चांदी हो गयी। यूनियन के लोग वैसे भी कोई काम करते नहीं, बस नेतागीरी करते हैं और मजदूरों को भड़काकर कारखाने का बना-बनाया काम बिगाड़ते रहते हैं। यूनियन के चंदे से उस कर्मचारी की जेब जब कुछ भारी हो गयी तो उसने विधान सभा का चुनाव लड़ने की ठानी। एक पार्टी ने उसे टिकट भी दे दिया। सौभाग्य से वह जीत भी गया। चुनाव जीतने के बाद अब उसे एक बंगले की आवश्यकता महसूस हुई, क्योंकि फैक्टरी का एक कमरे का क्वार्टर उसे छोटा लगने लगा था तो उसने मुख्य मार्ग पर एक विधवा बूढ़ी औरत का कच्चा घर हड़प कर लिया और उस पर एक आलीशान तीन मंजिला इमारत खड़ी कर दी। वह बुढ़िया अभी भी उस बंगले के पीछे एक झोंपड़ी में रहती है और विपन्नता से जीवन गुजारती हुई मौत का इंतजार कर रही है।

इस घटना से यह प्रमाणित होता है कि जो व्यक्ति जन प्रतिनिधि बनकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचता है, वह वास्तव में जन प्रतिनिधि नहीं रह जाता है, बल्कि वह स्वयं को एक निरंकुश शासक समझने लगता है, उसी तरह का शासक, जैसे राजा, महाराजा, सामंत और बादशाह हुआ करते थे। शासन की गद्दी तक पहुंचने का तरीका बदल गया है, परन्तु शासक नहीं बदला है। पहले युद्ध करके राजा, महाराजा या बादशाह सत्ता हथियाया करते थे, आज बुद्धिमान व्यक्ति जनता को बेवकूफ बनाकर सत्ता की गद्दी प्राप्त करके शासन करता है।

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संसार के अधिकतर देशों में संभवतः प्रजातंत्र कायम हो, परन्तु उस गरीब देश में इस प्रणाली को लागू करने के बाद भी कायम नहीं किया जा सका, जो सदियों की गुलामी के बाद अपने आप को स्वतंत्र समझ रहा था। यहां के जनशासक स्वयं को जनता के सेवक कहते थे, परन्तु वह किस प्रकार जनता का खून चूसकर और दलाली के माध्यम से देश की संपत्ति हेराफेरी से अपने नाम करके कुछ वर्षों में ही करोड़पति बन जाते हैं, इसकी कुछ मिसालें यहां पेश की जा रही हैंः

1. उस आजाद मुल्क के एक प्रदेश में एक ग्वालापुत्र मुख्यमंत्री बना तो पन्द्रह सालों में वह अरबपति बन गया। जब वह बेरोजगार था और चप्पल घसीटता हुआ राजनीति करता था तो उसे अपने ससुर से पांच हजार रुपये उधार लेने पड़े थे और अब वह अपनी बेटियों की शादी में करोड़ों रुपये का दहेज देने की क्षमता रखता है।

2. एक दूसरे प्रदेश के मुख्यमंत्री भी इसी तरह अरबपति बन गए। राजनीति में आने के पहले वह एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे और पहलवानी करते थे। थोड़ी बहुत खेती की जमीन भी थी, परन्तु अब उनका और उनके वारिसों का करोड़ों रुपये का निवेश बड़ी-बड़ी कंपनियों में है।

3. एक और मुख्यमंत्री भी राजनीति की बदौलत अरबपति बन गईं हैं। वह भी अध्यापिका थीं और सत्ता में आने के पहले सवर्णों को गालियां देती थीं। अब अमीर बनने के बाद वह सभी को अपना दोस्त समझने लगी हैं, लेकिन अपनी जाति के लोगों से घृणा करती हैं।

इस तरह गरीब देश के जन प्रतिनिधि अमीर होकर जनता से दूर होते गये और उन्होंने अपना अलग वर्ग बना लिया। वह भले ही पहले बाकी लोगों की तरह गरीब पैदा हुए थे, परन्तु अपनी तिकड़म और होशियारी से सत्ता के साथ-साथ धन भी प्राप्त करते गये। बस देश का जन जन ही रह गया, वह खास कभी नहीं बन पाया। उसका शासन होने के बावजूद भी उसकी सत्ता में कोई भागीदारी नहीं है और अपने ही तंत्र में अपना काम करवाने के लिए वह छूमंतर हो जाता है। उस देश के गांवों में बहुत से ऐसे गरीब हैं, जिनके घर में दिन में एक बार ही चूल्हा जलता है। उनके पास राशन कार्ड तक नहीं हैं। जिनके पास राशन कार्ड हैं, उनको भी हर महीने गेहूं, चावल और चीनी नहीं मिलती है। अब भी क्या आप कहेंगे कि उस देश में जनतंत्र है? मुझे तो लगता है, उस देश में प्रजा के विरुद्ध कोई तंत्र काम कर रहा है, क्योंकि जहां जो है, वह दिखता नहीं और जो दिखता है, वह असल में वह नहीं होता, जैसा दिखता है। होने और दिखने में बहुत अंतर होता है।

उस देश के आमजन इस बात से चिंतित नहीं हैं कि अगर देश में उनका शासन है तो उनके घर में दोनों वक्त चूल्हा क्यों नहीं जलता और उन्हें भरपेट भोजन क्यों नसीब नहीं होता? उन्हें अच्छे कपड़े क्यों पहनने को नहीं मिलते? वह शिक्षित क्यों नहीं हैं? उनके बच्चों को नौकरियां क्यों नहीं मिल रही हैं? उनको ये चिंताएं इसलिए नहीं सतातीं, क्योंकि उनको प्रजातंत्र के स्वयंभुओं ने बता रखा है कि उनके प्रतिनिधि उनकी भलाई और कष्ट दूर करने के लिए रात-दिन सोचते रहते हैं और बहुत चिंताग्रस्त रहते हैं। वह उनकी भलाई के लिए बहुत सारे कार्य करते हैं, परन्तु महंगाई और भ्रष्टाचार नामक शैतान उनके लिए भेजा गया रुपया-पैसा हड़प कर जाता है। दूसरी तरफ विपक्ष की ताकतें देश की जड़ें कमजोर करती रहती हैं, जिससे विदेशी हमले का डर बना रहता है। उनका कहना है कि जैसे ही वह महंगाई और भ्रष्टाचार के भूत और विपक्ष को मार गिराने में सफल हुए, जनता की भलाई और सुख के लिए वह अपनी जान भी जोखिम में डाल देंगे। जनता एक दिन अवश्य खुशहाल होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। अगर भगवान खुश हैं, तो भक्त अपने आप सुखी हो जाता है। अगर पालनहार हंसता-मुस्कराता है, तो पालित के जीवन की बगिया में अपने आप फूल खिल उठेंगे।

यह प्रजातंत्र, लोकतंत्र और जनतंत्र का करिश्मा है कि यहां मेहनत मजदूर करता है, परन्तु उससे काम करवाने वाला व्यक्ति बिना मेहनत के अमीर और धनी बनता जाता है। मजदूर की मजदूरी हड़प करने के बाद अमीर व्यक्ति कहता है कि जब वह खाना खाएगा तो गरीब के ही पेट में जाएगा। उस देश का इतिहास गवाह है कि वहां जो भी अमीर बना है, वह गरीबों का शोषण करने के बाद ही बना है। जब तक वह दूसरों की कमाई नहीं हड़पता, कालाबाजारी नहीं करता और गरीबों और मजलूमों पर अत्याचार नहीं करता, तब तक वह अमीर या बड़ा आदमी नहीं बन सकता।

अब यह प्रमाणित हो गया है कि इस देश में जो सत्ता पर काबिज हैं, वह देश का शासन नहीं चला रहे हैं_ बल्कि देश की जनता और यहां के लोगों पर शासन कर रहे हैं। ये

सत्ताधारी अमीर हैं या सत्ता पाते ही अमीर बन जाते हैं. अतः उनका भिन्न वर्ग है, जो देश के कामगारों, मजदूरों और किसानों से पूर्णतया भिन्न है। राजतंत्र और जनतंत्र में क्या अंतर है? सही मायनों में देखा जाए तो कोई अंतर नहीं है।

प्राचीनकाल में अत्याचारी और लुटेरे राज्य कायम करते थे, आज उसी प्रवृत्ति के लोग चुनाव लड़कर सत्ता हथियाते हैं। अब तो चुनाव में भी गोलियां चलने लगी हैं, सरेआम कत्ल होते हैं। डरा-धमकाकर और जबरदस्ती वोट हासिल किए जाते हैं, तब कहीं कोई विधायक या सांसद बनता है।

अंत में एक और उदाहरण यहां देकर मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। इस उदाहरण से जनप्रतिनिधियों की वास्तविक स्थिति समझ में आ जाएगी।

उसी आजाद मुल्क के एक प्रदेश में एक बार एक व्यक्ति पहली बार विधायक बना। पांच साल बीतते न बीतते राज्य की राजधानी में उसने एक बंगला बनवा लिया। बच्चों को गांव के स्कूल से लाकर राजधानी के सबसे महंगे पब्लिक स्कूल में भर्ती करवा दिया। दो लक्जरी गाड़ियां खरीद लीं। गांव का मकान पक्का करवा दिया और कई एकड़ खेती की जमीन खरीदकर अपने परिवार के लोगों को दे दिया कि वह उस पर खेती-बाड़ी करें और मजे से जीविका उपार्जित करें। विधायक निवास के साथ-साथ उसने एक किराए का मकान भी ले रखा था। विधायक निवास तो उसने एक मंत्री को उनके सुरक्षा कर्मियों के लिए दे रखा था और वह स्वयं परिवार के साथ किराए के मकान में रहता था। अब वह अपने मकान में जाकर रहने लगा है।

किसी ने उस विधायक से पूछ लिया कि उनकी कितनी तनख्वाह है और उससे कितनी बचत हो जाती है कि उनके पास लगभग एक करोड़ का मकान और कई लाख की चल-अचल संपत्ति बन गयी है। पूछने वाला व्यक्ति विधायक का परिचित और कुछ हद तक करीबी था, अतः उन्होंने सच बताने में कोई संकोच नहीं किया। मुस्कराते हुए बोले, "अरे भाई, एक विधायक की तनख्वाह से कहीं कोई घर चलता है। उतनी तनख्वाह तो घर आए मेहमानों के चाय-पानी में ही खर्च हो जाती है।"

"तो फिर इतनी संपत्ति और..." प्रश्नकर्ता का अगला सवाल था।

"यह सब जनता की मेहरबानी और रहमो-करम का फल है, जो हमें मिल रहा है। जनता के प्रताप से हमारे घर में लक्ष्मी का वास है और वह हमें धन-धान्य से सुखी बनाए हुए है।"

जनता के प्रताप से किस तरह जनता के प्रतिनिधि मालामाल होते हैं, यह उस देश के लोग देख रहे थे_ परन्तु स्वयं जनता क्यों अमीर नहीं हो पाती है, यह एक गहरा रहस्य बना हुआ है। कुछ सिरफिरे लोग इस रहस्य और जन प्रतिनिधियों की अथाह संपत्ति की जांच-पड़ताल कराने के लिए आंदोलन करते रहते हैं, परन्तु उन सिरफिरों की प्रजातंत्र में सुनता कौन है। राजा या बादशाह का शासन होता तो गरीब से गरीब आदमी भी अपनी फरियाद लेकर उसके पास जा सकता था, परन्तु जनतंत्र में जनता की फरियाद कौन सुनता? प्रजा की शिकायत प्रजा कैसे सुन सकती थी। नाई क्या स्वयं अपने बाल बना सकता है? डाक्टर क्या अपने हाथों अपनी शल्य क्रिया संपन्न कर सकता है? रोगी को तो चिकित्सक के पास ही जाना होगा, न कि किसी और रोगी के पास... जब प्रजातंत्र बीमार हो तो प्रजा क्या कर सकती थी?

उस देश की जनता को न तो बिजली मिलती है, न पीने के लिए साफ-सुथरा पानी... भोजन भी ढंग का नहीं मिलता। फिर भी लोग गर्व से कहते हैं कि वह विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के निवासी हैं। वास्तव में अभावग्रस्त आदमी को चाहे कुछ मिले या न मिले, परन्तु अगर उसे गर्व करने का मौका मिलता है तो वह उसे कतई नहीं गंवाता।

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रचनाकार: प्राची - जनवरी 2019 : संपादकीय - प्रजातंत्र बनाम राजतंत्र - राकेश भ्रमर
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