"यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं" - रोचकता की खुशबू से इस के पन्ने महक रहे हैं - समीक्षक - पारुल सिंह

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पारुल सिंह


"यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं" - रोचकता की खुशबू से इस के पन्ने महक रहे हैं

समीक्षक - पारुल सिंह

पुस्तक - "यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं" (यात्रा संस्मरण)

लेखक - पंकज सुबीर

प्रकाशन - शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, सीहोर, मप्र 466001

मूल्य - 150 रुपये

संस्करण - प्रथम पेपरबैक संस्करण, पृष्ठ 144


"यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं", ये किताब हाथ में लेते ही मुझे बहुत भा गई। सुंदर कवर, हल्का वज़न और गोल्डन स्याही से लिखा हुआ लेखक और किताब का नाम। क़िताब के पन्नों और स्याही की लिखावट की ख़ुशबू पाठक पर क्या प्रभाव छोड़ती है, यह हर पुस्तक प्रेमी समझ सकता है। किताब को पढ़ना उस पर लिखे हुए को ही पढ़ना नहीं होता पाठक के लिए। किताब को हाथों में थामना, खोलना उसकी ख़ुशबू में खो जाना एक पूरी प्रक्रिया होती है पढ़ने की। और उस पर किताब इतनी रोचक हो तो कहने ही क्या।

साहित्य और कला जुनून वालों का क्षेत्र है हर कलाकार, हर लेखक, भीतर ही भीतर एक यायावर कुछ आवारा सा घुमंतू बंजारा ही तो है। एक लेखक के मन में ये तीनों फक्कड़पन होने आवश्यक है। वह निजी ज़िंदगी में ऐसा कर पाए या नहीं, यह अलग विषय है। "यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं", पंकज सुबीर के लेखन व साहित्य से जुड़े तीन विदेश यात्राओं और आयोजनों का संस्मरण है, जो उन्होंने क्रमशः  2013, 2014, 2015 में की हैं।

अपनी पहली विदेश यात्रा में लेखक एक कथा सम्मान लेने लंदन पहुँचते हैं। वहाँ के उनके अनुभव, मन के भाव ऐसे लिखे गए हैं कि पाठक को लगेगा कि वह स्वयं भी पहली बार लंदन आया है और घूम रहा है। एक लेखक व व्यक्ति के तौर पर एक 'काश' आप कहीं-कहीं पा सकते हैं, पर पूरी किताब में कहीं भी लेखक अपने देश की तुलना उन देशों से कर अपने देश के लिए नकारात्मक नहीं होता है। जैसा कि इस तरह के संस्मरण में आम बात है। लेखक प्रगति को देख अपने यहाँ भी इस तरह की प्रगति के लिए लोगों पर दबाव नहीं डाल रहा है सिस्टम पर दबाव नहीं डाल रहा है, बल्कि स्वयं उस बर्ताव को सीख अपनी ज़िंदगी में उतारना चाहता है और यही देश हित सोचने वाले को करना भी चाहिए, क्योंकि कहते भी हैं चैरिटी घर से शुरू होती है।

सबसे अच्छी बात पंकज सुबीर ने एक यात्री और समय मिले तो पर्यटक के तौर पर यह किताब लिखी है। अपने लेखक होने को उन्होंने इस संस्मरण ओर इसकी भाषा से दूर रखने की कोशिश की है। जिससे पाठक स्वयं देखता है जो वह पढ़ रहा है। कहीं भी भारी भरकम आँकड़ों का, लम्बे-लम्बे स्थान वर्णन का प्रयोग नहीं किया गया है। उन्होंने सहज घटित हो रहे अपने अनुभव को पाठक बल्कि स्वयं के सामने रख दिया है। हर नए अनुभव से चौंकने, नई तरह की दैनिक जीवन शैली के विषय में जानने पर अपना पक्ष वैसा का वैसा ही सामने रख दिया है, जो उन्हें अनुभव किया। कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपको बोर करे, या पन्ने पलटने पर मजबूर करें। क्योंकि ये केवल एक यात्रा संस्मरण नहीं है, इस किताब में विदेशी धरती के साथ साथ हिंदी के बड़े लेखकों चित्रा मुद्गल, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, महेश कटारे, उषा प्रियंवदा आदि के साथ बिताए पलों का भी लेखक ने ब्यौरा दिया है। इसलिए यह पाठकों को बहुत रोचक लगेगा। पाठक आनंदित होंगे, अपने प्रिय लेखकों की निजी ज़िंदगी के विषय में जानकर। क्योंकि ये एक सहज जिज्ञासा होती है।

कोई लेखक अपने निजी जीवन में कितना विनम्र, सहज और सरल होता है ये जानने और सीखने का मौका मिलेगा। जैसे लेखक ने अपने अग्रजों, और इस यात्रा में मिले हर व्यक्ति से कुछ न कुछ सीख कर झोली में समेट लिया। ऐसे ही कुछ अनुभवों का वर्णन लिखकर लेखक ने पाठकों के लिए छोड़ दिए हैं।

एक यायावर के तौर पर या एक बंजारे के तौर पर एक घुमंतू के तौर पर अगर पंकज सुबीर इन यात्राओं को करते तो निस्संदेह ही उनके अनुभव कुछ अलग होते। क्योंकि बड़ों के साथ और सानिध्य में कुछ सम्मान और अनुशासन तो बना ही रहता है। जिन देशों की यात्रा उन्होंने की है वहाँ की और हमारी अर्थ व्यवस्था में काफी अंतर है। जिसकी वजह से लेखक अपने प्रिय जनों के लिए उपहार खरीदने मे जो गणनाएँ करता है, वह पाठक को उस परिस्थिति मे भी हँसा देती हैं।

वहाँ की राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था के बारे में भी हमें जानने का अवसर मिलता है। ब्रिटेन संसद में जाने के अपने अनुभव से लेखक वहाँ और यहाँ के सांसदों का अंतर बताते हैं। वहीं संसद के एक सुरक्षा अधिकारी का हृदयस्पर्शी व्यवहार लेखक को छू जाता है। लेखक लिखता है कि, "चेकिंग के बाद मैं अपना सामान उठाकर कोट पहनकर चलने को होता हूँ कि एक बड़ा ऑफिसर मुझे पीछे से आवाज़ देकर रोकता है। मैं वहीं रुक जाता हूँ वह मेरे पास आता है, और मेरे कोट की कॉलर पीछे से ठीक करने लगता है जो मुड़ी रह गई थी। कॉलर ठीक करके वह मुस्कुराहट के साथ मुझे जाने को कहता है मैं हतप्रभ-सा धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाता हूं।"

इसी प्रकार किसी साहित्यिक आयोजन के अनुभव पर भी लेखक लिखता है, " पहली बार एक सम्मान समारोह देख रहा हूँ जो पूरी तरह से लेखक और उसकी कृति पर केंद्रित है, पुरस्कृत कृति पर, ना की सम्मान और सम्मान करने वाली संस्था पर।"

कुछ चीजों में लेखक का भोलापन और सादगी सामने आती है। पूरे संस्मरण में कहीं भी किसी भी एक भी दिन का नाश्ता, दोपहर का खाना, रात का खाना लेखक लिखना नहीं भूला है। कितने शौक से और कितनी तबीयत से उन्होंने चीज़ें खाई हैं और चखी। बाहर जाकर घर का खाना नहीं माँगा। कहा कि मैं यहाँ आया हूँ तो तरह-तरह के खाने क्यूँ न आजमाऊँ। खाने के प्रति यह राग, यह आग्रह हमें कम दिखाई देता है। भोजन कराने का प्रेमी, और भोजन को उसी प्रेम से खाने वाले लोग सरल, मृदुल और विनम्र होते हैं। भोजन आपको लोगों के नज़दीक लेकर आता है। भोजन से प्यार करने का मतलब यह नहीं है कि आप ठूँस-ठूँस कर, पेट भर कर खाएँ। भोजन संस्कार की नींव में प्रेम होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में भोजन प्रेम प्रदर्शन का साधन है।

लेखक नरम दिल होते ही हैं। जो भी कोई बौद्धिक व्यक्ति होगा वह प्रकृति के उतना ही नज़दीक होगा। वह प्रकृति को उतना ही सराहेगा और उसे प्रकृति हमेशा अपनी तरफ खींचती रहेगी। हर जगह पर हर देश में हर कहीं पर लेखक जब यह यात्राएँ कर रहा है तो वह वहाँ की प्रकृति से भी सबसे पहले जाकर मिलता है।

सबसे पहले वहाँ की प्राकृतिक छटा का आनंद लेखक लेता है। वनस्पतियों से पूछता है उनके नाम। जो पौधे हैं, जो पेड़ हैं उन सब के साथ सबसे पहले जाकर उस धरती के साथ जुड़ता है। उनके नाम जानने की और याद करने की कोशिश करता है। जैसे बता रहा है उन्हें, "मैं बहुत दिनों बाद देखो आज तुम्हारे पास आ ही गया हूँ। मैं तुम्हें जानता हूँ तुम मेरे देश में बस थोड़े से अलग रंग के हो, पर हो।"

हर एक दर्शनीय स्थल, पोस्टकार्ड शहर, पोस्टकार्ड जगहों में बहुत ज्यादा रुचि नहीं है लेखक की, वह वहाँ के जनमानस को जानना चाहता है पर उनका वर्णन बहुत सही ढंग से दिया है। और मौसम का वर्णन भी बहुत सहज ढंग से किया है।

शब्दों का अनुवाद बहुत ही रोचक है जैसे एक जगह नायग्रा फॉल्स देखने जब लेखक जाता है तो वह वहाँ लिखता है कि "ब्राइडल वेल फॉल", यानि "दुल्हन का घूंघट" ये हिंदी अनुवाद है।

इस तरीके से आनंद लेते हुए आदतन लेखक कुछ ऐसी बातें भी कह गए हैं जिनके लिए वह जाने जाते हैं। जीवनोपयोगी सूक्तियाँ। जैसा कि एक जगह वे लिखते हैं, "विमान रनवे पर दौड़ रहा है, दौड़ रहा है ऊपर उठने के लिए। ऊपर उठने के लिए दौड़ना ही पड़ता है। जब आप अपनी सबसे तेज़ गति से दौड़ते हैं तभी ऊपर उठ पाते हैं।" कितना सुंदर जीवन दर्शन एक साधारण से विमान को माध्यम बना कर लेखक ने दे दिया है।

एक सामान्य से सामाजिक शिष्टाचार की घटना पर लेखक इस प्रकार लिखते हैं, "एक घर में कोई कुत्ता बहुत ज़ोर से भोंक रहा है, उसका मालिक शर्मिंदा होते हुए हर आने-जाने वाले को सॉरी कह रहा है। यह सिविक सेंस भारत ले जाने की बहुत इच्छा हो रही है।" कोई शहर आपने कितनी बार भी देख रखा हो, उसका भी यात्रा संस्मरण अगर आप पढ़ेंगे तो भी आपको कोई नई चीज़ उसमें मिल जाएगी।

कुछ किताबें एक ही बैठक में अपने आप को पढ़वा लेती हैं, मेरे लिए यह वही किताब है। यह एक बहुत सुंदर से मुखपृष्ठ पर सुनहरी स्याही से लिखे हुए शीर्षक और लेखक के नाम वाली ख़ुशबूदार किताब है। इसमें रोचकता की ख़ुशबू तो है ही पर इस के पन्ने सच में महक रहे हैं।

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पारुल सिंह, डब्ल्यू-903, आम्रपाली ज़ोडिएक, सेक्टर 120, नोएडा, उप्र 201301

ईमेल : psingh0888@gmail.com

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रचनाकार: "यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं" - रोचकता की खुशबू से इस के पन्ने महक रहे हैं - समीक्षक - पारुल सिंह
"यायावर हैं आवारा हैं बंजारे हैं" - रोचकता की खुशबू से इस के पन्ने महक रहे हैं - समीक्षक - पारुल सिंह
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