tag:blogger.com,1999:blog-15182217.post6448484384482669950..comments2024-03-25T10:13:31.176+05:30Comments on रचनाकार: रमा शंकर शुक्ल का आलेख - क्रांति, कविता या शोररवि रतलामीhttp://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-15182217.post-83057280998624135372012-11-10T14:03:41.324+05:302012-11-10T14:03:41.324+05:30"हिंदी साहित्य का अतीत देखें तो दो काल-खण्डों..."हिंदी साहित्य का अतीत देखें तो दो काल-खण्डों के अलावा कविता कभी राष्ट्र्धर्मी नहीं रही. या यूं कहें की साहित्य ही राष्ट्र्धर्मी नहीं रहा." <br /><br />-- अनुचित वक्तव्य है...सारे हिन्दी साहित्य या कविता के लिए यह सही नहीं है.....सिर्फ यह कहिये कि आधुनिक काल के वर्तमान काल खंड में... .कविता से राष्ट्र-धर्म छूट गया है एवं वह सिर्फ स्वार्थ-धर्म और दैनिक द्वेष-द्वंद्वों में उलझकर रह गयी है... अति-भौतिक प्रगति एवं सांस्कृतिक पतन के कारण....<br /><br />डा श्याम गुप्तhttps://www.blogger.com/profile/03850306803493942684noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15182217.post-11716471572342079842012-11-10T13:57:20.669+05:302012-11-10T13:57:20.669+05:30---"वह मानता है कि उसे केवल सोचने का काम करना...---"वह मानता है कि उसे केवल सोचने का काम करना चाहिए. जूझने वाला वर्ग कोई दूसरा हो. अर्थात, वे खुद को पैदाइसी नियामक मान रहे हैं. नियामक कभी स्वयं युद्ध नहीं करता. हमें केवल नेतृत्व करने का अधिकार है, जूझने और मरने के लिए दूसरे लोग बने हैं."<br /><br />--- क्या यह उपरोक्त तथ्य युग-सत्य नहीं है.... सदा ऐसा ही तो होता है ... इसीलिये तो श्री कृष्ण ने युद्ध में प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया....सोचने वाला व उसको क्रियारूप देने वाला सदा भिन्न- भिन्न होता है...नियमानुसार होना ही चाहिए ...<br />---वास्तव में बात यह है कि आज का कवि व साहित्यकार, साहित्य को एक पूर्णकालिक धंधा व प्रोफेशन बनाकर चल रहा है...उसके अलावा वह और कोई कार्य नहीं करता ..जबकि कविकर्म व साहित्यकर्म पूर्णकालिक धंधा या प्रोफेशन नहीं है अपितु अपने स्वयं के व्यवसाय में नित्य-रतता के साथ-साथ एक सामाजिक धर्म है...तभी वह निरपेक्ष रह सकता है....<br /><br /><br />डा श्याम गुप्तhttps://www.blogger.com/profile/03850306803493942684noreply@blogger.com