[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित - भाग 2

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[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं। खंड २ [मंच रोशन होता है, पाली...

[मारवाड़ का हिंदी नाटक]

यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।

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लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित


माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं।

खंड २

[मंच रोशन होता है, पाली रेलवे स्टेशन का मंज़र दिखाई देता है। जम्मू-तवी एक्सप्रेस गाड़ी, प्लेटफार्म पर आकर रुकती है। मोहनजी को छोड़कर, उनके सभी साथी गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर आ जाते हैं। खिड़की से बाहर झांक रहे मोहनजी की निग़ाह माल गोदाम पर गिरती है, वहां प्लेटफार्म पर विदेशी गेंहू से भरी हुई बोरियां रखी हुई उन्हें दिखायी देती है। गोदाम के प्लेटफार्म पर एक माल गाड़ी खड़ी है, जो गेंहू की बोरियों से लदी हुई है। कई मज़दूर उस गाड़ी से बोरियां अपनी कमर पर लादकर, उन्हें प्लेटफार्म पर रखते जा रहे हैं। माल गोदाम के मुलाजिम, प्लेटफार्म पर जमायी जा रही बोरियों को गिनकर रजिस्टर में आंकड़े भरते जा रहे हैं। इस मंज़र को देखने के बाद, मोहनजी की निग़ाह पाली स्टेशन के प्लेटफार्म के तख़्त पर बैठे कानजी पर गिरती है। अब उनको रशीद भाई के दीदार होते हैं, जो कानजी की तरफ़ क़दम बढ़ाते जा रहे हैं। और दूसरे साथी रतनजी और ओमजी को केंटिन की तरफ़ जाते हुए, मोहनजी देखते जा रहे हैं। ये कानजी एफ.सी.आई. पाली के वाचमेन हैं, जो खारची से रोज़ का आना-जाना करते हैं। माल गोदाम के प्लेटफार्म पर रखी इन गेहूं की बोरियों को देखकर,  मोहनजी का दिल जलने लगा। अब उन्हें पछतावा होता है, के ‘उन्होंने कल से चार दिन की छुट्टियां, क्यों मंज़ूर करवाई ?’ सोचते-सोचते, अब वे होंठों में ही बड़बड़ाते जा रहे हैं।]

मोहनजी – [होंठों में ही] – इतना माल..? अरे, बेटी का बाप। यह क्या मूर्खता कर डाली मैंने, चार दिन की छुट्टियां मंज़ूर करवाकर..? अभी हुआ क्या है, कहां मियें मर गए और रोज़े घट गए..? छुट्टियां रद्द करवाकर मारेंगे जी, चार दिन पाली का का टूर। अरे रामसा पीर, फिर तो रखेंगेजी प्रोग्राम ‘माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं’ व भी इस पाली स्टाफ़ के ऊपर।

[अकस्मात मोहनजी की निग़ाहें गिरती है, रशीद भाई पर। जो, तख़्त पर बैठे कानजी वाचमेन से मिलने जा रहे हैं। उनको देखते ही, उन्हें आवाज़ लगाते हुए मोहनजी कहते हैं]

मोहनजी – [रशीद भाई को आवाज़ लगाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – कहां जा रिया रे, कढ़ी खायोड़ा रशीद भाई ? इधर आकर, मुंह तो दिखा मेरे भाई।

[मगर रशीद भाई ने न कुछ सुना, और न मोहनजी की तरफ़ देखा। उनकी आँखे तो, कानजी के दीदार पाने में ही लगी हुई..? कानजी आराम से तख़्त पर बैठे-बैठे, बीड़ी पी रहे हैं। वे पूरे आश्वस्त है, के ‘यहां उनकी बेर [पत्नी] खड़ी नहीं है, जो बक-बक करती हुई धुम्रपान के आनन्द का मटियामेट करती हो..?’ कानजी को देखते ही, रशीद भाई के क़दम उनकी तरफ़ बढ़ते ही जा रहे हैं। चलते-चलते, वे रास्ते में बड़बड़ा रहे हैं।]

रशीद भाई – [चलते-चलते, बड़बड़ाते हैं] – ख़ुदा की पनाह, यह कानजी तो ठहरा एक नंबर का गतराला ? पूरा स्टाफ़ करता है, मज़ा। मगर यह गेलसफा, खारची से आ जाता है पाली...बराबर एक घंटे पहले। मगर, सच्चाई तो यही है इसकी बेर बोलती है कड़वी..के, औरतों की तरह घर पर पड़े मत रहो, और जाकर पकड़ो पाली जाने वाली गाड़ी..समय पर दफ़्तर पहुंच जाओ, शिकायत का मौक़ा मत दो।

[प्लेटफार्म के छप्परे पर एक कबूतर ने घोंसला बना रखा है, वह अपनी मादा कबूतर को रिंझाने के लिए घूटर गूं घूटर गूं करता हुआ तख़्त के पास आकर गोल-गोल चक्कर काट रहा है। और इधर अकेले बैठे हैं, कानजी। जो, बीडी से, धुंए के बादल छोड़ते जा रहे हैं। उनको धुम्रपान करते देखकर, अब रशीद भाई उनके नज़दीक आये हैं।]

रशीद भाई - [नज़दीक आकर, कहते हैं] – कानजी सा। मालिक क्या कर रहे हैं आप, यहां अकेले..घूटर गूं घूटर गूं...? अरे यार, इतना जल्दी आते ही क्यों हैं आप ? फिर यहां बैठकर करनी पड़ती है, मटरगश्ती..? अच्छी है यार, तुम्हारी यह मौज-मस्ती ?              

[अब कानजी के पहलू में बैग रखकर, वे आराम से तख़्त पर बैठ जाते है। फिर, उनसे गुफ़्तगू करते जाते हैं।]

रशीद भाई – [बैठते हुए, कहते हैं] – ठोकिरा, ऐसे क्या अकड़कर बैठे हो कानजी ? एक घंटा पहले, आते ही क्यों यहां ? फिर तेज़ गति से दफ़्तर आते-आते, आपकी टांगों में दर्द होने लगता है।

कानजी – [मुंह से धुंए का बादल छोड़कर, कहते हैं] – अरे यार रशीद भाई, क्या करना है यार..इस ख़िलक़त में ? पहले, आप आराम की सांस ले लीजिये...

[कानजी अपनी जेब से, घोडा-गाड़ी छाप बीड़ी का बण्डल बाहर निकालते हैं। फिर, रशीद भाई की मनुआर करते हुए, कहते हैं]

कानजी – ऐसा है क्या, रशीद भाई ? जाना तो आख़िर दफ़्तर ही है, कल तो सब कुछ छोड़कर इस ख़िलक़त से भी चले जायेंगे।

रशीद भाई – आपके कहने का, क्या मफ़हूम है यार ? 

कानजी – अरे यार, मपुट तो एक दिन आणि ही है। फिर, क्या डरना ? जनाब जब आप ऊपर पहुंचेंगे, तब यम राजजी पूछेंगे के ‘भाया, कोई नशा-पत्ता किया या नहीं..?’ फिर रशीद भाई, आप जवाब क्या देंगे ?

[थोड़ी देर विश्राम करने के बाद, कानजी आगे कहते हैं]

कानजी – तो मेरे भाई, वहां भी आप जैसे लोगों के लिए कोई ठौड़ नहीं है। जानते हो ? नशा-पत्ता करने वाले आदमियों की मनुआर अच्छी होती है। अरे यार, नशा-पत्ता नहीं करने वालों को कोई आवाज़ देकर भी नहीं बुलाता।

रशीद भाई – अरे मेरे भाई, अभी रमजान का पाक महिना चल रहा है। और आप, काहे नशे-पत्ते की बात लेकर बैठ गये ? अब यह बीड़ी का बण्डल, वापस आप अपनी जेब में रख लीजिये। इस रमजान के पाक महीने में, नशा करना गुनाह है मेरे भाई।

कानजी – जानते नहीं ? मरने के बाद रशीद भाई, सब-कुछ यहीं छोड़कर चले जाओगे। इसलिए कहता हूं रशीद भाई, आराम से बिराजिये आप। और यहां बैठकर आराम से बीड़ी उठाकर, धुम्रपान का लुत्फ़ उठाइये। फिर..

रशीद भाई – फिर आप चाय-वाय पिलाओगे कानजी, इसके बाद..[दाल के बड़े बेचने वाले, वेंडर के ठेले को देखते हुए कहते हैं] हम दोनों इस पेट में डालेंगे, ये गर्म-गर्म बड़े।

कानजी – [धुंए का गुब्बार छोड़कर, कहते हैं] – फिर..?

रशीद भाई - तब कहीं जाकर थकावट मिटेगी, और साथ में नशा जमेगा। फिर हम, सहजता से दफ़्तर की ओर क़दम बढ़ाएंगे।

कानजी – [धुम्रपान करते हुए, कहते हैं] – नहीं, तो क्या ? आख़िर, करना क्या है ? बस, धान की हिफ़ाज़त और क्या ? उसके लिए आप, ओमजी, रतनजी वगैरा आप सब हो..फिर, मुझे फ़िक्र करने की कहां ज़रूरत ?  

[रशीद भाई का प्रतीक्षा करते-करते मोहनजी, आख़िर हो गए परेशान। वो बेचारे, आख़िर करते क्या ? यहां तो बाबा आता है, तो घंटा बजाये ? बापू आये, तो बारी दे दे...? मकबूले आम बात यही है, उपासरे के अन्दर कंघे का क्या काम ? दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं, बिना काम रशीद भाई क्यों आते..? हताश होकर, आख़िर, बैग थामे...मोहनजी उठते हैं, और रशीद भाई के नज़दीक आकर कहते हैं]

मोहनजी – [तख़्त पर बैठते हुए, कहते हैं] – रशीद भाई मैंने तो आख़िर-तजवीज ले लिया, के तीन दिन तक पाली में ही काम करूंगा।

रशीद भाई – साहब, यह क्या कह रहे हैं जनाब ? बड़ी मुश्किल से आपने, तीन दिन का अवकाश मंजूर करवाया है...बड़े साहब से। आख़िर, आपको इन छुट्टियों में ससुराल भी तो जाना है..फिर, काहे पाली में..?

मोहनजी – अब यार रशीद, छोड़ इन पुरानी बातों को। इन धान की बोरियों को देखकर, मंज़ूर करवायी गयी छुट्टियां रद्द। कुछ ऐसा ही समझ ले, ठोकिरा। अब तो मेरा धोतिया और पोतिया यहीं सूखेगा ।

[केंटिन के पास खड़ा वाचमेन चम्पला, चाय पी रहा है। सहसा मोहनजी की बुलंद निग़ाह, उस पर गिरती है। उसको देखते ही, उनके चेहरे पर मुस्कान छा जाती है। फिर वे ज़ोर से, उसे आवाज़ लगाकर अपने पास बुलाते हैं।]

मोहनजी – [आवाज़ लगाते हुए, कहते हैं] – ए रे, चम्पला। ठोकिरा, कहां जा रिया रे कढ़ी खायोड़ा ? थोडा इधर आ रे, कमबख्त..कहां मर गिया रे, तेरा ठेकेदार कढ़ी खायोड़ा ? तू आ तो सही, चम्पला..

[चम्पला आता है। मोहनजी अब रशीद भाई की तरफ़ देखते हुए, इस तरह कहते हैं..जैसे वे, उनकी उधारी उतार रहे हैं..?]

मोहनजी – रशीद भाई, आपने मुझे दाल के बड़े खिलाये थे..अब सुन लो मेरे भाई, अब मैं आप सबको खिला दूंगा मलीदा। अब क्या देख रहे हो, मेरा मुंह..? जाओ आवाज़ देकर बुला लो, अपने साथियों को। [होंठों में] अरे यार, क्या कहूं ? अब तो स्कीम तैयार, माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं। [दूर से, इंजन सीटी देता हुआ दिखाई देता है।]

चम्पला – [उतावली करता हुआ कहता है] – बाबजीसा। इंजन सीटी दे चुका है, बैठ जाइये गाड़ी में..नहीं तो चलती गाड़ी में चढ़ोगे तो बापूड़ा, मरोगे बेमौत।

मोहनजी – लम्बा मर चम्पला कढ़ी खायोड़ा, खर्चा करने वाला ठहरा ठेकेदार, फिर तेरा कलेजा क्यों जलता है रे..?

चम्पला – इसमें, आपके कहने का क्या मफ़हूम..? बस, मैंने कह दिया..आपको, खारची जो जाना है..!

मोहनजी – [पेट को सहलाते हुए, कहते हैं] – तेरे दिमाग़ में यह बात अच्छी तरह से बैठा ले, के ‘पहले खायेंगे मिर्ची बड़े....वो भी, मसाले वाली चाय के साथ।’

चम्पला – [अचरच करता हुआ] – फिर आगे क्या, मालिक..? गाड़ी तो आपके कहने से रुकेगी, नहीं...? वह चली गयी, तो फिर अगली गाड़ी जल्दी मिलने वाली नहीं।

मोहनजी – [रशीद भाई को देखते हुए कहते हैं] – ए रे रशीद भाई कढ़ी खायोड़ा, लबों पर मुस्कराहट क्यों नहीं लाता है रे मेरे यार..?

रशीद भाई – [रोनी सूरत बनाकर, कहते हैं] – मालिक, चेहरे पर मुस्कान कैसे छा सकती है ? पेट के अन्दर तो, अभी से चूहे कूद रहे हैं..इधर आप, ज़बानी कढ़ी खिलाकर भूख को और बढ़ाते जा रहे हैं।

मोहनजी – सुनो मेरी बात, पेट में रोटी-बाटी ठोककर आये हैं अपुन सब। मगर खाए हुए, काफी वक़्त गुज़र चुका है। इसलिए पहले....

रशीद भाई – [मुस्कराकर, कहते हैं] – पाली का गुलाब हलवा खिलाओगे, साहब..?

मोहनजी – अरे नहीं रे, कढ़ी खायोड़ा। सबसे पहले, ठेकेदार साहब से मंगवायेंगे गरमा-गरम मिर्ची बड़े। इसके बाद, चाय-वाय मंगवाकर पी लेंगे भाई..ताकि थकावट दूर हो जायेगी रे कढ़ी खायोड़ा..समझ गये, रशीद भाई ?

चम्पला – [बीच में बोलता हुआ] – अरे मालिक, ठेकेदार साहब तो..

मोहनजी – [चम्पले को फटकारते हुए, कहते हैं] – अब यहां क्यों पड़ा है, मेरे बाप ? जा जल्दी जा गोदाम में, ठेकेदार साहब को इतला कर मेरे आने की।

[उधर रतनजी और ओमजी चाय पीकर, केंटिन के काउंटर पर ख़ाली कप रखते हैं। फिर, वे माल गोदाम की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं। चम्पला माल गोदाम की तरफ़ जाता हुआ दिखायी देता है, और उसके पीछे-पीछे मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी की टीम भी जाती हुई दिखायी देती है। अब इंजन सीटी देता है, थोड़ी देर में गाड़ी जाती हुई दिखायी देती है। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर पश्चात मंच वापस रोशन होता है। अब माल गोदाम का मंज़र, सामने दिखायी देता है। मोहनजी व उनके साथी, माल गोदाम पहुंच जाते हैं। वहां पटरी पर माल गाड़ी खड़ी है, जो धान की बोरियों से लदी हुई है। कई मज़दूर इन बोरियों को कमर पर लादकर ला रहे हैं, और उन्हें प्लेटफार्म के ऊपर थप्पी-वार रखते जा रहे हैं। तभी वहां दीवार के पास खड़ा, एक फ़कीर दिखायी देता है। जिसे देखकर ऐसा लगता है, मानो उसने जमकर दारु पी ली है...? मोहनजी की निग़ाहें उस फ़कीर के ऊपर गिरती है, उसे देखते ही उन्हें गाड़ी में बीता हुआ सुबह का वाकया याद आ जाता है। उस वाकये को सोचते हुए, उनकी आंखो के आगे वह मंज़र छा जाता है। मोहनजी, राजू साहब, दयाल साहब, रतनजी और ओमजी सभी साथी, जम्मू तवी एक्सप्रेस गाड़ी के शयनान डब्बे में बैठे हैं। राजू साहब पाली डिपो के मैनेजर हैं, और दयाल साहब इसी डिपो में गुणवत्ता अधिकारी है। मोहनजी ख़ुद, खारची डिपो के डिपो मैनेजर हैं। आज़ भी वे हमेशा की तरह खिड़की के पास वाली सीट पर बैठे हैं, और उनके पास रतनजी और ओमजी बैठे हैं। राजू साहब और दयाल साहब, उनके सामने वाली सीटों पर बैठे हैं। मोहनजी अपने साथियों के सामने, तबादला होने के बाद आयी तकलीफों का बयान करते जा रहे हैं।]

मोहनजी – [अपना दुःख बयान करते हुए, कहते हैं] – उस वक़्त क्या फितूर आ गया मेरे दिमाग़ में, अरे रामसा पीर बैठा था आराम से जोधपुर में...और बदक़िस्मत से, कर बैठा उल्टा काम।

दयाल साहब – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – अरे मोहन लाल, यह क्या सुन रहा हूं ? तू ग़लत काम भी करता है, आज़कल ? अरे कमबख्त, तेरी सी.आर. ख़राब कर देंगे बड़े साहब।

मोहनजी - अरे कढ़ी खायोड़ा, यह बात नहीं है। बात यह है, जनाब। बाटी खाते हुए को बूज आयी..और लिख डाली मैंने, आपे-थापे बदली [स्वैच्छिक तबादले] की दरख्वास्त। अब पड़ा हूं, खारची...मक्खियां मारने।

राजू साहब – आपको क्या हो गया, जनाब ? नयी जगह, देखने को मिली है। वह भी, सरकारी हुक्म से।

मोहनजी – अरे जनाबे आली, करूं क्या इस हुक्म को लेकर..चाटूं..? इस खारची का खारा पानी पी-पीकर, पूरा पेट ख़राब कर डाला मैंने। अजी जनाब, आपसे क्या छुपी हुई मेरी दास्तान ?

राजू साहब – मुझे कुछ याद नहीं, आप वापस कह दीजिये जनाब। पेट में बात रख लेने से, अपच की बीमारी हो जाया करती है, फिर पेट-दर्द बढ़ेगा जो अलग। बार-बार, पाख़ाने जाते भद्दे लगेंगे आप।

मोहनजी – क्या कहूं, जनाब..? आते-जाते लोगों से मांग-मांगकर, मीठा पानी लेकर पीना पड़ता है। मीठा पानी लाने के लिए, लोगों की गर्ज़ अलग से करनी पड़ती है।

दयाल साहब – अरे सांई मोहन लाल, पानी सूट नहीं करता है..तो कह दूं हेड-ओफिस वालों को..

मोहनजी – [बात काटते हुए, कहते हैं] – जी हां, कहिये, कहिये..कीजिये ना मेरी सिफारिश, रामसा पीर आपका भला करेगा..कढ़ी खायोड़ा, बेटी का बापां।

दयाल साहब – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – कह दूंगा उनको, लगा दो इस मोहन लाल को बांसवाड़ा। वहां तुमको खूब मिलेगा, मीठा पानी।

मोहनजी – [आश्चर्य करते हुए, कहते हैं] – अरे बेटी का बाप, यह क्या ? मैं ग़रीब तो चाहता हूं, जन्नत की सैर करना..मगर आप तो मुझे डाल रहे हैं, दोज़ख में..? ऐसा मैंने क्या बिगाड़ा, आपका ?

[उन्होंने सोचा, शायद रशीद भाई उनके समक्ष उनका पक्ष रखेंगे। यह सोचकर वे, उनकी तरफ़ देखते हुए कहते हैं।]

मोहनजी - अरे रशीद भाई कढ़ी खायोड़ा, कुछ तो बोलो आप। आप तो ठहरे, सेवाभावी।

रशीद भाई – क्या बोलूं, मालिक ? आप सभी बैठे महानुभव हमारे अफ़सर, और मैं बेचारा हूं डस्ट ओपरेटर। क्या कहूं, आपको ? कहते हैं, गधे के अगाड़ी और अफ़सर के पिछाड़ी रहना ही बेहतर है..मालिक।

मोहनजी – अरे यार रशीद, अब तू मुझे अफ़सर समझकर मत बोल। तेरे अफ़सर तो हैं ये पाली वाले, राजू साहब और दयाल साहब। मैं तो तेरा गाड़ी का साथी हूं रे, कढ़ी खायोड़ा।

रशीद भाई – [मुस्कराकर कहते हैं] – अगर सच्च कहूं तो मालिक, आप नाराज़ मत होना।

मोहनजी – [ख़ुश होकर कहते हैं] – बोल यार, बोल रशीद..कुछ तो बोल। आख़िर है तो तू, सेवाभावी।

रशीद भाई – मालिक, आपने जन्म से ही धुन्दाड़ा गाँव का खारा पानी ही पीया है..और अभी तक आपके नसीब में, खारा पानी पीना ही लिखा है। अब कहिये, इस तकलीफ़ को दूर करने में..मैं क्या, मदद कर सकता हूं आपकी ?

राजू साहब – कोई सलाह दे दे रे, रशीद। शायद, इनका भला हो जाय..तुम तो आख़िर, ठहरे सेवाभावी और साथ में तुम इनके गाड़ी के दोस्त भी हो। बोल रशीद, बोल। क्या मैं सही कह रहा हूं, या नहीं..?

रशीद भाई – साहब, आख़िर मैं भी तो यही कहना चाहता हूं। जोधपुर स्टेशन पर जहां मोहनजी खारा पानी अपनी बोतल में भरते हैं, वह स्थान तो ये ख़ुद ही जानते हैं। स्टेशन पर, मैं मीठा पानी ही पीया करता हूं। और बोतल में भी, मीठा पानी ही भरता हूं..वह भी जनाब, ठंडा पानी।

राजू साहब – हां भय्या, ठंडा पानी ही भरोगे। आख़िर प्लेटफार्म के ऊपर ठौड़-ठौड़, रेलवे मंत्री लालू प्रसादजी यादव ने शीतल-जल की व्यवस्था कर रखी है।

रतनजी – [मुस्कराते हुए] – अब तो जनाब, इन वेंडरों से ठन्डे पानी की बोतले खरीदनी बंद कर दी है..लोगों ने। मगर फिर भी हमारे साहब, न जाने कहां से खारा और गर्म पानी भरकर ले आते है..? 

[यह सुनकर रशीद भाई, ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसते हैं। फिर मुस्कराते हुए, वे एक तरकीब बताते हैं।]

रशीद भाई – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – यह तो क़िस्मत का लेखा है, जनाब। अगर, आली जनाब मोहनजी कहते हैं तो, मैं इनको खारची से वापस जाने की तरकीब बता तो दूं...? मगर जनाब, ये मेरा कहना मानेंगे नहीं। [मोहनजी की तरफ़ मुंह करके, कहते हैं] कहिये मोहनजी, बता दूं ? कहीं आप, नाराज़ तो न होंगे जनाब ?

[खीजे हुए मोहनजी, कहते हैं]

मोहनजी – [गुस्से में, कहते हैं] – बताने में, तूझे क्या मौत आ रही है..कमबख्त कढ़ी खयोड़ा ? [फिर, शांत होकर कहते हैं] आख़िर, हम तुम्हें सेवाभावी क्यों कहते है...? अब, बाबा रामदेव तेरा भला करेगा। कहिये रशीद भाई, क्या कहना चाहते थे आप ?

रशीद भाई – अगर आप में हिम्मत है तो, मैं कहूं जैसा ही कीजिये। सुनिए, आप अपने बड़े अफ़सर के ऊपर थूक दीजिये। या फिर कर लीजिये, उससे हाथापाई। मगर, यह काम आपसे होगा नहीं। ऐसा अगर आपने करके दिखला दिया, तो स्वत: आपका तबादला हो जायेगा।

राजू साहब – ऐसा मत बोल रशीद, आली जनाब मोहनजी बड़े होनहार है। हर काम करने की क़ाबिलियत, रखते ही होंगे ?

रशीद भाई क्या कहें, हुजूर ? वैसे आपका कहना भी सच्च हैं, सच्चाई यही है....ये अपने अधीनस्थ छोटे-बड़े कर्मचारियों से गाली-ग़लोज या अनर्गल बकवास ज़रूर कर सकते हैं। इसके अलावा, मोहनजी कुछ नहीं कर सकते। अरे जनाब, क्या कहूं, आपसे.....

रतनजी – [बीच में बात काटते हुए, कहते हैं] – क्यों फ़िज़ूल की बातें करते हो, रशीद भाई..? यह तो आप जानते ही हैं, के मोहनजी आपकी सलाह मानने वाले नहीं...ये तो छुपे रुस्तम ठहरे। दिल के अन्दर, पदोन्नति के लड्डू फोड़ते हैं। फिर, क्यों अपने अधिकारी के ऊपर थूकेंगे या उनके साथ मार-पीट करेंगे ?

दयाल साहब – रशीद तू कुछ समझता नहीं, यह मोहन लाल सांई जितना बाहर दिखायी देता है, उससे ज़्यादा तो यह ज़मीन में गड़ा हुआ है। ख़ाली तूझे बेवकूफ बनाने के लिए, सलाह मांगता है।

मोहनजी – [लपक कर, कहते हैं] – वाह रशीद भाई, एक तो आप उल्टी-उल्टी सलाह देते हैं। अगर आपके कहने से चलूं तो मेरा बेडा गर्क हो जाय, फिर मेरे छोटे-छोटे बच्चों को कौन पालेगा ?

रतनजी – [व्यंगात्मक मुस्कान लबों पर बिखेरकर] - रशीद भाई आप इतना भी नहीं जानते, साहब जल्द ही सेवानिवृत होने वाले हैं। इनकी सेवानिवृति के बाद, क्या आप पालोगे इनके बच्चों को..या उनको ले जाकर, किसी यतीमखाने में दाख़िला दिला दोगे ?

रशीद भाई – [नाराज़गी से कहते हैं] – आप अपनी जानो, मैं तो अब करता हूं आराम। किसी के फटे में, पांव फंसाने की मुझे कोई रूचि नहीं।

मोहनजी – [खीजे हुए कहते हैं] - आपके गालों में तो जनाब, घोड़े दौड़तें हैं। आपके बच्चे कमाने लग गए हैं, मगर मेरे नन्हें-नन्हें बच्चे अभी पढ़ रहे हैं..आपको, क्या मालुम ? हर विषय की ट्यूशन कराने के, पांच-पांच सौ रुपये...

रतनजी – [बात पूरी करते हुए कहते हैं] – खर्च होते हैं, कढ़ी खायोड़े..जीमते हैं आप, रावले आपको क्या मालुम..इस ग़रीब अवाम का हाल ? [मोहनजी की तरफ़ मुंह करके कहते हैं] जनाबे आली मोहनजी, आप यही कहना चाहते हैं...न ?       

रशीद भाई – [मुंह बनाकर, कहते हैं] – मालिक, अपना भला-बुरा आप जानों। फिर आप, मेरे जैसे ग़रीब को काहे परेशान करते हैं ? हमारे क़ाज़ी साहब ने कहा है..

रतनजी – क्या कहा..? कहिये..कहिये।

रशीद भाई – उन्होंने कहा ‘शेख, अपनी-अपनी देख।’ [मोहनजी की तरफ़ देखते हुए, कहते हैं] मालिक मोहनजी, आप जानों और आपका काम जाने। ख़ुदा रहम, हफ्वात करने से तो अच्छा..अल्लाह पाक की, इबादत करता रहूं।

[इतना कहकर, रशीद भाई अपनी आँखे बंद करके चुप-चाप बैठ जाते हैं। इधर जनाबे आली मोहनजी को, रशीद भाई की दी हुई सलाह पसंद आती नहीं ? बस, वे तो नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए झट उठते हैं....और फिर, पाख़ाने की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा लेते हैं। मोहनजी ने पाख़ाने के आस-पास रास्ते में कई फकीरों को, बैठे देखा..उनका आगे बढ़ना हो जाता है, मुश्किल ? इधर तेज़ लगी लघु-शंका के मारे, उनका हाल बेहाल है। जाने की उतावली में वे राह में बैठे एक फ़कीर को, देख नहीं पाते। सहसा उसे टिल्ला मार देते हैं, जिससे बेचारे के हाथ में थामी हुई दारु की बोतल नीचे गिर जाती है और बोतल का सारा दारू आँगन में फ़ैल जाता है। दारु का इस तरह हुआ नुकसान , फ़क़ीर के लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त है। वह आँखे तरेरकर, जनाबे आली मोहनजी को देखता है। इस तरह उसका देखना, अधिकारी मोहनजी को क्यों अच्छा लगेगा..? वे तो उस पर अफसरशाही का रौब जतलाते हुए, कड़े लफ़्ज़ों में कहते हैं..]

मोहनजी – [टक्कर खाकर, कहने लगे] – दूर हट, कढ़ी खायोड़ा...यहां आँखे दिखलाकर, क्या तू मुझे डरा रहा है..?    

फ़कीर – [गुस्से में] – अरे बाबू, मैंने कहां कढ़ी खायी है..? यह बाबा तो, तीन दिन से भूखा है। भीख के पैसों से दारु लाया, वो भी तूने गिरा दी। अब देता जा, दारु के पैसे।

[इस फ़क़ीर की यह बात सुनते ही, मोहनजी को बहुत अचरच होने लगा....वे उसका मुंह गौर से देखते हैं, और सोच बैठते हैं के ‘एक तो यह फ़क़ीर है, बेटिकट यात्री। यहां बैठा यह, मुफ़्त की यात्रा कर रहा है..और ऊपर से कमबख्त, मुझसे ही दारु के पैसे मांग रहा है..?’]

फ़क़ीर – [क्रोधित होकर, कहता हैं] – ए बाबू, मेरा मुंह काहे ताक रहा है ? देना है तो, जल्दी दे। [उनका मुंह देखकर, कहता है] अरे, तू...? तू क्या देगा रे ? तू तो ठहरा, एक नंबर का कंजूस। चल तेरी क़ाबिलियत अनुसार मांग लेता हूँ, रुपया या दो रुपया देगा क्या...बोल, क्या देगा ?

मोहनजी – नामाकूल, गाड़ियों के अन्दर मुफ़्त में सफ़र करता है...और मुझ ग़रीब से, पैसे मांगता है ? कमबख्त, पेशाब-घर जाने का पूरा मार्ग रोक डाला तूने ?

फ़क़ीर – बाबू, फिर कहां बैठूं, क्या तेरी गोद में आकर बैठ जाऊं ? फिर, मुझे झूले देते रहना। तब मैं, आराम से नींद ले लूंगा। वैसे भी यहां, पेशाब की दुर्गन्ध के मारे नींद कहां आ रही है ? 

मोहनजी – [गुस्से में कहते हैं] – काबुल के गधे, कमबख्त तेरा नौकर हूं ? जो तूझे गोद में लेकर, झूले देता रहूंगा ? अब ठोकिरे ठहर जा, वापस आकर तूझे जी.आर.पी. वालों को नहीं पकड़ाया तो मेरा नाम मोहन लाल नहीं।

[पेशाब-घर का दरवाज़ा खोलकर मोहनजी, बन्दूक की गोली की तरह अन्दर घुस जाते है। अन्दर जनाब, दाख़िल क्या हुए ? बेचारे मोहनजी की जान आफत में फंस जाती है, अन्दर खड़ा है एक छक्का। यह छक्का तो वही है, जो गाड़ी के अन्दर यात्रियों से पैसे मांगा करता है..पैसे नहीं देने पर, वह उस यात्री की इज़्ज़त की बखिया उधेड़ देता है। यह छक्का कभी तो अपने सर पर, विग रखता है तो कभी अपने रुख़सारों पर पोतता है लाली-पाउडर..और कभी अपने होंठों पर लगा लेता है, लिपस्टिक। इस छक्के के रंग-ढंग को देखते ही, मोहनजी एक बार घबरा जाते हैं, इधर तेज़ लगी लघु-शंका नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है। वे क्रोधित होकर, कहते हैं..]

मोहनजी – [गुस्से से बेकाबू होकर, कहते हैं] – कमबख्त, तू छोरा है या छोरी ? अब निकल, बाहर। इधर मैंने खोली पतलून की चेन, और इधर तू नाज़र आ गया मेरे सामने..? गधे कहीं के, मूतने नहीं दे रहा है..अब, ए मेरे मालिक, तेरा अब करूं क्या... ?

छक्का – [ताली बजाता हुआ, कहता है] – सेठ। जैसा तू वैसा मैं, फिर क्या करना सेठ ? तू मुझे युरीनल में रखकर, करेगा क्या ? बूढ़े हो गए हो..तुम। बड़े बदनसीब ठहरे तुम, औजार काम में आने बंद हो गये तुम्हारे..?  

मोहनजी – [गुस्से में] - अरे, कमबख्त। तू बूढा, तेरा बाप बूढा। अरे बर्दाश्त नहीं होती, तेरी शक्ल। जाता है..या मारू तेरे पिछवाड़े पर लात ?

[यह कमबख्त नाज़र मोहनजी को पेशाब करने नहीं दे रहा, और इनकी लघु-शंका होती जा रही है नाक़ाबिले बर्दाश्त..अगर अब यह नालायक बाहर नहीं गया, तो जनाब की पतलून शत प्रतिशत गीली हो सकती है। खुदा रहम, खुदा के मेहर से उस नाज़र को आ जाती है अक्ल। वो ताली पीटता हुआ, चला जाता है बाहर।]

छक्का - बाहर जाता हूं, यहां रूककर किसको अपना धंधा ख़राब करना है ?

[ताली बजाता हुआ, छक्का युरीनल से बाहर आता है। इस छक्के के रंग-ढंग देखकर मोहनजी बहुत घबरा गए हैं, वे सोचते जा रहे हैं के यह नाज़र तो बड़ा कमीना निकला। कहीं इस नाज़र के बोले गए शब्द, किसी एम.एस.टी. वाले ने सुन लिए तो बनी बनायी सारी इज़्ज़त धूल में मिल जायेगी..? फिर क्या इज़्ज़त रहेगी मेरी, उन लोगों के सामने ?’ उन्होंने तो झट दरवाज़ा बंद किया, कहीं यह नाज़र वापस न आ जाए..? थोड़ी देर बाद, पेशाब करके मोहनजी युरीनल से बाहर आते हैं....अपने साथियों के पास। फिर वहां अपनी सीट पर बैठकर, उन मंगते-फकीरों की शिकायतें लेकर बैठ जाते हैं।]

मोहनजी – आख़िर करूं क्या, कढ़ी खायोड़ों ? अब तो मुझे, रेलवे मिनिस्टर लालू भाई के पास इन नालायक मंगतों-फकीरों की शिकायत दर्ज करानी होगी। यह लालू भाई आख़िर, जानता क्या है..? उसे तो केवल बिहार की...

रतनजी – [उनकी बात को पूरी करते हुए, कहते हैं] – ‘फ़िक्र है, बिहार में नयी रेलवे लाइन कैसे बिछानी ?’ यही कहना चाहते थे, साहब ?

मोहनजी जी हां। बसयश लूटने के लिए लालू भाई लोक-कलाकारों को चलती गाड़ी की छत्त पर नचा दिया करते हैं, जैसे एक बार किसी डाइरेक्टर ने शाहरुख खान कोछय्या-छय्याके गीत पर नचा दिया था। इसके अलावा, लालू भाई के पास काम क्या है ?’

रशीद भाई – [मुस्कराकर कहते हैं] अरे मालिक, और भी काम है।पासवानजी के साथ खड़े होकर गुलाब के पुष्पों की मालाएं पहननी, और भाषण देते हुए फोटो खिचवाना।

मोहनजी - और इनसे, क्या आशा की जा सकती है..?

रतनजी मगर आख़िर हुआ क्या, आपको ? क्यों आप, बेचारे लालू भाई को गालियां देते जा रहे हैं ? क्या जानते हैं, आप ? गली-गली में भटकते कलाकारों को रोज़गार देकर, कितना अच्छा काम किया है लालू भाई ने

मोहनजी – मैं बेचारा करूं, क्या ? परेशान कर दिया, इन बदतमीज़ फ़क़ीर और हिंज़डों ने। क्या करें ? रोटी खायें तो सामने आ जाते हैं मंगते-फ़क़ीर, खाने नहीं देते कमबख्त।

रतनजी – और, कोई शिकायत ?

मोहनजी - मुफ़्त में यात्रा करते हुए, ठौड़–ठौड़ टट्टी-पेशाब करके पाख़ाने की व्यवस्था बिगाड़ डाली इन कम्बख्तों ने। और आगे क्या कहूं, आपको ? 

रशीद भाई – कह दीजिये, साहब। आप तो जनाब जानते ही है, शिकवे बार-बार बयान नहीं किये जाते। कह दीजिये, दिल हल्का हो जाएगा।

मोहनजी – पेशाब करने जायें युरीनल में, वहां भी ये हिंज़ड़े तैयार। नालायक, कच्छे के तिजारबंद को खोलने ही नहीं देते ? इधर तेज़ी से लगी, यह कमबख्त लघु-शंका..नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाती है।

रशीद भाई – कहीं ऐसा तो नहीं हुआ, आपकी चड्डी गीली हो गयी..और, अब आप..

मोहनजी – अरे नहीं रे, कढ़ी खायोड़ा, इतना तो रामा पीर का मेहर है मेरे ऊपर।

रशीद भाई – अजी जनाबे आली, छोड़िये इन बचकानी बातों को। ऐसा, क्या हो गया..? दिल बड़ा रखिये, जिसमें रहम की दरिया बहती रहे। ना तो जनाब, आपका जीवन काटना दूभर हो जायेगा।

मोहनजी – आप जाते कब हैं, युरीनल ? पीर दुल्हेशाह हाल्ट आयेगा, तब आपके लिए आयेगा पीर बाबा का हुक्म। तब तक, आपको युरीनल से क्या काम ? अब तो कढ़ी खायोड़ा मैंने तो अब, आख़िर तजवीज ले लिया के....

रशीद भाई – ज़ाहिर कर दीजिये, मालिक। हम, ज़रूर सुनेंगे।

मोहनजी – दिल तो यह करता है...के, जी.आर.पी. वालों को कहकर, इन फकीरों और हिंज़ड़ो को गिरफ्तार करवा दूं। अब तो कढ़ी खायोड़े, इन जी.आर.पी. वालों का ही आसरा बाकी रहा है।

गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो जाती है, गाड़ी रुक जाती है। लूणी स्टेशन आ जाता है। मोहनजी खिड़की से मुंह बाहर निकालकर, प्लेटफार्म पर खड़े जी.आर.पी. वालों को देखते हैं। उनको देखते ही, वे उन्हें ज़ोर से आवाज़ लगाकर कहते हैं।]

मोहनजी – [दोनों को हाथ ऊपर करके, उनको आवाज़ देते हुए कहते हैं] – पकड़ो..पकड़ो, ओ हवलदार साहब पकड़ो..

[गाड़ी का मंज़र ख़त्म होता है, अब वापस माल गोदाम का मंज़र सामने आता है। मोहनजी बड़ाबड़ाते हुए, हाथ ऊपर करते हैं। हाथ ऊपर करते वक़्त, धान की बोरियां रखने वाले उस हमाल को लग जाता है टिल्ला..जो उनके पास ही, बोरी रख रहा था। टिल्ला लगते ही वह हमाल घबरा जाता है, और उसके हाथ से बोरी छिटक कर पास खड़े वाच मेन चम्पले के पांव पर गिर जाती है..जो बेचारा खड़ा-खड़ा, धान की बोरियां गिन रहा था। अब बेचारा चम्पला दर्द के मारे, ज़ोर से चिल्ला उठता है।]

चम्पला – [चिल्लाकर कहता है] – अरे रामा पीर मार दिया रे, कढ़ी खायोड़ा अफ़सर ने। यात्रा-भत्ता के पैसे कमाने के ख़ातिर, मेरा पांव तोड़ डाला रे...रामा पीर।

[चम्पले के चिल्लाने से, मोहनजी के मानस में छायी हुई विचारों की कड़ियां टूट जाती है, और वे चेतन होकर आँखे मसलकर आँखें खोलते हैं। फिर, कहते हैं, के..]

मोहनजी – [आँखे मसलते हुए कहते हैं] – अरे, तू कौन ? कहां गए, वे जी.आर.पी. वाले ? [चम्पले को नज़दीक से देखते हुए] अरे तू तो है, चम्पला कढ़ी खायोड़ा..? अरे रामा पीर, मैंने कोई स्वप्न देख डाला क्या..दारुड़े फ़क़ीर का ?

[“दारुड़ा फ़क़ीर” शब्द, कुछ उन्होंने ज़ोर से बोला, जिससे दीवार के पास खड़े दारुड़े फ़क़ीर को वे शब्द सुनायी दे जाते हैं। दारु पी रहे दारुड़े फ़क़ीर को ऐसा लगता है, शायद मोहनजी उसे भीख देने के लिए बुला रहे हैं ? यह ख़याल मानस में आते ही, दारु का अंतिम घूँट पीकर दारु की बोतल को रख देता है दीवार के ऊपर। फिर दौड़कर जा पहुंचता है, मोहनजी के पास..फिर, वह कहता है..]

दारुड़ा फ़क़ीर – [पास आकर कहता है] - ए सेठ साहब, क्यों बुलाया मुझे ? एक या दो रुपये दे दे, अल्लाह पाक के नाम..! वो, तेरा भला करेगा। कुछ तो दे दे, सेठ।

[यह बेचारा फ़क़ीर ऐसा क्या बोल गया, मोहनजी को ? मोहनजी ऐसा समझते हैं, कहीं वह फ़क़ीर उनके चेप न हो जाय ? यानि, अब वह कुछ लेकर ही जायेगा। मोहनजी तो ठहरे, मक्खीचूस नंबर एक। जेब से रुपये-पैसे निकालने का, कोई सवाल ही पैदा नहीं होता ? बस, फिर क्या ? झट, उससे पिंड छुड़ाने की तरकीब सोचते हैं। तभी मोहनजी को सामने से, पुलिस का हवलदार आता दिखायी देता है। उसे देखते ही, जनाब ख़ुश हो जाते हैं। और ख़ुश होते हुए, उस फ़क़ीर से कहते हैं..]

मोहनजी – [हवलदार की ओर, अंगुली का इशारा करते हुए कहते हैं] – देख उधर, कौन साहब आ रहे हैं ? [हवलदार को पुकारते हुए, कहते हैं] ओ हवलदार साहब, इस फ़क़ीर को अपने गंगा राम की प्रसादी खिलाना..जो इसने, अभी तक खायी नहीं है।

[उस हवलदार को नज़दीक आते देखकर, वो फ़क़ीर डरकर दबे पांव भाग छूटता है। उस फ़क़ीर के भगने के बाद, मोहनजी चम्पला से कहते हैं..]

मोहनजी - [चम्पले से कहते हैं] – ए रे चम्पला, कढ़ी खायोड़ा। तू तो यार, जवान आदमी ठहरा। गेलसफा, अब क्यों मुंह फाड़े बों-बों कर रहा है ? ख़ाली एक बोरी तो गिरी है, कोई पहाड़ आकर तो नहीं गिरा तेरे ऊपर ?

चम्पला – [रोनी आवाज़ में, कहता है] – अरे मालिक, इस तरह आप क्यों कह रहे हैं ? पहाड़ नहीं गिरा है, तो मालिक अब लाकर गिरा दीजिये इस ग़रीब पर।

मोहनजी – ऐसी बात नहीं है रे, कढ़ी खायोड़ा। मैं तो यह कह रहा हूं के यों हिम्मत हार जायेगा तू, तो आगे काम कैसे चलेगा ?

[मगर चम्पला तो रोता जा रहा है, उसके रोने की आवाज़ ऐसी लग रही है मानो “कहीं कोई सियार, ऊंचा मुंह किया हुआ रोता जा रहा है ?” उधर इस चम्पले के रोने की आवाज़ सुनकर, ठेकेदार साहब हाथ में बैग लिए इधर तशरीफ़ रखते हैं।]

ठेकेदार – [नज़दीक आकर, मोहनजी से कहते है] – क्या हुआ, साहब ? आख़िर हुआ क्या, खैरियत तो है ?

मोहनजी – [भड़कते हुए, कहते हैं] – “क्या हुआ, क्या हुआ” कहते हुए, आप कढ़ी खायोड़ा आ गये यहां ? अभी मेरे आदमी की टांग टूट जाती तोऽऽ, आपके बाप का क्या जाता ? मेरा बेचारा चम्पला, अभी बोरी के नीचे आ जाता ?

ठेकेदार – [घबराते हुए] – साहब, कुछ करो। भाया को खड़ा करो..

मोहनजी – [बात काटकर कहते हैं] – आपको तो दिखायी देता है ख़ाली, अपनी मां का धाबलिया। इसके अलावा, आपको कुछ दिखायी देता नहीं। आप तो नेग देकर बड़े अफ़सरों के पास बैठकर जीम लेते हैं, मगर हमारे आदमी सुबह से भूखे हैं...

ठेकेदार – [घबराकर कहते हैं] – क्यों फ़िक्र कर रहे हैं, आप ? ये लीजिये साहब, सौ रुपये। आपके आदमियों को मिर्ची बड़े मंगवाकर खिलाओ, और इस भाया के पाँव पर तेल की मालिश कर दीजिये..दो मिनट में रेडी..!

[ठेकेदार साहब एक सौ रुपये का नोट, मोहनजी को थमाते हैं। अचानक ठेकेदार साहब को, सामने से दो बड़े अफ़सर आते दिखायी देते हैं। उनके दीदार होते ही, वे बहाना बनाकर चले जाते हैं..उन अफ़सरों से मिलने।]

ठेकेदार – अभी आ रहा हूं, साहब। [रूख्सत होते हैं]

[उनके जाते ही, रशीद भाई तशरीफ़ लाते हैं। इधर मोहनजी, चम्पले को सौ का नोट थमाकर कहते हैं।]

मोहनजी – ये ले, सौ रुपये। और जा, कुछ खाकर आ ज़ा। आते समय, हमारे लिए मिर्ची बड़े व चाय-वाय लेते आना। अब खड़ा होता है, या तेरी टांग पकड़कर तूझे खड़ा करूं  ? 

[सौ का नोट हाथ में आते ही, झट उठकर खड़ा हो जाता है चम्पला। ऐसा लगता है, मानो उसको कुछ हुआ ही नहीं। मगर रशीद भाई कोई कम नहीं, झट अपने बैग से मालिश करने की मूव ट्यूब निकालकर थमा देते हैं उस चम्पले को। मगर यहां तो जनाबे आली मोहनजी ठहरे, उनसे ज़्यादा चालाक। चम्पले से वापस ट्यूब छीनकर, थमा देते हैं रशीद भाई को। फिर जनाब, मुस्कराते हुए कहते हैं..]

मोहनजी – [रशीद भाई को ट्यूब थमाते हुए कहते हैं] – रखो अपनी ट्यूब, अपने पास। चम्पले को मिल गया, विटामिन एम.। अब इसका पांव, अपने-आप हो गया ठीक।

[उनके ऐसे व्यवहार को देखकर, चम्पला हैरान होकर उनका मुंह देखता रह जाता है। इधर मोहनजी चले जाते हैं, उस ठेकेदार के पास...जो अभी, धान की बोरियों को तुलवाने में व्यस्त है। वे ठेकेदार से, कहते हैं।]

मोहनजी – ठेकेदार साहब कढ़ी खायोड़ा, आप क्या जानते हैं..मेरी आपबीती ? तड़के उठकर बाजरी का सोगरा और कांटे वाले बैंगन की सब्जी, ठोककर आया। मगर, अब भूख लग गयी है..आप रोटी-बाटी खिलाओ, तो काम बने।

[मगर मोहनजी की कही हुई बात, बेकार साबित होती है। ठेकेदार साहब को वही दोनों बड़े अफ़सर वापस आते हुए दिखायी देते हैं, तत्काल वहां का काम छोड़कर वे उनके पास चले जाते हैं। जाते-जाते, मोहनजी को कह देते हैं  ‘मालिक, अभी आ रहा हूं।” फिर क्या ? वे तीनो ऐसे गायब हो गए हैं, उनके गए तीन घंटे बीत जाते हैं मगर उनके आने का कोई समाचार नहीं। इधर मोहनजी के बदन में भूख बर्दाश्त की क्षमता नहीं, बस कमज़ोरी के कारण उनको चक्कर आने लगते हैं। वे अचेत होकर, ज़मीन पर गिर पड़ते हैं। पास खड़ा हवलदार, हमाल को आवाज़ देकर ट्रोली मंगवा देता है। उसमें मोहनजी को बैठाकर, उन्हें रिक्शे के पास ले जाया जाता है। अब उन्हें रिक्शे में, अच्छी तरह से बैठा देते हैं। थोड़ी देर बाद यह रिक्शा, बांगड़ अस्पताल पहुंच जाता है। रिक्शा रुकते ही, वार्ड बोय ट्रोली [स्ट्रेचर] में मोहनजी को लेटाकर इमरजेंसी-रूम में ले आता है। वहां उन्हें, आराम से बेड पर लेटा देता है। फिर ट्रोली को लेकर, वह वापस चला जाता है। उनके पास वाले बेड पर, आठ-दस साल का एक शैतान लड़का भी लेट रहा है। डॉक्टर साहब आकर, मोहनजी के सीने पर स्थसस्कोप लगाकर जांच करते हैं। इसके बाद बी.पी. इंस्ट्रूमेंट से, ब्लड-प्रेसर की जांच करते हैं। जांच करने पर, उनका रक्त-चाप कम यानि ९० पाया जाता है। इसलिए डॉक्टर साहब उनकी पर्ची पर ग्लूकोज़ और जी.डी.डब्लू. ५% तथा एम.वी.आई. इंजेक्शन लिखकर, उस मेल नर्स को ज़रूरी निर्देश दे डालते हैं।]

डॉक्टर – इस मरीज़ की यह हालत तो, भूख के कारण हुई है। अब लगाइए इसे, ग्लूकोज़ की ड्रीप। बाद में चढ़ा देना, एम.वी.आई. का इंजेक्शन।

[इतना कहने के बाद, डॉक्टर साहब अपने ड्यूटी रूम में चले जाते हैं। उनके जाने के बाद, मेल नर्स ग्लूकोज़ की ड्रीप चढ़ाता है। ड्रीप चढ़ते ही, मोहनजी को पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती है, अब वे अपनी आँखे खोलते हैं..मगर सामने एम.वी.आई. से भरा तैयार इंजेक्शन हाथ में लिए, उस मेल नर्स को क्या देख लेते हैं..बेचारे मोहनजी ? उनके, होश उड़ जाते हैं। अब जैसे ही, बांह के नज़दीक उस इंजेक्शन को लाया जाता है....जनाबे आली मोहनजी की साँसे, ऊंची चढ़ जाती है। बेचारे इंजेक्शन को देखते ही, ऐसे घबराकर उछलते हैं..मानो कोई बन्दर, किसी सांप को देखकर उछलता जा रहा है...? इस तरह, वे घबराये हुए कहते हैं....]

मोहनजी – [घबराये हुए, कहते हैं] – मैं इंजेक्शन नहीं खाऊंगा, यह कोई खाने की चीज़ है ? [मेल नर्स को, और नज़दीक आते देखकर] अरे जनाब मुझे नहीं, इस छोरे को लगाओ। [उस शैतान लड़के की ओर, इशारा करते हैं]

[सुनते ही बेचारा मेल नर्स हक्का-बक्का हो जाता है, के आख़िर ‘यह इंजेक्शन, लगाना किसे है ?’ वह बेचारा मेल नर्स तो, मोहनजी के इस तरह उछलने के कारण भूल गया..के, उसको ‘डॉक्टर साहब से क्या निर्देश मिले थे ?’ फिर क्या ? वह उस छोरे के पास आता है, और उसकी बांह पकड़कर लगा देता है इंजेक्शन। मगर यहां तो हो गयी, गड़बड़। उतावली बरतने से, वह नीडल चमड़ी से आर-पार हो जाती है। और इंजेक्शन में भरी दवाई की धार, छूट जाती है दीवार पर। इस मंज़र को देखकर, वो शैतान छोरा ज़ोर से हंसता है। और, कहता है..]

छोरा – [हंसता हुआ कहता है] – अजी डॉक्टर साहब, क्या कर रहे हैं आप ? बेचारे इस छोटे बच्चे पर रहम कीजिये, दवाई मेरे बदन में नहीं..दीवार..

मेल नर्स – [डांटता हुआ कहता है] – चुप बे, बेअदब। दांत निपोरकर, हंसता जा रहा है कमबख्त ? समझता नहीं, यार। बदन में समायेगी उतनी ही दवाई अन्दर आयेगी, बाकी तो बाहर आकर ही गिरेगी।

[छोरे की बांह पर, स्प्रिट से भींगी रुई मसलते ही मेल नर्स को डॉक्टर साहब के दिए निर्देश याद आ जाते हैं। फिर क्या ? वह झट, मोहनजी को तैयार होने के लिए कहता है।]

मेल नर्स - [स्प्रिट से भींगी रुई से, चमड़ी मसलता हुआ कहता है] – अब मालिक मोहनजी, तैयार हो जाओ..अब आपकी बारी आ गयी है। इस बार, अगर मोहनजी आप बन्दर की तरह उछले तो, आपको रस्सी से बांधकर ठोक दूंगा इंजेक्शन।

[इंजेक्शन में भरी जाने वाली दवाई की विअल, अब मेल नर्स को दिखायी नहीं दे रही है ? बेचारा भूलने की आदत के कारण भूल गया, के ‘उसने एम.वी.आई. विअल ३० एम.एल. कहां रख दी ?’]      

मोहनजी – [हाथ जोड़ते हुए, कहते हैं] – मालिक, माफ़ कीजिये। ऐसा आधा-अधूरा इंजेक्शन मुझे नहीं खाना, इस छोरे के लगे इंजेक्शन को देखकर ही मेरी तबीयत ठीक हो गयी है। अब इसे लगाने की, क्या ज़रूरत ?    

[तभी कमरे के अन्दर, चपरासी दाख़िल होता है। आते ही, वह मेल नर्स से कहता है..]

चपरासी – कम्पाउंडर साहब, बड़े साहब आपको बुला रहे हैं..जल्दी आइये।

[चपरासी के साथ वो मेल नर्स, ड्यूटी रूम की ओर जाता हुआ दिखायी देता है। उन दोनों को जाते देखकर, मोहनजी की जान में जान आती है। फिर क्या ? मोहनजी तो झट जूत्ते पहनकर अड़ी-जंट तैयार हो जाते हैं, स्टेशन जाने के लिए। फिर क्या ? बेचारे मोहनजी उल्टे पांव, रेलवे स्टेशन की ओर अपने क़दम बढ़ा देते हैं। वहां आकर स्टेशन मास्टर साहब से, जोधपुर जाने वाली गाड़ी की तहकीक़ात करते है।]

मोहनजी – मास्टर साहब, मुज़रो सा। अब जनाब आप यह बताइये, के ‘जोधपुर जाने वाली गाड़ी कब आयेगी ?’  

[इनकी बात सुनकर स्टेशन मास्टर साहब, ऐनक को ऊपर चढ़ाते हुए उनसे कहते हैं..]

स्टेशन मास्टर – [ऐनक ऊपर चढ़ाते हुए, कहते हैं] – अरे मोहनजी, आप अब आये ?

मोहनजी – ऐसा क्या हो गया, जनाब ?

स्टेशन मास्टर - अरे साहब, ड्यूटी से छिपला खाने की बीमारी को मत पालो। अब भईजी, धान की इतनी सारी बोरियां रखी है..कौन अनाज की बोरियां गिनेगा, भाई ? थोड़ी समझदारी रखो, बेटी का बाप।

मोहनजी – [घबराकर कहते हैं] – ऐसी क्या बात है, जनाब ? आप तो उलाहने देते ही जा रहे हैं..?

स्टेशन मास्टर – माल बाबूजी बुला रहे हैं, आपको। दो घंटे हो गये, आपको ढूंढ़ते।

[फिर मोहनजी जनाब का, क्या कहना..? बस वे तो धर-कूंचो, धर-मचलो..! धर-कूंचो, धर-मचलो..अरे जनाब आख़िर, पांव रगड़ते-रगड़ते वे सीधे जा पहुंच जाते हैं, माल गोदाम के माल बाबू के पास। उनको देखते ही, माल बाबू कहता है..]

माल बाबू – अरे बेटी का बाप, यों क्या कर रहे हैं ? यह ठेकेदार आपको ढूँढ़ता-ढूँढ़ता, परेशान हो गया है।

मोहनजी – मैं चला गया तो क्या हो गया, बाकी सभी यहीं बैठे हैं ?

माल बाबू – कुछ समझा करो, मोहनजी। आपके दस्तख़त के बिना यह शैतान का चाचा ठेकेदार माल नहीं उठा रहा है, इधर माल गाड़ी पटरियों पर ख़ड़ी है।

मोहनजी – जनाब, फिर परेशानी किस बात की ?

माल बाबू – बिना माल उठाये, यह क्रोसिंग की फाटक कैसे खुले ? यह छोटी सी बात, आप जानते ही हैं। उधर फाटक के पास खड़ी पब्लिक, हमें अलग से परेशान कर रही है। मगर बड़े भाई, आपका काम पूरा न होने के पहले फाटक कैसे खोलें ?

मोहनजी – धीरज रखिये, साहब। अभी माल ख़ाली होता है।

[माल बाबू के कमरे से बाहर आकर, वे चम्पले को पुकारते हैं..]

मोहनजी – [चम्पले को आवाज़ देते हुए कहते हैं] – कहां जा रिया है रे, चम्पला कढ़ी खायोड़ा ? इधर मर, किधर चला गया ? [आवाज़ सुनकर, चम्पला नज़दीक आता है]

चम्पला – हुकूम, कहिये।

मोहनजी – अब देख, सारी बोरियां गाड़ी से ख़ाली करवाकर प्लेटफार्म पर रखवा दे...गिनती वार, थाप्पियाँ लगाकर।

चम्पला – जनाब, अभी ख़ाली होती है गाड़ी। और, कोई हुक्म ?

मोहनजी – हुक्म को मार गोली, अब सुन। पूरा माल उठाकर कागज़ तैयार कर दे, बस ख़ाली मेरे दस्तख़त करने बाकी रहे। ले सुन, दस्तख़त कल आकर करूंगा। सावधानी से काम करना, समझ गया कढ़ी खायोड़ा ?

[चम्पला रूख्सत होता है, अब मोहनजी की निगाह छप्परे के नीचे बैठे मुलाज़िमों पर गिरती है। जो इस वक़्त बैठे-बैठे, मिर्ची बड़े खा रहे हैं। उनको इस तरह अपनी पेट-पूजा करते देखकर, जनाबे आली मोहनजी की भूख बढ़ जाती है। वे सोचते जा रहे हैं, के..]

मोहनजी – [होंठों में ही कहते हैं] – यह ठेकेदार कहां मरा, कमबख्त ? पेट में चूहे कूद रहे है, आख़िर वह गया कहां ? अब इन मुलाज़िमों से ही पूछ लिया जाय, के ‘यह कढ़ी खायोड़ा ठेकेदार गया किधर ?’  

[अब मोहनजी मुलाज़िमों के पास जाते दिखायी दे रहे हैं, उनके निकट आकर वे उनसे कहते हैं।]

मोहनजी – भाईयों। कहीं आपको, ठेकेदार साहब दिखायी दिये ?

एक मुलाजिम – साहब, दस मिनट पहले ही ठेकेदार साहब इधर आये थे। बहुत ढूँढ़ने के बाद भी, आप कहीं नज़र नहीं आये। ठेकेदार साहब आये तब, वे मिर्ची बड़े, केले, बिस्कुट व सेब वगैरा लेकर ही आये थे..आप मौजूद होते, तो अच्छा होता।

दूसरा मुलाजिम – ये सब खाने की चीजें, हमें देकर चले गये। हम लोगों को बहुत भूख लगी थी, इसलिए हमने उस माल पर हाथ साफ़ कर लिये।

तीसरा मुलाजिम – साहब, आपने कुछ खाया या नहीं ?

मोहनजी – [उखड़े सुर में, कहते हैं] – अभी-तक कहां खाया, मेरे भाई ? यहां तो सुबह से भूखा मर रहा हूं, कढ़ी खायोड़ा ? अब कुछ बचा है, तो कहिये..इस पेट में डाल कर, इस जठराग्नि को शांत कर दूं ?

एक मुलाजिम – बस हुजूर, ये दो-चार मिर्ची बड़े ही बचे हैं। आपकी इच्छा हो तो, आप अरोग लीजिये।

[फिर, क्या ? मुलाज़िम मोहनजी को, बचे हुए चार मिर्ची बड़े थमा देते हैं। इन मिर्ची बड़ों को देखते ही, मोहनजी के मुंह से लार टपकने लगती है। अब मोहनजी ख़ुश होकर, होंठों में ही कहते हैं..]

मोहनजी – [होंठों में ही, कहते हैं] – ठोकिरा, इतनी देर प्रतीक्षा करने के बाद अब मिला है..मुझे, खाने के लिये मुफ़्त का माल। अब इस मुफ़्त के माल को छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता, कढ़ी खायोड़ा। वाह रे, वाह मेरे मालिक...अब तो हमारा प्रोग्राम सेट माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं...

[विचारमग्न मोहनजी अचानक, ख़ुशी से यह जुमला बोल देते हैं।]

मोहनजी – [लबों पर मुस्कान लाते हुए कहते हैं] – कहां जा रिया है, कढ़ी खायोड़ा ? अब तो खायेंगे मिर्ची बड़े, भर-पेट। जय हो बाबा रामसा पीर की, भूखों को खिलाने वालों को बहुत पुण्य मिलता है..कढ़ी खायोड़ा।

[अब मोहनजी ने, ना देखा आव और ना देखा ताव। वे तो कब्बूड़ो [कबूतरों] की तरह टूट पड़े, उन मिर्ची बड़ों पर। इधर ज़मीन पर गिरे गेहूं के दानों को देखकर, छप्परे पर बैठे सारे कबूतर उड़कर आ जाते हैं नीचे..और, उन बिखरे दानों पर टूट पड़ते हैं। कबूतरों का इस तरह अनाज के दाने चुगना, कोई नयी बात नहीं। ये तो पूरे दिन, दाने चुगने का ही काम करते हैं। मगर, बेचारे मोहनजी के लिये मिर्ची बड़े खाना ज़ान-ज़ोखिम का काम ठहरा। वे बेचारे सुबह से भूखे थे, उनकी आंते कह रही थी के कुछ ला। इधर उन्होंने पहले से पाली स्टाफ़ पर, माल ज़रूर उड़ाओ, मगर घर का नहीं... की योजना बना डाली। यहां आते ही अपने साथियों को कह दिया था, के “पेट में रोटी-बाटी ठोककर आये हैं, अपुन सब। मगर खाये हुए, काफ़ी वक़्त गुज़र चुका है। इसलिए सबसे पहले, ठेकेदार साहब से मंगवायेंगे मिर्ची बड़े। इसके बाद, चाय-वाय मंगवाकर पी लेंगे..ताकि थकावट दूर हो जायेगी रे कढ़ी खायोड़ा..समझ गये..!” बस यही कारण रहा, उनको खाना था मुफ़्त का माल। इसलिए वे घर से लाये नहीं, खाने का टिफिन। अब इस वक़्त भूख के मारे, मिर्ची बड़ों को देखते ही उन पर टूट पड़ते हैं। इस तरह, उन्होंने मिर्ची बड़े पूरे अरोग लिए..केवल मिर्चों के डंठल बचाए रखे। अब सुबह घटित हुई घटना, उनकी आंखो के आगे फिल्म की तरह छा जाती है। सुबह चार बजे दोनों पति-पत्नि उठ जाते हैं। उनकी पत्नि लाडी बाई साफ़-सफ़ाई करती हुई, घर का एक-एक कोना झाड़ती है। घर के काम करती हुई, अब वह मोहनजी से कह रही है....]

लाडी बाई – [झाङू से, घर की सफ़ाई करती हुई कहती है] – सुना..ओ सुना आपने, गीगले के बापू। घर का काम बहुत बढ़ गया है, अब मेरे पास वक़्त नहीं..खाना बनाने का। आपको भोजन करना है तो..

मोहनजी – तो क्या, भागवान..आपने कहीं मिठाई मंगवाकर रखी है, क्या ? कहो, कहां रखी आपने ?

लाडी बाई – मिठाई क्या, ज़हर भी नहीं रखा है खाने के लिए। आपको खाना है तो, बना लो बाजरी की रोटियां और कांटे वाले बैंगन की सब्जी। ख़ुद भी खा लो, और हमको भी खिला दो। नहीं तो....

मोहनजी – [आश्चर्य चकित होकर, कहते हैं] - ना तो क्या करूं, भागवान ?

लाडी बाई – [मुस्कराती हुई, कहती है] – बना लेना, कहीं जाने का सरकारी-टूर। वहां जाकर अरोग लेना, माल-मसाले....और, क्या ? आख़िर, आप ठहरे धान के अफ़सर। [होंठों में ही, कहती है] एक नंबर के कंजूस, इनकी जेब से एक पैसा निकलने वाला नहीं।

[अब वापस मंज़र माल गोदाम का आता है, इस वक़्त मोहनजी कुछ सोचते हुए दिखायी दे रहे हैं।]

मोहनजी – [होंठों में ही, कहते हैं] – लोगों को कहता जा रहा हूं, के ‘खाकर आया हूं, बाजरे की रोटी और कांटे वाले बैंगन की सब्जी।’ मगर असल में, मैंने कुछ खाया ही नहीं। अब भूखे मरते खाये, मिर्ची बड़े। और अब ये कमबख्त मिर्ची बड़े, दिखा रहे हैं चमत्कार। [पेट में मरोड़े चलने लगते हैं, अब वे दर्द के मारे पेट को दबाते हैं]

[इधर मोहनजी के पेट में मरोड़े उठते हैं, अब दीर्घ-शंका जाने का प्रेसर बन चुका है। और इधर भूखे-पेट खाये मिर्ची बड़े, उन मिर्चों की जलन जो पैदा हो रही है...वह नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। बेचारे मोहनजी पेट को दबाते-दबाते, हो गए परेशान। अब तो यह प्रेसर इतना बढ़ गए है... उनकी ऐसी स्थिति अल्लाह मियाँ देख ले तो, शायद उनको भी रहम आ जाए। अचानक उन्हें दीवार पर रखी दारुड़े फ़क़ीर की बोतल दिखायी देती है। फिर क्या ? झट बोतल में पानी भरकर निकल पड़ते है, वन विभाग जाने वाले मार्ग की ओर। इस सुनसान मार्ग से गुज़रकर, रतनजी, रशीद भाई और ओमजी गाड़ी पकड़ने के लिए रोज़ स्टेशन आते हैं। इस मार्ग के आस-पास, बहुत सारी बबूल की झाड़ियां उगी हुई है। सुबह-सुबह मज़दूर बस्ती के कई लोग, दिशा मैदान के लिये यहां चले आते हैं। अब इस वक़्त मोहनजी इन्ही झाड़ियों के पीछे, चले जाते हैं निपटने। मगर बेचारे मोहनजी रहे ऐसे करम-ठोक इंसान, जिनकी क़िस्मत सही वक़्त कभी साथ नहीं देती। झाड़ियों के पीछे जैसे ही वे शौच जाने के लिए बैठना चाहते हैं, तभी न जाने कहां से वह कुटिल फ़क़ीर वहां आ जाता है...फिर, क्या ? मोहनजी के हाथ में थामी हुई बोतल को, वह पहचान लेता है। पहचानते ही वह उस बोतल को, मोहनजी के हाथ से छीनने की भरसक कोशिश करता है। उनको झिड़कता हुआ, कड़वे शब्दों में कहता है।]

दारुड़ा फ़क़ीर – [बोतल छीनते हुए, कहता है] – अरे ओ कंजूस सेठ, रुपया-दो रुपया तू देता नहीं..अब ऊपर से मेरी बोतल चुराता है, हरामी ? तेरे बाप ने मुझको, कभी दारु पिलायी क्या ?

[ज़ोर से मोहनजी को धक्का मारकर, वह फ़क़ीर उनसे बोतल छीन लेता है। फिर उनका गिरेबान पकड़ता है, इधर मोहनजी का प्रेसर नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाता है। मगर अब उस फ़कीर के हाथों को, कौन रोके..? वह कमबख्त, उन पर हाथ उठाने के लिए उतारू हो जाता है। झाड़ियों के पार, सड़क पर चल रहे उनके साथियों की आवाज़..मोहनजी के कानों में गिरती है। अब उनको पूरा वसूक हो जाता है, इस वक़्त उनके साथी दफ़्तर छोड़कर इधर से ही गुज़र रहे हैं ? क्योंकि इस वक़्त, बेंगलूर एक्सप्रेस के आने का वक़्त निकट आता जा रहा है। इस कारण वे, मार से बचने के लिये..ज़ोर से चिल्लाते हुए, अपने साथियों को आवाज़ दे डालते हैं।]

मोहनजी – [चिल्लाते हुए, कहते हैं] – अरे कोई यहां आकर, मुझे बचाओ रे। ओ रशीद भाई, ओ रतनजी..आकर बचाओ मुझे, इस फ़क़ीर से। यह कमबख्त मुझे, जंगल में शौच के लिये बैठने नहीं देता।

[मोहनजी का अनुमान सही रहता है, उनके साथियों के बारे में। मोहनजी के किलियाने की आवाज़, दफ़्तर से लौट रहे उनके साथी रशीद भाई के कानों में सुनायी देती है। इस वक़्त रशीद भाई, रतनजी और ओमजी दफ्तर छोड़कर, पाली रेलवे स्टेशन की ओर अपने क़दम बढ़ा रहें हैं। चलते-चलते वे सभी यही सोच रहे हैं, के ‘अभी ज़्यादा देरी हुई नहीं है, इसलिये बेंगलूरु एक्सप्रेस आसानी से मिल सकती है।’ इतनी देर में, रशीद भाई को मोहनजी के किलियाने की आवाज़ एक बार और सुनायी देती है। अब वे अपने कान पर हाथ रखकर, अपने साथियों से कहते हैं।]

रशीद भाई – [कान पर हाथ देते हुए, कहते हैं] – भाई लोगों, कुछ सुना आपने ? मुझे यह आवाज़ मोहनजी के किलियाने की लगती है, ऐसा लगता है कोई उनको पीट रहा है ?

ओमजी – हां रशीद भाई, मुझे भी ऐसा ही लग रहा है..ये वही मोहनजी है, जिनकी ख़िदमत करते-करते हम लोग अपने घुटने छिला रहे हैं और चांदी चख रहे हैं।

रतनजी – यारों। मोहनजी तो एक ऐसी कुत्ती चीज़ है, अपुन लोगों को कह दिया के ‘अरे साथियों, ठेकेदार से खर्च करवाकर भर-पेट मिर्ची-बड़े, रोटी-बाटी सब खिलाएंगे आप लोगों को ..फिर ऊपर से पी लेंगे चाय, वो भी मसाले वाली।’ मगर हम सबको...

रशीद भाई – दफ़्तर भेजकर, ख़ुद अकेले माल-मसाला ठोक गए। बड़ी चालू चीज़ है, भाई।

[इतने में मोहनजी के किलियाने की आवाज़, और ज़ोर से सुनायी देती है। ख़ुदा की कसम, अब तो शत प्रतिशत ऐसा ही लग रहा है, के ‘वह दारुड़ा फ़क़ीर उनका गला पकड़कर, उन्हें पीट रहा है...? और बेचारे मोहनजी, अपने साथियों को इस संकट की वेला में याद कर रहे हैं।’]

मोहनजी – [ज़ोर से चिल्लाते हुए, कहते हैं] – अरे, रामसा पीर। यह दारुड़ा फ़क़ीर मुझे मार रहा है, ओ रशीद भाई..अरे ओ रतनजी यार, जल्दी आकर मुझे बचाओ।

ओमजी – [दोनों का हाथ थामकर, कहते हैं] – दोस्तों, जल्दी चलो। वह दारुड़ा फ़क़ीर साहब का गला पकड़कर, उन्हें पीट रहा है।

रशीद भाई – हां..हां क्यों नहीं..? आख़िर, है तो..हमारे गाड़ी के साथी।

[सभी झाड़ियों के पीछे, जाते हैं। वहां आकर, उस फ़क़ीर को जूत्ते मारते हैं....जूत्ते खाकर वह फ़क़ीर, गधे के सींग की तरह गायब हो जाता है। उसके जाने के बाद, रशीद भाई पीने के पानी से भरी बोतल मोहनजी को थमा देते हैं। फिर, कहते हैं..]

रशीद भाई – [पानी से भरी बोतल थमाते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर। इन फकीरों से, बोतल क्यों मांगते हैं आप ? यह लीजिये मेरी बोतल, जल्दी निपटकर आ जाइये स्टेशन।

रतनजी - हम तीनों आपको, वहीँ उतरीय पुल की सीढ़ियों पर बैठे मिलेंगे, जहां अक़सर हम लोग बैठे-बैठे गाड़ी का प्रतीक्षा किया करते हैं। समझ गए, साहब ?

ओमजी – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – साहब, अब आप भूल से भी कभी अकेले-अकेले माल-मसाले अरोगना मत। ना तो इसी तरह, पेट ख़राब हो जायेगा...फिर, पूरे दिन पाख़ाना आप जाते रहेंगे ?                    

[रशीद भाई, रतनजी और ओमजी, स्टेशन की ओर क़दमबोसी करते हुए दिखायी देते है। मोहनजी, उनको जाते हुए देख रहे हैं। उन सबको जाते हुए देखकर, बरबस उनके मुंह से यह जुमला निकल जाता है..]

मोहनजी – [साथियो को जाते हुए देखकर, बरबस बोल उठते है] – ये भी भूखे, और मैं भी भूखा..अब कहां है, माल उड़ाओ, मगर घर का नहीं... ?

[मंच की रौशनी लुप्त होती है, और मंच पर अंधेरा छा जाता है।]

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: [मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित - भाग 2
[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित - भाग 2
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