नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्रमांक 1 - अनहैडेड फेस - सुनील गज्जाणी

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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020


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प्रविष्टि क्रमांक -1

नाटक


अनहैडेड फेस


सुनील गज्जाणी


पात्र

1. युवक एक- पति/मानव/भिखारी की भूमिका में

2. युवक दो- कुशल/सत्यम (नेता की भूमिका में)

3. युवक तीन- जॉय/यथार्थ (नेता की भूमिका में)

4. स्त्री- युवक एक की पत्नी की भूमिका में

5. बच्चा- युवक एक का आठ से दस वर्ष तक की भूमिका में

6. सूत्रधार

मंच- प्रतीकात्मक

(निर्देशक कथानक की आवश्यकतानुसार संसाधनों व पात्रों की वेशभूषा का चयन व उपयोग कर सकता है)

दृश्य-एक

(मंच पर दो व्यक्ति आपस में तेज़ आवाज़ में झगड़ रहे होते हैं।)

पहला व्यक्ति- (तेज़ स्वर में) तुमने हमें धोखे में रखा है हमने तो जाने क्या-क्या सपने संजो लिए थे कि हमारी बेटी इतने बड़े घर में जाएगी जो तंगी हमने पैसों की झेली है, झेली क्या... झेल ही रहे हैं, वो तुम्हारे घर जाने से हमारी बेटी सुखी रहेगी, मगर नहीं तुम भी औरों की ही तरह निकले।

दूसरा व्यक्ति- (तेज़ स्वर में) मैंने ग़लत कहाँ कहा, मैंने कहा था कि मेरा घर बड़ा है।

पहला व्यक्ति- (पूर्व भाव) है क्या?

दूसरा व्यक्ति- (पूर्व भाव) है कैसे नहीं, मेरे घर का नाम है बड़ा घर। मैं कहाँ ग़लत हूँ।

पहला व्यक्ति- (चौंकता) बड़ा घर? नाम का, मगर घर शुरू हो उससे पहले ही ख़त्म हो जाता है।

दूसरा व्यक्ति- एक बात बताओ?

पहला व्यक्ति- क्या?

दूसरा व्यक्ति- इंसान को बड़े दिल वाला कैसे कहते हैं, जबकि होता तो दिल छोटा ही है।

पहला व्यक्ति- छोटी सी बात, इंसान का मन, विचार बड़े होने चाहिये इसलिए ऐसा कहते हैं।

दूसरा व्यक्ति- सही बात, तो फ़िर मैं कैसे ग़लत हुआ, भले ही हमारा घर छोटा सा हो पर हम सबका दिल बहुत बड़ा है, कोई भी आओ स्वागत है।

पहला व्यक्ति- (क्रोध, दर्शकों से) बताऊँ कितना बड़ा है घर इनका? जो शुरू ही नहीं होता उससे पहले ही ख़त्म हो जाता है, सोते भी उस घर में ट्रेन में लगी बर्थ की तरह, एक के ऊपर एक।

दूसरा व्यक्ति- (दर्शकों से) ज़रा ये भी तो साचिए कि हम रहते भी कितना प्लानिंग से है।

पहला व्यक्ति- (पूर्वभाव) भाड़ में जाए ऐसा प्लानिंग, अच्छा हुआ समय रहते मुझे पता चल गया इस बड़े घर का वर्ना मेरी बेटी मुझे कोसती रहती जीवन भर, फ़िर हमें उसे झूठ का और पता चला कि जनाब की कोई पेपर बैग की फैक्ट्री नहीं है।

दूसरा व्यक्ति- है कैसे नहीं, हमारा पूरा परिवार सम्हालता है इस काम को।

पहला व्यक्ति- (पूर्वभाव) देखा, ये मुंह और मसूर की दाल। आपको बड़े घर का तो बता दिया ना अब देखिए पेपर बैग की फैक्ट्री क्या है? जनाब की फैक्ट्री है काग़ज के लिफ़ाफे बनाते रहते हैं दिनभर। ल्याई से सभी के हाथ सड़े रहते हैं...... पेपर बैग की फक्ट्री कहते हैं इसे फर्ज़ी आदमी और क्या कहूँ, मुझे भी शर्म आती है कहते हुए।

दूसरा व्यक्ति- कहिए ना, हमारी बाड़ी में सब ऐसा ही होता है झाझरू के लिए भी लाईनें लगाते हैं और जब भीतर जाते हैं तो गाना गाते रहते हैं। दरवाज़ा जो टूटा रहता है, ये हमारा स्टाईल है, हम तुम्हारे शहर में रहता भी ऐसे ही है, रईस की भाँति।

पहला व्यक्ति- वो तो बेचारे दुकानदार दिखावे में आ जाते हैं, खासकर तो पान-मसाले वाले। ऐसे कलकतिया बाबू यहाँ तो बड़े ठाठ-बाठ से रहते हैं और वहाँ......। ख़ैर, यहाँ इनकी स्टाईल ये भी होती है पहले तो मुर्ग़ा हलाल करने की तरह सौ रुपये एडवांस ही दुकानदार को दे देते हैं और जब वापस जाते हैं तो चार सौ रुपये उधार लेकर और चलते बनते हैं, बेचारा दुकानदार उस सौ के लालच में चार सौ से और हाथ धो बैठता है। ऊपर से ख़ूबसूरत, मगर भीतर दीमक लगी इमारत समान है ये तो।

दूसरा व्यक्ति- अरे बाबू! एक बात कहूँ, ये कपड़ा भी हमने दस साल में दस बार ही पहना होगा वो भी जब हम यहाँ आते हैं, रईसों की पहचान कपड़ों से ही होती है ना।

पहला व्यक्ति- हे भगवान! इंसान इतना दिखावे में क्यों जीता जा रहा है जबकि इन जैसे कलकतिया बाबू का तो भगवान ही मालिक है। (आक्रोश)

दूसरा व्यक्ति- सुनिए बाबू हमारी बात तो।

पहला व्यक्ति- (झुंझलाता) अबे चुप! तुम्हारी ही तो सुनी थी अब तक अपने परिवार को क्या कहूंगा कि जो बेटी के लिए बड़ा घर, पेपर बैग की फैक्ट्री वाला ढ़ँढ़ा था वो सिर्फ़ सरकारी घोषणाओं की ही तरह निकला।

दूसरा व्यक्ति- अरे बाबू! सुनिए, हमारे यहाँ नया बिजनेस स्टार्ट करने की प्लानिंग है, घबराईए मत ना।

पहला व्यक्ति- ये बिजनेस भी तुम्हारा कोई ठेले या रेहड़ी वाला ही निकलेगा, रहने दो, चलता हूँ।

दूसरा व्यक्ति- अरे सुना तो बाबू! (दोनों मंच से प्रस्थान)

(हँसते हुए सूत्रधार का प्रवेश)

सूत्रधार- वैदिक ज्ञान, पाटी-तख़्ती, गुरू-शिष्य अब,

क़िस्सों में जाने सिमट गए इस क़दर,

नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों में

फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नज़र।

( आँखों पर चश्मा और हाथों में कुछ मुखौटे थामे हुए)

आज इंसान कितना दिखावटी होता जा रहा है करता कुछ है तो कहता कुछ। मैं अपना परिचय दे दूँ मैं एक सूत्रधार हूं एक सेतू कह सकते हैं कथानक के पात्रों को आपसे जोड़ने वाला। (चश्मा उतारता) चश्मा लगाना किसी का शौक़ हो सकता है तो किसी की ज़रूरत, मुझे शौक़ है। चश्मा एक ये (दिखाता) तो एक चश्मा (हँसता) गुमान का, किसी के प्रति अपना अगाध भाव रखना। सभी का अपना-अपना ज़रिया होता है देखने के प्रति। सभी का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है जैसे आप मुझे देख रहे हैं मगर मैं आपको दृश्य भी दिखाऊँगा और पात्र भी, मेरे दुष्टिकोण से कुछ दृश्य हम थोड़ी ही दूरी के हों, उन्हें भली-भाँति देख नहीं सकते धुँध के कारण। कोई व्यक्ति हमारे बिलकुल नज़दीक हो उसे सिर्फ़ देख सकते हैं परन्तु उसके मनोभाव नहीं देख सकते। अभाव उस सूक्ष्मदृष्टि का क्योंकि हर चेहरे से पहले इंसानों के कोई ना कोई मुखौटा होता है। क्या कहें.....नज़रिया सभी का अपना-अपना होता है। अपनी-अपनी सोच होती है। शायद मैं ज़्यादा बोल गया। देखते हैं उनके नज़रिये से, उनकी सोच, उनके जज़बात। अभी जो प्रस्थान कर गए हैं उनके नज़रिये से तो वाक़िफ हो ही गए आप। पहले ये दोनों अच्छे मित्र थे। कलकतिया बाबू की बातों में आ गए, बेटी के लिए उसमें ससुरा दिखने लगा और आखिर झूठ तो झूठ ही होता है, एक महानगर में अगर अपने ख़ुद के पैर पसारने की जगह हो एक साधारण आदमी के लिए तो बहुत बड़ी बात होती है। जबकि हमारे छोटे-छोटे शहरों की तुलना में ये जगह कभी चाल तो कभी कोटड़ियों का नाम दे दिया जाता है। इंसान छलावा तो करता भी है और छला जाता भी है, किसी ना किसी के हाथों। (तभी उधर से गुज़रता एक व्यक्ति परेशान से बोला)

ऐ भाई आपको और कुछ काम नहीं है क्या, यहाँ ज्ञान मत झाड़िए सभी ज्ञानी हैं यहाँ, कुछ और करो ना।

सूत्रधार- (सकपकाया सा) अऽऽऽ ।

व्यक्ति- (बात काटता हुआ) रहने दो भाई, सब समझ गए। यूं ही बहुत परेशानियाँ है सबके पास थोड़ा रिलैक्स होने दो ना।

(दोनों मंच से बाहर, प्रकाश मद्धिम।)

दृश्य- दो

पति- अहा··· । कितना सुकून मिलता है जब अपने हाथों से सब कुछ बनाया हो। क्या नहीं है अपने पास, अपना नया घर, नई कार, सारे भौतिक सुख-साधन, मेरी उम्र में तो पिताजी ने भी ये सब हासिल नहीं किया था जो मैंने कर दिया। तुम क्या कहती हो इस विषय में प्रियश्रीमती जी?

श्रीमतीजी- बस यही कि लोन से क्या नहीं मिलता श्रीमानजी। पगार की ज्यादा अमाउंट तो लोन चुकाने में जाती है। घर की हर चीज़ पर लोन ही लोन लिखा हुआ है। बराबरी करने चले हैं अपने बाप-दादाओं से। वो लोन पर नहीं अपने कमरें पर भरोसा करते थे, पाँव उतने ही फ़ैलाने चाहिए जितनी चादर हो।

पति- तो क्या हुआ समाज में अपना स्टेटस तो दिख रहा है ना।

श्रीमतीजी- ये कैसा स्टेटस? कभी बच्चों की हर महीने की फ़ीस नहीं भर सकते तो कभी दूधवाला तकादा करता रहता है तो कभी दूसरे तकादे वाले आते रहते हैं तब ये स्टेटस नहीं दिखता आपको? ऐसा दिखना किस काम का, थोथा दिखावा।

(मंच से बाहर तभी एक बच्चा मंच पर प्रवेश करता है।)

बच्चा- पापा, सीरियस मत होईए यूं मम्मी तो यूं ही कहती है। परन्तु आप पर भी श्मशानी बैराग थोड़ी देर ही रहता है, बेचारी मम्मी।

पति- (झुझलाता) अरे सुनती हो ना!

(श्रीमतीजी चीखती मंच पर आती है)

श्रीमतीजी- क्या है?

पति- यूं तुम काली का रूप क्यूं धर रही हो?

श्रीमतीजी- इस हालत और उम्र में ऐश्वर्या राय तो नहीं बन सकती ना?

बच्चा- तो मम्मी फिर कैटरीना क़ैफ बन जाओ ना, मेरी फेवरेट है।

श्रीमतीजी- (ग़ुस्से में) बेशर्म कहीं का। जैसा बाप वैसा बेटा।

बच्चा- और मम्मी आप?

पति- उफ्फ़ ...बेटा अपनी उम्र से दो क़दम आगे तो माँ अपने मिज़ाज में।

श्रीमतीजी- इंसान में परिपक्वता उम्र से ही कभी नहीं आती, हालातों का सामना करने से आती है।

पति- मैं समझा नहीं?

श्रीमतीजी- आज दुनिया सिर्फ़ होड में लगी है और इंसान एक दूसरे को पछाड़ने में।

पति- और औरतें एक दूसरे की साड़ियाँ और गहनों के पीछे (दबी हँसी)

बच्चा- और पापा लोन और स्कीम के पीछे।

पति- (चीखता) सुनती हो।

श्रीमतीजी- (चीखती) क्या है? यहीं तो हूं मैं।

पति- तभी तो, तुम खड़ी हो और फिर भी इसकी इतनी हिम्मत कि मुझसे ऐसा बात करे।

श्रीमतीजी- हे राम! तुम इसके बाप हो या मैं जो मुझसे डरेगा।

पति- भला जब मैं डर सकता हूं तुमसे तो इसकी इतनी हिम्मत कैसे हो सकती है।

बच्चा- पापा..घर में कोई तो मर्द होना चाहिए ना।

पति- है! दस साल का बच्चा और मर्द?

बच्चा- पापा....डर के आगे ही जीत है।

श्रीमतीजी- ओए! निरमा सी धुलाई चाहिए क्या, चल भाग अपने कमरे में।

बच्चा- पापा, शरीर में ताक़त के लिए बॉर्नवीटा पीजिए और बढ़ते बच्चों को कॉम्प्लेन।

(मंच से प्रस्थान)

पति- हैं!!

श्रीमतीजी- उफ्फ़ ये टीवी। आज के बच्चे उम्र से जल्दी मैच्योर हो गए हैं।

पति- तुम इसे बाहर खेलने तो भेजती नहीं हो, दिनभर टीवी के आगे कार्टून देखते-देखते यही सब तो सीखेगा ना

श्रीमतीजी- अब खेल रहे भी कौन से हैं।

पति- होंगे भी कैसे, बच्चे खेलने जाएंगे तभी ना। इस टीवी, मोबाईल और इंटरनेट तो पूरी संस्कृति ही बिगाड़ कर रख दी है।

श्रीमती- ज्यादा ज्ञान मत दो, ये सभी तुम्हारा ही किया है, हमारा थोड़ा स्टैंडर्ड होना चाहिए बच्चा एडवांस होना चाहिए, और बचपन को धकेलो गर्त में। (आक्रोश)

पति- क्या करें, आज का दौर ही ऐसा है। जहाँ देखो वहाँ होड, सभी पारम्परिक चीज़ें कहीं गुम सी होती जा रही है।

श्रीमतीजी- सही है आने वाली पीढ़ियाँ हमसे क्या सीखेंगी, पता नहीं।

बच्चा- (नैपथ्य से आता है) ओ मम्मी-पापा, इतने सीरियस मत हाईए। आप सब टीवी को जी टीवी मत बनाईये ऐसा कर।

पति-श्रीमतीजी- (दोनों एक साथ) ये बच्चा है कि टीवी।

(नैपथ्य से सूत्रधार का बोलते हुए प्रवेश और तीनो पात्र स्थिर हो जाते हैं)

सूत्रधार- चाह कंगूरे की पहले होती अब क्यूं,

धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो ज़रा,

बच्चा नाबालिग नहीं रहा इस युग में

बाल कथाएँ कहीं सुनता आया है नज़र?

आज सभी संतों, महापुरुषों की वाणियाँ, प्रवचन, सिद्धांतों की परिभाषाएं इंसान बदलते जा रहे हैं। औरतों के पूजे जाने वाले देश में आज तो दिन-ब-दिन .........दुर्भाग्य है हमारी सनातन संस्कृति और संस्कारों का। आदमी अपने संस्कार क्यूं खोता जा रहा है। क्यूं अपने को पतन की और लिए जा रहा है। बच्चे उम्र से पहले बालिग होते जा रहे हैं और बालिग.......

बच्चा- (बात काटता हुआ) ओ संस्कार चैनल अंकल, मुझे डिस्कवरी पसंद है।

सूत्रधार- (चौंकता) है!! मैं संस्कार चैनल.......

(प्रकाश मद्धिम)

दृश्य- तीन

(कुशल बैठा हुआ अपने मोबाईल पर कुछ टाईप कर रहा होता है चेहरे पर मुस्कान लिए, की-टाईप करता-करता झुंझलाकर)

उफ्फ़ सारा मज़ा किरकिरा कर दिया ना, अच्छी-खासी फेसबुक पर चैटिंग चल रहा थी, रिचार्ज ख़तम हो गया। (अपनी जेब में पर्स सम्हालता हुआ) पैसे तो है ही नहीं और जो जेब खर्च मिलता है वो भी पूरा हो गया, मम्मी देगी भी नहीं। निठल्लों को इतना भी मिल जाए तो बहुत है, क्या करूँ वो बड़ी मुश्किल से तो लाईन मिली थी, कमबख़्त...... क्या करूँ....जाने क्या सोचेगा कि मैं अचानक यूँ ऑफ़लाईन क्यूँ हो गया। (हँसता) आज इतनी धाँधलियाँ चल रहा है उसके आगे तो ये कुछ भी नहीं है शायद। लड़कियों के चक्कर में लड़के इतने लट्टू हो जाते हैं,..... रिचार्ज़ भी ख़त्म हो गया मेरा ध्यान भी नहीं रहा.......(दर्शकों से) एक बात बताऊँ मैं लड़की की आई डी बनाकर बातें कर रहा हूँ (नैपथ्य से जॉय अपने हाथ में मोबाईल लिए मुस्कुराते हुए प्रवेश करता है।)

जॉय- (इधर-उधर देखने के बाद) ओए सान्टू, तू यहाँ बैठा है, अरे यार आज तो कमाल हो गया, क्या बातें हो रही थीं हमारी फेसबुक पर, आहाहा! यार उसने तो आज बड़ी रोमांटिक बातें की, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वो लड़की मेरी इतनी दीवानी हो जाएगी और भी बातें होतीं, आज उसे मिलने के लिए मना ही रहा था कि अचानक ऑफ़लाईन हो गई।

कुशल- (चौंकता) है!! वो मुर्ग़ा ये है? जिसे मैं कई बार हलाल कर चुका हूँ रिचार्ज़ करा-कराकर।

(बुदबुदाता दर्शकों की और) मुझे पता नहीं था कि तू ही है।

जॉय- हैं!! क्या कहा?

कुशल- मतलब कि मुझे पता नहीं था कि कोई लड़की भी तुझपे इतनी दीवानी हो सकती है।

जॉय- अरे तूने मुझे अभी जाना ही कहाँ है।

कुशल- (बुदबुदाता) अबे तुझे इतनी बार हलाल कर लिया और जानूंगा बच्चू, जाना तो तूने मुझे नहीं......अच्छा एक बात बता तूने आईडी चैंज क्यूं की है (ज़ोर से)

जॉय- अबे तुझे कैसे पता?

कुशल- (सकपकाता सा) वो..वो... तूने ही तो एकबार कहा था कि मैं फेक आईडी मौज़-मस्ती के लिए बनाता हूँ, ऑरिज़नल आईडी से ये सब करना मरना है क्या?

जॉय- ऐसा कहा था? याद नही आ रहा, हो सकता है मगर सच है ये बात। क्यूं ये आईडिया तो ठीक है ना, बस फ्लर्ट करो और सीधे-साधे भी रहो। (हँसता)

कुशल- (बुदबुदाता) बेटा अक़्लमंद केवल तू ही नहीं है हम जैसे लड़के...आई मीन लड़कियाँ भी होती हैं।

जॉय- अबे बुदबुदा मत यार, ज़ोर से बोलना।

कुशल- (पूर्वभाव) अबे तेरा भेद खोलने के लिए ज़ोर से भी बोलूँगा, पहले तुझसे रिचार्ज़ तो करवालूं.... मैं ये कह रहा हूँ कभी उससे फ़ोन पर बात भी हुई है क्या?

जॉय- (हताशा) नहीं यार, कमबख़्त जब भी फ़ोन किया तो काटकर कभी मैसेज करती कहती कि कभी भैया पास में है तो कभी मैं माँ के पास हूँ।

कुशल- (पूर्वभाव) अभी तो दीदी, बुआ, आँटी तो बाक़ी ही हैं।

जॉय- (झुंझलाता) अबे ज़ोर से बोलना यार, क्या मुंह ही मुंह में मिमिया रहा है।

कुशल- बोलूंगा थोड़ा धैर्य रख, मैं ये कह रहा हूं कि तेरी और उसके बीच रोमांटिक बातें तो बता या ज़रा मैं भी सुनूँ तू उसे लाईन कैसे मारता है।

जॉय- (ठंडी आह भरता) अरे पूछ मत उसकी गुदगुदाती बातें, चल बताता हूँ।

(तभी मंच पर मानव का प्रवेश)

कुशल-जॉय- (एकस्वर) ओए, आज गुलाब का फ़ूल गोभी का फूल क्यूं बना हुआ है?

मानव- आज उससे अनबन हो गई मेरी।

कुशल- किससे?

जॉय- क्या हमारी होने वाली भाभी से?

मानव- हाँ इतने दिन हो गए हमारी सगाई को जाने क्यूं अब भी वो किन्हीं आशंकाओं में घिरी रहती है।

जॉय- आशंकाएँ?

कुशल- वो कैसे?

मानव- कि वो कहती है मेरे माता-पिता गरीब हैं, दहेज़ नहीं दे सकते। अगर दहेज़ नहीं मिला तो मेरे घर वाले कोई बदसलूकी या अनहोनी तो नहीं करेंगे?

कुशल- ताज़्जुब है, तुम दोनों का रूढ़िवादी परिवार है। तुम दोनों के ही माता-पिता ने ये रिश्ता तय किया है फ़िर भी ये बात?

मानव- हाँ, आज हम अपने आपको, अपने समाज को कितना ही सभ्य, कितना ही आधुनिक विचारों में ढ़लता कहलें मगर हम अपनी औकात नहीं भूल सकते।

जॉय- यानि?

मानव- उसकी बात भी सही है, आज टीवी, अख़बारों में ये ही ख़बरें ज्यादा आती हैं कि नवविवाहिता को दहेज के लिए घर से निकाल दिया, जला दिया। मैंने उसे कई बार विश्वास दिलाया कि हमारा घर ऐसा नहीं है, मेरी भी बहनें हैं, हम भी तुम्हारी तरह ही हैं मगर नहीं, अपना मूड तो ख़राब तो कर ही रखा है मेरा भी कर दिया इस बात पर।

कुशल- क्यूं तुझे दहेज चाहिए क्या?

मानव- नहीं रे, कैसा दहेज। धीर-गंभीर समझदार लड़की सभ्य परिवार ही दहेज है मेरी नज़र में।

जॉय- ये बात! क्या बात कही है तूने वाह।

कुशल- तो फिर दोनों में खटपट किस बात की भाई।

मानव- वो रह-रहकर आशंका कर बैठती है फ़ोर पर बात करती ऐसी बातें कर बहक जाती है।

कुशल- जनाब की फिर रोमांटिक बातें होती नहीं होंगी।

मानव- हाँ यार रोमांटिक डायलॉग शुरू होने से पहले ही ट्रेज़ेडी डायलॉग आ जाता है।

जॉय- तो तुम क्या कहते हो हमारी भारी के लिए? ये भी तो कहा ना।

मानव- अपने ही विरुद्ध खड़े किए जा रहा,

प्रश्न पे प्रश्न निरुत्तर मैं जानू क्यूँ

सोचकर मुस्कुरा देता उसकी ओर

सच, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नज़र।

कुशल- तू भी सही समय पर आ गया तेरा मूड भी फ्रेश हो जाएगा, चल जॉय अब बता अपनी लवस्टोरी।

जॉय- (मुस्कुराता) अरे यार वो ऑफ लाईन हो गई वर्ना तुझे लाईव ही बताता इस स्टोरी को।

कुशल- कोई बात नहीं रिकॉर्डिंग ही सुना दे.... (बुदबुदाता) बेटा मेरा भेद खुलने से पहले तेरा भेद मैं ये खोलूंगा कभी।

जॉय- अबे फिर (झुंझलाहट में)

कुशल- सुना ना तू।

जॉय- उसका पूरा नाम तो नहीं मगर इतना ही पता है कि उसने अपना नाम नीलोफ़र बताया और...... (कहते-कहते मंच से प्रस्थान और सूत्रधार का मुस्कुराते हुए प्रवेश)

सूत्रधार- जब फ़िल्मों की शुरूआत हुई तो नायिका का रोल पुरुष अभिनीत करते थे, विवशता थी महिलाओं के लिए सिनेमा हेय समझा जाता था। जबकि आज के इस आधुनिक युग में पुरुष स्वतः ही नारी में परिवर्तित हो रहा है इंटरनेट के माध्यम से। मगर आज भी विवशता है अपने इस तरह के स्वार्थ के लिए कहें या जाने कौन-सा आनंद लेने के लिए। बहरूपियों की संस्कृति कौन कहता है ख़त्म होती जा रही है बल्कि और भी एडवांस हो रही है इंटरनेट के जरिए इस तरह। मगर समानता कुछ-कुछ वैसी ही है वो बहरूपिये अपने पेट की ख़ातिर करते हैं और जॉय जैसे फेसबुकिया बहरूपिये बस अपनी-अपनी इस तरह की मौज़-मस्ती के लिए। मगर कोई कैसे कर सकता है फ़ेक और ऑरिज़नल आईडी की पहचान लेकिन मैं ..........(अपनी जेब की ओर हाथ बढ़ाता) माबाईल पर ये मैसेज टोन किसका आया मेरे (जेब से निकाल देखता हुआ) हैं....फ्रेंड रिक्वेस्ट..लड़की की, फ़ोटो तो बड़ा सुन्दर है किसी हीराईन से कम नहीं लग रही लुकिंग में। मैडम का नाम बबली है..... (दर्शकों से) रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करने में क्या दिक़्कत है।

(प्रकाश मद्धिम)

दृश्य- चार

सत्यम चहल क़दमी करते हुए गुनगुनाता है-

दिन बहुत गुज़रे शहर सूना सा लगे

चला फ़िर कोई दफ़्न मुद्दा उठाया जाए,

तरसते दो वक़्त रोटी को वे अक़्सर

सेंकते रोटियाँ उनपे कुर्सियाँ रोज़ आती है नज़र।

(तभी मंच पर यथार्थ का हाँफ़ते हुए प्रवेश)

सत्यम- अरे यथार्थ बाबू इतना हाँफ़ क्यूं रहे हो क्या कसरत करते हुए आए हो?

यथार्थ- हाँ कसरत तो कई सालों से कर रहे हैं, अबे इतनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है..उफ्फ़...

सत्यम- कौनसी?

यथार्थ- चापलूसी की।

सत्यम- (चौंकता) हैं...ये तो मैं भी कह रहा हूं यार।

यथार्थ- इससे अच्छा हम ईमानदारी से कसरत भी करते तो शरीर तो बनता।

सत्यम- बस यही ईमानदारी तो हमें नहीं आतीं।

यथार्थ- हाँ यार हम एक दल को छोड़कर दूसरे दल में आ गए, सोचा कि इस दल में थोड़ा क़द तो बढ़ेगा।

सत्यम- ये भी सोचा कि पहले वाले दल में तो कभी टिकिट नहीं मिली.......।

यथार्थ- (बात बाटता) और ना ही हम ले पाए कभी।

सत्यम- हमारा क़द कभी छुटभैया नेता से ऊपर उठा ही नहीं।

यथार्थ- उठता भी कैसे, अपनी बिरादरी वालों पर भी हमारी पकड़ कहाँ है?

सत्यम- जो हमारे कहने से वोट दे दे।

यथार्थ- भला हम अपने को ही पार्षद चुनाव में कभी जिता नहीं पाए।

सत्यम- लानत है ऐसी हमारी नेतागिरी पर।

यथार्थ- कभी चमचागिरी से ही फुर्सत नहीं मिली, नेतागिरी कहाँ से करते।

सत्यम- (चिढ़ता) अबे ख़ुद को भी बड़ा नेता ना समझ अपना रुतबा भी इससे ऊपर नहीं था।

यथार्थ- अबे छोड़ ना, क्यूं हम अपने घाव कुरेदते हैं।

सत्यम- चलो फ़िर मलहम लगाते हैं।

यथार्थ- यार एक बात सोची है हमारी क़द्र ना पहले वाले दल में थी और ..........

सत्यम- (बात काटता) यहाँ भी कोई उम्मीद नहीं लगती मुझे।

यथार्थ- नेतागिरी शॉर्टकट रास्ता है पब्लिसिटी पाने का......

सत्यम- (पूर्वभाव) पैसा कमाने का भी (धीमा स्वर)

यथार्थ- ये सच है, मगर कोई माने या ना माने।

सत्यम- हाँ, इतना तो हम ईमानदारी से पक्का कह सकते हैं

(कुछ क्षण चुप्पी)

सत्यम- क्या तुमने आज अख़बार पढ़ा?

यथार्थ- नहीं, टीवी देखी थी।

सत्यम- कितने शर्म की बात है दूसरों को नसीहत देते हैं नेता लोग मगर ख़ुद ही रिश्वत लेते स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े जाते हैं।

यथार्थ- फ़िर भी मेरा भारत महान। साधारण कर्मचारी घूस लेता पकड़ा जाय तो जाने कौन-कौनसे नियम लग जाते हैं।

सत्यम- सही है, मगर बड़े नेता लोग शायद इन सबसे ऊपर होते हैं।

यथार्थ- कितने विडंबना है फ़िर आदर्श कैसे स्थापित करेंगे।

सत्यम- (खोखली हँसी) काहे का आदर्श। चोरी छिपे ग़ैरों के साथ रंग-रेलियाँ मनाते हुए पकड़े जाते हैं।

यथार्थ- (मायूसी) कहीं औरत दोषी तो कहीं नेता की मौकापरस्ती।

सत्यम- मगर ये भी सच है मगर कहीं-कहीं औरत सच्ची होती है तो।

यथार्थ- कहीं-कहीं नेता भी।

सत्यम- मगर लाँछन लगते देर नहीं लगती।

यथार्थ- दोनों पर ही।

सत्यम- ऐसे समाचारों को तो मीडिया वाले भी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने में मानो होड सी लगा लेते हैं।

यथार्थ- (हँसता) इंटरटेनमेंट... इंटरटेनमेंट.... इंटरटेनमेंट।

सत्यम- (चौंकता) ये हँसी मीडिया वालों के लिए है या हमारी ज़मात के लिए?

यथार्थ- (ठंडी साँस भरता) किसे दोष दें, ज़ीरो को हीरो और हीरो को ज़ीरो बनाने में एक समान भाव रखते हैं ये।

सत्यम- कभी-कभी मैं सोचता हूं कि राजनीति में हम आए ही क्यू?

यथार्थ- तुमने मेरे मन की बात कह दी। कितनी बदल गई है हमारे देश की राजनीति।

सत्यम- जितनी साफ़-सुथरी हुआ करती थी, उतनी ही ओछी होती जा रही है।

यथार्थ- हाँ हर ओर मौकापरस्ती बस एक दूसरे की टाँग खिंचाई।

सत्यम- तुम्हारी वे पँक्तियाँ एकदम सटीक लगती है थोड़ी देर पहले जो तुम गुनगुना रहे थे।

दिन बहुत गुज़रे शहर सूना सा लगे.............. (हँसता)

यथार्थ- मुद्दे कभी हमारे लिए चूल्हे का तवा बन जाता है तो......

सत्यम- कभी अलाव, कभी सिफ़ अपनी-अपनी रोटियाँ सेंको तो

यथार्थ- कभी तपो अपने हाथ।

(कुछ क्षण चुप्पी)

यथार्थ- हाँ तो तुमने मुझे यहाँ क्यूं बुलाया था?

सत्यम- मेरे दिमाग़ में एक योजना चल रही है।

यथार्थ- कोई नेताओं वाली या दूसरी?

सत्यम- दोनों।

यथार्थ- यानि?

सत्यम- नेता होकर भी साधारण आदमी की बात।

यथार्थ- मैं समझा नहीं?

सत्यम- हमारे बीच जो अभी तब वार्तालाप हो रही थी वो कौनसी थी? नेताओं वाली या साधारण आदमी की?

यथार्थ- नहीं..इसमे नेताओं वाली कोई बू नहीं आ रही थी। हम एक साधारण आदमी बनकर बात कर रहे थे।

सत्यम- तो सोचो, ये साधारण आदमी फ़िर सोचता नहीं होगा।

यथार्थ- हूँ..सही बात है। राजनीति एक सेवा, एक समर्पण, एक दिशा प्रदान करना होता है।

सत्यम- यानि जज़्बा चाहिए। क्यूं ना हम साधारण आदमियों की बातों को समझते हुए ऐसा काम करें।

यथार्थ- मतलब?

सत्यम- क्यूं ना हम अपना एक नया दल बनाएं।

यथार्थ- (हँसता) हमारे साथ तो कभी हमारे गली-मौहल्ले वाले भी नहीं होते, क्या ख़ाक बनाएंगे, जुड़ेगा कौन हमसे?

सत्यम- हुज़ूम इंसानो का।

(धीमी हँसी धीरे-धीरे तेज़ होती रहती है)

यथार्थ- (चौंकता) ये अट्टाहस क्यूं?

सत्यम- (ग़ुस्सा) क्या मुट्ठी भर-भर बालू से समंदर को मिटाने चले हो? जिसका तुम कह रहे हो वो एक समंदर से कम नहीं है।

यथार्थ- अगर प्रलय आए तो?

सत्यम- प्रलय? पता है राजनीति में प्रलय क्या होती है? अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं, आन्दोलन होते हैं जिसमे इंसानों का हुज़ूम होता है..सिर्फ़ हुजूम ही हुजूम और इसके लिए मुद्दे चाहिए जो इस हुज़ूम में सिहरन, आक्रोश पैदा करते हों, है ऐसे मुद्दे तुम्हारे पास?

यथार्थ- जो बातें हम कर रहे थे क्या वो मुद्दे नहीं बन सकते?

सत्यम- हम कोई फ़िल्मी सीन नहीं कर रहे हैं सपने से बाहर निकलो।

यथार्थ- अगर मंगल पाण्डे भी ऐसा सोचता तो देश की आज़ादी की लड़ाई शुरू ही नहीं होती, ये भी मत भूलो।

सत्यम- तब की बात और थी।

यथार्थ- क्या अब कुछ भिन्न है?

सत्यम- बहस मत करो तुम हक़ीक़त की और अपने औकात की बात करो।

यथार्थ- सच्ची बहस, सार्थक बहस हो तो सवालों के उत्तर निरुत्तर हो जाते हैं कभी-कभी। रही औकात की बात तो मैं उदाहरण कल का नहीं दूँगा आज ही का है। अन्ना हजारे ने अपनी औकात ध्यान में रख देश की राजनीति में प्रलय ला दी, जवाब है कुछ?

(सत्यम निरुत्तर हो बौखलाया सा इधर-उधर देखने लगता है) है कोई जवाब तुम्हारे पास?

सत्यम- तो देश में एक और फ़िल्मी हीरोनुमा मुख्यमंत्री बनना चाहते हो?

यथार्थ- (गर्व से) अगर ऐसा सुनहरा अवसर मिले तो!

सत्यम- (हँसता) चला मुरारी हीरो बनने।

(प्रकाश मद्धिम)

दृश्य- पाँच

(यथार्थ हाँफ़ता और दौड़ता हुआ फटे हुए कपड़ों में मंच पर प्रवेश, सत्यम इत्मीनान से बैठा होता है कि ये देख चौंक पड़ता है)

सत्यम- अबे भाग मिल्खा भाग के साथ हाँफ मिल्खा हाँफ क्यों हो रहे हो?

यथार्थ- (हाँफता) यार क्या बताऊँ, मैं अपने आन्दोलन वाले धरने को सम्बोधित कर रहा था तो वहाँ......

सत्यम- ये धुलाई कर दी, कैसे?

यथार्थ- (पूर्वभाव) यार मैं राजनीति में प्रलय लाने वाले मुद्दों पर अपना भाषण दे रहा था तो सारा हुजूम भड़क उठा......(कराहता) लातें-घूंसे भी खाने पड़े।

सत्यम- (उत्सुकता) हुज़ूम भड़क उठा, कैसे?

यथार्थ- सच बोलना पहँगा पड़ा। सोचो हुज़ूम में आक्रोश पैदा करूँ भ्रष्टाचार के विरुद्ध, महँगाई के विरुद्ध, मिलावटखारों के विरुद्ध......(कराहता) बड़ा दर्द हो रहा है पूरे शरीर में।

सत्यम- तो?

यथार्थ- (ग़ुस्सा) अबे तो क्या? दर्द मतलब दर्द, पूरे शरीर में।

सत्यम- अरे मेरा ये मतलब नहीं था। मतलब कि ये हालत कैसे हुई?

यथार्थ- हाँ...वो जब मैं संबोधित कर रहा था तो कहा भ्रष्टाचार के विरुद्ध हमें आवाज़ उठानी चाहिए, विरोध करना चाहिए तो हुजूम में से कुछ आवाज़ें आई कि हमें नहीं करनी है, कहने लगे कि हमारा काम तो बिना घूसखोरी के कहीं नहीं होता और गालियाँ देते हुए चल दिए।

सत्यम- फ़िर?

यथार्थ- महँगाई के विरोध में बोला तो दलाल कहने लगे अबे हमीं स्टॉक कर-कर के माल को रोक, महँगाई बढ़ा बड़ा मुनाफ़ा कमाते हैं और फ़िर वे भी.........

सत्यम- गालियाँ देते-देते.......फ़िर?

यथार्थ- मिलावट वालों के विरुद्ध एक्शन लेने को कहा तो किराने के व्यापारी मुझ पर ही एक्शन लेते हुए और गालियाँ निकालते.....।

सत्यम- चल पड़े, अबे वहाँ मीडिया वाले भी तो थे कुछ किया नहीं उन्होंने?

यथार्थ- किया ना..जब मैंने कहा कि मीडिया वाले ख़बरों को बढ़ा-चढ़ा दिखाते हैं वो भी अच्छी को कम और बुरी को ज़्यादा तो ......।

सत्यम- वे भी तुम पर अपनी क्राईम रिपोर्ट करते हुए चलते बने..अबे पुलिस वाले नहीं थे वहाँ सुरक्षा के लिए?

यथार्थ- थी ना..जब मैंने कहा कि पुलिस घूस लिए बिना बात नहीं करती है और दबंगों, रुतबे वालों की जी हुजूरी में ज़्यादा ध्यान देती है तो वे भी बिन वारंट के मुझे थर्ड डिग्री दिखाते हुए चलते बने।

सत्यम- ओहहह....तो वहाँ तुम्हें कोई बचाने नहीं आया?

यथार्थ- धरने पर कोई बचता तो आता ना, बस एक मै ही बचा था जो ख़ुद-ब-ख़ुद चला आया।

सत्यम- (बुदबुदाता) अच्छा रहा वर्ना शरीर का पूरा भूगोल ही बदल जाता.......(ज़ोर से) देश आज़ाद यूँ ही थोड़े ही हो गया था, बहुत ज़ुल्म सहने पड़े थे आज़ादी के दीवानों को। अगर वो यूँ हिम्मत हार जाते तो देश आज़ाद थोड़े ही होता।

यथार्थ- अरे वो स्थिति भिन्न थी।

सत्यम- (खिलखिलाता) अपने ही दिए सवाल को अब उत्तर बना लिया, वाक़ई तब स्थिति भिन्न थी। उस समय गुलाम होकर भी हम एक थे और आज हम आज़ाद होकर भी बिखरे-बिखरे, दोष किसे दें। ये सवाल भी है और जवाब भी है। हम ही हैं दोषी। नाम चाहे राजनीति का दें या स्वार्थ का।

यथार्थ- (चौंकता) अबे तू ये प्रवचन पहले भी तो दे सकता था।

सत्यम- प्रवचन..यानि साधु-संत, यानि आऽऽ........नहीं...नहीं अबे ये कोई प्रवचन नहीं था। हमारे देश की राजनीति में प्रलय लाना, जनता में क्राँति लाना इतना आसान नहीं है। हम सबकुछ जानकर भी अंजान बने रहते हैं, शाषित भी जानबुझ कर होते हैं। किसे दोष दे ंहम......।

यथार्थ- (बात काटता) अबे सीरियस तो मैं हो रहा हूँ तू फ़िजूल में कोहे को भार ढ़ो रहा है।

सत्यम- (चौंकता) हाँ..देश की तरह तुम भी गम्भीर अवस्था में आओ उससे पहले चलो डॉक्टर के पास चलते हैं...चलो। (मंच से दोनों प्रस्थान करते हुए)

(सूत्रधार का प्रवेश)

सूत्रधार- होने को क्या नहीं हो सकता। जब इंसान प्रकृति से लोहा लेने का दुस्साहस दिखा सकता है तो इंसान इंसान से उसकी कुव्यवस्थाओं से क्यूं नहीं लड़ सकता। बस योजनाएं सार्थक व सुलझी होनी चाहिए वर्ना प्रकृति क्या हश्र करती है ये हमारे सामने श्रीकेदारनाथ मंदिर का साक्षात् उदाहरण है। अगर यूँ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इंसान गिरगिट सा रंग बदलता है अपने मौक़े, परिस्थितियों को देख भले ही क्षण कैसा हो, भले ही जाने-अंजाने में हो या भिन्न कारणों से..ख़ैर...इंसान भी दोहरा जीवन जीता है एक अपना और दूसरा इन जीवों का..क्या कहें...जानवर तो अपना ही जीवन जी ले तो बहुत है मगर इंसान......। (तभी मंच पर एक भिखारी अपने हाथ में कटोरा लिए आता है और सूत्रधार के इर्द-गिर्द घूमने लगता है और सूत्रधार दरकिनार करता रहता है।) उदाहरण और भी तरोताज़ा है इंसान की अति कुव्यवस्थाओं बेशक अराजकताओं का हश्र सद्दाम हुसैन, गद्दाफ़ी, लादेन का जगजाहिर है। देश में कई ऐसे दल बने मगर नेस्तानाबूत हो गए कहते हैं ना कि बरग़द अपने नीचे घास-फ़ूस भी पैदा होने नहीं देता। एक बात और क्या आपने किसी हाई-फ़ाई होटल के पास........।

भिखारी- (बात काटता) क्या हम भिखारियों को खाना खिलाओगे?

सूत्रधार- क्या! नॉनसेंस...क्या बेहूदगी है।

भिखारी- बेहूदगी? नहीं..नहीं...भिखारी हूँ मेरे अंदाज़ से आपको नहीं लगा होगा। आप क्या कह रहे थे? किसी होटल के पास....

सूत्रधार- झोंपड़पट्टी देखी है कहीं?

भिखारी- (चहकता) क्या आप बनाओगे हमारे लिए?

सूत्रधार- अबे मैं उदाहरण दे रहा था अपनी बात का।

भिखारी- तो भीख भी दे दो। कुछ असर तो होगा मेरे।

सूत्रधार- भीख? शर्म नहीं आती हर गली-चौराहे पर माँगते हुए?

भिखारी- तो फ़िर क्या मैं अपना अकाउंट नंबर दूं या आप अपना एटीएम देंगे मुझे? मगर आप यहाँ क्या कर रहे हैं यहाँ क्राईम पेट्रोल के अनूप सोनी की तरह घूम-घूमकर?

सूत्रधार- (सकपकाता) मैं...मैं... सूत्रधार हूँ।

भिखारी- (चौंकता) सूत्रधार? तो मैं भिखारी हूँ।

सूत्रधार- (पूर्वभाव) चलता-चलता मैं भी जाने कहाँ चला आया।

भिखारी- भिखारी चौराहे पर।

सूत्रधार- (दर्शकों से) अब मुझे यहाँ से चलना चाहिए (प्रस्थान करता)

भिखारी- अरे सुनिए! सुनिए! अरे..जाने कौन-सा धार बताया था।

( सूत्रधार का नैपथ्य में प्रस्थान, भिखारी का पुकारना और धीरे-धीरे प्रकाश मद्धिम)

-समाप्त-


सुनील गज्जाणी

सम्पर्क सूत्रः सुथारों की बड़ी गुवाड, बीकानेर- 334005 राजस्थान

ई-मेलः sgajjani@gmail.com

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रचनाकार: नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्रमांक 1 - अनहैडेड फेस - सुनील गज्जाणी
नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्रमांक 1 - अनहैडेड फेस - सुनील गज्जाणी
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