विश्वजीत सपन की कहानी : वह पागल

SHARE:

कहानी वह पागल -विश्वजीत सपन 'ऐ इधर आओ।` 'क्या बात है ?` 'कुछ नहीं।` 'फिर बुलाया क्यों ?` 'मेरी मर्जी।` 'म...

कहानी

वह पागल

vidwan

-विश्वजीत सपन

'ऐ इधर आओ।`

'क्या बात है ?`

'कुछ नहीं।`

'फिर बुलाया क्यों ?`

'मेरी मर्जी।`

'मेरी मर्जी ! क्या मतलब मेरी मर्जी ?`

'मेरी मर्जी।`

'पागल हो क्या ?`

'हा....हा....हा` - जोरदार हँसी।

'यह दुनिया भी अजीब है। लोग अपने आपको पहचानने से पहले दूसरों को पहचानने की कोशिश करते हैं।` वह आदमी बोलता गया और अजीबो-गरीब हरकतें करते उस व्यक्ति की तरफ ही बढ़ने लगा।

'अजीब आदमी है।` - वह व्यक्ति भुनभुनाया -'पहले तो बुलाया, अब मुझे ही सीख दे रहा है। पागल कहीं का।`

'अरे भाई ! वह सचमुच ही पागल है।` किसी राहगीर ने उन्हें अवगत कराया।

उस व्यक्ति ने भी यही अंदाज़ा लगाया था। पागल ही होगा, वरना ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करता ? उसने दिल ही दिल में उस पागल को कोसा, जिसने सुबह-सुबह ही उसका मूड खऱाब कर दिया था और बड़ी तेजी से एक ओर भाग खड़ा हुआ। लेकिन पागल भी न जाने क्यों उसकी तरफ ही बढ़ा चला जा रहा था। अब उसे डर लगा। पागल का क्या भरोसा, पता नहीं क्या कर बैठे? साथ ही वह बीच-बीच में पीछे मुड़कर भी देखता जा रहा था कि कहीं वह सचमुच ही पीछा तो नहीं कर रहा था ? सौभाग्य से वह पागल कुछ दूर उसके पीछे चलने के बाद रुक गया। वह व्यक्ति तेजी से कदम बढ़ाकर उस पागल की नज़रों से ओझल हो गया।

तभी गली के कुछ आवारा बच्चे चिल्लाते हुए उस पागल के सामने आ खड़े हुए। पहले तो वे सभी कुछ देर तक उस पागल की अजीबो-गरीब हरकतों को तमाशा समझकर देखते रहे, फिर जब धीरे-धीरे बच्चों की एक अच्छी-खासी टोली जमा हो गई, तो उन्होंने उसे छेड़ना शुरू कर दिया। कोई उसकी फटी कमीज खींचकर भाग जाता तो कोई उसे पीछे से धक्का मारकर भाग जाता। कभी बचने की कोशिश में तो कभी ज़ोर से धक्का लगने के कारण वह कई बार गिरते-गिरते बचा। जब कभी वह गुस्से में बच्चों को मारने को दौड़ता तो क्षणभर में ही वे बच्चे शोर मचाते उसकी पहुँच से दूर हो जाते। पागल कुछ देर पीछा करता, फिर थककर ज़मीन पर बैठ जाता। उसके बैठते ही बच्चे पुन: एकजुट होकर उसे तंग करने लगते।

मैं प्रतिदिन की तरह नित्य नियम से अपने लॉन में बैठा अखबार पढ़ रहा था। इन बातों से मेरा ध्यान बार-बार अखबार से हटकर उनकी तरफ चला जाता था। सुबह-सवेरे अखब़ार की गरमा-गरम खब़र का आनंद न ले पाने से मुझे परेशानी होती थी। दरअसल ऑफिस में उन्हीं खब़रों से तो बातचीत का आगाज़ हुआ करता था। भला मैं इस सुख से महरूम कैसे रहता ? तब मैं भलमनसाहत का ज़ामा पहनते हुए बच्चों को मना करता, लेकिन असफल रहता। बच्चे बड़े ही उद्दण्ड किस्म के थे। मेरा कहा मानना तो दूर उल्टा मुझे ही मुँह बिचकाकर चिढ़ाने लगते। मैं अपने लॉन से ही चाहरदीवारी के पास आकर गरज़कर उन्हें फटकारता, लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते थे। लाचार होकर मैं अखब़ार में अपना मन लगाने की कोशिश करता। लेकिन उस शोर-गुल में ध्यान केन्द्रित करना नामुमकिन होता था।

लगभग प्रतिदिन यह तमाशा देर तक चला करता। कम ही ऐसे दिन होते जब वह पागल वहाँ नहीं होता या फिर वे बच्चे नहीं होते या फिर पागल पूरी तरह से लाचार होकर एक तरफ भाग खड़ा होता। बच्चे फिर भी उसके पीछे ही होते थे। जितना ही वह बचने की कोशिश करता, बच्चे उतना ही छेड़ने को उतारु होते जाते थे। अपने आपको बचाने की फिक्र में वह सड़क पर बेतरतीब मारा-मारा फिरता। लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आता था। कुछ राहगीर रुककर तमाशा देखते और कुछ बिना रुके ही चले जाते। वह भागता-भागता सड़क के पार किसी गली में जाकर मेरी नज़रों से ओझल हो जाता, तभी मेरी परेशानियों का निवारण हो पाता था और मैं अखबार का आनंद ले पाता था।

मेरा मन उचट जाता। मैं खब़रों में मन लगाकर इसे भूल जाना चाहता, लेकिन मन में किसी अजनबी पीड़ा का एहसास होता था। कोई अनजानी वेदना कुछ कहने का प्रयास करती थी। मैं उसे जान-बूझकर अनसुना कर देता था। उस एहसास को दबा देता था। फिर भी बात नहीं बनती थी तो अपने मन को ललकारता कि यह कौन-सी नई बात है ? यहाँ तो आए दिन ऐसे ही न जाने कितने तमाशे होते रहते हैं। और फिर हो भी क्यों न ? जब तक हम जैसे मूक तमाशबीन होंगे तब तक ऐसे तमाशे रोज़ होते ही रहेंगे। लेकिन यह एक ऐसा तमाशा था, जिससे मैं प्रभावित था। मेरी प्रतिदिन की दिनचर्या प्रभावित थी। इसलिए मैं चिंतित था। न जाने क्यों, उस पागल को भी मेरे ही लॉन के सामने सड़क पर बैठना था और उसके बैठते ही फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता था जैसे चिर-परिचित फिल्म पर्दे पर सिमटती चली जा रही हो।

क्या वह पागल था ? या फिर यूँ ही पागलपने का नाटक कर रहा था ? तब कभी-कभी मुझे लगता था कि वह पागल नहीं था। बस लोगों को बरगलाने के लिए पागलपने का ढोंग कर रहा था। लेकिन दुनिया वाले कहते थे कि वह सचमुच में ही विक्षिप्त था। तो क्या वे सही कहते थे ? या फिर उन्हें भी मेरी ही तरह कोई भ्रम था ? जब सोचने की क्षमता जवाब देने लगती तो मुझे लगता कि वे लोग शायद ठीक ही कहते होंगे। और यह सोचकर मैं खुद से खुद को अलग कर लेता था। मुझे क्या लेना-देना था कि वह कौन था ? क्यों था ? अपने कार्यों से फुर्सत मिले तब तो किसी और के बारे में सोचें ! वैसे भी ऐसे वि शय पर विचार करने का समय ही कहाँ मिलता है ? काम हो न हो हम व्यस्त रहने का नाटक तो करते ही हैं। हमारा जीवन भी तो बस एक नाटक ही है। वह पागल भी अगर नाटक कर रहा है तो इसमें बुरा ही क्या है ? अब सोचना बंद करो और अपने सुखमय जीवन को और सुखमय बनाने का प्रयत्न करो। इसी से ज़िन्दगी चलती है। बाकी सब बकवास है। मुझे यह महामंत्र सबसे सुखकर प्रतीत होता था।

ठीक ही तो है। अपने जीवन का भार उठाना ही हम सबके लिए कठिन है तो किसी और के बारे में सोचकर अपने मन पर बोझ डालना हितकर नहीं हो सकता। लेकिन इतना तो तय था कि मेरे दिल के किसी कोने में कोई ऐसी सोच घर कर गई थी जो मुझे बार-बार उसके बारे में सोचने पर विवश किया करती थी। मैं पूर्वजन्म में विश्वास नहीं रखता, वरना पिछले जन्म का कोई रिश्ता या फिर किसी ऋण की बात मानकर उसकी मदद को उतारु हो जाता। ऐसे में मन को बहलाना पड़ता था। अरे पागल ही होगा सभी तो उसे पागल ही कहते और मानते हैं। मेरे एक के मानने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा ? अब मैंने भी फैसला दे दिया, नहीं तो वह मेरी कार का शीशा क्यों तोड़ता ? वह तो भगवान् का लाख-लाख शुक्र था कि पत्थर का टुकड़ा मेरे सिर पर नहीं लगा, वरना ...। और उस दिन मैं भी बरस पड़ा था। पता नहीं कितने लात-घूँसों से उसकी मरम्मत कर डाली थी। आज न जाने क्यों दयाभाव उमड़ रहा था ? तो क्या वह दया का पात्र नहीं था ? हर कोई उसे धक्के मारता था, कोई उसकी मदद नहीं करता था, कोई उससे हमदर्दी नहीं दिखाता था। उसकी इस पात्रता के बारे में मैं अपनी उधेड़बुन में होता कि तभी श्रीमती जी की पुकार सुनाई पड़ती और मैं रत्ती भर भी समय गँवाए बिना पुन: सांसारिक मायामोह के अधीन हो जाता।

उस दिन सुबह सवेरे एक दोस्त के घर जाना पड़ गया। उसके पिता अचानक ही चल बसे थे। मैं उसे ढाढस बँधाकर लौट रहा था। अभी घर के करीब पहुँचा ही था कि न जाने कहाँ से वह पागल मेरी कार के सामने आ गया। मेरे पैर ब्रेक पर चरमराये। लेकिन इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उसने एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर फेंका और मेरी कार का शीशा तोड़ दिया। मेरा मन पहले से ही उदास था, इस घटना से मेरा गुस्सा उबल पड़ा। कार से उतर कर उस पर झपट पड़ा। फिर आव देखा न ताव उसे बालों से पकड़कर कई थप्पड़ उसकी गाल पर रसीद कर दिए। मेरे दो हाथ पड़ते ही न जाने और कितने हाथ उस पर बरस पड़े। लगता था सबको सिर्फ इसी मौके की तलाश थी। भागा भी तो नहीं वह। अधमरा होकर वहीं बैठ गया। मेरा मन खिन्न हो गया। उसकी दशा मेरे दिल के किसी कोने में दया के भाव जगाने ही वाली थी कि स्वार्थी मन ने उसे दबा दिया - 'तुम बार-बार, बेकार ही उस पर दया दिखाने की चे टा करते हो। वह पागल है, वह सचमुच ही पागल है। वह किसी को नहीं जानता है और न पहचानता है। तुम्हारी हमदर्दी उसकी समझ में नहीं आएगी।`

मैं गुस्से से भरा घर में दाखिल हुआ और आते ही बूढ़े नौकर बिरंची पर बरस पड़ा। बेचारा बूढ़ा सकपका गया। ज़िन्दगी में पहली बार उसे ऐसी डाँट पड़ी थी। वह चुपचाप सुनता रहा, सिर झुकाये जैसे ज़र-खऱीद गुलाम हो। शायद नमक बीच में आ गया था।

मेरा गुस्सा दूध की तरह उफान लेकर पुन: शान्त हो गया। मैंने बिरंची को बुलाया। वह चुप था - पूर्ववत्। उसकी सागर-सी चुप्पी मुझे खटकने लगी। मैं अपने आपको कोसने लगा। उससे अपनी नाराज़गी का कारण बताया, पर अपनी मालिकता बरक़रार रखते हुए। अनुभवी बिरंची ताड़ गया और बोला - 'बाबूजी, उस पागल और मुझमें बहुत समानता है। वह सरे-आम धक्के खाता है और मैं दिल ही दिल में।`

मुझे पछतावा होने लगा कि बेकार ही उस बूढ़े का दिल दुखाया। उसकी गलती ही क्या थी ? वह तो कभी चूँ-चपड़ भी नहीं करता है। कितना ही काम ले लो, गधे की तरह खटता रहता है। ऊपर से वफ़ादार है और पुश्तैनी भी। मेरे पिता ने भी शायद ही कभी उसे इस तरह से फटकारा होगा। हम इंसानों में यही तो एक बड़ी कमजोरी होती है कि हमें अपनी भावनाओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता और उसका खमियाज़ा किसी और को भुगतना पड़ता है। इसलिए अक्सर हम किसी का गुस्सा किसी पर निकालकर स्वयं को व्यावहारिक बनाने का असफल प्रयास करते हैं।

घर का नौकर था बिरंची, लेकिन उम्र और तज़ुर्बे में काफी बड़ा था मुझसे। मेरा क्या अधिकार बनता था कि बिना किसी गलती के उसपर बरस पड़ूँ। मुझे इस गलती का एहसास तो था, लेकिन कबूलना नहीं चाहता था। फिर भी उसके दिल को हल्का करने के लिए और वक्त की नज़ाकत देखकर मैंने उससे पूछा।

'बिरंची लाल, क्या तुम्हें वह पागल सचमुच का पागल लगता है ?`

'हाँ मालिक।` सीधा-सा जवाब था।

'लेकिन मैं नहीं मानता।`

'मानता तो मैं भी नहीं हूँ मालिक।` स्वर गंभीर था।

'मानते नहीं तो उसे पागल क्यों कह रहे हो ?` मेरा प्रश्न था।

'लोग कहते हैं।` स्वर पुन: शान्त था।

मैंने सोचा, उसका कहना कितना सटीक था। आज तो बहुमत की सत्ता होती है। अकेलों और कमज़ोरों की तो बिसात ही नहीं होती। फिर मेरा दिल भी तो उसे पागल नहीं मानता था। कितनी ही बार दिल की आवाज़ को उठने से पहले ही दबा चुका था मैं, इस भ्रम में कि वह मुझे सुनाई नहीं देती थी। और लोगों के कहे अनुसार उसे पागल ही समझता आया था।

'बाबूजी।` बिरंची लाल उदास होकर बोला।

'वह पागल मेरा पड़ोसी था। बड़ा ही नेक इन्सान था। मजाल है, किसी को भी उससे कोई ठेस पहुँच जाये। अपनी लुटाकर भी दूसरों की मदद करना उसकी आदत थी। बड़ा ही हँसमुख और दिलचस्प आदमी था। भगवान् की दया से पेट भर जुटा ही लेता था। मूंगफली का खौंचा लगाता था। न ऊधो का लेना न माधो का देना। शाम तक पैसे जुटाकर घर लौटता तो बेटे को स्कूल से लेता आता था। दीपू अकेला सहारा था उस बूढ़े का।`

अब मुझे भी इस कहानी में रस आने लगा था। मैंने चाय की ख्वा़हिश जाहिर की ताकि आराम से कहानी का आनंद ले सकूँ। बिरंची चाय बनाकर ले आया। मैं चाय की चुस्कियाँ लेता आगे की कहानी सुनने लगा। बिरंची ने कहानी की कड़ियों को जोड़ा।

'रामदीन की पत्नी का निधन दीपू के जन्म के साथ ही हो गया था। उसके जीवन का लक्ष्य दीपू ही था। रामदीन उसे माँ-बाप दोनों का प्यार देता था। उसकी दिली तमन्ना थी कि दीपू बड़ा होकर एक बड़ा अफसर बने। इसलिए सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगा। स्कूल ले जाते और वहाँ से लाते वक्त वह उसे एक ही बात कहता था कि वह खूब मन लगाकर पढ़े और परीक्षा में अच्छे नंबरो से पास हो। दीपू भी पढ़ने में ठीक ही कर रहा था। रामदीन हमेशा सोचता कि वह दिन दूर नहीं जब उसकी गरीबी का अंत हो जाएगा। उस छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर उसका अपना मकान होगा। और वह भी समाज में सिर उठाकर जी सकेगा। लेकिन होनी बलवान् थी। गोपी पहलवान ने रंगदारी जमाने के लिए उससे पैसे माँगे। बेचारा गरीब कहाँ से देता - नतीजा, खौंचे से हाथ धोना पड़ा। लाला गिरधारी मल ने गोपी पहलवान की मदद से डरा-धमका कर उसकी ज़मीन भी हथिया ली। बेचारा भटकने लगा। दीपू का सहारा ही उसे जीने के लिए मजबूर करता रहा था। तब वह स्टेशन पर सामान उठाता हुआ भी खुश रहने लगा, क्योंकि दीपू के रूप में उसे भवि य के सपने सामने नज़र आते थे। पर, ईश्वर को शायद यह भी मंजूर नहीं था। इस मकान के ठीक सामने उसके ज़िगर के टुकड़े का एक्सीडैंट एक कार से हो गया। वह सफेद कार किसी नेता की थी। और नेता बरी हो गया, लेकिन दीपू अपनी मौत से बरी न हो सका। दीपू का गम़ रामदीन सहन न कर सका और उसी दिन से उल्टी-सीधी हरकतें करने लगा। इसलिए लोग उसे पागल कहते हैं।`

बिरंची लाल थोड़ा रुका। उसने अपनी साँसों को नियंत्रित किया और पुन: बोला - 'मेरा भी जवान बेटा सुजन लाल जब मरा था तो मैं भी विक्षिप्त हो गया था। लेकिन बाबूजी, मुझे मेरे बेटे से शायद उतना प्यार नहीं था, जितना रामदीन को था। वरना, मुझे भी पागल हो जाना चाहिए था।`

मेरा मन उदास हो गया। मैं समझ गया, उस पागल को मेरी कार से क्यों दुश्मनी थी ? मैं आत्मग्लानि से भर उठा। उस दिन ऑफिस में भी जी नहीं लगा। काम खत्म करके सीधा घर आया तो उस संध्या वेला में भी उस पागल को देखने की इच्छा जागृत हो उठी। रात भर मन बेचैन रहा। बार-बार यही खय़ाल आता रहा कि मैं कितना स्वार्थी हूँ। अगर कुछ मदद नहीं कर सकता तो किसी को चोट पहुँचाने का भी हक नहीं है। मैंने किसी तरह रात काटी और मन ही मन में निश्चय किया कि रामदीन की मदद अवश्य करूँगा।

दूसरे दिन का सवेरा मेरे लिए एकदम नया था। जैसे प्रकृति का प्रत्येक तत्त्व नवीन जागृति से प्रेरित हो। मेरा मन सागर की तरह शान्त और निश्चल प्रतीत हो रहा था। सूरज की रोशनी तीखी नहीं थी। मुझे छाँव के लिए किसी वृक्ष अथवा किसी शाखा के सहारे की आवश्यकता नहीं थी। बीच लॉन में ही कुर्सी लगाकर बैठ गया। वह लॉन भी न जाने क्यों कुछ ज्यादा ही सुन्दर लग रहा था। हाथों में आज का अखबार था - नया अखब़ार। खब़रें नयी, पृ ठ नये। लेकिन दृश्य में परिवर्तन नहीं आया।

बच्चों का काफिला पुन: उपस्थित हो गया। आगे-आगे पागल - नहीं रामदीन था और पीछे बच्चे। मैं झटपट उठ खड़ा हुआ। दरवाज़े पर जाकर बच्चों को ज़ोर से आवाज़ लगाई। कुछ रुके, अधिकतर आगे बढ़ गये। मेरी किसी ने नहीं सुनी। मैं दरवाज़े से बाहर आ गया। बच्चों को रोकना मेरा फऱ्ज बन गया था। तभी एक बड़ी-सी एम्पाला तेज़ी से आई। बच्चे बिखर गये, रामदीन नहीं बिखर सका। कार की चपेट में आ गया। उसकी ज़िन्दगी बिखर गई। मैं विस्मित-सा खड़ा देखता रहा। इत्तफाकन कार पुन: किसी नेता की थी। चमचों ने भीड़ हटाई। कार बगल से निकाल ली गई। किसी ने इतनी जहमत भी उठा ली और म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन को फोन घुमा दिया। लाश पर फटी-सी चादर डाल दी गई। मैं देखता रहा। प्रायश्चित का बहाना ढूँढता रहा। लाश सफेद गाड़ी में रख दी गई और आँखों से ओझल भी हो गई। मैं देखता रहा अवाक्, निश्चल, शान्त।

------------------.

संपर्क:

-विश्वजीत 'सपन`

१५/२ सर्कुलर रोड, डालनवाला, देहरादून - २४८००१

COMMENTS

BLOGGER: 6
  1. अच्छी कहानी हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बेनामी1:53 pm

      इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
    2. बेनामी1:54 pm

      बहुत आभार आपका आशीष जी। हौसला बढ़ा है। सादर

      हटाएं
  2. I really liked ur post, thanx for sharing. Keep writing. I discovered a good site for bloggers check out this www.blogadda.com, you can submit your blog there, you can get more auidence.

    जवाब देंहटाएं
  3. बेनामी8:56 pm

    Dear Kiran ji,
    thank you very much.

    जवाब देंहटाएं
  4. विश्वजीत जी ,
    शायद बिरंची और मुझमें भी कई समानताएं हैं। और शायद कहीं रामदीन के साथ भी।हम सब कहीं न कहीं अपने अपने परिस्थितियों के जाल में फँसे हैं।
    बहुत ही अच्छी कहानी है।

    आपका
    उदय

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: विश्वजीत सपन की कहानी : वह पागल
विश्वजीत सपन की कहानी : वह पागल
http://lh4.google.com/raviratlami/Rx88b_1ZE1I/AAAAAAAAB2I/yTEBrMdF6W0/vidwan_thumb%5B1%5D.jpg
http://lh4.google.com/raviratlami/Rx88b_1ZE1I/AAAAAAAAB2I/yTEBrMdF6W0/s72-c/vidwan_thumb%5B1%5D.jpg
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2007/10/blog-post_24.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2007/10/blog-post_24.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content