दो कविताएं Two Poems by Prabha Mujumdar
-प्रभा मुजुमदार
1
समुन्दर की
उफनती लहरों ने
मन के अनजान द्वीपों को
जहां बसती थी
सुप्त आकांक्षाएं
काल और सीमाओं से
अपरिचित, अपरिभाषित
जिंदगी की
आपाधापी से बेखबर
पिछड़ी हुई
पत्थर युगीन बस्तियां
आदिम और अभावग्रस्त
फिर भी
निजता के आग्रह
और अहंकार से ग्रस्त
छोटे छोटे बिन्दु
अपनी शर्तों पर
समॄद्धि का समुद्र
जगने नहीं देगा
अछूते और एकाकी
बिंदुओं जैसे द्वीप
विश्व विजय को आतुर
अश्वमेघ का कुचक्र
बीती सभ्यताओं के
भग्नावशेषों को
मिटा देने को बेताब
एकान्त और अप्रासंगिक
पिछड़े और पराजित
होने की व्यथा
इतिहास के लंबे दौर में
जीने के बावजूद,
विशाल भूखंड से
छितर बिखर कर
निर्वासित एकाकी द्वीप
सत्ता की उद्दाम लहरों के बीच
कब तक रह सकते हैं
नक्शे पर
आकार बचा कर ।
2
समुद्र कोई भी हो
भूखंडों को
निगल जाना चाहता है
उन्हीं भूखंडों को
जहां जगते हैं सपने
वर्तमान और अतीत भी
गरजती | फुफकारती लहरों में
डुबो देना चाहता है
बालू के घरौंदे
इरादों की चट्टानें
स्मॄतियों के चिन्ह
समुद्र सब कुछ
समेट लेना चाहता है
अपने तल में
आकाश के
अपरिमित विस्तार के नीचे
किनारों को तोड़, देने के लिये
व्याकुल
गरजता है समुद्र
अथाह गहराई में
अनमोल संपदा संजोये
लहरों के उछाल के साथ
आकाश को भी
छू लेना चाहता है
विश्व विजय के लिये
अश्वमेघ को निकले
किसी आक्रामक | महत्वाकांक्षी
सम्राट की तरह
धरती और आकाश के बीच
लहराता है समुद्र ।
0 टिप्पणी "प्रभा मुजुमदार् की दो कविताएं"
एक टिप्पणी भेजें