योगेन्‍द्र वर्मा ‘व्‍योम' की मधुकर अष्‍ठाना से गीत-नवगीत के संदर्भ में बातचीत

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वरिष्‍ठ नवगीत कवि श्री मधुकर अष्‍ठाना से गीत-नवगीत के संदर्भ में कुछ जिज्ञासा बिंदु व्‍योम ः आपकी गीत-यात्रा कब और कैसे शुरू हुई ? अपनी गी...

वरिष्‍ठ नवगीत कवि श्री मधुकर अष्‍ठाना से गीत-नवगीत के संदर्भ में कुछ जिज्ञासा बिंदु

व्‍योम ः आपकी गीत-यात्रा कब और कैसे शुरू हुई? अपनी गीत-यात्रा के महत्‍वपूर्ण पड़ावों के विषय में बताइए।

म.अष्‍ठाना ः व्‍योम जी, जब मैं अतीत में झाँकता हूँ तो मेरी गीतयात्रा के पूर्व संभवतः इस यात्रा की पृष्‍ठभूमि सर्जित करदी थी। एक ही वर्ष में माँ से वियोग, दया पर आधारित बचपन, घोर अभाव में शिक्षा, प्रवृत्ति के प्रतिकूल राजकीय सेवा आदि के के ऐसा घटनाचक्र हैं, जिन्‍होंने मुझे निरंतर अपेक्षा, अपमान और अभाव से दंशित किया। अपनी करुण अंतःपीड़ा से उबरने का माध्‍यम बना गीत। मेरे पिताश्री भी भजन, दोहा, ग़ज़ल आदि की रचना स्‍वांतःसुखाय करते थे और बी.ए. मेंं पढ़ते समय डा. किशोरीलाल गुप्‍त (छंद मर्मज्ञ) आदि से संस्‍कार मिले। राजकीय सेवा के प्रथम वर्ष में एक प्रमुख मंत्री के स्‍वागत-गान एवं प्रस्‍तुतिकरण का उत्तरदायित्‍व मिला, जिसने मुझे पूरे जनपद के साहित्‍यिक वांगमय में उछाल दिया और वर्ष 1961 से गीत-साधना ही लक्ष्‍य रह गया।

व्‍योम ः हालाँकि इस बिंदु पर काफी चर्चा हो चुकी है गीत-कवियों में, लेकिन फिर भी आपकी दृष्‍टि में नवगीत क्‍या है, यह गीत से किस प्रकार और कितना भिन्‍न है तथा इसकी क्‍या-क्‍या शर्तें व मर्यादाएँ हैं?

म. अष्‍ठाना ः नवगीत में दो शब्‍द नव एवं गीत संयुक्‍त हैं। नवता तो भाषा एवं शिल्‍प के नयेपन से आती है और गीत से उसकी गेयता एवं छांदसिक परंपरा का योग है। इसके साथ ही अपने परिवेश की अनुभूतियाँ कथ्‍य का निश्‍चय करती हैं। वस्‍तुतः नवगीत गीत का ही उत्तराधिकारी है और दोनों के मध्‍य जेनरेशन गैप है। पूर्व के गीतों में काल्‍पनिकता, वायवीयता, इतिवृत्तात्‍मकता के साथ विचार का अभाव भा, जिससे अपने वातावरण से वह कटा रहा। इसके साथ ही सामंती प्रवृत्ति एवं अभिजात सोच के कारण गीत आम आदमी से दूर था। इसी से नवगीत गीत होते हुए भी नयी कविता की विचारशीलता, ग़ज़ल की कहन और दोहा की संक्षिप्‍तता आदि सभी गुणों से विभूषित है। भाषा मे आंचलिकता, खुरदरापन, मुहावरों, लोकोक्‍तियों, मिथक, प्रतीक-बिंब आदि सदुपयोग, सरलता, सहजता, यथोचित प्रवाह तथा संप्रेषणीयता आदि ने गीत को नया कलेवर दिया तो कथ्‍य में प्रतिकार-प्रतिरोध, तीक्ष्‍ण तेवर, व्‍यंग्‍य तथा व्‍यंजनात्‍मकता ने समय को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त करने की क्षमता प्रदान की। सच पूछिये तो नवगीत एक संपूर्ण विधा है, जिसने गीत को पुनर्जीवन दिया, अन्‍यथा समय के प्रवाह में गीत डूब गया होता। इस प्रकार नवगीत रागात्‍मक संवेदना का साकार रूप है, जो समकालीन परिवेश से अर्जित अनुभूतियों का विस्‍तार करता है।

व्‍योम ः कहा जाता है कि नई कविता का अतिक्रमण होने के फलस्‍वरूप गीत की पुनर्स्‍थापना हेतु नवगीत अस्‍तित्‍व में आया, क्‍या पारंपरिक गीत में नई कविता को पछाड़ने की सामर्थ्‍य नहीं थी?

म. अस्‍थाना ः नयी कविता के प्रथम गीतकार ही थे और छंदों के भी ज्ञाता थे। तत्‍कालीन गीत की दुरूहता, जटिलता के अभिजातवर्गीय स्‍वरूप से बचने के लिए और वर्तमान को पारिभाषित करने के लिए वे विदेशी नक़ल करते हुए नयी कविता में गये, किंतु अपने संस्‍कारों को पूरी तरह नहीं छोड़ पाये। ऐसे रचनाकारों के सृजन में लय विद्यमान थी, किंतु वे भारतीय परंपराओं के अनुरूप गीत को नवगीत का नया कलेवर देने में असमर्थ रहे और गीत के विषय में अपनी असमर्थता को आवरण देने के लिए उसे मृत घोषित करने लगे और नक़ल करने में ही अपना कल्‍याण समझने लगे। बाद में नयी कविता प्रतिभाहीन लोगों का जमावड़ा बन गया, जो आम आदमी से कोसों दूर हो गये। ऐसा नहीं है कि नवगीत का उद्देश्‍य केवल गीत की पुनर्स्‍थापना ही करने के लिए आया, वस्‍तुतः गीत में परिवर्तन समय की माँग थी, जो एक साथ ही पूरे भारत में परिलक्षित की गयी। गीत को आम आदमी के लिए उत्तरदायी बनाने में परिवर्तन तो अपरिहार्य था।

व्‍योम ः कभी वह समय भी था कि कवि-सम्‍मेलनीय मंचों पर गीत का वर्चस्व था, आज लगता है कि मंचों पर गीत ग़ायब हो रहा है। वर्तमान में अकविता के समय में क्‍या आपको लगता है कि भविष्‍य में कभी कवि- सम्‍मेलनीय मंचों पर गीत को फिर से वही सम्‍मानजनक स्‍थान प्राप्‍त हो पाएगा?

म. अस्‍थाना ः जहाँ तक कवि-सम्‍मेलन का प्रश्‍न है तो वह एक व्‍यवसाय है और उसका उद्देश्‍य शुद्ध रूप से श्रोताओं का मनोरंजन है। उससे साहित्‍य का कोई लेना-देना नहीं, इसीलिए जो कवि मंच पर सफल हैं, वे साहित्‍य में घोर असफल हैं। ऐसे कवियों की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। नवगीत में यथार्थ के परिप्रेक्ष्‍य में कथ्‍य प्रस्‍तुत किया जाता है जो चिंतन की प्रेरणा देता है। मंच पर प्रस्‍तुतिकरण ही प्रमुख है। कुछ तथाकथित नवगीतकार भले ही मंच पर सफल हों, किंतु सब पर यह लागू नहीं है, जबकि गोष्‍ठियों में जहाँ साहित्‍यिक वातावरण होता है, नवगीत ही सफल है। मंच से होड़ करना तो नवगीतकारों को शोभा नहीं देता

व्‍योम ः मुंबई के वरिष्‍ठ गीतकवि श्री मधुकर गौड़ ने गीत नवांतर' शब्‍द को नवगीत' की तुलना में अधिक तर्कसंगत और उपयुक्‍त मान है, आपका क्‍या मत है?

म. अस्‍थाना ः गीत का अन्‍य नामकरण कभी नहीं किया गया, किंतु वास्‍तव में नवगीत का विशिष्‍ट आकर्षण सबको अन्‍य नामकरण करने का आमंत्रण देता है और सभी श्रेय लेना चाहते हैं। नचिकेता इसे समकालीन गीत कहते हैं, तो डा. माहेश्‍वर तिवारी सहजगीत कहना चाहते हैं। इसी प्रकार मधुकर गौड़ भी गीत नवांतर की संज्ञा देते हैं। वस्‍तुतः ये सभी नाम नवगीत के किसी एक पक्ष पर आधारित हैं और व्‍यक्‍तिगत एषणा से प्रेरित हैं, जिनका महत्‍व भविष्‍य निर्धारित करेगा।

व्‍योम ः नवगीत दशक' श्रृंखला और नवगीत अर्द्धशती जिसका संपादन डा. शंभुनाथ सिंह ने किया, के विषय में कहा जाता है कि तत्‍समय के कुछ महत्‍वपूर्ण नाम इन पुस्‍तकों में सम्‍मिलित नहीं हो सके थे, इसके क्‍या कारण रहे?

म. अस्‍थाना ः डा. शम्‍भुनाथ सिंह ने ‘नवगीत दशक' एवं ‘अर्द्धशती' अथवा राजेंद्रप्रसाद सिंह द्वारा संकलित ‘गीतांगिनी' नवगीत की स्‍थापना में मील के पत्‍थर हैं। यह आवश्‍यक नहीं कि तत्‍कालीन समस्‍त नये तरह का गीत लिखने वालों को सम्‍मिलित ही किया जाता। अज्ञेय ने भी ‘तारसप्‍तक' में समस्‍त तत्‍कालीन नयी कविता लिखने वालों को सम्‍मिलित नहीं किया। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। प्रथम संकलनकर्ता के द्वारा निर्धारित मान, दूसरा परस्‍पर व्‍यवहार, तीसरा विवशताएँ। सभी ने अपनी रुचि के अनुकूल कुछ कुछ नवगीत के लिए अच्‍छा ही करने का प्रयास किया, जो नहीं हो सका, उसकी चर्चा ही व्‍यर्थ है।

व्‍योम ः नवगीत के संदर्भ में नवगीत दर्शक श्रृंखला' के अतिरिक्‍त नवगीत और उसका युगबोध' तथा शब्‍दपदी' सहित अनेक पुस्‍तकें आई हैं और नवगीत कवियों के बीच चर्चित भी रही हैं, किंतु नवगीत की प्रामाणिक पुस्‍तकों के रूप में नवगीत दशक श्रृंखला' को ही मान्‍यता तथाकथित रूप से प्रदान की गई। ऐसा क्‍यों?

म. अस्‍थाना ः ‘नवगीत दशक श्रृंखला' का महत्‍व अपने स्‍थान पर है, जो ऐतिहासिक बन गया है। ‘नवगीत और उसका युगबोध' में अधिकांशतः नवगीत विरोधियों के विचार नवगीत के संबंध में दिये गये हैं। नवगीत के संबंध में ‘शब्‍दपदी' में पुराने एवं नये दोनों तरह के रचनाकारों के विचार तथा उनके नवगीत भी दिये गये हैं। इनके अतिरिक्‍त भी डा. अवधेश नारायण मिश्र, डा. राजेंद्र गौतम, डा. सुरेश गौतम, डा. शिवशंकर मिश्र आदि की भी पुस्‍तकें हैं, किंतु अभी तक नवगीत का इतिहास लिखा नहीं गया अथवा संपूर्ण रूप से आलोचक सामने नहीं आये, जिससे जो उपलब्‍ध है, वही मान्‍य है, अन्‍यथा इसे महत्‍व देने वाले वही रचनाकार हैं, जो उसमें सम्‍मिलित हैं और वर्तमान में अपने परिवेश को अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पा रहे हैं। वर्तमान में नवगीत पूर्व निर्धारित मानकों से बहुत आगे जा चुका है और सामंतवादी अभिजातवर्गीय चेतना से उबरकर आम आदमी के निकट आ चुका है। इसके साथ ही वस्‍तुगत एवं शिल्‍पगत रूप से अधिक संवेदनशील हो गया है। ‘नवगीत दशक' से केवल तत्‍कालीन नवगीत के स्‍वरूप का ज्ञान होता है। वर्तमान की नवगीत की रूपरेखा का ज्ञान नहीं होता है।

व्‍योम ः क्‍या आप महसूस करते हैं कि गीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है? यदि हाँ, तो हिंदी साहित्‍य पर पड़ने वाले इसके प्रभावों के विषय में आपका क्‍या मत है?

म. अस्‍थाना ः नवगीत का यद्यपि नयी कविता के समानांतर हुआ किंतु नयी कविता के रचनाकार अपने पराभव से भयभीत हो गये, क्‍योंकि निश्‍चित रूप से आम आदमी उसका बहिष्‍कार कर दिया। उसका वर्तमान राज्‍याश्रयी है और एक विशिष्‍ट वाद से जुड़ा है, जो पूरे विश्‍व में असफल हो चुका है, उसकी सोच आयातित है। नयी कविता के रचनाकार उसके अवसान से परिचित हैं, इसलिए तरह-तरह स्‍टंट रचा करते हैं। हिंदी साहित्‍य पर नयी कविता के अतीत और नवगीत के वर्तमान का प्रभाव तो पड़ेगा ही, जो नवगीत के पक्ष में होगा।

व्‍योम ः वर्तमान में गीतों-नवगीतों का सृजन विपुल मात्र में हो रहा है, किंतु बड़े प्रकाशक नई कविता के सापेक्ष गीत-कृतियों के प्रकाशन के प्रति उदासीन हैं, फलतः रचनाकार अपनी गीत-कृतियाँ अपने ही संसाधनों से प्रकाशित कराने हेतु विवश हैं। आपकी दृष्‍टि में यह सोची-समझी साज़िश है या कुछ और?

म. अस्‍थाना ः प्रकाशन में जो स्‍थिति नयी कविता की है, वही नवगीत की भी। प्रकाशन एक व्‍यवसाय है, जिसमें अधिक से अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति होती है। वास्‍तव में प्रकाशन रचनाकार से धन लेकर भी पुस्‍तकें बेच लेता है और दूना कमाता है। यह केवल बाज़ारवाद है। मेरी दृष्‍टि में यह कोई साज़िश नहीं है, बल्‍कि प्रकाशकों का छल है।

व्‍योम ः आजकल नवगीतों में नये प्रयोग के नाम पर सपाटबयानी भी परोसी जा रही है, आपको क्‍या लगता है?

म. अस्‍थाना ः प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति की अनुभूतियाँ उसके संस्‍कार एवं परिवेश के अनुसार पृथक-पृथक होती हैं और उसी के आधार पर वह सृजन करता है। नवगीत में व्‍यंजना का विशेष महत्‍व है। यदि सपाट बयानी में भी कहीं व्‍यंजना है तो वह नवगीत है, अन्‍यथा वह केवल वक्‍तव्‍य है। नवगीत का प्राण संवेदना है जो व्‍यंजना में ही निहित है। केवल सपाट बयानी निष्‍प्राण होती है। नवगीत रागात्‍मक अंतश्‍चेतना की संवेदनात्‍मकता से व्‍यंजित वह सहज शब्‍द-यज्ञ है जिसके लघुतम छांदसिक कलेवर में समकालीन भावतत्त्व एवं विचारतत्त्व का समन्‍वय, सामान्‍यजन की पक्षधरता के साथ अभिव्‍यक्‍त होता है। इसके अतिरिक्‍त अविचारित रम्‍य सृजन जो कथ्‍यविहीन हो, नवगीत के अतिरिक्‍त और कुछ हो सकता है।

व्‍योम ः गीत के संदर्भ में अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में गीत को ही केंद्र में रखकर इंटरनेट साहित्‍यिक पत्रिका गीत-पहल' भी शुरू हुई है, अनेक ब्‍लॉग्‍स भी हैं, जो गीत-नवगीत को आगे लाने के प्रति श्रम कर रहे हैं, इन प्रयासों से आप गीत के भविष्‍य को किस तरह से देखते हैं?

म. अस्‍थाना ः गीत का इतिहास सदियों पुराना है। यह कोई विधा नहीं, बल्‍कि परंपरा है। गीत की समाप्‍ति की विरोधी भले ही सपना देखा करें, पर गीत तो शाश्‍वत है। इसके भविष्‍य की चिंता निरर्थक है। गीत भारतीयों के रक्‍त में घुल चुका है। गीत के सृजन में नयी पीढ़ी निरंतर सक्रिय होती रहेगी। अतः नवगीत के संबंध में मनोयोगपूर्वक किया जा रहा श्रम निश्‍चित ही सार्थक परिणाम देगा तथा इसके भविष्‍य को उज्‍ज्‍वल बनायेगा।

व्‍योम ः आजकल एक नया प्रयोग काफी प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़ल कह रहे हैं और उर्दू के रचनाकार गीत और दोहे लिख रहे हैं, शिल्‍पदोष का खतरा दोनों ही ओर है, आपका क्‍या मत है?

म. अस्‍थाना ः प्रयोग तो हर विधा में होते रहते हैं और प्रयोग तो प्रत्‍येक रचनाकार का मौलिक अधिकार है, अतः प्रयोग में जो अधिक सटीक और सार्थक होगा, वही टिकेगा। शेष स्‍वयं ही नष्‍ट हो जाएगा। वस्‍तुतः फैशन कभी टिकाऊ नहीं होता है और उसमें परिवर्तन का आवर्तन भी जल्‍दी-जल्‍दी होता रहता है। अतः प्रयोगों की दृष्‍टि तात्‍कालिक होती है, जिस पर अधिक विश्‍वास नहीं किया जा सकता है। ग़ज़ल एक अपूर्ण विधा है, जबकि नवगीत पूर्ण है, जिसमें ग़ज़ल समाहित हो जाती है। नवगीत में नयी कविता का विचारतत्त्व, ग़ज़ल की कहन और दोहा की संक्षिप्‍तता मौजूद है, जो उसे अन्‍य विधाओं से अधिक सामर्थ्‍यवान बनाते हैं। अतः प्रतिबद्ध नवगीतकार को दत्तचित्त नवगीत की ही साधना श्रेयष्‍कर है।

व्‍योम ः आपकी चार नवगीत-कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की बाट जोह रही हैं। उक्‍त के अतिरिक्‍त नवगीत के संदर्भ में आपके अनेक आलेख भी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, क्‍या आपको अपने इन महत्‍वपूर्ण आलेखों को पुस्‍तक रूप नहीं प्रदान करना चाहिए?

म. अस्‍थाना ः व्‍योम जी, यह एक व्‍यक्‍तिगत प्रश्‍न है, जो मेरी आर्थिक स्‍थिति से जुड़ा है। वैसे मैं स्‍वयं को अभी परिपक्‍व नहीं मानता हूँ और अभी नवगीत का विद्यार्थी ही हूँ। ऐसी स्‍थिति में आलेखों को पुस्‍तकाकार करना अधिक उचित नहीं प्रतीत होता है। यह प्रयास कई रचनाकार कर चुके हैं, किंतु कोई महत्‍व नहीं मिल सका। अतः ऐसे ही लोगों में अपना नाम भी लिखाना अच्‍छा नहीं लगता है। भविष्‍य के लिए यह विचार सुरक्षित रखा है।

व्‍योम ः नवगीत के संदर्भ में नई पीढ़ी की दशा और दिशा के प्रति आपका क्‍या मत है? नवगीतों का भविष्‍य नई पीढ़ी के हाथों में कितना सुरक्षित और स्‍वर्णिम है?

म. अस्‍थाना ः नयी पीढ़ी को कमज़ोर समझना अनुचित है। वह अधिक जागरूक अधिक सशक्‍त होकर सामने आ रही हे। नयी पीढ़ी की सोच में मौलिकता झलकती है और उनके सृजन में नयी प्रतीक-बिंब योजना भी आकर्षित करती है। यदि उनका छंदविधान भी पुष्‍ट हो जाये तो कहना ही क्‍या? साधना जितनी अधिक होगी, शब्‍द-सामर्थ्‍य भी बढ़ती जायेगी। नयी पीढ़ी परिवेशगत वातावरण अभिव्‍यक्‍त करने में जिस सहजता और नयेपन का अहसास करा रही है, उसमें टटकापन है। अतः नयी पीढ़ी के हाथों में यदि नवगीत का भविष्‍य है तो निराशा का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है। नयी पीढ़ी के सृजन के प्रति मैं आश्‍वस्‍त हूँ।

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. Bahut rochak laga yah sakshatkaar.

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  2. ----गज़ल एक अपूर्ण विधा है....
    ----गीत में काल्पनिकता, वायवीयता व विचार का अभाव है...सामन्ती सोच, अभिजात्य सोच ...

    असहमत...गज़ल स्वयं में एक सम्पूर्ण विधा है, अपितु एक अभिनव विधा है जो उर्दू साहित्य की विशेषता है एवं हिन्दी में इस प्रकार की विधा नहीं है...
    ----आज़ादी के समय लिखे गीत एवं आज भी देश भक्ति पूर्ण गीत का अभिजात्य व सामन्ती सोच है.....
    ---वस्तुतः यह नव-गीतकारों का रक्षात्मक-आक्रामक वाक्य है...अन्यथा नव-गीत कुछ नहीं सिर्फ़ गीत की ही एक कोटि है...जिसमें गीत जैसी भाव-प्रधानता न होकर शब्दाड्म्बर बहुत है, अधिकान्श कवियों के नव-गीतों मे अत्यधिक क्लिष्टता, शब्दाडम्बर असम्प्रेषणीयता नव-गीत की बहुत बडी कमियां हैं....

    जवाब देंहटाएं
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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: योगेन्‍द्र वर्मा ‘व्‍योम' की मधुकर अष्‍ठाना से गीत-नवगीत के संदर्भ में बातचीत
योगेन्‍द्र वर्मा ‘व्‍योम' की मधुकर अष्‍ठाना से गीत-नवगीत के संदर्भ में बातचीत
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