समीक्षा - ग़ज़ल संग्रह "दर्द का सफ़र"

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संवेदनशील ह्रदय की पारदर्शी अभिव्यक्ति " यादें अनगिनत क़लम अकेला " सोच की शिला पर निशब्दता के चिंतन से एक आकार का, एक बि...

clip_image002 संवेदनशील ह्रदय की पारदर्शी अभिव्यक्ति "यादें अनगिनत क़लम अकेला"

सोच की शिला पर निशब्दता के चिंतन से एक आकार का, एक बिंब का सृजन करने वाला क़लमकार शब्दों का मोहताज नहीं होता. शब्द शिल्पी बनकर जब वह अपनी सोच की आकृति को काग़ज़ पर अंकित करता है तो शब्द बोलने लगते हैं. ऐसी ही रचनाओं के सृजनहार मुंबई महनगरी के जाने-माने वरिष्ठ ग़ज़लकर श्री मधुप शर्मा जी अपने रचनात्मक संसार की परतों को शब्दों के माध्यम से बेनक़ाब करते हुए देखिये कितनी ख़ूबी से अपना परिचय दे रहे हैं....

हम उनको क्या कह कर परिचय दें

इस युग में तो परिचय पैसा होता है

उनके ग़ज़ल संग्रह "दर्द का सफ़र" में ज़िंदगी के अनेकों पड़ावों को पीछे छोड़कर मधुप शर्मा जी हर लम्हे की वास्तविकता को अपनी तजुर्बात की टक्साल में इज़ाफ़ा करते आये हैं. उनकी पारखी नज़र इन तमाम खूबियों से मालामाल है, ज़िंदगी की सिरशारी भी और ग़मगुसारी भी, जिनके इरादों में पुख़्तगी भी है, पामाली भी, सांसों में गर्मी भी है, ठंडक भी.

अभिव्यक्त करने की अदायगी रचनाकार की अपनी निजी पहचान बन जाती है. कविता लिखना एक क्रिया है, एक अनुभूति जो मन की भावनात्मक हलचल से उपजती है, जैसे किसी शांत स्वच्छ झील में एक कंकर उछाला जाता है तो पानी में तरंगें उठने लगती हैं। वैसे भी रचनाकार को कुछ ऐसे ही क्षण क़लम उठाने पर मजबूर करते हैं। “यादें अनगिनत क़लम अकेला” उन्वान उनकी ज़िंदगी के बरगद की शाखों से उड़ते हुए परिंदों की पल-पल की अनुभूति है, अभिव्यक्ति है। याद की हर शाख़ से नन्हें, कोमल अंकुर भूली-बिसरी यादों को ताज़ा कर जाते हैं, जिनमें सुखद आस्थाएँ बहुत ही कम और दर्द के रेलों का विस्तार बहुत बड़ा है। आइये यादों के उन झरोखों से कुछ झलकियाँ देखें, सुनें , महसूस करें---

झेले हैं मैंने सन्नाटे/ लम्बे लम्बे गहरे गहरे

तब मैं सुन पाया हूँ कुछ कुछ/ अपने अंतस के तारों के/

मीड़ मीड़ के, झंकृत होते/ मधुर मधुर संगीत भरे स्वर

चिंता-प्रधान काव्य रहस्य की सीमाओं को छू पाने की, प्रविष्टि पाने की क्षमता रखता है। श्री मधुप शर्मा जी का काव्य-व्यक्तित्व सम्पूर्ण प्रकृति से घुल-मिल गया है। शब्दावली में वेदना है, पर हर पीड़ा के बाद वो सुखद स्वर सुन पाने का सुखद अनुभव लक्ष्य की प्राप्ति की ओर इशारा कर रहा है।

खोल दो ये बंद खिड़िकियाँ

और आने दो हवाओं के झोंके

कविता देखा जाय तो संवेदनशील हृदय की पारदर्शी अभिव्यक्ति है-शब्द उस कविता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि। यहाँ क़लम उन पलों की ज़ामिन बनकर दुख-सुख, मिलन-विरह, के बीच अपने बाहर-भीतर के सफ़र की कश्मकश में अपनी चाहत व्यक्त कर रही है। देखिये उनकी बानगी कैसे जिरह कर रही है उस अपनी पीड़ा के आनंदमयी सुख के लिए...

तुम पास रहो / जन्मों जन्मों का दुख

मुझे मंजूर है

शायद इसीलिए कबीरदास ने सुख की उपेक्षा दुख को ही चाहा था , महादेवी ने तो बिना पीड़ा के प्रिय को पाने में हिचक महसूस करते हुए कहती है ----

“पीड़ा में तुझको ढूँढूँ, अब तुझ में ढ़ूंढूंगी पीड़ा”

मानवीय मिलन, विरह, उत्कंठा, लालसा, उल्लास, आनंद, व्यथा आदि के अनेक चित्र उनकी कलात्मक शब्दावली के माध्यम से ज़ाहिर है। एक अंश जो आज़ादियों के बीच एक बंधन, एक घुटन बनकर सामने आया है उसे किस सुंदरता से मन के मनोरंजन का विषय बनाकर कैसे पेश करते हैं मधुप जी देखिये .....

अपना ही घर हो गया पराया / सोने के पहले गुड-नाइट लगाऊँ

तभी कुछ घंटे चैन से सो पाऊँ / लगता है जैसे रोज़ ही देता हूँ हफ्ता

मच्छरों को अपने घर में सोने के लिए

एक कुशल कारीगर की तरह एक एक ईंट करीने से सजाकर इस काव्य-भवन का निर्माण करना एक कला है, एक साधना है, मन में उठे भाव शब्द-सौंदर्य तथा लय का माधुर्य दर्शा रहे हैं। उनकी क़लम की तहरीर में शामिल है प्रेम, बेबसी, आशा, निराशा, मायूसी, हौसला और उनकी अनगिनत यादें जिनसे निबाह करती आई है फ़क़त एक क़लम ! जो उनके हृदय गाथा के एक दर्दनाक रूदाद को अपनी चरम सीमा पर विलाप करते हुए देख कर अपनी रवानी में लिखती है .......

जला चुका हूँ/ लाशें, कितनी ही लाशें / दफ़नाई इन हाथों ने /

लेकिन मुझको तो/ अपने प्राणों से बिछड़े / बरसों बीते/ फिर भी मैं ज़िंदा हूँ/

श्री मधुप जी की रचनाओं के झरोखे के माध्यम से उनके जीवन के भावनात्मक पहलुओं से परिचित होने की हर संभावना पूर्ण हुई है। कितनी सरलता से संवाद करती है उनकी कविता क्योंकि उन्होने जीवन की सार्थकता का परिचय पा लिया है

अपने दीप से/ दूजे का दीप जलाना/ किसी के मन का अंधेरा मिटाना/

यही तो सार्थकता है/

और आगे इसी पक्ष का एक और पहलू उजागर करते हुए लिखते हैं—

क्या करूंगा ऐसी ज्योति/ जिनकी चमक छीन ले/

मेरी आँखों की ज्योति / और बुद्धि कर दे भ्रष्ट/

चारों तरफ उपजे / कष्ट ही कष्ट/ मुझे तो चाहिए

सिर्फ़ सन्नाटा/ घोर सन्नाटा /

और सन्नाटे के साथ मौन संवाद

काव्य सौंदर्य तथा कथ्य और शिल्प का अद्भुत तालमेल पाठक वर्ग को अपने दिल की अभिव्यक्ति लगने का आभास देगी इस बात का यक़ीन है। जीवन के जिये हुए पलों को तजुर्बों की कसौटी पर पूरा उतारने वाले श्री मधुप जी को इस काव्य कृति के लिए मेरी दिली मुबारकबाद और शुभकामनाएँ।

clip_image004देवी नागरानी

९-D कॉर्नर व्यू सोसाइटी, १५/ ३३ रोड, बांद्रा , मुंबई ४०००५० . फ़ोन: 9987938358 dnangrani@gmail.com

काव्य-संग्रह : यादें अनगिनत क़लम अकेला, लेखक: मधुप शर्मा, पन्ने; 144,मूल्य: रु॰ 210, प्रकाशक: भास्कर प्रकाशन, 73 मंगला विहार, कानपुर 208015

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. देवी नागरानी जी द्वारा की गयी समीक्षा बेहद उम्दा और सार्थक है। बहुत ही गहनता से अध्ययन किया है । मधुप जी को सम्मान के लिये हार्दिक बधाई और शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  2. मधुप जी को पढ़ा तो है पहले भी लेकिन इस प्रस्‍तुति से उनकी रचनाओं से कुछ और परिचय बढ़ा है।

    जवाब देंहटाएं
  3. वंदना जी व तिलक राज जी आपकी प्रतिकृया से मेरे प्रोत्साहन का मनोबल बढ़ता है। बहुत बहुत आभार

    जवाब देंहटाएं
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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: समीक्षा - ग़ज़ल संग्रह "दर्द का सफ़र"
समीक्षा - ग़ज़ल संग्रह "दर्द का सफ़र"
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रचनाकार
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