एक शख्सियत….....डॉ.तारिक़ क़मर : विजेंद्र शर्मा का आलेख

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डॉ. तारिक़ क़मर सच बोलें तो घर में पत्थर आते हैं झूठ कहें तो ख़ुद पत्थर हो जाते हैं एक शख्सियत …. ....डॉ.तारिक़ क़मर शाइरी में सबसे मक...

डॉ. तारिक़ क़मर

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सच बोलें तो घर में पत्थर आते हैं

झूठ कहें तो ख़ुद पत्थर हो जाते हैं

एक शख्सियत….....डॉ.तारिक़ क़मर

शाइरी में सबसे मक़बूल कोई विधा है, तो वो है ,ग़ज़ल और इन दिनों ग़ज़ल कहने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। नई नस्ल के शाइरों में बहुत ज़ियादा कहने का माद्दा तो है पर वो कहन में है या नहीं ,शे'र में शेरियत है या नहीं इसकी उन्हें ज़रा परवाह कम है। ग़ज़ल के बुनियादी मालूमात जैसे रदीफ़ ,काफ़िया ,बहर आदी को भी दर किनार करके कुछ नए लोग बस लफ़्ज़ों को फ़िज़ूल में ख़र्च करने पे तुले हैं। ऐसे माहौल में एक मतला सुनने को मिला :-------

सच बोलें तो घर में पत्थर आते हैं

झूठ कहें तो ख़ुद पत्थर हो जाते हैं

ये शानदार मिसरे सुनते ही लगा कि शाइरी के अखाड़े के किसी मंझे हुए शाइर का क़लाम है और फिर जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि ये मतला सत्तर के दशक में पैदा हुए युवा शाइर तारिक़ क़मर का है। तारिक़ क़मर को पढने के बाद लगा कि नई नस्ल से अगर ग़ज़ल को कोई उम्मीद है तो वो तारिक़ क़मर जैसे सुख़नवरों की वज़ह से ही है।

डॉ. तारिक़ क़मर का जन्म जिगर मुरादाबादी के इलाके के क़स्बे सम्भल में मरहूम अक़ील अहमद साहब के यहाँ 01 जुलाई 1974 को हुआ। तारिक़ साहब को शाइरी का फ़न विरासत में मिला ,इनके वालिद और इनके दादा भी शाइर थे। तारिक़ कमर की शुरूआती पढाई संभल में हुई , फिर इन्होने मुख्तलिफ़ - मुख्तलिफ़ जगहसे अपनी तालीम पूरी की जैसे कानपुर ,मुरादाबाद और मुस्लिम यूनिवर्सिटी ,अलीगढ़।

लफ़्ज़ों को शाइरी में बरतने के मामले में तारिक़ फ़िज़ूल ख़र्ची नहीं करते पर पढाई के मामले में तारिक़ रती-भर भी कंजूस नज़र नहीं आते। तारिक़ क़मर इस छोटी सी उम्र में उर्दू, अंग्रेज़ी और पत्रकारिता एंड मॉस कम्युनिकेशन में स्नात्तकोतर है। "नई ग़ज़ल में इमेज़री " पे तारिक़ ने रूहेलखंड विश्वविद्यालय ,बरेली से शोध कर पी. एच .डी की।

अमुमन लोग जैसे अपने चेहरे से दिखते हैं वैसे होते नहीं है पर तारिक़ जैसे दिखते हैं वैसे ही संजीदा है उनका संजीदा क़लाम इस बात की ज़मानत देता है कि तारिक़ क़मर 'कम उम्र के एक बुज़ुर्ग शाइर है'। तारिक़ क़मर की संजीदा शाइरी की झलक उनके इन शे'रों में मिलती है :----

दुनिया को बतलायें कैसे ख़ुद से क्यूँ शर्मिन्दा है

आज अचानक झाँक के 'तारिक़' अपनेअन्दर देख लिया

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सच है दुनिया को जगमगाते हैं

कुछ दिये घर भी तो जलाते हैं

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तुझे ख़बर भी नहीं है ,के बुझ गई आँखें

मेरे चराग़ , तेरा इंतज़ार करते हुए

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हवाहै तेरा इरादा क्या

रौशनी हो गई ज़्यादा क्या

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रात आई तो उजाले का भरम टूट गया

अब मैं समझा के ये साया भी नहीं है मेरा

तारिक़ क़मर की शाइरी में लफ़्ज़ों की जो चमक, ताज़गी और जो रिवायत की चादर में लिपटी हिन्दुस्तानी तहज़ीब देखने को मिलती है उसमे बहुत बड़ा योगदान उनके उस्ताद डॉ . नसीमुज्ज़फर साहब का है। निदा फ़ाज़ली साहब कह्ते हैं कि मैं तारिक़ क़मर की तख़लीकी ज़हानत का खैरमकदम करता हूँ , तारिक़ क़मर मुशायरे भी अपनी शर्तों के साथ पढ़ते हैं जिससे कि सुननेवाले को ये एहसास हो कि शे'र सिर्फ़ दिखाए नहीं जाते बल्कि सुनाये भी जाते हैं।

डॉ राहत इन्दौरी की नज़र में तारिक़ क़मर नई शाइरी का आठवाँ सुर है

सा रे गामा पा धानी सा

गंगा जमुना के पानी सा

मशहूर शाइर मुनव्वर राना फरमाते हैं कि तारिक़ क़मर अपने बुज़ुर्गों की शराफ़त वाली उजली तस्बीह का एक दाना भी इधर - उधर नहीं होने देते। तारिक़ क़मर की आँखें उस पतंग को नहीं देखती जो आसमान में बुलंदियों को छू रही होती हैं बल्कि इनकीआँखें देर तक उस पतंग में अटकी रहती है जो किसी नन्हे बच्चे की आरज़ूओं के हाथ से फिसलकर नीम या पीपल के पेड़ में अटक जाती है।

तारिक़ क़मर की शाइरी उनके इर्द- गिर्द बिखरी हुई समाजी ना- हमवारियों,टूट-फूट ,बिखराव और अपने अन्दर से उठने वाली उदासी की मुंह बोलती तस्वीरें है।

तारिक़ क़मर साहब की दो किताबें अभी तक मंज़रे- आम पर आई है "शजरसे लिपटी बेल “(नागरी और उर्दू ) 2009 में ,पत्तों का शोर2010 में और अपने वालिद की किताब 'जुर्मे-सुख़न ' का सम्पादन भी तारिक़ क़मर ने किया। बहुत से अदबी संस्थानों ने तारिक़ साहब को एज़ाज़ से नवाज़ा है। डॉ. तारिक़ क़मर फिलहाल ई.टी .वी उर्दू , लखनऊ में सीनियर एडिटर हैं।

आज के दौर में रिश्तों में जो गिरावट आई है उसे तारिक़ क़मर ने शाइरी में यूँ बांधा है :---

रिश्तों की तहज़ीब निभाते रहते हैं

दोनों रस्मन आते-जाते रहते हैं

तेज़ हवा चुप- चाप गुज़रती रहती है

सूखे पत्ते शोर मचाते रहते हैं

मेरी ख़ुशनसीबी है कि तारिक़ मेरे दोस्त है और मैंने उन्हें रु-ब-रु सुना है , आजकल मुशायरे में लोग तालियों और वाह-वाह के लिए सामईन से गिड़-गिड़ाते रहते हैं वहीँ तारिक़ बड़ी मासूमीयत के साथ अपना क़लाम पढ़ कर सामईन के ज़हन -ओ-दिल में अपना घर बना लेते हैं। उनके ये अशआर उनसे अक्सर फरमाइश कर सुने जाते हैं :---

काग़ज़ की एक नाव अगर पार हो गई

इसमे समन्दरों की कहाँ हार हो गई

*********

नज़र नज़र से मिलाकर सलाम करआया

ग़ुलाम, शाह की नींदें हराम कर आया

*******

मैं कभी तुझसे बे-ख़बर हुआ

कोई आंसू इधर उधर हुआ

*****

ये जो हर मोड़ पे शतरंज बिछी है इसको

पहले इन जितने वालों की सियासत से निकाल

याद इतना तो रहे दोस्त के हम दोस्त भी थे

अपना खंजर मेरे सीने से मुहब्बत से निकाल

तारिक़ नए दौर के शाइर है मगर उनके अन्दर का शाइर,आधुनिकता की चका-चौंध ,इस आलमे हवस और जिस्मों की भीड़ के बावजूद भी सीलन भरी दीवार की पपड़ी की तरह उतरती हमारी तहज़ीब की परतों की मुरम्मत करने में लगा है। अपनी जवान फ़िक्र को तारिक़ क़मर ने भटकने नहीं दिया है उनके ये मिसरे इसी बात का सुबूत है :---

गिरती हुई हवेली से बाहर हो सकी

तहज़ीब घर उजड़ के भी बे-घर हो सकी

********************

राह में अपनी सात समन्दर आए है

लेकिन घर तक प्यास बचा कर आए है

एक मुलाज़िम के हालात् और उसके अन्दर की खीज को भी तारिक़ ने ख़ूबसूरती के साथ शे'र में ढ़ाला है :--

घर आकर अब डांट रहे हैं बच्चों को

हम साहब की गाली खाकर आए है

इस छोटी सी उम्र और छोटे से अदबी सफ़र में तारिक़ ने अदब की दुनिया में अपनी हाज़िरी का एहसास करवाया है। दुनिया में जहाँ भी उर्दू बोली और समझी जाती है,जहाँ भी मुशायरे होते हैं तारिक़ उसमे नस्ले-नौ की नुमाइंदगी करते हैं। मुशायरे की शुहरत शाइर को ऐसा लिखने केलिए मजबूर करती है जिससे कि सिर्फ़ तालियाँ बटोरी जा सके पर तारिक़ ने अपनी क़लम को ये मर्ज़ नहीं लगने दिया है । उनका कहन अपना अलग अंदाज़े - बयाँ रखता है। ज़रा येअशआर देखें :---

मंज़र में दुश्मन का हमला होता है

पसमंज़र में कोई अपना होता है

कुछ तो बच्चे सख्ती से पेश आते हैं

कुछ तितली का रंग भी कच्चा होता है

कोई प्यासा लौट गया तो दरिया क्या

दरिया प्यास बुझाकर दरिया होता है

हर झोंके में उसकी ख़ुशबू आती है

हर आहट पे उसका धोखा होता है

छोटी बहर में भी तारिक़ साहब की गज़लें फिज़ां में अपनी ख़ुश्बू कुछ यूँ फैलाती है :---

हैरत है नादानी पर

रेत का घरऔर पानी पर

दिल ने अपना काम किया

अक्ल रही निगरानी पर

दिल ने सदमे झेले हैं

आँखों की नादानी पर

डॉ . तारिक़ क़मर को अभी अदब के रास्ते पे बहुत लंबा सफ़र करना है ,अदब को उनसे उम्मीदें भी बहुत है। इतनी कम उम्र में शे'र कहने का ये शऊर यूँ ही नहीं आता इसके लिए बुज़ुर्गों का आशीर्वाद और ख़ुद को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। ग़ज़ल अपने आने वाले कल का चेहरा तारिक़ क़मर में बड़े एतबार के साथ देख सकती है। तारिक़ अपनी उम्र से आगे की शाइरी करते हैं। इस बात को पुख्ता बात में तब्दील किये देता हूँ उनके ये मिसरे देखें ज़रा :--

जिसके साये में किया करते थे पहरों बाते

अब उसी पेड़ के साये में बदन जलता है

जितने दरिया हैं समन्दर में चले जाते हैं

ये बताओ के समन्दर भी कहीं जाता है

******

या तो मिट्टी के घर बनाओ मत

या घटाओं से खौफ़ खाओ मत

*****

यहाँ मेरा कोई अपना नहीं है

चलो अच्छा है कुछ ख़तरा नहीं है

******

मेरे तो दर्द भी औरों के काम आते हैं

मैं रो पडूं तो कई लोग मुस्कुराते हैं

उम्मीद है डॉ. तारिक़ क़मर से मुख़ातिब होना आपको अच्छा लगेगा और शाइर के एक नए ज़ाविये का आपको एहसास होगा। तारिक़ क़मर के इसी शे'र से अपने इस आलेख को विराम देता हूँ ,अगले हफ्ते मिलते हैं एक और शख्सियत के साथ ....

तुम मेरे प्यार का अफ़साना किताबों में लिखो

आने वाली कई नस्लों को नसीहत होगी

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. डॉक्टर तारिक़ कमर साहब की शख्सियत को बयान करता एक बेहतरीन आर्टिकल, बहुत मुबारकबाद।

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रचनाकार: एक शख्सियत….....डॉ.तारिक़ क़मर : विजेंद्र शर्मा का आलेख
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