ताहिर फ़राज़ मैंने तो एक लाश की, दी थी ख़बर "फ़राज़" उलटा मुझी पे क़त्ल का इल्ज़ाम आ गया एक शख्सियत ….... ताहिर फ़राज़ ग़ज़...
ताहिर फ़राज़
मैंने तो एक लाश की, दी थी ख़बर "फ़राज़"
उलटा मुझी पे क़त्ल का इल्ज़ाम आ गया
एक शख्सियत…....ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल के तीन सो साला माज़ी पे नज़र डालें तो ये बात शीशे की तरह साफ़ है कि ग़ज़ल के चहरे पे ताज़गी हमेशा नज़र आती है चाहे वो सालों पुरानी हो या आज की। किसी ख़बर और शाइरी में सबसे बड़ा यही बुनियादी फ़र्क है कि ख़बर चंद लम्हात तक ताज़ा रहती है फिर बांसी हो जाती है। रफ़्ता- रफ़्ता उसकी साँसे उखड़ने लगती है , एक - दो रोज़ बाद अख़बार की रद्दी के साथ दफ़न हो जाती है मगर शाइरी सदियों का सफ़र दो मिसरों में तय करती है और सालों बाद भी ज़िन्दा रहती है, ताज़ा रहती है। इसकी अहम् वजह ये है कि एक तो ग़ज़ल ख़ुद भी बहुत ख़ूबसूरत है दूसरा हमारे अहद के कुछ सुख़नवर इसकी तामीर ये सोच कर करते जैसे कोई ताजमहल बना रहें हो।
हिन्दुस्तान में ग़ज़ल अगर दिल्ली में फ़क़ीरों की ख़ानकाहों में पैदा हुई तो उसने यौवन की दहलीज़ पे क़दम लखनऊ में रखा जहाँ तहज़ीब के ख़ानदान में उसकी परवरीश हुई। जब कभी ग़ज़ल दिल्ली से मायूस हो जाती और जब - जब लखनऊ का तकल्लुफ़ उसे अखरने लगता तो वो दोनों तारीख़ी शहरों के दरम्यान बसे रामपुर में सुकून के लिए क़याम करने चली आती। रामपुर के नवाबों ने भी ग़ज़ल की ख़िदमत में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी ,ग़ज़ल को रामपुर की फ़जां बड़ी रास आई। यहाँ की ख़ूबसूरत आबो-हवा की वजह से ही ग़ालिब ,दाग़ और अमीर मिनाई भी यहाँ सुकून फरमाने आये थे। तब से लेकर आज तक रामपुर अदब का मरकज़ बना हुआ है। कहने को तो रामपुर अपने चाकुओं के लिए मशहूर है मगर जब शाइरी का ज़िक्र आता है तो ग़ज़ल का ताजमहल बनानेवाले एक मंझे हुए कारीगर का भी ज़िक्र होता है, जिसे शाइरी की दुनिया में ताहिर फ़राज़ के नाम से जाना जाता है।
ग़ज़ल की न जाने कितनी ख़ूबसूरत इमारतें इस कारीगर ने बनायी है। आप ताहिर फ़राज़ की इस कारीगिरी से मुख़ातिब उनकी एक ग़ज़ल के इन शे'रों के हवाले से हो सकते हैं :-
डाल देगा हलाकत में इक दिन तुझे
ऐ परिंदे तेरा ,शाख़ पर बोलना
पहले कुछ दूर तक साथ चलके परख
फिर मुझे हमसफ़र ,हमसफ़र बोलना
उम्रभर को मुझे बेसदा कर गया
तेरा एक बार मुँह फेरकर बोलना
ताहिर फ़राज़ यानी इन्तख़ाब हुसैन का जन्म शाइर शाकिर फ़राज़ साहब के यहाँ शकील बदायूनी के शहर बदायूं में 29 जून 1953 में हुआ । अपनी शुरूआती तालीम इन्होने बदायूं से ही पूरी की। 7 -8 बरस की उम्र से ही ताहिर फ़राज़ अपने वालिद के साथ नशिस्तों में जाने लगे वहाँ वे अपने वालिद की ग़ज़लों को तरन्नुम में पढ़ते थे और यहीं से उनके कान बहर नाम की शय से वाकिफ़ हो गये। जब ताहिर साहब 14 बरस के थे तो उन्होंने मुकमल ग़ज़ल कह दी , उनकी पहली ग़ज़ल के मतले और शे'र से आप उनके शाइरी के इब्तिदाई तेवर का अन्दाज़ा लगा सकते हैं :--
थे जो अपने हुए वो पराये
रंग किस्मत ने ऐसे दिखाये
हम जो मोती किसी हार के थे
ऐसे बिखरे के फिर जुड़ न पाये
ताहिर साहब का ननिहाल रामपुर था सो इंटर करने के बाद ये रामपुर आ गये और जिस तरह ग़ज़ल का दिल रामपुर में लगता है उसी तरह ताहिर साहब भी रामपुर के ही हो कर रह गये। रामपुर में इन्हें डॉ.शौक़ "असरी" रामपुरी और दिवाकर राही साहब की सोहबत नसीब हुई और वक़्त के साथ -साथ ताहिर फ़राज़ ग़ज़ल के तमाम पेचो-ख़म से वाकिफ़ हो गये। आज के दौर में उस्ताद - शागिर्द की रिवायत का चराग भी तक़रीबन बुझ सा गया है मगर ताहिर फ़राज़ इस मामले में नसीब वाले रहे कि उन्हें डॉ. शौक़ असरी जैसे काबिल उस्ताद मिले। सत्तर के दशक के आख़िर तक आते - आते ताहिर फ़राज़ शाइरी की दुनिया के एक मोतबर नाम हो गये। शाइरी के साथ - साथ उन्होंने अपनी आगे की तालीम भी जारी रखी और रूहेलखंड यूनिवर्सिटी ,बरेली से एम्.ए उर्दू में किया।
ग़ालिब और मीर शाइरी के वो बरगद है जहाँ से हर शाइर अपना सफ़र शुरू करता है और जब ख़ुद को थका महसूस करता है तो चैन और राहत के लिए फिर से इन्ही के साये में कयाम करने आ जाता है। ताहिर फ़राज़ ने भी इन दोनों सायादार और समरदार दरख्तों के साये में बैठकर अपनी शाइरी की फ़िक्र को
गहराई से मिलवाया इसके अलावा इन्हें शुजा ख़ावर और बशीर बद्र की शाइरी ने भी मुतास्सिर किया। रवायत की माने तो औरत से और औरत के बारे में गुफ़्तगू करना ग़ज़ल है , फिर तो ताहिर फ़राज़ इस रिवायत को क्या ख़ूब निभाते हैं उनकी एक बड़ी मकबूल ग़ज़ल है उसके ये अशआर ज़रा गौर फरमाएं :-
जब भी वो पाकीज़ा दामन आ जाएगा हाथ मेरे
आँखों का ये मैला पानी गंगाजल हो जाएगा
जिस दिन उसकी जुल्फें उसके शानों पर खुल जाएगी
उस दिन शर्म से पानी -पानी ख़ुद बादल हो जाएगा
मिसरा ए उला और मिसरा ए सानी (किसी शे'र की पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति) में राब्ता कैसे कायम किया जाता है ,पहले मिसरे में दावा फिर दूसरे में किस तरह दलील दी जाती है और ना-उम्मीद को उम्मीद का दीदार इस तरह भी करवाया जा सकता है , इसी ग़ज़ल के इस शे'र में शाइर के इसी फ़न से आप रु-ब-रु हो सकते हैं :--
मत घबरा ऐ प्यासे दरिया सूरज आने वाला है
बर्फ़ पहाड़ों से पिघलेगी, जल ही जल हो जाएगा
ताहिर फ़राज़ की शाइरी जितनी काग़ज़ की ज़मीन में गहरी गड़ी हुई है उतनी ही मुशायरे के आसमान पे भी हमेशा बलंदियों पे नज़र आती है। किसी मुशायरे की कामयाबी का एक मूल मन्त्र ताहिर फ़राज़ भी है तरन्नुम में उन्हें सुनकर मुद्दतों की थकान तक मिटाई जा सकती है मुशायरे में ताहिर साहब तहत में ग़ज़ल पढ़ने लगते हैं तो सामईन उनसे तरन्नुम की फरमाईश करते हैं उनकी ये ग़ज़ल भी मक़बूलियत की तमाम हदें तोड़ चुकी है :--
हाथों में कशकोल ज़बां पे ताला है
अपने जीने का अंदाज़ निराला है
आहट सी महसूस हुई है आँखों को
शायद कोई आंसू आने वाला है
चाँद को जब से उलझाया है शाख़ों ने
पेड़ के नीचे बे-तरतीब उजाला है
साँसों की रफ़्तार बताती है "ताहिर "
जाने वाला लम्हा आनेवाला है
मुशायरों की निज़ामत का दूसरा नाम और शाइर जनाबे मंसूर उस्मानी की नज़र में ताहिर फ़राज़ की ग़ज़ल वहीं करीब से होकर गुज़रती है जहाँ से दिल में मुहब्बत के जज़बात फूटते हैं। ताहिर फ़राज़ की एक नज़्म "बहुत खूबसूरत हो तुम "के बारे में मंसूर साहब कहते हैं कि बहुत से मुहब्बत - नामे जो कि शब्द न मिलने के कारण अधूरे थे लोगों ने इस नज़्म का सहारा लेकर मुकमल कर लिए हैं। ताहिर फ़राज़ जब अपने कहन की डोर में लफ़्ज़ों के फूल पिरोते हैं तो ऐसी माला बनती है जिसे अपने गेसुओं में गजरा बनाके लगाने के लिए ग़ज़ल लालाइत हो उठती है। उनके ये अशआर ऐसे ही गजरे की मिसाल है :-
ग़म इसका कुछ नहीं है के मैं काम आ गया
ग़म ये है क़ातिलों में तेरा नाम आ गया
कुछ दोस्तों ने पूछा बताओ ग़ज़ल हैं क्या ?
बे-साख्ता लबों पे तेरा नाम आ गया
***
अपनी आँखों में जो वो बरको- शरर रखते हैं
हम भी सूरज को बुझाने का हुनर रखते हैं
***
जो शजर बेलिबास रहते हैं
उनके साये उदास रहते हैं
चंद लम्हात की ख़ुशी केलिए
लोग बरसों उदास रहते हैं
इतिफाक़न जो हँस लिए थे कभी
इन्तिकामन उदास रहते हैं
जिस तरह ताहिर फ़राज़ की नज़्म का सहारा लेकर बहुत से लोगों ने मुहब्बत के बैंक में अपना खाता खुलवाया है उसी तरह एक - तरफ़ा प्यार के जाल में उलझे दीवानों ने जब भी ताहिर फ़राज़ के इस क़ते को अपना गुज़ारिश - नामा बनाया उन्हें कामयाबी मिली और उनका महबूब भी फिर उसी जाल में उलझ गया। ये बात और है कि ताहिर फ़राज़ को इसका इस्तेमाल ख़ुद के लिए कभी नहीं करना पड़ा। ये गुज़ारिश नामा बतौर तोहफा मुलाहिज़ा हो :---
बाँध रखा है ज़हन में जो ख़याल ,
उसमे तरमीम क्यूँ नहीं करते
बे-सबब उलझनों में रहते हो,
मुझको तसलीम क्यूँ नहीं करते
( तरमीम -बदलाव )
एक ही पगडण्डी पे चलते -चलते कभी -कभी ग़ज़ल भी चाहती है कि मुझे कहने वाला कोई दूसरा रास्ता भी तो कभी अख्तियार करे , ग़ज़ल की इसी चाह को पूरा करने के लिए कुछ तो उसे ऐसी राह पे ले जाते हैं जहाँ जा कर ग़ज़ल को ख़ुद बड़ी शर्मिंदगी होती है मगर ताहिर फ़राज़ ग़ज़ल के इस सफ़र को रिवायत की हदों में रह कर इतना ख़ुशनुमा बना देते हैं कि ग़ज़ल ताहिर फ़राज़ की एहसानमंद हो जाती है। ग़ज़ल में उनके किये गये प्रयोग ये मशविरा भी देते हैं कि रिवायत को बस तरो-ताज़ा किया जाये यहाँ तक तो ठीक है बदलना कतई ग़ज़ल के हक़ में नहीं है।
नर्म बिस्तर की जगह ख़ुद को बिछा लेते हैं लोग
बाज़ुओं को मोड़कर तकिया बना लेते हैं लोग
ख़ुश -लिबासी के लिए सामान घर का बेचकर
हो कोई त्योहार तो इज़्ज़त बचा लेते हैं लोग
ठीक इसी राह पे छोटी बहर में ताहिर फ़राज़ की ये ग़ज़ल भी अपना सफ़र हिन्दुस्तान तो क्या उस से बाहर भी मुसलसल करती जा रही है :---
आप हमारे साथ नहीं
चलिए कोई बात नहीं
आप किसी के हो जांए
आप के बस की बात नहीं
हमको मिटाना मुश्किल है
सदियाँ है लम्हात नहीं
हिन्दुस्तान के नक़्शे में
शहर तो है देहात नहीं
किताब की शक्ल में ताहिर फ़राज़ का ग़ज़ल संग्रह "कशकोल " मंज़रे -आम पर 2004 में आया देव -नागरी पढ़ने वालों के लिए भी उनका एक मज़्मुआ -ए -क़लाम बहुत जल्द आने वाला है। जहाँ तक शाइरी की ख़िदमत की एवज़ में मिलने वाले इनामात का सवाल है ताहिर फ़राज़ ने अपने अंदाज़ में यूँ कहा है :--
जिनके काँधों पर होता है बोझ ज़मानों का
उनके पैरों में अक्सर ज़ंजीरें आती है
सारे मन्सब, सारे तमगे उनके हिस्से में
अपनी झोली में खाली तक़रीरें आती है
मगर ताहिर साहब की झोली में तक़रीरों के अलावा भी ख़ुदा ने बहुत कुछ दिया है। जिस रांझे को उसकी रूठी हुई हीर ताहिर साहब के शे'र या नज़्म का सहारा ले के मिल गई हो तो इससे बड़ा इन-आम ताहिर फ़राज़ के लिए क्या हो सकता है ,फिर भी ताहिर फ़राज़ को बहुत सी साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है ,जिसमे मीर अवार्ड , फिराक़ अवार्ड ,नज़ीर बनारसी अवार्ड , अमेरिका और बरतानिया की भी बहुत सी अदबी तंजीमों ने शाइरी की ख़िदमत के लिए इन्हें नवाज़ा है। ताहिर फ़राज़ की ग़ज़लों को हरिहरन, राजकुमार रिज़वी , असलम साबरी और इनके अलावा भी कई प्रतिष्ठित गायकों ने अपनी आवाज़ दी है। ताहिर फ़राज़ मानते हैं कि मुशायरे के मंच का वक़ार बना रहना चाहिए इसके लिए ज़िम्मेदारी शाइरों की भी है। वो सामईन को अच्छी शाइरी से रु-ब-रु करवाएं , सामईन की भी ये ज़िम्मेदारी है कि वो अपनी समाहतों के इम्तेहान में हमेशा अव्वल आये,उस शाइरी को नवाज़ें जो दाद की सही मायने में हक़दार हो और मुशायरे के आयोजकों का भी फ़र्ज़ है कि वे अदब नवाज़ लोगों के लिए ऐसा दस्तरखान बिछाएं कि फिर मेयारी शाइरी की शक्ल में सुनने वालों को लज़ीज़ और आला दर्जे के पकवान मिले। ताहिर फ़राज़ साहब के शाइरी की शक्ल में बनाए हुए कुछ लज़ीज़ पकवान आपकी नज़र :---
किसी का मशविरा उसकी समझ में क्या आये
जिसे पसंद हो नाग अपनी आस्तीनों के
दुखी छतों को संभाले हुए ज़ईफ़ मकान
है इंतज़ार में रूठे हुए मकीनों के
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अब इससे बढ़के सज़ा और क्या हमारी है
तेरे बगैर जो ये ज़िन्दगी गुज़ारी है
वैसे तो तनक़ीद (आलोचना/समीक्षा )ने भी इन दिनों अपना मेयार खो दिया है मगर ताहिर साहब का ये शे'र फिर से ये हिम्मत दिलाता है कि अगर आईने की माफ़िक तनक़ीद की जाय तो शाइरी का भी भला है ,शाइर का भी और तनक़ीद का भी :--
नज़र बचाके गुज़रते हो तो गुज़र जाओ
मैं आईना हूँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है
शाइर जब मुसव्विर (चित्रकार) की तरह ग़ज़ल की तस्वीर बनाता है तो उसे अपने ख़याल के कैनवस पे लफ़्ज़ों के रंग उकेरने पड़ते हैं। ग़ज़ल की इस तस्वीर को दूसरी तस्वीरों से हटके बनाने के लिए उसे मुख्तलिफ़- मुख्तलिफ़ काफ़ियों के रंग भी ख़ुद ही इज़ाद करने पड़ते हैं। इस हुनर से ताहिर फ़राज़ को ख़ुदा ने क्या ख़ूब नवाज़ा है। उनकी बनाई एक ग़ज़ल की तस्वीर दिखाता हूँ :--
नज़र न आऊं तो ढूंढें उचक - उचक के मुझे
हो सामना तो वो देखें झिझक -झिझक के मुझे
किसी भी वक़्त चमक सकता हूँ मैं एक पल को
कहीं गंवा नहीं देना पलक झपक के मुझे
मैं भागती हुई दुनिया की ज़द में आ जाऊँ
तेरा ख़याल न खींचे अगर लपक के मुझे
मुशायरे की ये शौहरत भी ख़ूब होती है
पसंद करने लगे लोग अब सड़क के मुझे
यूँ तो बहर अपने आप में ग़ज़ल की लय होती है मगर ताहिर फ़राज़ चाहें किसी भी बहर में शे'र कहें उनके बरते हुए लफ़्ज़ अपने आप ऐसी ध्वनि निकालते हैं जैसे किसी मंझे हुए मोसिकार ने संतूर के तार छेड़ दिये हों। उनके ये अशआर देखें और महसूस करें वही ध्वनि :--
ज़िन्दगी तेरे तआकुब में हम
इतना चलते हैं की मर जाते हैं
याद करते नहीं जिस दिन तुझे हम
अपनी नज़रों से उतर जाते हैं
(तआकुब-पीछा )
***
वो सर भी काट देता तो होता ना कुछ मलाल
अफ़सोस ये है उसने मेरी बात काट दी
हालांकि हम मिले थे बड़ी मुद्दतों के बाद
औक़ात की कमी ने मुलाक़ात काट दी
ताहिर फ़राज़ हमारी रवायती शाइरी और जदीद शाइरी को बाँधने वाली एक रेशम की डोर का नाम है। ताहिर फ़राज़ जैसा लहजा मुद्दतों बाद किसी के हिस्से में आता है और जब ग़ज़ल इस लहजे के आग़ोश में आती है तो वो शरमा कर पर्दादारी की रस्म यूँ निभाती है कि आँखों से छिपकर सीधा दिल में आके बैठ जाती है। जब मुहब्बत में बेक़रारी का आलम हो और दिन के साथ - साथ रात भी भारी लगने लगे तो ताहिर फ़राज़ के क़लाम से गारंटी के साथ क़रार हासिल किया जा सकता है। कारी (पाठक) के ज़हन- ओ- दिल पे ताहिर फ़राज़ की ग़ज़ल की ज़रा सी दस्तक ख़ुशबू की बाद्क़श का एहसास करवाती है। ताहिर फ़राज़ साहब की शख्सीयत पे ये मज़मून पढ़ने के बाद आप इस बात से तो इतेफाक़ रखेंगे कि ताहिर फ़राज़ मोज़ू- ए- ज़िन्दगी पे एक मुकमल किताब है। आख़िर में इसी दुआ के साथ कि ताहिर फ़राज़ शाइरी को यूँ ही ओढ़ते / बिछाते रहें और अपने सुख़न की खुश्बू से फ़िज़ां को महकाते रहें।
मौत सच है ये बात अपनी जगह,
ज़िन्दगी का सिंगार करते रहो।
नफ़ा - नुक्सान होता रहता है,
प्यार का कारोबार करते रहो।
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
ताहिर साहब के तरन्नुम की जितनी तारिफ की जाए कम है
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