संतोष खरे की लघुकथाएँ - बिल्ली के बच्चे

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संतोष खरे बिल्‍ली के बच्‍चे प ता नहीं कहाँ से दो बिल्‍ली के बच्‍चे सुबह से आकर म्‍याँऊ-म्‍याँऊ करते और मेरी पत्‍नी उन्‍हें एक कटोरी में थो...

संतोष खरे

बिल्‍ली के बच्‍चे

ता नहीं कहाँ से दो बिल्‍ली के बच्‍चे सुबह से आकर म्‍याँऊ-म्‍याँऊ करते और मेरी पत्‍नी उन्‍हें एक कटोरी में थोड़ा सा दूध दे देती।

उसका परिणाम यह हुआ कि वे दिन में कई बार आने लगे। दोनों आते और पत्‍नी के पैरो से लिपटने लगते। पूँछ उठा कर तब तक म्‍याँऊ-म्‍याँऊ करते जब तक उन्‍हें दूध नहीं मिल जाता। हालत यह हुई कि पत्‍नी उनसे परेशान रहने लगी।

“पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं ये․․․ दिन भर परेशान करते हैं”, वह कहती। “तो मैंने तो दूध देने के लिये कहा नहीं था। तुम स्‍वयं दूध देने लगी कि छोटे हैं, प्‍यारे लगते हैं․․․ अब तुम ही निपटो इनसे।” मैंने जबाव दिया।

अब होता यह कि जब पत्‍नी उन्‍हें डाँटती, दुत्‍कारती तो इसका कोई प्रभाव नहीं होता। तब बहुत सोच समझ कर पत्‍नी ने इस समस्‍या का यह हल निकाला कि जब वे आते तो वह कटोरी में दूध लेकर पुच्‍च-पुच्‍च कर उन्‍हें दरवाज़े से बाहर ले जाती और बाहर कटोरी रख देती। जब वे दूध पीने लगते तब भड़ाक से दरवाजा बन्‍द कर देती और फिर उसे यथासंभव बन्‍द ही रखती। दोनों बच्‍चे बाहर म्‍याँऊ-म्‍याँऊ करते रहते पर वह दरवाज़ा नहीं खोलती।

कुछ दिन तो ठीक रहा पर एक दिन देखा गया, वे बाहर से छत पर कूद-फाँद करते आँगन में आये और फिर घर के अन्‍दर नज़र आने लगे। अब यह होता कि हर बार पत्‍नी उन्‍हें बाहर के दरवाज़े से निकाल देती पर कुछ ही देर बाद वे छत के रास्‍ते से फिर आ जाते। आखिर उनसे परेशान होकर उसने कार की डिग्‍गी में दूध की कटोरी रख उन्‍हें उसमें बैठाया और उसे बन्‍द कर ड्राइवर से तीन किलो मीटर दूर ले जाकर छोड़ने को कह दिया। ड्राइवर ने ऐसा ही किया।

अगले दिन पत्‍नी को उदास देखकर मैंने उसका कारण पूछा। पत्‍नी ने उत्‍तर दिया, “पता नहीं बिल्‍ली के बच्‍चों का क्‍या हाल होगा? उन्‍हें दूध पीने को भी मिला होगा या नहीं? कहीं कुत्‍ता न खा गया हो ?”․․․ मैं अपनी निःसंतान पत्‍नी को क्‍या उत्‍तर देता?

बेताल की नई कहानी

राजा ने बेताल को कंधे पर लादा और फिर राजधानी की ओर चल दिया।

अपनी आदत के अनुसार बेताल ने फिर कहानी शुरू की। राजा के राज्‍य मेें एक बार बड़ी अव्‍यवस्‍था हो गई। किसी स्‍थान पर धर्म को लेकर तो कहीं जाति या भाषा को लेकर लोग अशान्‍ति पैदा करते। उपद्रवी जब चाहते नागरिकों की हत्‍या कर देते। राज्‍य के सेवक भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त थे और अपवाद के तौर पर ईमानदार सेवक स्‍वयं इस भ्रष्‍टाचार के विरोध में अनशन करते। तस्‍करी, बेईमानी, महंगाई और काला बाज़ारी का बाज़ार गर्म रहता था। राजा के दरबारी अपनी जुबान बन्‍द रखते थे। यदि उनमे से कोई मुख खोलता तो उसे दरबार से निष्‍कासित कर दिया जाता था। राजा के विरोधियों की आवाज़ नक्‍कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह गूँजती थी।

जनता यह सब असहाय बनी देखती। आकर्षक और नई घोषणायें सुन-सुन कर वह थक गई थी।

इतना सब होते हुये भी राजा अपने सिंहासन पर बैठा था। किसी को उसे हटाने का साहस नहीं था,․․․ बताओ राजा। यह किस तरह संभव हो पाया? यदि जानबूझ कर तुमने मेरे इन प्रश्‍नों का उत्‍तर नहीं दिया तो मैं अगले चुनाव की टिकट कटवा दूँगा और फिर तू कटी पतंग की तरह इधर उधर डोलता रहेगा, कोई तुझसे नमस्‍ते तक नहीं करेगा।”

राजा ने बेताल के ऊपर दाँत पीसे। कमबख्‍त ऐसे सवाल पूछता है जो नहीं पूछे जाना चाहिये। पर प्रश्‍न का उत्‍तर तो देना ही पड़ेगा वरना यह अगले चुनाव में कहीं वास्‍तव में गड़बड़ी न करे दे। टिकट बँटते समय तो हर ऐरा-गैरा महत्‍वपूर्ण हो जाता है।

यह सोच कर राजा ने अपना मौन भंग किया, “बेताल, जिस प्रश्‍न का उत्‍तर तू जानना चाहता है वह तू पहले से जानता है, फिर भी तू मेरी प्रजा है अतः तेरी शंका समाधान करना मेरा कर्तव्‍य है․․․ जिस राज्‍य की चर्चा तू कर रहा है उसे कौन नहीं जानता? वहाँ का राजा बड़ा चतुर है, उसने दरबारियों को दरबार में न रहने पर भी इतने प्रलोभन दे रखे थे कि किसी दरबारी को उसकी आलोचना करने का साहस नहीं होता। किसी दरबारी की मृत्‍यु होने पर तत्‍काल उसके पुत्र, पुत्री, पत्‍नी आदि को उसकी गद्‌दी पर बैठा दिया जाता। गद्‌दी से हटने पर उसे आजीवन आजीविका दी जाती। ऐसी परिस्‍थिति में दरबारी अपना मुँह बन्‍द रखने में ही अपनी भलाई समझते थे।”

इतना कहकर राजा रुका, मुस्‍कुराया और फिर बोला, “और जहाँ तक उस राज्‍य की व्‍यवस्‍था आदि का प्रश्‍न था तो उसने इस समस्‍या का हल निकाला था कि जब राज्‍य में अधिक अव्‍यवस्‍था फैलती थी तो वह विदेश यात्रा पर चला जाता था या चुनाव करवाने लगता या फिर पड़ोसी देशों से युद्ध छिड़ने की बातें करने लगता।”

यह सुनते ही बेताल राजा के कंधे से उड़कर अपने पेड़ पर जा लटका और लोकतंत्र का राग अलापने लगा।

समझौता

� मकान की मालकिन उस कुत्‍ते को सुबह-शाम एक एक रोटी दे देती थी और इसी कारण कुत्‍ता मकान के बाहरी कमरे में साधिकार पड़ा रहता था। क्‍या मजाल कि वहाँ दूसरा कुत्‍ता प्रवेश पा जाये।

एक दिन एक बिल्‍ली आई पर घर के दरवाज़े पर ही कुत्‍ते को देखकर सहम गई। कुत्‍ता उस समय शायद झपकी ले रहा था। अतः वह दबे पाँव घुसी और घर के जूठे बर्तनों से विभिन्‍न प्रकार के ज़ायके लेकर लौटी। तब तक कुत्‍ता जाग गया था। उसने बिल्‍ली को देखा और गुर्राने लगा। बिल्‍ली तुरन्‍त आलमारी पर जा बैठी और बोली, “क्‍या आप इस घर के पालतू हैं?” “नहीं।” कुत्‍ते के किंचित क्रोध से कहा। उसे यह देखकर क्रोध आया कि बिल्‍ली उसकी पहुँच से बाहर थी।

“फिर क्‍या आपको इस घर से भरपेट भोजन मिलता है?” बिल्‍ली ने फिर पूछा। “नहीं।” कुत्‍ते ने कुछ चिढ़कर कहा। उसके आराम में खलल पड़ रहा था। “फिर आप यहाँ क्‍यों पड़े रहते हैं? और मुझे देखकर गुर्राते क्‍यों हैं?” बिल्‍ली ने कुछ नरमी के साथ पूछा।

“बात यह है कि मेरा स्‍वामी अक्‍सर घर के बाहर रहता है। और मेरे सामने यह समस्‍या आ जाती है कि मैं दिन भर कहाँ आराम करूँ। इस धर की मालकिन काफी सहृदय है। मुझे सुबह शाम नाश्‍ते के तौर पर एक सूखी रोटी दे देती है। अब इतना तो मेरा फज़र् हो ही जाता है कि बाहर से आने वाले किसी कुत्‍ता या बिल्‍ली को देखकर गुर्राऊँ वरना मकान मालकिन यह न सोचने लगे कि मै कैसा कुत्‍ता हूँ?” कुत्‍ते ने कहा। दरअसल कुत्‍ते को बिल्‍ली की नरमी और उसकी बडी़-बड़ी आँखें अच्‍छी लगी थीं। साथ ही एक लम्‍बे अरसे के बाद कोई उसे गप्‍पें करने को मिला था।

“तो बात यह है जनाब कि घर में जूठे बर्तनों में मुझे खाने लायक काफी सामग्री प्राप्‍त हो जाती है। मैंने सोचा है इसके एवज में मैं इस घर के चूहों का सफाया तो कर ही डालूँगी․․․ मतलब यह है कि हम दोनों का उद्देश्‍य तो समान ही है यानी भोजन प्राप्‍त करना। फिर हम दोनों का झगड़ा ही क्‍या?” बिल्‍ली ने अपनी आदत के अनुसार चालाकी से नीति की बात की। वह इस बात को साफ छुपा गई कि वह चोरी से दूध पीने के लिये काफी बदनाम है। “ठीक है पर गड़बड़ मत करना। कुछ भी हो हमें नमक हराम नहीं होना चाहिये,” कुत्‍ते ने कहा और फिर ऊँघने लगा।

अब उस घर के बाहरी कमरे में कुत्‍ता और बिल्‍ली एक साथ बैठे रहते हैं। मकान मालिक और मालकिन आने वालों को उनको एक साथ बैठा हुआ दिखाते हैं और अपने घर को “शांति-स्‍थान” कह कर गौरवान्‍वित होते हैं।

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साभार - साक्षात्कार जनवरी 08

प्रधान - संपादक देवेन्द्र दीपक

संपादक - हरि भटनागर

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रचनाकार: संतोष खरे की लघुकथाएँ - बिल्ली के बच्चे
संतोष खरे की लघुकथाएँ - बिल्ली के बच्चे
रचनाकार
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