विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी का आलेख - आलोचना का स्वधर्म

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विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी आलोचना का स्‍वधर्म यदि कोई भारतीय, ‘स्‍वधर्म' शब्‍द का प्रयोग करता है तो उसे श्रीमद्‌ भगवत गीता का स्‍मरण हो ज...

विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी

आलोचना का स्‍वधर्म

यदि कोई भारतीय, ‘स्‍वधर्म' शब्‍द का प्रयोग करता है तो उसे श्रीमद्‌ भगवत गीता का स्‍मरण हो जाना स्‍वाभाविक है। गीता की प्रसिद्ध उक्‍ति है ‘स्‍वधर्मे निधनं श्रेयः'। ‘धर्म' शब्‍द का व्‍यवहार हमारे प्रयोग में अनेक अर्थों में होता है। रेलिजन (त्‍मसपहपवद)‘मज़हब' और ‘पंथ' के अर्थ में, ‘लक्षण', ‘गुण'और सारभूत तत्‍व के अर्थ में, ‘नीति' और ‘न्‍याय' के अर्थ में तथा ‘कर्त्त्‍ाव्‍य' और ‘आदर्श' आदि के अर्थ में। यहाँ ‘धर्म' शब्‍द का इस्‍तेमाल मैं ‘सारभूत तत्‍व'और ‘कर्त्त्‍ाव्‍य' अर्थात ‘करणीय' के अर्थ में कर रहा हूँ। हर जीव और पदार्थ में एक सारभूत तत्‍व होता है जिसे निकाल लेने पर उसका अस्‍तित्‍व प्रायः समाप्‍त हो जाता है। जैसे आग से यदि उसकी दाहकता निकाल ली जाय तो आग का अस्‍तित्‍व समाप्‍त हो जाता है। ऐसी मूलभूत विशेषता जो एक को दूसरे से अलग करती है या उसके समान बनाती है, उसका ‘धर्म' है। इसके लिए हम ‘विपरीत धर्मा' और ‘समान धर्मा' जैसे शब्‍दों का प्रयोग करते हैं। जीव विज्ञानी इसे ‘जीन्‍स' में देखते हैं, रसायन विज्ञानी ‘रसायन' में भौतिक शास्त्री ‘तत्‍व' में, मनोविज्ञानी ‘मन'में, दर्शनशास्त्री ‘रूप' में, भक्‍तिमार्गी ‘भाव' में, और काव्‍यशास्त्री ‘रस' में। जिस मूल विशेषता को धारण करने के कारण कोई वस्‍तु अपना अस्‍तित्‍व प्राप्‍त करती है, वही उसका धर्म है। ‘आहार, निद्रा, भय, मैथुनंच․․․,' वाले प्रसिद्ध श्‍लोक में जहाँ कहा गया है कि धर्म से हीन मनुष्‍य पशु के समान होता है, वहाँ ‘धर्म' शब्‍द का प्रयोग ‘मानवधर्म' के अर्थ में किया गया है। मनुष्‍य जाति का एक सामान्‍य धर्म होता है जिसे महाभारत के ‘धृतिः क्षमादमोऽस्‍तेयं․․․' वाले प्रसिद्ध श्‍लोक में बताया गया है। यदि किसी में यह सामान्‍य धर्म नहीं है तो वह मनुष्‍य की आकृति रखते हुए भी पशु ही है। ‘आकृति' वाह्य रूप को कहते हैं, ‘प्रकृति' भीतरी रूप को। ‘धर्म' भीतर की चीज़ है। ‘सामान्‍य धर्म' के साथ एक ‘विशेष धर्म' होता है जो व्‍यक्ति और परिस्‍थिति के अनुसार परिवर्तनशील है। यहाँ यह ध्‍यान रखना होगा कि विशेष

धर्म सामान्‍य धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए उसके अंतर्गत ही चरितार्थ हुआ करते हैं। यदि कोई असत्‍यवादी बड़े कौशल से अपना झूठ प्रस्‍तुत कर रहा हो या कोई चोर बड़ी कुशलता से चोरी कर रहा हो तो यह ‘धर्म' के अंतर्गत नहीं होगा क्‍योंकि यह सामान्‍य धर्म की मर्यादा के विरुद्ध है। ‘कर्म' और ‘धर्म' में अंतर होता है। किसी भी की जा रही क्रिया को ‘कर्म'कहते हैं पर ‘धर्म'वह तभी है जब ‘करणीय' भी हो।

आलोचना का स्‍वघर्म क्‍या है? वह क्‍या है जिसे निकाल देने पर आलोचना का अस्‍तित्‍व समाप्‍त हो जाता है। ‘आलोचना' शब्‍द ‘लुच' धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘देखना'। ‘समीक्षा' का भी अर्थ यही है। ‘देखना' अर्थात कृति को ‘देखना' ही आलोचना की वह विशेषता है जिसके बिना उसका अस्तित्व नहीं रहता। लेकिन ‘देखना' आलोचना का कर्म है, धर्म नहीं। ‘देखने' के साथ कई ऐसे बुनियादी प्रश्‍न खड़े हो जाते हैं जो आलोचना के धर्म से संबंधित हैं। देखने वाला कौन है? वह कैसे देख रहा है? किस मनःस्‍थिति में देख रहा है। खुद अपनी आँख से देख रहा है या किसी अन्‍य की? आँख तो एक यंत्र माध्‍यम है। देखता तो मस्‍तिष्‍क है। भाव और विचार में परिवर्तन से दृश्‍य भी परिवर्तित हो जाता है। इसीलिए देखने की क्रिया के साथ अनेक शब्‍दों का व्‍यवहार किया जाता है। सिंहावलोकन, विहंगावलोकन, छिद्रान्‍वेषण, सत्‍यान्‍वेषण आदि आदि। श्रृंगार के प्रसंग में तो ‘देखने' की जाने कितनी अदाओ का वर्णन हुआ है। बिहारी ने ‘वह चितवनि औरै कछू, जिहिं बस होत सुजान' कह कर उसकी अपूर्वता, अकथता और अचूकता तीनों की व्‍यंजना कर दी है। कुबेरनाथ राय एक जगह लिखते हैं, मैंने नदी की ओर अनिमेष लोचन दृष्‍टि से देखा। कोई कह सकता है कि ‘मैंने नदी की ओर एक टक देखा' या ‘मैंने नदी को अनिमेष दृष्‍टि से देखा' से भी तो काम चल जायेगा। लेकिन मेरा काम इससे नहीं चलेगा। यह शब्‍द बौद्ध साहित्‍य से आता है। गौतम बुद्ध जब थके हारे, मानसिक रूप से पराजित पहले पहल बोधि वृक्ष के सम्‍मुख उपस्‍थित हुए तो उन्‍हें लगा कि यही वृक्ष उनका परम आश्रय और परम समाधान है। यहीं पर सारी पीड़ाओं का समाधान होगा। और तब जिस दृष्‍टि से उन्‍होंने वृक्ष को देखा, उसे कहा गया ‘अनिमेष लोचन दृष्‍टि'। बोघ गया में गौतम बुद्ध के वज्रासन के सम्‍मुख एक छोटा मंदिर है जिसका नाम है ‘अनिमेष लोचन मंदिर'। तो देखना भी एक नहीं होता। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने देवदारु शीर्षक निबंध में जिस तरह एक-एक देवदारु वृक्ष को देखा है, क्‍या उसी तरह कोई और भी देख सकता है? द्विवेदी जी लिखते हैं- ‘देवदारु भी सब एक से नहीं होते। मेरे बिल्‍कुल पास में जो है, वह जरठ भी है खूसट भी। ज़रा उसके नीचे की ओर जो है, वह सनकी-सा लगता है। एक मोटे राम एक खड्‌ड के एक प्रांत पर उगे हैं, आधे ज़मीन में, आधे अधर में। आधा हिस्‍सा ठूँठ, आधा जगर-मगर; सारे कुनबे के पाधा जान पड़ते हैं। एक अल्‍हड़ किशोर है, सदा हँसता सा; कवि जैसा लगता है।․․․․․ ‘रेणु ने जिस दृष्‍टि से पूर्णिया अंचल को देखा है क्‍या हर कोई देख सकता है? रचनाकारों की इस दृष्‍टि-अनन्‍यता के हज़ारों-हज़ार उदाहरण उद्धृत किये जा सकते हैं। मगर क्‍या आलोचकों का देखना भी अलग-अलग नहीं होता? क्‍या तुलसी के ‘रामचरित मानस', प्रसाद की ‘कामायनी' या प्रेमचंद्र के ‘कफन' को आलोचकों ने एक ही तरह से देखा है। यायावरीय पं․ राजशेखर ने भावक या आलोचक की जो चार कोटियाँ-अरोचकी, सतृष्‍णाभ्‍यवहारी, मत्‍सरी और तत्‍वाभिनिवेशी-बताई हैं, वे उनके देखने के ही आधार पर। पहले को अच्‍छी से अच्‍छी रचना भी नहीं जँचती। दूसरे को हर रचना मुग्‍ध करती है। तीसरा रचना के गुण को देखता हुआ भी मौन रहता है। चौथा ही रचना के तत्‍व का भलीभाँति विश्‍लेषण करता है। कोई व्‍यक्ति किस दृष्‍टि से और किस बिन्‍दु से देख रहा है, यह ‘दृश्‍य' के स्‍वरूप को निर्धारित करता है। देखने वाला किन जिज्ञासाओं-प्रश्‍नों के साथ है? वह राग में है या द्वेष में आसक्ति में है या विरक्ति में मद में है या प्रपत्ति में? हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, ‘सबका देखना सही देखना नहीं होता। आँखें ठीक न हों, दिमाग दुरुस्‍त न हो, मन चंचल हो तो देखने वाला ठीक-ठीक नहीं देख पाता। तत्‍वज्ञान के द्रष्‍टा के लिए भी सम्‍यक दृष्‍टि आवश्‍यक होती है। जिसका मस्‍तिष्‍क विकृत हो, चित्त्‍ा ममता और अहंकार से ग्रस्‍त हो, वह सम्‍यक दृष्‍टि वाला नहीं हो सकता। इसलिए सही देखने वाला वह है जिसका अन्‍तर और बाहर निर्मल हो, जो राग और द्वेष से मुक्त हो, जो भय और भ्रांति का शिकार न हो, जिसका मन योग से शुद्ध हो। ऐसा मनुष्‍य जो देखता है वह ठीक देखता है। भारतीय परम्‍परा में पुराण-ऋाषियों को ऐसा ही माना गया है। वे सच्‍चे द्रष्‍टा थे'। (हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड 7,पृ․19)। द्विवेदी जी की इन पंक्‍तियों में गीता की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। गीता में ‘बुद्धियोग', ‘समत्‍व बुद्धि' और ‘स्‍थित प्रज्ञ'की चर्चा की गयी है। समत्‍व बुद्धि वह है जो सुख दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, शत्रु-मित्र, प्रिय-अप्रिय सब में सम रहती है। ‘सुख दुःखे समेकृत्‍वा लाभलाभौ जयाजयौ' तथा ‘समः शत्रौ च मित्रो च तथा मानापमानयोः।' यहाँ ध्‍यान रखने की बात है कि गीता और रामचरित मानस में बुद्धि की महिमा का जितना गान हुआ है उतना शायद ही किसी आलोचना ग्रंथ में भी हुआ हो। गीता बुद्धि नाश को सर्वनाश की संज्ञा देती है- ‘बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्‍यति'। और रामचरित मानस बार-बार ‘मति' और ‘विवेक' को रेखांकित करता है। तुलसीदास को जब ‘मति' और ‘विवेक' से भी संतोष नहीं होता तो वे ‘निर्मल मति' और ‘विमल विवेक' कहकर उन्‍हें और भी चमकाते हैं। यह निर्मल मति और विमल विवेक क्‍या है तथा क्‍या है समत्‍व बुद्धि? बिना इसके सही देखना संभव नहीं हो पायेगा, जो कि आलोचना का धर्म है।

‘सत्‍य क्‍या है'- यह सदा से विचारशील प्राणियों की जिज्ञासा और चिंतन का विषय रहा है। बल्‍कि यह कहें कि आज तक के मनुष्‍य की विकास-यात्रा सत्‍य की खोज की ही यात्रा रही है। जीवन भर सत्‍य के प्रयोग करने वाले महात्‍मा गांधी ने सत्‍य को ही ईश्‍वर कह दिया था। महाभारत ने सत्‍य को पृथ्‍वी से भी भारी बताया था। रूसी उपन्‍यासकार सोल्‍झेनित्‍सीन ने सत्‍य के एक शब्‍द के सामने सारी दुनिया को हल्‍का माना था। भारतीय दार्शनिकों ने ‘सत्‍य' को ‘त्रिाकाल अबाधित' कहा था और क्‍योंकि यह विशेषता केवल ब्रह्म में है अतः ब्रह्म को ही सत्‍य माना था। श्रुतियों ने, स्‍मृतियों ने, मुनियों ने सत्‍य की अव्‍याख्‍येयता को ध्‍यान में रख कर उसका मुँह ‘हिरण्‍मय पात्र' से ढँका हुआ बताया था। दुनिया के बहुत बड़े विचारक अंतिम सत्‍य के बारे में मौन हो गये थे - चाहे बुद्ध हों या प्‍लेटो, ईसा मसीह हों या लाओत्‍सु। तर्क की सीमा यह है कि वह अपने पंख, जो ज्ञात है उसी के भीतर फड़फड़ा सकता है। मगर महाप्रकृति में बहुत कुछ ऐसा है जो अज्ञात है। इसीलिए विज्ञान भी कभी अंतिम सत्‍य की बात नहीं करता। पूर्ण और अंतिम सत्‍य की बात हमेशा अवैज्ञानिक करते हैं। सत्‍य को वैज्ञानिक आधार देने के लिए ही जैनियों ने स्‍यादवाद और अनेकान्‍तवाद की धारणा व्‍यक्त की है। उनके अनुसार कोई व्‍यक्ति पूरा सत्‍य नहीं बल्‍कि उसके एक अंश को ही देख पाता है। अतः यह कहना उपयुक्त है कि ‘कदाचित यह सत्‍य है'।

यह स्‍वीकार करते हुए भी कि अंतिम सत्‍य का निर्वचन बहुत कठिन है, कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जिस पर मनुष्‍य अपने को स्‍थिर कर सके। ‘भक्‍ति' के प्रवाह में ‘अस्‍ति' का एक आधार तो होना ही चाहिए। भारतीय चिंतन में इसीलिए ‘ऋत्‌' के साथ ‘सत्‌' की अवधारणा है। मनुष्‍य ही एक ऐसा प्राणी है जिसने अपने से बड़े कुछ मूल्‍यों का सृजन किया है, जिनके लिए वह अपने प्राण भी दे देता है। इन्‍हीं को वह सत्‍य कहता है, धर्म कहता है और ये ही जीवन के हाहाकार में उसके पाँव टिकाने के आधार हैं। प्रेम, करुणा, अहिंसा आदि कुछ ऐसे ही मूल्‍य हैं। गांधी जी कहते थे कि सत्‍य निर्गुण होता है, वह जब अहिंसा के रूप में अवतरित होता है तो सगुण बनता है। महाभारतकार युद्ध के उस भयानक कोलाहल में, जबकि दोनों सेनाएँ एक-दूसरे को मरने-मारने के लिए आमने-सामने खड़ी हैं ‘आनृशंस्‍य' अर्थात्‌ अहिंसा को परम धर्म बताता है। निश्‍चय ही प्रेम,करुणा, और अहिंसा के मूल्‍य ‘अंतिम सत्‍य' से कमतर नहीं हैं। आज की उत्त्‍ार आधुनिकता ‘शाश्‍वत', ‘उदात्त्‍ा', ‘महान', ‘पूर्ण' जैसे शब्‍दों में विश्‍वास नहीं करती। इतना तो ठीक है पर यदि इनकी गरिमा को स्‍पर्श करने वाले प्रेम, करुणा, अहिंसा जैसे मूल्‍यों में भी उसका विश्‍वास न होगा तो मनुष्‍यता अपना आधार कहाँ प्राप्‍त करेगी? उत्त्‍ार आधुनिकता की सबसे बड़ी सीमा यही है कि उसके पास ‘अस्‍ति' का कोई आधार नहीं है।

प्रेम, करुणा और अहिंसा का विश्‍लेषण करें तो महसूस होगा कि इनमें अपने से अलग किसी ‘पर' की स्‍वीकृति है। यदि ‘पर' नहीं तो फिर प्रेम-करुणा-अहिंसा का आधार ही क्‍या होगा? इसीलिए तुलसीदास ने स्‍वीकार किया था-‘परहित सरिस धरम नहिं भाई।' उनसे बहुत पहले के ऋाषियों ने भी यही निष्‍कर्ष दिया था-‘परोप कारायपुण्‍याय, पापाय परपीड़नम्‌'। हमारे समय के भी गंभीर लेखक इसी को दुहराते हैं। कामायनीकार कहता है, “औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ।” यह ‘पर' ही विस्‍तृत होकर उस ‘अभेद' तक पहुँचता है जहाँ पहुँचना भारतीय चिंतन और दर्शन का लक्ष्‍य रहा है। ‘आत्‍मवत्‌ सर्व भूतेषु' या ‘सर्वेभवन्‍तु सुखिनः' या ‘कामयेदुःखतप्‍तानां प्राणिनाम्‌ आर्तनाशनम्‌' इसी के उद्‌घोष हैं। ‍भारतीय चिंतन का मूल मंत्र है समस्‍त सत्ताओं की अंतर्निहित एकता-! इसी को वेद, उपनिषद से लेकर विवेकानन्‍द, आनंद कुमार स्‍वामी और गांधी तक सब स्‍वीकार करते हैं। यह एकत्‍व की अनुभूति ही परम ज्ञान है और इसके अनुरूप आचरण ही चरम पुरुषार्थ। एको सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्‍ति। यहाँ यह उल्‍लेखनीय है कि भारतीय चिंतन अभेद के साथ भेद को और अद्वैत के साथ द्वैत को भी स्‍वीकारता है क्‍योंकि विषमता प्रकृति का स्‍वभाव है, मगर इस भेद में एकत्‍व की अनुभूति ही उसका लक्ष्‍य है। विवेकानन्‍द के अनुसार, “अद्वैत द्वैत का विरोधी नहीं। यह धर्म के तीन डगों में से अंतिम डग है। प्रथम डग है मात्र द्वैत। द्वैत भाव की सही उपलब्‍धि कर लेने के बाद मनुष्‍य आंशिक अद्वैत (द्वैताद्वैत) की स्‍थिति में आ जाता है। तीसरे डग में वह विश्‍व के साथ एकाकार अनुभव में चला जाता है और यह है अद्वैत का तीसरा और चरम पग निक्षेप।”

(आर्षचिंतनः कुबेरनाथराय)

आयार्च रामचन्‍द्र शुक्‍ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्‍य चिंतन तथा उनकी आलोचना अभेद्‌, अद्वैत और एकत्‍व की इसी आधार भूमि पर प्रतिष्‍ठित है। शुक्‍ल जी ‘साधारणीकरण' को ‘अभेद' की भूमि मानते हैं। उन्‍हीं के शब्‍दों में, कविता या उसकी समीक्षा जब तक भेद-भाव का आधार हटाकर अभेद-भाव के आधार पर न प्रतिष्‍ठित होगी, तब तक उसका स्‍वरूप इसी तरह झंझट और खींच तान में पड़ा रहेगा। अभेद-भाव की भूमि तैयार करने का नाम ही साधारणीकरण है।” (रस मीमांसा, पृ․ 335)। शुक्‍ल जी के अनुसार मंगल का विधान करने वाले दो ही भाव हैं - प्रेम और करुणा। करुणा की गति रक्षा की ओर होती है और प्रेम की रंजन की ओर। शुक्‍ल जी की आलोचना का केन्‍द्रीय आधार है ‘लोक मंगल।' यह हिन्‍दी आलोचना को शुक्‍ल जी की महान देन भी है। इसी को ध्‍यान में रखते हुए वे प्रबन्‍ध काव्‍यों के दो भेद करते हैं- लोकमंगल की साधनावस्‍था का काव्‍य और लोकमंगल की सिद्धावस्‍था का काव्‍य। साधनावस्‍था के काव्‍य में बीज रूप में करुणा प्रतिष्‍ठित होती है और सिद्धावस्‍था के काव्‍य में बीज रूप में प्रेम। शुक्‍ल जी के अनुसार मंगल की स्‍थापना के लिए जो उग्रता और कठोरता होती है उसमें भी सात्‍विक सौन्‍दर्य होता है। इसी को वे ‘विरुद्धों का सामन्‍जस्‍य' कहते हैं। उन्‍हीं के शब्‍दों में, “भीषणता और सरसता, कोमलता और कठोरता, कटुता और मधुरता, प्रचंडता और मृदुता का सामंजस्‍य ही लोकधर्म का सौन्‍दर्य है।”

पं․ हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना और उनके साहित्‍य-चिंतन का आधार भी वही ‘अभेद' और ‘एकत्‍व' है जो कि आचार्य शुक्‍ल का। द्विवेदी जी के ही शब्‍दों में इसे पढि़येः- “काव्‍य, पाठक के सुख-दुख में आवेग उत्‍पन्‍न करते हैं। मनुष्‍य दूसरों के सुख-दुख से प्रभावित होता है। उनके साथ उसकी ‘सम-वेदना' होती है। और अन्‍ततोगत्‍वा उस सुख-दुख को आत्‍मसात करके अनुभव करने लगता है। इस प्रकार काव्‍य मनुष्‍य-मनुष्‍य के बीच विद्यमान ‘एकत्‍व' का प्रतिष्‍ठापक होता है। काव्‍य प्रमाणित कर देता है कि व्‍यक्ति-मानव के ऊपरी विभेदों के नीचे एक ‘अभेद'है, ‘एकता' है।” (हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड 7, पृ․68)। द्विवेदी जी उसी तत्‍व को ‘सौन्‍दर्य' मानते हैं जो समष्‍टि चित्त्‍ा को प्रभावित और आन्‍दोलित करे। उनके अनुसार प्राचीन आचार्यों ने ‘रस' के रूप में इसी तत्‍व की अवधारणा की थी। द्विवेदी जी मनुष्‍य को ही साहित्‍य का लक्ष्‍य मानते हैं। उनका एक प्रसिद्ध निबंध ही है जिसका शीर्षक है- ‘मनुष्‍य ही साहित्‍य का लक्ष्‍य है'। (अशोक के फूल)। द्विवेदी जी ‘मनुष्‍य' उसे मानते हैं जो “पशु सुलभ धरातल से ऊपर उठा हुआ मनुष्‍य धर्मी जीव हो।” (ग्रंथावली खंड 7, पृ․160)। उनके अनुसार, मनुष्‍य की इकाइयों के व्‍यवधान और अन्‍तर के होते हुए भी समष्‍टि मानव एक और अभेद्य है।” (ग्रंथावली, खंड 8, पृ․431)। द्विवेदी जी का सम्‍पूर्ण लेखन चिन्‍मय मनुष्‍य की जययात्रा का गान और समष्‍टि मानव के मंगल की कामना करता है।

अपने द्वन्‍द्ववादी विचारों के दुराग्रह के कारण ‘दूसरी परम्‍परा की खोज' में नामवर सिंह आचार्य शुक्‍ल और द्विवेदी जी को आमने-सामने खड़ा करके शुक्‍ल जी को एक परम्‍परा का और द्विवेदी जी को दूसरी परम्‍परा का आलोचक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। जबकि वास्‍तविकता यह है कि दोनों के साहित्‍य-चिंतन का आधार अभेद दृष्‍टि है, दोनों रसवादी हैं, दोनों की कसौटी लोकमंगल है, दोनों चित्‌ तत्‍व को स्‍वीकार करते हैं, दोनों प्राचीन शास्‍त्रों के अभिनव व्‍याख्‍याता हैं, दोनों रीतिवाद-चमत्‍कारवाद के विरोधी हैं, दोनों के आदर्श भी तुलसी ही हैं। एक ने उन पर पुस्‍तक लिख दी, दूसरा हृदय में यह हसरत लिए ही स्‍वर्गवासी हो गया। आचार्य शुक्‍ल के समय में तो नहीं पर द्विवेदी जी के समय में मार्क्‍सवादी आलोचना अपने यौवन पर थी। फिर भी द्विवेदी जी ने उसका आतंक नहीं स्‍वीकार किया। उन्‍हें अपनी परम्‍परा उससे बड़ी और बलवान लगी।

कोई भी बड़ा आलोचक अपनी परम्‍परा से अपरिचित रह कर या उससे विच्‍छिन्‍न होकर अपने साहित्‍य का मूल्‍यांकन नहीं कर सकता। एक भाषा-परम्‍परा में कुछ ऐसे शब्‍द होते हैं जिनका अनुवाद अन्‍य भाषा में संभव ही नहीं होता। साहित्‍य की वैश्‍विकता और देशीयता दोनों अपनी अपनी जगह सही, स्‍वाभाविक और जरूरी हैं। आलोचना की ऐसी कोई सार्वभौम और शाश्‍वत कसौटी नहीं है जिस पर हर रचना को कसा जा सके। सारी कसौटियाँ रचना के भीतर से ही निकलती हैं। हिन्‍दी आलोचना के संदर्भ में कहें तो आलोचना के स्‍वधर्म का अर्थ आलोचना का अपने भारतीय चिंतन �ोतों को खँगालना और उनके प्रासंगिक निष्‍कर्षों को ग्रहण करना भी है। ग्रहण और त्‍याग के विवेक से परम्‍परा का पोषण प्राप्‍त करके ही सही प्रगति और सही विकास संभव है। निहित उद्धेश्‍यों से प्रेरित या अज्ञानवश हीनताग्रस्‍त और छिन्‍नमूल बुद्धिजीवियों द्वारा अपनी परम्‍परा का तिरस्‍कार आत्‍मघाती साबित होता है। इस संदर्भ में महात्‍मा गांधी का स्‍मरण स्‍वाभाविक है। गांधी पूरी तरह आधुनिक दृष्‍टि और वैश्‍विक चेतना से सम्‍पन्‍न थे। वे एक प्रखर बौद्धिक, तार्किक और क्रांतिकारी सत्‍याग्रही थे। दिमागी गुलामी से मुक्‍त होने के कारण उन्‍होंने पश्‍चिमी आधुनिकता को आलोचनात्‍मक विवेक दृष्‍टि से परखा था और भारतीय परम्‍परा की मंगलकारी शक्‍ति को पहचान लिया था। उनका कहना था कि अपनी खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए ताकि बाहर की हवा अन्‍दर आ सके मगर यह भी ध्‍यान रखना चाहिए कि वह हमें उड़ा न ले जाय। गांधी का सारा चिंतन भारतीय परम्‍परा का ही पुनराविष्‍कार था। उनके भीतर-बाहर के सम्‍पूर्ण रूप को देखते हुए यह निष्‍कर्ष देना सही होगा कि उन्‍होंने गीता के ‘स्‍वधर्मे निधनं श्रेयः' का उदाहरण प्रस्‍तुत किया।

बीसवीं शताब्‍दी के भारतीय बुद्धिजीवियों पर पश्‍चिमी चिंतन का गहरा आतंक रहा है। फ्रायड और मार्क्‍स उनके नेत्र भी रहे हैं और तराजू के बटखरे भी। यदि मन में हीनभाव न हो और उसमें स्‍वाधीन विचार की शक्‍ति हो तो इन दोनों की सीमाओं की पहचान मुश्‍किल नहीं है। इस संदर्भ में स्‍वीकार करना चाहिए कि चिंतन पूरब का हो या पश्‍चिम का या उत्त्‍ार-दक्‍खिन का, अछूत नहीं होना चाहिए। स्‍वयं ऋग्‍वेद कहता है- ‘आनो भद्राः क्रतवोयन्‍तु विश्‍वतः', अर्थात्‌ ज्ञान को सभी दिशाओं से आने दो। फ्रायड और मार्क्‍स का चिंतन भी अत्‍यन्‍त क्रांतिकारी तथा मन-मस्‍तिष्‍क के बंद द्वारों को खोलने वाला है। मगर वह अर्धसत्‍य है, अतः अंतिम नहीं है। वह भी विवेकपूर्ण त्‍याग और ग्रहण की अपेक्षा रखता है। फ्रायड से प्रभावित बुद्धिजीवियों ने मान लिया कि नारी-पुरुष के बीच काम-संबंध ही अंतिम है। इससे नारी और नर दोनों का अवमूल्‍यन हुआ है और दोनों के बीच अन्‍य संबंध महत्‍वहीन हुए हैं। अनेक जीव-वैज्ञानिकों ने इसका प्रतिवाद करते हुए प्राणि जगत में सेक्‍स की तुलना में वात्‍सल्‍य को अधिक स्‍थायी और प्रबल माना है। भारतीय चिंतन में मातृभाव को प्रमुखता देते हुए सर्व साधारण की उपासना पद्धति में मातृरूपा देवियों की कल्‍पना की गयी है। वैसे सृष्‍टि की प्रत्‍येक सत्‍ता विमिश्र हैं। जैसे सत्‌, रज और तम के अंश सब में हैं वैसे ही नरत्‍व और नारीत्‍व के भी। पंचमहाभूतों से रचित भौतिक संरचना में भी एक तत्‍व में दूसरे का अंश मिला हुआ है। वैज्ञानिक दृष्‍टि सर्वहारा में बुज़र्ुआ और बुजु़र्आ में सर्वहारा तथा स्त्री में पुरुष और पुरुष में स्त्री को भी विद्यमान पायेगी। रवीन्‍द्रनाथ तो कहते ही थे कि उनके भीतर एक चिरविरहिणी है और उनके गुरु कबीर में भी वह विरहिणी विकल दिखती है।

मार्क्‍सवाद की सीमा यह है कि वह अपने सिद्धान्‍त को ही पूर्ण, वैज्ञानिक, सर्वोपरि, और अंतिम मानता है। इसे स्‍वीकार कर लेने के बाद कुछ सोचने की नहीं, सिर्फ अनुगमन करने की ज़रूरत होती है। जिस दिन लेनिन ने कहा कि “साहित्‍य को पार्टी साहित्‍य होना चाहिए,” उसी दिन लेखक को पूछना चाहिए था कि फिर लेखक के स्‍वधर्म का क्‍या होगा? कुछ ने यह पूछा भी, मगर बहुतों ने पार्टी धर्म को ही लेखन धर्म मान लिया। तब से आज तक वे पार्टी-सिद्धान्‍तों के आधार पर ही साहित्‍य का विवेचन-मूल्‍यांकन कर रहे हैं। दिक्‍कत यह है कि किसी एक सिद्धान्‍त या दर्शन की कसौटी पर किसी महान कवि का समग्र मूल्‍यांकन संभव नहीं है। यही कारण है कि मार्क्‍सवादी आलोचना हिन्‍दी में ही किसी एक भी लेखक का समग्र मूल्‍यांकन नहीं कर सकी। बल्‍कि मूल्‍यांकन के प्रयास में वह कबीर से लेकर प्रेमचंद तक अनेक कवियों-लेखकों के विराट व्‍यक्तित्‍व को वामन बनाती रही। जब कसौटी छोटी होती है तो लेखक भी छोटा हो जाता है। द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद ने साहित्‍य को जो मुख्‍य प्रतिमान दिये, वे हैं- समानता, वर्ग संघर्ष और क्रांति या हिंसात्‍मक क्रांति। समानता का मूल्‍य एक सही और महत्त्‍वपूर्ण मूल्‍य है मगर इसे मार्क्‍स ने नहीं, उनसे हज़ारों वर्ष पूर्व धर्म ने दिया था। बल्‍कि मुझे कहना चाहिए कि उन ग्रंथों ने दिया था जिन्‍हें हिन्‍दू अपना धर्मग्रंथ मानते हैं। हाँ, मार्क्‍स ने इस समानता के मूल्‍य को प्राप्‍त करने का अपना तरीका बताया था, अर्थात्‌ वर्ग संघर्ष और हिंसात्‍मक क्रांति का। इसके साथ ही मार्क्‍सवाद जिन मानों से साहित्‍य को दूर रखता है उनमें प्रमुख हैं अध्‍यात्‍म तथा प्रेम-करुणा- संवेदनशीलता आदि के नैतिक मूल्‍य जिन्‍हें वह बुर्जूआ कहता है। ज़ाहिर है इन मूल्‍यों को अस्‍वीकार कर देने पर हिन्‍दी के सन्‍त-भक्त कवियों से लेकर आधुनिक काल के रवीन्‍द्रनाथ और छायावाद तक का मूल्‍यांकन संभव नहीं है। आगे के कवियों-लेखकों का भी नहीं। भारतीय दृष्‍टि धर्म को समग्र जीवन प्रणाली मानती है। इसीलिए यहाँ अर्थशास्‍त्र, विधिशास्‍त्र, राजनीतिशास्‍त्र और यहाँ तक कि कामशास्‍त्र तक को धर्म से जोड़ा गया है। यहाँ चिंतन की प्रत्‍येक शाखा अपने को आध्‍यात्‍मिक मूल के साथ जोड़ती है। शब्‍द बह्म, नाद बह्म, रस बह्म आदि प्रयोग इसी के प्रमाण हैं। मार्क्‍सवादी दृष्‍टि मनुष्‍य तक और उसमें भी सर्वहारा तक ही अपने को सीमित रखती है। मनुष्‍य केंद्रिंत चिंतन होने के कारण पर्यावरण और प्रकृति के अन्‍य जीव उसकी चिंता से ओझल हैं। भारतीय चिंतन में मनुष्‍य का संबंध वृक्ष-वनस्‍पति, पशु-पक्षी और सम्‍पूर्ण सृष्‍टि के साथ जोड़ा गया है। वेद के शांतिपाठ में एक पूरा वैश्‍विक वातावरण बनाया जाता है। जिसमें सारी प्राकृतिक शक्‍तियों की शांति की कामना की जाती है। यदि सारा प्राकृतिक वातावरण शांत नहीं है तो उनके बीच रहने वाले मनुष्‍य को शांति कैसे प्राप्‍त हो सकती है। यहाँ यह उल्‍लेखनीय है कि आचार्य शुक्‍ल ने अपने साहित्‍य-चिंतन में बार-बार ‘लोक' शब्‍द का प्रयोग किया है। उनके ‘लोक' की अवधारणा बहुत व्‍यापक है। उसमें मनुष्‍य के साथ ही वृक्ष-वनस्‍पति, पशु-पक्षी और सम्‍पूर्ण प्रकृति समाई हुई है। शुक्‍ल जी द्वारा प्रयुक्‍त ‘लोक' शब्‍द की तुलना में मार्क्‍सवादी आलोचकों द्वारा प्रयुक्त ‘लोक' शब्‍द बहुत सीमित और संकीर्ण अर्थ में इस्‍तेमाल हुआ है। यही स्‍थिति गांधी की तुलना में मार्क्‍स की है। गांधी का ‘सर्वोदय' मार्क्‍स के ‘सर्वहारा' से अधिक व्‍यापक अर्थ देने वाला है। इसी प्रकार गांधी का ‘सत्‍याग्रह' शब्‍द भी मार्क्‍स के ‘संघर्ष' शब्‍द से अधिक अर्थवान और मूल्‍यवान है। ‘सत्‍य का आग्रही' तो संघर्ष करेगा ही पर ‘संघर्ष' का आग्रही हर स्‍थिति में सत्‍य का ही आग्रह करेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। गांधी का चिंतन मार्क्‍स के द्वन्‍द्ववादी चिंतन के विपरीत है। वह भारतीय चिंतन की प्रकृति के अनुकूल सामंजस्‍य और संतुलन वादी है। वह चीज़ों को विश्‍लेषित करके नहीं बल्‍कि संश्‍लिष्‍ट रूप में समझने का अभ्‍यासी है। भारतीय महाकाव्‍यों में धर्म-अधर्म या सत्‌ असत्‌ का संघर्ष ज़रूर दिखाया गया है पर वहाँ अंततोगत्‍वा असत्‌ का भी सत्‌ में समाहार हो जाता है। असुर संहार के बाद असुर की ज्‍योति अवतारी पुरुष में समाहित हो जाती है। ऐसा इस भारतीय मान्‍यता के कारण होता है कि असत्‌ भी परम प्रकृति की ही अभिव्‍यक्ति है। इसीलिए भारतीय चिंतन के अभिनव व्‍याख्‍याता गांधी कहते हैं कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। पापी में भी पुण्‍य का अंश है इसलिए उसमें पाप को त्‍याग देने की शक्‍ति भी है। गांधी के हृदय-परिवर्तन का सिद्धान्‍त कपोल कल्‍पना नहीं है। अपने समय में उन्‍होंने लाखों हृदयों को परिवर्तित करके दिखा दिया था जिनमें से हज़ारों कि संख्‍या में आज भी जीवित हैं। यह कहना कि ‘पूँजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता' अवश्‍य ही एक गलत बयान है। हाँ, बदलने के लिए स्‍वयं बदलने का आग्रह करने वाले में धीरज, संयम, त्‍याग और उत्‍सर्ग का गुण होना चाहिए। आज के विचारक और नेता गांधी को अप्रासंगिक इसलिए कहते हैं क्‍योंकि वे स्‍वयं को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। फिर तो दुनिया को बदलने का उनका आग्रह एक पाखंड, छल और अनैतिक सोच के अलावा और कुछ नहीं रह जाता।

मार्क्‍सवाद और उत्त्‍ार आधुनिकता के साथ हिन्‍दी-आलोचना में मुख्‍य रूप से स्त्रीवादी और दलितवादी चिंतन का दखल हुआ है। ये दोनों चिंतन भी साहित्‍यिक आलोचना के क्षेत्र में प्रासंगिक नहीं प्रमाणित हुए हैं। इनके संबंध में मैं विस्‍तार से अपने सम्‍पादकीयों (‘दस्‍तावेज़' अंक, 89 और अंक 108) में लिख चुका हूँ। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्‍त समझता हूँ कि दोनों ने अपने विमर्शों को पथच्‍युत कर दिया है। दलित लेखकों ने जाति को कसौटी मान लिया है और स्त्रीवादी लेखिकाओं ने लिंग को। जाति और लिंग दोनों ही साहित्‍य की कसौटियाँ नहीं हैं। साहित्‍य की कसौटी है - संवेदनशीलता, कल्‍पना, परकाय प्रवेश और भाषा की क्षमता। ये शक्तियाँ यदि किसी के पास नहीं हैं तो वह दलित होकर भी न तो किसी दलित की वेदना महसूस कर सकता है न उसे अभिव्‍यक्ति दे सकता है। यही स्त्री लेखिकाओं के लिए भी सच है। वस्‍तुतः साहित्‍य में जो कुछ व्‍यक्त होता है वह लेखक की सहअनुभूति के ही द्वारा। यदि ऐसा न माना जायेगा तो बहुत बड़ा काव्‍यशास्त्रीय संकट पैदा हो जायेगा। तब तो किसी प्रबंध रचना में दूसरे वर्ग के चरित्रों का समावेश ही संभव नहीं होगा। लोग केवल स्‍वानुभूति ही लिखते रहेंगे। कम से कम लेखन के क्षेत्र में लेखक को इस राजनीतिक षड़यंत्र से मुक्त होना होगा। लेखक और आलोचक को यह स्‍मरण रखना चाहिए कि वर्तमान भारतीय संदर्भ में साहित्‍य और राजनीति के सरोकार एक नहीं रह गये है। राजनीति का लक्ष्‍य सत्ता हो गई है। जबकि साहित्‍य का लक्ष्‍य है मूल्‍य। तुलसी ने ‘लोकमत' और ‘साधुमत' दोनों की बात की है। आज राजनीति के लिए ‘लोकमत,' ‘वोट' का पर्यायवाची हो गया है। अतः साहित्‍य का स्‍वधर्म है ‘साधुमत' को अभिव्‍यक्ति देना

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साभार - साक्षात्कार - जनवरी 08

प्रधान संपादक - देवेन्द्र दीपक

संपादक  - हरि भटनागर

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रचनाकार: विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी का आलेख - आलोचना का स्वधर्म
विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी का आलेख - आलोचना का स्वधर्म
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