व्यंग्य
साहित्यकार और प्रकाशक संवाद !
पूरन सरमा
उन्होंने किसी की नौकरी करने की एवज साहित्यकारी करना ज्यादा मुनासिब समझा और वे साहित्यकारी करने लगे। पहली पुस्तक लिखने के बाद वे प्रकाशक की दुकान पर पहुंचे तो प्रकाशक जी बोले-‘आप गर्म लेंगे या ठण्डा ?'
साहित्यकार जी को लगा कि मार्केट में उनकी वैल्यू है। लोग उन्हें जानते हैं। वे प्रफूल्लता से भर उठे और बोले-‘चाय तो पीकर आया हूँ। मैं तो अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में आपसे वार्ता करने आया था।'
प्रकाशक जी बोले-‘क्या करें सा‘ब किताबें बिकती तो है नहीं, छापकर क्या करें ? कागज भी बहुत महँगा हो गया है। सरकारी खरीद पर भी बैन चल रहा है। फिर भी बताइये आपने लिखा क्या है ?' साहित्यकार जी बोले-‘मैंने एक कहानी संग्रह तैयार किया है। सभी कहानियाँ देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।'
प्रकाशक जी घुटे हुये थे, बोले-‘साहित्य बिकता नहीं, बेचना पड.ता है। सब जगह कमीशनबाजी है। हमें किताब 70-80 परसेंट तक निकालनी पड.ती है। बताइये इस हालात में क्या तो हम लें और क्या आपको दें।' ‘वह ऐसा था, मैं कोई दूसरा काम तो करता नहीं, मैं तो फ्रीलांसर हूँ। इसलिए बिना रायल्टी के मेरा खर्चा-पानी कैसे निकलेगा।' साहित्यकार जी बेबस से बोले।
‘रायल्टी दे देंगे आपको तो। पहला एडीशन तीन सौ प्रतियों का छापता हूँ। किताब बिकेगी तो और छाप लेंगे। आपको एक राय दूँ, आप रायल्टी के भरोसे न रहें, कोई काम भी करें तो जीवनयापन सहज हो जायेगा।' प्रकाशक ने दांव मारा।
साहित्कार जी बोले-‘नहीं, मैं नौकरी नहीं कर सकता। मैं फ्रीलांस काम करने में बिलीव करता हूँ। लेकिन पहला एडीशन तो ग्यारह सौ प्रतियों का होता है, यह तीन सौ का चलन कब से हो गया ?' ‘आप सही फरमा रहे हैं, पहले ग्यारह सौ का ही हुआ करता था प्रथम संस्करण, लेकिन किताबें बिकती नहीं, इसलिए ग्यारह सौ छापकर क्या करें ? किताब बिकेगी तो और छाप लेंगे। मैं तो एक रास्ता और बताता हूँ आपको। आप तो पर पेज बीस रूपये लेकर प्रथम संस्करण की रायल्टी पूरी की पूरी ले जाओ। कितने पेज का संग्रह है आपका ?'
‘यही कोई एक सौ पचास पृष्ठ का। एक मुश्त में तो तीन हजार मिलेंगे। मैं तो ग्यारह सौ का संस्करण और दस परसेंट रायल्टी चाहता हूँ।' साहित्यकार जी ने कहा। प्रकाशक ने अपने दोनों हाथ बांध लिये और बोले-‘माफी चाहूँगा, आप कोई दूसरा प्रकाशक तलाश लेें। मेरे यहाँ छपवाओगे तो कॉपीराइट आपका ही रहेगा। आजकल दूसरे प्रकाशक एकमुश्त देकर, पुस्तक का कॉपीराइट खरीद लेते हैं। फिर आपकी जैसी इच्छा।'
तभी चाय आ गई, प्रकाशक जी ने साहित्यकार जी को बाअदब चाय पेश की और फिर बोले-‘रायल्टी में वर्षों तक हिसाब चुकता नहीं होता। एक वर्ष बीस बिकी तो दूसरे वर्ष में पन्द्रह, इस तरह पहला एडीशन बिकने में पांच-सात वर्ष लग जाते हैं। एक मुश्त में सौदा करोगे तो अभी नगद भुगतान कर दूंगा।'
साहित्यकार जी किंकर्तव्यविमूढ. हो गये। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उधर पहली पुस्तक के प्रकाशन की गहरी ललक और उधर प्रकाशक की पैंतरेबाजी। प्रकाशक जी ने उनकी उलझन में खलल डालते हुये कहा-‘क्या सोचने लगे साहित्यकार जी। आप खुश रहिये बीस किताबें आपको फ्री और दे दूंगा। कुछ रिव्यू के लिए भिजवा दूंगा, अब तो खुश !'
साहित्यकार जी को जैसे सांप सूंघ गया था। संग्रह की पाण्डुलिपि को देखकर वे बोले-‘प्रथम एडीशन छः सौ का निकाल दो और दस परसेंट रायल्टी दे दो, मेरा काम बन जायेगा आखिर मैं फ्रीलांसर हूँ।'
‘आपकी मर्जी रायल्टी ले लेना। फिर मत कहना कि किताब का हिसाब आठ बरस में भी नहीं हुआ। रायल्टी मैं जितनी किताबें बिकेंगी, उतनी की ही दे पाऊंगा।' प्रकाशक जी की बात सुनकर साहित्यकार जी बेचैनी से आश्वस्त हो गये और वे कांट्रेक्ट पर साइन कर घर लौट आये। दो साल बीत गये लेकिन प्रकाशक की ओर से रायल्टी स्टेटमैंट अभी तक तो आया नहीं है। साहित्यकार जी फिर किंकर्तव्यविमूढ. हो गये थे।
(पूरन सरमा)
124/61-62, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302 020,
(राजस्थान)
फोनः-0141-2782110
0 टिप्पणी "पूरन सरमा का व्यंग्य - साहित्यकार और प्रकाशक संवाद !"
एक टिप्पणी भेजें