असगर वजाहत की कहानी - बच्चों वाली गाड़ी

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बच्चों वाली गाड़ी अगले दिन सुबह ही सुबह रात अंगनू के मर जाने की खबर कॉलिज में फैल गयी। कॉलिज के स्टाफ रूम में डा. हमीद जान-बूझकर यह बात निक...

बच्चों वाली गाड़ी

अगले दिन सुबह ही सुबह रात अंगनू के मर जाने की खबर कॉलिज में फैल गयी। कॉलिज के स्टाफ रूम में डा. हमीद जान-बूझकर यह बात निकाल बैठे कि मरने के बाद आदमी का चेहरा कैसा हो जाता है। जैसा कि होता है, बात बढ़ते-बढ़ते काफी बढ़ गई। बात बढ़ाने वाले जानते थे कि तिवारजी मौत से बहुत डरते हैं। तिवारीजी वाकई डर रहे थे और उन्होंने कई बार ‘कॉमन’ दिलचस्पी के टापिक, जैसे टेलीविजन की खराबियों या फ्रिज की प्रॉब्लम्स की तरफ लोगों का ध्यान खींचना चाहा, लेकिन सब उनको डराने पर तुले हुए थे। और आखिरकार तिवारी जी एक बड़ा-सा पान मुंह में दबाकर उठ लिए। चपरासियों की यूनियन ने एक कंडौलैस मीटिंग बुलाई जिसमें इस बार पर काफी झगड़ा हुआ कि यूनियन के अगले चुनाव अब तक क्यों नहीं हुए हैं। कॉलिज के प्रिंसिपिल जो हमेशा एक से रहते थे, इस खबर को सुनकर भी वैसे ही रहे जैसे थे।

कॉलिज के जो लड़के अंगनू को जानते थे, यानी जो कई साल से फेल हो रहे थे; मतलब अंगनू पांच साल हुए, कॉलिज के चपरासी पद से रिटायर हो चुके थे और नये लड़के उन्हें नहीं जानते थे; तो फेलियर लौंडों ने कहा, ‘‘घंटे बजाने मे माहिर था बुड्ढा।’’ फिजिक्स के लेक्चरार जो सुकून की बहुत बाचचीत किया करते और डिस्टरबैंस से सख्त नफ़रत करते थे, बोले, ‘‘चलो थोड़ा सुकून रहेगा।’’

अंगनू ने दर्जा तीन की किताब में पढ़ा था, ‘‘मेहनत और ईमानदारी से सब कुछ हो सकता है।’’ अंगनू दर्जा चार में पढ़ते थे कि बाप का इंतकाल हो गया। अंगनू की फीस कौन देता। नाम कट गया। अंगनू खराद का काम सीखने लगे, इसलिए दर्जा तीन में पढ़ी बात को गांठ से बांधे रहे। खराद का काम इसलिए छोड़ना पड़ा कि वहां से पैसा न मिलता था। फिर दो-चार जगह छोटे-मोटे और काम किए और आखिरकार कॉलिज में चपरासी लग गए। तीस साल तक मेहनत और ईमानदारी से घंटे बजाते रहे। पहला आठ पन्द्रह पर, दूसरा नौ बजे, तीसरा पौने दस पर....और इसी तरह....सालों गुजरते हुए। पूरे तीस साल कभी कोई घंटा गलत नहीं बजा। कभी कोई भूल-चूक नहीं हुई। अंगनू ने तीस साल काम किया और रिटायर हो गए। चपरासियों की यूनियन ने, टीचर्स की एसोयिशन ने यानी सबने इस बात का माना कि अंगनू बहुत ईमानदार और मेहनती रहे हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं थी। उनके काम को देखकर अक्सर कॉलिज के लेक्चरार कहा करते थे, ‘कॉलिज में अगर किसी को पद्मश्री मिलनी चाहिए तो अंगनू को।’ कहने वाले इसलिए कहते भी नहीं थे कि अंगनू को पद्मश्री मिल जाए और ऐसी बात कह देने में वे कोई हर्ज भी नहीं समझते थे जो न होने वाली हो। तीस बार कॉलिज खुला और बंद हुआ। जिन लोगों की तरक्कियां होनी थी, हुई, जिनको सिर्फ जिंदा रहना था, रहे और जिनको मर जाना था, मरे।

अंगनू की आंखों के किनारे भीगे रहते थे। वजह पूछी जाने पर वह अपनी फटी-फटी और भराई आवाज़ में यही जवाब देते थे, बचपन से खराब हैं। और यह कहकर अपनी कमीज के दामन से आंखें रगड़ते, थैलों को लेकर चल देते। एक पैर जमीन पर इस तरह से रगड़ता जैसे जमीन उन्हें छोड़ ही न रही हो। किसी के दिए पुराने बूट, जिनकी डोरियां नदारद होतीं, उनके पैरों में फट-फट करते। जूतों की एड़ियां रगड़ती रहतीं, यहां तक कि घिसकर तिरछी हो जातीं और उससे उनकी चाल-बदल जाती। उनके चेहरे पर खास बात उनकी सफेद बढ़ी हुई दाढ़ी थी जो न तो टैगोर की दाढ़ी की तरह सम्पन्नता और बुद्धिमता दिखायी थी और न उसमें मुल्लाओं की दाढ़ी जैसे कट्टरता थी। उनकी दाढ़ी अपनी कुदरती तरीके और पैसे न होने की वजह या उसकी परवाह न करने से काफी नुमायां लगती थीं। सिर पर वे सोलो हैट लगाते थे जो पता नहीं किस जमाने में उनको किसने दिया होगा। कपड़ों के मामले में उनका दाढ़ी वाला हाथ था, यानि जो जिसने दे दिया या मिल गया। जब नौकरी से शुरू शुरू में रिटायर हुए तो चपरासियों वाली वर्दी पहने रहते थे और जब वह फट गई तो कभी बिना बटन की सफेद कमीज या बिना कमीज का काला कोट-यानि कुछ भी, जो मिल जाए। दाढ़ी और सोलों हैट के बीच अगर कुछ दिखाई देता था तो उनके चेहरे पर पड़ी बेताहाशा झुरियां और धुप में तपा तांबे जैसा रंग जो अगर किसी जवान आदमी के चेहरे पर होता तो जरूर अच्छा लगता।

अंगनू जब रिटायर हुए तो कॉलिज में एक छोटा सा फेयरवेल दिया गया। अध्यक्षता प्रोफेसर सारंग ने की और अपने अध्यक्षीय भाषण को एकेडेमिक टच देते हुए ‘डिपार्टमेंटल पालिटिक्स’ पर छींटाकशी की, जिसके फलस्वरूप उनके विरोधी डा. लाल ने फेयरवेल का मूक बहिष्कार कर दिया। अंगनू को इस बात का पता ही नहीं चला वह सिर झुकाये अपने फेयरवेल में बैठे थे। उनसे जब बोलने को कहा गया तो उनकी आवाज हलक में फस गई और सिर्फ इतना ही कह सके कि ‘‘आप सबका शुक्रिया। हमें बड़ी इज्जत दी।’’ फेयरवेल के बाद जो चाय हुई उसमें माहौल बड़ा आत्मीय हो गया। प्रोफेसर सारंग ने खुद चाय बनाकर अंगनू को दी और उस आत्मीय हरकत को पचास-साठ आदमियों ने देखा और प्रशंसा की।

रिटायर होने के बाद आमतौर पर लोगोें का ‘मारल डाउन’ होता है, लेकिन अंगनू को कोई परवाह नहीं थी। ऐसा नहीं कि उनके ऊपर जिम्मेदारियां नहीं थीं। तीन भतीजियों की शादी करनी थी। भतीजे की फीस लगातार देनी थी। भाभी को खिलाना पिलाना था-यानि पूरा घर चलाना था। अंगनू ने भाई के जल्दी मर जाने बाद शादी नहीं की थी। भाभी और भतीजियों की परवरिश की थी। उनको जब फंड का पैसा मिला तो भतीजियां जवान थीं, उनकी शादी कर दी। फिर डाकखाने की किताब को अपनी चुंधी आंखों से मिलाकर बैठ गए। काफी देर देखते रहे काली सियाही से तीन सौ अड़तालिस रुपये चालीस पैसे लिखा था।

‘‘अब क्या करोगे’ अंगनू की भौजाई ने डरते-डरते उनसे पूछा।

‘‘क्या करेंगे, कुछ-न-कुछ जरूर करेंगे। अरे तु चिन्ता क्यों करती है अभी हाथ पैर चलते हैं। ईमानदारी से मेहनत का कमाया खाएंगे।’’ इस जबाब को सुनकर भौजाई की परेशानी थोड़ी कम हुई और बकरी को लौकी के छिलके फेंकने चली गई। अंगनू ने फिर पास-बुक आंखों से सटाकर देखना शुरु कर दिया।’’कोई काम धंधा करेंगे। मेहनत से काम होगा, नीयत में ईमानदारी होगी तो क्यों नहीं चलेगा। जरूर चलेगा।’’ धंधे की बात सोचते-सोचते वह सो गए। लार उनके मुंह से बहकर चटाई तक फैल गई।

पूरी बस्ती में अंगनू के दो दोस्त थे। एक रज्जू माली और दूसरे अंसारी साहब-जिन्होंने अंगनू के चार साल बाद कॉलेज ‘ज्वाइन’ किया था और अब उनके चेहरे पर भी रिटायर होने को भय दिखाई देता था। अंगनू और अंसारी साहब की दोस्ती पुरानी थी और रज्जू माली तो अंगनू के गांव का आदमी था जो किसी कत्ल में फंस गया था और भाग खड़ा हुआ था। और आज तक बहराइच की पुलिस को उसकी तलाश है। वह अक्सर राते में सोते-सोते डर जाता था और अगले दिन अंगनू से रात का पूरा ख्वाब बताया था। अंगनम चुपचाप उसकी बात सुनते थे, क्योंकि उनके अलावा राजू किसी से कह भी नहीं सकता था कि उसने किसी को कत्ल किया है।

ऐसे मौके पर वह पहले रज्जू के पास गए। उसने उन्हें चाय का गिलास थमा दिया जिसे वह पीने जा रहा था। अंगने ने सू-सू कर चाय पीना शुरू कर दिया। रज्जू जानता था कि अंगनू क्या बात करने आए हैं। और वह उस बात की शुरू करने से हिचकिचा रहा था। आखिर जब रज्जू कुछ न बोला तो अंगनू ही ने कहा, ‘‘सोचा है, कोई कारोबार करें।’’

‘‘कौन-सा कारोबार करोगे’

‘‘अरे मेहनत और ईमानदारी से जो कुछ करेंगे उसी में बरकत होगी।’’

रज्जू उनकी बात से सहमत नहीं था, लेकिन फिर भी कुछ बोला नहीं। ‘‘सोचा है दुकान कर लें। अभी पास बुक में करीब तीन सौ रुपये पड़े हैं।’’

‘‘दुकान’

‘‘हां दुकान।’’

‘‘सौ रुपये महीने से कम की क्या मिलेगी। सौ रुपये दे के दो सौ बचेगा।’’ रज्जू ने यह नहीं कहा कि दो सौ रुपये में कौन सा सामान लाकर दुकान में रखोगे। लेकिन अंगनू उसकी बात समझ गए। कुछ देर के बाद अंगनू बोले, फेरी कर लेंगे।

‘‘बुढापे में।’’

‘‘बुढ़ापा-जवानी सब बराबर है। मेहनत से साल-दो साल भी काम किया तो दुकान भी हो जायेगी और....’’

‘‘हां जी, मेहनत तो बड़ी चीज है,’’ रज्जू ने यह बात अंगनू को खुश करने के लिए कही।

अंगनू खुश हो गये। धंसी हुई आंखें चमक उठीं।

‘‘दो बड़े थैले ले लेंगे छोटा-मोटा सामान भर लेंगे। मोहल्ले में फिर लगाकर बचेंगे। सामान अच्छा देंगे। मेहनत से बचेंगे। लोग क्यों न लेंगे।

‘‘लेंगे, चच्चा जरूर लेंगे।’’

किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि अंगनू चलती-फिरती दुकान लगा लेंगे। लोगों का ख्याल था कि किसी मास्टर के घर का सामान लाया करेंगे या इनकी भाभी किसी के घर खाना पकाया करेगी या अंगनू अपने गांव चले जायेंगे। या जल्दी ही मर जायेंगे।

अंगनू ने पहले भी किसी की परवाह नहीं की थी, अब भी नहीं करते थे। वह छोटा-मोटा राशन का सामान अपने थैलों में भरे और थैलों को कंधों से लटकाये पूरी बस्ती को चक्कर लगाते रहते। स्टाफ क्वार्टरों के सामने रुकते। पूछते। सामान की जरूरत होती तो देते और अपने पैर घसीटते आगे बढ़ जाते। कमीज पसीने से भीग जाती। दाढ़ी में पसीने की बूंदें गिरतीं। सिर पर जून का सूरज तमतमाता रहता। लू चलती। लेकिन अंगनू मोहल्ले के चक्कर लगाते रहते। वह सुबह पांच बजे अपने घर से निकल पड़ते। निकलने से पहले वह डबलरोटी जो उन्होंने दुकान के लिए खरीदी थी, लेकिन कई दिनों तक रखे-रखे खराब हो जाती, चाय के साथ खाते और थैलों को अपने झुके-झुके कमजोर कंधों पर टांग कर बाहर निकल जाते।

उन्हें देखकर मोहल्ले के लोग कहा करते थे, ‘‘किए जाओ मेहनत, एकदिन फल पाओगे।’’ चौधरी अब्दुल गफूर का लड़का जो चौबिस घंटे स्कूल गोल करके चाय की दुकान पर बैठा रहता था और जब उनका बाप उसे पकड़ पाता था तो उसे बुरी तरह धुन दिया करता था और हर जूते पर अंगनू का नाम लेता था, ‘‘देख साले बूढ़ा आदमी है, रात दिन मेहनत करता है, तुझसे हरामी की औलाद पंखे की हवा में बैठकर पढ़ा नहीं जाता। यहां चाय की दुकान पर तुम्हारी नाल गड़ी है क्या’ चाय की दुकान पर जो लौंडा काम करता था उसको भी हर वक्त ‘‘फैंसी टी इस्टाल’’ के प्रोपराइटर दीप बाबू यही सुनाया करते थे, ‘‘अबे मां के...हाथों को लकवा मार गया है क्या साले चार घंटे से एक बर्तन नहीं धुल रहा। अबे अंगनू को देख। बूढ़ापे में पहाड़ काटे दे रहा है। देख लेना एक दिन लखपति हो जाएगा और तू साला हमेशा होटल में बर्तन घिसेगा...वह भी ठीक से नहीं, गाली खाके...सुबह पांच बजे उठ जाया कर। कल जब मैं सवा पांच पर आया तो भट्ठी ठंडी पड़ी थी और तू टांग उठाये खर्राटे ले रहा था।’’

मोहल्ले के कामचोर लौंडे चूंकि कामचोर थे, इसलिए अंगनू की सूरत से जलने लगे। चौधरी के लौंडे ने तो एक दिन-रात में अंगनू को पेड़ के ऊपर चढ़कर गुम्मा भी मार दिया जो अंगनू के सिर पर जाकर पड़ा था और रता में अंगनू की भारी आवाज और चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ी थी। अंगने कह रहे थे, ‘‘लोग जलते हैं जी....अपने आप मेहनत तो कर नहीं सकते-तो मेहनती आदमी से क्यों न जलेंगे,’’

जलने वालों को और जलाने के लिए अंगनू ने दुगनी मेहनत शुरू कर दी और मोहल्ले वालों से नाता तोड़ लिया। वह सुबह साढ़े पांच के करीब निकलते और दिन-भर थैले लिए घूमते रहते। रात कोई आठ-नौ बजे लौटते और सो जाते। धीरे धीरे थैलों का वजन बढ़ रहा था। लोग जो-जो जैसा सामान उनसे मांगते जो उनके पास न होता, उसे अंगनू खरीद कर थैलों में डाल लेते। जैसे कि एक दिन मिसेज तिवारी ने पूछा,

‘‘चाय है तुम्हारे पास’

‘‘है जी।’’ अंगनू ने लिपटन का पैकेट निकाला।

‘‘नहीं-नहीं, ताजमहल ब्रांड।’’

‘‘ताजमहल’

‘‘ताजमहल नहीं, ताजमहल छाप चाय।’’

‘‘वह तो नहीं है।’’

‘‘रखा करो, अच्छी चाय होती है’’ अंगनू ने दो पैकेट ताजमहल छाप चाय के भी खरीद लिये। इसी तरह उनको रोज दो-चार नई चीजें जैसे सिगनल दूथपेस्ट या लिरिल साबुन जैसी चीजें खरीदनी पड़ती । एक थैले में उन्होंने राशन का सामान रख छोड़ा था और दूसरे में चाय, साबुन और बिसाते का दूसरा सामान। छोटा-छोटा सामान इतना हो गया था और कागज में बंधी पुड़ियां एक-दूसरे के ऊपर इस तरह आ गई थीं कि अक्सर खुल जातीं और अरहर की दाल में शक्कर मिल जाती या आटे के थैले में सूराख हो जाता। या कभी कोई उनके माश की एक किलो दाल मांगता तो उनके पास आधा किलो ही निकलती। ऐसी स्थिति में लोग झुंझला जाते। जरूरत एक किलो की है और दुकान में सिर्फ आधा किलो दाल है। वे लोग अंगनू को डांटते, ‘‘काम करना है तो कायदे से करो...नहीं तो बंद करो...अपने आप भी परेशान होते हो और दूसरों को भी परेशान करते हो।’’

‘‘साब थैले बड़े भारी हो जाते हैं। ज्यादा सामान भी खराब होता है। इसीलिए कम-कम रखते हैं।’’ अंगनू को सामान निकालने और देने में काफी देर भी लगती थी। अब मान लीजिए किसी ने काली मिर्च मांग ली। काली मिर्च काली मिर्च झोले में सबसे नीचे पड़ी हौ तो अंगनू को सब समान निकालना पड़ता और उसके बाद ही काली मिर्च निकल पाती। टूटने-फूटने वाली चीजों जैसे अंडे वगैरा के साथ और बड़ी मुश्किल थी।‘‘अंडे हैं, अंगनू तुम्हारे पास।’’ एक दिन डा. दास ने उससे अंडे मांगे।

‘‘हां, हैं साब।’’

अंगनू ने अपने कुर्ते की जेब से दो अंडे निकाल लिये। डा. दास नाक पर मक्खी नही बैठने देते थे। कॉलिज में उन जैसा सफाई पसंद कोई और नहीं था। जेब से दो अंडे निकालकर जब उनके सामने आये तो उनकी भर्वे चढ़ गई, ‘‘डा. दास के सामने लाला हरदयाल दास एंड को. की दुकान में रखे सौ दर्जन घूम गये, ‘‘उंह लेके चले आये दो अंडे’’

धीरे-धीरे अंगनू का सब पैसा दुकान में लग गया था। नई-नई चीजें इतनी ज्यादा लोग मांगते थे कि अंगनू परेशान हो गये-क्या मुसीबत है। एक घर में बाप अलग साबुन लगाता है, मां का अलग किस्म का साबुन, बच्चे किसी और साबुन से नहाते हैं। अगर उनके घर बेचना है तो सभी साबुन हों। और जो एक ही हुआ तो कहते हैं,‘‘अरे जाओ, एक साबुन तुम से लें भी तो दूसरे के लिये लाला हरदयाल के यहां जाना पड़ेगा।

अंगनू को यह भी मालूम था कि ग्राहक से कभी ‘नहीं’ नहीं करते हैं। रोज़ उनसे कोई-न-कोई कहता, ‘‘अंगनू कल क्लोजअप टूथपेस्ट ले आना’’ अंगनू रात आठ बजे जब घर लौटते तो दिन-भर की बिक्री के पैसे गिनते। सुबह लाला की दुकान जाते। दो क्लोजअप टूथपेस्ट लेते और ग्राहक को पहुंचा देते। पूरे मोहल्ले में कोई यह नहीं कह सकता था कि अंगनू से उसने किसी चीज के लिये कहा हो और अंगनू ने लाकर न दी हो। लेकिन ऐसे लोग कम ही थे जो अगले दिन का इन्तजार कर सकते थे।

अंगनू को यह भी मालूम था कि कारोबार में शुरू-शुरू में तो घाटा होता है और वह यह भी जानते थे कि जितना गुड़ डालो उतना ही मीठा होता है। घाटा वे बर्दाश्त करते रहे और पास बुक से पैसा निकाल-निकालकर सामान लाते रहे। थैलों का वजन बढ़ता रहा। रज्जू ने एक दिन उनसे कहा ‘‘अंगनू दादा आवाज भी लगाया करो। तुम सामने से निकल जाते हो-आदमी खोजा करते हैं। ‘‘ तो उन्होेंने लगातार आवाजें लगाना शुरू कर दीं। सुबह-सुबह वह अपनी फटी-फटी आवाज में चीखते, थैले लादे अपने पैर को घसीटते गुजर जाते। वह कहते थे, ‘‘बाजार से सस्ता सामान है हमारी दुकान में...‘‘और वाकई कुछ सामान तो वह बाजार भाव से सस्ता बेचा करते थे...ग्राहक बनाने के लिए...जैसे माचिस का वह एक बड़ा बंडल ले आते और खुली माचिस बेचने पर जो एक पैसे या दो पैसे का फायदा होता उसे न लेते। खुशी-खुशी खरीद वाले दाम पर माचिस बेच देते। माचिसें या और ऐसी ही दूसरी छोटी-मोटी चीजें, जिन पर मुनाफा न लेना अंगनू बर्दाश्त का सकते थे, आसानी से बिक जाती थीं। वे उन्हें फिर ले आते।

किसी को उनसे यह शिकायत भी नहीं थी कि उनको उन्होंने खराब सड़ा-गला सामान दे दिया हो। बल्कि वह तो खुद ही कह देते, ‘‘हां साब, बिरतेनिया बिस्कुट है जरूर, पर पिछले महीने का खरीदा हुआ है।’’ और खरीदने वाला अगर ले लेता तो ठीक। नहीं तो अंगनू खुशी-खुशी वापस लौटते। दिल में कहीं ये भी होता कि देखो-हम ईमानदार हैं। ईमानदारी का नतीजा अच्छा होता है। बिस्कुट का डिब्बा न बिका तो क्या हुआ एक ग्राहक तो पक्का हो गया। अंडे और डबलरोटी चूंकि खराब होने जाने का डर रहता था इसलिए भी और पैसे ज्यादा न होने की वजह से भी वह कम खरीदा करते थे। कम खरीदने पर लाला उनको उसी भाव पर बेचता था जो फुटकर का भाव होता था। और इसी तरह अंगनू चाहे दो डबलरोटियां और छः अंडे ही क्यों न बेच डालें, उन्हें एक पैसे का फायदा नहीं होता था और अगर किसी दिन डबलरोटी रह गई तो अगले दिन घ में बैठकर वह भाभी सबसे छोटी भतीजी तथा भांजे के साथ खा लिया करते थे।

मोहल्ले में लोग कहते थें-देखो ये भी कुछ दिनों का तमाशा है। कुछ दिनों में रास्ते पर आ जायेगा। इन्हीें सब बातों को सुन-सुनकर दुकान अंगनू की नाक बन गई थी। सारा पैसा दुकान में लगाकर भी जब कोई आमदनी न होती दिखाई दी तो अंगनू को लगा कि वह मेहनत कम करते हैं। और वह साठ साल की उम्र में थैलों की टांगे और तेजी से मोहल्ले में घूमने लगे। बाजार जा-जाकर लोगों की फरमाइश का सामान लाते रहे। उनके कंधे झुकने लगे और पैर और ज्यादा घिसटने लगा। सोलो हैट माथे पर ज्यादा झुक आया। रंग और ज्यादा तांबे जैसा हो गया। दिन-भर चीखते-चीखते उनकी आवाज और भारी हो गई। रज्जू ने आखिर एक दिन उनसे कह ही दिया,‘‘दादा, अपना भी ध्यान रखा करो।’’

‘‘मेहनत में तो यही सब होता है, भाई।’’

अगले दिन रात में आठ बजे वह आवाजें लगाते अंसारी साहब के घर के सामने से गुजरे तो उन्होंने कड़कदार आवाज में अंगनू को बुलाया, ‘‘इधर आओ जरा...।’’ अंगनू ने उनके बरामदे में थैले रख दिये। अंसारी साहब आराकुर्सी पर सीधे हो गये और अंगनू स्टूल पर बैठ गये।

‘‘ये तुम्हें क्या होता जा रहा है,’’

‘‘क्या मास साब’

‘‘मरोगे क्या’

‘‘क्या करें मास साब...कोई...।’’

‘‘क्या उम्र है तुम्हारी...चलो अन्दर आओ...। अंसारी साहब उन्हें लेकर अन्दर आ गये। फिर आंगन की लाइट जलाई और एक कोने में पड़ी पुरानी बच्चों वाली गाड़ी की तरफ इशारा करके बोले, ‘‘इसे ले लो।’’

‘‘जी’ अंगनू चक्कर में पड़ गये। उनकी समझ में कुछ नहीं आया।

‘‘चलो उठाओ इसे यहां से।’’ अंसारी साहब की आवाज में गुस्सा था और उससे ज्यादा आत्मीयता। अंगनू ने गाड़ी बाहर निकाल ली।

‘‘इस पर सामान रख लो। और रात-दिन न घूमा करो।’’

अंगनू की समझ में सारा मामला आ गया। उन्होंने दोनों थैले बच्चों वाली गाड़ी पर रखे और हैंडिल पकड़कर हल्का सा धक्का दिया तो बच्चों वाली गाड़ी चूं-चर्र करके फूल जैसी आगे बढ़ गई। अंगनू को लगा वह हवा जैसे हल्के हैं। उन्होंने अंसारी साहब की तरफ देखा। वह बरामदे में खड़े अंगनू को देख रहे थे।

अगले दिन सुबह अंगनू बच्चों वाली गाड़ी को हैंडपम्प पर ले गये। जिन लोगों ने देखा, अंगनू से सैकड़ों सवाल कर डाले। फिर सब धीरे-धीरे मुस्काने लगे और फिर हंसने लगे। अंगनू ने जलने वालों की परवाह नहीं की। गाड़ी को ठीक से साफ किया, पहियों में तेल डाला अपने दोनों थैलों के सामान को गाड़ी पर जमा दिया।

अब सुबह-सुबह स्टाफ क्वार्टरों के सामने अंगनू की फटी-फटी आवाज की‘‘बाजार से सस्ता सामान है हमारे पास’’ के साथ बच्चों वाली गाड़ी की चूं-चर्र भी सुनाई देती थी। कुछ लोग देखकर हंसते और मजाक में कहते, ‘‘अरे किसी का लौंडा खिलाना शुरू कर दिया है क्या’

‘‘हां देख लेना जवान होगा एक दिन।’’ अंगनू गाड़ी पर हाथ फेरते और आगे बढ़ जाते।

इनमें कोई शक नहीं कि वह सोलो हैट, गरेबान से फटी कमीज और मैला पाजामा पहने, सफेद दाढ़ी लटकाये, इस गाड़ी को खींचते काफी अजीब लगते थे। लेकिन वह खुश थे। अब वह और अधिक मेहनत कर सकते थे।

गाड़ी आने के बाद फिर वही सब शुरू हो गया। उन्होंने जान-तोड़ मेहनत शुरू कर दी थी, लेकिन पता नहीं एक दिन क्या हुआ कि लोगों ने उनके चेहरेपर अजीब तरह की मजबूरी और चाल में काफी लड़खड़ाहट देखी। अब उनकी आवाज भी स्टाफ क्वार्टरों के सामने उतनी नहीं सुनाई पड़ती। वह चुपचाप सिर झुकाए गाड़ी घसीटते गुजर जाते। लेकिन उनके घर से बाहर निकलने और लौटने का वहीं पुराना वक्त था।

अंगनू में आई इस तब्दीली को उनकी भौजाई ही जानती थी, क्योंकि उसी के सामने एक दिन अंगनू ने अपनी दिन-भर की कमाई गिनी थी-साढ़े सात रुपये। जिसमें रुपये से ज्यादा का मुनाफा नहीं था। साढ़े सात रुपये उनके सामने रखे थे और कटोरे में दाल और दो रोटियां रखी थीं। वह किसी भी चीज को नहीं देख रहे थे। आज कारोबार करते हुए उनके दो साल हो गये थे। वह काफी देर तक कुछ सोचते रहे। फिर पास बुक उठा लाए। उसमें अब सिर्फ एक रुपया पड़ा था। एक की गिनती कभी फैलकर एक लाख हो जाती है; कभी एक, सिर्फ एक पैसा लगने लगता। लेकिन वह एक था एक रुपया ही। उसे भी वह काफी देर तक देखते रहे। भौजाई ने इस बीच कई बार कहा कि खाला खा लो। लेकिन उन्होंने अनसुना कर दिया। वह धीरे से उठे, बच्चों वाली गाड़ी के पास आए और सामान की पुड़िया निकल-निकालकर देखने लगे। सारा सामान जमीन पर ढेर कर लिया और फिर कायदे से दुबारा सामान गाड़ी में लगाया। गाड़ी को साफ किया। फिर आकर चूल्हे के पास बैठ गए और खाना खाया।

इसी वाकये के बाद से उनकी चाल ढ़ीली पड़ गयी थी और उनका चेहरा और ज्यादा झुक गया था। उन्होंने सुबह का खाना टाल दिया था। दिन में एक ही समय खाते और दिन-भर फेरी लगाते रहते। भूख और धूप के कभी-कभी उन्हें गुस्सा भी आ जाता। एक दिन गफूर ने उनसे नमक मांगा। उन्होंने पिसे नमक का पैकेट दे दिया। गफूर ने कहा, ‘‘नहीं टाटा का नमक दो’’अंगनू बिगड़ गए, ‘‘क्या फरक है इसमें और टाटा के नमक में, दोनों नमक हैं। लेना है लो, नहीं तो वापस कर दो।’’ गफूर ने नमक का पैकेट लौटा दिया और अंगनू बड़बड़ाते गाड़ी आगे घसीट ले गए। उनका बडबड़ाना जारी रहा। ‘‘कैसे-कैसे लोग हैं, नमक-नमक में फरक पैदा करते हैं। अरे यह भी नमक है। वह भी नमक है। दोनों को खाने में डालो तो नमकीन हो जाएगा...क्या जमाना आ गया है। अरे हमारे जमाने में यह सब खुराफात नहीं थी। सीधा-साधा काम होता था और सीधी-सादी चीजें थीं।...अजीब लोग....अरे तुम्हारे घर के सामने आकर सामान बेच रहे हैं। अगर दुकान तक जाते हैं तो टाइम लगता कि न लगता। लेकिन कैसे-कैसे मुंह बनाते हैं। उसी दिन की तो बात है....तिवारीजी कहने लगे....एक तो डबल रोटी है तुम्हारे पास, क्या लें...जैसे सौ पचास खरीदनी होंगी उन्हें। आदत तो ये पड़ गई है कि सामान का ढेर लगा हो और ठोक बजाकर उसमें से एक चीज ले लें। अब हम तो इतना सामान गाड़ी पर नहीं रख सकते।....क्यों है न’ उन्होंने बच्चों वाली गाड़ी से पूछा। गाड़ी धीरे-धीरे आगे ठिलती रही। अंगनू गाड़ी के हैंडिल पर काफी झुक आये थे। अब उनका आधा बोझ गाड़ी उठाया करती थी।

अक्टूबर की एक बहुत प्यारी शाम थी और अंगनू स्टाफ क्वार्टरों के सामने से गुजर रहे थे। अंसारी साहब के बरामदे में जहां गर्मियों में वह अक्सर बैठकर सुस्ताया करते थे, वह बैठ गए। आंखें धीरे धीरे बन्द होने लगीं। उनके जोड़-जोड़ में दर्द हो रहा था। वह बैठे रहे। अंसारी साहब लौटे तो अंगनू बरामदे की दीवार से टेक लगाए बैठे थे और बच्चों वाली गाड़ी नीचे खड़ी थी। अंगनू को उन्होंने कई आवाजें दीं तो अंगनू ने आंखें खोल दी।

‘‘क्या बात है, कैसे हो’

‘‘ठीक मास साब।’’ अंगनू ने उठने की कोशिश की और उनका सोलो हैट सिर से गिर गया।

‘‘बैठे रहो, बैठे रहो,’’ अंसारी साहब पूरी बात समझ चुके थे। वह अंदर चले गये और दिन की बची रोटी और आलू की तरकारी अंगनू के सामने रख दी। अंगनू ने रोटी और आलू की तरकारी की तरफ देखा।

‘‘नहीं मास साब, भूख नहीं है।’’

‘‘बकवास मत करो। खाना ठुकराते नहीं है। अल्लाह को बुरा लगता है।’’

अंगनू ने खाना शुरू कर दिया। दांत सब नहीं थे। धीरे-धीरे वह निवाले कुचलने लगे। अंसारी साहब ने एक गिलास में चाय सामने रख दी। अंगनू ने खाकर चाय पी तो थोड़ी देर के लिए पैट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। फिर उनकी आंखें बड़ी हो गई। हाथों-पैरों में जान आ गई और वे गाड़ी को ठेलते हुए घर आ गए।

इस घटना के बाद से उन्होंने घर में भौजाई से बोलना कम कर दिया और अंसारी साहब के घर के सामने वाला रास्ता छोड़ दिया। अब वह तिवारीजी के घर के सामने तक आते और बाएं हाथ वाली गली से निकल जाते। दुकान का सामान धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। रज्जू कहता था, ‘‘अंगनू दादा, लगे रहो, एक-न-एक दिन कामयाबी होगी। अरे यही मुन्नू जो हमारे तुम्हारे सामने गधों पर रेता लादकर बेचा करता था, आज पूरे घाट का ठेका लेता है। अब उसे कोई मुन्नू थोड़ी कह सकता है-कहलाता है हाजी मुनीरउद्दीन।’’ अंगनू माथे का पसीना पोंछते सब सुना करते थे। रज्जू, यह जो कुछअंगनू से कहता था इस पर उसका कोई विश्वास नहीं था, क्योंकि वह अंगनू की तुलना में अधिक व्यावहारिक यानी जरायमपेश लोगों के साथ रह चुका थाा। उसको यह भी मालूम था कि हाजी मुनीरउद्दीन उर्फ हाजीं मुन्नू नदी के उस पार से शराब का नाजायज करोबार करते हैं।

अंगनू अपनी नई आदत के मुताबिक अंसारी साहब के घर के सामने वाला रास्ता काटकर निकल रहे थे कि अंसारी साहब ने उन्हें देख लिया और आवाज देकर बुलाया। अंगनू उनके सामने खड़े हो गये। उनको लगा, जैसे पूरी दुनिया में अंसारी साहब ही उनके राज को, उनकी कमजोरी और असफलता को जानते हैं।

‘‘सुनो, किधर जा रहे हो’अंसारी साहब ने पूछा।

‘‘कॉलिज जा रहे हैं।’’

‘‘स्कूल से अज्जू को लेते आना। छुट्टी हो गई होगी। क्या बताएं यह बीच वाली सड़क न होती तो बच्चों को आने में कोई मुश्किल न होती।’’

अंगनू बच्चों के स्कूल गए और अज्जू को घर पहुंचा दिया।

‘‘अंगनू मियां, तुम तो स्कूल की तरफ से ही आया-जाया करते हो। मेरे ख्याल से दिन में सैकड़ों चक्कर लगाते होगे।’’

‘‘ जी मास साब।’’

‘‘तो अज्जू को सुबह स्कूल छोड़ दिया करो। दोपाहर को यहां वापस पहुंचा दिया करो।’’

अगले दिन से अंगनू अज्जू को स्कूल छोड़ने जाने लगे। अज्जू के कई दोस्त जो आसपास के क्वार्टरों में रहते थे कभी-कभी साथ हो जाते। अंगनू बच्चों को स्कूल छोड़ते और दोपाहर को स्कूल में घर पहुंचा देते। बच्चे अक्सर उनसे कंपट, टॉफी, खटीमिट्टी टिकियां भी खरीद लेते थे। लाइन से बने स्टाफ क्वार्टरों में बच्चों को छोड़ते आगे बढ़ जाते। स्टाफ क्वार्टरों में रहने वाले लोग इतने गिरे हुए नहीं थे कि वे अंगनू के इस एहसान का उतारा न करते।वे लोग कभी अंगनू को चाय पिला देते। गर्मी होती तो फ्रिज का ठंडा पानी दे देते। एकाध कमीज दे देते। कभी कोई सामान खरीद लेते। लेकिन अंगनू इस सबसे खुश नहीं थे। उनके पास अब जो चीजें बची थीं वे काफी पहले खरीदी हुई थीं और उन पर मक्खियों के बैठने के दाग पड़ चुके थे। और ज्यादा या नया सामान खरीदने के पैसे न थे, लेकिन फिर भी उनकी बच्चों वाली गाड़ी की चूं-चर्र-चूं स्टाफ क्वार्टरों के सामने सुबह से लेकर रात आठ बजे तक सुनाई देती थी।

दोपहर को वह तिवारीजी के क्वार्टर के सामने से गुजर रहे थे कि तिवारी जी ने अपनी खिड़की से उन्हें अन्दर आने का इशारा किया। अंगनू साये में गाड़ी खड़ी करके अन्दर घुसे। कमीज के दामन से माथे का पसीना पोंछा और सोलो हैट को बरामदे में छोड़कर कमरे में चले गए।

‘‘तुम्हारे पास लैक्टोजिन पाउडर मिल्क है,’’ तिवारीजी ने उनसे पूछा। अंगनू ही को नहीं, तिवारीजी को भी अच्छी तरह मालूम था कि इस चलती- फिरती दुकान में लैक्टोजिन होने को कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। लेकिन इसी के साथ-साथ तिवारी जी को यह मालूम था कि अंगनू कभी किसी सामान के लिए इनकार नहीं करते। अगर उनके पास नहीं होता तो लाला की दुकान से ला देते हैं। ताकि ग्राहक टूट न जाएं। पैसे भी वहीं लेते हैं जो लाला लेता है।

‘‘है तो नहीं मास साब। लेकिन मिल जाएगा।’’ तिवारी जी के चेहरे पर शांति विराजमान हो गई। लेकिन अंगनू फिर भी खड़े ही रहे तो तिवारी जी भांप गए।

‘‘पैसे दे दूं।’’ तिवारी जी ने बीस का नोट अंगनू की तरफ बढ़ा दिया। अंगनू लाला की दूकान गए। लैक्टोजिन और बाकी पैसे लाकर तिवारीजी को दे दिए।

तिवारी जी ने पच्चीस पैसे का सिक्का अंगनू की तरफ बढ़ाते हुए कहा। ‘‘तुम्हारा मुनाफा।’’

‘‘नहीं जी मुनाफा कैसा। हमारी दुकान में सामान नहीं था तो आपकोला दिया।’’ अंगनू पैसे लिए बिना आगे बढ़ गए।

मोहल्ले के लोगों का रवैया अब अंगनू की तरफ बदल गया था। या तो वे अंगनू के सामने उनकी खूब तारीफ करते या उनसे हमदर्दी जतलाते। कुछ लोग अक्सर उन्हें देखकर एक-दूसरे से ऐसी बातें करते जो उन्हें तीर की तरह लगतीं। दिन-भर धूप और गर्मी में चिल्लाते-चिल्लाते वह इन बातों को हंसी में नहीं उड़ा सकते थे। रहमत उन्हें देखकर कहता था, ‘‘ऊपरी काम कुछ और...’’फिर वह बड़ी तीखी हंसी हंसता था। अंगनू जल्दी-जल्दी आगे बढ़ जाते। ताराचन्द जो जानवरों की दलाली करता था, कहता, ‘‘भगवान सब करा ले, भीख न मंगवाए।’’ अंगनू जानते थे, ये सब बातें ये लोग उन्हेीं के बारे में कहते हैं। लेकिन फिर वह किसी को जवाब न दे सके थे, लड़ नहीं सकते थे। वह चुपचाप सुनते और जल्दी-जल्दी मोहल्ले वाली गली से गुजर जाने की कोशिश करते। आज वे गली के मोड़ पर पहुंचे ही थे कि सामने से रहमत आता दिखाई दिया, ‘‘अब नाटक करो बंद, किसी के घर बर्तन मांजा करो।’’ उसने यह बात इस तरह कही थी जैसे अंगनू से इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन था इसका मतलब अंगनू ही से। अंगनू के तन-बदन में आग लग गई। उन्होंने सोचा जब तक चुप रहोगे, यही होगा। वह गाड़ी रोककर खड़े हो गये और रहमत से बोले, ‘‘साले मर भी जाऊं तो तेरे बाप के बर्तन नहीं मांज सकता।’’

‘‘क्या बे क्या बक रहा है। तुझसे क्या किसी ने कहा’

अंगनू को झुंझलाहट सवार हो गई, ‘‘खून पी लूंगा साले,’’ वह रहमत की तरफ बढ़े।

‘‘अबे हट बुड्ढे-हवा से लड़ता है साला। तुझसे कोई कुछ बोला भी नहीं और होने लगा ‘कलाबत्तू’।’’ मोहल्ले के चार-छः लोग और जमा हो गए। सब अंगनू को समझाने लगे कि रहमत ने उनसे नहीं कहा। अंगनू गुस्से में खड़े कांप रहे थे और वे हंस रहे थे। अंगनू ने कहा,‘‘अच्छा, तो अब हम जो कहते हैं, किसी को नहीं कहते’’ फिर वह आसमान की तरफ मुंह उठाकर जोर-जोर से चीखने लगे, ‘‘सालों, हरामियों, गधे की औलादो, अपनी-अपनी अम्मा के खसमो...’’वह गालियां बकने लगे। मोहल्ले वाले ठहाके लगा लगाकर-हंसने लगे। लौंडे तालियां पीटने लगे। और लोग जमा हो गए। दो एक ने अंगनू को समझाया तो वह गाड़ी लेकर स्टाफ क्वार्टर की तरफ चले गये।

कॉलेज के स्टाफ रूम में एक दिन तिवारीजी ने बात निकल आने पर अंगनू की बड़ी तारीफ की और इशारतन यह भी बता दिया कि अंगनू से आप एडवांस पैसे देकर वह सामान भी मांग सकते हैं जो उसकी दूकान में नहीं, लाला हरदयाल की दुकान में मिलती है। अंगनू की यह खूबी मालूम होते ही उनकी कद्र स्टाफ क्वार्टरों में बढ़ गई। पहले ऐसा सामान मंगाया जाने लगा जो लाला हरदयाल की दुकान में मिलता था। फिर ऐसा सामान भ्ी लोग उनसे मंगाने लगे जो दूसरी दुकानों में मिलता। कोई चुटपुट के बटन मंगाता। कोई बकरी का गोश्त। कोई पाव-भर आलू। कोई मिट्टी का तेल। अंगनू इनकार न कर पाते। चाय पिलाने के बाद या ऐसा ही कोई दूसरा उपकार करने के बाद कोई इनकार कैसे कर सकता है और फिर तो फेरी लगाते ही रहते हैं। अगर किसी का सामान ला दिया तो कौन से पैर घिस जाएंगे।

और आज वह सब करके आगे बढ़े ही थे कि सामने से मुल्लाजी आते दिखाई पड़े। मुल्लाजी के एक हाथ में तस्बीर थी और दूसरे हाथ में वे अपनी बकरी की जंजीर पकड़े हुए थे। बकरी मिमिया रही थी और मुल्लाजी के होंठ हिल रहे थे। शायद कोई दुआ पढ़ रहे थे। मुल्लाजी मोहल्ले की मस्जिद में नमाज कुरान पढ़ाते थे। हर घर से चार आने महीने मिलता था। अंगनू मुल्लाजी का रास्ता रोक कर खड़े हो गए तो उन्होंने सोचा शायद पिछले और इस महीने की चवन्नी देना चाहता है। इसलिए तस्बीर पर उनके हाथ तेजी से चलने लगे और होंठों के हिलने की रफ्तार तेज हो गई। उनके सामने सोलो हैट, माथा पसीने से भीगा और बेतरतीब सफेद दाढ़ी, बुझी हुई आंखों और चाक गरेबान की कमीज पहले अंगनू कई मिनट तक चुपचाप खड़ा रहा। वह मुल्लाजी की दुआ खत्म हो जाने का इंतजार कर रहा था।

‘‘सलाम आलेकुम।’’ मुल्लाजी चेहरे पर दोनों हाथ फेरकर बोले।

‘‘वालेकुम,’’ अंगनू ने जवाब दिया।

‘‘क्या है अंगनू। तुमसे पिछले महीने के पैसे भी नहीं मिले।’’

‘‘आप हमारे लिए दुआ नहीं करते मुल्लाजी।’’

‘‘दुआ दुआ तो मैं पूरे मोहल्ले के लिए करता हूं।’’

‘‘तो हमारे ऊपर नहीं लगती...’’

‘‘लाहौलबिलाकुव्वत, क्या क्रुफ बक रहे हो। अल्लाह रहीम है। सबके सिरों पर उनका हाथ है,’’ मुल्ला जी की यह बात सुनकर अंगनू ने सोलो हैट सिर से उतार लिया।

‘‘कुछ काम बना नहीं मुल्लाजी,’’ अंगनू बोले।

‘‘बनेगा, बनेगा हिम्मत न हारो। हिम्मत मर्दा, मददे खुदा। यानी मतलब यह हुआ कि मर्दो जैसी हिम्मत रखो, खुदा मदद करेगा।’’

‘‘तो हमारी मर्दो जैसी हिम्मत नहीं है मुल्लाजी’ अंगनू के इस सवाल पर मुल्लाजी ने पैसे मांगने वाला ख्याल छोड़ दिया और बोले ‘‘अच्छा कल सुबह मस्जिद आ जाना। एक ताबीज बना देंगे। फिर देखना। अल्लाह न चाहा तो सब तकलीफें...’’, और मुल्ला जी मिमियाती बकरी को घसीटते रास्ता काट कर आगे बढ़ गए।

अंगनू अगले दिन सुबह मस्जिद गए। और ताबीज ले आए। फिर अपने काम पर निकल गए। डॉ. दास ने कल ही उनसे कह दिया था कि उनकी मेम साब और बच्चे छुट्टी में घर जा रहे हैं। कुछ सामान की जरूरत है। वह बच्चों को स्कूल छोड़कर डा. दास के घर जा रहे थे कि अंसारी साहब की बीवी ने उन्हें आवाज दे दी। वह अन्दर गए तो अंसारी साहब के नाश्तेदान में खाना रख रही थीं।

‘‘अगनू मियां आज अंसारी साब घर नहीं आएंगे। यह उनका खाना है। कॉलिज में उन्हें दे दीजिएगा।’’ अंगनू ने नाश्तेदान बच्चों वाली गाड़ी पर रख लिया। डा. दास का समान खरीद कर उनको पहुंचाया। लौटते हुए कॉलिज में अंसारी साहब का खाना दे दिया। वहां तिवारीजी भी बैठे थे। उन्होंने कहा, ‘‘अंगनू मियां प्लीज, कल से हमारा भी खाना आप ही लेते आइएगा।’’

मतीन साहब ने कहा, अंगनू मियां जब आप दो खाने लाइएगा तो मैंने क्या गलती की है। मेरे ऊपर भी एहसान कीजिएगा।’’

अंगनू इन दिनों परेशान थे। कारण साफ थे। सुबह-सुबह जब वह बच्चों वाली गाड़ी घसीटते मोहल्ले से निकलते तो कोई उनकी ताक में तो न बैठा होता, लेकिन रोज ही ऐसा आदमी मिल जाता जो ‘बर्तन मांजो या लू-लू-लू’ कहकर उनको छेड़ देता। वह बड़बड़ाने लगते। फिर यह बड़बड़ाना दिन-भर जारी रहता। उनका बड़बड़ाना धीरे-धीरे तेज होता गया। और उसमें गालियों की तादाद बढ़ती गई। ऐसा लगने लगा जैसे वह सब को गालियां देते हैं। लेकिन इससे उनके काम पर कोई फर्क नहीं पड़ था। वह दोपाहर कॉलिज के लोगों का खाना पहुंचाते और फिर फेरी पर निकल जाते। स्टाफ क्वार्टर वाले अंगनू के व्यक्तित्व में छुपी खूबियों की तलाश में लगे रहे। वह लावारिश गाय होकर रह गये थे जिसका मालिक कोई नहीं था, फिर भी बहुतेरे थे।

एक दिन डा. दास के घर के सामने से अंगनू निकल रहे थे तो डा. दास ने उन्हें पुकार लिया। उन्हें कुछ हैरत हुई, क्योंकि डा. दास ने इससे पहले उन्हें कभी नहीं बुलाया था। बल्कि वह तो अंगनू को देखकर बड़ा बुरा मुंह बनाते थे। अंगनू बरामदे में चढ़े तो डा. दास ने उनसे कहा, ‘‘तुम आज रात हमारे साथ खाना खाओं। आठ बजे जाना।’’ अंगनू की छाती फूल गई। न सही पैसा उनके पास इज्जत तो है। वह रात आठ बजे डा. दास के घर पहुंचे तो डा. दास खाना खा चुके थे अंगनू का खाना किचन में रखा था। डा. दास के बच्चे छुट्टियों पर घर जा चुके थे। अंगनू ने किचन में बैठकर खाना खाया और अपनी जूठी प्लेटों को साफ करने लगे तो डा. दास ने आकर उसने कहा,‘‘अंगनू कुछ बर्तन और भी है।’’ अंगनू ने सारे बर्तन साफ कर दिए।

धीरे-धीरे वह झाड़ू भी लगाने लगे। दूसरी टीचरों को डा. दास पर गुस्सा आया। खासतौर पर अंसारी साहब को, क्योंकि वह अपने-आपको अंगनू मियां का ‘गार्जियन’ किस्म की चीज समझते थे। उन्होंने अंगनू से कहा, ‘‘तुम दिन का खाना हमारे साथ खाया करो।’’ फिर तो अंगनू की आवभगत होने लगी। किसी ने रोज सुबह की चाय पीने की दावत दे डाली तो किसी ने रोज शाम चार बजे बुलाना शुरू कर दिया। फिर आपस में प्रतिद्वंद्वता शुरू हो गई। डा. दास ने एक दिन अंगनू को खाना ही नहीं खिलाया, घर ले जाने को रोटी भी दे दी।

यह सब होता रहा, लेकिन बच्चों वाली गाड़ी उनसे नहीं छूटी और उन्होंने कारोबार बंद भी नहीं किया। हां, अब उनकी गाड़ी में सामान से ज्यादा नाश्तेदान होते थे। लाला की दूकान से लाया लोगों का सामान हुआ करता था। और जब उनके साथ कोई न होता तो अपनी नई आदत के मुताबिक बच्चों वाली गाड़ी से बाच-चीत करते घूमते रहते।

रात के नौ बजे वह डा. दास के यहां ‘खाना खाकर’ लौट रहे थे। सितम्बर के आखिरी दिनों की रात थी। उन्होंने स्टाफ क्वार्टरों से मोहल्ले जाने वाले शार्टकट वाला रास्ता पकड़ लिया। गाड़ी से वह बातें कर रहे थे, ‘‘देखो मैंने बड़ी दुनिया देखी है। चार साल का था तो बाप मर गया। भाई कहां से पढ़ता। खाने को नहीं था। फिर भी इधर-उधर काम करता रहा। फिर स्कूल की नौकरी मिल गई...तुमने मेरा साथ भी खूब दिया।’’ अंगनू बच्चों वाली गाड़ी के हैंडिल पर लदे हुए थे। उनके बूढ़े पैर घसिट रहे थे। सोलो हैट वह रात में भी नहीं उतारते थे। कच्ची सी पगडंडी पर बिजली के खंभे किसी चुनाव में ही लगे थे। लेकिन अब उनमें से एक ही दो में बल्ब थे। रास्ता काफी सुनसान था। बच्चों वाली गाड़ी आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गई। शायद सामने वाले पहिये के सामने कोई ईंट आ गई थी। ‘‘क्यों, रुक क्यों गई हो घर नहीं चलोगी क्या कल तुम्हारी सफाई भी कर देंगे।’’ उन्होंने हैंडिल पर जोर डाला पहिया ईंट पर चढ़ गया और बच्चों वाली गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई। आगे ढलान था। हैंडिल अंगनू के हाथ से छूट गया। वह अपने ही जोर से आगे गिरे। सोले हैट अंधेरे में गिर पड़ा और उनका सिर बिजली के खंबे से टकराया। गंजे सिर से खून रिसने लगीं। धीरे-धीरे गाढ़ा खून उनकी माथे की लकीरों में आड़ा-तिरछा बहने लगा, फिर सफेद दाढ़ी तक आ गया। कुछ ही फासले पर गाड़ी उलटी पड़ी थी। बचा-खुचा सामान बिखर गया था और उलटी पड़ी बच्चों वाली गाड़ी का एक पहिया घूम रहा था। देर इतनी हो चुकी थी कि अब इस रास्ते से किसी के गुजरने का इमकान नहीं था।

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रचनाकार: असगर वजाहत की कहानी - बच्चों वाली गाड़ी
असगर वजाहत की कहानी - बच्चों वाली गाड़ी
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