ऊसर में बबूल आधी रात के बाद निकली पीली और मटयाली चांदनी में पीपल के पुराने पेड़ की छाया बहुत डरावनी लग रही थी। चांदनी में पत्ते हवा से हिलन...
ऊसर में बबूल
आधी रात के बाद निकली पीली और मटयाली चांदनी में पीपल के पुराने पेड़ की छाया बहुत डरावनी लग रही थी। चांदनी में पत्ते हवा से हिलने के साथ चमकते थे और डालों के एक-दूसरे से रगड़ने से सरसराहट जैसी आवाज़ आती थी जैसी सांपों की बाम्बी से आया करती है। रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन सिड़कू पीपल की फुंगी पर बैठा हुआ दिल-ही-दिल में नम्बरी को गालियां दे रहा था। इस वक्त उसे पीपल के इस पेड़ से वह डर भी नहीं लग रहा था, जो शाम के समय से ही इसके पास से निकलने में लगा करता था। किसी ने कभी कुछ देखा तो नहीं था, लेकिन गांव के सब ही लोग कहते रहते थे कि इस पीपल के पेड़ पर बिराज बाबा लगते हैं। बिराज पहले बाबा नहीं थे। सिर्फ एक आदमी थे और इसी गांव में उनकी दो बीघा जमीन थी। नम्बरी के पिता ने आज से तीस साल पहले पता नहीं क्या चाल चली, कागजों को किस तरह से, कितना वजनी बनाकर और किस हुनर से घुमाया कि बिराज के दो बीघा खेत नम्बरदार के हो गये और सात साल तक कचहरियों के चक्कर काट-काटकर एक दिन अपने मुकदमे का फैसला सुन, जब बिराज गांव लौटे तो अगले दिन सुबह इसी पीपल की एक डाल से गांववालों ने उनकी लाश झूलते हुए देखी। उसी दिन से ऐसा माना जाने लगा कि इस पीपल पर बिराज लगते हैं। फिर बिराज को बिराज बाबा बनने में कोई ज्यादा देर नहीं लगी। ये इसलिए कि बिराज ने किसी को भी कभी नहीं सताया। हां, अक्सर लोगों से, उन्हीं के अनुसार चिलम मांग लिया करते थे।
गांव के लौंडे और उन्हीं की देखा-देखी सिड़कू भी इस पीपल के पेड़ के नीचे से शाम को नहीं गुजरता था। रात में तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। लेकिन आज वह नम्बरी की मार खाने के बाद छिपता हुआ आयाऔर इस पेड़ पर चढ़ गया। शाम को छुटपुटा हो गया था इसलिए कोई चढ़ते नहीं देख सका। लेकिन गांव भर में उसके नाम की पुकार काफी रात तक लगती रही। उसका पिता कई बार सिड़कू-सिड़कू चिल्लाता हुआ इस पेड़ के नीचे से गुजर गया। कई बार उसने गांव के दूसरे लोगों की आवाज सुनी। लालटेन की रोशनी और लाठियों की खटखट भी सुनी, लेकिन कुछ बोलानहीं। वह जानता था कि वे लोग उसी को खोज रहे हैं। लेकिन वह चुप रहा और लगातार धीरे-धीरे नम्बरी को गालियां देता रहा। कोसता काटता रहा। जब गालियां खत्म होने लगतीं तो वह उनको फिर दोहराने लगता और जब गालियां बकते-बकते थक जाता तो अपने सूजे हुए सिर पर हाथ फेरता और नम्बरी के जूते से कटे अपने माथे को टटोलता तो एक सिहरन-सी अन्दरतक दौड़ जाती। कुछ देर के बाद फिर गालियां बकना शुरू कर देता। उसे सबसे ज्यादा गुस्सा इसी बात पर था कि गलती उसकी नहीं थी, लेकिन नम्बरी ने उसे सैकड़ों गालियां दे डालीं और फिर कई बार सिर से ऊंचा उठा-उठा कर पटका। उसके सिर पर आठ दस जूते मारे और फिर गालियां देता हुआ अपने घर चला गया।
गांव के बहुत से लोग खड़े देख रहे थे। उनमें वे लौंडे भी थे जो सिड़कू के साथ जानवर चराया करते थे। थोड़ी देर बाद सिड़कू का पिता भी आ गया था। लेकिन उसके आ जाने की वजह से नम्बरी के हाथ और जबान और तेजी से चलने लगी थी। वह कह रहा था कि इसका बाप भी साला हरामी है और यह भी हरामी है। साला आज फिर जानवरों को ऊसर में हांक ले गया था। ऐसी और इसी तरह की दूसरी बातें सुन-सुनकर सिड़कू का बाबू बेशर्मी से इस तरह हंस रहा था जैसे नम्बरी की बात को सही बता रहा हो। सिड़कू को हमेशा अपने बाबू पर गुस्सा आता है। लेकिन इस तरह इतना गुस्सा आ रहा था कि वह बता नहीं सकता था।
‘क्यों बे साले मादरचोद, हराम के जानवर हैं जिनको अपनी अम्मा की उसमें ले जाके खड़ा कर देता है। अबे हरामी की औलाद, ऊसर में एक तिनका तो होता नहीं। वहां क्यों ले जाता है जानवर सालों को भूखा मारने के लिए। ले बे साले और ले।’
दनकू और रमुआ उसकी पिटाई होते देखकर हंस रहे थे, क्योंकि आज वह उनसे गोली जीत गया था। घास का बोझ उठाये रमई काका आया और नम्बरी से बोला, ‘‘और दुई-चार हाथ लगा देव साले का नम्बरी। आजकल के लौडें साले सोहदा हैं सोहदा।’’
नम्बरी उसकी कुटाई करता रहा, लेकिन उसने सिसकी तक नहीं ली। उसका बाबू दूर खड़ा खीसें निपोरता रहा। नम्बरी जब सिड़कू को मारकर घर की तरफ चला तो सिड़कू का पिता उसके पीछे-पीछे हो गया।
सूरज निकलने वाला था। सिड़कू नीचे उतर आया। घर में घुसा तो कोई नहीं था। वह सीधा रोटी की डलिया के पास गया और रात की बची एक रोटी को जल्दी-जल्दी खाने लगा। पानी पिया और गुड़मुड़िया के सो गया। उठा जब उसका बाबू घर में घूसा।
‘‘कैसे साले पड़े सोवत हो। आज नम्बरी के चरहा बंधे के बंधे रह गये।’’
उसने बाबू की तरफ नफरत और उपेक्षा से देखा। दुबला-पतला काला शरीर, धंसी हुई आंखें, पतले-पतले होंठ और पतली नाक। फटी ऊंची बंधीधोती और सलूका।
वह धीरे से उठा और बाबू की बात का जवाब दिये बिना बाहर निकल गया।
बाबू क्या नम्बरी से कुछ न कह सकता था रोक तो न सकता था, पर क्या और कुछ न कह सकता था हंसता न तो क्या हो जाता ये सब बातें उसके मन में उठ रही थीं और वह बाबू से और अधिक घृणा करने लगा।
शुरू से ही बाबू ऐसा है। जैसे गोबर का छोत। दो-तीन साल हुए, जाड़े की रात थी। बाबू के पास वह सो रहा था। दूसरी ओर अम्मा लेटी थी। अचानक रात में उसकी आंख खुली तो वह डर गया। धीरे-धीरे देखा तो कुछ समझ में न आया। नम्बरी उसके घर में कैसे आ गया और बाबू कहां चला गया। उसने देखा नम्बरी उसकी अम्मा का गला दबाये दे रहा है। अम्मा नीचे पड़ी कसमसा रही थी। दीये की रोशनी में नम्बरी का चेहरा लाल हो रहा था। नीचे पयाल बिछा था। पयाल चरचरा रहा था। अम्मा हाथ-पैर फेंक के थक गयी और नम्बरी वैसे ही उसका गला घोंटता रहा। सिड़कू चुपके से उठा और बाहर निकल आया। बाहर छप्पर के नीचे बाबू सो रहा था।
‘‘बाबू, हे बाबू!’’ बाबू हड़बड़ा के उठ गया था।
‘‘क्या हे बे’
‘‘नम्बरी अम्मा का मारे डाल रहा है।’’ बाबू ने घूरकर उसकी तरफ देखा।
‘‘सो जा बे, औल फौल न बका कर।’’
‘‘सही कहत हन बाबू। देख लेव अन्दर’’
‘‘सो जा बे।’’ बाबू ने उसका हाथ पकड़कर अपने पास घसीट लिया और पैर के नीचे उसे दबा लिया। फिर उसने बाबू के खर्राटे सुने। धीरे-धीरे सिड़कू ने बाबू का पैर खिसकाया और उठकर दरवाजे-की झिरी में आंखें लगा दीं। अम्मा गिलास नम्बरी को दे रही थी। वह चाहता था कि बाबू को जगा के दिखा दे। पर फिर उसने सोचा, नहीं बाबू न जाने क्या कहे। और वह बाबू के पास आकर फिर सो गया। सुबह रोटी खाते समय उसने बाबू से कहा, ‘‘बाबू, नम्बरी हम पंचन के हाथ का खा लेता है। रात में अम्मा ओका गिलास...’’ उसकी अम्मा ने घूंघट काढ़ लिया और बाबू ने उसे ऐसा थप्पड़ मारा कि रोटी उसके हाथ से दूर जा गिरी। वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
‘‘साला हरामी, ससुर कमजात!’’ बाबू उसे गालियां देने लगा।
‘‘लगत है साला भूखन मरवाई। साले कौनो से कह न दियो। जूता मार-मार के लस्त कर डलबे।’’
ये तो कई साल पुरानी बात है। उस जमाने में तो रोज ही रात को वह अपनी अम्मा की सिसकियां और नम्बरी की हंसी की आवाज सुना करता था। लेकिन उसके बाद उसने ये बात किसी से नहीं कही। जिस रात ये सब होता उस सुबह वह अपनी अम्मा के चेहरे पर दांतों के निशान और नाखून के खरोंचे भी देखने का आदी हो गया।
नम्बरी जब भी रात में उसके घर में घुसता तो पूरा घर तीखी-तीखी बू से महक जाता। गोबर और चिकनी मिट्टी से लिपी-पुती कोठरी के छोटे से दरवाजे में नम्बरी की पूरी देह फंस जाया करती थी। वह टेढ़ा होकर अन्द र चला आता। सिड़कू का बाबू उसे देखकर ऐसा चुप हो जाया करता था और इस तरह घें घें करने लगता था जैसे आदमी नहीं, आटे का पेड़ा हो। सिड़कू की अम्मा घूंघट नीचे तक खींच लिया करती थी। नम्बरी को देखते ही सिड़कू का पिता सिड़कू का हाथ खींचता बाहर छप्पर के नीचे आ बैठता था और सिड़कू को टांगों के नीचे दाब कर सुला लिया करता था। कभी-कभी अन्दर से नम्बरी की आवाज आती-‘‘अबे मढ़कू बीड़ी लै आ।’’ सिड़कू का पिता तीर की तरह उठता तो सिड़कू भी चुपके से उसके पीछे-पीछे हो लेता। छप्पर तले अंधेरा होने की वजह से मढ़कू उसे देख न पाता था। कोठरी का किवाड़ खुलता। अन्दर से रोशनी की एक छोटी सी लकीर बाहर आती। नम्बरी एक रुपये का नोट मढ़कू के हाथ में रख देता। सिड़कू देखता, अन्दर उसकी अम्मा दरवाजा की तरफ पीठ किये पड़ी है और कोठरी से तीखी-तीखी बदबू आ रही है। फिर कोठरी का दरवाजा चरचरा के बंद हो जाता और अन्दर से ऐसी आवाजें आने लगतीं जैसे नम्बरी सिड़कू की अम्मा की गुर्री-गुर्री तोड़े दे रहा हो। बीच-बीच में चूड़ियां खनक जातीं या कोई दबी-दबी सी सिसकी और नम्बरी की हंसी सुनाई दे जाती।
उसे रात में देर तक नींद न आती, जबकि बाबू जल्दी ही खर्राटे लेने लगता था। वह सोचता कि नम्बरी उसके घर क्यों आता है, बाबू कुछ क्यों नहीं बोलता। नम्बरी अम्मा को काहे मारता है, काम तो अम्मा जी-तोड़ करती है। दिनभर दोगला उलचवाती है। अनाज बनाती है नम्बरी का। काटती गोड़ती, निराती, ओसाती है। फिर काहे नम्बरी उसे मारता है। उसने एक दिन अम्मा से पूछा, ‘‘नम्बरी काहे का आवत है।’’
उसकी अम्मा के चेहरे पर घबराहट आ गयी। वह दूसरी तरफ देखने लगी। सिड़कू जानता है-यह बात अगर उसने बाबू से पूछी होती तो थप्पड़ पड़ जाता।
‘‘तुम्हार बाबू ओकर हलवाहा है। ओके पास से खाय का मिलत है।’’ इतना कहकर वह चुप हो गयी थी।
उसकी मां कम बोलने और उसके बाबू की बात मानने वाली एक नाटे कद और भरे-भरे जिस्म वाली औरत है। सब काम सिर झुकाकर और बिना कुछ बोले करती रहती है। उसकी छोटी सी नाक कुछ फूली हुई है। आंखें कुछ अन्दर को धंसी है। रंग बिल्कुल गेहूं के रंग जैसा है और बाल चिकटे रहते हैं। सिड़कू अम्मा ही को मानता है, उसी को चाहता है और उसी के काम में हाथ लगवा देता है। बाबू तो उसे जब देखो धड़ाम से झापड़ मार देता है।
वे सब बातें जो सिड़कू की समझ में दो-तीन साल पहले नहीं आती थीं अब आने लगी हैं। जब से उसने नम्बरी के जानवर चराना शुरू किये हैं वह चरवहियों से सब पूछता है और उसे बताते हैं।
शुरू-शुरू में उसे शरम आती थी फिर उसे गुस्सा आने लगा। सबसे ज़्यादा अपने बाबू पर, फिर नंबरी पर और फिर गांव वालों पर। वह लड़ने लगा। और पिटने लगा। लेकिन उसने लड़ना नहीं छोड़ा। जब भी उसे कोई पीटता, वह रात में जाकर उसका खेत उजाड़ डालता। वह जहर देने की भी सोचा करता था। पर जहर मिलेगा कहां
एक दिन जमरू से उसकी खूब लड़ाई हुई। जमरू उससे बड़ा है। वह भी अपने जानवर चराने आता है। जमरू ने गोली खेलते-खेलते सिड़कू से कहा, ‘‘अबे तोरी अम्मा तो नंबरी की रखैल है रे।’’ सब लौंडे हंसने लगे थे। सिड़कू जमरू से भिड़ गया। जमरू ने उसे हरा दिया था, लेकिन वह भी आख़िरी दम तक लड़ता रहा। इस घटना के बाद किसी लौंडों ने उसकी मां के बारे में यह नहीं कहा था। हां, गांव के दूसरे लोग अक्सर छेड़ देते और उसे गुस्सा आ जाता, पर जब उनसे लड़ नहीं सकता था। एक दिन वह अपनी अम्मा को आवाज दे रहा था तो बड़कू ने हंसकर कहा, ‘‘अबे वह नंबरी के घर में होगी।’’
इसी तरह की और भी बातें सुन-सुनकर उसे अपने बाबू पर गुस्सा आता था। क्यों नहीं रोकता अम्मा को क्यों नहीं रोकता नंबरी को साला छोत का छोत। और वह आंगी लेकर बेशर्मा की झाड़ी को बुरी तरह पीटने लगता।
ऊसर में जानवर चर रहे हैं। ऊसर में एक तिनका नहीं उगता। जो घास बरसात में निकलती है वह गर्मी में जल जाती है। तीन सौ बीघे के ऊसर में इक्का-दुक्का बबूल के पेड़ खड़े हैं। रहमत कहता है, ‘‘अबे ये बबूल तो होता है ऊसर में। बड़ी मजबूत लकड़ी होती है इसकी। बड़ी ही मजबूत। इसकी छाल बड़े काम आती है। चमड़ा रंगा जाता है। और बबूल कभी आंधी में नहीं गिरता। ...अबे कांटे होते हैं, फल-फूल बेकार होता है तो क्या... और काम तो आता है। अबे कम-से-कम हराहा चराये वाले इसकी छाया में सुस्ता तो लेते हैं।’’
गर्मी में लू ऐसी चलती है कि पूरा ऊसर सफेद हो जाता है। सन-सन-सन की आवाज-भर सुनाई देती है। माटी और धूल के साथ छोटी-छोटी पत्तियां हवा की नचवनी में देर तक नाचती रहती हैं। रहमत बाबा कहता है, ‘‘देखो, भुतनी जा रही है।’’
‘‘काका भुतनी दोपहर को काहे निकलती हैं’
‘‘अकेले-दुकेले आदमी का डसे के लिए।’’ सब चरवहिये लौंडे बबूल के पेड़ के नीचे जमा होकर गोली खेलने लगते हैं। रहमत बाबा अपने सिर के नीचे ईंट रख कर सो जाता है। उसकी एक मूंछ टेढ़ी होकर मुंह में घुस जाती है।
रमुआ और सिड़कू नहर पर पानी पीने जाते हैं। रमुआ जानता है कि सिड़कू नंबरी से चिढ़ता है। दोनों जनों ने कई बार मिलकर नंबरी की शकरकंद उखाड़ी है। कभी मटर की छीमी खा गये हैं।
‘‘चलो नंबरी की ऊंख उखाड़ी जाये।’’
‘‘आओ।’’ दोनों नंबरी के खेतों की तरफ़ गये। लू इतनी कर्री चल रही है कि किसी के बाहर निकलने की हिम्मत नहीं है। चटाक-चटाक की आवाज़ों के साथ ऊंखें टूटने लगीं। ‘‘पूरा बोझा न बनाओ,’’ रमुआ ने सिड़कू से कहा।
पर सिड़कू रुका नहीं। वह एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी ऊंख तोड़ता गया। उसे बड़ा मज़ा आ रहा था। खेत नंबरी का है न। े साले और मार। उसने चार-छः ऊंखें और तोड़ डालीं।
‘‘अबे ये उठावत न बनी,’’ रमुआ ने उससे कहा।
‘‘तो का भवा, तुम्हार गाय का खिला देबे।’’
‘‘बस कर बे बस।’’ लेकिन सिड़कू नहीं रुका। उसे ऊंख उखाड़ने में बड़ा मज़ा आ रहा था। वह हंस रहा था। खुश हो रहा था। उसके माथे पर पसीना था। हाथ भी कट गया था, लेकिन वह खुश था। दोनों ऊंखें लेकर खेत से बाहर भाग आये।
इसी तरह सिड़कू ने नंबरी की शकरकंदी उखाड़ी थी और आलू तो वह नंबरी के खेतों से खाया करता था। उसे मालूम था जब भी कभी वह पकड़ा जायेगा नंबरी उसकी हड्डी-पसली एक कर डालेगा।
दोनों फिर बबूल के पेड़ के नीचे आकर बैठ गये। रहमत बाबा जाग गये थे। रहमत बाबा से सिड़कू ने पूछा, ‘‘बाबा, कौनो आदमी धतूरा खाले तो पागल हुई जाई’
बाबा ने कहा, ‘‘अबे कक्कू अहीर नहीं पगलवा गया है। लोग कहते हैं कौनो दुसमनी में धतूरा के बीज पीस के खिला दिहिस रहे।’’
कक्कू अहीर गांव का अकेला पागल है। धतूरे वाली बात भी सबको मालूम है। कक्कू अहीर दिन-भर खेत की मेंड़ों पर ‘लपामलपेट’ ‘लपामलपेट’ कहता घूमता रहता है।
‘‘अच्छा काका! धतूरा के बीज बैल का खिला देव तो बैलो पागल हुई सकता है’
‘‘हां।’’
सिड़कू की आंखें चमक आयीं। वह दो दिन से यही सोच रहा था कि नंबरी के बैलों को धतूरा का बीज खिला दे। उसे मालूम है-गांव के तालाब के पास धतूरा के पेड़ खड़े हैं। लेकिन तोड़ना पड़ेगा छिपके। ऐसा न होय कि कोई देख ले और...। धतूरा के बीज पीस के आटे के साथ, नहीं गुड़ के साथ मिलाकर खिला दिया जाये बैलों को। मज़ा आ जाई। नंबरी ससुर दो हज़ार की लाया है जोड़ी। दोनों पागल हुई जायें। फिर इलाज का होई’ जब कक्कू अहीर ‘लपामलपेट’ ‘लपामलपेट’ कहता घूमता रहता है और आज तक ठीक न हो सका तो बैल क्या ठीक होंगे। उसने दिल में तय कर लिया कि रात में धतूरा तोड़ेगा।
शाम को जानवर गांव की तरफ़ ले जाते हुए उसने देखा भी कि तालाब के पास धतूरा खूब लगा है। वह खुश हो गया। और उसने गाने की तान मारी, ‘‘गजब भयो रामा, जुलम भयो रे...’’
सिड़कू घर आया तो बाबू खुर्पी का बेंट ठीक कर रहा था। अम्मा चूल्हा जला रही थी। सिड़कू ने बाबू की तरफ उपेक्षा और घृणा से देखा तथा कोठरी के अंदर आंगी रखने चला गया।
‘‘पैसा नहीं दिहित नंबरी’ सिड़कू की अम्मा बोली।
‘‘नहीं, कहत रहे, अभी नहीं है,’’ बाबू ने जवाब दिया।
‘‘पैसा न दिहिस तो हमार दवाई न आ पाई।’’
‘‘न आ पाई तो न आ पाई।’’ सिड़कू अपने बाबू को घूरता हुआ बाहर निकल गया। पैसा, पैसा, कहां से ले आवे पैसा। कहां चोरी करे चोरी पर वह तालाब की तरफ़ निकल गया और धतूरे के बीज जमा करने लगा। वहां से लौटकर आया तो सब सो चुके थे।
सिड़कू का पिता नंबरी की हलवाही करता है। सिड़कू नंबरी के जानवर चराता है। वह सिड़कू की अम्मा को कई बार समझा चुका है, ‘‘साला भूखा मर जाई। इतनी उमिर मा हम जेतना सीख लिया रहे ई ससुर का सीखिस है। कुछौ नहीं।’’
‘‘अबे यह देख यह, नंबरी के बैल,’’ रमुआ ने सिड़कू को दिखाया। सिड़कू ने देखा नंबरी की गाड़ी में जुते बैल ऊसर में गाड़ी लेके भाग रहे हैं। कभी इधर, कभी उधर। लंबा चक्कर काट रहे हैं। खूब गर्द उड़ रही है। गाड़ी में गुड़ भरा है। नंबरी गाड़ी हांक रहा है। बैल नाथ तुड़ा लिए हैं। भाग रहे हैं ऊसर में। नंबरी गाड़ी में खड़ा हो गया है। बैलों को जितना पुचकारता है वे उतनी तेज़ी से भागते हैं। ऊसर के चक्कर काट के बैल गाड़ी समेत नंबरी की चरही में घुस गये। पूरा खेत रौंद डाला।
सिड़कू उछल पड़ा, ‘‘रमुआ देख, नंबरी के बैल बौरा गये।’’
‘‘कसत’
‘‘हम इनका धतूरा का बीज खिलावा रहे, परसों,’’ सिड़कू खुशी में अपनी लाठी भांजने लगा।
बैल अभी भी ऊसर में दौड़ रहे हैं। फिर वे गांड़ी को लेके तलइया की तरफ सीधे भागे चले आये। ‘‘होय-होय, मुच-मुच।’’ नंबरी रोक रहा है पर बैल गाड़ी लिए तलइया के पानी में उतरते चले गये।
‘‘गुड़ गवा साले का, मादरचोद।’’ सिड़कू फिर लाठी भांजने लगा। रहमत काका के साथ सब चरवहिये लौंडे तलइया गये। पूरी गाड़ी पानी के अंदर चली गयी थी। नंबरी पानी से बाहर निकल रहा था।
‘‘का भवा नंबरदार’ रहमत काका ने पूछा।
‘‘का जाने का भवा। ससुर बैल पगलिया गये। बाज़ार जाये के खातिर गाड़ी मा गुड़ रखा रहे।’’ नंबरी पानी में भीग गया है। बैल पानी पी रहे हैं।
‘‘प्यासे रहें का’
‘‘नाहीं, सबेर मढ़कू पानी पिला दिहिस रहे।’’
‘‘फिर का बात है’
‘‘जा बे मढ़कू का बुला ला। हज़ार दुई हज़ार गये। बैल न ठीक भये तो और हानि।’’
सिड़कू उछलता अपने पिता को बुलाने चला गया। गांव के अंदर वह चिल्लाता हुआ घुसा, ‘‘बाबू रे, बाबू आये बाबू, जल्दी चला हे, नंबरी के बैल बौरा गये।’’
कई लोगों ने उससे रास्ते में पूरी बात पूछी और उसने मज़ा ले-लेकर सबको बताया। बहुत से लोग तमाशा देखने ऊसर की तरफ़ निकल गये। गांव के लौंडे तो पहले ही दौड़ लिए।
सिड़कू ऊसर के पास वाली तलइया में आया तो भीड़ लग गई थी।
‘‘मढ़कू पहले तो बैल खोल दे। ओके बाद गाड़ी बाहर निकाले के लिए गांव से दुई जोड़ भैंसा लै आ।’’
मढ़कू ने गाड़ी को तालाब में देखकर कहा, ‘‘बड़ी हानि हुई गई नंबरदार।’’
सिड़कू को अपने बाबू पर फिर गुस्सा आया, ‘‘काहे की हानि कौन तुम्हार माल है। पर इहकी आदत पड़ गयी है लबड़-लबड़ करे की।’’
‘‘देख मढ़कू बैल निकाले से पहले गाड़ी म कौनो थूनी लगा दियो। नहीं तो जौन गुड़ बचा है वहू हाथ से जाई।’’
‘‘हौव मालिक, हौव।’’
इतना कहकर नंबरी गांव चला गया। तमाशा वालों की भीड़ा थोड़ां छंट गयी। सिड़कू ने तान मारी, ‘‘जुलम भयो राम...’’
‘‘चुप रह बे।’’ मढ़कू ने सिड़कू को एक झापड़ मारा, ‘‘जब देखो ससुर आवारन की तरह तान मारत है। जा एक ठो थूनी लै आ।’’
‘‘हम न जइबे,’’ सिड़कू अकड़ गया।
मढ़कू ने उसके दो-तीन झापड़ मारे। सिड़कू को गुस्सा तो बहुत आया पर दबा गया।
थूनी लाकर मढ़कू ने गाड़ी में लगाई और बैल को खोल दिया। बैल तालाब से निकलकर फिर ऊसर में दौड़ने लगे। रहमत काका ने कहा, ‘‘अबे मढ़कू बैलों को गरमी चढ़ गई है। इनकी दवा-दारू कराओ, नहीं तो मर जइहहें।’’
‘‘हौव दादा हौव,’’ मढ़कू ने सिड़कू से कहा, ‘‘देख बे गाड़ी के पास खड़ा रह। हम गांव जाइत हन डांगर लाये।’’
भीड़ छंट गयी थी। सिड़कू और रमुआ गाड़ी के पास रह गये।
सूरज डूब रहा था और हवा रुकी हुई थी। सिड़कू ने ज़ोर की तान मारी, ‘‘जुलम भयो रे...’’ फिर अचानक उसकी आंखें चमकने लगीं।
‘‘रमुआ!’’
‘‘हौव।’’
‘‘थूनी हटा दी जाये तो पूरी गाड़ी तालाब में डूब जाई,’’ सिड़कू बोला।
‘‘हौव। पर न किया। नंबरी मारी।’’
‘‘कहि देबे अपने से गिर गयी।’’ सिड़कू पानी में घुस गया और ज़ोर लगाके थूनी गिरा दी। थूनी के गिरते ही पूरी गाड़ी पानी के अंदर चली गयी। बड़े-बड़े बुल्ले उठने लगे। सिड़कू बाहर निकल आया। रमुआ डरकर भाग गया। सिड़कू तालाब के किनारे बैठ गया।
‘‘का बे, ये का किहिस’ मढ़कू ने देखा गाड़ी पानी में पूरी तरह डूब चुकी है। एक-एक बीता डंडा-भर दिखाई दे रहे हैं।
‘‘का किया, कुछ नहीं।’’
‘‘गाड़ी कसत डूब गई’
‘‘हमका का मालूम, थूनी खिसक गयी होई।’’
मढ़कू उसके पास आ गया। घूरकर देखने लगा।
‘‘ससुर हरामी के पिल्ला, सत्यानाश कर दियो। तुम्हीं हटाये हो थूनी।’’
‘‘नहीं हम नहीं हटावा,’’ सिड़कू पीछे हटने लगा।
‘‘तोर कमीज गीली है पीछे से... घुसा रहे पानी म’
‘‘नाहीं।’’
मढ़कू ने उसे एक जोर का झापड़ मारा। वह सीधा ज़मीन पर गिर पड़ा। उसने मढ़कू की तरफ़ देखा फिर जल्दी से ठठा पड़ा। अपनी लाठी संभाली ओर मढ़कू के सिर पर दे मारी। ‘हचाक’। फिर लाठी उठाई और ‘हचाक’ फिर ‘हचाक’। मढ़कू के सिर से खून बह रहा था। दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। मढ़कू के पैर कांप गये। खून बह रहा था। सिड़कू भागा। तीन सौ बीघे के ऊसर का चक्कर काटकर वह गांव में घुस गया।
मढ़कू बैठ गया। खून उसके चेहरे पर फैल गया था। सूरज डूब रहा था। और उसकी रोशनी में तालाब का पानी पीला-पीला हो गया था।
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