असगर वजाहत की लघुकथा श्रृंखला - ‘कवि प्रसंग’ तथा ‘पागलखाना प्रसंग’

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कवि का एलान कवि की चर्चा बंद थी बिलकुल । कवि की उम्र ढली जाती थी कवि की छवि धुली जाती थी। कवि ने तब ऐलान किया- नदी समझती है कविता। कवि अप...

कवि का एलान

कवि की चर्चा बंद थी बिलकुल कवि की उम्र ढली जाती थी कवि की छवि धुली जाती थी। कवि ने तब ऐलान किया- नदी समझती है कविता। कवि अपनी कविताएं लेकर। कपड़े-लत्ते तट पर रखकर। नदी में उतरा कापी लेकर चेले उसके पीछे-पीछे वह चेलों के आगे-आगे।

कविता सुनकर नदी जो भड़की। कवि के चेले सरपट भागे। कवि का चश्मा उड़ा हवा में। तट पर रखे कवि के कपड़े सरपट भागे। कवि की दाढ़ी गिरी नदी में।

कवि ने तब ऐलान किया-ये नदी नहीं ये नाला है। इस नाले में बस कीचड़ है। इस कीचड़ में बस कीचड़ है। कीचड़-कविता का मेल नहीं।

कविता करना खेल नहीं।

कवि और उनकी बिल्ली

एक दिन एक कवि मर गए उसी रोज उनकी बिल्ली मरी। एक हलचल मची। लोग आने लगे, लोग जाने लगे।

सत्ताधारी जो दल था, उसके नेता थे कवि। अभिनेता थे कवि। आली थे कवि। हसीनों की बागिया के माली थे कवि। जाली थे कवि।

रेडियो-दूरदर्शन में सब आ गया। कैसे पैदा हुए, कैसे जीवित रहे, कैसी शादी रची, कैसी दुनिया बसी। कैसे हंसते थे कवि, कैसे चलते थे कवि, कैसे लड़ते थे कवि। सिर झुकाए हुए ग़म के मारे हुए लोग आने लगे, लोग जाने लगे। थोड़े पहले गए, थोड़े पीछे गए।

बात-ही-बात में शाम को छः बजे एक मीटिंग की बातें भी तय हो गई।

दूसरे लोग कहने लगे, ‘‘शोक करने का ठेका नहीं है किसी को। ये तो कितना बुरा है। लोग चालाक है।’’

तीसरे गुट के लोगों ने तड़ से कहा, ‘‘जिंदगी-भर उसे बुर्जुआ सिद्ध करते रहे जो, उन्हें हम यह अधिकार सौंपकर बैठ सकते नहीं।’’

पहले गुट ने कहा, ‘‘शोक करने का हमको ही अधिकार है। कवि से प्यार है। साथ हैं कवि की पत्नी हमारे।’’

अब तो भगदड़ मची।

एक दल उनके बच्चे को ले उड़ गया। पटाया किसी दल ने साले को कवि के। एक गुट डायरी पार कर ले गया। एक दल को कवि की फोटो मिली। टोटो मिली।

एक दल को कवि की जूतियां-चप्पलें भी न हासिल हुईं। कैसी मुश्किल हुई। दल ने सोचा, दूर की एक कौड़ी उन्हें भी मिली-

कवि को प्यारी थी बिल्ली। निराली थी बिल्ली। आनी-जानी थी बिल्ली। उसके बिना कवि खाते न थे। सोते जो थे तो रोते न थे। आते-जाते न थे।

इसलिए एक बिल्ली को लाया गया। उसको मारा गया। ताबूत में फिर सजाया गया। रखा गया। मीटिंग हुई। खूब लंबी चली। धुंध बढ़ने लगी, दिन सरकने लगा। चांद ढलने लगा। रात घिराने लगी। शब्द-ही-शब्द थे। लोग रोने लगे। याद के खंडहरों में सभी खो गए। कुछ सो गए।

कवि की भोपाल-यात्रा

कवि भोपाल को जब रवाना हुए तो खबर छप गई राजधानी के एक दैनिक अखबार में। कवि थिरकने लगे और गाने लगे। थिरकते हुए और गाते हुए कवि स्टेशन जो पहुंचे, तो दर्दनाक उनको खबर ये मिली कि गाड़ियां भोपाल की सब जा चुकी हैं। कवि के मित्रों ने उनसे कहा, ‘‘कल चले जाइएगा। पहुंच जाइएगा....ऐसी जल्दी भी क्या है।’’

पर कवि ताव में आ गए। अपने सामान को पीठ पर लादकर कवि स्वयं ही रेलगाड़ी बने। सीटी बजाई अपने मुंह से उन्होंने, धुआं भी निकाला। पटरियों पर राजधानी की रफ्तार से कवि ओझल हुए।

हर जगह रुक-रुक के पानी लिया। डीजल पिया। फिर स्पीड में आ गए। फिर कवि गिर जख्मी हुए। घुटने छिले कोहनियां छिल गईं। कवि कराह कर उठे। सीटी बजाई। भोपाल दूर था। पर उनकी सीटी की आवाज़ से ‘भारत भवन’ थर्रा-सा गया।

पर कवि वहां तक पहुंच न सके। हाय, पहुंच न सके। रास्ते में बहुत थक गए। एक छोटे-से स्टेशन पर पूड़ियां खा के पड़ गए।

कवि और लोटा

कवि निकला भई लोटाचोर। सुबह-सुबह लोटा लेकर कवि जब अपने घर से निकला टट्टी जाने, तब लोगों ने घेरा उसको उसके हाथ में जो लोटा था, वह चोरी का लोटा था। नाम लिखा था उस लोटे पर, ‘लोटाचोर!’

कवि के दिन फिरे

मसला थोड़ा टेढ़ा था। फूंक-फूंककर बढ़ना था। ख्याति नाम सम्मान भी उसमें जुड़ना था। धन, साधन, और मान भी उसमें मिलना था। कवि ने निश्चय किया ये पक्का-आत्मकथा लिख डालो भाई, आत्मकथा लिख डालो।

नदी में जैसे हल चलता है, खेत में चलती है नौका। उसी तरह से लय में आकर-आत्मकथा लिख डालो भाई, आत्मकथा लिख डालो।

आत्मकथा लिख डाली कवि ने जल्दी-जल्दी। प्रकाशक ने छापा उसको जल्दी-जल्दी। ताकि बिके वो जल्दी-जल्दी। पैसे से दस पैसा आवे जल्दी-जल्दी। जल्दी में सौ गुन है भाई, जल्दी है सौ गुन की माई

आत्मकथा ने सिद्ध किया कि कवि का कद है ग्यारह फुट का। बाकी जो हमदम हैं उनके, सब हैं ग्यारह-ग्यारह इंची।

कवि ने अपने जीवन में चौसठ-पैसठ कन्याओं से प्रेम किया है। कई जगह बम फेंके हैं। खुद कार्ल मार्क्स ने मार्क्सवाद का अर्थ उन्हीं से समझा था।

आत्मकथा घोड़ा बनकर धाम-धाम हो आई। गधा बनी, दोलती झाड़ी। कहीं बनी तलवार गिरी दुश्मन के सिर पर कहीं बनी वह फूल बिछी नेता के पथ पर। कहीं बनी वह सांड मथा मैदान घास का...

कवि ने अपनी आत्मकथा से जो इच्छा थी वह सब पाया।

पागलखाना-प्रसंग : एक

पागलखाने से भागे एक पागल ने घोषणा कर दी कि वह अमेरिका का राष्ट्रपति है। दूसरे ने घोषणा कर दी कि वह सोवियत संघ का राष्ट्रपति है। तब तो पागलों में राष्ट्रपति बनने की होड़ लग गई। हर पागल ने एक-एक देश चुन लिया और अपने को वहां का राष्ट्रपति घोषित करने लगे।

पर किसी पागल ने अपने को भारत का राष्ट्रपति घोषित किया।

पागलखाना-प्रसंग : दो

जब पागलखाने का दरवाजा टूटा तो एक पागल आपे से बाहर हो गया। वह इतना खुश हुआ, इतना खुश हुआ कि उसने एक पुराने जंग लगे ब्लेड से अपनी नाक काट डाली। उसे पागलखाने के दरवाजे पर चिपका दिया और स्वयं राष्ट्रीय गान गाता भाग निकला।

पागलखाना-प्रसंग : तीन

एक पागल ने जब देखा कि पागले खाने का दरवाजा टूट गया है तो वह फूट-फूटकर रोने लगा और इतना रोया, इतना रोया कि उसकी हालत बहुत बिगड़ गई।

पूछने पर कि वह इतना क्यों रो रहा है, बोला, ‘इस देश में आदमियों के रहने लायक एक ही तो जगह थी। वह भी बर्वाद हो गई।’

पागलखाना-प्रसंग : चार

पागलखाने का दरवाजा टूटा तो एक पागल ने जोर से जयहिंद का नारा लगाया।

दूसरे पागल ने उससे कहा, ‘मूर्ख, ये जयहिन्द का नारा क्यों लगा रहा है

पहले पागल ने कहा, ‘यही नारा लगाने पर मुझे पागलखाने में बंद किया गया था।’

पागलखाना-प्रसंग : पांच

पागलखाने का दरवाजा कैसे टूटा यह जानने के लिए सरकार ने एक अवकाश प्राप्त जज की ‘वन मैन इनक्वाइरी कमेटी’ बना दी।

अवकाश प्राप्त जज ने छानबीन, खोजबीन, दूरबीन आदि के बाद सरकार को रिपोर्ट दाखिल कर दी, पर हुआ यह कि उस रिपोर्ट का कोई पढ़ता न था। ऐसा भी नहीं कि रिपोर्ट कोई लंबी-चौड़ी थी, केवल एक लाइन की रिपोर्ट थी। पर उसे जो भी पढ़ता था, पागल हो जाता था।

पागलखाना-प्रसंग : छः

विरोधी दल के नेताओं को जब यह पता लगा कि पागलखाने का दरवाजा टूट गया है और पागल निकल-निकलकर गैरपागलों में घुल-मिल गए हैं तो वे बहुत उत्तेजित हुए और उत्तेजना के अंतिम क्षणों में जैसा वे किया करते थे, वैसा ही किया, यानी एक बयान जारी कर दिया। पर धोखे से पुराने बयान की कापी जारी हो गई, जिसमें बेरोजगारी, महंगाई और कानून-व्यवस्था पर चिंता प्रकट की गई थी पागलों के संबंध में एक शब्द न था।

संसद के वर्षाकालीन अधिवेशन में इस दुर्घटना पर बोलने का समय मांगा गया। सत्ताधारी दल वाले इसका विरोध करने लगे। इस पर विरोधी दल के एक सांसद ने अपना नया जूता शासक दल के सांसद खींच मारा। शासक दल का सांसद, जिसे जूता मारा, कहा जाता है सांसद होने से पहले जूता चोर था इसलिए उसने विरोधी दल के सांसद द्वारा मारा गया जूता उठा लिया और ललचाई नजरों से दूसरे पैर के जूते की तरफ देखने लगा। इस बीच सदन में गाली-गलौज शुरू हो गई थी। दो सांसद जिनमें से एक भूतपूर्व पहलवान और दूसरा भूतपूर्व तस्कर था, एक-दूसरे पर धोबिया पछाड़ दांव आजमाने लगे, गालियां फूलों की तरह उड़ने लगीं; एक सांसद समझा यह फिल्म का सेट है। वह उछल-उछलकर दूसरे सांसदों को मुक्के और लातें मारने लगा।

पत्रकारों ने यह दृश्य देखा तो प्रेस क्लब की तरफ निकल गए। उन्हें मालूम था कि ऐसा समाचार अखबारों में न छप सकेगा।

इसी बीच संसद में एक आदमी आया और चीखकर बोला, ‘‘सांसदो...मंत्री-मंडल का विस्तार हो गया है। तुम सबकी तन्खाह बढ़ गई हैं। भत्ते दुगने हो गए हैं। पेंशन ज्यादा मिलेगी।’’ ये सुनते ही सभी सांसद शांत हो गए।

संसद में यह घोषणा करने वाला एक पागल ही था।

पागलखाना-प्रसंग : सात

जब पागलखाने का दरवाजा टूटा तो एक पागल निकल भागा। वह सभ्य लोगों के बीच पहुंच गया तो यह जरूरत महसूस हुई कि पता चले कि वह हिन्दू है या मुसलमान। जब बड़ी खोजबीन के बाद भी यह पता न चला कि वह कौन है तो हिन्दू-मुस्लिम नेताओ ने सोचा कि उसे आधा-आधा बांट लिया जाए। फिर ये सोचा कि इससे तो वह मर जाएगा। न हिन्दू रहेगा, न मुसलमान। इसलिए उन्होंने ये तय किया कि वह एक दिन हिन्दू रहेगा और दूसरे दिन मुसलमान। जिस दिन वह हिन्दू रहता था उस दिन मंदिर में झाडू लगाता था, जिस दिन मुसलमान रहता था उस दिन मस्जिद में झाड़ू लगाता था। वह अपने घर में कभी झाड़ू लगा ही न पाता था।

पागलखाना-प्रसंग : आठ

जब पागलखाने का दरवाजा टूटा तो एक पागल भाग निकला। वह सभ्य लोगों के बीच पहुंच गया तो उसकी शादी का मसला दरपेश आया। लोग सोचने लगे, पागल से कौन लड़की शादी करेगी लेकिन पागल ने अखबार में इश्तिहार दे दिया। और अगले ही दिन सैकड़ों लड़कियों के खत आ गए कि वे पागल से शादी करने के लिए तैया हैं। सब बड़े परेशान हुए। पागल से शादी करने की ख्वाहिशमंद एक लड़की से जब ये पूछा गया कि वह पागल से शादी क्यों करना चाहती है तो उसने बताया कि पागल ने अगर मिट्टी का तेल डालकर उसे जला डाला तो कम से कम ये तो कहा जा सकेगा कि पति पागल था।

पागलखाना-प्रसंग : नौ

जब पागलखाने का दरवाजा टूटा तो पागलों के साथ पागलखाने के कर्मचारी भी निकलकर भागे। पागलों और कर्मचारियों में इतनी दोस्ती थी और वे एक-दूसरे से इतना मिलते-जुलते थे कि यह पता लगाना मुश्किल था कि कौन पागल है और कौन पागलखाने का कर्मचारी।

पागलखाने का एक कर्मचारी जब अपने घर पहुंचा तो उसने देखा कि एक पागल उसके घर की रसोई में बैठा खाना खा रहा है और कर्मचारी की पत्नी उसे गरम-गरम रोटियां खिला रही है। यह देखकर कर्मचारी को गुस्सा आ गया और उसने पागल को पीट डाला। तब यह हाल खुला कि कौन पागल था और कौन कर्मचारी।

पागलखाना-प्रसंग : दस

जब पागलखाने का दरवाजा टूटा तो एक पागल बाहर निकलकर व्यापारी बन गया। उसने एक क्लीनिक खोली, जिसमें सिखाया जाता था कि आदमी पागल कैसे बन सकता है। पागल की क्लीनिक में कोई पागल बनने न आता था। पागल घाटे में चला गया। बड़ा परेशान हो गया। वह यह पता लगाने निकला कि लोग पागल बनने क्यों नहीं आते खोजबीन के बाद उसे यह पता चला कि ऐसे क्लीनिक तो हर घर, हर दफ्तर में खुले हैं।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. असग़र वजाहत जी ने पागलों की कथाएँ सुनाकर फिर से मंटो की 'टोबा टेकसिंह ' की याद दिला दी.कम शब्दों में बहुत कुछ कह रहीं हैं ये पागल कथाएँ .

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  2. jab pagal khane ka darwaza tuta to.. ek pagal waha se apne ghar ki or bhaga ,,wah dekhna cahata tha ki,, duniya mein kitane pagal hain ,kya jo pagalnahi hai use apne kalam se pagal bna saktey hain ? orlekhak ban gya,,,tabhi dusre pagal ne u lekh ko padha or phir paglo ki tarh comment kar dala

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: असगर वजाहत की लघुकथा श्रृंखला - ‘कवि प्रसंग’ तथा ‘पागलखाना प्रसंग’
असगर वजाहत की लघुकथा श्रृंखला - ‘कवि प्रसंग’ तथा ‘पागलखाना प्रसंग’
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