ओम प्रकाश का आलेख - भाषा शिक्षण व अध्यापक

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सांस्कृतिक एवं भावात्मक विरासत के रूप में मिलने वाले साधनों में भाषा एक प्रमुख साधन है। प्रायः इसे विचार विनिमय अथवा संप्रेषण के साधन के रू...

सांस्कृतिक एवं भावात्मक विरासत के रूप में मिलने वाले साधनों में भाषा एक प्रमुख साधन है। प्रायः इसे विचार विनिमय अथवा संप्रेषण के साधन के रूप में परिभाषित किया जाता है। हम में से अधिकांश लोग भाषा को इसी रूप में स्वीकार करने के आदी हो गए हैं। इसकी सोचने,महसूस करने तथा वस्तुओं से जुड़ने की उपयोगिता को अक्सर हम भूल जाते हैं। तथा यह भी भूल जाते हैं कि यह प्रत्येक बालक के दृष्टिकोण, उसकी रुचियों, क्षमताओं और यहाँ तक कि उसके मूल्यों और मनोवृत्तियों को आकार देने में भाषा एक मज़बूत ताकत के रूप में अपनी भूमिका निभाती है।

प्रत्येक बालक चाहे उसकी मातृभाषा हिन्दी हो या कोई अन्य भाषा वह उसका प्रयोग कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करता है और उसमें से प्रमुख उद्देश्य है दुनिया को समझना और इसके लिए भाषा एक प्रमुख औजार का काम करती है। जब तक बालक के अविभावक तथा हम अध्यापक बच्चे के जीवन में भाषा की भूमिका समझने में असमर्थ रहते हैं तब तक उसकी देखरेख में अपनी भूमिका तय नहीं कर पाते । बालकों की भाषा का सम्बन्ध अपने हाथों व शरीर से किए गए कार्यों तथा सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं के अनुभवों पर आधारित होता है। इन क्रियाओं व अनुभवों को आत्मसात करने के लिए शब्दों की आवश्यकता होती है। कोई अनुभव जब पूर्ण हो जाता है तब भी शब्दों के माध्यम से वह उपलब्ध रहता है। बालक जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उनसे सम्बन्ध बनाने के लिए शब्दों की सहायता लेता है। इसके अतिरिक्त ऐसे शब्द जो उनके सक्रिय अनुभवों से व वस्तुओं से जुड़े नहीं होते,उनके लिए खाली एवं बेजान होते है।

बच्चे में शारीरिक विकास के साथ-साथ अपने आस-पास व सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं को जानने की जिज्ञासा निरन्तर बढ़ती रहती है। थोड़े से माता-पिता अथवा अविभावकों के अतिरिक्त अधिकांश के पास इतना समय नहीं होता कि अपनी दिनचर्या में चीजों को देखने और करने में बच्चों की धीमी रफ़्तार को जगह दे सकें। इसलिए बच्चों के शारीरिक अनुभवों और शब्दों के मध्य यह सम्बन्ध हम अध्यापकों के ऊपर एक निराली जिम्मेदारी डालता है। अतः हमारा यह कर्त्तव्य बन जाता है कि हम विद्यालय में एक ऐसा वातावरण तैयार करें जिससे बालक निरन्तर भाषा को जीवन के अनुभवों और वस्तुओं से जोड़ सकें। ऐसा करने के लिए अध्यापक स्वयं और बच्चों के माध्यम से पत्तियाँ,पंख,पत्थर तिनके इत्यादि एकत्रित करवाएँ,उन पर बालकों से चर्चा करें उन्हें अतिरिक्त जानकारी प्रदान करवाएँ तथा समयानुसार विद्यालय के बाहर फैली दुनिया से उनका परिचय करवाने का प्रयास करें।

बालक अपनी बुनियादी क्षमता प्राप्त करने के साथ ही भाषा का प्रयोग अपने कार्य का संचालन करने,दूसरों का ध्यान आकर्षित करने ,खेलने,समझने, जीवन प्रस्तुत करने, तैयारी करने तथा पड़ताल और तर्क करने आदि विभिन्न उद्देश्यों के लिए करना प्रारम्भ कर देता है। बालक में विद्यालय में प्रवेश लेने से पूर्व भाषा की अनेक क्षमताओं का विकास हो चुका होता है वह घरेलू भाषा में ही सही वार्तालाप में अनेक शब्दों का प्रयोग कर सकता है। हमें प्रारम्भ में उनके उन शब्दों को भाषा में स्थान देना चाहिए तथा धीरे-धीरे कविता, कहानी, वार्तालाप आदि के माध्यम से उनके पर्यायवाची शब्दों से उनका परिचय करवाना चाहिए तथा उन्हें बोलने अथवा उच्चरित करने के समुचित अवसर प्रदान करवाने चाहिए।

प्रायः यह देखने में आता है कि जब विद्यार्थी कक्षा में बात करते हैं तो हम अध्यापक उन्हें तुरन्त रोक देते हैं। मात्र अर्धावकाश के समय ही उन्हें परस्पर बात करने की स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार हम भाषा सीखने के एक महत्त्वपूर्ण साधन जिसके लिए हमें कुछ भी व्यय नहीं करना पड़ता , को हम व्यर्थ गँवा देते हैं। जब बच्चे बोरियत के कारण बात करते है तो वे शिक्षक के लिए उपयोगी नहीं है परन्तु जब बालक चूकी हुई वस्तु को दूसरे को दिखाने की बात करता है तो वह बात सीखने की प्रक्रिया में मदद करती है। मान लो कोई अध्यापिका कक्षा में रजिस्टर भर रही है और एक बालक की दृष्टि उसकी अंगूठी पर पड़ती है। वह अपने मित्र से इस बारे में वार्तालाप करता है -

पहला बालक:- देखो! आज मैडम ने अंगूठी पहनी है।

दूसरा बालक:- तुमने पहले नहीं देखी?

पहला बालक:- नहीं.....हाँ, मैंने पहले देखी है।

दूसरा बालक:- लेकिन यह अंगूठी दूसरी है।

पहला बालक:- मैड़म ने नई अंगूठी खरीदी है। यह पहले से छोटी है।

दूसरा बालक:- नहीं पतली है।

यदि हम बालकों में हुए इस छोटे से वार्तालाप का विष्लेषण करें तो हम उन सम्भावनाओं को पहचान जाएँगे जो बातचीत के माध्यम से इन बच्चों का उपलब्ध हुई । बालक ने बातचीत आरम्भ की तो दूसरे को याद आया कि मैड़म पहले भी अंगूठी पहनती थी पर उसमें और इसमें फर्क है। यदि वे परस्पर वार्तालाप न करते तो उन्हें देखने का अवसर न मिलता तथा यह भी न समझ पाते कि यह पहले वालों से छोटी नहीं पतली है । अतः हमें चाहिए कि हम बालकों को अपने तथा विद्यालय के अनुभवों के सम्बन्ध में बात करने , तस्वीरों इत्यादि पर चर्चा करने के समुचित अवसर प्रदान करें। हम उन्हें चित्रों में वस्तुएं ढूँढने तथा उनके नाम लिखने को कह सकते हैं तथा उनसे उन चित्रों पर चर्चा एवं तर्क-वितर्क करके नवीन जानकारी प्रदान कर सकते हैं तथा आरोपण , भविष्यवाणी तथा सम्बन्ध स्थापित करने आदि कार्यों के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। इसी प्रकार बच्चों को कहानियाँ सुन कर भाषा सिखाने में सहायता मिल सकती है। अतः हमें बालकों को मूक बैठाने के स्थान पर उन्हें वार्तालाप के अवसर प्रदान करने चाहिए। यदि बालक कुछ कहना चाहता है तो उसकी पूरी बात सुननी चाहिए तथा अपनी प्रतिक्रिया विस्तार से देनी चाहिए । हाँ और नहीं में उत्तर देना सही नहीं है। अकसर चुप रहने वाले बच्चे अध्यापकों के लिए चिंता का विषय हो सकते हैं। ऐसे बालकों के प्रति विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। हो सकता है कि उनके चुप रहने का कारण उनका पारिवारिक वातावरण हो । घर या गाँव का दमघोंटू माहौल का असर काफी गहरा होता है और उसे दूर करना सुगम नहीं है। एक संवेदनशील अध्यापक जो समस्या को जड़ से समझता हो समाज के साथ बच्चों के सम्बन्ध में चमत्कारपूर्ण परिवर्तन ला सकता है।

छोटे बालकों को पढ़ना सिखाना प्रारम्भिक कक्षाओं के अध्यापक के लिए बड़ी एवं कठिन चुनौती है क्योंकि यह एक साधारण कौशल नहीं है, इसमें कई कौशल एवं बोध क्षमताएँ शामिल हैं। प्रथम कक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्र के लिए पढ़ना एक बिलकुल नई चीज़ होती है इसलिए मातृभाषा शिक्षण सीधे अक्षर ज्ञान से नहीं करवाया जाना चाहिए इसलिए पुस्तक के प्रारम्भ में बने चित्रों की ओर बच्चों का ध्यान केंद्रित कर उन चित्रों पर रोचक और उपयोगी बातचीत करके पढ़ने के लिए आधार प्रस्तुत करना आवश्यक होगा । इससे बच्चों की आँख पुस्तक में छपे किसी चित्र का नाम देखने के लिए प्रशिक्षित होगी तथा बच्चों की स्वाभाविक झिझक दूर होने के साथ-साथ भाषा को समझने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास होगा।

मातृभाषा का पढ़ना सिखाते समय इस बात का विशेष महत्त्व है कि बालक के पूर्व अनुभवों द्वारा अर्जित भाषा के मौखिक ज्ञान की पृष्ठभूमि का लाभ उठाते हुए ,भाषा विशेष में प्रयुक्त लिपि-चिह्नों का पढ़ना पहले सिखाया जाए और क्रम प्रयुक्त लिपि चिह्नों का बाद में । जिन लिपि-चिह्नों की आवृति भाषा में अधिक है पहले उन्हें ही लिखाया जाए। इससे एक लाभ होगा कि कुछ ही लिपि चिह्नों को सीखने के बाद बालक अपनी मातृभाषा के दैनिक जीवन में प्रयोग आने वाले परिचित शब्दों को अनायास ही शीघ्रतापूर्वक पढ़ने लगेगा और पढ़ने में उसकी रुचि बढ़ती जाएगी।

उदाहरण के लिए हिन्दी के प्रत्येक लिपि चिह्नों की आवृत्ति समान नहीं होती है। न,ल,प,स,ब,क,र,घ आदि व्यंजनों का प्रयोग छ,ठ,ण,ट,ड्ढ आदि की तुलना में कहीं अधिक कम होता है। बालकों को यदि अधिक प्रयुक्त लिपि चिह्न पहले सिखाए जाएँ तो वे उनसे बनने वाले अधिकाधिक शब्दों को सरलता से पढ़ना सीख सकेंगे। मान लो पहले बालक को ‘प’ वर्ण सिखाने के बाद ‘प’ में ‘आ’ की मात्रा लगा कर ‘पा’ लिखना सिखाया जाए और फिर उसे बता दिया जाए कि पा को दो बार लिखने से ‘पापा’ शब्द बन जाता है तो वह बहुत प्रसन्न होगा और बार बार उस शब्द को लिखने का प्रयास करेगा और हो सकता है वह घर के सदस्यों को भी वह यह शब्द बार-बार लिख कर यह कहते हुए बताए कि मुझे पापा लिखना आ गया। क्योंकि बालक उन्हीं कार्यों को करने में अधिक रुचि दिखाते हैं जिनका फल तुरन्त मिलता है। इसके बाद प वर्ण से बनने वाले पापी ,पीपा,पाप इत्यादि सार्थक शब्दों का ज्ञान करवाया जाए । इसके पश्चात ‘न’ वर्ण सिखा कर नाना, नानी, नीना इत्यादि शब्द सिखा कर उन दोनों वर्णों से मिलकर बनने वाले शब्दों जैसे-पान, पाना ,पीना ,पानी ,नाप,नापना इत्यादि शब्दों का ज्ञान करवाया जाए तो कुछ ही दिनों में बालक पापा पानी पी, नाना पानी पी, नानी पानी पी आदि वाक्यों को पढ़ने व लिखने की क्षमता प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार बालक प्रारम्भ से सार्थक पठन और लेखन करने के अभ्यस्त हो सकते है।

अन्ततः मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि भाषा शिक्षण में अध्यापक का ही सबसे बड़ा योगदान होता है। कहना या उपदेश देना अत्यन्त सरल कार्य है परन्तु उसे कार्य रूप प्रदान करना बड़ा ही कठिन होता है। भाषा शिक्षण की कोई एक विशेष विधि नहीं हो सकती। एक अच्छा अध्यापक ही कक्षा, विद्यालय व उसके आस पास के वातावरण का समुचित प्रयोग करके भाषा शिक्षण द्वारा बालक के दृष्टिकोण अभिरुचियों ,क्षमताओं ,मूल्यों एवं मनोवृत्तियों को एक नया आकार प्रदान कर सकता हैI

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रचनाकार: ओम प्रकाश का आलेख - भाषा शिक्षण व अध्यापक
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