ओम प्रकाश शर्मा का आलेख - अध्यापक कार्य निष्पादन व गुणवत्ता

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अध्यापक कार्य निष्पादन व गुणवत्ता बालकेन्द्रित शिक्षा में यद्यपि अध्यापक की भूमिका में आमूलचूल परिवर्तन आ गया है फिर भी इस बात को अस्वीकार ...

अध्यापक कार्य निष्पादन व गुणवत्ता

बालकेन्द्रित शिक्षा में यद्यपि अध्यापक की भूमिका में आमूलचूल परिवर्तन आ गया है फिर भी इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि विद्यालय का एक मात्र अपरिहार्य उपकरण शिक्षक है। उच्च न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार शिक्षक सरकारी कर्मचारी नहीं है। वह तो भावी पीढी का निर्माता है। शिक्षक से बढ़ कर समाज में किसी का स्थान नहीं है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि शिक्षक का वेतन नहीं दिया जा सकता हम उन्हें जो देते हैं वह तो अनुदान है। जब समाज शिक्षक को इतना सम्मान देता है तो शिक्षक का प्रथम कर्त्तव्य बन जाता है कि वह समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। उसका चरित्र विद्यार्थियों और समाज के लोगो के लिए अनुकरणीय हो। वह उनके लिए एक आदर्श का कार्य करे। शिक्षक अपने विद्यालय का वैज्ञानिक है और कक्षाएँ उसकी प्रयोगशालाएँ है। वह विद्यालय / कक्षाओं में एक मात्र जीवित उपकरण है जिसमें मानवीय विरासत का कोई हिस्सा या पहलू जीवंत है,उसके पास हस्तांतरण करने के लिए कुछ ऐसी चीज़ है जिसको हस्तान्तरित करने में वह पारंगत है। बच्चों को गुणवत्ता शिक्षा प्रदान करने के लिए अध्यापक कर्म हेतु कुछ मापदण्डों को अपनाना होगा ।

योग्य और उत्साही एवं प्रशिक्षित अध्यापकों की उपलब्धता जो अध्यापन को अपनी आजीविका के विकल्प के रूप में देखते हैं विद्यालयों के सभी वर्गो में गुणवत्ता शिक्षा के लिए एक आवश्यक शर्त है। शिक्षा की कोई भी व्यवस्था अपने शिक्षकों की श्रेष्ठता से ऊपर नहीं उठ सकती और अध्यापकों की श्रेष्ठता उन्हें चुनने के साधन,प्रशिक्षण प्रक्रिया और उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करने के लिए प्रयुक्त मापदंडों पर निर्भर करती है। पूर्वनिर्धारित अध्यापकों की भर्ती, प्रशिक्षण व सेवा शर्तों को हलका करके विद्या उपासकों, पैरा-टीचर, अविभावक एवं अध्यापक संघ के अधीन अध्यापकों की नियुक्ति कर मानकों को हल्का करना बहुत ही चिंताजनक है जो गुणवत्ता शिक्षा के ऊपर एक प्रश्न चिह्न है। आज किसी भी पद के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है परन्तु जब भावी पीढ़ी के निर्माता शिक्षक के चयन की बात आती है तो सभी नियमों को ताक पर रखा जाता है। होना तो यह चाहिए कि अध्यापक जैसे पवित्र कर्म के लिए शैक्षणिक वरीयता के आधार पर चयन हो परन्तु आज इसके विपरीत होने जा रहा है जो नहीं होना चाहिए।

हमारे देश अथवा प्रदेश के राजकीय विद्यालयों का वातावरण एक सा नहीं है जैसे कई विद्यालय शहरों में हैं जहाँ अनेक प्रकार की सुविधाएँ हैं तो कई विद्यालय दूर पिछडे क्षेत्रों में हैं जहाँ अभी तक भी सड़कों का निर्माण नहीं हुआ वहाँ तक पहुँचने के लिए पैदल चल कर जाना पड़ता है। बालक के पाठ्यक्रम में जिन वस्तुओं स्थानों आदि का वर्णन होता है वे उससे अपरिचित होते है और कई बार उनको न समझते हुए भी याद करने के लिए बाध्य हो जाते है। ऐसी अवस्था में विद्यार्थियों को गुणवत्ता शिक्षा प्रदान करने का पूरा उत्तरदायित्व सीधा अध्यापक पर है क्योंकि हमारे प्रदेश में चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी वाली बात पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है अतः अलग-अलग प्रदेश के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम का निर्माण नहीं किया जा सकता। अतः यह अध्यापक की योग्यताओं पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार अपने परिवेश को दृष्टिगत रखते हुए पाठ्यक्रम के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपने कार्य का निष्पादन करता है। इसके लिए अध्यापकों का सुप्रशिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है। सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत अध्यापकों को विषय विशेष में दिए जा रहे प्रशिक्षण का प्रभाव विद्यार्थियों द्वारा ग्रहण की जा रही शिक्षा पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। अब वे मात्र सूचना एकत्र करने वाले नहीं लगते। उनका ज्ञान समझ में बदलने लगा है तथा वे उसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में भी करने लगे हैं।

एक प्रशिक्षित अध्यापक अपने विद्यालय के भवन, वहाँ के सामाजिक एवं साँस्कृतिक वातावरण तथा बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए एक शैक्षणिक वातावरण तैयार करने में सक्षम होना चाहिए जिससे छात्र स्वतः ही प्रतिदिन विद्यालय आने की हठ करने लगे न कि विद्यालय के नाम से रोने लगे। दूसरे शब्दों में विद्यालय विद्यार्थी के लिए एक आकर्षण का केन्द होना चाहिए । जिस प्रकार एक माँ की गोद को छोड़ना नहीं चाहता उसी प्रकार छात्र को विद्यालय लगना चाहिए जिससे दूर रह कर उसे लगे कि उसके जीवन में कुछ खो गया है। ऐसा तभी संभव हो सकता है जब विद्यालय के पर्यावरण में उन्हें खेल, मनोरंजन आदि के साधन घर से अधिक दिखाई देंगे तथा विद्यालय के वातावरण निर्माण में उनकी सहभागिता को सुनिष्चित किया जाएगा। यूँ भी विद्यालय बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र होते हैं क्योंकि उन्हें एक साथ इतने अधिक मित्र प्रतिदिन एक ही स्थान पर अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकते। अतः उनके इस लोभ को शैक्षणिक गतिविधि में किस प्रकार बनाए रखना है तथा उसका प्रयोग सीखने की प्रक्रिया में किस प्रकार करना है यह अध्यापक के शैक्षणिक कौशल पर निर्भर करता है। शिक्षक का व्यक्तित्व और उसके द्वारा विद्यालय में करवाई जाने वाली गतिविधियाँ विद्यार्थियों के लिए अत्यधिक महत्त्व रखती हैं। शिक्षक का व्यवहार बालक के प्रति सौहार्दपूर्ण होना चाहिए ताकि बालक अपनी समस्याओं को उसके समक्ष प्रकट कर सके। वे उसे अपने माता-पिता के समान ही अपना शुभचिंतक समझें तथा हृदय से उसका आदर करें । आदर या सम्मान आतंक के वातावरण से प्राप्त किया जा सकता है परन्तु वह अस्थायी होता है तथा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बाधक है। बालक स्वभाव से ही जिज्ञासु होता है ,अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वह कई प्रकार के प्रश्न पूछता है जो बिलकुल सहज व अटपटे भी हो सकते है। शिक्षक को उनकी जिज्ञासा को शान्त करने का यथा सम्भव प्रयास करना चाहिए। इससे बालक के मन में अध्यापक के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है जो उसे अधिक सीखने के लिए प्रेरित करता है। अध्यापक को विद्यार्थियों के साथ निकट सम्बन्ध स्थापित कर उनको विद्यालय की सफाई एवं सुरक्षा तथा कक्षा को साफ तथा सुन्दर बनाने का कार्य सौंपना चाहिए। इससे उनके अन्दर एक उत्तरदायित्व की भावना जागृत होती है। वे कर्म की ओर प्रेरित होते हैं। इसके लिए उन्हें समय-समय पर प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि इससे बालक का मनोबल बढ़ता है।

अध्यापक अपने परिवेश को समझ पाठ्यक्रम के लक्ष्यों को अपनी समझ और अनुभव से प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। एक शैक्षिक वातावरण तैयार करने के साथ साथ शिक्षार्थियों के शैक्षणिक स्तर व पृष्ठभूमि को जानना अध्यापकों का पहला कर्त्तव्य है। उनकी सामाजिक आर्थिक दशा,उनकी बोली आदि का ज्ञान अध्यापक को उन्हे सिखाने की प्रक्रिया में अत्यन्त सहायक होता है। अध्यापक उनकी इन बातों से पढ़ाने के अपने तरीके निकाल सकता है। उनकी बोली के शब्दों के माध्यम से वह भाषा के ज्ञान को सुगमता से करवा सकता है। अध्यापक को पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकों को बालकों के स्वभाव और परिवेश की संगति में कक्षा के अनुभवों के साथ संयोजित करने में स्वयं को सक्षम बनाना चाहिए। उसे ज्ञान को सूचना से अलग तथा शिक्षण कार्य को एक व्यावसायिक गतिविधि का रूप प्रदान करना चाहिए क्योंकि सक्रिय गतिविधि के माध्यम से ही बालक संसार से अपने लिए अर्थग्रहण करने का प्रयास करता है। इसलिए अध्यापक द्वारा प्रत्येक साधन का प्रयोग इस तरह किया जाना चाहिए ताकि बालक स्वयं को अभिव्यक्त करने, वस्तुओं से व्यवहार करने, अपने प्राकृतिक व सामाजिक परिवेश की खोजबीन करने तथा स्वस्थ रूप से विकसित होने में सक्षम हो सकें।

अन्ततः यह कहा जा सकता है कि अध्यापक का चयन अपेक्षित शैक्षणिक वरीयता के आधार पर होना चाहिए। एक शिक्षक पर भावी पीढ़ी अथवा जन संसाधन के निर्माण का उत्तरदायित्व हैँ उसका सुप्रशिक्षित होना तथा हर क्षेत्र में निरन्तर हो रहे बदलाब से परिचित होना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि उसे अपनी कक्षाओं में बालकों को सिखाने में अपने विवेक के साथ मदद करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है फिर सुप्रशिक्षित अध्यापक अपने कार्य निष्पादन में अधिक सफल होते है। अतः यह आवश्यक है कि समय-समय पर कार्यशालाओं का आयोजन कर उसको अन्य अध्यापकों के साथ अपने अनुभवों को बाँटने तथा दूसरों के अनुभवों से सीखने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए तभी वह अपने कार्य निष्पादन द्वारा विद्यार्थियों को गुणवत्ता शिक्षा प्रदान कर सकता है।

 

ओम प्रकाश शर्मा,

एक ओंकार निवास,

छोटा शिमला

शिमला,

हिमाचल प्रदेश पिनकोड- 171002

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रचनाकार: ओम प्रकाश शर्मा का आलेख - अध्यापक कार्य निष्पादन व गुणवत्ता
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