राजश्री का आलेख - एक प्रवासी भारतीय का सपना

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    एक प्रवासी भारतीय का सपना आजीविका, साहस, घूमन्तूपन नयी जमीन या पृथ्वी का दूसरा छोर ढूंढना,  मानव के अलग अलग जमीनों पर बसने  ओर सपने बु...

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एक प्रवासी भारतीय का सपना
आजीविका, साहस, घूमन्तूपन नयी जमीन या पृथ्वी का दूसरा छोर ढूंढना,  मानव के अलग अलग जमीनों पर बसने  ओर सपने बुनने की कहानी नयी नहीं है। बहुत पहले एक प्रवासी भारतीय ने दक्षिण अफ्रीका में भारत की आजादी का सपना देखा और वह वकालत छोड कर पुनः देश लोट आया।  भारत को आजाद हुऐ सढसठ वर्ष हो चुके है। भारतीय आजीविका, बेहतर जीवन या बेहतर कार्यप्रणाली की तलाश में आज भी देश छोड़ कर जाते हैं वैसे ही जैसे गांधी गये थे किंतु परिस्थितियॉ अब बहुत अलग है। वे देश लोटे बिना ही देश के लिये काम करते हैं। 2013 में प्रवासी भारतीयों द्वारा किया गया निवेश 71 अरब डालर का था। भारत की आर्थिक व्यवस्था में अनिवासी भारतीय भी एक आधार स्तम्भ है चाहे वह दुबई के माल बनाने वाला मजदूर हो या सिलिकान वेली का पूंजीपति इंजीनियर।  वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैं विदेश में रहकर भी "विदेशी" नहीं हूं।
सपने भी वक्त के साथ बदल जाते हैं। विदेशी भूमि पर आते ही अधिकतर भारतीयों को सबसे पहला विचार आता है हमारा देश भी ऐसा ही साफ सुथरा हो जाये। दिनभर मेहनत के बाद सबको रिजनेबल अच्छा खाना मिले। दिनप्रतिदिन की जिंदगी में आवश्यक सुविाधाऐं, बिजली, पानी, टेलिफोन, गैस के लिये दिनों चलने वाली किचकिच  न रहे। मेकडोन्ल, पित्जा, लेविइस का होना आर्थिक विकास का एक आयाम है। भारत में यह एक फैशन है जबकि पश्चिम में वह एक आम आदमी की जरूरत है। यहां पर आम की आदमी की जरूरत लाइब्रेरी भी है।


मेरे दादाजी सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, मध्यभारत में स्वास्थय मंत्री रहे डा प्रेमसिंह राठौड़ समाजसुधारक व चिंतक थे। उनके साथ रहते हुऐ मैंने कई दार्शनिकों व चिंतकों को पढ़ा। बचपन में उनकी कई किताबों में से दो किताबें The age of analysis  और History of philosophy में एमर्सन,  हेनरी डेविड थरो, बर्टडें रसेल, आदि को टुकडों टुकडों में पढकर, आधा पोना समझकर मेरे मन में हमेशा एक सपना पलता था उन लोगों के बारे में अधिक जानने का। अमेरिका में आते ही मेरा सपना साकार हुआ। छोटे से टेरीटाउन की लाइब्रेरी मुझे बहुत बडी लगी। वैसे ही जैसे किसी कुंऐ के मेंढ़क को तालाब बडा लगता है। यहां हर छोटे से टाउन में भी लाइब्रेरी होती है। पूरी काउंटी की लाईब्रेरी एक नेटवर्क से जुडी है और काउंटी में रहने वाला किसी अन्य टाउन में उपलब्ध उस किताब का आग्रह कर सकता जो उसकी लाइब्रेरी में न हो। वह किताब उसे टाउन की लाइब्रेरी में उपलब्ध करवायी जाती है क्योंकि पश्चिम में ज्ञान व शिक्षा ही विकास का आधारस्तम्भ माने जाते हैं। हमारे यहां भी बडे बडे माल बनने से पहले लाईब्रेरी बने। पुरानी लाइब्रेरी के जीर्ण शीर्ण भवन सुधारे जायें। 


भारत में प्रचलित शिक्षा पद्धति में मुझे कभी यह अवसर नहीं मिला की साहित्य व दर्शन का  विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सकूं। यहां की लाइब्रेरी व कालेज पद्धति ने मेरे लिये यह द्वार खोल दिया। पश्चिम की सबसे बडी विशेषता है कि जानने व सीखने में उम्र का कोई बंधन नहीं है। भारत में वयस्कों को इस तरह के कोई अवसर उपलब्ध नहीं है।   जब मैंने शेक्सपियर से संबधी कोर्स लिया मेरे साथ दो बुजुर्ग थे वे रिटायर होने के बाद शेक्सपियर पढ़कर उसका समालोचनात्मक व प्रतीकात्मक पहलू जानना समझना चाहते थे। मुझे लगता है भारत के कालेजों को भी साहित्य, दर्शन, गणित के कोर्स हर किसी के लिये खोल देना चाहिये।  मैंने यहां पर कम्यूनिटी कालेज में विविध प्रकार के कोर्स किये। मेरा एक सपना अभी बाकी है Critical thinking in philosophy करने का।


भारतवासी पश्चिम का अंधानुकरण न करके पश्चिम में जो सर्वोत्तम हो उसे अभिसात करें जैसे पश्चिम की राजनैतिक चेतना, महिलाओं के अधिकार, स्वयंसेवक कार्य, कानून का पालन आदि। आज मेरी पाश्चात्य नारी मित्र स्वयं को खुशनसीब समझती है कि उन्होने पश्चिम में जन्म लिया एशिया या अफ्रीका में नहीं। ये एक विचारणीय तथ्य है। वे आक्रमक लगती है क्योंकि वे अपनी स्वतंत्रता के लिये मुखर है। वे कहती है बहुत संघर्ष के बाद उन्होने समानाधिकार पाया है। भारतीय नारी स्वतंत्रता का वर्तमान रूप पश्चिम में नहीं है। भारत में कई बार ऐसा लगता है जैसे "फेमिनिज्म" को स्त्री और पुरूष  दोनों ही एक टेबू की तरह मानते हैं -पुरूष से नफरत या सेक्स की स्वछंदता।  यहां नारी स्वतंत्रता नहीं अब समानाधिकार की बात होती है। मैं कई बार सुनती हूं "वी आर हयुमन फर्स्ट।"


अमेरिका में हर चौथा व्यक्ति स्वयंसेवक है और औसतन पचास घंटे स्वयंसेवा का कार्य करता है चाहे वह लाइब्रेरी हो पार्क हो या स्कूल । मैं जब अमेरिका आयी थी तब मैंने न्यूयार्क टाइम्स में एक लेख पढ़ा कि किस तरह से अप्रवासी आते हैं इस देश की सुविधाओं का लाभ उठाते हैं किंतु वालेंटियर वर्क नहीं करते। मैंने उसी दिन से ठान लिया था कि मैं वो अप्रवासी नहीं बनूगीं। मैं बहुत ही सक्रियता से स्कूलों में वालेंटियर बनी। मुझे खुशी है लाफयेत जैसे श्वेतबहुल टाउन ने मुझे पूर्णता से अंगीकार किया। मैंने सीखा कि जब समुद्र पार कर ही लिया तो एक द्वीप में न खो जाउं।  यहां अधिकांश भारतीय आज भी अपने छोटे छोटे द्वीप बनाकर रहते हैं। उनके लिये समाजसेवा मंदिर या भूखों को खाना खिलाने तक ही सीमित है। मुझे लगता है भारत में भी स्वयंसेवा स्कूल से ही अनिवार्य कर दी जाये।


न जाने क्यो देश में ‘एन आर आई ’ सुनते ही लोग सोचते हैं सोने चांदी के कटोरे हीरे मोती जड़ी चम्मचें!  मैंने एफिल टावर पर बंगलादेशी और भारतीय बच्चों को एफिल टावर व अन्य चीजें बेचते देखा है। इटली में स्कार्फ बेचते हुऐ जिससे महिलायें चर्च जाने से पूर्व अपने कंधे ढंक ले। ऐसे बच्चें विश्व के हर विकसित देश में है। इन बच्चों के सपनों को कोई जमीन नहीं मिलती है। ये  बच्चें सपने देखते हैं भरपेट खाने और भौतिक सुविधाओं को हासिल करने के।
सपने बीज की तरह है जिन्हे पल्लवित होने के लिये जमीन, हवा, पानी, धूप,  सभी चाहिये। सपनों की जमीन शिक्षा और सही दिशा हवा, पानी, धूप है। रात के नौ बजे फरवरी की ठंडी रात में पेरिस में एफिल टावर के नीचे एफिल टावर बेचने वालें इन बच्चों के साथ मैंने थोडा सा ही समय  बिताया।  उन बच्चों  और मुम्बई रेलवे स्टेशन पर बूट पालिश के डिब्बे से उल्लू बनाने वाले बच्चों की चतुराई या धूर्तता में कोई फर्क नहीं था। ये बच्चें मुझे किसी प्याज की तरह लगते हैं। जिन पर काफी अंदर तक चतुराई, झूठ,  धूर्तता आदि की परतें होती है जैसे जैसे पर्त खुलती है वही तीखी गैस निकलती है जिससे आंखों में पानी आता है। विडंबना यह है कि उनकी लाचारी और गरीबी जो कि एक सच है उसे ये हथियार की तरह करूणा भुनाने के लिये प्रयोग में लाते हैं। वे नहीं जानते कि यह एक अंतहीन सडक है इस पर पूरी जिंदगी भीख के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। रोज पेट भरने और सुविधाओं के सपने हवामहल बनकर खत्म हो जायेंगे।  


मेरा सपना यहीं है कि मेरे देश के बच्चे भिखारी बन कर  दर दर भटक कर करूणा को उपजाने में आत्मसम्मान और मानवता न खोये। वे गरिमा से जीवन जीने का सपना देखे। उन्हे शिक्षा की जमीन और दिशा का पूर्ण पोषण मिले। वे प्रवासी भिखारी भारतीय न बने।  दूसरे देश में रह कर शोषित होना बचपन पर दुहरी मार है। अधिकतर प्रवासी भारतीय बच्चों की मदद करना चाहते हैं किंतु वे भ्रष्टाचार के कारण भारतीय संस्थाओं पर विश्वास नहीं करते हैं। एनजीओ से संबंधी वे संस्थाऐं जो बच्चों के लिये का काम करती है उनके लिये कानून सख्त हो। वो संस्थाऐं ईमानदारी से काम करें जिससे प्रवासी भारतीयों का विश्वास उनमें बढ़े। अभी हम लोग अपने घर के और आस पास के बच्चों की मदद करने की कोशिश करते हैं। मैं सोचती हूं  जितना हो सके वो ही सही।
भारत उस दहलीज पर है जहां वह पूर्व पश्चिम दोनों का सर्वोत्तम ग्रहण करके संस्कृति और सभ्यता दोनों में ही सर्वश्रेष्ठ  देश बन सकता है और मैं पूरब और पश्चिम के बीच का एक पुल ही तो हूं  चाहे कितना भी संकरा और छोटा क्यो न हो !

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परिचय-

परिचय
शिक्षा बी एस सी गणित व  एम ए इकानामिक्स तथा विश्व साहित्य‚ दर्शन व भाषा का तुलनात्मक अध्ययन। ग्राफिक्स डिजाइनर व फोटोग्राफर ।
राजकमल से प्रकाशित उपन्यास ‘पशुपति’ जो कि मानव के गुफा से निकल कर संस्कृति की स्थापना व विध्वंस पर लिखा गया है चर्चा में है। अभी "एक बुलबुले की कहानी’ फैंटेसी उपन्यास पर काम कर रही हूं। यह उपन्यास बच्चे से लेकर बूढे तक के लिये है।
कई पत्र पत्रिकाओं व विश्व के कहानी संकलनों में कहानियॉ व  कविताऐं प्रकाशित ।अदिती,  मैं बोनसाई नहीं‚  मुक्ति और नियती‚ नीचों की गली कहानियां विशेष रूप से चर्चा में।
गत कई वर्षो से लाफेयेत केलिफोर्निया में निवास।

 

संपर्क:

3291,Gloria Terrace. Lafayette CA 94549

Email: raghyee@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. उत्तम विचार राजश्री जी भारतीय होने उसके प्रति
    आत्मीयता रखने उसका भला सोंचने और विदेशों
    में भारतीय एन जी ओ के बारे में बताने के लिए आप
    सचमुच बधाई की पात्र हैं राजश्री जी बेशक छोटा सही
    पर आपका प्रयास सराहनीय है भारतीय लोग विदेशी
    धरती पर बेईमानी करने से पाहिले इस देश की इज्जत
    और सम्मान के बारे में जरूर सोंचें

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रचनाकार: राजश्री का आलेख - एक प्रवासी भारतीय का सपना
राजश्री का आलेख - एक प्रवासी भारतीय का सपना
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