हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (4)

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पिछले अंक 3 से जारी..   भी षण गर्मी पड़ रही थी। पंछी तक पेड़ों में छिपे मुँह खोले हाँफ रहे थे। कुम्हारिन हाय-हाय करते हुए बेने से पीठ खुजला...

पिछले अंक 3 से जारी..

 

भीषण गर्मी पड़ रही थी। पंछी तक पेड़ों में छिपे मुँह खोले हाँफ रहे थे। कुम्हारिन हाय-हाय करते हुए बेने से पीठ खुजला रही थी। कुम्हार कमर में गमछा बाँधे बनियान की बत्ती बनाके छाती पर चढ़ाए सोच रहा था कि गर्मी ने तो हाल-बेहाल कर रखा है, मटके का पानी ही है जो ताप से बचा रहा है, नहीं उल्टी-पल्टी मच जाती।

कुम्हारिन बोली- मटके का पानी काफ़ी ठण्डा है।

कुम्हार ने कहा- मैना को ठण्डा लग ही नहीं रहा है, तो काहे का ठण्डा!

सार से बड़े मियां की गुहार उठी।

-बड़े मियां काहे को चीख़ रहे हैं? कुम्हार ने कहा - उनके आगे बड़े मुँह का मटका रख दो, बार-बार पानी देने का झंझट ख़तम हो।

-तुम मिट्टी लाने वाले थे! दो दिन हो गए टालते जा रहे हो। सारा सामान निकल गया है, नया भी लाना है। इस बीच मिट्टी ले आओ।

कुम्हार ने गहरी साँस ली- जब तक मिट्टी की पुरानी उधारी चुकता नहीं होगी, वह मिट्टी कहाँ काढ़ पाएगा? पटवारी ने अपने जासूस तैनात कर रखे हैं, कहीं से जाने का रास्ता नहीं। वैसे भी मिट्टी नहीं लाएँगे तो क्या फरक पड़ जाएगा। अपना काम तो चल ही रहा है।

-कह दो, मिल जाएँगे पैसे, कहीं भागे नहीं जाते हैं।

-कह के देख लिया। आदमख़ोर किसी की सुनता है? उसे तो ख़ून चाहिए।

सहसा मैना उतरी।

कुम्हार ने कहा- मैना रानी, तुम्हारे लिए मटकियाँ सजी हैं जिस मटकी से चाहो, पानी पियो।

मैना पंजों से मटकी का मुँह पकड़े थी और कुम्हार को ऐसे देख रही थी मानों कह रही हो कि पानी तो ठण्डा होता नहीं, ढेरों मटकियाँ सजाने का क्या मतलब!

-पियो न पानी।

मैना अपने सवाल पर अडिग -क्या पिएं, तुम्हारा गरम पानी! मैना उड़ गई।

कुम्हार उदास। काफ़ी देर तक निश्चल खड़ा रहा।

कुम्हारिन रसोई से बोली- कहाँ खो गए?

कुम्हार सोचने लगा, कहीं न कहीं माटी का दोष है। क्यों न इसके लिए जंगल से माटी लाई जाए, फिर उसकी मटकी बनाई जाए। पंछी की एक न एक दिन शिकायत दूर हो ही जाएगी।

कुम्हार पटवारी के आदमियों से बचने के लिहाज़ से अँधेरी रात में जंगल गया- जंगली जानवरों की परवाह किए बिना। काम चलाऊ मिट्टी तो उसे हर क़दम पर मिल जाती। उसे ऐसी मिट्टी चाहिए जिसकी तासीर अच्छी हो। पेड़ों के आस-पास की मिट्टी उसके काबिल न थी, उसे तालाब के किनारे या छोटे-छोटे पानी के गढ़ों की चिकनी मिट्टी चाहिए थी। इसके लिए उसने घने जंगल के पूरब दिशा वाली जगह तै की जिसकी कई बुज़ुर्गों ने तारीफ़ की थी। बड़े मियां का उसने मुँह बाँध रखा था ताकि वह चिल्ला न सके।

देर रात गए जब वह मिट्टी लेकर आया, उसका बुरा हाल था। झाड़-झँखाड़, कँटीली पत्तियों और काँटों से लहूलुहान था। बावजूद इसके भारी प्रसन्न था।

मिट्टी को अच्छे से साफ़ किया गया। कई-कई दिन भिंगोया गया। मुलायम बनाने के लिए ख़ूब रौंधा-गूँधा गया। दस-पंद्रह दिन की मशक्कत का नतीजा था कि घड़ा बनकर तैयार हो गया था। बहुत ही शानदार घड़ा बना था। ज़िन्दगी में शायद पहली बार ऐसा घड़ा बनाने के लिए कुम्हार ने इतनी मेहनत की थी।

उसने सोचा था कि मैना का प्यासा कण्ठ जरूर तृप्त होगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मैना ने पानी में चोंच डाली और तुरंत ही बाहर निकाल ली जैसे पानी उसे तनिक भी पसंद न आया हो।

और वह पंख फड़फड़ा कर उड़ गई। शिकायत के अंदाज़ में।

कुम्हार ज़रा भी दुःखी न हुआ। उसने ज़िद कर ली थी कि बढ़िया मिट्टी वह ढूँढ़कर रहेगा। वह जंगल-जंगल भटकने लगा। चप्पा-चप्पा छानने लगा।

इस बीच वह बीमार पड़ गया। तेज़ बुखार आ गया।

कुम्हारिन ने सोचा ज़रूरत से ज़्यादा दौड़-धूप हो गई है, इसलिए बुखार आ गया। एकाध-दिन में उतर जाएगा।

लेकिन एक हफ़्ता बीत गया, बुखार उतरा नहीं बल्कि बढ़ता ही गया। हाथ-पाँव, कहें, समूचे शरीर में टूटन होने लगी। ऐसी कि वह तड़पता।

कुम्हारिन परेशान हो उठी। वह पास के वैद्य जी को बुला लाई। वैद्य जी अस्सी साल के बूढ़े थे। बड़ी-बड़ी मूँछें, साफा कसते थे। कुम्हार की नब्ज पर उँगली रखे, काफ़ी देर तक आँखें मींचे रहे, फिर आँखें मींचे-मींचे ही बोले- घबराने की कोई ज़रूरत नहीं, थकान से बुखार आया है, उतर जाएगा।

वैद्य जी ने तीन अलग-अलग पुड़ियाँ दीं जिन्हें दिन में तीन-तीन बार खाना था। ख़ूब पानी पीने की सलाह थी। पुड़ियाँ तीन दिन तक खानी थीं।

तीन दिनों तक पुड़ियाँ ली गईं और ख़ूब पानी। लेकिन बुखार नहीं उतरा। कुम्हारिन ठण्डे पानी से बुखार उतारती जाती। बुखार था कि थोड़ी देर बाद फिर अपना असर दिखलाता। फटन अपना काम अलग करती।

कुम्हार चिल्लाता। हाथ-पाँव पटकता। तड़पता।

मैना को जब यह ख़बर लगी, वह उदास हो गई। उसकी वजह से कुम्हार बीमार पड़ा।

सुबह जब कुम्हारिन कुएँ से पानी खैंच रही थी, कुम्हार को बेतरह बेचैनी महसूस हुई, लगा चारों तरफ़ से हवा बंद कर दी गई है जिससे उसका दम घुट जाएगा।

सहसा उसे हल्की-हल्की हवा का एहसास हुआ जैसे कोई बेना झल रहा हो। पलटकर देखा, मैना थी जो सिरहाने बैठी पंखों से उस पर हवा कर रही थी।

कुम्हार की आँखों से आँसू चू पड़े। उठकर बैठता बोला- मैना रानी, तुम क्यों परेशान होती हो।

मैना कुछ नहीं बोली, हवा करती रही।

दोपहर को श्यामल का बाबू उसे अपने ऑटो में बैठाल कर सरकारी अस्पताल ले गया। रास्ते भर वह कहता रहा- भोला, तू चिंता न कर। थकान जम गई है, धीरे-धीरे उतरेगी। देख लेना डॉक्टर भी यही बतलाएगा। तुम भी गजब जिगरे के इंसान हो जो धुन सवार हो गई, करके रहते हो, न दिन देखो, न रात। क्या ज़रूरत थी जंगलों में मारे-मारे फिरने की। अरे, माटी तो सब दूर एक-सी है, कहीं की भी ले लो लेकिन तुम्हें जँचती नहीं। इस दर की नहीं तो उस दर की। इस तालाब की नहीं, उस तालाब की। इस चक्कर में तुम बिंध गए। लेकिन घबराओ नहीं, ठीक हो जाओगे... बैठते नहीं बन रहा है तो सीधे लेट जाओ, हाँ, ठीक है..

कुम्हार लेट गया।

-तो क्या है, गर्मी भी क्या गजब की पड़ रही है, पूरी सड़ी गर्मी है। चील तक आसमान में नहीं दिख रही है... तुम आगे से माटी का चक्कर मत पालना। तुम तो अच्छे- भले प्लास्टिक के गिलास- दोने बेचने लगे थे, ख़ुश भी थे, बीच में पता नहीं क्या सूझा तुम्हें कि दर-दर की ख़ाक छानने लगे।

जितनी बेचैनी कुम्हार को बुखार से नहीं हुई उतनी श्यामल के बाबू की बक-बक से होने लगी। वह घबरा गया। यह कहो, अस्पताल आ गया। उसके प्राण बच गए। श्यामल का बाबू नीम के नीचे ऑटो लगाकर उसे डॉक्टर के पास ले चला।

कुम्हार पत्थर की बेंच पर बैठ गया, दर्द से कराह रहा था।

श्यामल का बाबू पर्चा बनवाने की ख़ातिर लम्बी लाइन में लग गया। बड़ी मारा-मारी थी और चीख़-गुहार। एक घण्टे के बाद पर्ची लिए श्यामल का बाबू आया, यह कहता कि चिल्लर न होने से बाबू ने बीस का नोट रख लिया है। कह रहा है कि डॉक्टर को दिखा लो फिर पैसे ले जाना...

किसी तरह डुगरता कुम्हार श्यामल के बाबू का हाथ थामे, डॉक्टर के पास पहुँचा। डॉक्टर अख़बार की किसी पहेली को भरकर ईनाम जीतने के नशे में था।

कुम्हार स्टूल पर बैठ गया। श्यामल का बाबू उसके पीछे खड़ा था।

पहेली में डूबे-डूबे, बिना कुम्हार की ओर देखे, डॉक्टर ने पूछा- हाँ, क्या हो गया है?

श्यामल का बाबू बोला- साहब, बुखार हो गया है...

-क्या करता है ये?- डॉक्टर पहेली ग़लत भरे जाने पर चीख़ पड़ा- साली यही तो मुश्किल है इसमें- यकायक मुस्कुराया, बुदबुदाया, कोई बात नहीं। मैं इसे जीत के रहूँगा। फिर श्यामल के बाबू से पूछा- क्या करता है ये?

-साब, बताया तो?

-क्या बताया? -डॉक्टर ने अख़बार में डूबे-डूबे नाराज़गी के स्वर में सवाल किया।

-साब, कुम्हारी करता है।- श्यामल के बाबू ने जब कहा तो डॉक्टर बोला- तो धूप-लू में फिरता होगा। इसी से बुखार आया है- डॉक्टर ने पर्ची लिखी और पहेली में खोते हुए कहा- ये लो पर्ची, दवा बाहर से ले ले। पाँच दिन बाद आना... ठीक हो जाएगा।

लम्बी लाइन में लगने के एक घण्टे बाद दवा मिल पाई। श्यामल का बाबू जब कुम्हार को दवा पकड़ा कर बाबू से पैसे वापस लेने गया, एक दूसरा बाबू उसकी जगह काम करता मिला जो किड़किड़ाकर बोला- बैठ जा, घण्टे दो घण्टे में बाबू लौटेगा, रोटी खाने घर गया है।

-घर गया है! घण्टे दो घण्टे में लौटेगा?

-नहीं जाए क्या? -बाबू जलती आँखों उसे देखता बोला।

कुम्हार की हालत ऐसी नहीं थी कि पन्द्रह रुपये के बदले उसे और देर रोका जाए। श्यामल के बाबू ने ऑटो स्टार्ट किया और घर की ओर चल पड़ा।

***

कुम्हार ने दवाई खाई और जब कोई फरक नहीं पड़ा तो उसे दूसरे अस्पताल में ले जाया गया। यहाँ के इलाज़ का भी जब कोई असर न हुआ तो अवध अपने गाँव के एक हकीम को ले आया। इस हकीम ने बताया कि डॉक्टर ने उसे जो दवाइयाँ दी थीं वे किसी भी माने में ठीक नहीं थीं, इसलिए अब जो दवा दी जा रही है वह नुकसान तो करती नहीं, बल्कि इससे फायदा ज़रूर होगा। अल्लाह का नाम लो, दवा खाओ और अल्लाह चाहेगा तो हफ़्ते भर में दवा अपना असर दिखला देगी।

कुम्हार बीमार क्या पड़ा जैसे झोपड़े की शहतीर टूट गई हो। घर में जो लेई-पूँजी थी, इलाज़ में उड़ गई। अब दो वक़्त की रोटी कैसे चले और आगे का इलाज कैसे हो? यह एक बहुत बड़ी समस्या थी।

इस बीच एक दिन पटवारी कुम्हार के झोपड़े पर आ पहुँचा।

कुम्हार खाट से किसी तरह काँखता-कूँखता उठा और कुम्हारिन के लाख मना करने पर भी डगमगाता-सा झोपड़े के बाहर आया और कमज़ोर आवाज़ में, हाथ जोड़ता बोला- मालिक, दिक में फँस गए हैं, बीस दिन हो गए, अन्न मुँह में नहीं डाल पाए, जैसे ही ठीक होते हैं, सबसे पहले आपका पैसा भर देंगे। वैसे भी सरकारी पैसा भला कौन दाब सकता है!

कुम्हार की हालत देखकर पटवारी कुछ नहीं बोला। मन में कहा- अरे बेवकूफ उधारी के लिए भला मैं क्यों आने लगा! मैं तो एक दूसरी बात के लिए आया हूँ। बाद में धीरे से बताऊँगा- वह कुटिलता से मुस्कुराया और आगे बढ़ गया। जाते-जाते यह जरूर कहा कि तू ठीक हो जा फिर बात करेंगे, अभी आराम कर!!!

कुम्हारिन बोली- कितना नाकिस है, सब दीख रहा है, फिर भी दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ।

अवध बोला- सरकारी काम है, बो तो करेगा ही इसमें रियायत भला कैसे हो सकती है।

हफ्ते-दस दिन का ख़र्च तो अवध ने उठा लिया, उसके आगे उसके हाथ तंग थे। पैसा आने के लिए उसने एक रास्ता सुझाया। रास्ता थे बड़े मियां जिन्हें वह मण्डी में लगा देगा। ऐसे मेहनती जानवर को सब दौड़ के रख लेंगे। उसके नाम से वह हफ़्ते- पन्द्रह दिन का पैसा वसूल लाएगा। ऐसा रास्ता सुझाकर अवध दरअसल दो काम करना चाहता था। पहला एक तो वह जीजा की सच्चे मन से मदद करना चाहता था, दूसरा बड़े मियां को ठिकाने लगाना चाहता था जिसने उसे उस दिन कहीं का न छोड़ा था।

कुम्हार अंदर ही अंदर ख़ुश हुआ लेकिन ऊपर से उसने सख्ती बनाए रखी, बोला- बात तो तेरी सही है; लेकिन बड़े मियां को तू मारे-पीटेगा तो नहीं?

-क्यों मारे पीटेगा- कुम्हारिन बीच में बोल पड़ी- कोई बावला है क्या?

कुम्हार ने कुम्हारिन को ऐसे देखा जैसे कह रहा हो कि तू पिछली बार की बात भूल गई है क्या? -कराहते हुए उसने सिर्फ़ इतना कहा- मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा; इतना कहता हूँ कि उससे प्यार से काम लो तो वह जान तक दे देगा।

अवध निरीह भाव से बोला- मैं इतना कमीन भी नहीं जीजा कि बड़े मियां को जबरन तंग करूँ। उस दिन कुछ दिक़्कत आ खड़ी हुई थी और मैंने बड़े मियां से सब सच-सच बतला भी दिया था, लेकिन बो... ख़ैर जान दो... तुम्हें फुर्सत से..

-अच्छा छोड़ तू इस बात को- कुम्हारिन बोली।

सहसा बड़े मियां धीरे-धीरे चलते कुम्हार के पास आ खड़े हुए। दरअसल घर की परेशानी को देखते हुए वे खुद अवध के साथ जाने को तैयार थे।

***

हकीम की दवाई का असर हुआ, कुम्हार अपने को कुछ अच्छा महसूस करने लगा। आठ-दस दिन में वह भला-चंगा हो गया। हाँ, अभी वह काम पर नहीं जा रहा था। बड़े मियां भी नहीं थे, इसलिए वह दूसरे कामों में उलझा था। रह-रह उसे बड़े मियां की याद आती। वह सार की तरफ़ जाता। उसे लगता, बड़े मियां दीवार की ओट में हैं और सी-पो, सी-पो की गुहार लगाने ही वाले हैं।

एक दिन पत्नी ने कहा- क्यों, बड़े मियां की याद आ रही है?

वह चुप रहा, क्या बोले।

पत्नी ने कहा- तुम बोलते क्यों नहीं?

-क्या बोलूँ!

-देखो, बड़े मियां को देने से कुछ तो मदद मिली- ये मानते हो कि नहीं?

-मानता हूँ।

-फिर उसका रंज मत पालो।

-कोई रंज नहीं है, तू काहे ऐसा सोचती है, मैं तो ऐसई सार में आया था।

-सार में तू रह-रह आता है और टेसुए ढरकाता रहता है, क्या मैं समझती नहीं?

कुम्हार से रहा नहीं गया। बोला- अब तू क्या चाहती है कि मैं उसे याद भी न करूँ। मन से निकाल दूँ?

-हे भगवान! मैं ऐसा क्यों कहने लगी। अभी-अभी बीमारी से उठे हो, रंज-संताप पालोग़े तो कोई दूसरी बीमारी पकड़ लेगी, इसलिए मैं सरेख रही थी...

-जीजी, -श्यामल की माँ की आवाज़ थी।

कुम्हारिन आँगन से निकलकर उसकी तरफ़ बढ़ गई।

गजब की औरत है, मन की बात ताड़ लेती है... आँगन में खड़ा-खड़ा मुस्कुराता वह सोच रहा था तभी सड़क पर गाड़ियों के शोर से यकायक ध्यान आया कि सुबह-सुबह लाल बत्ती की गाड़ियाँ बस्ती में क्यों घूम रही थीं। सबसे पीछे जीप थी जिसमें पटवारी और बाबू थे। कुम्हार इन दोनों को ख़ूब अच्छे से जानता है। इस वक़्त दोनों काफ़ी चौकस दीख रहे थे। उनकी निगाहें आगे जाती गाड़ियों पर जमी थीं। गाड़ियाँ बस्ती में इधर से उधर जाती रहीं। यकायक उसके झोपड़े से थोड़ी ही दूरी पर गाड़ियों का काफ़िला रुक गया था। सारे लोग उतर पड़े थे। सबसे आगे की गाड़ी में जो साहब बैठा था, शायद वह बड़ा साहब था, तभी सारे अफ़सरान उसके सामने विनीत भाव से झुके खड़े थे। सबसे पीछे पटवारी और बाबू थे। उसी वक़्त श्यामल का बाबू उसके पास आ खड़ा हुआ और फुसफुसाकर बोला था- कलेक्टर साहब हैं, यहाँ का मुआयना कर रहे हैं। सुना है, पास में कहीं फैक्टरी डलने वाली है, उसी चक्कर में यहाँ आए हैं।

सहसा पटवारी फुर्ती से दौड़ता हुआ-सा बड़े साहब के सामने आ खड़ा हुआ। बड़े साहब ने पटवारी को तलब किया था। बड़े साहब नीम के विशाल पेड़, कुम्हार के झोपड़े, बड़े भारी कुएँ, उसकी गड़ारियों और सामने ख़ाली पड़ी ज़मीन, चाक और मिट्टी के बर्तनों के ढेर को भारी उत्सुकता बल्कि लुब्ध निगाहों से देख रहे थे। आस-पास के झोपड़ों और उनके आगे की ज़मीनों को भी उन्होंने इसी भाव से देखा और अंदर ही अंदर प्रसन्न थे। सहसा हाथ जोड़े सामने खड़े पटवारी से उन्होंने कुछ पूछा। पटवारी ने बहुत ही आदर भाव से झुककर जवाब दिया। सुनाई कुछ नहीं पड़ रहा था, हाव-भाव से लग रहा था कि सवाल-जवाब चल रहे हैं।

सहसा तेज़ी से चलकर बड़े साहब गाड़ी की ओर बढ़े। सारे अफ़सरान अपनी-अपनी गाड़ियों की ओर दौड़े। बड़े साहब की गाड़ी आगे बढ़ी, उसके पीछे सारी गाड़ियाँ चल पड़ीं। पटवारी और बाबू भी दौड़कर जीप में जा बैठे और जीप सबसे पीछे थी।

श्यामल के बाबू ने मुँह बिचकाया, कहा- सरकारी चोंचले हैं। कुछ होना-हवाना नहीं है। तुम्हें क्या लगता है भोला? उसने भोला से सवाल किया।

-हमारी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है...

-हमें तो लग रहा है, शायद यहीं कहीं फैक्टरी लगेगी।

कुम्हार सचेत हुआ, बोला- यहाँ कैसे लगेगी, कोई सरकारी ज़मीन तो है नहीं।

-हाँ, ये बात तो है, लेकिन बड़े साहब जो चाहें कर सकते हैं।

पत्नी की हाँक पर श्यामल का बाबू धीरे-धीरे चलता अपने झोपड़े की ओर बढ़ गया। कुम्हारिन भी खाने के लिए कुम्हार को अगोर रही थी। कुम्हार हाथ-पाँव धोने कुएँ पर गया। थोड़ी देर बाद वह गर्म-गर्म रोटियाँ खा रहा था और चूल्हे के अंगार को ग़ौर से देखता हुआ सोच रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ है तभी बड़े साहब दौरे पर निकले थे, सारे अफ़सरान और पटवारी और बाबू, कहें पूरा अमला बस्ती में था- पत्नी ने बीच में टोका-काहे की चिंता में डूब गए, चैन से रोटी खाओ...

उस वक़्त कुम्हार ने इस बात पर ज़्यादा सोच-विचार न किया, अपने काम में लग गया था और बात आई-गई-सी हो गई थी।

लेकिन तीन-चार रोज़ बाद एक दिन सुबह-सुबह जब पटवारी दरवाज़े आ खड़ा हुआ, वह चिंतित हुआ। क्या मामला है? माटी की उधारी के लिए यह बंदा भला क्यों आएगा? ज़रूर फैक्टरी वाली बात है!

दरअसल कुम्हार की ज़मीन क्या, पूरी बस्ती को कब्जियाने का मामला था। मौक़े की ज़मीन थी, शहर का छोर, चारों तरफ़ खुलापन, हरियाली, पेड़-पौधों का विस्तार। पूरी बस्ती एक प्रभावी मंत्री के भाई को सौंपी जानी थी। शहर का यह छोर उसे भा गया था। किसी भी क़ीमत पर वह इसे पाना चाहता था और यहाँ एक बहुत बड़ी फैक्ट्री लगाना चाहता था। इस सिलसिले में ऊपर ही ऊपर मंत्रणाएँ हुईं। कलेक्टर को प्रभावी कार्रवाई के निर्देश दिए गए। वह इस दिशा में सक्रिय हुआ। उसने संबंधित अधिकारियों से मंत्रणाएँ कीं। अधिकारियों ने पटवारी को पकड़ा। पटवारी को किसी भी तरीक़े से यह काम करके देना था। अब वह कौन-सा रास्ता अख़्तियार करे- यह उसकी चिंता थी। काम भर होना चाहिए।

पटवारी के मत्थे जब यह काम डाला गया, उसका दिमाग़ इस दिशा में सक्रिय हो गया। वह घिसा आदमी था। कौन-सा शिकार कब और कैसे करना है- ख़ूब अच्छे से जानता था। फैक्ट्री लगने की बात उसने फैलाई थी ताकि लोगों के दिलों में हौल बन जाए, फिर वह अपना काम करे। कई दिनों तक वह दाँव-पेंच में था। कौन-सी दाँव डाली जाए कि बिना झंझट के खेल ख़त्म हो जाए। लम्बे सोच-विचार के बाद उसने पाया कि आज के ज़माने में लट्ठ, तलवार और बंदूक-तमंचे की कोई ज़रूरत नहीं। आदमी के पास अपनी ख़ुद की इतनी व्याधियाँ हैं कि वह अपने आप मर रहा है, ऐसे में लट्ठ, तलवार और बंदूक-तमंचा क्या करेंगे? अब आप यह देखिए, जब मैं कुम्हार के पास जाऊँगा तो वह सोचेगा कि साहब क्यों आए? और जब मैं बताऊँगा कि यूँ ही, अनायास तो वह और गहरे उतरेगा कि ज़रूर कोई बात है। साहब बेवजह नहीं आ सकते। वह हज़ार तरह की आशंका पालेगा और इसी आशंका में तिल-तिल घुटने लगेगा। इसमें मेरा रोल सिर्फ़ इतना होगा कि इक्के-दुक्के मैं उसके दरवज्ज़े खड़ा होता रहूँ। मान लो, वह मेरी मंशा जान जाए और विरोध में खड़ा भी होगा तो कितने दिन? उसका हितू बनते हुए मैं उसे इतना थका दूँगा कि वह एक-न-एक दिन हथियार डाल देगा। फिर लम्बी लड़ाई वह लड़ भी नहीं सकता। रोज़ कुँआ खोदकर पानी पीने वाले लोग अपने हक़ के लिए अधिकतम 10-15 दिन लड़ सकते हैं, उसके बाद वे भाग खड़े होते हैं। लड़ें कि रोज़ी-रोटी देखें।

कुम्हार को वह पहले अपनी गिरफ़्त में लेगा, उसी के बहाने सभी लोग यानी बस्ती के सारे लोग उसके शिकंजे में आ जाएँगे। और बस फिर उसका काम बना समझो।

आशंका में होने के बावजूद कुम्हार ने दोनों हाथ छाती पर जोड़ झुककर नमस्कार किया और बैठने की जुगत के लिए वह अंदर से खाट लाने के लिए हुआ कि पटवारी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बहुत ही विनम्रता से कहा- ज़रा भी परेशान न हो भोला! मैं तो तेरी ख़ैर-ख़बर लेने यूँ ही आ गया। बस जाता हूँ...

-अरे मालिक- भोला भाव-विह्वल हो गया, पाँव छूता बोला- आप दरवाज़े पर आए, मैं तो तर गया... तनिक बैठें, ऐसे कैसे चले जाएँगे?

-अरे, सिर पर भारी काम है, ये अफसर लोग बैठने कहाँ देते हैं? ख़ुद तो कुर्सी तोड़ेंगे, हमें धूप लू बारिश में ढकेलते हैं... अब तो तू ठीक है न? बड़ा तंग हुआ, लम्बा डल गया...

-हाँ मालिक! हालत बिगड़ गई।

-मैंने सोचा, इधर से निकल रहा हूँ, तुझसे मिलता चलूँ... अब तुम यह मत सोचना कि मैं किसी काम से आया, माटी की उधारी के लिए आया... न बाबा, टूटे आदमी को मैं कभी तोड़ना नहीं चाहता। तेरे पास जब पैसे हों तो दे देना, न हों तो सच्ची बतला देना, अपन आगे-पीछे देख लेंगे...

कुम्हारिन दीवाल की आड़ में खड़ी थी, उसने इशारा किया जैसे कह रही हो, इसके चक्कर में मत आना, यह बहुत ही दुष्ट है, मीठी बात करेगा, फिर गला काटेगा, भगौती को इसने कहीं का न रक्खा, सारी ज़मीन दूसरे के नाम करवा दी...

कुम्हार ज़मीन की तरफ़ देखता बोला- हाँ, मालिक, अभी तो हाथ तंग हैं, सब कुछ जल गया, राख ही राख है।

कुम्हार अंदर से खाट ले आया, बिछाता बोला- मालिक, खड़े न रहें, बैठ जाएँ। आपके आने से मैं जी उठा!

-ऐसा कुछ नहीं हूँ मैं,... पटवारी खाट पर बैठ गया, पैर ऊपर चढ़ा लिए, बोला- आज बहुत थक गया हूँ, बाबू बीमार है, इसलिए सारा काम मेरे मत्थे आ लगा। तुम्हें लगता होगा, मैं राज भोग रहा हूँ, चैन से हूँ और माल झाड़ रहा हूँ। मेरी हालत सबसे खस्ता है। एक दिन की छुट्टी मुझे नसीब नहीं, दिन-रात इधर-उधर भागने के कोई काम नहीं, ऊपर से साहब लोग और डंडा किए रहते हैं। हालत ख़राब है। मज़े ऊपर के लोग मारते हैं मैं तो धक्के खाने के लिए हूँ, फिर सोचता हूँ, ठीक है जो नसीब में है, उससे अलग की ख़्वाहिश काहे की...

यकायक पटवारी चुप हो गया और भोला की ओर देखने लगा फिर बोला- अरे, तुम भी तो बैठो, हाँ, हाँ, पाटी पर बैठ जाओ, अरे, नीचे काहे को बैठते हो...

भोला ज़मीन पर बैठ गया, बोला - हुजूर, मेरी जगह यहीं है, लाख लोग कहें। आपके बराबर बैठ के मरना है मुझे क्या?

पटवारी ने माथा सिकोड़ा- भोला, अब दुनिया बदल गई है, उसके हिसाब से चलना होगा, जो जहाँ है वहाँ वह इज़्ज़त से रहे- यही हमारा सोच है। नीचे हो या ऊपर, इज़्ज़त बड़ी चीज़ है।

कुम्हारिन फिर दिखी जो उसे कड़ी नज़रों से देख रही थी गोया कह रही हो, मेरी बात की अनसुनी कर रहे हो, जान दे पटवारी को, फिर बतलाती हूँ तुझे...

भोला ने कुम्हारिन की तरफ़ पीठ कर ली, लो अब जैसा चाहो देखो, परवाह नहीं मुझे। यकायक उसके मन में आशंका उठ खड़ी हुई जो पटवारी के आने पर हुई थी। पता नहीं क्या था कि पटवारी इस बात को ताड़ गया, बोला-तुम फैक्ट्री की बात से चिंतित होगे, लेकिन इसके लिए तुम चिंता बिल्कुल न करना। एक तो मैं लगने नहीं दूँगा, मान लो लगती है तो इस सीगे में मैं तुम्हारे साथ हूँ, मैं अन्याय नहीं होने दूँगा। तुम्हें मुझ पर भरोसा रखना होगा फिर देखते हैं, कोई माई का लाल क्या करता है...

कुम्हार बोला- हाँ, इसमें बस्ती की या हमारी ज़मीन दबेगी तो हम कहीं के न रहेंगे।

पटवारी अंदर ही अंदर ख़ुश हुआ कि उसका तीर सही निशाने पर लगा है। कुम्हार में इसका हौल है, बचाव के लिए वह मेरा मुँह जोहेगा, फिर मैं उसे अपने तरीक़े से हँकाऊँगा... बस एक बार मेरे चंगुल में आ भर जाए फिर देखते हैं बच्चू कहाँ जाते हैं।

-आपके अलावा हमारा कौन है मालिक! -कुम्हार हाथ जोड़े बोल रहा था- आप जैसा कहेंगे, हम वैसा करेंगे, बस हमारी ज़मीन नहीं जानी चाहिए!

-बस तू अब चिंता छोड़! मैं सब देख लूँगा- कहकर पटवारी चारों तरफ़ देखने लगा। कितनी गज़ब की ज़मीन है, पूरी बस्ती ही कमाल है। भाग्यशाली है जो इस बस्ती को पाएगा...

थोड़ी देर और बैठा वह इधर-उधर की बातें करता रहा फिर ‘किसी बात की चिंता न करना, मैं तेरे पीछे हूँ, देख लूँगा’ कहकर चला गया।

पटवारी के जाते ही कुम्हारिन ने पूछा- क्या कह रहा था पटवारी?

कुम्हार ने ज़मीन वाली बात छुपा ली, कहा- कुछ नहीं, ऐसई आए थे, हाल-चाल लेने।

-मुझे तो ऐसा नहीं लगता। ज़रूर कुछ गड़बड़ है।

-तुझे तो हर चीज़ में छेद नज़र आता है।

-सच्ची कहूँ तो तुम तिड़कने लगते हो - कुम्हारिन बोली- ये ऐसई नहीं आया था तुम्हारी ख़ैर-ख़बर लेने। ये छँटा बदमाश है, हत्यारा, लुटेरा। भगौती इसी के नाम से कुएं में कूदा और जान गवां बैठा। तुम उसे भूल जाओ तो बड़ी गल्ती करोगे। मैं कहीं जाती नहीं, ये नीच एक न एक दिन ज़रूर गड़बड़ करेगा...

कुम्हार, आशंका के बाद भी, पराजित भाव से गहरी साँस छोड़ता बोला- मुझे तो ऐसा नहीं लगता। तू सोचती है तो तुझे ऐसा करने से हिरक भी नहीं रहा हूँ।

कुम्हारिन को सहसा चूल्हे पर चढ़े अदहन की याद हो आई और वह सपाटे से झोपड़े में घुस गई।

कुम्हार सोच में पड़ गया- ज़रूर कहीं न कहीं गड़बड़ है। उसने गहरी साँस ली- क्या करें?

आज उसका मन लाला की दूकान पर मन-बहलाव के लिहाज़ से जाने का हो रहा था, यकायक दुःखी हो गया और उसने जाने का इरादा बदल दिया और अनमना-सा खाट पर बैठ गया, फिर ‘हे भगवान’ कहकर लेट गया।

कुम्हारिन झोपड़े से निकली, हाथ में उसके एक कटोरा था, बोली- लो, थोड़ी-सी दाल पी लो, बहुत पतली है, हल्दी-नमक भर डला है...

कुम्हार सिडुककर दाल पी रहा था। दिमाग़ में पटवारी घूम रहा था जो उसे अंधे कुएँ की तरफ़ ठेल रहा था।

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(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

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रचनाकार: हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (4)
हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (4)
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