हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (3)

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पिछले अंक 2 से जारी.. राजा अपने महल में है और इस बात से ख़ुश कि मैना उसके हाथ आ गया हैं जिसका कि उसे बेसब्री से इंतज़ार था। मैना के लिए सोन...

पिछले अंक 2 से जारी..

राजा अपने महल में है और इस बात से ख़ुश कि मैना उसके हाथ आ गया हैं जिसका कि उसे बेसब्री से इंतज़ार था।

मैना के लिए सोने का पिंजरा बनवाया गया है। मैना उसके अंदर बंद है। चाँदी की छोटी-छोटी कटोरियों में उसके लिए दाना-पानी रखा है। पिंजरे में झूला भी है जिसकी रस्सियाँ सुनहरे रंग की हैं। कुल मिलाकर झूला पालने जैसा है जिस पर मैना आराम से सोते हुए झूले का आनंद ले सकता है।

मैना को जब से पिंजरे में फँसाया गया है, वह उदास है और बेहद दुःखी...

कहते-कहते मैना क्षण भर को चुप हो गई फिर कुम्हार से आगे बोली- जानते हो भोला, वह दुःखी क्यों है? अगर मैं भी साथ होती तो वह तनिक भी दुःखी न होता। जब उसे फँसाया गया, मैं साथ ही थी, लेकिन दुष्टों ने मुझे परे कर दिया। उन्हें तो सिर्फ़ मैना, गवैया मैना चाहिए था जो राजा की चाह थी। अब तुम यह देखो, मैंने हज़ारों परिंदों के साथ विरोध किया तो गोलियाँ चलने लगीं। हज़ारों की तादाद में परिंदे मारे जाने लगे- तड़पड़ाते हुए आसमान से लद-लद गिरते। सारी सड़कें मृत परिंदों से अँट गई थीं। छिपकर मैंने किसी तरह अपनी जान बचाई। बस तसल्ली इतनी थी कि मैं मैना को साफ़ देख पा रही थी। उसके पास जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। बंदूकें ताने सिपाही भून जो डालते...

राजा धीरे-धीरे चलता, पिंजरे के पास आया। मुस्कुराते हुए उसने मैना को देखा। मैना ने नफ़रत से मुँह फेर लिया।

राजा ने तनिक भी बुरा न माना। कहा- कहाँ तुम वीराने जंगल में ख़तरनाक जंगली पशु-पक्षियों के बीच थे, असुरक्षित। न दाना, न पानी। यहाँ तुम महल में हो। राजा के महल में। हज़ारों सेवक तुम्हारे सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। यहाँ से दुनिया जहान को देखो। कितनी सुंदर, कितनी हसीन है। न कोई दुःख, न कोई दर्द। हर तरफ़ शांति, शांति और शांति! ऐसी शांति कि सारी तकलीफ़ें फ़ना हो जाएँ। तुम्हारे लिए हमने सोने का पिंजरा बनवाया है। ऐसा पिंजरा कहीं दूसरा न मिलेगा। कहने को यह पिंजरा है लेकिन यह पूरा महल है। दुनिया के सबसे मीठे फल, दूध और मेवे। और पानी ऐसा कि सीधे मेघों से लाया हुआ, पारदर्शी! महल की सारी बेगमें आपके सामने स्वागत में खड़ी हैं... तुम गाओ कि सब कुछ संगीतमय हो जाय, जैसा तुम जंगल में गाते थे, उससे भी मीठा, पंचम स्वर में कि त्राहि-त्राहि मच जाए। मैं अपने सीने में नेजा चुभो लूँ!!!

मैना ने प्रश्न किया- मुझे क़ैद क्यों किया गया है?

राजा विनोद में बोला- आप क़ैद में नहीं, महल में हैं। फूलों की सेज पर, चाँदनी के अंक पर, बादलों के पंख पर, हवाओं के लंक पर...

मैना ने फिर प्रश्न किया- जब मैं महल में हूँ तो यह पिंजरा क्यों?

-पिंजरा तो आपका बिस्तरा है। आप महसूस करो कि आप पिंजरे में नहीं हैं तो आपको सचमुच लगने लगेगा कि आप पिंजरे में नहीं हैं। आप पहले आराम करें, फलों का सेवन करें फिर संगीत की चर्चा होगी- राजा हँसा।

मैना ने कहा- हमारी मैना को यहाँ बुला दें।

राजा ने कहा- आपके अलावा यहाँ कोई दूसरा नहीं होगा। यह सब आसाइश सिर्फ़ आपके लिए, आपके सम्मान में है...

मैना ने कहा- वह मैना कोई और नहीं, मेरी ब्याहता, मेरी घरैतिन है।

राजा ने मुस्कुराहट के बीच कहा- अपनी पत्नी, घरैतिन को भूल जाओ... कहता राजा अपने रनिवास में चला गया।

रात घनी हो गई थी। महल धीरे-धीरे अँधेरे में डूब गया।

***

तड़के जब झीना-झीना उजास झड़ रहा था, महल से शहनाई और ढोल की बहुत ही मद्धिम सुरीली ध्वनि उठ रही थी। धीरे-धीरे जब उजास फैला, रौशनी में सब साफ़ दिखने लगा- साजिंदे थे जो राजा को नींद से जगाने के लिए संगीत की स्वर-लहरी छेड़े हुए थे।

मैना पिंजरे के एक कोने में उदास बैठा है। उसे अपने पुराने दिन याद आने लगे। जब चूजा था, घोंसले के आस-पास फुदकता था, फिर बड़ा हुआ और एक दिन ऐसा आया जब वह माँ-बाप को छोड़कर उड़ा तो उड़ता ही चला गया। घने जंगल में उसकी मैना से भेंट हो गई। पहली नज़र में प्यार और फिर दोनों जीवन-सूत्र में बँध गए। घोंसले का निर्माण फिर हर )तुओं के आगमन का आनंद और बहुत सारी बातें उसके स्मृति पटल पर तैर गईं।

दिन चढ़ते जब राजा पिंजरे के सामने आ खड़ा हुआ, मैना को उदास, मुँह लटकाए बैठे देखा तो उसे अच्छा नहीं लगा- राजा के महल में जहाँ दुनिया जहान के सुख बिराजे हों, वहाँ कोई उदास है तो यह उसका दुर्भाग्य है, बोला- मैना, तुम्हें अपना सौभाग्य मानना चाहिए कि तुम राजा के महल में, सोने के पिंजरे में ऐशो-आराम से हो और गायन सिर्फ़ गायन के लिए लाए गए हो; अब तुम पिछला भूल जाओ, आगे की देखो और प्रसन्न रहो। मैं, एक राजा होकर तुमसे विनती कर रहा हूँ कि जीवन का नया अध्याय शुरू करो...

मैना उसी तरह उदास ही रहा।

राजा ने आगे कहा- देखो, तुम दुनिया के सबसे बड़े गवैये हो। हम तुम्हारी कद्र करते हैं, तुम्हें राष्ट्रीय पक्षी घोषित करते हैं...

मैना ने ज़बान खोली - आप कुछ भी करें; लेकिन मैं यहाँ एक पल भी रहना नहीं चाहता। मैं आज़ाद पंछी हूँ, आज़ाद रहना चाहता हूँ।

राजा बोला - क्या तुम पिंजरे में आज़ाद नहीं हो?

मैना व्यंग्य से हँसा-पिंजरा और आज़ादी। क्या मज़ाक़ है। पिंजरे में रहकर कोई भला आज़ाद रह सकता है?

राजा ने कहा- आज़ादी तो एक सोच भर है, इसके आगे वह कुछ नहीं। कोई भला किसी को गुलाम बना सकता है! दरअसल ग़ुलाम बनाकर एक तरह से वह ख़ुद को ग़ुलाम बना रहा होता है। इसलिए यह एक बेकार-सी गैरज़रूरी बात है, इस पर ज़्यादा सोचना मूर्खता से ज़्यादा कुछ नहीं।

राजा ने ऐसी बहुत सारी दलीलें पेश कीं जिन्हें मैना ने सिरे से ख़ारिज कर दीं। फिर भी राजा को विश्वास था मैना उसकी बात मानेगा। इसी विश्वास के चलते वह मुस्कुराया और महल में चला गया।

***

राजा के जाते ही मंत्री-संतरी और वह नाटा-गंजा आदमी मैना के पास आए। सभी मैना से आग्रह, विनती-सी कर रहे थे कि वह अब राजा के दरबार में है और उसका फ़ायदा उठाए। अपने गायन से वह राजा को ऐसा ख़ुश करे कि राजा उस पर अपना राज-पाठ निछावर कर दे। नाटा-गंजा आदमी तो यहाँ तक हाथ जोड़कर विनती कर गया कि उसके कण्ठ में ऐसा जादू है कि दुनिया लूटी जा सकती है, तू सब कुछ लूट ले!

मैना ने उसकी तरफ़ से मुँह फेर लिया; लेकिन वह नाटा-गंजा आदमी अपनी बात ज़ोरदारी से कहने से बाज नहीं आ रहा था। उसने यह भी कहा कि राजा काफ़ी नेक इंसान हैं, वे कभी नाराज़ नहीं होते, तुम्हें एक-न-एक दिन ज़रूर मना लेंगे, देख लेना...

***

तीसरे पहर राजा आया। मैना से कहा- तुम इतने बड़े कलाकार हो कि दुनिया तुम्हारा लोहा मानती है। तुम्हें अपने फ़न का आदर करना चाहिए और ख़ूब ख़ुश होकर गाना चाहिए।

मैना ने जवाब दिया- मैं अपने फ़न का अनादर नहीं कर रहा हूँ, दरअसल देखा जाए तो आप मेरे फ़न का अनादर कर रहे हैं!

-वह कैसे?- राजा ने अचंभित होते हुए पूछा।

-मुझे पिंजरे में क़ैद करके!

राजा हँसा- पिंजरा तो आपका सिंहासन है, सेज है, मंच है। आख़िर उसे ग़लत क्यों मानते हो?

-वह आपके लिए होगा, मैं इसे काल-कोठरी मानता हूँ!

-अगर आपको खुले में रखा जाए तो आप ख़ुश रहोगे?

-नहीं, मैं आपके पास किसी भी तरह नहीं रहना चाहता। आपका खुलापन भी क़ैद है, पैरों की बेड़ियाँ है....

राजा अपमान की स्थिति में भी सहज और मुस्कुराता रहता था। यह उसकी ख़ासियत थी। क्रोध मुस्कुराहट की ओट में रहता था। कोई जान भी ले तो क्रोध दिखता नहीं था, मुस्कुराहट दीखती थी, भोलापन दीखता था।

मैना की बात ने राजा को घोर अपमान की स्थिति में ला दिया था। अंदर ही अंदर राजा क्रोध से आग-बबूला हो गया, लेकिन उसने ज़ब्त किया, सहजता से मुस्कुराता रहा।

यकायक उसने मंत्री-संतरियों को अपने पास बुलाया।

मंत्री-संतरी कोर्निश बजाते हुए राजा के सामने आ खड़े हुए। सबको देखकर राजा मुस्कुराया, बोला- ये मैना तो महल, सोने के पिंजरे में रहना नहीं चाहता। खुल्ले में भी इसे रहना पसंद नहीं। अब ये कलाकार ठहरा, इसका सम्मान होना चाहिए। मैं राजा हूँ, किसी का अपमान भला क्यों करूँ! किसी को जबरन बंधक भी भला कैसे बना सकते हैं! यह मेरे और राज्य के उसूलों के ख़िलाफ़ बात होगी। यकायक राजा चुप हो गया और थोड़ी देर बाद मुस्कुराता हुआ आगे बोला- मैना को मुक्त करना ज़रूरी है। कलाकार काल-कोठरी में भला कैसे रहेगा? यह अच्छा भी नहीं। मैं उसकी बात का आदर करता हूँ- क्यों?- राजा ने यकायक नाटे-गंजे आदमी की ओर देखकर पूछा।

नाटा, गंजा आदमी राजा के यकायक सवाल किए जाने पर भौंचक्का रह गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आया, इसलिए अपनी बारीक़ खिचड़ी दाढ़ी नोचते हुए कोर्निश बजा उठा- हुजूर! हुजूर!!! वह हकला गया.. क...क...क... ज...ज... जो हुजूर कह रहे हैं वाज़िब है, सही फरमा रहे हैं हुजूर!

-क्या सही फरमा रहे हैं ? -राजा बहुत ही प्रसन्नता के भाव में पूछ बैठा।

-यही कि मैना को मुक्त कर देना चाहिए। एक कलाकार को बंधक बनाना भी ग़लत है।

वाह! राजा मुस्कुराया बल्कि हँस पड़ा- आपने बिल्कुल पते की बात कही। क्यों साहबान? राजा सहसा मंत्री-संतरियों से मुख़ातिब हुआ- आप लोग क्या फरमाते हैं? -राजा मुस्कुराया।

मंत्री-संतरी राजा के मंतव्य को समझ रहे थे, इसलिए सभी भयभीत-से झुककर खड़े हो गए, कोर्निश बजा उठे, बोले कुछ नहीं। सभी यह सोच रहे थे कि मैना को आख़िरकार नाटे-गंजे आदमी ने जुल देकर पकड़ा है और उसकी सारी मलाई भी उसने अकेले उड़ाई है इसलिए कुछ भी अगर लफड़ा होता है तो उसका ठीकरा नाटे-गंजे आदमी के सिर पर फूटना चाहिए- इस विचार के तहत सभी गोलबंद हो गए थे। ऊपर से अनजान बनते हुए। नाटा-गंजा आदमी राजा की मुस्कुराहट से नावाक़िफ़ था, इसलिए पूरी तरह निश्फिकर और सहज था। उसने राजा का दिल जीता था इस लिहाज़ से भी वह अपने को राजा का ख़ास और नज़दीकी मान बैठा था- पहली पंक्ति का पहला सेवक! मंत्री-संतरियों को अब वह कुछ गिनता भी न था। यकायक उसने सोचा कि अगर कुछ गड़बड़ होती है तो गाज उसके सिर पर नहीं बल्कि मंत्री-संतरियों के सिर पर गिरनी चाहिए- क्योंकि उसने तो सिर्फ़ उनके आदेशों का पालन किया है। जवाबदारी और जिम्मेदारी उनकी है, हम तो सिर्फ़ काम को करने वाले पुर्जे भर हैं! जवाबदारी और जिम्मेदारी से उसे क्या लेना-देना? उसका दिमाग़ और चमकती आँखें सहसा सक्रिय हो गए।

-आप लोग क्या सोचते हैं? - राजा फिर मुस्कुराया- बोलिए, मुझे जवाब चाहिए?

किसी के मुँह से एक लफ़्ज़ न निकला।

चारों तरफ़ सन्नाटा। नाटा-गंजा आदमी ख़ुश हुआ कि वह राजा के सवाल से बच गया, लेकिन अब सवाल उसी से था- क्यों? कर दिया जाए मैना को आज़ाद?

नाटा-गंजा आदमी हाथ जोड़कर बोला-हुजूर जैसा चाहें?

-लेकिन -कहते हुए राजा मुस्कुराया- आख़िरकार मैना को आज़ाद कर रहा हूँ तो मैना का भी फ़र्ज़ बनता है कि वह मेरी कुछ बातें माने!

राजा पिंजरे के सामने आ खड़ा हुआ, मुस्कुराते हुए बोला- क्यों मैना! मेरी बातें मानोगे न?

नाटा-गंजा आदमी यकायक उत्साह में बोल पड़ा- हाँ-हाँ, क्यों नहीं! मैना आपकी बात मानेगा, आप कहें तो हुजूर!

राजा ने नाटे-गंजे आदमी को शांत भाव से देखा, मुस्कुराया- यह प्रश्न आप से नहीं था जनाब!

नाटा-गंजा आदमी सिटपिटा गया। काँप गया। पसीना-पसीना हो गया- राजा कहीं नाराज़गी में तो नहीं बोल बैठा! हे भगवान, क्या करें। बचा लो मालिक!

इस बीच राजा ने पिंजरे में हाथ डाला। मैना को पुचकारा- इधर आ प्यारे गवैये! इधर आ- कहते हुए उसने मैना को पकड़ लिया।

नाटे-गंजे आदमी ने चैन की साँस ली- बच गया! बच गया!! मालिक ने उसकी सुन ली!!!

-तुझे आज़ाद किया जा रहा है तो तू मेरी भी एक बात मान- राजा मुस्कुराया-ठठाकर हँसा और बोला- नीले आसमान में उड़ के दिखा! हैरतअंगेज करतब दिखा! दुनिया तो देखे तेरा करतब! हाँ, उड़, मैना, उड़ नीले आसमान में उड़, दूर-दूर तक उड़। आसमान की नीलाहट के पार उड़!

राजा ने मैना को चूमते हुए पिंजरे के ऊपर बैठा दिया और कहने लगा- ऐसा उड़ कि सब तेरे करतब से निहाल हो जाएँ! उड़ मैना उड़, नीले आसमान में उड़! दूर-दूर तक उड़!!!

राजा ने देखा, मैना ने उसकी बात को नहीं माना उल्टे निर्भीक-सा तनकर उसकी तरफ़ देखने लगा जैसे कह रहा है कि मैं तेरी किसी भी बात को नहीं मानता। होगा तू राजा। मेरा राजा तू क़तई नहीं! क़तई नहीं!! क़तई नहीं!!! तू तो ज़ालिम, हत्यारा है जिसने मेरे बहाने बेकसूरों को मार डाला!

-सही सोचता है तू!- राजा मुस्कुराया। यकायक उसने उसके पंख नोच डाले और अट्टहास के बीच कहा- सही कहता है तू, लेकिन प्यारे उड़ तो! तेरी उड़ान तो देखूँ। देख, मैं तेरे लिए कवित्त गाता हूँ- उड़ प्यारे गवैये! उड़, नीले आसमान की अनंत गहराइयों में उड़, गवैये!

पंख नोचे जाने पर मैना बेतरह घबरा गया। रोने-रोने को हो आया- कैसा ज़ालिम है यह। हत्यारा कहीं का। पंख नोचता है और कहता है कवित्त गाता हूँ, नीले आसमान में उड़...

राजा ने यकायक उसे अपने मुलायम-मुलायम हाथों में जकड़ लिया, मुस्कुराते हुए आगे कहा- तू, उड़ा नहीं! ख़ैर कोई बात नहीं, आज़ाद लोग अक्सर ऐसा करते हैं, मत उड़ तू। लेकिन तू नाच तो सकता है। अच्छा गवैया, अच्छा नर्तक भी होता है। तुझे नाचना होगा। नाच प्यारे नाच! सारे बंधन तोड़ के नाच! नाच!! नाच!!!

मैना ने जब फिर दृढ़ता से उसके आदेश की मुख़ालफ़त की तो राजा ने उसे क़रारा दण्ड दिया- दोनों पाँव उसके तोड़ डाले और ज़ोरों से हँसता बोला- टूटे पाँव से नाच मैना! नाच! टूटे पाँव से नाच!

राजा का अट्टहास। मैना अधमरा था किन्तु सोच रहा था कि अगर खड़ा हो सकता या ज़रा भी उसमें उड़ सकने की कुव्वत होती तो ज़रूर वह कमाल करता- राजा की आँख ज़रूर फोड़ डालता... किन्तु लाचारी!

-क्या बुदबुदाता है-नहीं नाचेगा? कोई बात नहीं- राजा हँसा-गाना तो तू अच्छे से गाता है, पंचम स्वर में। तो गा! गा! पंचम स्वर में गा। ऐसा कि त्राहि-त्राहि मच जाए... पंचम स्वर में गा। प्यारे गवैये, सुरीले स्वर में गा, हाँ, ऐसे..

मैना का पुनः विरोध कि राजा ने खिलखिलाते हुए उसकी गर्दन मरोड़ दी।

***

कुम्हार रात भर सो नहीं पाया। बेचैन-सा करवटें बदलता, कल्थता रहा। पत्नी ने उसे कई बार टोका जिसका उसने जवाब नहीं दिया। उसके दिमाग़ में मैना की पीड़ा थी जो उसने सुनाई थी। एक-एक बात उसे छेद-सी गई। कैसा ज़ालिम राजा था जिसने क्रूरता की हद पार कर दी।

शाम को उसने किसी तरह रोटी पानी के सहारे हलक के नीचे उतारी थी लेकिन रात को नींद पूरी तरह ग़ायब थी। आधी रात से ज़्यादा का वक़्त निकल गया था, वह पलकें नहीं झिपा पाया। कई बार उठ-उठ कर पानी पिया। एक बार तो वह बड़े मियां को देखने गया। बड़े मियां खूँटे से अपना सिर रगड़कर खुजाल मिटा रहे थे। उसे देखते ही जैसे ख़ुश हो गए, रेंकने को हुए कि उसके मुँह पर उसने हाथ जमा दिए। वह रेंक नहीं पाये। काफ़ी देर तक कुम्हार उसके सिर पर हाथ फेरता रहा, आख़िर में कहा- बड़े मियां, अब चलता हूँ, नींद नहीं आ रही थी तो तुम्हारे पास आ गया। तुम आराम से सो, मैं भी सोने की कोशिश करता हूँ।

बड़े मियां ने दाँतों से उसका कुर्ता पकड़ लिया जैसे रोकना चाहते हों।

कुम्हार ने कहा- जाने दो भाई, अब काफ़ी रात हो गई है, सुबह काम पर जाना है।

बड़े मियां ने कुर्ता नहीं छोड़ा। कुम्हार आगे बोला-लो, बैठ जाता हूँ, मुझे क्या, कुम्हारिन इस वक़्त देख लेगी तो तुम पर डंडे बरसाएगी।

बड़े मियां ने ज़ोरों की गर्दन झटकी जिसका तात्पर्य था कि जबरन कुम्हारिन को बुरा-भला मत कहो। इतनी अच्छी हैं बो कि कुछ भी कहना छोटा होगा।

-तेरे लिए अच्छी होंगी, लेकिन मेरे लिए तो ज़ालिम है। हर वक़्त

पैना लिए खड़ी रहती है। ये काम करो, बो करो, उधारी ले आ, खेत में गोबर डाल आ...

झूठ! सरासर झूठ!!! बाहर से कुम्हारिन की आवाज़ आई। यकायक सार में आकर वह बोली- अब समझ में आई बात मेरे! तुम जबरन मुझे बदनाम करते रहते हो!

कुम्हार ने कान पकड़कर सफ़ाई पेश की- मैं तो ऐसई बड़े मियां से मजाक कर रहा था, तू सच्ची मान बैठी। हद्द है!

-मैं तो ज़ालिम हूँ। हर वक़्त पैना किए रहती हूँ। है न! और ख़ुद बहुतै सीधे! कुम्हारिन चुटकी लेती बोली- अच्छी बात कहो तो तुम्हें बुरी लगती है। आगे से नहीं कहूँगी, चाहे आसमान फट जाए...

-बड़े मियां -कुम्हार बड़े मियां को साक्षी बनाकर बोला- यार, तुम समझाओ न अपनी भौजाई को...

-बस - बस देख लिया मैंने- कुम्हारिन बीच में उसे टोकती बोली- जाओ, अब सो जाओ। सुबह तुम्हें काम पर जाना होगा।

घण्टा भर हो गया था खाट पर लेटे, कुम्हारिन तो जबरदस्त खर्राटे फटकारने लगी लेकिन वह एक पल को सो नहीं पाया।

सुबह मुँहअँधेरे जब सियार बोले और कौवे काँव-काँव करते पंख फड़फड़ाने लगे, कुम्हार की आँख लग गई।

सुबह कुम्हारिन ने जल्दी खाना पका लिया था। ऊपर के सारे काम कर डाले थे। मिट्टी साफ़ कर अच्छे से भिंगो दी थी। अगर कुम्हार को समय न मिला तो वह ख़ुद बर्तन बना डालेगी। उसने सोचा कि कुम्हार देर से सोया है तो दस बजे के आस-पास उठ जाएगा। गर्म खाना परोस देगी फिर अपना दूसरा काम कर लेगी, लेकिन इस वक़्त 12 बजने को होंगे, कुम्हार उठ ही नहीं रहा है। उसने कई बार आवाज़ें लगाईं, वह टस से मस नहीं हुआ। एक बज गए तो उसने उसे हिला डाला- गजब का कुंभकरण है। उठता ही नहीं...

सहसा जब उसके सिर पर बड़े मियां आकर ज़ोरों से रेंके तो वह उठ बैठा और घरैतिन से बोला- हे भगवान! ये तो शाम होने को आई, तूने जगाया क्यों नहीं?

***

कुम्हार बड़े मियां की पीठ पर कुल्हड़ जमा रहा है। बड़े मियां आराम से खड़े पूँछ हिला रहे हैं। मानो कह रहे हों कि जितना चाहो सामान लाद दो, उसे कोई दिक़्क़त नहीं। आहिस्ते-आहिस्ते चलकर वह मुकाम तक पहुँचा देगा। कुम्हार कुल्हड़ जमाता कह रहा है कि माल तो शाम को ही पहुँचा देना था लेकिन अलसा गया था, इसलिए सुबह-सुबह तेरे को परेशान कर रहा हूँ। मंगल की दूकान पर पहले चलना है, बाद में गणेश और चुन्नू हलवाई के यहाँ जाएँगे।

कुल्हड़ जमाकर उसने बीड़ी निकाली और उसके धुएँ में डूब गया। धुएँ के पार उसे दिख रहा था- पत्नी कुएँ की जगत पर मुगरियाँ मार-मार के कपड़े धो रही थी। गोपी मना करने के बाद भी बाल्टी को रस्सी से बाँध, गड़ारी में चढ़ाके कुएँ में ढील रहा था।

बीड़ी के धुएँ में डूबे-डूबे उसने बड़े मियां से हँसते हुए कहा, रात में तू काफ़ी सी-पो, सी-पो मचाए था- चची याद आ रही थीं क्या?

बड़े मियां ने गर्दन झटकी जैसे कह रहे हों कि काम के वक़्त मज़ाक़ नहीं चलेगा।

बड़े मियां की पीठ पर सामान लाद कर जब वह मंगल की दूकान पर पहुँचा, मंगल भजिए तल रहा था। भट्ठी पर काली-सी कढ़ाही चढ़ी थी जिसके गिर्द लपटें उठ रही थीं। जलेबी का ढेर लग चुका था, पोहा भाप पर चढ़ा था। दूसरी भट्ठी पर बड़े-से भगोने में चाय उबल रही थी।

मंगल ने कुम्हार को देखा तो एक तरफ़ बैठ जाने का इशारा किया और चाय में अदरक कुचलकर डालने लगा।

कुम्हार के साथ बड़े मियां थे इसलिए दूकान के किनारे खड़ा हो गया जहाँ तीन-चार लहकट क़िस्म के मज़दूर पत्थर पर बैठे बीड़ियाँ सूटते हुए चाय के इंतज़ार में थे। उनके चेहरों से लगता था कि उठाईगीरे हैं, मौक़ा पाते ही दूकान का कोई भी सामान ले भागें।

एक मज़दूर बोला- ये चायवाला बहुतै कमीन है, प्लास्टिक के मगे में चाय माँगो तो नहीं देता, वही पुराना कुल्हड़ पकड़ा देता है।

दूसरा इस पर हँसता ज़ोर से बोला- वह भी फूटे, राख से भरे कुल्हड़ में। साली चाय भी कम आती है और थामते भी नहीं बनता।

कुम्हार ने सिर थाम लिया। क्या जवाब दे इसका।

पहले मज़दूर ने चीख़कर मंगल से कहा- चाय कुल्हड़ में मत देना, नहीं फेंक दूँगा।

दूसरे मज़दूर ने आँखें चमकाकर कहा- प्लास्टिक के मगे में रुआब बनता है!

पहला गर्दन हिलाता बोला- सही कहा।

दूसरा बोला- लगता है, कुल्हड़ इसकी मताई बनाती है- वह हँसा।

-हाँ, लगता तो ऐसई है- पहला मज़दूर हँसा और मंगल को हाँक दी- कुल्हड़ तेरी अम्मा बनाती है क्या?

मंगल ने भारी व्यस्तता के बीच केतली में चाय छानते, चाय की भाप में डूबे हुए ज़ोरों का जवाब दिया- मताई तेरे पास बैठी है, बड़े मियां को लिए, उससे पूछो।

-कौन है मताई? -मज़दूर अगल-बगल ताकने लगे- साला, ऐसई बकबकाता है बात घुमाने के लिए...

कुम्हार को लगा, उसके माथे पर कुल्हड़ मारे जा रहे हैं। कच्चे नहीं, पक्के ठनकते कुल्हड़ जो माथे पर ज़ोरों की मार करते हैं, इस के बाद भी फूटते नहीं। मार से बचाव के लिए वह दोनों हाथों से सिर ढाँप लेता है।

-मूँ छिपाने से काम नहीं चलेगा- मंगल अपने नौकर पर सहसा ज़ोरों से चिल्लाया जो मरे हाथों से भट्ठी धौंक रहा था, फिर आगे बोला- साला माल ख़राब कोई दे, गाली कोई खाए।

कुम्हार इस बीच बड़े मियां की रस्सी पकड़ के बैठ गया था। ये बातें सुनकर यकायक गुस्से में उठने को हुआ कि मंगल ने कंधे दबाकर उसे बैठाल दिया- बैठा रह चुपचाप। ये चाय ले मज़ेदार...

कुम्हार ने चाय तो ले ली लेकिन दिमाग़ बेतरह भन्नाया हुआ था- इत्ते सुन्दर, कलदार, ठनकते कुल्हड़ बना के लाता हूँ कि तारीफ मिलनी चाहिए, यहाँ इसका उलट है, लोग उसे हिकारत से देखने लगे हैं, क्या ज़माना आ गया है।...

-चाय तो पी भोला! चाय पी!!! ठण्डी हो रही है, काहे को अपना दिमाग खराब करता है- मंगल पास आता बोला- ले थोड़ी और ले। कुल्हड़ सीधा कर... उसने केतली से उसके भरे कुल्हड़ में थोड़ी गर्मागर्म चाय और डाल दी और आगे कहा- गहकियों की बात पर हम कान दें तो पागल हो जाएँ। रोजाना ऐसे आड़े-तिरछे लोग आते हैं कि कुछ कह नहीं सकते।

कुम्हार ने पहला घूँट भरा, मुँह में राख़ थी। उसने ग़ुस्से से मंगल को देखा- साला, कुल्हड़ की राख़ भी साफ़ नहीं करता, ऐसई उठा के दे देता है...

-क्या हुआ? मूँ क्यों बना रहा है, चाय कड़वी है -मंगल ने पूछा।

कुम्हार अब क्या बोले, इतना कहा- नहीं, कुछ नहीं, अदरक मूँ में आ गई थी- बहाने बनाकर उसने चाय थूक दी।

थोड़ी देर बाद, भीड़ छँटने पर कुम्हार ने कुल्हड़ गिनकर रखे और पैसे के के लिए एक तरफ़ खड़ा हो गया। मंगल की आदत थी कि कभी तो पैसे तुरंत दे देता, लेकिन कभी ऐसा रुँगाता कि जी दुःख जाता। आज मंगल ने उसे रुँगाने की मन में ठान ली थी, इसलिए उसने अपने को काम में उलझा दिया। उसने कोंचे से भट्ठी झाड़ी जिससे भारी राख़ उड़ने लगी। इसी के साथ वह ज़मीन पर झाडू लगाने लगा। चारों तरफ़ राख़ तो थी ही अब धूल भी उठने लगी जिसमें कुम्हार का चेहरा ग़ुम हो गया। मंगल ख़ुश हुआ लेकिन थोड़ी देर बाद उदास। राख़ और धूल अब नीचे बैठने लगी थी। कुम्हार का चेहरा साफ़ दीखने लगा था। उसे दुःख हुआ कि राख़ और धूल भजिये और जलेबी पर बैठ रही है, यकायक सोचने लगा कि इसमें दुःखी होने की क्या ज़रूरत! गहकी तो सब भकोस लेते हैं, बस गर्म भर कर दो; लेकिन जब उसने कुम्हार को उसकी तरफ़ मुस्कुराते देखा तो फिर उदास हो गया। यह दुष्ट बिना पैसे लिए नहीं जाने वाला लेकिन मैं भी कम नाकिस नहीं हूँ, इसे देने वाला नहीं... कुम्हार ने कहा- बहुत मजबूरी में हूँ। घर में आटा नहीं है। मेहमान आने वाले है। दुखी न करो, रहम करके पैसे दे दो, अगली बार चाहे तो मत देना...

मंगल ने उसकी एक न सुनी, उल्टे धूल-राख़ बैठालने के लिए पानी के छींटे मारने लगा, चारों तरफ़। बड़े मियां पर जब छींटे गिरे तो वह कसमसाते आगे-पीछे होने लगे।

बड़े मियां को सँभालता कुम्हार मन ही मन बड़बड़ाने लगा- मंगल जानबूझ कर बदमाशी कर रहा है ताकि मैं बढ़ लूँ, आज ज़रूरत थी इसलिए माँग रहा हूँ, नहीं तो माँगता ही नहीं। ठीक है जब तेरा मन नहीं तो मैं जाता हूँ....

कुम्हार का मन दुःखी हो गया। वह भारी क़दमों से घर की ओर बढ़ा। लाला, गणेश, चुन्नू हलवाई की दूकानों पर भी उसे माल पहुँचाना था, उस हिसाब से माल लादकर भी आया था; लेकिन अब वह किसी के पास नहीं जाएगा- भाड़ में जाएँ सब। किसी को माल नहीं देगा।

कुम्हार अपने धंधे से परेशान हो उठा है। जब भी उसे पैसे की ज़रूरत होती, वह झल्ला उठता। सोचता कि ऐसे धंधे से क्या फायदा जब समय पर दो पैसे न मिल सकें। काहे के लिए खट रहा है वह ?

वह सीधे घर आया, बड़े मियां को माल समेत छोड़ दिया जो सार की ओर बढ़ गए और खाट पर पड़ गया। बड़े मियां माल फोड़ें या जो चाहें करें, उसे कोई मतलब नहीं। उसे गहकियों पर ग़ुस्सा आने लगा जो कुल्हड़ में चाय पीने को हेठी मानते हैं। इसमें उन्हें राख़ ही राख़ नज़र आती है। पहले क्या राख़ नहीं होती थी? तब तो चाव से, शौक से लेते थे। सभी कहते थे कि मिट्टी के बर्तनों में क्या सोंधापन होता है! क्या गजब का दही जमता है कूड़े में ऐसा मलाईदार कि क्या कहने। लेकिन अब क्या हो गया है हर कहीं, सब दूर! कुम्हार ने हिसाब लगाया, गर्मियों में वह हजार एक मटके बनाता है, उसके उसे गिरी हालत में एक नग के 25 से 30 रु. मिल जाते हैं। लेकिन क्या सारे मटके एक झटके में बिक जाते हैं? धीरे-धीरे निकलते हैं। गली-गली, बाज़ार-बाज़ार हाँक लगानी पड़ती है, तब कहीं पूरे सीजन में बिक पाते हैं। इस तरह जो पैसा आता है, वह फुर्र से उड़ जाता है। सकोरे, कुल्हड़ गुल्लक से क्या हाथ लगता है गिनी बोटियाँ और नपा शोरबा! उसे हँसी छूटी- गिनी बोटियाँ और नपा शोरबा भी मिल जाए तब भी तस्कीन रहे। यहाँ तो वह भी नसीब नहीं। इससे भी महरूम हो रहे हैं। मिट्टी का पैसा अलग लगता है, पटवारी और बाबू अलग नोचते हैं। बुरी हालत है। बड़े मियां बिचारे बाहर से चर आते हैं, घर का दाना उन्हें नसीब नहीं, फिर भी कोई शिकायत नहीं, हर हाल में ख़ुश! पत्नी के तन पर चीथड़े, मेरे तन पर चीथड़े, गोपी के तन पर चीथड़े-ऐसे में कुम्हारी में लगे हुए हैं। -पूरा घर भिड़ा है। मिल क्या रहा है? पैसे माँगो तो आज नहीं कल आओ। उस पर गहकियों का नाटक देख ही रहे हो। खेती का हाल ये है कि खेत परती पड़ गए हैं, अब उनमें कुछ होने से रहा। ऐसे में क्या करे वह? सर फोड़ ले? सर फोड़ने से भी मामला सुलझता तो वह करने को तैयार है...

पत्नी हाट से लौटी थी। उसे खाट पर दुःखी पड़े देखा तो बोली- क्या हो गया? मूँ क्यों लटकाए हो?

वह चुप। करवट ले ली।

-अरे! बोलते क्यों नहीं, क्या हुआ?

वह चुप। उठकर आँगन की ओर बढ़ने लगा। पत्नी पीछे-पीछे बढ़ी- क्या हुआ, बोलो तो सई? मुझे नहीं बतलाओगे तो किसे बतलाओगे? लंगड़ी को!

लंगड़ी का जिक्र आते ही अचानक उसके चेहरे पर हास्य की लालिमा फैल गई।

-तो ये बात है। लंगड़ी ने दिल तोड़ा है हमारे कुम्हार का। लाओ तो गोपी लट्ठ। अभी देखते हैं लंगड़ी को।

कुम्हार बोला- जले पर नमक न छिड़को- कहता वह बाहर को निकल गया।

कुम्हारिन बड़े मियां को देखकर बोली- हाय दैया! सामान तक नहीं उतारा। सब बरबाद कर देगा ये।

कुम्हार ने बीड़ी जलाते हुए सोचा कि आए दिन की किट-किट से बचने के लिए अब उसे नए ज़माने के हिसाब से चलना ही होगा। पत्नी भी कह-कह के हार गई। आख़िर कब तक फजीहत झेलें! ये तो हद्द है! उसे तो बहुत पहले ही यह सोच लेना चाहिए था। ख़ैर, कोई बात नहीं- देर आए, दुरुस्त आए। कुम्हारी का काम तो घलुवे का है, उसे करते रहो, दूसरे काम में हाथ डालो। अब वह प्लास्टिक के बर्तन रखेगा। थोक में ले आएगा और सब दूर बेचेगा। किसी को शिकायत भी न रहेगी। घरैतिन भी खुश, वह भी खुश।

जब वह यह सोच रहा था, मैना ज़ोरों से कूक उठी थी।

***

बड़े मियां हमेशा ख़ुश रहने वाले जीव थे। जो भी खाने को मिल जाता, उसे क़बूल कर लेते। सोचते कि भगवान को जो मंज़ूर है, वही खाने को मिलेगा; नहीं लट्ठ तो धरा है जो चाहे धुनक दे। खुली पीठ, नंगे पाँव जहाँ चाहो लट्ठ बरसाओ। अपने को वह ख़ुशनसीब मानता कि शायद ही उसे कभी लट्ठ पड़े हों। जब वह कुम्हार-कुम्हारिन के इशारों पर दौड़ता है तो लट्ठ किसलिए? लट्ठ तो उनके लिए है जो हरामख़ोर होते हैं और मालिक को तंग करते रहते हैं। अपन तो मालिक के ग़ुलाम हैं। मालिक कहे तो कुएँ में कूद जाएँ, नदिया में छलांग लगा दें, इतना रेंकूँ कि लोगों की नींद हराम हो जाए।

बड़े मियां इस बात से अक्सर ख़ुश होते कि उनके सी-पो, सी-पो की गुहार से लोग भारी प्रसन्न होते हैं, इसलिए वे अक्सर रह-रह सीपो-सीपो की लम्बी गुहार लगा देते। उनकी सी-पो, सी-पो पर घर में सबसे ज़्यादा जो प्रसन्न होता वह गोपी था।

सी-पो, सी-पो की लम्बी टेर पर एक दिन कुम्हारिन ने बड़े मियां से पूछा- सी-पो, सी-पो से क्या तू अपनी गधी को याद करता है?

बड़े मियां बोले कुछ नहीं; लेकिन इस विषय पर सोचने जरूर लग गए। हो सकता है, उनकी सीपो-सीपो पर कोई गधी प्रसन्न हो जाए और कहीं से प्रकट हो जाए।

उनकी सी-पो, सी-पो पर कोई गधी प्रकट तो नहीं हुई; हाँ, कुम्हारिन का भाई, अवध ज़रूर उस दिन प्रकट हो गया। उसे बड़े मियां की सख़्त ज़रूरत थी। काम ही ऐसा आ पड़ा था कि वह उसे किसी न किसी तरह से ले जाना चाहता था। पहले भी वह कई बार बड़े मियां को लेने आया था लेकिन ले नहीं जा पाया था। इसका ख़ास कारण था गोपी जो बड़े मियां को ले जाने पर बेतरह रोता-चीख़ता था। बड़े मियां उसकी सवारी थे जो मन चाहे वहाँ की सैर कराते रहते थे। किसी को तंग करना है तो इशारा भर कर दो, बड़े मियां दुलत्ती से उसे लाइन पर ला देते थे। एक बार श्यामल की माँ ने गोपी को बेवजह डाँट दिया, बस गोपी का दिमाग़ ख़राब। उसने बड़े मियां से बताया। बड़े मियां ने रात में उसे सोने नहीं दिया। दरवाज़े पर वह खाट डाल कर लेटी थी, जैसे ही खर्राटे भरती बड़े मियां उसके सिर पर सी-पो, सी-पो की गुहार लगा के भाग खड़े होते। आख़िर में उसने बड़े मियां से माफ़ी माँगी कि जो ग़लती हो माफ करो, हमें सो जान दो.. बड़े मियां ने तब जाकर उसे माफ़ किया था।

लेकिन उस दिन अवध ने गोपी को साध लिया था। उसके लिए वह एक ख़ूबसूरत-सी मोटर साइकिल ले आया था जो बैटरी से चलती थी।

गोपी मोटर साइकिल पाकर मगन हो गया था।

कुम्हार ने कहा- मेरा हरजा नहीं होगा क्या?

अवध बोला- जीजा, एक दिन की बात है, बड़े मियां को दे दो, घर में काम है।

-ऐसा कौन-सा काम घर पर आ गया। पिछली दफ़ा भी तो तू आ खड़ा हुआ था बड़े मियां को ले जाने के ख़ातिर।

-आया तो था लेकिन गोपी ने ऊधम मचा दी थी, कहाँ ले जा पाया था- थोड़ा रुककर, कुम्हार का पाँव दबाता खुशामद के अंदाज में आगे बोला- ले जाने दो, कल ही छोड़ जाऊँगा, सच्ची कहता हूँ।

-तू अब ज़िद करता है तो क्या कहूँ। मेरा मन तो बिल्कुल नहीं होता बड़े मियां को छोड़ने का।- कुम्हार बोला।

-तो ठीक है- जाने का झूठा नाटक दिखाता अवध बोला-मैं जाता हूँ, रखे रहो अपने बड़े मियां को।

कुम्हारिन बोली- तू ले जा न। काहे को इतनी बहस करता है। मैं कह रही हूँ ले जा।

कुम्हारिन ने रस्सी अवध के हाथों में दे दी, बोली- ले जा, बस इसे मारना-पीटना नहीं। प्यार से रखोगे तो रहेगा। नहीं, तुम्हारी हुलिया बैरन कर देगा।

अवध का गाँव, नदी पार, पाँचोंपीरन के आगे था जिसके लिए नदी के एक बड़े से रपटे को पार करके जाना होता था। इसके पहले गोपाल बाबा का पुल था जिसके बगल से सीधी ढलान है। ढलान से आप उतरें तो सामने नाला दिखेगा। बस उसी के बग़ल-बग़ल चलते जाएँ, आप गोलाघाट पहुँच जाएँगे। दूर से ही आपको डलिया या मौनी बनाने वालों के डेरे दिख जाएँगे और छोटे-बड़े आकार के बाँसों के जगह-जगह रखे झुरमुट। बस इन्हें पार करते ही आप अपने को रपटे पर खड़ा पाएँगे।

बड़े मियां आगे बढ़े, पीछे जीभ से चटकारा देता अवध था, बंडी और पाजामा पहने। पाँवों में चमरौधा जूता डाटे। कंधे पर लाल गमछा। गोपाल बाबा का पुल और उसके बग़ल की ढलान तो बड़े मियां को दिखाई दी लेकिन अवध ने उसे यहाँ नहीं मोड़ा। वह तो मण्डी की तरफ़ बढ़ने लगा। क्या बात है?

बड़े मियां ने अवध से पूछा- किधर ले जा रहे हो मुझे? गाँव नहीं चलना है क्या?

-गाँव ही चल रहा हूँ, ज़रा दवा लेनी थी, इसलिए यहाँ चला आया।

-सच्ची बता तू? झूठ तो नहीं बोल रहा? बड़े मियां यकायक रुकते हुए बोले।

-सच्ची कहता हूँ, सौ फीसदी सच्ची! तू चल तो सही।

बड़े मियां आगे बढ़े, बढ़ते गए। मामला कुछ घपलेवाला मालूम देता था। लिहाज़ा फिर रुक गए, बोले- देखो अवध, तुम मुझे फँसा रहे हो। सच्ची बात कुछ और है। साफ़ बोलो न।

अवध हाथ जोड़कर बोला- बड़े मियां, तुझसे विनती है। बात ये है कि मैं बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ। मैंने उधारी ली थी, उसके बदले में मुझे मण्डी के ठेले एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने हैं। बात ये हुई कि मेरे साथ का आदमी शराब खैंच के रस्ते में डल गया, अब वह उठ ही नहीं रहा है, अकेले दस ठेले मुझसे खैंचे भी नहीं जा सकेंगे, इसलिए मदद के लिए तुझे ले चल रहा हूँ। अगर यह काम नहीं हुआ तो मुसीबत में फँस जाऊँगा... जिससे उधार लिया था, वह बहुत ही ख़राब आदमी है। समझ लो हत्यारा... इसलिए तेरे पाँव पड़ता हूँ, मदद करो यार, बिरादर!

बड़े मियां अफ़सोस में सिर हिलाते बोले- तुम सच्ची-सच्ची क्यों नहीं बोले? मुझे अड़धब में डाल के क्यों लाए? पहले यह बताओ?

-सच्ची बात तो बता दी, इसे अड़धब मानों या कुछ और -अवध बोला- काम तो करना है भाई!

-लेकिन तुम हमारे कुम्हार से झूठ क्यों बोले? यह बात ठीक नहीं है- बड़े मियां ग़ुस्से में लाल होते बोले- हर वक़्त तुम जालसाज़ी भरा काम करते हो, मुझे पता है।

अवध मुसीबत में फँसा था, ग़ुस्से के बाद भी वह शांत बना रहा, हाथ-पाँव जोड़कर किसी तरह काम निकालना चाहता था।

-कितने ठेले हैं? -बड़े मियां ने पूछा।

-दस!

मौक़े पर जब बड़े मियां पहुँचे तो दस की जगह बीस ठेले निकले जिन्हें एक मण्डी से दूसरी मण्डी पहुँचाना था।

फिर झूठ! बड़े मियां का मुण्डा हिल गया, बोले- तुम तो दस ठेले बोल रहे थे, यहाँ तो बीस हैं।

-क... क... क... अवध हकला गया, बोला- क्या है कि, दो खेप हैं, पहली में दस, दूसरी में दस!

अवध का ग़ुस्सा अब रस्सा तुड़ा रहा था। इतनी मालूमात। इतनी जिरह! साले ने मुझे जीजा समझ रखा है? मुझे ईमानदारी सिखा रहा है। यकायक अलफ होता बोला- तेरे को काम करना है या नहीं है? इतने बाँस बजाऊँगा पोंद पर कि भूल जाएगा सब हरामीपन।

अवध डण्डे की तरफ़ लपकता कि बड़े मियां ने दुलत्ती चला दी। अवध सँभल नहीं पाया, ज़मीन पर लोट गया।

इधर बड़े मियां ने दौड़ लगाई। ये दौड़े, ये दौड़े, सरपट सीधे कुम्हार के झोपड़े पर रुके, बेतरह सी-पो, सी-पो की गुहार लगाते।

कुम्हार को बात समझते देर न लगी। उसने बड़े मियां के बदन पर हाथ फेरा और कहा- तू चिंता न कर, अवध को मैं देख लूँगा। सार में आराम कर। आगे से किसी की टहल में तुझे नहीं जाना है, चाहे कोई लाख रुपये क्यों न दे।

कुम्हारिन, भाई के कारण, शर्मिंदा थी

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(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

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रचनाकार: हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (3)
हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (3)
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