ट्रस्टी बने रहना असंभव वहाँ द्रष्टा बने रहें

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डॉ. दीपक आचार्य यों हर इंसान को जहाँ है, जिस मुकाम पर है वहाँ अपने आपको अधिनायक या अधिपति की बजाय ट्रस्टी मानकर अपने दायित्वों का निर्वाह...

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डॉ. दीपक आचार्य

यों हर इंसान को जहाँ है, जिस मुकाम पर है वहाँ अपने आपको अधिनायक या अधिपति की बजाय ट्रस्टी मानकर अपने दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए।

ट्रस्टी भाव में कहीं कोई आसक्ति या स्वामीत्व का भाव नहीं आता बल्कि यह सेवा का वह माध्यम मात्र होता है जिसमें अपनी समर्पित भागीदारी होती है। यह भागीदारी अब तक जो स्टेटस या संपदा बनी होती है उसकी रक्षा, उत्तरोत्तर साख बढ़ोतरी, बेहतर उपयोग और उपलब्ध संरचनाओं तथा संसाधनों में निरन्तर अभिवृद्धि के दायित्वों को पूर्ण कराती है।

इसमें न मालिक का भाव होता है न कत्र्तापन का कोई अहंकार। जो कुछ है, पुराने लोग छोड़ गए हैं उसी की रक्षा करते हुए उसके वर्तमान ग्राफ में बढ़ोतरी करना ही एकमेव धर्म होता है।

इसके साथ ही ट्रस्टी अपने अभिनव विचारों और समर्पित कर्मयोग से भी संस्थागत साख में अभिवृद्धि का प्रयास करता रहता है और जो कुछ सकारात्मक बदलाव या विकास होता है उसका पूरा-पूरा श्रेय भी उसे प्राप्त होता है। 

हम सभी लोगों को ट्रस्टी धर्म निभाते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है ताकि आने वाले युगों और पीढ़ियों के लिए कुछ रखकर, दे कर जा सकें जैसा कि हमारे पुरखों ने हमें दिया है और उनका आनंद एवं भोग हम मजे से प्राप्त कर रहे हैं।

पर आजकल जिस तरह की प्रदूषित आबोहवा चल रही है, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की हत्या हो रही है, गुणावगुणों और अच्छे-बुरे का कोई मूल्यांकन नहीं है, जिसका जहाँ दाव लग जाए वही अपने आपको संप्रभु समझने लगा है।

अपने धर्म, कर्म और फर्ज की किसी को कोई परवाह नहीं रही, अपने नाम और अपने लिए ही प्राप्य-अप्राप्य सब कुछ जमा करने को ही हम जिन्दगी का परम सत्य मान चुके हैं। हमारे लिए न नैतिक मूल्यों का कोई वजूद दिख रहा है, न सामाजिक सरोकारों का हमें कोई भान है।

यही नहीं तो हम अपनी परंपरागत विरासतों और संस्कारों को ही सहेज कर रख पाने से कतराने लगे हैं। हमें नित नया कुछ न कुछ चाहिए इसलिए स्वदेशी रीतियों को भुला कर विदेशियों के तलवे चाटने और उनकी कही हर बात को ब्रह्म वाक्य मानकर पिछलग्गू और अंधानुचर बने हुए हैं। इस मामले में हमने उल्लुओं और चमगादड़ों को भी पीछे छोड़ दिया है।

इन सभी प्रकार के विकारों ने ऎसी स्थितियां पैदा कर डाली हैं कि हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। जिस हिसाब से आसुरी तत्वों को बोलबाला है, नुगरे संगठनात्मक स्वरूप पा चुके हैं उसमें न हम कोई बदलाव ला पा रहे हैं न इसकी कोई उम्मीद ही है। कूए में भांग घुली ही नहीं है बल्कि मुण्डेर तक कूआ भांग से भर चुका है।

कुछ अच्छे और सज्जन लोग चाहे कितने ट्रस्टी भाव से काम करें, उनके भाग में विषमताएं और उलाहने ही लिखे हुए हैं। ये लोग कुढ़न और तनावों की स्थिति में आ गए हैं, विषम हालातों ने मानसिक और शारीरिक सौष्ठव को बिखरा दिया है।

हर तरफ राक्षसी मनोवृत्ति वाले लोग जमा हैं जो खुद भी मौज-मस्ती में रमे हुए हैं और अपने सरीखे दूसरे अनुचरों या जयगान करने वालों को भी मजे दे रहे हैं। समाज और देश के लिए जीने का ज़ज़्बा रखने वाले लोगों में इन्हीं बातों को लेकर मलाल है।

इसे दुर्भाग्य, मानवता का अधः पतन या कलियुग का प्रभाव कुछ भी कह दें लेकिन जो लोग ईमानदारी से काम करते हैं, सज्जनता और शालीनता का व्यवहार करते हैं, समाज और देश के प्रति समर्पित होकर काम करते हैं, निष्काम सेवा एवं परोपकार की भावना से जीवनयापन करते हैं, आदर्शों और सिद्धान्तों पर अड़िग रहते हैं, उनका संरक्षण करने वाला कोई नहीं है।

एक जमाना वह था जब अच्छे लोगों को अपने कामों या अपने बारे में किसी और को कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, समाज के श्रेष्ठीजन ही उसका मूल्यांकन करते हुए उसके हिताहितों के अनुरूप निर्णय लिया करते थे और जहाँ कहीं जरूरत पड़ती वहाँ सज्जनों, समाज के लिए उपयोगी और मेधावी लोगों का पक्ष भी रखा करते थे।

अब समाज या परिवेश में वे लोग कहीं रहे ही नहीं, जो समाज या देश की सोचते थे। कुछ संवेदनशील बचे हुए जरूर हैं मगर वे भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि आजकल सुना उन्हें ही जाता है जो किसी भी प्रकार का लाभ पहुँचाने की स्थिति में हाें या किसी को सुरक्षित करने का माद्दा रखते हों।

जीवन में जब भी ट्रस्टी भाव में रहना संभव न हो तब अनावश्यक तनाव न पालें, दुःखी या कुण्ठित न हों अन्यथा इसका खामियाजा हमें स्वयं को ही भुगतना पड़ता है। इन हालातों में सर्वाधिक पीड़ित होते हैं तो अपने घर-परिवार वाले, अपने बीवी-बच्चे। क्योंंकि शोषकों, असुरों, दुःखदाताओं और तनाव देने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितने ही मर-मर कर जी रहे हों, उन्हें सिर्फ अपनी चवन्नियां चलाने, घर भरने और अपने नम्बर बढ़ाने से ही मतलब है।

इस किस्म के लोगों का बस चले तो जलती चिता पर खाना पकाकर खाने से भी परहेज न करें।  आदमी जिन्दा लाश हो जाए या मरने के कगार पर पहुँच जाए, उन लोगों का इससे कोई लेना-देना नहीं जिनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं और जो लोग स्वयं इंसान न होकर दुकान या किसी के जरखरीद गुलाम हो गए हैं।

प्रतिकूल परिस्थितियों में सज्जनों को चाहिए वे स्रष्टा या ट्रस्टी भाव को त्यागकर द्रष्टा भाव को अपना लें और अनुकूल समय आने की प्रतीक्षा करें। यह तो तय है कि समय बदलता है और प्रतिकूलताएं अपने आप समाप्त भी हो जाया करती हैं क्योंकि प्रकृति और ईश्वर को भी स्रष्टा भाव वाले इंसान पसंद हैं। हर अनुकूलता में स्रष्टा और प्रत्येक प्रकार की प्रतिकूलता में द्रष्टा बने रहें। यही जीवन की सफलता का युगधर्म है।

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- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

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