साहित्य, परम्परा और मानवाधिकार

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प्रो0 शंभुनाथ म नुष्य के मनुष्य होने के नाते क्या अधिकार हैं और उन अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए, यह सवाल जितना बड़ा है, उतना ही पेचीदा भी। इ...

प्रो0 शंभुनाथ

नुष्य के मनुष्य होने के नाते क्या अधिकार हैं और उन अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए, यह सवाल जितना बड़ा है, उतना ही पेचीदा भी। इस सवाल पर चर्चा दुनिया भर में हुई है। बहुसंख्यक देशों में मानवाधिकार आयोग बने हैं। राष्ट्र संघ का युद्ध के बाद यह दूसरा मुखर इलाका है। इसका अर्थ है मानवाधिकार को एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में देखा जा रहा है। उन देशों में जहां गुलामी, भेदभाव और सामुदायिक उत्पीड़न के अवशेष बचे हैं या बड़े पैमाने पर सरकारी उत्पीड़न है और असहमति की आवाजें कुचल दी जाती हैं, वहां मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े लोग अधिक तत्परता से सक्रिय हैं और वे इधर तेजी से फैले हैं।

वर्जीनिया में 1776 में पारित 'बिल ऑफ राइट्स' से लेकर 'मानवाधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र' (विएना, 1948) तक मानवाधिकार आंदोलन ने निश्चय ही एक लंबा सफर तय किया है, पर 21वीं सदी में इस मुद्दे को कुछ और खोलने की जरूरत महसूस हो सकती है। वर्जीनिया में पारित 'बिल ऑफ राइट्स' में लगभग ढाई सौ साल पहले कहा गया था, ''हर आदमी प्राकृतिक रूप से मुक्त और आजाद है।

उसके अपने कुछ प्राकृतिक अधिकार हैं, जिन्हें समाज का अंग बनते ही उसे मिल जाने चाहिए। उसे इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। उन अधिकारों में मुख्य हैं संपत्ति उपार्जित करने, संपत्ति का स्वामी बनकर जीने, स्वतंत्रता का भोग करने और प्रसन्न होने का अधिकार। उनमें सुरक्षित रूप से जीने और किसी दमन के प्रतिरोध के अधिकार भी शामिल हैं। उस समय से वियना सम्मेलन तक मानवाधिकार की लड़ाई पर दुनिया में कई कोणों से बहस हुई और मानवाधिकार को अंततः नैतिक अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफलता मिली। यह अब मनुष्य द्वारा मनुष्य से बराबर के सम्मान की मांग है। इस आंदोलन की केंद्रीय चिंता मानव को परिधि से केंद्र में लाने की है, जिसका अर्थ है वैश्विक रूप से व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा की प्रतिष्ठा करना। यह भी देखा गया है कि मानवाधिकार आंदोलन के निशाने पर एक समय मुख्य रूप से साम्यवादी देश थे। इसमें संदेह नहीं कि अब एशियाई देश हैं क्योंकि इन देशों में दमन के सैकड़ों रूप बचे हैं।

आज मानवाधिकार आंदोलन एक ठोस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का रूप ले चुका है जबकि दुनिया भर में मानवाधिकार हनन पहले से बढ़ा है। मानवाधिकार के प्रश्न पर प्रशासनिक सक्रियता और उसका मानवाधिकार आयोग से सहयोग का स्तर काफी नीचे है। यहां सिर्फ आश्वासन हैं, सांत्वना-भरी बातें हैं। इसलिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में हजारों मामले वर्षों तक झूलते रहते हैं और सुनवाई चलती रहती है। इतना ढीला-ढालापन है कि मानवाधिकार की नई व्याख्याएं तो उसके विषय से बाहर हैं। कुछ गैर-सरकारी मानवाधिकार संगठन है, जो आवाज उठाते हैं। कुछ संगठन अरण्यरोदन-सा करते और कुछ सिर्फ विदेशों से पैसे बटोरकर इस आंदोलन को आतिशबाजी में बदलते।

मानवाधिकार हनन में कितनी व्यापकता आई है या आज के समय में मानवाधिकार कितने सुरक्षित हैं, यह मामला इस पर निर्भर करता है कि मानवाधिकारों की कैसी व्याख्या करते हैं। इसके अंतर्गत खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार अब तक नहीं आ सके हैं। किसानों का उनकी कृषि-भूमि पर जब तक वे चाहें अपना दखल रखने का अधिकार, आदिवासियों के उनके जल, जंगल और जमीन का अधिकार या किसी समुदाय को अपने परंपरागत तरीके से जीने का अधिकार मानवाधिकार, के अंतर्गत आ सकता है या नहीं ? किसी की गोली से मरने का अधिकार, जीने का अधिकार मानवाधिकार का सबसे बड़ा मुद्दा है। युद्ध के संहार से बचने का मानवाधिकार क्यों न हो ? 'स्लटवाक' के संदर्भ में यह मुद्दा सामने आया है कि स्त्री अपनी इच्छा के अनुसार कपड़े क्यों न पहने, उसके सेक्सी दिखने भर से किसी को रेप की स्वतंत्रता कैसे मिल सकती है। कन्या-भ्रूणों की हत्या हो रही है, उनको मानवाधिकार कौन देगा ? दरअसल सांमती क्रूरताओं के पक्ष में तरह-तरह से दलीलें दी जाती रही हैं। एक और मुद्दा है, आमतौर पर पिछड़े और गरीब लोगों के इलाके ही परमाणु ऊर्जा संयंत्र या ऐसी बहुराष्ट्रीय परियोजनाओं के लिए चुने जाते हैं। ऐसे इलाकों में मानवाधिकारों का हनन होता है या नहीं ?

इधर एक नया शोर उठा है। बिहार सरकार में बात चली है कि जेल से सजा काटकर लौटे व्यक्तियों को जीवन की मुख्य धारा में शामिल होने के रास्ते बंद रखे जाए, ताकि लोग अपराध करने से पहले डरें। राज्य के मानवाधिकार आयोग ने तुरंत तत्परता दिखाते हुए इस प्रस्ताव का ठीक ही यह कहते हुए विरोध किया कि एक बार अपराध करने से ही कोई व्यक्ति पूरी जिंदगी के लिए अपराधी नहीं हो जाता। हर आदमी को अपना जीवन जीने का मौलिक अधिकार है। सजायाफ्ता अपराधी अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकता है, उसे इस संवैधानिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। कहना न होगा कि सरकार द्वारा ऐसे फतवे अपराध के विरूद्ध अपनी प्रतिबद्धता को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के उद्देश्य से दिए जाते हैं। मानवाधिकार को ऐसे मौकों पर मुखर होने में संकोच नहीं होता।

वैश्वीकरण के युग में मानवाधिकार का एक जरूरी मुद्दा विकास के अधिकार से संबंधित है। यह मुद्दा मानवाधिकारों में शामिल क्यों नहीं किया जाता ? आखिरकार एक विलासबहुल विकसित सभ्यता में किसी गांव, पहाड़, रेगिस्तान या जनजातीय क्षेत्र को कितना पिछड़ा रखा जा सकता है ? यह प्रश्न भी है। संचार-क्रांतियां असहमति की आवाजों को राह नहीं दे रही हैं, यह मानवाधिकार- हनन है या नहीं ? धार्मिक और राजनीतिक क्रूरताओं के अलावा बाजार की तानाशाही से उठे प्रश्न हैं। बाजार की नैतिकता एक ही चीज जानती है कि व्यापार कैसे बढ़े और अधिक से अधिक मुनाफा हो। ऐसी चीजों के कारण मानवाधिकार की व्याख्या में विस्तार लाने की जरूरत महसूस हो सकती है।

मानवाधिकारों का एक सर्वमान्य वैश्विक रूप हो, यह पश्चिम के पूंजीवादी दिमाग की चिंता रही है। पश्चिमवादी बुद्धिजीवियों के लिए सर्वमान्य का अर्थ है 'सबसे पहले जो पश्चिम को मान्य हो' इसका संकेत हमें जान स्टुअर्ट मिल के 'स्वतंत्रता' नामक प्रसिद्ध लेख से मिल जाता है, ''मानवजाति के विकास के साथ ऐसे सिद्धांत विकसित होंगे, जिनके संबंध में अंततः कोई मतभेद या संदेह नहीं रह जाएगा। सभी मनुष्यों की अच्छाई इससे परखी जाएगी कि उसके पास एक साथ ऐसे कितने शक्तिशाली सत्य हैं, जो बिना विरोध के सर्वमान्य हों।'' हाल का सबसे बड़ा सर्वमान्य सच वैश्वीकरण है, जो सभी देशों ने माना है। युद्ध कभी पश्चिमी देशों के मोर्चे पर नहीं होते। किसान आत्माहत्या पश्चिमी देशों में नहीं करते। कुपोषण और खाद्य-असुरक्षा पश्चिमी देशों में नहीं है। हिंसक जातीय विद्वेष पश्चिमी जातियों में नहीं हैं। एशियाई, लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों की तरह भयंकर विषमता पश्चिमी देशों में नहीं है। यदि तब भी वैश्वीकरण का वर्तमान इकहरा रूप एक सर्वमान्य सत्य है तो सोचना होगा कि यह वस्तुतः किनके लिए महान सत्य है और किनके लिए विपत्ति है ? वैश्वीकरण जिनके लिए विपत्ति है, वे जरूर इस पर संदेह करेंगे। जाहिर है, उतना ही संदेह मानवाधिकार की इकहरी वैश्विक धारणा पर भी संभव है।

वैश्वीकरण के दो साल बाद 1993 में मानवाधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में यह विवाद शुरू हुआ कि मानवाधिकारों का कोई एकरेखीय वैश्विक रूप नहीं हो सकता। अतः एश्यिाई देशों के संदर्भ में मानवाधिकारों को पुनर्पारिभाषित किया जाए। इस बहस में यह कहा जा रहा था कि मानवाधिकार के विकास का इतिहास अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। पश्चिम और पूर्व की सभ्यताओं में फर्क है।

पश्चिमी देशों में यदि व्यक्तिगत अधिकार और वैयक्तिक कर्तव्य की प्रधानता है तो पूर्व में सामुदायिक अधिकार और सामुदायिक कर्तव्य की। एशिया की परंपरागत संस्कृतियों में इस तरह की सोच नहीं है कि व्यक्ति समुदाय के ऊपर है। एशियाई सांस्कृतियों परंपराओं में व्यक्ति आमतौर पर किसी जातीय-जनाजातीय समूह या मजहबी समुदाय का हिस्सा होता है। इन वास्तविकताओं की रोशनी में देखें तो यह बात आती है कि मानवाधिकार को एक -रेखीय वैश्विक कोण से नहीं देखा जा सकता। मानवाधिकार की कोई भी चिंता सांस्कृतिक विविधता के संदर्भ को हटाकर सार्थक नहीं हो सकती। मानवाधिकार आंदोलन एक महत्पूर्ण काम है, पर इसमें खुलापन लाकर निश्चय ही बहुतों का यह संदेह दूर करना होगा कि यह दुनिया पर पश्चिमी मूल्यों को थोपने का अभियान है।

हम जानते हैं कि वैश्विक मानवाधिकारों को लेकर चिंता के साथ पिछले दो-तीन दशकों में सांस्कृतिक बहुलता या 'बहुसांस्कृतिकता' को भी व्यापक स्वीकृति मिली है। विकसित देशों और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं, दोनों जगह बहुसांस्कृतिकता के पक्ष में अक्सर बोला जाता है। यह अलग बात है कि कुछ पश्चिमी देशों में यदि सिख पगड़ी पहनता है या मुस्लिम औरत बुर्का पहनती है तो इसे निषिद्ध ठहरा दिया जाता है। पश्चिमी देशों में अपनी ही संस्कृति को श्रेष्ठ समझने की आदत है, जबकि वहां भी नस्लीय दंगे हो रहे हैं, हिंसा बढ़ रही है। पश्चिमी दुनिया में मानवाधिकारों पर इस तरह बात होती है कि यहां ऐसी कोई समस्या न हो, मानवाधिकार के लिए संघर्ष के इलाके सिर्फ एशियाई देश हों। पश्चिमी देश मानवाधिकार, स्वतंत्रता और गरिमा पा चुके हैं और दूसरे देश इनसे वंचित हैं। धारणा बना ली गई है कि पश्चिमी देश सदा से उदारवादी हैं और गैर-पश्चिमी देश सदा से कट्टर हैं। यह नहीं देखा जाता कि गैर-पश्चिमी देशों में जो सामुदायिक खाइयों और कट्टरता है, वह साम्राज्यवादी निर्मिति है। सिर्फ मानवाधिकार का प्रश्न उठाकर इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

इसके लिए पश्चिमी सोच और रणनीति में बुनियादी सुधार की जरूरत है। यह सोचना काफी नहीं है कि गैर-पश्चिमी देशों को अंग्रेजी राज में जिस तरह 'सभ्यता' दी जा रही थी, उसी तरह अब इन्हें 'मानवाधिकार' की जरूरत है। इस ओर भी दृष्टि जानी चहिए कि मानवाधिकार की जरूरत बहुराष्ट्रीय कंपनियोे के निर्दय बाजारू साम्राज्यवाद के संदर्भ में भी है। मानवाधिकार हनन के प्रत्यक्ष रूपों के अलावा कई अप्रत्यक्ष रूप हैं। हम जानते हैं कि वैश्वीकरण के संदर्भ में 'मानवीय चेहरे' की अनिवार्यता बार-बार घोषित की गई है। प्रश्न उठता है, क्या मानवाधिकार के नाम पर सिर्फ व्यक्तिवाद या स्वेच्छाचारिता पनपाने की योजना है, जिस तरह वैश्वीकरण के 'मानवीय चेहरे' के पीछे विषमता बढ़ाने की योजना ?

यही जगह है, जहां हम देख सकते हैं कि मानवाधिकार का परंपराओं से क्या संबंध हो, मानवाधिकार आंदोलन विविध सांस्कृतिक परम्पराओं को कैसे संबोधित करे और इसके साथ यह कुछ साझा मानवाधिकारों को भी कैसे पहचाने। इस पर सोचने की जरूरत है कि मानवाधिकारों के संदर्भ में एशियाई आवाज क्या हो और इसे कैसे जनप्रिय बनाया जाए। काफी लोगों को पता भी नहीं है कि मानव होने के नाते उनके क्या-क्या अधिकार हैं और क्या हो सकते हैं। बड़े शहरों को छोड़ दे तो छोटे शहरों और गांवों में मानवाधिकारों को लेकर जागरूकता का बड़ा अभाव है। मानवाधिकार की जिला अदालतों में मामले ही नहीं होते। इसलिए मानवाधिकारों के लिए जागरूकता-अभियानों की जरूरत है और निश्चय ही यह भी समझना होगा कि नई स्थितियों में मानव कर्तव्य क्या हैं।

हम जानते हैं कि स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ पश्चिमी चीजें हैं। इनके आधार विश्व के सभी महान धर्मों में है। 'महाभारत' में कहा गया है, ''दूसरे के साथ ऐसा कुछ न करो, जो अगर तुम्हारे साथ हो तो तुम्हारा नुकसान हो।'' क्ष्;ग्प्प्द्ध 113.8द्व। ऐसे कथन हिंदू, ईरानी, बौद्ध, ईसाई, चीनी, इस्लामी, सिख हर परम्परा में हैं। इसका अर्थ है कि मानवाधिकार का एक सार्वभौम रूप हो सकता है, जिस तरह आधुनिकता की एक सामान्य या साझा संस्कृति हो सकती है। समस्या यह है कि हमें चारों तरफ फिलहाल आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी आधुनिकता ही दिखाई दे रही है, जो खुदगर्जी, व्यक्तिवाद और अति-व्यक्तिवाद की ओर ले जाती है। निश्चय ही मानवाधिकार को पश्चिमी व्यक्तिवाद या स्वेछाचारिता में सीमित नहीं किया जा सकता।

हाल में रतन टाटा ने शिकायत की कि नीरा राडिया से फोन पर हो रही उनकी बातचीत टेप कर ली गई, जो उनके मानवाधिकार का हनन है। क्या मानवाधिकार व्यक्ति की निजता के लिए ऐसा स्पेस भी दे सकता है कि वह गलत सौदे करे, मनमानी करे और कोई यह सब न देखे। फिर आतंकवादियों और माओवादियों के फोन भी क्यों टेप हों ? जाहिर है, मानवाधिकार का अर्थ गलत मुनाफा, अन्यायपूर्ण ढंग से विकास, यह वैश्वीकरण की राह से मनुष्य के जीवन, रोजगार और जल-जंगल-जमीन के अधिकार। छीनना नहीं हो सकता है। कि इस सवाल को इस तरफ खड़ा करना चाहिए। वैश्वीकरण की छाया में हो रहे परिष्कृत आर्थिक अत्याचारों को इसमें लाया जा सके।

मानवाधिकार का मतलब सिर्फ व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के क्षेत्रों का विस्तार भर नहीं है। इसके कुछ सामाजिक पहलू भी हैं, क्योंकि मानवाधिकार का मतलब राष्ट्रीय-सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त होना नहीं है। मानवाधिकार का अर्थ स्वेच्छाचारिता नहीं है, बल्कि न्याय का अधिकार है। यह भी एक बात है कि 'न्याय' शब्द का मन मुताबिक सीमित अर्थ निकालना सही नहीं है बल्कि न्याय का पूरा अर्थ लेना होगा। आज वैश्वीकरण के 'मानवीय चेहरे' की जो बात होती है, वह मानवाधिकार की भावना से निकली है। यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां गरीबी और विषमता को संबोधित करने के लिए नए-नए ड्रामा करती है। फलतः मानवाधिकार दिखावटी मानवीय चेहरे में सिकुड़ जाता है, यह एक नकाब बन जाता है। इसी तरह यदि समाज में सामुदायिक दमन के रूप बचे हैं तो मानवाधिकार का अर्थ अस्मिता की राजनीति के तहत संपूर्ण राष्ट्र या समाज को विघटित कर देना नहीं हो सकता, उसकी पुनर्कल्पना उसे नया आकार देना ही हो सकता है, जो एक सामूहिक सामजिक आंदोलन के बिना मुमकिन नहीं है।

सोशल नेटवर्किंग के संदर्भ में कम चिंता व्यक्त नहीं की जाती। कहा जाता है कि नेटवर्क से आपत्तिजनक चीजों को तुंरत हटा लेना चाहिए, क्योंकि इनसे लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। इस जगह पर भी मानवाधिकार का प्रश्न उठता है। क्या हटाया जाए, क्या रखा जाए, यह कौन तय करेगा ? दूसरे, रोज लाखों चीजों से गुजरना संभव नहीं है, कुछ प्रतीकात्मक अवरोध भले संभव हों। वैश्वीकरण को न्यायसंगत बनाने की जगह उससे निराशा में गुस्से, विद्वेष, खीझ औ किस्म-किस्म के असंतोषों को दबाने की योजना बनाना खुद एक खीझ से भरा सोच है। टेक्नोलॉजी के दुरूपयोग से बचना विकसित होती जा रही टेक्नोलॉजी के युग में लगातार मुश्किल होता जाएगा। इसका मनुष्य के नियंत्रण से बाहर जाना खुद मानवाधिकार-हनन का मामला है।

आमतौर पर मानवाधिकारों को एकरेखीय वैश्विक रूप में देखकर सांस्कृतिक विविधता की अवहेलना की जाती है। दरअसल हम 'स्थान' की अवहेलना नहीं कर सकते, 'परम्पराओं' की अवहेलना नहीं कर सकते। आज 'स्थान' और 'परम्पराओं' की उपेक्षा इसलिए भी मुश्किल है कि वैश्वीकरण के अत्याचारों के बीच सांस लेने की थोड़ी जगह बस यहीं होती है। यह जगह शहरातियों को पिछड़ी लग सकती है, पर कई बार 'स्थान' और 'परम्पराएं' अधिक उदात्त होती हैं, अधिक मूल्यवान होती हैं वे हमेशा निर्दय जगहें नहीं होती। मानवाधिकारों के संदर्भ में 'स्थान' और 'परम्पराओं' को महत्व देने का यह अर्थ नहीं है कि लंबे समय से चली आ रही मसलन बाल विवाह, सांप्रदायिक और जातिवादी भेदभाव, धार्मिक अंधविश्वास, 'आनर कीलिंग' क्षेत्रीय जातीय हिंसा जैसी चीजों का समर्थन किया जाए। मानवाधिकारों को 'स्थान' या सांस्कृतिक विविधता के संदर्भ में देखने का अर्थ सिर्फ यह है कि 'स्थान' के असंतोषों, पर्यावरण-क्षय और नए जमाने में उच्च आदर्शों के हो रहे तेजी से पतन को भी समझा जाए, क्योंकि मानवाधिकार के नाम पर कई बार व्यक्तिवाद, खुदगर्जी और वित्तीय स्वेच्छाचारिता को मौका मिलता है। खासकर वे देश जो लंबे समय तक औपनिवेशिक ज्यादतियों के शिकार रहे हैं, उन्हें अपनी राष्ट्रीय भाषाओं और सांस्कृतिक परंपराओं से न केवल एक पहचान मिलती है बल्कि उनका सोच भी आकार पाता है। हमें मानवाधिकारों के दायरे को विस्तृत करते हुए देखना होगा कि पश्चिमी सांस्कृतिक आक्रमण के वरक्स अपनी अपनी भाषा और संस्कृति से संबंधित अधिकारों को मानवाधिकार में कैसे शामिल किया जा सकता है। खासकर जब बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता की बार-बार दुहाई दी जा रही हो, पर एक ही भाषा अंग्रेजी भाषा और एक ही संस्कृति पश्चिमी संस्कृति छाती जा रही हो।

हमारा कहना है कि गैर-पश्चिमी संस्कृतियों को गरिमा देते हुए मानवाधिकार आंदोलन को इस तरह समावेशी बनाया जाए कि यह महज एक पश्चिमी अभियान न लगे। यह बार-बार देखा गया है कि पश्चिम के लोग गैर-पश्चिमी सांस्कृतिक परंपराओं को समझना नहीं चाहते। मानवाधिकारों का गैर पश्चिमी सांस्कृतिक परंपराओं से संबंध स्थापित किए बिना और वैश्वीकरण के परिदृश्य में सामने आई नई क्रूरताओं को मुद्दा बनाए बिना मानवाधिकार आंदोलन में व्यापकता नहीं लाई जा सकती। हम निश्चय ही तब स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय के उच्चतर लक्ष्यों की ओर नहीं बढ़ सकते। क्या मानवाधिकार के भीतर आदिवासियों और जनजातियों को लेकर चिंताए हैं, क्या स्त्रियों और दलितों को लेकर चिंताएं हैं और कश्मीर या पूर्वोत्तर की अंशाति को लेकर चिंताएं है ? निश्चय की मानवाधिकार की धारणा स्थिर नहीं हैं। इसका संबंध सभी स्थानों, सभी समुदायों और सभी सांस्कृतिक परंपराओं से है ही, नए मुद्दों से भी है।

हम जानते हैं कि वैश्वीकरण के जमाने में ही मानवजाति सर्वाधिक खंड-खंड हो रही है। एक तो न अब 'मानवीय आत्मसम्मान' और 'मनुष्यता' पर कहीं सामूहिक रूप से जोर दिया जाता है और न अब 'आर्थिक शोषण' जैसे शब्द कहीं चर्चा में हैं। कुछ मुद्दे हमारे सोच के हाशिए पर चले गए हैं। ऐसी घड़ी में मानवाधिकार को 'विकास' के साथ-साथ 'परम्परा' के संदर्भ में भी देखना चाहिए। हम यदि भारतीय साहित्य की परम्पराओं पर एक नजर डालें, सबसे पहले भक्ति आंदोलन में मानवीय आत्सम्मान, मानवजाति की एकता और आत्मोकर्ष का स्वप्न पाते हैं। भक्ति आंदोलन में वैयक्तिकता के साथ 'निर्वैर' 'सामासिकता' और 'मानवजाति की अखंडता' सबसे महत्त्वपूर्ण मूल्य हैं। 11वीं सदी में रामानुजाचार्य हुए थे। वह कहते थे, ''चांदी और सीप दो वस्तुएं हैं। किसी में किन्हीं तत्वों की कमी है, किसी में किन्हीं तत्वों की कमी है। इसके बावजूद चांदी के कुछ तत्व सीप में विद्यमान हैं। समानता के ये अंश दोनों की आांशिक एकता के द्योतक हैं'' रामानुज ने एकता को महत्त्व दिया। वह चांदी के कीमती और सीप के मूल्यहीन होने के पचड़े में नहीं गए। एक घटना है, वह पवित्र नदी में नहाकर निकलते थे और घाट पर खड़े एक शूद्र के कंधे पर हाथ-रख देते थे। किसी ने उनसे पूछा, आप नहाकर अपने को शुद्ध करते हैं फिर शूद्र को छूकर बार-बार अशुद्ध क्यों हो जाते हैं ? रामानुज ने जवाब दिया, ''नदी में नहाकर मैं अपनी देह को शुद्ध करता हूँ, शुद्र को छूकर अपने मन को शुद्ध करता हूँ।'' समझना चाहिए कि मानवाधिकार की लड़ाई की एक समृद्ध परम्परा है। वेदांत, बौद्ध धर्म और भक्ति आंदोलन के समय में कई विषमताओं के बीच भी मानवाधिकार की चेतना आदर्शवादी रूप में थी। पहले भी आवाजें उठी थीं। वे सभी भक्त कवि बसवण्णा, ज्ञानेश्वर, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, रैदास मीरा आदि कवि अपने समय के कठोर धार्मिक ढांचे से असहमत लोग थे। सूफी भी असहमत लोग थे, कई अपने विश्वास के लिए फांसी पर झूल गए थे।

राजा राममोहन राय (1774-1833) ने एक टिप्पणी लिखी थी, 'पृथ्वी के मनुष्य का आम अधिकार' इसमें उन्होंने लिखा, ''सभी मनुष्य एक संप्रदाय के अनुयायी न होने के बावजूद इस संसार में तारकों का प्रकाश, वसंत का आनंद, वर्षा की जलधारा, शारीरिक स्वास्थ्य एवं आर्थिक स्वच्छंदता, देह और मन का सौंदर्य आदि इस धरती पर प्राप्त होनेवाली सभी चीजें नैसर्गिक आशीर्वाद की तरह पाते हैं। इसी तरह मनुष्य सर्व-धर्म निरपेक्ष रूप से एक ही तरह की असुविधाएं, दर्द, अंधकार और शीतलहरी, मानसिक व्याधि, आर्थिक दैन्य, देह और मन की विकृति आदि दशाओं से समान रूप से गुजरते हुए इस पृथ्वी पर वास कर रहे हैं।'' नवजागरण के उस दौर की विश्व चिंता है, जिसमें आम मानवाधिकार भी एक मुद्दा है। बंकिमचंद्र (1838-1894) ने 'साम्य' शीर्षक निबंध में लिखा, ''प्रत्येक मनुष्य के अधिकार समान हैं- साम्य नीति यही है। स्त्रीगण भी मनुष्य जाति है, अतएव स्त्रीगण को भी पुरूषों जैसे अधिकार मिलने चाहिए।'' बंकिम का ध्यान दलितों की ओर भी गया। नवजागरण की आम मानवाधिकार की धारणा में स्त्री और दलित मुद्दे जुड़े।

दलितों के लिए लड़ने वाले फुले (1827-1890) ने जागरूक समाज सुधारकों की तारीफ करते हुए गुलामगीरी (1873) की प्रस्तावना में एक व्यापक दृष्टिकोण से लिखा था, ''इस परोपकारी बुद्धिजीवी वर्ग का हमें दासता से मुक्ति दिलाने में कोई स्वार्थ नहीं है, बल्कि उसे प्राणों की बाजी लगाकर यह कार्य करना पड़ रहा है। इस विषय पर सोचने से यह बात ध्यान में आती है कि मनुष्य मात्र को अपनी वैचारिक एवं आर्थिक आजादी पाने का पूरा हक है।'' इस कथन से यह संदेश मिलता है कि मानवाधिकार आंदोलन को यदि तीव्र करना हो तो समाज सुधार के कार्यों को एकबार फिर हाथ में लेना होगा। सामाजिक चेतना के लिए अग्रसर हुए बिना मानवाधिकार आंदोलन एक सतही मामला होकर रह जाएगा।

दरअसल 'वैश्विक' और 'स्थानीय' में अंतर्विरोध नहीं हो सकता, यदि 'वैश्विक' एक अप्रभुत्ववादी, अनऔपनिवेशिक और मानवीय भूमि पर फले-फूले। यह स्थिति फिलहाल नहीं है। इसलिए इकहरी वैश्विक अंतर्वस्तु वाला मानवाधिकार आंदोलन कई बार संदेह पैदा करता है।

प्रेमचंद (1880-1936) के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' में एक अत्याचारी कारिंदे की हत्या करने के जुर्म में जब मनोहर ही नहीं कई गांववालों को पुलिस गिरफ्तार करती है, प्रेमशंकर बीच में कूदकर इन गांववालों को न्यायिक मदद दिलाता है। एक समय स्वधीनता-संग्राम में गिरफ्तार देशवासियों को कानूनी मदद देने के लिए कई वकील मानवाधिकार-भावना से खड़े हो जाते थे। प्रेमचंद का एक उपन्यास है 'कर्मभूमि'। इसमें एक भिखारी चरित्र सूरदास चारगाह के लिए छोड़ी अपनी जमीन सिगरेट कारखाने के लिए जानसेवक को बेचना नहीं चाहता। वह अड़ जाता है। उसकी झोपड़ी को अंग्रेजी राज की पुलिस घेर लेती है। यह दृश्य जैसे आज ताजा हो गया है। सूरदास की जमीन है, वह नहीं बेचना चाहता। वह अकेले लड़ता है। अंततः व्यापारी, अंग्रेजी शासन और जमींदार की सांठगांठ से उसकी जमीन छीन ली जाती है। सूरदास लड़ाई में असफल हो जाता है। प्रेमचंद ने मानवाधिकार को उपनिवेशवाद से मुक्ति के संदर्भ में देखा था। किसान की जमीन किसान की है, इस रूप में मानवाधिकार को देखा था।

इतना ही नहीं आइंस्टीन को जब यहूदी होने के कारण अपना देश छोड़ना पड़ा तब भी प्रेमचंद मुखर थे, ''यूरोपीयन संस्कृति की तारीफ सुनते-सुनते हमारे कान पक गए। उसको अपनी सभ्यता पर गर्व है। हम एशियावाले तो मूर्ख हैं, बर्बर हैं, असभ्य हैं। लेकिन जब हम उन सभ्य देशों की पशुता देखते हैं, तो जी में आता है, ये उपाधियां सूद के साथ क्यों न उन्हें लौटा दी जाए। प्रो0 आइंस्टाइन जैसे विद्वानों को केवल यहूदी होने के कारण देश से बहिष्कृत कर दिया गया और संपत्ति छीन ली गई।'' इन कुछेक उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है कि मानवाधिकारों का आंदोलन जब व्यापक रूप से अस्तित्व में नहीं था, तब भी साहित्य में इसकी आवाजें थी।

कवि अज्ञेय (1911-1987) मानवीय स्वतंत्रता और गरिमा के बड़े समर्थकों में एक थे। उनकी 'मानवीय स्वतंत्रता' में कितना स्पेस है, यह वन संपदा से संबंधित उनके इस कथन में देखा जा सकता है, ''वन संपदा-कोई भी प्राकृतिक संपदा मनुष्य के दोहन के लिए नहीं है और उसे केवल आय अथवा मुनाफे की दृष्टि से देखना अनर्थकार है, बल्कि एक तरह का आत्माघात है। वन इसलिए नहीं है कि उससे वन विभाग को आय हो, ठीक वैसे ही जैसे देश में जन (सिर्फ) इसलिए नहीं है कि उससे सरकार को आयकर की प्राप्ति हो सके।'' मानवाधिकार की धारणा के केंद्र में सिर्फ 'मानव' है, जो इस धारणा की एक सीमा है। यह 'मानव' आज और सीमित होकर पश्चिमी ढांचे के वैश्वीकरण की छाया में महज 'आधुनिक उपभोक्ता' में बदल जाता है। आज हम देख सकते हैं कि मनुष्य सबसे अधिक बाजार की कैद में है। बाजार अब अंततः एक सुंदर जेल है। चिंताजनक है कि इसके बाहर कोई दुनिया नहीं है। बड़ी वित्तीय पूंजी ने मनुष्य को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आखेट बना दिया है। ऐसी माया छाई है कि शिकार सम्मोहित होकर खुद शिकारी की तरफ खिंचा आता है। आज मनुष्य का आत्मसम्मान मुनाफाखोरों की भेंट चढ़ चुका है। कोई वैचारिक स्वतंत्रता नहीं है, आइडियोलॉजी पर टेक्नालॉजी हावी है। यह वह समय है, जब मानवाधिकार 'उपभोक्ता के अधिकार' तक सीमित है, अर्थात यदि आप उपभोक्ता नहीं हैं तो आपके पास मानवाधिकार भी नहीं हैं।

मानवाधिकार को यदि एक पांखड और बौद्धिक विलास नहीं बनना है तो इसे प्रथमतः भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं और साहित्य के संदर्भ में कुछ और खोलने की जरूरत है। द्वितीयतः मानवाधिकार को बाजार की तानाशाही के संदर्भ में पुनपरिभाषित करने की जरूरत है। तभी इसे जनजागरण का एक अर्थपूर्ण औजार बनाया जा सकता है। मानवाधिकार मुख्यतः न्याय की अनुपस्थिति से जन्मा आंदोलन है। यह प्रशासन की संवेदनहीनता से टकरानेवाला अभियान है। मानवाधिकार कहते ही स्पष्ट हो जाता है कि समाज में न्याय नहीं हो रहा है। संवैधानिक अधिकार है, पर अधिकार हासिल नहीं हो रहा है। रसोईघर से लेकर खेत, अस्पताल, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा और दफ्तर तक मानवाधिकार हनन के आज अनगिनत दृश्य हैं। यह दुनिया रोज अधिक असुरक्षित और वंचनाओं से भरी जगह होती जा रही है।

अब हालत इतनी पेचीदा है कि सभी बड़े अन्याय सुव्यवस्थित ढंग से हो रहे हैं और अधिकांश मामलों में विरोध हो नही पाता। इस समय विरोध की कोई असरदार आवाज नहीं हैं, बस सिर्फ कुछ प्रतीक बीच-बीच में उड़ते हैं। इस वजह से करोड़ों लोग असहाय हैं। वे समझ नहीं पाते कि उनके साथ कोई अन्याय हो रहा है। हमें पता है कि मानवाधिकार हनन के लाखों मामले जागरूकता के अभाव में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास पहुंच नहीं पाते। अदालत में बिना मोटी रकम के न्याय नहीं मिलता। वर्षों तक सुनवाई चलती रहती है। यह खूब है कि आर्थिक सुधार की काफी चर्चा होती है, पर कोई आदमी और न्यायविद भूलकर भी न्यायिक सुधार की आवाज नहीं उठाता। मानवाधिकार आयोग के पास कई किस्म के मामले पहंचते हैं। इन मामलों में कश्मीर में बुर्का न पहनने के जुर्म में आतंकवादियों द्वारा तीन लड़कियों को मार डालने की घटना से लेकर पत्रकारों, लेखकों और कलाकारों पर हमले और फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की घटनाएं शामिल हैं। आज कहा जाता है, कुपोषण है तो पॉप संगीत सुनो। इस पर बहस होनी चाहिए कि शीतलहरी और लू से मरना था गांवों का, दिल्ली एयरपोर्ट टर्मिनल थ्री के जमाने में बाढ़ से तबाह होना मानवाधिकार हनन का मामला है या नहीं।

आज खुद 'मानव' शब्द विघटित होता जा रहा है। अंध-राष्ट्रीय क्रूरताएं बढ़ी हैं। राजनीतिक हिंसा बढ़ी है और रोज हत्याएं हो रही हैं दूसरी तरफ, बौद्धिक स्वतंत्रता बाजार में गिरवी है। अब वे ही संघर्ष होते हैं, जिनके लिए कहीं से पैसा आता है, पेमेंट होता है, 'पेड स्ट्रगल' ! अब समाज में लोग सिर्फ 'समर्थक' या 'दुश्मन' के रूप में देखे जा रहे हैं, स्वाधीन होकर रहना मुश्किल हो गया है। असहमति का भविष्य अंधकारमय है। वैश्वीकरण के जमाने में चारों तरफ 'आजादी' और 'उन्मुक्तता' के दृश्य हैं, पर वास्तविकता यह है कि मनुष्य वैयक्तिकता, आजादी और विचाराधारा के साथ गरिमापूर्वक जी नहीं पा रहा है। चारों तरफ भीषण असंतोष पर कोई प्रभावी आंदोलन नहीं हैं। इस परिदृश्य में मानवाधिकार आंदोलन को कुछ गिनचुने मुद्दों से विस्तृत करके किसी अलगाव की जगह जन आंदोलन के बीच से विकसित करने की जरूरत है। निश्चय ही विकास के नए अत्याचारों को पहचानकर मानवाधिकार आंदोलन का पुनर्गठन करना होगा, तभी इस आंदोलन को ताजगी मिलेगी, अन्यथा यह आंदोलन अंधेरे में क्षणभंगुर आतिशबाजी है 

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(मानवाधिकार संचयिका, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से साभार)

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