ई-बुक : प्राची - जुलाई 2015 - कहानी : मास्टरजी

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मास्टरजी प्रभात दुबे कै से होते हैं फरिश्ते? कैसे होते होंगे देवदूत? किसने देखा है इनको? क्या आप विश्वास करेंगे कि मैंने एक फरिश्ते को ...

मास्टरजी

प्रभात दुबे

कैसे होते हैं फरिश्ते? कैसे होते होंगे देवदूत? किसने देखा है इनको? क्या आप विश्वास करेंगे कि मैंने एक फरिश्ते को देखा ही नहीं बरसों उनके साथ भी रहा हूं. यह वही फरिश्ता था जिसके सामने मैंने कई बरस पहले जब मेरी उम्र चार-पांच बरस के आसपास रही होगी, तेज बारिश के दौरान धीरे-धीरे प्लेटफार्म पर थमती हुई लोकल ट्र्ेन में एक अदद सिक्के के लिये अपनी छोटी सी गर्द भरी हथेली फैलाई थी. वह मुझे नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक कई बार गौर से देखता रहा. वह मेरा नन्हा सा धूल भरा हाथ, जिसे वह अपनी साफ सुंदर बड़ी सी हथेली में काफी देर तक थामे रहा. मेरे छोटे से हाथ की छोटी-छोटी उभरती हुई रेखाओं में उसने न जाने क्या देखा कि अचानक उसके मुंह से निकला- ‘बेटे, क्या नाम है तुम्हारा?’

मैं जब तक इस सवाल को समझता, सोचता या कुछ कहता बैसाखी के सहारे नजदीक आ रहे एक बूढ़े अपाहिज भिखारी ने जवाब देते हुए कहा था- ‘युनूस नाम है इसका?’

‘मुसलमान है यह?’ वह बुदबुदाया.

फिर उस आदमी ने उस भिखारी से सवाल किया- ‘कौन हैं इसके मां-बाप, और यह कहां से आया है?’

‘लावारिस है? किसे मालूम है कि अकेला, अनाथ या परित्याग किया गया यह कौन है? कौन है इसकी मां और कौन है इसका बाप? एक महीने से इसी प्लेटफार्र्म पर कोई रोता-बिलखता हुआ छोड़़ गया था. तब से यही रह कर भिखारियों के साथ भीख मांग कर अपना पेट भरता है.’’

‘तुम कैसे कह सकते हो कि यह मुसलमान ही है?’

उस छोटे से लड़के के दायें हाथ में गुदे गुदने की ओर इशारा करके उसने कहा- ‘यह देखिये उर्दू में लिखा है युनूस, युनूस खान, इसीलिये हम सब इसे मुसलमान समझते है.’’

यह कहते हुए वह भिखारी हाथ फैलाते हुए डिब्बे के दूसरे यात्रियों की ओर बढ़ गया. अचानक उस शख्स ने अपने दोनों हाथो में मेरी छोटी सी हथेली लेकर एक गहरी सांस लेकर उसे छोडते हुए कहा- ‘बेटे, तुम्हारी छोटी सी प्यारी सी यह नन्हीं हथेली किसी के आगे फैलाने के लिये या भीख मांगने के लिये नहीं है, तुम्हारी भाग्य रेखायें कुछ और कह रही है और तुम कर कुछ और ही रहे हो?’

वह शख्स कुछ और भी कहने वाला था कि ट्रेन दादर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर दो पर थमते-थमते ठहर गई. उसने डिब्बे से सभी लोगों के उतरने का इंतजार किया और जब उसे यह इत्मिनान हो गया कि उसे अब कोई नहीं देख रहा है तो उसने प्यार से मेरे गालों को सहलाया, सिर पर हाथ फेरा धीरे से अपनी गोद में लेकर ट्रेन से नीचे उतर कर तेजी से प्लेटफार्म के बाहर आया. कुछ पलों के बाद ही वह एक टैक्सी में बैठ चुका था और टैक्सी तेजी से उसके घर की ओर जा रही थी. उस समय मैं दुनिया से बेखबर, अपने से ही अनजान उस फरिश्ते की गोद में बैठा हुआ धीरे-धीरे नींद के आगोश में समा चुका था.

वोे मेरे वालिद नहीं थे, हो भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्होंने मुझे जन्म नहीं दिया था. मैं मुसलमान था और वो हिन्दू थे. हां यह सच था कि मैंने कभी अपने जन्मदाता को तो नहीं देखा था लेकिन मैंने इस जीवनदाता को ही अपना सब कुछ मान लिया था. ये मेरे लिये मेरे प्यारे अब्बू और सभी परिचितों के लिये मास्टर जी थे. छः फुट का लहीम-शहीम कद, खुरदरा चेहरा लिये हुए, अपने आप में गुम रहने वाले बेहतरीन इंसान थे मास्टर जी. वे अविवाहित थे. उनकी पसन्द की पोशाक थी खादी का कुर्ता-पायजामा, गांधी टोपी और खादी आश्रम की चमड़े की चप्पलें. मैंने उन्हें कभी भी आधुनिक परिधानों में नहीं देखा था. मेरा मानना है कि वे तन से ही नहीं मन से भी कहीं न कहीं सच्चे गांधीवादी इंसान थे. दादर के मेन मार्केट में ‘शर्मा कोचिंग सेण्टर चलाया करते थे.जो उनके भरण पोषण का एक मात्र साधन था.

आज जिन्दगी के इस मुकाम पर आकर पीछे की ओर मुड़ कर देखता हूं तो सोचता हूं कि यदि मास्टर जी मुझे उस दिन अपने साथ ट्रेन से घर न लाते तो मैं निश्चित ही आज भी कहीं भीख मांग रहा होता या अपराधों की अंधेरी, संकरी, फिसलन भरी गलियों में गुम हो चुका होता. मैं अभी भी उनके साथ ही दादर के मनमोहन नगर कालोनी के सत्यकाम अपार्टमेंट में रहता हूं. वे मेरे लिये क्या थे यह तो मैं जानता हूं या मेरा खुदा.

बीती रात जब मैं घर से चलते वक्त उनसे मिला था तो उन्होने बहुत ही धीरे से मुझसे कहा था- ‘बेटा यूनुस मैं ठीक तो हो जाऊंगा न?’

‘मैंने उनका दाहिना हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर बहुत ही मुलायम शब्दों में कहा था- ‘हां-हां क्यों नहीं अब्बू. आप ज्यादा बीमार हैं भी नहीं. मैंने इंजेक्शन दे दिया है और दवाई भी बुलवा कर रख दी है. नर्स आपके पास ही है. बस आप समय से दवाई लेते रहिये और आराम कीजिये, खुदा चाहेगा तो आप बहुत जल्द तन्दुरुस्त हो जायेंगे. आप बेफिक्र रहें.’’

‘तुम कब वापिस आओगे बेटे?’

‘अब्बू, कल सुबह तक आ जाऊंगा.’

‘ठीक है बेटे अपना ख्याल रखना. वैसे बेटे यदि तुम न जाओ तो?’

‘अब्बू, एक नहीं दो-दो ऑपरेशन हैं. सुबह होते ही जरूर वापिस आ जाऊंगा ’’

‘‘ठीक है बेटे.’’

कहकर उन्होंने अपनी आंखें बन्द कर लीं. शायद वे मेरे लिये अपने ईश्वर से कोई प्रार्थना कर रहे थे.

रात साढ़े तीन बजे दोनों ऑपरेशन के बाद मैं ऑपरेशन रूम से बाहर निकला ही था कि मेरे मोबाइल की घण्टी बजी. मैने मोबाइल ऑन किया.

‘हलो मैं भाटिया बोल रहा हूं. आपका पड़ोसी.’

मैंने अधीर होकर कहा- ‘हां अंकल जी कहिए क्या हुआ ?’’

‘‘अभी-अभी मास्टर जी का इंतकाल हो गया है?’

‘अलहम्दोलिल्लाह.’ कह कर कुछ पलों के लिये मैंने अपनी आंखों को बंद किया और फिर बड़ी बेसब्री से पूछा-

‘यह सब कैसे और कब हुआ?’

‘ज्यादा देर नहीं हुई है, जब उनकी मृत्यु हुई तब उनके कमरे में केवल नर्स थी. अचानक उन्होंने नर्स को आवाज दी. नर्स दौड़कर जब उनके पलंग के पास पहुंची तो उन्होंने कहा- ‘मुझे थोड़ा सा पानी पिला दो.’

नर्स ने तुरन्त उन्हें पानी दिया. पानी पीकर उन्होंने कहा-‘ यूनुस आ गया क्या?’

‘जी नहीं आते ही होंगे?’

यह सुन कर उन्होंने कुछ नहीं कहा और अपनी आंखें सदा सदा के लिये बंद कर ली.

भाटिया जी इसके बाद कुछ और कहते कि मैंने तत्काल अधीर होकर कहा- ‘आप मेरा इंतजार कीजिये मैं जल्द से जल्द पहुंच रहा हूं.’

इस वक्त मेरे दिल-दिमाग में केवल मेरे अब्बू थे और कोई नहीं. मैं उनके बारे में ही सोच रहा था. मैं उनके साथ ही रह कर बड़ा हुआ. उनकी ही कोचिंग क्लास में पढ़ता रहा. यह उनके द्वारा ही दिये गये ज्ञान का करिश्मा था कि मैं बारहवीं की परीक्षा की मेरिट लिस्ट में सातवें स्थान पर रहा. तब उन्होंने मेरी पीठ पर काफी देर तक हाथ थपथपाते हुए मुझसे कहा था कि- ‘बेटे यूनुस मेरी इच्छा थी कि कोई मेरा छात्र एक बार मेरिट लिस्ट में आये. आज तुमने मेरी यह इच्छा भी पूरी कर दी शाबाश बेटे शाबाश.’

यह सुनकर मैं उनके कदमों पर झुका तो उन्होंने रोते हुए भर्राई हुई आवाज में मुझसे कहा- ‘बेटे तेरी जगह मेरे पैरों में नहीं, मेरे दिल में है.’

उन्होंने एक मुसलमान को अपना बेटा माना यह बात उनके समाज को स्वीकार नहीं थी. समाज की नजरों में यह एक गंभीर अपराध था और समाज ने इस अपराध की उन्हें बहुत सजा दी थी. उनका कोई भी रिश्तेदार कोई भी अपना सगा उनसे कभी मिलने नहीं आता था. इस कॉलोनी के कुछ लोग भी उनसे नाराज थे. वे भी नहीं चाहते थे कि मैं उनके साथ उनका बेटा बन कर रहूं. लोगों की इस नाराजगी से बेपरवाह होकर वे मुझे इन्सान बनाने में लगे रहे. आज उन्हीं की दुआओं और मेहनत के कारण मैं एक सफल डॉक्टर था. अब्बू के साथ रहते और उनसे शिक्षा प्राप्त करते हुए मैंने इतना तो जान लिया था कि दुनिया में केवल दो तरह के मास्टर होते हैं एक वे जो इतना भयभीत कर देते हैं कि आप हिल न सकें और दूसरे वे जो आपको इतना प्रेरित करे कि आपको आसमान की ऊंचाइयां भी बौनी लगने लगी. मास्टर जी आसमान को बौना करने का हुनर जानते थे और उनके यही हुनर के कारण मैं आज डॉक्टर था.

इन्हीं विचारों में खोया हुआ जब मैं अस्पताल से दादर पहुंचा तब तक सुबह के नौ बज चुके थे. मैंने स्टेशन से बाहर निकल कर फिर ऑटो किया और बीस मिनट बाद जब मैं वहां पहुंचा तो मेरे फ्लैट के सामने काफी लोगों की भीड़ दिखलाई दी. सभी खामोशी से मेरा इंतजार कर रहे थे. घर के सामने अंतिम यात्रा का सारा सामान रखा हुआ था. कुछ लोग बांस की सीढ़ी बना रहे थे. वातावरण काफी दुखदाई था. मुझे देखते ही भीड़ में एक हल्की सी सुगबुगाहट हुई और मैंने सुना कोई किसी से कह रहा था कि- ‘यही हैं वह आदमी जिसे मास्टर जी ने पाला पोसा और डाक्टर बनाया है?’

‘अच्छा, यही है वो डाक्टर?’

‘हां, यही है वो डाक्टर, मास्टर जी को कोई और नहीं मिला बेटा बनाने के लिये, बेटा बनाया भी तो एक मुसलमान को.’

इस घृणा से भरी आवाज का मैं जवाब देना चाहता था किन्तु वातावरण की गंभीरता को देखते हुए मैंने खामोश रहना ही बेहतर समझा और तेजी से फ्लैट के अन्दर जाने ही वाला था कि मुझे भाटिया जी ने इशारे से अपने पास रोक लिया. तभी साथ में खड़े हुए उन पन्द्रह बीस लोगों में से एक सज्जन ने भाटिया जी से पूछा- ‘क्या मास्टर जी के किसी और बेटे को भी आना है?’

‘जी नहीं.’

फिर भाटिया जी ने मेरी ओर इशारा कर के कहा- ‘मास्टर जी इन्हें ही अपना बेटा मानते थे और इन्हीं के साथ इसी फ्लैट में रहते थे.’

‘क्यों क्या उनकी और कोई संतान नहीं थी?’

‘जी नहीं, वे अविवाहित थे.’

‘अच्छा बेटे यूनुस, तुम कमरे में जाकर अपने पिता मास्टर जी के अंतिम दर्शन कर लो और मानसिक रूप से तैयार हो जाओ क्योंकि तुम्हें ही मास्टर जी का अंतिम संस्कार करना है.’

यह सुन कर मैं मास्टर जी के कमरे की ओर बढ़ने ही वाला था कि एक तेज आवाज आई- ‘ठहरिये डाक्टर साहब, मास्टर जी का अंतिम संस्कार आप नहीं कर सकते?’

मैंने आवाज की ओर पलट कर देखा, यह आवाज कॉलोनी के एक धार्मिक संस्था के अध्यक्ष की थी.

‘क्यों भाई यह अन्तिम संस्कार क्यों नहीं कर सकते? आपको इसमें क्या एजराज है? यहां जितने भी लोग हैं, उन सभी को मालूम है कि मास्टर जी इन्हें अपना बेटा मानते थे?’

‘देखिये भाटिया जी, बेटा मानने और बेटा होने में जमीन-आसमान का अंन्तर होता है. मास्टर जी इन्हें बेटा जरूर मानते होंगे? किन्तु यह उनके बेटे तो हैं नहीं. इसलिये एक मुसलमान, एक हिन्दू ब्राह्मण का दाह संस्कार करे, यह हम लोगों को मन्जूर नहीं है, और हम यह अधर्म होने भी नहीं देंगे और आप लोेगों ने यह अनर्थ किया तो निश्चित रूप से यहां वह होगा जो आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी.’ कहते-कहते उनकी सांस तेज और भारी होने लगी. आसपास खड़े लोगों ने यह सुनकर कहा तो कुछ नहीं किन्तु उनकी इस बात के समर्थन में उनकी तनावपूर्ण गरदनें हिलने जरूर लगी थीं. कुछ लोगों की गुस्से से हाथों की कसी हुई मुटठियां मेरी नजरों से छिप न सकीं.

मैं कुछ सोचता समझता कि तभी कालोनी के दो मुसलमान युवक भी मेरे नजदीक आकर मेरी सुरक्षा में खड़े हो गये. अब भीड़ भी धीरे-धीरे हम लोगों की ओर आने लगी थी. तभी मेरे नजदीक खड़े हुए एक मुसलमान युवक ने मेरे कान में धीरे से कहा- ‘आप बिलकुल फिक्र न करे भाईजान, आप अकेले नहीं हैं. हम लोगों ने कमेटी वालों को फोन से इत्तिला कर दी है, वे अभी आते ही होगें.’ मैंने उसे भयभीत नजरों से देखा, मगर कहा कुछ नहीं. मैं उस भीड़ का केन्द्र बिन्दु था. सभी मुझे देख नहीं घूर रहे थे. तभी भीड़ में कुछ हलचल सी हुई. एक जीप और कुछ मोटर साइकिलो पर कुछ नवयुवक आ पहुंचे. वे मुस्लिम कमेटी के युवक थे. उन्हें देखते ही एक तेज आवाज हवा में गूंजी ‘जय श्रीराम.’

अनेक कंठों से फिर यही आवाज दुबारा गूंजी- ‘जय श्री राम.’’

कुछ पल पहले का गमगीन वातावरण अब बेहद तनावपूर्ण हो चुका था. कभी भी कुछ भी हो सकता था. हिन्दुओं की इस आवाज पर कोई अन्य प्रतिक्रिया होती कि तभी मास्टर जी के कमरे से भाटिया जी का बेटा तेजी से बाहर निकल कर आया और उसने एक लिफाफा भाटिया जी के हाथो में देते हुए कहा कि- ‘पापा जी अभी-अभी मास्टर जी के बिस्तर के नीचे से यह लिफाफा मिला है.’ भाटिया जी ने तत्काल बेटे के हाथों से लिफाफा लिया और उन सभी के सामने लिफाफा खोला. लिफाफे में से एक कागज निकला जिसमें केवल दो पंक्तियां ही लिखी हुई थी. जिसे उन्होंने पहले मन ही मन पढ़ा और फिर बहुत ही आत्मविश्वास से भरी तेज आवाज में पत्र को पढ़ना प्रारंभ किया- ‘मैं चाहता हूं कि मेरी मृत्यु पश्चात् मेरा मृत शरीर मेडिकल कॉलेज को दान में दे दिया जाये, जिससे भावी डॉक्टर मेरे मृत शरीर से शल्य शिक्षा का ज्ञान प्राप्त कर सके. यही मेरी अन्तिम इच्छा है. जिसे निश्चित ही पूर्ण किया जायेगा ऐसा मैं विश्वास करता हूं.’

हस्ताक्षर

मास्टर जी

मैंने डबडबाई हुई आंखों को चारों ओर घुमा कर देखा अब तेजी से भीड़ छंटने लगी थी. कुछ ही पलों बाद वहां केवल मैं और भाटिया जी के परिवार के अलावा कोई नहीं था. मैं तत्काल दौड़ कर घर के अन्दर गया. मास्टर साहब की मृत देह से लिपट कर रो पड़ा. मैं सोच रहा था कि आज हाड़-मांस के इस फरिश्ते ने कभी चलती ट्रेन से मुझे घर लाकर एक नया जीवन दिया था. फिर मेरी नई जिन्दगी में इन्द्रधनुषी रंग भर कर मुझ जैसे अनाथ, बेसहारा बच्चे को डॉक्टर बनाया और आज फिर अपनी मृत देह मेडिकल कॉलेज को दान कर मुझे एक अनहोनी और विषम परिस्थिति से उबार दिया था.

मैं बहुत देर तक अपना आंसुओं से भरा चेहरा लेकर उस मृत शरीर से लिपटा रहा. कुछ देर बाद जब मन हल्का और कुछ शांत हुआ तो मैं मोबाइल से मेडिकल कॉलेज के डीन माथुर साहब को मास्टर जी की अंतिम इच्छा से अवगत कराते हुए डाक्टरों की टीम और एम्बुलेंस जल्द भेजने हेतु निवेदन कर रहा था.

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सम्पर्कः 111 पुष्पांजलि स्कूल के सामने, शक्तिनगर, जबलपुर-482001 (म.प्र.)

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रचनाकार: ई-बुक : प्राची - जुलाई 2015 - कहानी : मास्टरजी
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