सैफई में आकर समाजवाद के बेसिक को दुबारा सीखो मार्क्स। समाजवाद वह नहीं था जो तुम सिखा गये थे। ’द कैपिटल’ चौबीस खंडों में लिखने से भी वह जमीन नहीं मिली जो सैफई में है। एकबार नेताजी के चरण-चुंबन करो। लाल टोपी धारण करके साइकिल की सवारी करो। उसके बाद जो ज्ञान प्राप्त होगा, वही है सच्चा समाजवाद। लेनिन और स्टालिन को भी लेते आओ और लाल टोपी के सच्चे अर्थों का ज्ञान प्राप्त करो। किसानों और मजदूरों के लिए रोटी की लड़ाई लड़ने से क्या होगा ? उन्हें हीरोइनों के नाच दिखाने की जरूरत है। रोटी तो बेचारे कमा ही रहे हैं लेकिन हीरो और हीरोइनों के ठुमके तो इस जन्म में नहीं देख पाते। यदि ठुमके देखे बिना ही स्वर्ग सिधार गये तो आत्मा चौरासी लाख योनियों में फंस जायेगी। नेताजी इस मूलभूत तथ्य को पहचानते हैं। यह देश ही उत्सवधर्मी है। यहां प्रजा रहती है अपने राजा का जन्मोत्सव मनाती है। तभी तो प्रजातंत्र है जनतंत्र है कहां ? जन के पास तो तंत्र गया ही नहीं। मायानगरी के मित्रों को नेताजी ने आहूत किया किसके लिए केवल उन गरीब किसानों के लिए जिनके खेत पानी कि बिना सूख रहे हैं। वर्षा इस साल नहीं हुई तो अगले साल हो जायेगी लेकिन तारों को जमीन पर बारबार तो नहीं देखा जा सकता न। अरबों रुपये खर्च किये नेताजी ने तो किसके लिए उन्हीं किसानों के लिए न जो महाजनों के कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज तो चुकाना ही होगा लेकिन हीरोइन की लचकती कमर तो जन्म-जन्मांतर के बाद ही दिखेगी। यह है सच्चा समाजवाद।
यदि स्वर्ग में लोहिया और जयप्रकाश जी से भेंट हो तो सैफई का निमंत्रण देना नहीं भूलना। गुरु का सीना छप्पन ईंच का हो जाता है जब वह शिष्य को जीवन की बुलंदियों पर देखता है। लोहिया जी कितने खुश होंगे कि जिस समाजवाद को वह मुंबई से गांव में नहीं ला सके वह उनके चेले ले आये। जयप्रकाश जी, हो सकता है कि सम्पूर्ण क्रांति के महान अर्थ तक पहुंच सकें। रोटी-कपड़ा और मकान की क्रांति तो अधूरी क्रांति होती है। पेट की भूख ही सबकुछ नहीं है। नेताजी का यह कहना कितना सार्थक है कि समाजवाद का अर्थ केवल गरीबी का रोना रोना ही नहीं है। अमीरी और गरीबी की खाई पाटना भी है। जिस नाच को आजतक अमीर देखते थे अब वह गरीब भी देख पा रहे हैं। यह है सच्चा समाजवाद। जिस कमर का आरोह-अवरोह, आजतक अमीर की प्रापर्टी मानी जा रही थी, आज उसके दर्शन गरीबों के लिए भी सुलभ है। यह है सच्चा समाजवाद। वाकई नेताजी ने अमीरी और गरीबी के अंतर को पाट दिया है। साधुवाद। पालकी में बैठा सेठ और उसे ढ़ोता हुआ कहार चलते तो साथ-साथ ही हैं। रिक्शे को खींच रहा आदमी और उस पर बैठी सवारी रहते तो एक ही वाहन पर हैं। क्या हुआ कि गरीब मंच के नीचे से चीखेगा और ताली बजायेगा अमीर मंच पर तारों के गले लगेगा। रात भर अरबों के व्यंजन अमीरों के पेट में जायेंगे और गरीब दूसरे दिन थालियों में बचे भोजन का आनंद लेगा। आनंद तो आया न। सच्चे समाजवाद के प्रचार हेतु एकबार आकर नेताजी का धन्यवाद करो मार्क्स।
शशिकांत सिंह ’शशि’
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