प्राची - फरवरी 2016 - हृदय परिवर्तन / कहानी / राकेश भ्रमर

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  कहानी राकेश भ्रमर जन्मः 1 जनवरी 1956, रायबरेली (उ.प्र.) शिक्षाः एम.ए. (प्राचीन इतिहास) कृतियांः अब तक देश की सभी जानी-मानी प...

 

कहानी

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राकेश भ्रमर

जन्मः 1 जनवरी 1956, रायबरेली (उ.प्र.)

शिक्षाः एम.ए. (प्राचीन इतिहास)

कृतियांः अब तक देश की सभी जानी-मानी पत्रिकाओं में कहानियां, लेख, गजल, गीत और कविताएं प्रकाशित. पांच गजल संग्रह, पांच कहानी संग्रह, चार उपन्यास तथा तीन अन्य पुस्तकें प्रकाशित.

सम्पर्कः ई-15, प्रगति विहार हॉस्टल, लोधी रोड, नई दिल्ली-110003

मोः 9968020930

हृदय परिवर्तन

राकेश भ्रमर

निर्मला देवी एक धार्मिक और संस्कारवान महिला थीं. कम पढ़ी-लिखी थीं, परन्तु पूजा-पाठ नियमित रूप से करती थीं. सारे व्रत-उपवास रखती थीं. दूसरों का छुआ नहीं खाती थीं, परन्तु इतनी धर्मांधता और संस्कारों के बावजूद उनके घर में सुख-चैन नहीं था. पति की सीमित आय थी. एकमात्र लड़का आवारा था और छोटी लड़की बी.ए. करके घर में बैठी थी. अपने संस्कारों के चलते वह बेटी से नौकरी नहीं करवाना चाहती थीं. बी.ए. भी कहां करवाना चाहती थीं. वह तो बेटी की जिद् थी कि पढ़ाई करेगी. बाप ने हिम्मत बंधाई तो बी.ए. कर लिया, वरना वह तो इण्टर के बाद ही बेटी के हाथ पीले कर देना चाहती थीं. कर भी देतीं, परन्तु दहेज आढ़े आ गया. घर में कोई जमा-पूंजी नहीं थी. ऐसी कोई जायदाद भी नहीं थी, जिसे बेचकर बेटी की शादी कर सकतीं. बस कुढ़ कर रह गयीं. लिहाजा बैठे-ठाले बेटी का बी.ए. हो गया.

उन्हें बस एक ही बात से सुख मिलता था, कि उनकी बेटी बहुत सुशील है. किसी लड़के के साथ उसका चक्कर नहीं है, वरना हाय राम! मोहल्ले की किस लड़की का किस के साथ चक्कर नहीं है. सब के लक्षण जानती हैं. मोहल्ले की महिलाएं जब सामने वाले पार्क में इकट्ठा होती हैं, तब मोहल्ले के एक-एक घर की पोल-पट्टी खुल जाती है. फर्क बस इतना होता है कि कोई अपने घर के बारे में नहीं बताता.

निर्मला देवी बड़ी जागरुक महिला थीं. वह अपने घर को छोड़कर पास-पड़ोस के घरों के अन्दर-बाहर की पूरी खबर रखती थीं, खासकर महिलाओं और लड़कियों के

अवैध संबंधों की. अपने पड़ोसी जगमोहन की बेटी स्नेहा के प्रेम-संबंध की खबर उन्होंने ही सबसे पहले मोहल्ला-सभा में महिलाओं को दी थी. स्नेहा के प्रेम-संबंधों की खबर भी उनको अचानक ही हुई थी. कुछ अनुभव और कुछ अनुमान से उन्होंने उसके प्रेम-

संबंधों को एक मूर्त रूप दे दिया था.

एक दिन वह छत पर कपड़े फैलाने गयी थीं. जगमोहन के घर की छत उनके घर की छत से जुड़ी हुई थी. उन्होंने देखा, स्नेहा छत के एक कोने में खड़ी धीमे-स्वर में किसी से बात कर रही थी. बीच-बीच में मुस्करा भी रही थी. वह खड़ी होकर देखती रहीं. किससे बात कर रही थी, वह भी इतने स्निग्ध और प्रेमिल भाव से. जरूर उसका प्रेमी होगा. उनके मन में यह बात आई नहीं कि खबर बन गयी और फिर एक औरत को चटपटी खबर का पता चले और वह आग की तरह फैलकर चर्चा न बने, ऐसा कभी हुआ है क्या?

निर्मला देवी जितनी निष्ठा से पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और घर के नित्य-कर्म संपादित करती थीं, उसी ईमानदारी से वह मोहल्ले की भी छोटी-बड़ी बातों की खबर रखती थीं और उनमें थोड़ा-बहुत नमक-मिर्च लगाकर अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करती थीं. इसमें उनको परम सुख प्राप्त होता था. अपने घर की घटनाओं से उन्हें दुःख होता था, जैसे पति की सीमित आय और घर में संसाधनों की कमी पर अक्सर पति के साथ उनकी कहा-सुनी, तकरार और खटपट होती रहती थी. बेटे की आवारगी पर थोड़ा नाराज-सी दिखती थीं, परन्तु उसे कहती कुछ नहीं थीं; जबकि बेटी को देख-देखकर वह आग-बबूला होती रहती थीं. इतना सौंन्दर्य लेकर आई है, बी.ए. भी कर लिया. अब कहां से लाखों का दहेज आएगा, इसकी शादी के लिए. मरी, किसी अच्छे घर में पैदा हुई होती तो इसके सौन्दर्य की कद्र भी होती. कोई राजकुमार मिलता इसे. हम तो इसे किसी बूढ़े, दुहेजू या लूले-लंगड़े के साथ बांध देंगे. कर्ज लेकर शादी तो करेंगे नहीं. अच्छे घर की लड़की है, संस्कारवान है, किसी के साथ ऐसे भाग भी तो नहीं सकती. गरीब-नीच के यहां ऐसा होता होगा, हम ठहरे कर्मकाण्डी ब्राह्मण. हमारे घरों की लड़कियां मरती मर जाएंगी, परन्तु कुपथ पर पैर न रखेंगी. किसी के साथ मुंह काला न करेंगी.

उनको अपनी बेटी के सुशील होने पर गर्व महसूस होता है, परन्तु जब घर की हालत देखती हैं, तो दिल में एक कराह-सी उठती है. कैसे करेंगी इसकी शादी. ले-देकर पति ने यह पचास गज का मकान बनवाया है. उस पर भी अभी बैंक का कर्जा चढ़ा हुआ है. जाने कब उतरेगा. पति से लड़ाई करें भी तो कितनी. मुंहजोरी करने से न तो उनकी तनख्वाह बढ़ने वाली है, न घर में कहीं से कारूं का खजाना आनेवाला है. इसी हालात में गुजारा करना है. लड़का कुछ कमाता तो बाप को सहारा मिल जाता, परन्तु न तो उसने ढंग की पढ़ाई की, न कहीं काम धन्धा करता है. सुबह खाकर निकला जाता है, रात गये लौटता है. कुछ बोलता नहीं, पूछो तो कह देता है-काम की तलाश में जाता है. ऐसा कौन सा काम है, जो उसे ढूंढ़े से भी नहीं मिलता. मेहनत-मजदूरी का काम तो हर किसी को मिल जाता है. सच तो यह है, वह काम नहीं करना चाहता है. उड़ते-उड़ते खबर लगी थी, किसी लड़की के चक्कर में सारा दिन घूमता रहता है. पता नहीं, ठुल्ले लड़कों में इन लड़कियों को क्या मिलता है. दो रुपये की आइसक्रीम भी तो नहीं खिला सकते. फिर क्यों आवारा लड़कों के पीछे ये लड़कियां पागल हो जाती हैं.

लड़के की शादी करने की उनकी बड़ी इच्छा है. उसकी शादी में जो दहेज मिलता, उससे बेटी की शादी कर देते. परन्तु ऐसे निठल्ले, नाकारा और अनपढ़ लड़के के गले में कौन समझदार आदमी अपनी बेटी का फन्दा डालेगा. भूखों न मर जाएगी. अब वह जमाना नहीं रहा, जब केवल लड़के का उच्च कुल देखा जाता था. घर में चाहे चूहे भूखों मर रहे हों. लेकिन अब न आदमी की जाति काम आती है, न घर-परिवार का बड़प्पन. अब देखी जाती है, लड़के की आय और सम्पन्नता. उनके पास न तो घर-द्वार सही है, न घर में ऐसी सम्पन्नता बिखरी पड़ी है, जिसकी चमक में लड़की वाले भागते चले आएं और चकाचौंध होकर लड़के के ऊपर गिर पड़ें.

पति, बेटे और बेटी को देखकर वह रोज-रोज कुढ़ती थीं, परन्तु मोहल्ले में बैठकर वह अपना दर्द भूल जाती थीं. घर का काम निबटा कर वह पड़ोस के घरों में चली जातीं और इधर-

उधर की बातें करते हुए घर की ढंकी-छिपी बातों के बारे में जानकारी हासिल करतीं और फिर शाम को उन्हीं बातों को वह महिला-गोष्ठी में नमक-मिर्च लगाकर बयान करतीं. और आज तो उन्हें ऐसी खबर हाथ लगी थी कि वह पंख लगा कर महिला-गोष्ठी में पहुंच जाना चाहती थीं.

निर्मला देवी आज शाम को जब मोहल्ले के पार्क में महिला-मण्डली में पहुंची तो उनके मुख-मण्डल पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर रही थी. उनके शरीर का अंग-अंग नाचता-सा प्रतीत हो रहा था, आंखें आश्चर्यमिश्रित खुशी से उबली पड़ रही थीं. उनके कदमों में बड़ी तेजी थी, जैसे वह महिलाओं के बीच जल्दी से पहुंचकर रहस्य से पर्दा उठाना चाह रही थीं.

महिला-मण्डली को भी निर्मला देवी की बहुत अधीरता से प्रतीक्षा थी, क्योंकि वह एक महिला ही नहीं थीं, पूरे मोहल्ले की अच्छी-बुरी खबरों का खबरिया चैनल थीं और वह हर खबर को इतनी खूबी से नमक-मिर्च लगाकर बयान करती थीं कि सुनने वाला मुंह बाए सुनता ही रहता था, कोई प्रश्न नहीं कर पाता था. उनकी अविश्वसनीय बातों में भी विश्वसनीयता का गहरा तड़का लगा होता था.

कई महिलाओं के मुंह से एक साथ निकला, ‘‘आओ, आओ बहन, लगता है आज कोई जोरदार खबर लेकर आई हो.’’

निर्मला देवी धम् से घासयुक्त-जमीन पर बैठ गयीं. फिर अपनी सांसों को दुरस्त करते हुए कहा, ‘‘खबर तो जोरदार है और ऐसी खबर है, जिसे सुनते ही तुम सबके होश उड़ जाएंगे.’’

‘‘ऐसी कौन सी खबर है? क्या किसी बकरी ने आदमी का बच्चा जन दिया या गाय ने घोड़े को पैदा किया है.’’

‘‘कुछ ऐसा ही हुआ है. ऐसी घटना शहर में हुई होगी, परन्तु अपने मोहल्ले में पहली बार हुई है.’’

‘‘क्या घटना हो गयी है?’’ अब महिलाओं के मन सशंकित हो उठे. उनके चेहरे की रोनक जैसे तपती धूप में उड़ गयी हो.

‘‘आपको याद है, मैंने एक दिन बताया था कि हमारे पड़ोसी जगमोहन की बेटी का किसी लड़के के साथ चक्कर है.’’

‘‘हां, तो अब क्या हो गया? क्या लड़की घर से भाग गयी?’’

‘‘हां, यही तो...’’ निर्मला देवी ने हल्के से ताली बजाकर कहा.

सभी महिलाओं ने हैरान आंखों से एक दूसरे को इस तरह देखा, जैसे उनकी अपनी लड़कियां घर से भाग गयी हों. निर्मला देवी उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थीं, परन्तु उनमें से किसी ने कुछ नहीं कहा, तो निर्मला देवी ने जोश में कहा-‘‘अरे, मैंने इतनी जोरदार खबर सुनाई, फिर भी तुम लोगों को जिज्ञासा और आश्चर्य नहीं हुआ.’’

उनमें से सबसे बुजुर्ग महिला थीं सावित्री देवी. वह सम्भल कर बोलीं, ‘‘निर्मला, सच्ची बात तो यह है कि महिलाएं ऐसी बातों से बड़ा खुश होती हैं और इनमें नमक-मिर्च लगाकर हर जगह सुनाती हैं, परन्तु यहां मौजूद सभी स्त्रियों की अपनी जवान बेटियां हैं. तुम्हारी बात सुनकर इनको इसलिए सांप सूंघ गया कि कहीं इनकी बेटी भी ऐसा न कर बैठे. इन सबके मन में डर बैठ गया है.’’

‘‘भई कोई कुछ भी कहे, मैं तुम्हारी बेटियों की नहीं जानती कि उनका चरित्र कैसा है, परन्तु मैंने अपनी बेटी को ऐसे संस्कार दिए हैं कि मजाल है किसी मर्द की तरफ नजर उठाकर देख ले. सिर झुकाकर घर से निकलती है, तो सिर झुकाए ही वापस आती है. बी.ए. कर चुकी है, परन्तु मजाल है, जो किसी लड़के के साथ उसका चक्कर रहा हो. अब तो बस भगवान से दुआ करती हूं कि किसी तरह उसके हाथ पीले करके विदा कर दूं.’’

‘‘कोई लड़का देखा कि नहीं!’’ सावित्री देवी ने पूछा.

‘‘अभी कहां! घर में कुछ देने के लिए हो तब तो लड़का देखूं! उसके बाप की कमाई से घर ही बड़ी मुश्किल से चलता है.’’ निर्मला देवी के स्वर में निराशा का भाव घर कर गया. निर्मला के पति किसी प्राइवेट फर्म में काम करते थे.

अब तक महिलाओं के मन से उदासी और आश्चर्य का भाव उतर गया था. उनकी सहज वृत्ति जाग उठी थी. एक ने चंचल होकर पूछा, ‘‘बहन, वह जगमोहन की बेटी की बात तो बताओ, कैसे भाग गयी?’’

निर्मला देवी के अन्दर का खबरिया पत्रकार जाग उठा. घर की गरीबी और बेटी की जवानी की तरफ से उनका ध्यान मोहल्ले की कर्त्तव्यपरायणता की ओर मुड़ गया. वह उत्साह से बोलीं, ‘‘यह तो नहीं पता चला, कैसे और कब भागी, परन्तु कल से ही उनके घर में अजीब सी खामोशी और डरावना माहौल पसरा हुआ है. सभी लोग घर के अन्दर बन्द हैं. बाहर भी निकलते हैं, तो ऐसे जैसे चोरी करके जा रहे हों. सबसे पहले तो मुझे लगा कि घर का कोई व्यक्ति बीमार है, परन्तु उनको बारी-बारी से घर के बाहर जाते और अन्दर जाते देखा. बस, उनकी बेटी नहीं दिखाई दे रही है. वह छत पर घण्टों खड़ी रहकर फोन पर बातें करती थी. परन्तु कल सारा दिन वह छत पर नहीं आई. मैं तुरन्त समझ गयी, दाल में कुछ काला है.’’

‘‘कहीं, वह बीमार तो नहीं है?’’ एक महिला ने कहा. वह सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहती थी.

‘‘अजी, काहे की बीमारी! वह बीमार होती तो उसे अस्पताल ले जाते या कोई डॉक्टर घर में आता. घर के लोग ऐसे उदास हैं, जैसे वह मर गयी हो. और ऐसा तभी होता है, जब लड़की मुंह काला करके किसी के साथ भाग जाती है.’’

‘‘कुछ पता चला किसके साथ भागी है?’’ एक अन्य महिला ने पूछा.

‘‘क्या बात करती हो बहन! क्या वह बताकर भागी है, जो पता चलता. ऐसी लड़कियां बड़ी शातिर होती हैं. चुपके-चुपके इतना बड़ा खेल, खेल जाती हैं कि भगवान को भी विश्वास नहीं होता.’’ निर्मला देवी ने विश्वासपूर्वक कहा.

‘‘मैं तो कहती हूं, बहना. इसमें सारी गलती मां-बाप की होती है, वह जान-बूझकर मक्खी निगलते हैं. बेटी को इतनी छूट क्यों देते हैं, जो वह बाहर लड़कों से नैन-मटक्का करती फिरे.’’ एक अन्य महिला ने अपन मत दिया.

दूसरी ने उसे टोंकते हुए कहा, ‘‘ये लो, कैसी बात करती हो. आज के जमाने में क्या लड़कियों को घर में बन्द करके रखेंगे. शिक्षा के लिए उनको बाहर भेजना ही पड़ेगा. झाड़ू-पोंछा वाली औरतों को आज के जमाने में कोई लड़का पसन्द करेगा क्या?’’

‘‘तो फिर इसका नतीजा भी भुगतने के लिए हमको तैयार रहना पड़ेगा. जवान लड़के और लड़कियां बिना किसी प्रतिबन्ध के मिलेंगे, तो उनकी यौन इच्छाएं और कामनाओं को हवा मिलेगी ही. उनके बीच अवैध सम्बन्ध बनेंगे ही. इसको कौन रोक सकता है.’’

‘‘इनको कोई नहीं रोक सकता और मैं तो कहती हूं, घर की बन्द दीवारों के अन्दर अवैध सम्बन्ध ज्यादा पनपते हैं, खुले में उतना अधिक नहीं. यह संबन्ध तो प्राचीन काल से हमारे समाज में बनते रहे हैं. चोरी-छिपे रात के अन्धेरों में न जाने कितने पापाचार होते हैं, परन्तु हम सभी आंख मूंदकर अपने को पाक-साफ बताते हैं. आज जगमोहन की बेटी भाग गयी, तो हम लोग उसका मजाक बनाकर मजा ले रहे हैं, परन्तु हमारे घरों की कितनी लड़कियां गर्भपात करवाती हैं, यह क्या हमें नहीं पता.’’ सावित्री देवी ने सब की कमजोर नस दबा दी.

निर्मला देवी नाराज होकर बोलीं, ‘‘यह आप कैसे कह सकती हैं. सबके घरों में क्या होता है, वो जाने. मैं तो अपनी बेटी की गारण्टी लेती हूं, वह बड़ी ही चरित्रवान है.’’

महिलाओं ने इस बार कोई कमेण्ट नहीं किया. सबके दामन में दाग था, क्या कहतीं किसी को. चुपचाप चेहरा ताकती रहीं एक दूसरे का. सावित्री देवी ने कहा, ‘‘आज बहस में मजा नहीं आ रहा है.’’

‘‘हां, चलो घर चलें.’’ कई स्वर एक साथ उठे. निर्मला देवी का मन उठने का नहीं था. वह चाहती थीं, जगमोहन की बेटी को लेकर और अधिक चर्चा हो. उनको नमक-मिर्च लगाकर कुछ कहने का मौका मिले, परन्तु महिलाएं तैयार नहीं थीं; लिहाजा सभी को उठना पड़ा.

वह घर पहुंची तो उदास थीं. बेटी अपने कमरे में बंद पता नहीं क्या कर रही थी. उनके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे. क्या होगा उनकी बेटी का. कब तक उसे कमरे में बंद करके रखेंगी?

आज जगमोहन की बेटी भागी है, तो उन्हें मजा आ रहा है. कल को उनकी बेटी भाग गयी तो...? लेकिन कैसे भागेगी? वह तो उसे बाहर जाने का भी मौका नहीं देतीं. सारा दिन घर में बंद रहती है, परन्तु क्या किसी जीव को कैद में रखकर उसकी इच्छाओं और कामनओं को मारा जा सकता है? उनकी बेटी तो भरपूर जवान है. क्या उसकी भावनाएं नहीं मचलती होंगी?

वह खुद तो अठारह साल की उमर में ब्याहकर ससुराल आ गयी थीं. उनकी बेटी 25 साल की होने जा रही है. अब तक उसके दामन को दागदार होने से बचाए रखा है. बचपन से उसे ऐसे संस्कार और शिक्षा दी कि उसके कदम कभी गलत मार्ग पर न पड़ें. वह भी सदा सुमार्ग पर चलती. उनका कहना माना, परन्तु कब तक मानेगी. जमाने की हवा बेलगाम हो गयी है. जवान होने के पहले ही लड़के-लड़कियों पर प्यार का नशा चढ़ जाता है और वह इतने मदमस्त हो जाते हैं कि कोई भी कदम उठा लेते हैं. घर-परिवार की मर्यादा का उन्हें कोई ख्याल नहीं होता. स्नेहा ने यही तो किया...कुछ होने के पहले ही बेटी के हाथ पीले करने होंगे.

उस दिन उन्होंने पति से बहुत खुलकर इस प्रसंग पर चर्चा की. बोलीं,

‘‘अब और कब तक बेटी को घर में बिठाकर रखेंगे? कहीं से कुछ पैसे का प्रबंध करो. ऑफिस से उधार लो, बैंक से कर्जा लो, चाहे कुछ भी करो. परन्तु अब उसके हाथ पीले करने ही पड़ेंगे. देखते नहीं, आजकल लड़कियां क्या कर रही हैं. पता है आपको, जगमोहन की बेटी भाग गयी. क्या तुम चाहते हो, मेरी बेटी भी नाक कटाए. कब तक मैं उसे घर में बंद करके रखूंगी. वह कुढ़-कुढ़कर हिस्टीरिया की मरीज बन जाएगी.’’

हरिनारायण कुछ देर तक सोचते रहे, फिर शांत भाव से बोले, ‘‘कर्जा लेना तो बहुत मुश्किल है. गांव की दो बीघा जमीन है, उसी को बेचना पड़ेगा. परन्तु यह इतनी जल्दी संभव नहीं है. मैंने तुमसे कितनी बार कहा, परन्तु तुम मेरी बात नहीं मानती. बेटी को बाहर निकलने दो. किसी स्कूल में मास्टरी ही कर ले. दो पैसे हाथ में आएंगे, बचत होगी और उसका मन भी लगा रहेगा. शादी एक दो-साल बाद कर देंगे. तब तक वह भी दो पैसे जमा कर लेगी.’’

‘‘तुमको तो जैसे जमाने के बारे में कुछ पता नहीं है. घर से निकली नहीं कि पैर फिसले नहीं. कितनी भी सुशील और सुसंस्कुत लड़की हो, उसको बहलाने-फुसलाने के लिए लड़के हर गली-मोहल्ले में तैयार खड़े मिलते हैं और कौन ऐसी लड़की है, जिसके बाहर निकलने पर पैर नहीं फिसलते.’’

‘‘तुम पता नहीं कौन से जमाने की बात कर रही हो. आज जमाना बदल गया है. सारी लड़कियां बाहर निकल रही हैं. सभी तो ऐसी नहीं हैं. तुमको अपनी बेटी पर भरोसा करना होगा.’’

‘‘अभी तो नहीं कर सकती. जब उसके हाथ पीले करके उसकी ससुराल विदा कर दूंगी, तभी उस पर विश्वास करूंगी. उसका पति उसे बाहर भेजे या घर में बंद करके रखे, उसकी

मर्जी.’’

हरिनारायण की पत्नी के आगे ज्यादा चलती नहीं थी, इसलिए वह उससे ज्यादा बहस नहीं करते थे. इस बार भी चुप हो गये, ‘‘जो तुम्हारी इच्छा हो, करो.’’

निर्मला देवी खीझकर गुस्से में बोलीं, ‘‘तो क्या मैं उसका गला दबा कर मार डालूं. घर में भी रहते हुए लड़कियां बिगड़ जाती हैं. अब उसे ज्यादा दिन घर में बिठाकर रखना ठीक नहीं होगा.’’ आज पता नहीं उनके मन में ऐसे विचार क्यों आ रहे थे. क्या जगमोहन की बेटी के भागने से वह डर गयी हैं. उन्हें लगने लगा है, कि लड़कियों पर चाहे जितने प्रतिबंध लगा लो, चाहे जितना घर में बंद करके रख लो, वह किसी न किसी प्रकार से टोले-मोहल्ले के लड़कों से नैन-मटक्का कर ही लेती हैं. उनको किसी से नजर मिलाने से कौन रोक सकता है?

क्या पता उनकी बेटी का भी किसी के साथ चक्कर हो. उस पर चौबीस घंटे तो नजर रखी नहीं जा सकती है. वह भी तो घर से कभी-न-कभी बाहर निकलती ही हैं. वह खुद उसे घर में छोड़कर बाहर चली जाती हैं और घंटों बाद लौट के आती हैं. सोचती हैं, लड़की घर में सुरक्षित है. क्या पता उसी दौरान वह मोहल्ले के किसी छोकरे को घर में बुला लेती हो और उसके साथ मौज-मस्ती करती हो. उन्हें कैसे पता चलेगा? सोचकर उनका दिमाग सनसना गया. वह बेचैन हो गयीं.

पति के लाख कहने के बावजूद वह बेटी को बाहर नौकरी के लिए भेजने को तैयार नहीं हुईं. वह जल्द से जल्द उसकी शादी कर देना चाहती थीं. इसके लिए वह रोज पति पर दबाव बनाती रहीं. हारकर पति एक दिन गांव गये. जमीन का सौदा करने के लिए, परन्तु इतनी जल्दी उसका भी सौदा कहां से होता. वह गांव के दो-चार लोग से बात करके वापस आ गये. खरीददार मिलेगा तो बात बनेगी.

इसी तरह दो महीने और बीत गये. अब वह बेटी को लेकर इतनी चिन्तित रहने लगी थीं कि मोहल्ले की महिला गोष्ठी में भी भाग नहीं लेती थीं. घर में रहतीं, ताकि बेटी पर नजर रख सकें. वह साफ देख रही थीं कि घर में बंद रहने से उनकी बेटी उदास और गुमसुम सी रहती है. ज्यादा किसी से बात नहीं करती है. उसके चेहरे की प्रफुल्लता और सौंन्दर्य पर जैसे ग्रहण लगता जा रहा है. बीमार सी दिखती है. भरी जवानी में वह बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ाती सी लग रही थी. सचमुच, वह घर में बैठे-बैठे ही बुढ़ा जाएगी.

इसी बीच एक दिन उन्होंने देखा कि जगमोहन के घर में बड़ी चहल-पहल थी. किसी त्योहार जैसा माहौल था. बहुत सारे लोग आ-जा रहे थे.

निर्मला देवी के अंदर का खबरिया जासूस जाग उठा. वह तुरंत बाहर निकलीं और किसी बहाने से जगमोहन के घर में जा बैठीं. वहां जाकर उन्हें जो पता चला, उससे उनके होश ही उड़ गये. ज्यादा देर तक उनसे बैठा न रहा गया. जगमोहन की बीवी ने उन्हें मिठाई दी, वह उनसे खाई न गयी. हाथ में ही रखे-रखे कुछ देर तक बैठी अनमने ढंग से बातें करतीं रहीं और फिर घर लौट आईं.

जगमोहन की बेटी लौट आई थी. उसने अपने प्रेमी के साथ कोर्ट में शादी कर ली थी और आज अपने पति के साथ मायके आई थी. उसका पति किसी बड़ी कंपनी में मैनेजर था. स्नेहा के घरवालों ने उसके पति को स्वीकार कर लिया था. इस बात से निर्मला देवी को बड़ा धक्का लगा था. एक तो लड़की घर से भाग गयी. फिर मां-बाप की मर्जी के बिना उसने अपने प्रेमी से शादी भी कर ली और मां-बाप ने खुशी-खुशी उन दोनों के रिश्ते को मंजूर भी कर लिया था. क्या ऐसे रिश्तों को मंजूर करना इतना आसान होता है? जगमोहन और उसकी पत्नी इतने दरियादिल हैं?

निर्मला देवी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वह उलझकर रह गयी थीं. यह आधुनिक जमाना था और आजकल ऐसा ही हो रहा था. मां-बाप को अपने बच्चों की बात माननी ही पड़ती है, वरना वह ऐसा कदम उठा लेते हैं, जो कष्टदायी ही नहीं, दुःखदायी भी होता है.

सारी रात निर्मलादेवी को नींद नहीं आई. वह दुनिया में होनेवाली अनोखी बातों के बारे में विचार करती रहीं. दूसरी सुबह उठीं तो वह थोड़ी खुश दिख रही थीं, जैसे कोई खजाना उनके हाथ में लग गया था. वह हाथ-मुंह धोकर तैयार हुईं और मन में एक ठोस निर्णय लेकर बेटी के कमरे में पहुंचीं.

उनकी बेटी अभी तक लेटी हुई थी, जैसे कई दिनों से बीमार हो. अक्सर वह लेटी ही रहती थी. घर में कोई बहुत ज्यादा काम नहीं होता था. जो थोड़ा बहुत होता था, उसे मां ही कर लेती थीं. वह करे तो क्या करे? मां की इजाजत के बिना वह पास-पड़ोस में भी नहीं जा सकती थी. बस कुछ पुरानी किताबों को पढ़ते हुए समय पास करती थी. कुछ देर टी.वी देख लिया, बस इतना ही. घर में और कोई था भी नहीं, जिससे बात करके समय काटती. मां से उसका संवाद बहुत कम होता था.

बेटी उन्हें देखकर भी लेटी रही, परन्तु आज मां उसके ऊपर नाराज नहीं हुईं. उन्होंने खुशी-खुशी कहा, ‘‘बेटा उठो, मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूं.’’

बेटी ने ‘क्या’ के भाव से उन्हें देखा. उसके चेहरे पर कोई अनोखी चमक नहीं जागी. वह जानती थी, मां क्या कहेंगी? उसे कोसने के सिवा मां को आता ही क्या था? बेटी को अगर इसी तरह पालना-पोसना था, तो उसे जन्म ही क्यों दिया था? उसकी समझ में आज तक नहीं आया था...मां-बाप जब अपने बच्चों को ढंग से पाल-पोस नहीं सकते, उन्हें उचित शिक्षा नहीं दे सकते और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने की स्वतंत्रता नहीं दे सकते, तो उन्हें पैदा ही क्यों करते हैं?

निर्मला देवी ने उत्साह से कहा, ‘‘ बेटी, तुमको हमारे घर के हालात पता हैं. इन हालात में हम कितनी मुश्किल से गुजारा कर रहे हैं. तुम्हारा भाई आवारा है, बाप की कमाई से तुम्हारे लिए दहेज जुटा नहीं पा रहे हैं. बताओ, हम और कितने दिन बिना शादी के तुम्हें घर में बिठाकर रख सकते हैं. बदनामी होती है. घर में पड़े-पड़े तुम भी कुण्ठित होती रहती हो. इससे तुम बीमार पड़ जाओगी. देखो न, कैसी तो पीली-सी हो गयी हो. चेहरे की रौनक खत्म होती जा रही है. यह अच्छे लक्षण नहीं हैं. बेटी, तुम्हारी इच्छा थी न कि पढ़-लिखकर तुम कोई नौकरी करो. तो आज मैं तुम्हें इजाजत देती हूं, कि तुम घर की दमघोंटू हवा से बाहर निकलो और बाहर जाकर खुली हवा में सांस लो.’’

सुनिधि हकबकाकर उठकर बैठ गयी, जैसे कोई बुरा सपना देख रही थी. उसने फटी आंखों से मां को देखा. मां का मुस्कराता हुआ चेहरा उसने न जाने कितने वर्षों बाद देखा था. उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. यह सच नहीं था? उसे लगा, वह सपना देख रही थी. मां का ऐसा बदला हुआ रूप उसके लिए अभूतपूर्व था. क्या वह अपनी मां को नहीं जानती? बात-बात पर टोंकना, डांटना और फटकारना. न जाने कितनी वर्जनाएं उसके ऊपर लगाई जाती थीं. यह नहीं करना है, ऐसे नहीं करना. यहां नहीं जाना है, वहां नहीं बैठना है. इससे बात नहीं करनी है, उसकी तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखना है. मां की नसीहतें सुन-सुनकर वह तंग आ गयी थी. इतनी बेड़ियां तो कैदियों के पैरों में भी नहीं डाली जाती हैं, जितनी उसके पैरों में पड़ी थीं. खुली हवा में सांस कैसे ली जाती है, यह उसने कभी नहीं जाना. स्कूल-कॉलेज भी जाती थी, तो उसे ऐसा लगता था, जैसे मां उसके पीछे-पीछे चल रही थीं और डर के मारे उसने कभी वैसा कुछ नहीं किया, जो मां की निगाहों में वर्जित था या अमर्यादित था.

फिर आज...उसने अपनी आंखों पर हाथ रखकर जोर से मींचा और फिर आंखें खोलीं. थोड़ी देर तक धुंधलापन छाया रहा, परन्तु जैसे ही आंखें साफ हुईं, सामने उसकी मां का मुस्कुराता हुआ चेहरा था. उसका दिल धड़क उठा. यह सपना नहीं था.

‘‘मैं समझ सकती हूं, कि तू इतनी हैरानी से क्यों मुझे देख रही है. तुझे विश्वास नहीं हो रहा है, कैसे हो? मैंने एक मां की तरह तेरे साथ कभी व्यवहार नहीं किया. इस तरह का व्यवहार तो सौतेली मां भी नहीं करती. दरअसल मैं जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकी. हर बात को हमेशा दकियानूसी निगाहों से देखा और परखा, परन्तु अब मेरी आंखें खुल गयी

हैं.’’

सुनिधि चारपाई से उठकर खड़ी हो गयी. निर्मला देवी ने उसका हाथ पकड़कर फिर से अपनी बगल में बिठा लिया और बोलीं, ‘‘तुझे इतना हैरान-परेशान होने की जरूरत नहीं है. तू ऐसा कर, तैयार हो जा और आज से अपने लिए किसी नौकरी की तलाश आरंभ कर दे.’’

सुनिधि की समझ में नहीं आ रहा था, यह कैसा चमत्कार हो रहा था. कैसी अबूझ पहेली आज हल हो रही थी. परन्तु पहेली के खुलने के बाद भी वह उसके परिणाम से इतना हतप्रभ थी कि एक बेवकूफ की तरह बस देखे ही जा रही थी. मां उससे क्या चाहती हैं, और उसे क्या करना है, वह समझ नहीं पा रही थी या समझते हुए भी उसे सबकुछ एक सपने की तरह लग रहा था.

उसने मां तरफ देखा, जैसे एक निरीह पंछी बाज के पंजों से छूटने के बाद देखता है. उसे विश्वास नहीं होता है कि वह कैद से छूट गया है और वह उड़ भी सकता है. उड़ना चाहकर भी वह नहीं उड़ता, क्योंकि तब भी वह यही सोचता है कि बाज दुबारा उसे अपने पंजों में दबाकर लहूलुहान कर देगा.

मां कुछ देर तक चुप रहीं और फिर बोली, ‘‘बेटी, मुझे अकल आई है, परन्तु बहुत देर से आई है. अपनी बेवकूफी में मैंने तुझे बहुत कष्ट दिये, बंदी जैसा बनाकर रख दिया. अब मैं नये ज़माने की हवा से काफी हद तक परिचित हो गयी हूं. तू भी घर के हालात जानती ही है. बेटा कुछ नहीं कर रहा, पिताजी की आय सीमित है. अब तुझे ही कुछ करना होगा. आज मैं तेरे ऊपर लगाए गये सारे बंधन तोड़ रही हूं. तू बाहर निकल, नौकरी कर और अपने जीवन को सफल बना.’’

निर्मला देवी कुछ देर के लिए रुकीं, जैसे सांसों को समेट रही हों या अपने हृदय को कड़ा कर रही थीं. फिर बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, तेरी उम्र शादी लायक है, परन्तु हम इस लायक नहीं हैं कि कोई लायक लड़का देखकर उसके साथ तेरी शादी कर सकें. तेरे लिये दहेज जुटाते-जुटाते हम बूढ़े हो जायेंगे, तब भी तेरी शादी नहीं कर पायेंगे. बिना दहेज के कोई लड़का तुझे ब्याहने के लिए तैयार होगा या नहीं, इसका पता नहीं. इसलिए मैं तुझसे कहती हूं, बाहर जाकर अगर तुझे कोई लड़का पसंद आ जाए और तुझे उससे प्यार हो जाए या कोई लड़का तुझको पसंद करने लगे, तो निःसंकोच तुम दोनों प्यार कर लेना. फिर मुझे बताना, मैं खुशी-खुशी तुम दोनों की शादी कर दूंगी.’’

सुनिधि को लगा, वह बेहोश हो जाएगी.

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रचनाकार: प्राची - फरवरी 2016 - हृदय परिवर्तन / कहानी / राकेश भ्रमर
प्राची - फरवरी 2016 - हृदय परिवर्तन / कहानी / राकेश भ्रमर
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