माह की कविताएँ / रक्षाबंधन की कविताएँ

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  प्रिया देवांगन "प्रियू" रक्षाबंधन का त्यौहार ******************** रक्षाबंधन का है त्यौहार मन में छाई खुशियों की बहार बहनें कर...

 

प्रिया देवांगन "प्रियू"


रक्षाबंधन का त्यौहार
********************
रक्षाबंधन का है त्यौहार
मन में छाई खुशियों की बहार
बहनें करती इसका इंतजार
बांधती राखी करती प्यार
यह दिन है बहुत ही खास
सबको  है इस दिन की आस
सब मिलकर खुशियाँ मनाते
भाई चारे सबको हैं भाते।
थाल में सजाते दीपक और फूल
बहनें रहती हैं  बहुत खुश
बहनों को रक्षा  का वचन हैं देते
हमेशा उनको खुश है रखते
नहीं आने देते थोड़ा भी खरोंच
पलकों में हैं बिठा के रखते
भाई बहनों का है यह त्यौहार
जीवन में लाते खुशियों की बहार।।
--



प्रिया देवांगन "प्रियू"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम  ( छ ग )

Email -- priyadewangan1997@gmail.com
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शालिनी तिवारी


सलामती की दुआ मैं करती रहूँगी
तुम्हारी कलाइयों में रक्षा की राखी,
बरस दर बरस मैं बाँधती रहूँगी,
दिल में उमंगें और चेहरे पर खुँशियाँ,
हर एक पल मैं सजाती रहूँगी,
कभी तुम न तन्हा स्वयं को समझना,
कदम से कदम मैं मिलाती रहूँगी,
तुम हर इक दिन आगे बढ़ते ही रहना,
सलामती की दुआ मैं करती रहूँगी ।
खुदा ने हम दोनों का ये रिश्ता बनाया,
शुक्रिया उसको अदा करती रहूँगी,
लम्बी उमर दे और रण में विजय दे,
हमेशा ये कामना करती रहूँगी,
जन्म दर जन्म हम मिले साथ साथ,
भइया मैं बहना बनती रहूँगी,
जीवन में नेकी हरदम करते रहो तुम,
सलामती की दुआ मैं करती रहूँगी ।
हर एक दिन इतिहास रचते ही जाना,
प्रेम की स्याही से मैं लिखती रहूँगी,
समय भी गवाही ये देगा सदा ही,
रिश्ते की मिसाल मैं बुनती रहूँगी,
अपनों के संग रक्षाबन्धन की खुशियाँ,
राखी बाँधकर मनाती रहूँगी,
भइया अपना प्यार हमेशा देते ही रहना,
सलामती की दुआ मैं करती रहूँगी

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कुलदीप ठाकुर

आज हर बहन खुद को
असुरक्षित महसूस कर रही है।
राखी बांधते हुए
अपने भाइयों  से कह रही है।
केवल मेरी ही नहीं,
हर लड़की की    करना रक्षा,
भयभीत है आज सभी,
सभी को चाहिये सुरक्षा।
जानते हो तुम भैया,
दुशासन खुले   घूम रहे  हैं,
अकेली असहाय लड़कियों को,
तबाह करने के लिये  ढूंढ़ रहे  हैं।
ये  रूपए, उपहार,
मुझे नहीं चाहिये,
जो मिले  मां-पिता  से
तुम में वो संस्कार चाहिये।
ये रक्षा का  अटूट बंधन,
भारत में है  सदियों पुराना,
मुझे ये वचन देकर
तुम भी इसे सदा निभाना।

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देवेन्द्र पाठक ‘महरूम’


गर हवाओं के रुख तुम भी पहचानते.                            
क्यूँ सफ़र में निकलने की ज़िद ठानते.                           

तुम में होती ज़रा सी जो इंसानियत;                               
क्यूँ फरिश्ता नहीं तुमको हम मानते.                             

पर जलाकर ज़मीं पर यूँ गिरते नहीं;                             
तुम जो अपनी उड़ानों की हद जानते.                      

खाकसारी जो महलों की कर लेते तुम;                            
यूँ नहीं खाक़ गलियों की अब छानते.                      

अनफली शाख सा काटे जाते अगर;                              
पेड़ का दर्द 'महरूम' तुम जानते.
--

मेरा अपना नहीं मुझसा कोई.
मुझसा दुश्मन नहीं मेरा कोई.
गर्क हूँ इस तरह से ख़ुद में ही;
रहा न फ़र्क-ओ-फ़ासला कोई.
दर्द को नागवार क्यूं समझूँ ;
इससे बेहतर नहीं दवा कोई .
ऐसे लगता है जैसे ख़ुद में ही;
ख़ुद से ही ख़ुद लड़ रहा कोई .
अपने माज़ी को ऎसे देखूँ मैं ;
जैसे 'महरूम' आईना कोई.
                 ।।

                                                 

##### 1315,साँईपुरम् कॉलोनी,साइंस कॉलेज डाकघर,खिरहनी;कटनी,
मध्यप्रदेश,483501;.
-------------.


 

प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"


वरिष्ठ साहित्यकार , कवि , अर्थशास्त्री , शिक्षाविद्
बंगला नम्बर ओ.बी.११
विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
मो. ०९४२५४८४४५२ , ०७६१ २६६२०५२
ई मेल ... vivek1959@yahoo.co.in

काश्मीर दर्शन
नभ चुम्बी हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से अति भासमान
भारत माता के दिव्य भाल काश्मीर तुम हो अनुपम विधान
तुम इस धरती पर स्वर्ग सुखद अति शांति दाई सौंदर्य धाम
हर कंण हर वन हर वृक्ष नदी हर जलधारा मोहक ललाम
तुम प्रकृति सुंदरी के निवास पावन आकर्षक  प्रभावन
तुम परम अलौकिक सुंदरतम रूप तुम्हारा कांतिमान
दिखता नहीं भू भाग कोई जो हो तुम सा सुंदर महान
हर छोर बिछी सुखद हरीतिमा नीचे नीला आसमान
गरिमा गौरव से भरे हुए दिखते सैनिक से देवदार
नभतल में मनमोहक घाटी जिनमें बहते निर्झर हजार
गिरि शिखर शोभते हैं शिव से जो तन पर धारे भस्म राग
जो निर्निमेष नित शांत नयन जिन में दिखता गहरा विराग
दर्शक के मन में श्रद्धा का भर जाता लखकर सहज भाव
हर यात्री पर परिवेश सदा भर देता है पावन प्रभाव
पावनता में है सच्चा सुख आनन्द भरा जिसमें अनन्त
सदियों से इससे प्रकृति की गोद में बसते आए साधु संत
मनमोहक छवि के विविध रूप हर लेते मन के दुख तमाम
ज्यों सोनमर्ग गुलमर्ग झील डल और आकर्षक पहलगांव
सरिता वन पर्वत पवन गगन सब देते हैं संदेश मौन
मन के पवित्र स्नेह भाव बिन सुख दे सकता है कहां कौन
नित हरी-भरी सुखदाई परम पावन पवित्र है प्रकृति गोद
जिसका दर्शन स्पर्श सदा हर मन  में भर देता प्रमोद
सारा पावन परिवेश प्रकृति सब नदी वृक्ष धरती आकाश
देते हैं शुभ संदेश यही सब हिलमिल जग में रहो साथ
केसर चैरी अखरोट सेव के बहुत धर्मी हम वृक्ष बाग
धरती मां से पा जीवन रस रहते सुख से सब भेद त्याग
हम  भिन्न जाति  और भिन्न रंग पर हममें न कोई भेद
तुम बुद्धिमान मानव आपस में लड़ क्यों करते नए छेद
मानव तू भी तज द्वेष द्वंद छल छद्म और कलुषित विचार
अपने अंतरतम की सुन पुकार स्नेह भाव रख बन उदार
क्यों फंसकर  विविध प्रलोभन में करता रहता नित नवल घात
है प्रेम भाव में शांति और सुख जो अनुपम  शिव का प्रसाद
ऊंचे हिम शिखरों पर ही जहां बसते हैं हिम शिव अमरनाथ
जिनके दर्शन के पुण्य लाभ हित  यात्रा करता देश  साथ
है अनंतनाग के पास सूर्य मंदिर पवित्र मार्तंड धाम
जिसका कि दान और जीवदया हित है सदियों से ख्यात नाम
हर दिव्य  दृश्य अनमोल शांति शीतलता का मंजुल निखार
सब साथ सदा मिल दर्शक को आध्यात्मिकता में देते उतार
लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान
मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान
श्रीनगर तुम्हारा राज्य केंद्रो सुंदर सुख प्रद और विशाल
घाटी में बसा नदी समेत डल झील जहां एक दिव्य ताल
हैं यत्र तत्र कई द्वीप पार्क कई बोट हाउस फ्लोटिंग बाजार
जिन तक ले जाने लाने को तैयार शिकारे हैं हजार
कई नावों में जल क्रिया के होते रहते हैं विविध खेल
सौ विश्व पर्यटक लोगों के प्रायः होते हैं जहां मेल
शंकर मठ चश्मे शाही बाग मुग़ल डल तट पर निशात बाग
हैं दर्शनीय प्रिय वे स्थल जिनके प्रति हर मन में है राग
हर दर्शक की इच्छा होती रह सके यहां कुछ और काल
पर समय और धन की सीमा का उठता है पहला सवाल
जग सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम
हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम

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मेरे दोहे
   

   सुशील शर्मा

          राष्ट्र को समर्पित

स्वतंत्रता की आन पर चढ़े हज़ारों शीश।
नमन करें उनको सदा मिले अमित आशीष।

सीने पर गोली लगी फिर भी मुख मुस्कान।
भारत माता के गर्व हैं ये शहीद जवान।

आज़ादी के यज्ञ में प्राण किये आहूत।
धन्य हुई वह कोख जो जने शहीद सपूत।

बलिदानों की भूमि है ,धन्य है भारत देश।
अगल जन्म फिर से मिले यही धरा परिवेश।

भारत का प्रत्येक जन दस शेरों सा शेर।
गीदड़ भौंके दूर से पास आए तो ढेर।

भगत सिंह ,आज़ाद और सुभाष की आन।
अमिट ,अभेद्द ,अविचल रहे मेरा देश महान।

           साहित्य

साहित्यिक सब हो रहे चबली ,चोर चकार।
जो जितना अकबक लिखे उतना उत्तम रचनाकार।

वर्तमान साहित्य में शब्द हुए कमजोर।
भाव प्रवणता मर गई मचा हुआ है शोर।

कविता खड़ी बाजार में लूट रहे कवि लोग।
कुछ श्रृंगारों पर लिखें ,कुछ की कलम वियोग।

अश्लीलों को मिल रहा भारत भूषण सम्मान।
पोयट्री मैनेजमेंट कर रहा सरस्वती अपमान।

सम्मानों की भीड़ में खो गया रचनाकार।
साहित्य सुधि को छोड़ कर अहं चढ़ा आचार।
    
       वियोग एवम श्रृंगार

सपने मेरी आँख के नयन नीर टपकाएं।
दिल की सरहद छोड़ कर तेरे तट तक जायँ।

नारी जीवन सर्प सा डसे स्वयं को आज।
पंक्षी के पर कट गये बंद हुई परवाज़।

जादू तेरी आँख का जाय ह्रदय को बींध।
मन चंचल बेचैन है नैन निहारें नींद।

पिघली पिघली आंच सी तुम हो तन के पास।
मन मेरा बैरी बना तुम पर अटकी साँस।

सागर सी गहरी लगे मुझको तेरी आँख।
जीवन पिघला बर्फ सा ,मन मयूर की पाँख।

मन मयूर मकरंद भयो जैसे नाचे मोर।
प्रीत पियारी सी लगे मन में उठत हिलोर।

प्रीत लपट में झुलस कर मन हंसा बेचैन।
एक नजर की आस में सावन बरसे नैन।

सागर जैसा दर्द है पर्वत जैसी पीर।
प्रियतम तेरे विरह में जीवन हुआ अधीर।

          अन्य विषय

बेटी राखी पावनी ,ज्यों गंगा की धार।
दोनों कुल पावन करे खुशियाँ देय अपार।

रक्षाबंधन पर्व है ,नेह ,मिलान और मिठास।
बहिनों को रक्षा वचन ,भाइयों को स्नेह आकाश।

पदक तालिका देख कर ,लोग हैं बहुत निराश।
यह ओलंपिक सूना गया अब आगे की आस।

बाज़ारों में शिक्षा बिकी खो गए सारे मूल्य।
फर्जी डिग्री बिक रहीं ,नोकरी हुई अमूल्य।

मुख्य न्यायाधीश रो रहे देख व्यवस्था न्याय।
सरकारें सोती रही न्याय बना अन्याय।
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क्या होती है स्त्रियां ?


घर की नींव में दफ़न सिसकियाँ और आहें हैं स्त्रियां।
त्याग तपस्या और प्यार की पनाहें हैं स्त्रियां।
हर घर में मोड़ी और मरोड़ी जाती हैं स्त्रियां।
परवरिश के नाटक में हथौड़े से तोड़ी जाती हैं स्त्रियां।
एक धधकती संवेदना से संज्ञाहीन मशीनें बना दी जाती है स्त्रियां।
सिलवटें, सिसकियाँ और जिस्म की तनी हुई कमानें है स्त्रियां।
नदी-सी फूट पड़ती हैं तमाम पत्थरों के बीच स्त्रियां।
बाहर कोमल अंदर सूरज सी तपती हैं स्त्रियां।
हर नवरात्रों में देवी के नाम पर पूजी जाती हैं स्त्रियां।
नवरात्री के बाद बुरी तरह से पीटी जाती हैं स्त्रियां।
बहुत बुरी लगती हैं जब अपना हक़ मांगती हैं स्त्रियां।
बकरे और मुर्गे के गोस्त की कीमतों पर बिकती हैं स्त्रियां।
हर दिन सुबह मशीन सी चालू होती हैं स्त्रियां।
दिन भर घर की धुरी पर धरती सी घूमती हैं स्त्रियां।
कुलों के दीपक जला कर बुझ जाती हैं स्त्रियां।
जन्म से पहले ही गटर में फेंक दी जाती हैं स्त्रियां।
जानवर की तरह अनजान खूंटे से बांध दी जाती हैं स्त्रियां।
'बात न माने जाने पर 'एसिड से जल दी जाती हैं स्त्रियां।
गुंडो के लिए 'माल 'मलाई 'पटाखा ''स्वादिष्ट 'होती हैं स्त्रियां।
मर्दों के लिए भुना ताजा गोस्त होती हैं स्त्रियां।
लज्जा ,शील ,भय ,भावुकता से लदी होती हैं स्त्रियां।
अनगिनत पीड़ा और दुखों की गठरी होती हैं स्त्रियां।
संतानों के लिए अभेद्द सुरक्षा कवच होती हैं स्त्रियां।
स्वयं के लिए रेत की ढहती दीवार होती है स्त्रियां।
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*संजय वर्मा "दृष्टी "


  मोबाईल

जिन्दगी अब तो हमारी मोबाईल हो गई
भागदोड मे तनिक सुस्तालू सोचता हूँ मगर
रिंगटोनों से अब तो रातें भी हेरान हो गई |

बढती महंगाई मे बेलेंस देखना आदत हो गई
रिसीव काल हो तो सब ठीक है मगर
डायल हो तो दिल से जुबां की बातें छोटी हो गई |

मिस्काल मारने की कला तो जेसे चलन हो गई
पकड़म -पाटी खेल कहे शब्दों का इसे हम मगर
लगने लगा जेसे शब्दों की प्रीत पराई हो गई |

पहले -आप पहले -आप की अदा लखनवी हो गई
यदि पहले उसने उठा लिया तो ठीक मगर
मेरे पहले उठाने पर माथे की लकीरे चार हो गई |

मिस्काल से झूठ बोलना तो आदत सी हो गई
बढती महंगाई का दोष अब किसे दे मगर
हमारी आवाजे भी तो  अब  उधार हो गई |

दिए जाने वाले कोरे आश्वासनों की भरमार हो गई
अब रहा भी तो नहीं जाता है मोबाईल के बिना
गुहार करते रहने की तो जेसे  आदत बेकार हो गई |
मोबाईल ग़ुम हो जाने से जिन्दगी घनचक्कर हो गई
हरेक का पता किस -किस से पूछें मगर
बिना नम्बरों के तो जेसे जिन्दगी रफूचक्कर हो गई
 


*संजय वर्मा "दृष्टी "
१२५ शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर (धार )
454446

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अर्जुन सिंह नेगी


मजदूर
मजदूर के पसीने से
लिखी जाती है इबारत विकास की
फिर भी रह जाता है अछूता
विकास से
सुबह से शाम तक
मेहनत करता मजदूर
नित नए सृजन करता है
और सजाता है देश को
मेहनत की खुशबू से
महकता बदन देता है गवाही
लहू का पसीना बनने की
मेहनत से दो वक्त की रोटी जुटाता
उम्रभर अभाव ग्रस्त रहकर
अपना पूरा परिवार पालता
जिंदगी की जद्दोजहद में
जीने की प्रेरणा देता है मजदूर
लोग तो सब कुछ होते हुए भी
जीना नहीं चाहते
हार जाते हैं जीवन के उतार चढाव से
मजदूर तो मजदूरी मांगने में भी कष्ट उठाता है
क्यूंकि सारा काम करवा कर भी
मालिक मोल भाव करता है मजदूर से
मेहनत की पूरी कमाई तक नहीं मिल पाती
कैसे इसके घर में चूल्हा जलता है
कैसे इसके बच्चे पलते हैं
कौन सोचता है
राशन कार्ड बनवाने के लिए
दर-दर धक्के खाता
अपनी पहचान साबित नहीं कर पाता
टूटी फूटी झोंपड़ी या तम्बू में ही
गुजार लेता है सारी उम्र   
कैसे वो भविष्य की योजना बनाये
जिसे दो वक्त की रोटी की चिंता है
बहुत आन्दोलन हुए मजदूर के लिए
कई संगठन भी है इसकी पैरवी करने के लिए
पर मजदूर तो वहीँ खड़ा है
क्या सभी धोखा कर रहे हैं
समाज हाथ से मेहनत करने वाले की
अनदेखी कर रहा है
मजदूर को भीख नहीं चाहिए
सृजन और निर्माण का भागीदार है
मजदूर
मिलना चाहिए इसे अपना हक़


अर्जुन सिंह नेगी
नारायण निवास कटगाँव
तहसील निचार जिला किन्नौर
हि०प्र० 172118
मोबाइल 9418033874

 


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सुशांत सुप्रिय


# कुछ समुदाय हुआ करते हैं
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                         ( रोहित वेमुला को समर्पित )                                        
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कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनमें जब भी कोई बोलता है
' हक़ ' से मिलता-जुलता कोई शब्द
उसकी ज़ुबान काट ली जाती है
जिनमें जब भी कोई अपने अधिकार माँगने
उठ खड़ा होता है
उसे ज़िंदा जला दिया जाता है

कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनके श्रम के नमक से
स्वादिष्ट बनता है औरों का जीवन
किंतु जिनके हिस्से की मलाई
खा जाते हैं
कुल और वर्ण की श्रेष्ठता के
स्वयंभू ठेकेदार कुछ अभिजात्य वर्ग

सबसे बदहाल, सबसे ग़रीब
सबसे अनपढ़ , सबसे अधिक
लुटे-पिटे करोड़ों लोगों वाले
कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिन्हें भूखे-नंगे रखने की साज़िश में
लगी रहती है एक पूरी व्यवस्था

वे समुदाय
जिनमें जन्म लेते हैं बाबा साहेब अंबेडकर
महात्मा फुले और असंख्य महापुरुष
किंतु फिर भी जिनमें जन्म लेने वाले
करोड़ों लोग अभिशप्त होते हैं
अपने समय के खैरलाँजी या मिर्चपुर की
बलि चढ़ जाने को

वे समुदाय
जो दफ़्न हैं
शॉपिंग माल्स और मंदिरों की नींवों में
जो सबसे क़रीब होते हैं मिट्टी के
जिनकी देह और आत्मा से आती है
यहाँ के मूल बाशिंदे होने की महक
जिनके श्रम को कभी पुल, कभी नाव-सा
इस्तेमाल करती रहती है
एक कृतघ्न व्यवस्था
किंतु जिन्हें दूसरे दर्ज़े का नागरिक
बना कर रखने के षड्यंत्र में
लिप्त रहता है पूरा समाज

आँसू, ख़ून और पसीने से सने
वे समुदाय माँगते हैं
अपने अँधेरे समय से
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से का आकाश
अपने हिस्से का पानी
किंतु उन एकलव्यों के
काट लिए जाते हैं अंगूठे
धूर्त द्रोणाचार्यों के द्वारा

वे समुदाय
जिनके युवकों को यदि
हो जाता है प्रेम
समुदाय के बाहर की युवतियों से
तो सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरने वाली
असभ्य सामंती महापंचायतों के मठाधीश
उन्हें दे देते हैं मृत्यु-दंड

वे समुदाय
जिन से छीन लिए जाते हैं
उनके जंगल, उनकी नदियाँ , उनके पहाड़
जिनके अधिकारों को रौंदता चला जाता है
कुल-शील-वर्ण के ठेकेदारों का तेज़ाबी आर्तनाद

वे समुदाय जो होते हैं
अपने ही देश के भूगोल में विस्थापित
अपने ही देश के इतिहास से बेदख़ल
अपने ही देश के वर्तमान में निषिद्ध
किंतु टूटती उल्काओं की मद्धिम रोशनी में
जो फिर भी देखते हैं सपने
विकल मन और उत्पीड़ित तन के बावजूद
जिन की उपेक्षित मिट्टी में से भी
निरंतर उगते रहते हैं सूरजमुखी

सुनो द्रोणाचार्यों
हालाँकि तुम विजेता हो अभी
सभी मठों पर तैनात हैं
तुम्हारे ख़ूँख़ार भेड़िए
लेकिन उस अपराजेय इच्छा-शक्ति का दमन
नहीं कर सकोगे तुम
जो इन समुदायों की पूँजी रही है सदियों से
जहाँ जन्म लेने वाले हर बच्चे की
आनुवंशिकी में दर्ज है
अन्याय और शोषण के विरुद्ध
प्रतिरोध की ताक़त

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
         A-5001 ,
         गौड़ ग्रीन सिटी ,
         वैभव खंड ,
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद - 201014
         ( उ. प्र. )
मो: 08512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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एड. नवीन बिलैया


         चंद्रशेखर
देकर जन्म धरती पर आपको शायद भगवान ने ख़ुशी मनाई होगी।
अमर हो गया वो गुरु भी जिसने आजादी की ज्योत आपके मन में जगाई होगी।
इतिहास कुछ भी कहे लेकिन जानता हैं हर हिन्दुस्तानी बिना आजाद के आजादी हरगिज़ नहीं आई होगी।
निर्भीक और निडरता से आपकी अंग्रेजों की रूह भी थर्राई होगी।
नाम हो जाएगा आपका इस युग में और बन जाओगे आजाद पुरुष युग-युग तक
ये बात शायद कई राजनीतिज्ञों को न पसंद आई  होगी।
जब फिर किसी ने मंथरा की भूमिका तो निभाई होगी।
तब जाकर आपके विरुद्ध कोई एक ऐसी गन्दी रणनीति बनाई होगी।
तभी तो चन्द्र शेखर जैसे आजाद बलिदानी को आतंकी सुनने पर दिल्ली को लज्जा तक नहीं आई होगी।
नहीं जरुरत आपको किसी सम्मान की न आवश्यकता हैं किसी पुरस्कार की
क्योकि हर युवा के मन में आपकी छवि निश्चित ही समाई होगी।।
नमन करता हूँ चरणों में आपके जन्मदिवस पर
होगे जहाँ भी आप तो देख कर भारत की राजनीति आपको भी हंसीतो आई होगी।
आज फिर जरुरत हैं देश को आपकी आजाद
जानते हुए भी बलिदानी की कीमत भारत में
आपने फिर से आने की गुहार भगवान् से लगाईं होगी।
और देख कर आपका देश प्रेम भगवान् ने भी
किसी माँ को अपनी कोंख करने बलिदान देश के खातिर इतनी हिम्मत जुटाई होगी।

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   तानाशाही
यूं तो कितनी भी कर लो बातें अमन की
लेकिन बिना तानाशाही के ये सच नहीं कर पाओगे।
वो झुठलाते रहेंगे और तुम सबूत दिखाते रहोगे
तब तक नहीं होगा कुछ जब तक 2 बदले 20 को मार कर नहीं भगाओगे।
कोई कुछ नहीं करेगा तुम्हारे कड़े फैसले पर
लेकिन जरुरत हैं कि तुम भी और देश की बुनियादे हिलाओगे।
2घंटे दे दो भारत की सेना को
दावा करता हूँ महामहिम आप भी लाशें गिन नहीं पाओगे।
जो आज कश्मीर में नहीं फहरा पाते तिरंगा देश का
पूरे देश के साथ लाहौर में भी स्वतंत्रता दिवस मनाओगे।
हाथ जोड़कर क्या हासिल कर लोगे और कब तक किसी को विधवा बनाओगे।
कर दो आदेश देश में एक भारत में आतंकी समर्थक तुम अब नहीं रह पाओगे।
हाँ शायद न मिले दोबारा शासन आपको
लेकिन दावा करता हूँ हर हिन्दू के दिल में आप अमर हो जाओगे।
शत शत नमन
                        एड. नवीन बिलैया
             सामाजिक एवं लोकतांत्रिक लेखक
------------.

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जयश्री जाजू


विवाह
विवाह हिन्दू संस्कृति में सृष्टि को आगे बढाने हेतु -- जो रीति-रिवाज ,सामाजिक मूल्यों का एक धरोहर के रूप में,इतनी प्राचीन संस्कृति का निर्वाह आज भी हो रहा है | बड़े गर्व की बात है किन्तु पिछले कुछ सालों में इस संस्कृति में कुछ-कुछ खोट आ रही है | आज हम पर हमारी संस्कृति की अपेक्षा हमारे स्वार्थ हावी हो रहे है | इस कारण से जो हमारी संस्कृतियाँ पूरे विश्व में पूजी जाती थी या यूँ कहा जाए तो कोई कोई अतिशयोक्ति न होगी कि हमें हमारे रीति - रिवाज गौण लगते है किन्तु इन्हीं रीतियों को अन्य देशों में सराहा जाता हैं | और हम उस संस्कृति को अपने यहाँ हावी होने दे रहे है जो हमें अपनी जड़ों को उखाड़ फेंकने की तालीम देती है --- तलाक |
     विवाह हमारे यहाँ कभी भी व्यक्तिगत नहीं रहा है | हमारे यहाँ विवाह दो व्यक्तियों का नहीं वरन दो परिवारों का होता हैं | विवाह दो व्यक्तियों को तो आपस में बांधता ही है साथ-ही-साथ दो परिवारों को भी जोड़ता हैं |समाज को इस बात की सच्चाई को जानना होगा कि आज नौजवान शादी करने के बाद छोटी-छोटी बातों को तूल देकर किस प्रकार अपने सम्बन्ध को कलंकित कर रहे हैं | तो विवाह जैसे पवित्र बंधन को कलंकित न कर किस प्रकार विवाह में बंधने पर इस रिश्ते की मर्यादा बनाए रखे | विवाह को विवाह पवित्र बंधन ही रखे |
           

       पवित्र बंधन होता है विवाह
        बिना शर्त का रिश्ता विवाह
        दो अजनबियों का होता विवाह
         विश्वास की डोर से बंधा विवाह |
                                             लड़की से लडके का होता विवाह
                                                 जिम्मेदारी का अहसास कराता विवाह
                                                लड़की को कई रिश्तों में बांधता विवाह
                                                बहु,भाभी,चाची,मामी कि सौगात देता विवाह
कुछ रिश्तों में जिम्मेदारी देता विवाह
तो कुछ रिश्तों से खट्टी-मीठी यादें बनाता विवाह
सभी रिश्तों को संभालने की ताकत देता विवाह
अल्हड़पन से जिम्मेदार बनता विवाह |


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महेन्द्र देवांगन "माटी"


वृक्ष लगाओ
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हरा भरा धरती को रखो
एक एक वृक्ष लगाओ
जल जमीन और जंगल को
प्रदूषण मुक्त कराओ ।
हर खुशियों के अवसर पर
पेड़ को मित्र बनाओ
अपने घर आंगन में प्यारे
जरुर पेड़ लगाओ ।
पेड़ अगर नहीं रहे तो
कहां से फल फूल पायेंगे
सूख जायेगी धरती सारी
अन्न कहां से खायेंगे ।
आओ सब संकल्प करें हम
कभी न वृक्ष को काटेंगे
पेड़ लगाकर धरती में
सबको खुशियाँ बाटेंगे ।
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रचना
महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम  (छ ग )
पिन - 491559
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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: माह की कविताएँ / रक्षाबंधन की कविताएँ
माह की कविताएँ / रक्षाबंधन की कविताएँ
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