कहानी - पानी पर लिखा खामोश अफसाना - ममता सिंह

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रा त भी कभी-कभी सुबह-सी लगती है, गाढ़ी रात ढलती है तो भोर होती है......भोर में टूटते सितारे से अपने मन की मुराद मांगें तो पूरी हो जाती है.....

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रात भी कभी-कभी सुबह-सी लगती है, गाढ़ी रात ढलती है तो भोर होती है......भोर में टूटते सितारे से अपने मन की मुराद मांगें तो पूरी हो जाती है........नानी अकसर ये बात कहती थीं। नानी की इस बात को मैंने अपनी जिंदगी के पन्‍ने की हेड-लाइन बना लिया। जब-जब आसमान में कुहासा छाया, मन जब-जब दर्द से भीगा, तब-तब यही सोचा कि अब शाायद सुबह होगी। और धीरे-से गाने की ये लाइन गुनगुनाने लगती—‘वो सुबह ज़रूर आएगी’........और इसके बाद ये गाना, जिसे मम्‍मी अकसर गुनगुनाती थी—‘देखो जी बहार आई, फूलों में फुहार लायी’। सुबह की लाली मेरे आंगन में भी छायी है। सूरज नारंगी झबला पहनकर मेरे घर भी आता दिख रहा है। मैंने जल्‍दी से अपने घर की खिड़कियां खोल दी हैं। कमरे की कोने की तिपाई पर सजी कांच की पनिहारिन पर सूरज ने आइना चमकाया और धीरे-धीरे वो नारंगी रंग से सफ़ेद चाक रंग में बदल गयी और मेरी आंखें चुंधिया गयीं। मिचमिचाई आंखों से मैंने मोबाइल के व्‍हाट्स-एप मैसेज देखे, लेकिन अनरीड ही छोड़कर मोबाइल टेबल पर रखकर गुनगुनाती हुई रसोई में आ गयी।


पतीले में दूध रखकर, चायपत्‍ती और चीनी का डिब्‍बा निकालकर प्‍लेटफार्म पर रखा, अदरक कूटने के लिए खलबत्‍ता ढूंढ ही रही थी कि दूध उफनकर काले ग्‍लास-टॉप बर्नर पर फैल गया........’ओह शिट, चलो अब सुबह-सुबह गैस भी साफ़ करो’।


‘जलते चूल्‍हे पर दूध का गिरना शुभ होता है’........कहीं से जैसे मम्‍मी की आवाज़ आयी। गृह-प्रवेश के दिन तो मम्‍मी ने जान-बूझकर ढेर सारा दूध छलका दिया था और पापा ने कहा था, ‘ये सब झूठे ढकोसले हैं’। मम्‍मी की बात का सिरा पकड़कर मैं यादों की वादियों में गुम होती चली गयी। यादों के साथ रहना मुझे बड़ा सुहाता है। मैं अपने सारे ग़म भुला देती हूं यादों के दामन में। मेरी यादों की वादियां बड़ी ख़ूबसूरत हैं। जहां हरे-भरे पेड़-पौधे हैं, झरने-पहाड़ और नदियां हैं। वो सब कुछ है जो मैं करना चाहती हूं........ जो मैं पाना चाहती हूं........मेरी इसी दुनिया में ख्‍वाबों का लंबा काफिला भी है, जहां मैं ख्‍वाबों के पंख लगाकर उड़ती हूं। रूक-कर बर्फीले पहाडों की खूबसूरती को आंखों में भर लेती हूं। नरम दूब पर बैठकर सुस्‍ताती हूं। पौधों के सहलाकर फूलों से बतियाती हूं। मेरे सपनों का संसार बेहद सुंदर है। मेरी इस फंतासी की दुनिया में कोई ख्‍वाब टूटता नहीं। जो कुछ नहीं मेरे साथ, वो भी मैं जीती हूं........जीती-जागती जिंदगी की तरह। अपनी इसी यादों और ख्‍वाबों की दुनिया में मैं चांद से बतियाती हूं, तारे ज़मीं पर लाकर अपने थाल में सजाती हूं........चांद की रोटी पकाती हूं........तारों से कहानी सुनती हूं ........और मम्‍मी के गले लगकर खूब रोती हूं। दर्श कहता है—‘ये तुम्‍हारी आभासी दुनिया हक़ीक़त से दूर करती है, कल्‍पनाओं में ले जाती है, इसलिए तुम ज़रूरत से ज्यादा इमोशनल हो जाती हो........आभासी दुनिया का नहीं, टेक्‍नॉलॉजी के इस युग में रिशतों में जज़्बात अहम नहीं होते, समझदारी मायने रखती है। ........मैं उसकी ये बात ऐसे सुनती हूं जैसे कुछ सुना ही नहीं। उसे ब्‍लैंक-लुक देकर अपनी उसी दुनिया में गुम हो जाती हूं, जहां मम्‍मी मुझे स्‍कूल के लिए तैयार कर रही हैं, मेरा टिफिन बॉक्‍स मेरे बैग में रख रही हैं ........मुझे यूनीफॉर्म, जूते-मोजे पहना रही हैं........अपने हाथों से खाना खिला रही हैं........स्‍कूल जाने से पहले नसीहतों की घुट्टी पिला रही हैं और दुआओं की ताबीज़ पहना रही हैं। नींद से पहले मेरे लिए लोरी गा रही हैं........और उनके हाथ पर अपना सिर रखकर मैं सपनीली दुनिया में सो रही हूं। मेरे यादों के खूबसूरत जहां में बीहड़ रेगिस्‍तान भी है, जहां जाने से मन घबराता है। लेकिन आज मुझे सैर करनी है, मुझे उस टीले पर जाना है, जहां मुझे डर लगता है........उस टीले से मैं मम्‍मी को आवाज़ देती हूं, लेकिन आवाज़ मेरे गले के भीतर ही घुटकर रह जाती है........मम्‍मी-पापा दोनों भटक गये हैं रेतीले बगूले में.......मैं उन्‍हें खोज रही हूं, उन्‍हें अपने पास महसूस कर रही हूं, उन्‍हें छूना चाहती हूं........मम्‍मी का आंचल अपने आंसुओं से भिगोना चाहती हूं........मैं उन्‍हें अपने पास बुलाना चाहती हूं........उनसे कहना चाहती हूं कि आपके बग़ैर ये दुनिया मेरे लिए सिर्फ दुखों का दरिया है, अगर दर्श ना होता तो मैं कब की ख़त्‍म हो गयी होती। उसी ने ग़म के बीहड़-घने अंधेरे में रोशनी की नन्‍हीं किरण दिखायी है........तपते रेगिस्‍तान में नदी-सी ठंडक दी है। दर्श ने ही जिंदगी में झरनों की रवानी से रू-ब-रू कराया और मैंने उसके साथ गुनगुनाना सीखा, लेकिन फिर भी आने वाली जिंदगी को लेकर आज मन सैलाब बना हुआ है.....


जिंदगी का एक अहम फैसला........हाथों की रेखाओं में कहीं मम्‍मी के हाथ की रेखा तो नहीं मिली है। दर्श वैसा ही जैसा मैं चाहती हूं........धूप में सघन छांव की तरह। मेरी नाराज़गी पर फूल बन मुस्‍कुराता है। जिंदगी के हर छाले पर फाहा लगाता है। मेरी हर परेशानी में वो सहयोग करता है। मेरे गुस्‍से को भी सिर आंखों पर लेता है। मोबाइल पर गाने भेजता है........’यूं ही तुम मुझसे बात करती हो, या कोई प्‍यार का इरादा है’।
समंदर के किनारे एक चट्टान पर मैं और दर्श बैठे थे। मेरे गुलाबी दुपट्टे के छोर को उसने अपनी नीली बुश-शर्ट की आस्‍तीन में लपेट लिया—‘ये लो हमारा गठबंधन हो गया’ और आंख भरके मुझे देखता रहा.......मैंने अपनी ठंडी, नम, बेजान आंखों से देखा और पलकें झपकाकर लहरों के पार दूर क्षितिज को देखने लगी, जहां आसमान समंदर में उतरा था। सिंदूरी रंग पानी में घुल गया था। समंदर की सुनहरी शाम को मैं आंखों में भर लेना चाह रही थी...डूबते सूरज की नाज़ुक किरणें खारे पानी पर चांदी-सी झिलमिला रही थीं।


-मुझे अफसोस होता है कि लोग समंदर के किनारे होते हुए भी समंदर के किनारे नहीं होते। कहीं और अपने मन की दुनिया में, अपने तनाव की दुनिया में होते हैं। समंदर की इन्‍हीं लहरों की तरह.....तुम समा जाओ मेरे भीतर….सांची! पूरी तरह डूब जाओ मुझमें—दर्श बोला था।


वो लम्‍हा मेरे लिए सदी बन गया। सहेज लिया मैंने अपने मन के सात दरवाज़ों के भीतर...मेरे अकेलेपन की सदी उस एक पल में तिरोहित हो गयी थी...बारीक मुस्‍कुराहट मेरे भीतर की बात कहने को आतुर थी। लेकिन मैं उसे भीतर..और भीतर...ज़ब्‍त करती रही। लेकिन दर्श ने भांप लिया और दौड़ता हुआ लहरों के बीच आया, मेरे क़रीब आयी लहरों से पानी उलीच-उलीचकर छपाक-छपाक मेरे मुंह पर डालने लगा... चेहरे पर नमक घुल गया था... जीभ पर नमकीन स्‍वाद कसैला नहीं बल्कि शीरीं लग रहा था।


कुछ लोग हर रिश्‍ते में भयभीत होते हैं जिंदगी के दर्द को भीतर सक समोए हुए। यकीन ही नहीं होता कि दर्द के दरिया में खुशियों का रंग भी घुल सकता है। इसी में मैं अपना नाम शुमार करती हूं। बचपन की अंधेरे से डरने की आदत आज भी कायम है। रात के अंधेरे में हिलता हुआ परदा आज भी अजब-सी शक्‍ल बनाता है मेरे सामने, और मैं चिहुंक कर बैठ जाती हूं। साइड-टेबल पर रखे शादी के कार्ड में चमकीले अक्षरों में अपना और दर्श का नाम पढ़ती हूं। आज ही उसके साथ मित्रों के घर कार्ड बांटने जाना तय हुआ है। हालांकि व्‍हाट्स-एप और ई-मेल पर निमंत्रण पहुंच चुका है, ल‍ेकिन दर्श के घर वाले जैसे पिछली सदी में जी रहे हैं, उनके मुताबिक़ खुद जाकर कार्ड देना चाहिए।
यादों के बियाबान में भटकते मन ने किताब के वो पन्‍ने खोल लिए हैं, जिसमें कुछ तल्‍ख और तकलीफदेह लम्‍हे दर्ज हैं, जिन पर मन की सुई रूह तक ऐसे धंस जाती है कि उसे बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है। सुई की चुभन असीमित कराह पैदा करती है और मन चीत्‍कार उठता है। मन की किताब में कुछ ख़ूबसूरत पल भी दर्ज होते हैं जो आपके क्षणिक सुकून के लिए काफी होते हैं। यादों के महासागर में मैं गहरे तक डूबती जा रही हूं और ज्‍वार-भाटा जारी है...तब मैं छोटी थी, पापा-मम्‍मी दोनों दफ्तर से थोड़े-ही समय के अंतराल पर घर लौटते। ढलती शाम के वक्‍त मैं प्रोटीनेक्‍स या बॉर्नवीटा वाला दूध पी रही होती... कभी कभी विजया आंटी मुझे उस समय ब्रेड-जैम या बिस्‍कुट भी खाने को देती थीं। दोपहर को स्‍कूल से लौटती तो बस से मुझे विजया आंटी ही ‘पिक’ करती थीं। हालांकि बस-स्‍टॉप पर उन्‍हें देखकर मैं उदास हो जाती थी। जिस दिन मम्‍मी या पापा मुझे ‘पिक’ करते, मैं उन्‍हें देखकर खिल जाती थी। विजया आंटी को देखते ही मेरा मूड खराब हो जाता...मैं रोती थी। विजया आंटी मुझे ज़बर्दस्‍ती खाना खिलातीं और खूब सारा तेल मेरे सिर में और पैरों में चुपड़ देतीं...फिर ठोंक-ठोंक कर सुलातीं। अगर उस दौरान मम्‍मी का फोन आ जाता, तो मैं उनसे शिकायत करती और मम्‍मी मुझे समझातीं... विजया आंटी को जाने क्‍या कहतीं कि उसके बाद उनका बर्ताव मेरे प्रति थोड़ा नरम हो जाता था। कई बार मुझे सुलाने की कोशिश नाकाम हो जाती तो वो मुझे कफ़-सीरप भी पिलाती थीं ताकि मैं सो जाऊं और वो भी आराम फरमा सकें। शाम को जैसे ही मम्‍मी आतीं, विजय आंटी अपना पर्स खास अंदाज़ में उठातीं और गोल-गोल घुमाकर हिलाती हुई ‘बाय’ कहकर चली जातीं। उनका जाना मुझे बड़ा अच्‍छा लगता क्‍योंकि एक तो उसके बाद मुझे मम्‍मी का साथ मिलता, दूसरे उस वक्‍त मेरे‍ लिए टीवी लगा दिया जाता और मैं चैनल बदल-बदल कर ‘अकबर बीरबल की कहानियां’, ‘डिस्कवरी किड्स’ या ‘छोटा भीम’ देखती थी। दिन में मुझे टीवी नहीं मिलता था, मम्‍मी रिमोट छिपाकर जाती थीं ताकि मैं और विजय आंटी टीवी से ही ना चिपके रहें। उस समय मम्‍मी चाय बनाकर लातीं और पापा मम्‍मी सामने के सोफे पर बैठकर एक साथ चाय पीते थे...अदरक वाली चाय की खुश्‍बू कमरे में फैल जाती थी। चाय पीते हुए दोनों महीन आवाज़ में कुछ बतियाते...मम्‍मी का चेहरा कभी खुश नज़र आता, तो कभी नाराज़गी में वो पापा को देख रही होतीं। पापा के चेहरे का भाव रोज़ एक जैसा होता था। कई बार उनके ज़ोर से बोलने पर मुझे अपने कार्टून सीरियल के डायलॉग सुनने में असुविधा होती, तो मैं पिनक जाती थी। उन दिनों मुझे हर बात पर गुस्‍सा आता था। हर बात चिढ़कर या रोकर बोलती थी। यहां तक कि मम्‍मी पापा को मैं आपस में बात करते देखती तो उन्‍हें जानबूझकर डिस्टर्ब करती। मुझे लगता कि वो सिर्फ मेरी तरफ़ ही मुखातिब रहें। उन्हें एक साथ बैठे देखकर मैं बिना बात के रूठ भी जाती थी। मेरी इस आदत से परेशान होकर पापा डीवीडी पर मेरे लिए बच्‍चों की कोई फिल्‍म लगा देते ता‍कि मैं हंगामा ना करूं। ऐसे वक्‍त में अकसर मम्‍मी-पापा अपने बेडरूम में चले जाते। दरवाज़ा भीतर से बंद कर लेते। मुझे कौतुहल होता कि जाकर देखूं कि वो भीतर क्या कर रहे हैं, लेकिन फिल्‍में इतनी दिलचस्‍प होती कि मैं अपनी जगह पर अपनी बेबी-डॉल और buddy के साथ टीवी के सामने ही बैठी रहती।


बेडरूम का दरवाज़ा खुलता तो मम्‍मी का चेहरा कुछ निखरा सा लगता....ज्यादा खुश दिखतीं और पापा हमसे खूब लाड़ करते। एक दिन मम्‍मी के गालों पर लिपस्टिक के दाग़ लग गए थे। कमाल की बात कि पापा के कान के पास बिंदी चिपकी थी। मैं ‘खी-खी’ करके हंस पड़ी।
‘क्‍या हुआ’- मम्‍मी ने पूछा।
मैंने हाथ का इशारा कर दिया। मम्‍मी वापस बेडरूम में गयीं और लौटकर आईं तो उनके चेहरा रानी गुलाबी हो गया था।
‘क्‍या बॉइज़ ईयर के पास बिंदी लगाते हैं मम्‍मी?
पापा का चेहरा दहक उठा था।


उस शाम मम्‍मी-पापा ने मॉल ले जाने का वादा किया था। वो रोज़ की तरह बेडरूम में बंद हो गए। अचानक मुझे शरारत सूझी और मैं दरवाज़े पर जाकर चिपक गयी। सोचने लगी, आखिर मम्‍मी पापा बेडरूम में इतनी देर तक करते क्‍या हैं। दरवाज़े में एक छोटी-सी झिरी थी। इस दरवाज़े में सुराख़ मेरी वजह से हुआ था। बक़ौल मम्‍मी जब मैं डेढ़ साल की थी तो मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया था, लेकिन मुझे खोलना नहीं आया। जब ये अहसास हुआ कि मैं अंदर से बंद हूं, तो ज़ोर से रोना शुरू कर दिया था। लॉक तोड़ा गया, तब से उस दरवाज़े में एक छोटा-सा होल बन गया था। मैंने देखा, मम्‍मी रो रही थीं। पापा उन्‍हें अपने आग़ोश में लेने की कोशिश कर रहे थे। मम्‍मी दूर छिटक कर कुछ कह रही थीं....मेरे नन्‍हे बाल मन ने इतना ही समझा कि मम्‍मी रूठ गयी हैं और पापा उन्‍हें मना रहे हैं। लेकिन उस दृश्य ने मुझे जैसे अचानक समझदार बना दिया....दुनियादारी सिखा दी। मम्‍मी छोटी बच्‍ची में तब्‍दील हो गयीं। वो जब कमरे से बाहर आयीं तो उनकी आंखों की चमक सियाह रात में बदल गयी थी....अपनी आंखों की नदी सुखाने की कोशिश कर रही थीं और वो मेरी नज़रों से बच रही थीं. लेकिन मेरी आंखें उनका लगातार पीछा करती रहीं। उनके गालों का रंग आज गुलाबी नहीं था, पीला-ज़र्द था। मेरी इच्‍छा हुई कि मैं सपनों वाली जादूगरनी बनकर मम्‍मी को आसमान की सैर कराऊं। उनके चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग पोत दूं....मैं उठी, उनसे लिपट गयी.... उनके भीतर की नमी को महसूस करती रही।
‘मम्‍मी चलो हम कहीं बाहर घूमने चलें’....मम्‍मी अकसर मुझे ऐसे ही बहलाती थीं, जब मैं रोती थी। उस दिन के बाद से मम्‍मी के चेहरे पर ना तो गुलाबी रंग दिखायी दिया, ना ही पापा ने अपने ईयर के पास बिंदी चिपकायी। अब मुझे बात-बात पर डांट पड़ने लगी। मेरी जिन शरारतों पर मम्‍मी बलैंयां लेती, हंसतीं, अब उन पर मुझे डांट या मार खानी पड़ती। कई बार वो ‘स्‍टेच्‍यू’ बन जातीं। पापा के शब्‍दों में ‘बर्फ़’ या ‘पत्‍थर’ बन जातीं। पापा की मौजूदगी में मैं उनसे कुछ कहती, तो कहीं दूर दूसरी ओर देखने लगतीं।


उस शाम के बाद से वे साथ-साथ बैठते, चाय पीते, लेकिन दोनों के बीच चुप-सी लगी होती, जैसे ‘खामोश-सा अफ़साना, पानी पर लिखा होता’। पापा सन्‍नाटा तोड़ने की गरज से कुछ बोलते, लेकिन शब्द गूंजते रह जाते, मम्‍मी वहां से उठकर घर के किसी दूसरे छोर पर चली जातीं, लेकिन दोनों अलग-अलग मुझसे बराबर संवाद रखते। सवालों के बादल से मैं घिर जाती। कई बार जानने की कोशिश करती तो मम्‍मी की आंखें नम हो जातीं या फिर वो ‘स्‍टेच्‍यू’ बन जातीं। उनकी ये अदा मुझे ज़रा-भी रास नहीं आती थी, मैं गुस्‍से और खीझ में रोने लगती तो मम्‍मी मुझे सीने से चिपका लेतीं, मेरी पीठ सहलातीं लेकिन कुछ बोलती नहीं। मैं और मम्‍मी जब घर में अकेले होते तो वो मेरे साथ लूडो, सांप-सीढ़ी, जेन्‍गा खेलतीं या फिर ‘अरेबियन नाइट्स’ वाली कहानियां पढ़कर सुनातीं। इसी बीच अगर पापा का फोन आ जाए, तो बस फिर उन पर खामोशी तारी हो जाती। खिड़की की ओर शून्‍य में उनका ताकना, दीवार पर टंगी अपनी तस्‍वीर को एकटक देखना मुझे अखरने लगता था....उस समय उनकी आंखें चौड़ी और बड़ी लगती थीं। एक दिन उनकी इस मुद्रा से मैं भयभीत हो गयी और मैंने उन्‍हें आवाज़ दी—‘मम्‍मी, मम्‍मी’। मैंने उनसे लिपटकर अपनी उंगलियों से उनकी आंखों को छुआ, पलकों को ऊपर उठाकर देखा, उनमें पानी था, नमी थी।

 

-मम्‍मी रही हो
-नहीं, नहीं तो।
-पर आपकी आंखों में तो ये आंसू हैं, ये देखो मेरी उंगलियां गीली हो गयी हैं।
-नहीं रे, यूं ही पानी आ गया होगा सांची।
-आंखों में पानी मतलब रोना ही हुआ ना?
मुझे समझ में नहीं आया, आंसू, पानी और रोने का फर्क़। मैं उनसे अगला प्रश्‍न पूछूं कि इससे पहले वो उठकर चली गयीं। आंसू, पानी और रोने का फर्क़...काश इसका मतलब उस समय समझ पायी होती।
एक दिन हम कहीं जा रहे थे, मम्‍मी ने गाढ़े नीले रंग की साड़ी पहनी। उसी से मैचिंग ईयरिंग। गले में माला, लाल बिंदी और लिपस्टिक....बड़ी सुंदर लग रही थीं। मैं उन दिनों कुछ ज्यादा ही बातूनी हो गयी थी। जाने क्या-क्‍या तो बोल रही थी, अब याद नहीं। बस इतना याद है कि उन्‍होंने मेरे हाथ को अपनी हथेली में रखकर प्‍यार किया और उनके लाल होंठ मेरी हथेली पर छप गये। मेरे हाथ में लगी लिपस्टिक पोंछ दीजिए, मैंने ठुनकते हुए कहा था। मम्‍मी ने टिशू से पोंछा भी, लेकिन निशान बाक़ी रह गया था।

-‘जिंदगी में बहुत सारे निशान बाक़ी रह जाते हैं, जो मिटाने पर भी नहीं मिटते, कुछ ख़रोंचें ताजिंदगी सालती हैं’, कहते हुए मम्‍मी फिर गंभीर हो गयीं। उनकी आंखों में आंसू जैसे हर वक्‍त गागर की तरह भरे ही रहते। थोड़े-थोड़े अंतराल पर ढुलकते रहते।


-‘तुम मरीज़ हो गयी हो और सायकिक भी, और ये मर्ज़ सांची को भी दे रही हो’—पापा ने खीझते हुए कहा था।
-‘सांची को बीच में ना लाओ तो बेहतर’- मम्‍मी तल्‍ख़ हो गयी थीं। शायद उन दिनों मम्‍मी सचमुच बीमार हो गयी थीं। तभी तो वे डॉक्‍टर के पास जातीं।
मम्‍मी-पापा डॉक्‍टर के केबिन में थे। मुझे नर्स के पास बिठा दिया गया था। मैं आंखें बंद करके मम्‍मी के स्‍वस्‍थ होने की भगवान से प्रार्थना कर रही थी। ठीक उसी तरह जैसे मम्‍मी मेरे और पापा के लिए आंखें बंद करके ‘प्रे’ किया करती थीं। अचानक ज़ोर से मम्‍मी का रूदन सुनायी पड़ा था और मैं दौड़ी थी डॉक्‍टर के केबिन की ओर। नर्स ने चॉकलेट देकर मुझे बहला दिया था।
उस ख़ास सुबह की स्‍मृति तरोताज़ा है....जब पापा ने मुझे गोद में उठा लिया था। हॉल में ग़ुब्‍बारे सजे हुए थे। गुलदान में नए फूल... खिड़की में नीले पर्दे....साइड टेबिल पर गिफ्ट-रैपर में लिपटा हुआ कुछ था, जिस पर हिंदी में पापा ने कुछ लिख रखा था, जो उस समय मैं नहीं पढ़ पायी थी और पापा से पूछा था। तब मैंने नया-नया हिंदी पढ़ना शुरू किया था। पापा ने शादी की सालगिरह के माने ‘वेडिंग एनिवर्सरी’ बताए।
-‘मैं भी बड़ी होकर ख़ूब सारे गिफ्ट्स आपको दूंगी’… बचपन की नन्‍हीं और मासूम-सी ख्‍वाहिश पंख लगाकर उड़ रही थी। अलग ही नूर था उस दिन घर में। कुछ ज्‍यादा उजले दिए की तेज़ रोशनी की तरह। उस दिन बार-बार मम्‍मी आकर मुझे गले लगाकर प्यार कर रही थीं। लेकिन फिर भी उनकी आंखों में घने बादल थे, जो रह-रह कर बरस रहे थे।


--‘मम्‍मी, आज सेलीब्रेशन के दिन आप क्यों उदास हैं ?’
--‘उसे आंसुओं से प्‍यार हो गया है, खुशनुमा पलों में भी उदासी तलाश लेती है, ना वो खुद खुश रहना चाहती है, ना ही दूसरों को खुशहाल देखना पसंद करती है’।
एक बार फिर माहौल सन्‍नाटे और तल्‍ख़ी से भर गया था। पापा कम्‍प्यूटर रूम में चले गए। जाते-जाते उनके कुछ शब्‍द हवा में उड़ते रहे.....‘सूरज की रोशनी में भी किसी को अंधेरा ही नज़र आए तो फिर इस अंधेरे की उजास कभी नहीं होगी’।
--‘मन की नदी पर इतने बांध बन गये हैं कि बहाव रूक गया है। इतनी सिलवटें हैं कि ठीक करते करते आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है। अब तुम्‍हारी ये बातें मुझे नहीं पिघलातीं’। मम्‍मी के होंठ कांपे थे। मुझे बांध और सिलवटों का मतलब समझ में नहीं आया था।
--‘तुम आखिर चाहती क्‍या हो।’


--‘मैं क्‍या चाहती हूं ये जानने के लिए मेरे मन के समंदर में उतरना होगा। लहरों में बहना होगा। तुम एक नज़र में, एक मिनिट में मुझे पढ़ना चाहते हो...नहीं सौरभ…..! ज़रा मेरे मन की खिड़की में तो झांको। कितनी उथल-पुथल है, कितना बवंडर है। बारीक नज़र से देखो, मेरे मन का पूरा संसार तुम्‍हें दिखायी देगा। इस भयानक शोर-गुल और भीड़ में मैं कितनी अकेली हो गयी हूं- कभी तुमने ये जानना ही नहीं चाहा। मेरे लिए व्‍यक्तिगत और वस्‍तुगत मूल्‍य एक निर्मूल हो गये हैं। मेरे भीतर लरज़ती आवाज़ें तुम सुनना ही नहीं चाहते हो। मेरी आवाज़ के पीछे छिपी महीन चिलकन तुम्‍हें दिखावा लगती है। क्‍योंकि तुम्‍हारी दिखावे में ही जीने की आदत हो गयी है। तुम परतों को खोलना ही नहीं चाहते....तुम सिर्फ ऊपर–ऊपर देखते हो। मन के भीतर, चेहरे के पीछे क्‍या चल रहा है, तुम जानना ही नहीं चाहते’


--‘ये सब कुछ तुम्‍हारा वहम है, फोबिया हो गया है तुम्‍हें….मेनिया....ताजिंदगी तुम साइकियाट्रिस्‍ट के चक्‍कर काटती रहो, इसी में हम सबकी भलाई है’
--‘उस व्‍यक्ति को भी वहम है, मेनिया और फोबिया है, जो उस दिन तुम्‍हारी जान का दुश्‍मन बन गया था?.....सामने सब कुछ आर-पार स्‍पष्‍ट हो जाने पर भी तुम उस ख़ौफनाक बात को वहम कह रहे हो’
मम्‍मी की आंखों में फिर सैलाब उठा था। पापा ने मोबाइल उठाया, स्‍क्रीन पर देखा, उनके चेहरे की खीझ महीन मुस्‍कान में तब्‍दील हो गयी थी। बालकनी में लगे पौधे की पत्‍ती पर एक बूंद ठहरी थी, ढुलक कर टूट गयी। मेरे भीतर भी कुछ दरक गया था। लेकिन मुझे पूरा किस्‍सा नहीं समझ में आया था।


उन दिनों घर में एक ही स्‍थायी भाव रहता था, खामोशी, उदासी या तकरार। उस रात मम्‍मी लाल पाड़ की सितारे वाली साड़ी पहनी थी। ख़ूब सारे ज़ेवर पहनकर तैयार हुई थीं। मुझे भी ख़ूब सजाया मम्‍मी ने। खूब मन से कई व्‍यंजन बनाए। डाइनिंग-टेबल पर तीन थालियां लगायीं।
-मम्‍मी हम तो आज पार्टी करने कहीं बाहर जाने वाले थे ना?
-पापा को घर लौटने में देर होगी इसलिए।
-मम्‍मी पार्टी हम लोग कल करेंगे क्‍या?
.............।
-मम्‍मी, पापा देर-से आयेंगे, तो ये तीसरी थाली किसकी लगायी है आपने।
-पापा की। उनके होने का अहसास ही काफ़ी है, कहीं भी रहें, तेरे साथ ही होते हैं। कुछ व्‍यक्ति जीवन से इस क़दर बंध जाते हैं कि उनसे अलग अपनी जिंदगी अर्थहीन लगती है। लेकिन मन को कहां पता होता है कि अचानक जिंदगी नदी के दो किनारों की तरह हो जाती है, जहां हम साथ चलते हुए भी अलग-अलग हो जाते हैं। आज ही के दिन तेरे पापा और हम एक अटूट रिश्‍ते में बंधे थे।
उस दिन मम्‍मी कुछ ज्‍यादा ही बोल रही थीं। वैसे भी मम्‍मी का मिज़ाज इन दिनों काफी बदल गया था। कभी बेमतलब की बाद पर हंसतीं, कभी अचानक ग़मग़ीन हो जातीं......रोना तो जैसे उनका प्रिय शग़ल हो गया था......कभी भी किसी भी प्रहर शुरू हो जाता......यूं कहें कि रोना उनका स्‍थायी भाव बन गया था। तब मुझे नहीं पता था कि वो दिन अब डायरी के पन्‍ने में तब्‍दील हो जाएगा। उस दिन के बारे में ज़रा भी मुझे आभास होता, तो मैं वक्‍त को रोक लेती...वो सब कुछ करती जो एक छोटी बच्‍ची नहीं कर सकती। बहरहाल...मम्‍मी ने उस दिन अपने हाथों से खाना खिलाया, ज़रा भी खीझी नहीं, गुस्‍सा नहीं किया। वरना इन दिनों मुझे बात-बात पर डांटतीं और दूसरे ही पल गोद में लेकर पुचकारतीं। लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं किया। मुझे खाना खिलाने के बाद वो लगातार लोगों से फोन पर बात करती रहीं। उनकी बातों से लग रहा था कि फोन पर अलग-अलग लोग हैं। फोन पर बातें करते हुए खिलखिला कर हंस पड़ रही थीं, जैसे लाफ्टर चैंपियन वाले शो में बैठी हों।

कई बार इंसान अपने भीतर की ज्‍वाला शांत करने के लिए हंसी के छींटे मारता है। काश उनके भीतर का दावानल उस दिन मुझे दिखाई दे जाता, तो मैं ज्‍वालामुखी नहीं बनने देती। उनहें नदी की तरह ठंडी कर देती, काश उस दिन मैं मम्‍मी के मन के छाले को देख पायी होती। मम्‍मी ने उस रात भी मुझे अपने हाथों पर लिटाया, पहले लोरी गायी और फिर कहानी सुनाने लगी। लेकिन वो कहानी अचानक किसी घटना में बदल गयी। ‘सांची, मुझे ऐसा लग रहा है, घनी रात का साया....विराट समंदर......लहरों के ऊपर मैं तैर रही हूं, अचानक तेज़ लहर मुझे समंदर की गहराई में लिए जा रही है। ये लहरें फेनिल, श्‍वेत, चमकीली नहीं हैं.....स्‍याही-सी घुली है इनमें। इन डरावनी लहरों से बाहर आने की कोशिश व्‍यर्थ-सी लग रही है। मैं सुनते-सुनते जाने कब नींद और सपनों की दुनिया में पहुंच गयी थी, ख़बर ही नहीं मुझे। नींद में एक सपना और जागती आंखों से दूसरा सपना देख रही थी। ये सपना नींद वाले सपने से बेहद ख़ौफ़नाक था। पापा का रोना, बिलखना, चीत्‍कार......पहली बार मैंने अपने घर में इतनी भीड़ देखी। यहां ना समुद्र, ना लहरें, ना कोई किनारा......मैंने अपनी आंखों पर हाथ रखके ख़ूब ज़ोर से दबाया और आंखें चौड़ी करके कन्‍फर्म किया कि मैं नींद में हूं या जाग रही हूं......या जागते हुए कोई डरावनी फिल्‍म देख रही हूं। कुछ समझ में आए इससे पहले पड़ोस वाली काजल आंटी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर अहसास करा दिया कि मैं जाग रही हूं और ये सब जो मैं देख रही हूं, हक़ीक़त है। काजल आंटी ने मेरे कान में अपना मुंह डालकर पूछा—‘तुम्‍हारे पापा और मम्‍मी में कुछ अनबन चल रही थी क्‍या’।


मैंने अपनी आंखें उन पर चिपका दीं।
‘तुम्‍हारी मम्‍मी किसी अंकल से मिलती जुलती थीं’।
‘मतलब......’
‘मतलब पापा के अलावा उनका कोई फ्रेन्‍ड वग़ैरह’......?
……….
‘या तुम्‍हारे पापा की कोई गर्लफ्रैंड वग़ैरह’......?
……….
‘सांची बेटा बताओ ना, कल तुम्‍हारे घर में क्‍या हुआ था।’
काजल आंटी कुछ ज्‍यादा आत्‍मीय हो गयी थीं।
‘आप काजल आंटी हैं या पुलिस आंटी……….’। मैं चुपचाप उठी और मम्‍मी से लिपट गयी।
‘मम्‍मी ज़मीन पर क्‍यों सो रही हैं, उठिये ना मम्‍मी........रात वाली अधूरी स्‍टोरी पूरी कीजिए ना……….। आप समंदर में अकेली थीं मम्‍मी…!!! फिर क्‍या हुआ....आप डरी नहीं समंदर की ऊंची लहरों से....?’ मैं मम्‍मी को हिला रही थी, पापा मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। मैं मम्‍मी से और चिपकती जा रही थी....मम्‍मी सचमुच की स्‍टेच्‍यु बन गयी थीं। ये कोई गेम नहीं था। पापा ने मुझे गोद में उठा लिया, मुझसे लिपटकर रो रहे थे।
‘तेरी मम्‍मी हमें छोड़कर चली गयीं’
‘लेकिन ये तो यहां हैं’
‘नहीं बेटा……ये देह है उनकी’।


पापा बहुत देर तक मुझसे कुछ कहते रहे और मैं पूछती रही। पर उस वक्‍त मेरी आंखों के सामने कुहासा-सा छा गया था...जैसे रात का सा अंधेरा हो गया हो। मैं डरी-सहमी रोए जा रही थी।
अचानक हथेली पर आंसू की एक बूंद आकर गिरी है...जैसे तब से अब मेरा रोना थमा ही ना हो। और सचमुच मम्‍मी के जाने के बाद मैं कितनी अकेली हो गयी थी। मेरा बचपन जैसे कहीं गुम हो गया था। मैं पापा की बेटी नहीं, पापा की दोस्‍त बन गयी थी। रात को उठकर अकसर मम्‍मी को मैं अपने बिस्‍तर पर खोजती। कई बार ज़ोर से चीख़ पड़ती।


मन के किवाड़ अभी बंद नहीं हुए थे कि मैं मम्‍मी की आलमारी खोलकर बैठ गयी, जिसमें छोटी-सी संदूकची में सोने के पुराने ज़ेवर, चांदी के कुछ सिक्‍के, कुछ भूली-बिसरी चाभियां पड़ी हैं.....। साड़ी के कवर में था फुलकारी वाली नीली शॉल, गुलाबी स्‍वेटर, ज़री वाली कुछ साडियां और कुछ ड्रेस मटेरियल, जो सिलवाए जाने थे शायद किसी ख़ास मौक़े पर। वहीं कुछ चूडियां बिखरी थीं और लेदर का पर्स भी रखा था, जिस पर सफेद फफूंद लग रही थी, उसे साफ़ करने की गरज से उठाया तो उसमें से काग़ज़ का एक बंडल नीचे गिर गया और एक छोटी-सी नोटबुक बाहर निकल आयी...जिस पर मम्‍मी की लिखावट नीले मोतियों-सी चमक रही थी.....
मुझे अपने आप से शिकायत है, मैं तुम्‍हें पढ़ ही नहीं पायी....हम एक ही जिल्‍द में बंधी किताब की तरह हैं, लेकिन अलग-अलग पन्‍नों में हम अपने-अपने दुखों के साथ निपट अकेले हैं। एक ही दरख़्त की अलग-अलग शाखाओं पर कांपते पत्‍तों की तरह हैं हम, जिनके भीतर की सिहरन और एकांत को कोई नहीं जानता। फ़र्ज़ और जिम्‍मेदारियों के बोझ तले गुम हो गयी नाज़ुक इच्‍छाओं के बारे में किसी को पता नहीं होता। वैसे तुमने तो बख़ूबी निभाई अपनी जिम्‍मेदारी... यहां तक कि ख़ास पलों को भी फ़र्ज़ की तरह निभाते चले गए। मुझे तो अहसास ही नहीं हुआ, तुम मुझसे इतनी दूर जा चुके हो। तुम्‍हें प्‍यार की राज़दार तो मैं हूं ही नहीं। वो रिश्‍ता, वो प्रेम, वो इंतज़ार, वो साथ, वो तड़प, वो उदासी, वो मुस्‍कान, वो हंसी, वो रूदन मेरे लिए छलावा, उसके लिए हक़ीक़त या उसके लिए छलावा मेरे लिए हक़ीक़त.....? सौरभ! अब तक का हमारा इतना लंबा साथ महज़ एक भरम रहा….हम साथ जीते हुए भी रोज़ साथ-साथ मरते रहे...क्‍योंकि हम-तुम साथ थे ही नहीं। तुम्‍हारी जिंदगी में तो मैं थी ही नहीं मेरी जिंदगी तो ख़ूबसूरत नाटक बन गयी है। लेकिन सौरभ, मैं अपना किरदार अब नहीं निभा पाऊंगी। जानती हूं ये फिल्‍मी अंदाज़ है, जी नहीं सकती तो मर तो सकती हूं तुम्‍हारे साथ...लेकिन फिर अपनी सांची का क्‍या होगा। इसलिए तुम्‍हें सांची के लिए छोड़ रही हूं। उम्‍मीद है उसकी परवरिश पूरे समर्पण से करोगे’।


ज़माने भर में जिसे प्‍यार कहा जाता है, उसे तुमने बोझ और सज़ा बना दिया है। आखिर तुममें कौन-सी चाहना है, जो मृगमरीचिका की ओर भाग रहे हो, तुमने हरे-भरे खेतों के रास्‍तों को छोड़कर जलती रेत के रास्‍तों को चुन लिया......तुम अपने पांव जलाते रहे और मैं उन पर मरहम लगाती रही...क्‍योंकि इसी में मुझे दिली सुकून मिलता रहा। मैं रोज़ तुम्‍हारे लिए दुआओं की ताबीज़ बनाती रही, उस ताबीज़ का असर किसी और पर होता रहा। ये कैसा मायाजाल....ये कैसा कुचक्र रच गया हंसती-खेलती जिंदगी में...जिंदगी की हरियाली खोजते-खोजते तुम किस बियाबान में भटक गए....जहां सूखे रंगहीन ठूंठों के सिवा कुछ भी नहीं है।

अपनी इस कथा के अंत में सिर्फ इतना ही, कि सांची पर हमारी जिंदगी का साया ना पड़े। मेरी इस दु‍आ का असर ज़रूर होगा।

मैं नोट-बुक के उन पन्‍नों को बार-बार उलट-पुलट कर पढ़ रही हूं। बचपन से जिये हुए एक-एक लम्‍हे को याद करते हुए सुई में धागे की तरह पिरो रही हूं लेकिन नाकाम हो रही हूं। आखिर क्‍या था पापा का वो राज़, जिसने मम्‍मी को दुनिया छोड़कर जाने को मजबूर किया। मम्‍मी और पापा के रिश्‍ते के बीच क्‍या एक गैप था? दोनों का रिश्‍ता क्‍या एक सूखे पत्‍ते की तरह था?..... ऊपर से जो दिखता था, क्‍या वो भीतर से खोखला था....आखिर क्‍या कमी थी उनके बीच......जो हरा-भरा पौधा मुरझा गया, वो कौन-सा अधूरापन था, जो पूरा नहीं हो सका। सवालों की नदी के पार जाने की मैं कोशिश कर रही हूं, लेकिन दूर तक कोई किनारा नज़र नहीं आ रहा। मम्मी आंखों से ओझल ही नहीं हो रही हैं। काश पहले मिली होती ये नोटबुक मुझे, तो पापा से पूछती इन सवालों के जवाब। काश मैं मम्‍मी की ख़ामोशी की माने समझ पायी होती। सवालों के दंश से कराह रही हूं मैं। कहीं मम्मी का सच मेरा सच भी ना हो जाए। कहीं दर्श भी........। कितना समझ सकता है कोई किसी को। कितनी कितनी पर्तें होती हैं एक इंसान की। मैं आज अपने इस अहम फैसले पर विचिलत क्यों हो रही हूं। आखिर क्‍यों मैं अकेलेपन के महासागर में डूबती जा रही हूं, जबकि दो जिंदगियां समान नहीं होती हैं।


.....मोबाइल उठाया तो देखा दर्श के अनगिनत मिस्‍ड कॉल हैं। भारी मन से कॉल-बैक कर रही हूं।

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परिचय -

लोकप्रिय व प्रसिद्ध उद्घोषिका रेडियो-सखी ममता सिंह के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ और शास्त्रीय संगीत पर लेख एवं साक्षात्कार नियमित प्रकाशित. कुछ वर्ष पत्रकारिता के बाद संप्रति आकाशवाणी की विविध भारती सेवा में.

आप इनकी आवाज में लोकप्रिय व प्रसिद्ध कहानियाँ भी सुन सकते हैं. यहाँ जाएँ - http://katha-paath.blogspot.in/ 

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(साभार - पाखी सितम्बर 2016)

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: कहानी - पानी पर लिखा खामोश अफसाना - ममता सिंह
कहानी - पानी पर लिखा खामोश अफसाना - ममता सिंह
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