कहानी / खादी भंडार के चूहे / नरेंद्र अनिकेत

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शहर एक दम डरा हुआ था। हर कोई संदेह और आशंका से एक दूसरे को देख रहा था। अंधेरा घिरने के बाद गलियों में पलने वाला खौफ दिन के उजाले पर भी हावी...

शहर एक दम डरा हुआ था। हर कोई संदेह और आशंका से एक दूसरे को देख रहा था। अंधेरा घिरने के बाद गलियों में पलने वाला खौफ दिन के उजाले पर भी हावी हो गया था। डर से ज्यादा शहर के लोग इस बात पर शर्मिंदा थे कि चूहों के कारण उन्हें ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। लोगों को हैरत इस बात पर थी कि शहर में किस्म-किस्म के अपराधियों ने भी कभी पड़ोसियों पर संदेह करने की नौबत पैदा नहीं की थी। लोग अंधेरे से डरते थे और इस हौसले से मुसीबतों का सामना कर जाते थे कि आवाज लगाने पर उनकी मदद में कई लोग दौड़ पड़ेंगे। लेकिन यहां स्थिति उलट हो गई थी। तीन चूहों की मौत ने पूरे शहर को दो गुटों में बांट दिया था। एक गुट में वे थे जो चूहों की मौत का मातम मना रहे थे तो दूसरे गुट में वे थे जिनकी नजर में चूहे तुच्छ जीव थे।

शहर की इस हालत से हर कोई परेशान था। बड़े-बड़े तोंद वाले सेठ से लेकर भिक्षाटन पर दिन गुजारने वाले तक पर हालत की मार पड़ रही थी। तीन दिनों से शहर का कारोबार ठप पड़ा था और लोग घरों में दुबके हुए थे। सड़कों पर फौजियों की बूट बजती थी और सायरन बजाती गाड़ियां गुजरती थी। स्कूल-कालेज उदास थे। जहां बच्चों की शरारतें और चुहल हुआ करते थे उन क्लासों में बाहर से बुलाए गए पुलिसवालों या फौजियों का डेरा लगा हुआ था। थोड़ी देर के लिए राहत मिलने पर शहर में अफरा-तफरी मचती और उसी दौरान तरह-तरह की अफवाहें सुनने को मिलती और फिर तनाव पैदा हो जाता और लोग घरों में दुबक जाते। देश के सभी प्रचार माध्यमों में शहर की चर्चा हो रही थी। वहां जो कुछ हो रहा था उसे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया सुनाया और पढ़ाया जा रहा था। शांति की अपील कुछ इस अंदाज में हो रही थी कि अभी कुछ और दिन इसी तरह लगे रहो ताकि हमें खबर मिलती रहे।

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यह सारा कुछ खादी भंडार के बरामदे में बैठने वाले दर्जी मुर्शीद भाई के हाथों तीन चूहों के मारे जाने के बाद से शुरू हुआ था। चूहों से मुर्शीद भाई तो बाद में परेशान हुए। सबसे पहले चूहों ने खादी भंडार के मैनेजरों की नींद हराम करनी शुरू की थी। पिछले कई सालों से चूहों ने खादी भंडार में आतंक का राज कायम कर रखा था।

चूहे कुछ भी नहीं छोड़ते थे। खादी भंडार में आए ग्रामोद्योग की बनी हर वस्तु को उपभोग योग्य नहीं रहने देना उनका लक्ष्य बन चुका था। सब कुछ कुतर डालते थे। वैसे भी खादी महंगी हो गई थी उस पर भी कुतरा हुआ सामान कौन खरीदता?

चूहों का आतंक कोई एकाएक पैदा नहीं हुआ था। लोग बताते हैं कि आजादी की आहट के साथ ही खादी भंडार में चूहे घुस आए थे। जब बंटा हुआ देश सरकार का स्वरूप तय कर रहा था और महात्मा गांधी सांप्रदायिक हिंसा से आहत हो कर उपवास रख रहे थे, उन्हीं दिनों चूहों ने खादी भंडार में घुसपैठ कर लिया था। मगर इस बात का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं था कि देश के बंटवारे के साथ चूहे खादी भंडार में घुसे या उससे पहले से वहां मौजूद थे। कुछेक खोजी किस्म के लोगों का यहां तक कहना है कि खादी भंडार में चूहे तभी घुस आए जब यह लगने लगा था कि देश अब आजाद हो जाएगा। खादी भंडार से जुड़े लोग कहते हैं कि शुरू में चूहे खूब धमाचौकड़ी मचाते थे। कभी कर्मचारियों की टांग के नीचे से निकल जाते कभी सूत का हिसाब करने आई महिलाओं की साड़ी में लटक कर झूला झूलते थे। तब वे कोई नुकसान नहीं कर रहे थे। किसी ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन यही चूहे खादी भंडार के खलनायक के रूप में देश-दुनिया में चर्चा का विषय बन जाएंगे। यह भी अनुमान नहीं था कि ये देश की राजनीति पर भी असर डालेंगे।

जब आजाद देश के प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने शपथ ली, तब चूहों ने नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। आजाद देश की सरकार ने विकास की रूपरेखा रखते हुए पंचवर्षीय योजना बनाई। बड़े-बड़े उद्योग लगा कर देश का विकास करने की योजना। नदियों को बांधने की योजना समेत और न जाने कितने सपने देश ने देखे। उसी समय एक दिन चूहों ने खादी भंडार में जमा सभी सूत और कपास की पूनिया कुतर डाली।

इस नुकसान से बिलबिलाए तत्कालीन मैनेजर भैरव बाबू ने त्राहिमाम संदेश भेजा था। भैरव बाबू ने अपनी दुविधा साफ तौर पर जाहिर की थी। चूंकि महात्मा गांधी के सिद्धांत के मूल में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है इसलिए चूहों को मारा नहीं जा रहा है और इनसे होने वाले नुकसान के कारण इन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता। उन्होंने अपनी रिपोर्ट भेजते हुए ऊपर वालों से चूहों से निजात का अहिंसक उपाय बताने का आग्रह किया था। मैनेजर पद से हटने तक भैरव बाबू ऊपर से आने वाले जवाब का इंतजार ही करते रहे और बड़े आहत मन से पहले खादी भंडार से और फिर दुनिया से विदा हो गए।

भैरव बाबू एकदम सिद्धांतवादी थे। दसवीं जमात तक पढ़े भैरव बाबू गांधी आश्रम में भर्ती होने से पहले सतानतन संगीत मंडली में थे। वहां जाने का भी अपना कारण था। उनके बारे में जो बातें कही जाती है उसके मुताबिक वह किसी विजातीय लडक़ी से प्रेम करते थे। कथित ऊंची जाति के भैरव बाबू का दिल अपने ही मजदूर की बेटी पर आ गया था। उनके रिश्ते के किस्से उनके गांव-टोले में खूब उछले। किस्सों तक तो परिवार को कोई आपत्ति नहीं हुई, लेकिन जब भैरव बाबू एक अच्छा प्रेमी बनने पर अमादा हुए तो परिवार के साथ-साथ पूरी बिरादरी उनके खिलाफ खड़ी हो गई। भैरव बाबू को उनकी प्रेमिका से अलग कर दिया गया और वह वियोगी हो गए।

इस घटना के बाद भैरव बाबू ने परिवार को त्याग दिया और साधु हो गए। कंठ अच्छा था इसलिए सनातन संगीत मंडली में भर्ती हो गए।

गांधी आश्रम में उनके आने की भी कहानी है। एक बार जब भैरव बाबू भजन गा रहे थे तब बेसुध श्रोताओं की भीड़ इतनी जमा हो गई कि रास्ता अवरुद्ध हो गया था।

उसी समय एक अंग्रेज साहब की बग्गी वहां से गुजर रही थी और साहब को इस तरह रास्ता रोकने पर गुस्सा आ गया था। साहब ने और उनके हिंदुस्तानी कोचवान ने वहां खड़े लोगों की धुनाई शुरू कर दी। भैरव बाबू हतप्रभ रह गए। वहां पचासों लोग खड़े थे। सभी पिट रहे थे। कहीं से कोई प्रतिकार नहीं था। साहब ने भैरव बाबू को भी नहीं बख्शा। उनपर भी चाबुक बरसा दिया। बस उसी चाबुक ने भैरव बाबू को विद्रोही बना दिया। भैरव बाबू ने साहब का चाबुक छीन लिया और पिल गए। लोग भी पलट गए। साहब को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा।

इस घटना के बाद भैरव बाबू को जेल जाना पड़ा था। उनके खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगा था। तीन चार साल तक मुकदमा-पेशी का नाटक झेलने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। जेल में रहने के दौरान भैरव बाबू सुराजियों के संगत में आ गए और बाहर आने के बाद उनकी जमात में शामिल हो गए। उस समय गांधी जी का बड़ा जोर था। भैरव बाबू का अभिवादन बदल गया। अब वह जय सियाराम की जगह जय हिंद बोलने लगे थे। सनातनी भजन की जगह आजादी का सपना दिखाने वाले तराने गाने लगे। भैरव बाबू गांधी विचार प्रचार मंडली के प्रमुख कार्यकर्ता बन गए।

भगवा छोड़ कर खादी अपनाने वाले भैरव बाबू अकेले नहीं थे। उनके जैसे कई और थे जिन्होंने खादी की ताकत महसूस की थी। कई जमींदार घराने के लडक़े अंग्रेजी सत्ता के अपमानजनक व्यवहार से आहत हो कर सुराजी बने थे। कई महंत कांग्रेस के कार्यकर्ता बन गए थे। यह वह समय था जब जनता खादी पहनने वाले पर सबसे ज्यादा भरोसा कर रही थी। आजादी का सपना देखने वाले लोगों को ऐसे सुराजी राम की वानरी सेना नजर आ रही थी जो राक्षस रूपी अंग्रेजों की सत्ता से लोहा ले रही थी। और गांधीजी! उन्हें तो जनता अवतार मान रही थी।

उन्हीं दिनों बिहार के इस ऐतिहासिक खादी भंडार की नींव महात्मा गांधी ने रखी थी। जब यह तैयार हो गया तो राजेंद्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया था। आजादी के संघर्ष के दौरान इलाके के लोगों में आत्मनिर्भरता का बोध कराने से लेकर खादी के प्रति जागरूकता पैदा करने में इसका विशेष योगदान रहा। तब कोटे में कपड़े मिलते थे। आठ हाथ की साड़ी के लिए बिना खाए-पिए दिन भर लाइन में खड़ा रहना पड़ता था। जमींदारों के घरों में रेशमी वस्त्र तक आसानी से मुहैया हो जाते थे, लेकिन किसानों के पास धोती इतनी ही होती थी सभी भाई एक साथ स्नान नहीं कर सकते थे। एक के स्नान के बाद गीली धोती सूखने तक दूसरे को इंतजार करना पड़ता था।

कपड़ों की कमी ने कई परिवारों को एकसूत्र में पिरो रखा था। अलग होने के बाद सबसे बड़ी समस्या कपड़ा जुटाना था। अलग होने के लिए सबसे बड़ी जरूरत थी कि खादी भंडार के चूहे औरत स्नान करने के बाद साड़ी बदल सकें और पुरुष धोती।

ऐसे वक्त में खादी भंडार ने उन लोगों को चरखा थमाया था। सूत कातो अपने लायक कपड़ा खुद बनाओ। कपड़े की तंगी और घर के मालिक की उपेक्षा से परेशान लोगों को अपनी हर बीमारी का इलाज चरखे में नजर आया था। महात्मा गांधी की जय। हमें अपमान और जिल्लत की जिंदगी से निजात दिलाने के लिए क्या यंत्र थमाया! व्यक्तिगत स्तर की गुलामी से लेकर औपनैवेशिक साम्राज्य तक से मुक्ति का हथियार चरखा बन गया। लोगों ने चरखा को हाथों-हाथ लिया और स्वाधीन होने के अभियान में जुट गए। उस समय के लोग बताते थे कि खादी भंडार बनाने में लोगों ने जिस तरह योगदान दिया था उससे लगता था मानो देश की आजादी की ही नहीं जिंदगी की आजादी की जंग लड़ी जा रही थी।

आज खादी भंडार का शो रूम दीनहीन अवस्था में खड़ा है। स्थापना के समय से लेकर आजादी मिलने तक वह शान से खड़ा था। तब चरखा और ग्रामोद्योग का प्रशिक्षण देने के लिए जगह कम पड़ती थी। यह शहर तब कस्बा हुआ करता था। कस्बे के बाहर एक पूरा गांव बसाया गया था। स्वराज ग्राम जहां कताई, बुनाई, रंगाई से लेकर चरखा समेत हाथों से श्रम सहयोगी उपकरण बनाने तक का प्रशिक्षण दिया जाता था। खादी भंडार और स्वराज ग्राम को खड़ा करना कोई आसान काम नहीं था।

तकली पर सूतली कातने का काम तो इलाके के लोग जानते थे, लेकिन उस तकली को चरखे में फिट कर पहले से महीन सूत काता जा सकता है, इसकी जानकारी लोगों को नहीं थी। इलाके में अंग्रेजों के आने से पहले सूत कातने और कपड़े बुनने का हुनर एक जाति जानती थी। जब अंग्रेज आए तब उनका संकट शुरू हुआ। कुछ तो विलायत के बने कपड़े की भेंट चढ़ गए और कुछ को अंग्रेजों के टैक्स के आगे दम तोड़ना पड़ गया। जब बाजार ही नहीं रहा तो फिर हुनर कैसे जिंदा रहे? चूंकि जाति समाज के हाशिए पर थी इसलिए उनके संकट को सामाजिक संकट नहीं माना गया। कपड़ा बुनने वाली उस जाति का ज्ञान संचित रखने का कोई उपाय नहीं तालाश गया।

धीरे-धीरे स्थिति ऐसी हो गई कि जिनके बनाए कपड़े की धाक दूर देश तक थी वे कपास की पूनिया बनाने का काम तक भूल गए। गांधी आश्रम से आए सुराजियों ने लोगों को न केवल कपास की पूनिया बनाना सिखाया, बल्कि चरखे की मदद से सूत कातने से लेकर करघे पर कपड़ा बुनने तक का अभ्यास कराया। एक बार फिर इस इलाके का कपड़ा खादी के नाम से देश में मशहूर हो गया। लेकिन इस बार जाति-धर्म से ऊपर उठकर पूरा समाज इस उपलब्धि में शामिल था।

स्वराज ग्राम के देशरत्न सभागार में कभी खूब चहल पहल रहा करती थी। साहित्य और राजनीतिक विचारधारा से जुड़े सवालों पर परिचर्चाएं हुआ करती थीं। तब शहर के पढ़े लिखे लोग विद्वान वक्ताओं को सुनने जमा हुआ करते थे। अब सभागार की कुर्सियां पड़ी-पड़ी टूट रही थीं। लोगों का आना कम होने से चूहों को आसानी हो गई और उन्होंने वहां भी कब्जा जमा लिया। क्या फर्श और क्या मंच हर जगह उनके बिल बन गए थे। सभागार के भीतर जितने भी महापुरुषों के तैलचित्र लगे थे सभी पर चूहों ने मुंह साफ कर लिया था। केवल महात्मा गांधी के चित्र को ही चूहों ने छोड़ दिया था या फिर यह कहिए कि बख्श दिया था। वह भी इसलिए कि खादी भंडार की चरी खाने के बाद वही तस्वीर फारिग होने के लिए उनकी सबसे मुफीद जगह थी।

दूसरी पंचवर्षीय योजना आने के साथ ही चूहों के हमले तेज हो गए। खादी पर निर्भरता घटती जा रही थी इसलिए चूहों से हो रहे नुकसान पर खादी भंडार से ज्यादा और कोई आहत नहीं था। नई पंचवर्षीय योजना की घोषणा के बाद चूहों ने चरखे की डोरियों काटनी शुरू कर दी। हालत यह हो गई कि लोगों के पास डोरियों की कमी पड़ गई और घरों का चरखा रुक गया। सूत कातने की जगह चरखा बच्चों का खिलौना बन गया। फिर एक समय ऐसा भी आया कि चरखा घरों से लुप्त ही हो गया।

सरकार में तब ज्यादातर लोग गांधी टोपी पहनने वाले होते थे। अधिकांश नेता ऐसे थे जिन्होंने गांधी को देखा था और उनकी आस्था अब तक कायम थी। ऐसे आस्थावान लोगों को शांत रखने के लिए सरकार ने सहयोग समितियों को बढ़ावा देने की रस्म अदायगी के साथ-साथ केंद्रीय स्तर से लेकर निचले स्तर तक खादी बोर्डों का गठन कर दिया था। खादी भंडार के चूहों को जाने खादी से क्या दुश्मनी थी कि जहां भी खादी और सहकार जैसे शब्द जुड़े होते वे वहां अपना करतब दिखाने पहुंच जाते। मसलन हर सहयोग समिति और बोर्ड में उन्होंने घुसपैठ कर लिया था। ऐसा लग रहा था कि बड़े उद्योगों की राह में खादी और सहयोग समितियां रोड़ा बन सकती थीं, जिन्हें खत्म करने का जिम्मा चूहों को सौंप दिया गया था। वे ग्रामोद्योग की हर वस्तु को निशाना बनाने लगे। अलबत्ता तब तक उन्होंने खादी के कुर्ते पजामे और टोपी को दांत तो दूर पूंछ तक नहीं लगाया था।

आजादी मिलने के बाद स्वराज ग्राम से सबसे पहले वह उत्साह गायब हो गया जो आजादी मिलने पहले हुआ करता था। पहले स्वराज ग्राम का एक ही नारा था जय हिंद। आजादी मिलने के बाद कई नारे लगने लगे। समस्या और अभाव से जूझ रहे लोग नारों में बंटने लगे। उनके नेता अलग-अलग हो गए और नेताओं की जाति के हिसाब से लोग अलग हुए। हर जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। हालत यह हो गई कि नेता का कद उसकी जातिगत संख्या बल और उसमें उसकी पैठ से तय होने लगा। राजनीति में आए इस बदलाव ने खादी भंडार और स्वराज ग्राम को छिन्न-भिन्न कर दिया। जहां लोग अपनी दुर्दशा को खत्म करने के लिए तत्पर रहते थे वहां अब नफा नुकसान की चर्चा होने लगी थी। आहिस्ता-आहिस्ता खादी भंडार, स्वराज ग्राम लोगों के एजैंडे से गायब होता चला गया।

जैसे-जैसे देश विकास कर रहा था चूहों का आतंक बढ़ रहा था। चूहों ने देश के विकास के साथ तारतम्य सा स्थापित कर लिया था। जितने बड़े उद्योगों की स्थापना होती जा रही थी खादी भंडार के चूहों का सितम उतना ही बढ़ रहा था। उनकी संख्या भी उतनी ही तेज गति से बढ़ रही थी। जब तक लोगों का भरोसा खादी में कायम रहा राजनीति में वह खाल छिपाने के काम आती रही। पर धीरे-धीरे वह भरोसा भी उठने लगा था। खादी से लोगों का भरोसा उठने का भी कारण था। पहले नेता जातियों में बंटे, फिर पार्टियां जातियों की हो गई। जातियों के हीरो बंदूक लिए नेताजी की खादी के पीछे छिपने लगे और उनके दम पर सरकारें बनने बिगड़ने लगी। फिर ऐसा दौर आया जब जातियों के हीरो ही नेता बनने लगे। नेताओं की वादाखिलाफी और अफसरों की मक्कारी से परेशान लोग ऐसे हीरो को दुख-दर्द का तारनहार मान लिया। हीरो भी खादी पहनने लगे। जेल से चुनाव लड़ना और पोस्टर पर हथकड़ी वाली तस्वीर के सहारे वोट मांगने की प्रथा चल पड़ी। ऐसे तारनहारों के सितम गौण हो गए और जातिगत अहंकार सर्वोपरि हो गई। विचारधारा गौण हो गई। समाज में वैचारिक संवाद खत्म हो गया। यही वह समय था जब लोगों का भरोसा खादी से उठ गया। फिर ऐसा समय आया जब खादी पहनने वाले को जनता धूर्त और मक्कार समझने लगी। राजनीतिक पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता को छोड़ कुछ शौकिया लोग ही खादी लपेटने लगे। आम आदमी अधनंगा ही रहा, पैसे वाले फैशन के गुलाम हो गए। खादी भंडार फालतू की जगह हो गई।

आजादी के बाद शहर भी देश के विकास के साथ-साथ कदम ताल मिलाए हुए था। शहर में बड़े पैमाने पर बदलाव आ गया था। शुरू में नगरपालिका मिट्टी के तेल के दिए वाले लैंप पोस्टों से गलियों को रोशन करती थी। जब बिजली आई तो ढिबरी वाले लैंप पोस्ट की जगह बल्ब आ गए, फिर ट्यूब लाइट और वैपर लाइट लग गए।

शहर में जब रोशनी बढ़ी तब लोगों ने चैन की सांस ली थी कि अब रात के अंधेरे में सेंधमारी की घटनाओं से उन्हें मुक्ति मिल जाएगी। लोगों को सेंधमारी से तो मुक्ति मिल गई, मगर रोशनी में यहां तक कि दिन के उजाले में लूट खसोट बढ़ गई।

शहर के एक चौराहे पर महात्मा गांधी की प्रतिमा लगी थी जिस पर दिन भर कौए बैठ कर कांय-कांय करते और प्रतिमा पर अपना रंग चढ़ाते थे। रात को वह प्रतिमा गंजेडिय़ों के ओट लेने की जगह बनती थी। किसी गांधीवादी से महात्मा की दुर्दशा नहीं देखी गई और उसने उनके लिए छतरी का इंतजाम करा दिया। गांधीजी कौए से रंगीन होने से तो बच गए, लेकिन गांजे के धुएं से रात भर परेशान होते रहे। बिजली से शहर की हातल में बदलाव आया था। अंधेरी घुप्प गलियों में टिमटिमाती ढिबरी की जगह अब बल्ब की चकमक फैली थी। ऐसे में महात्माजी को अंधेरे में कैसे रखा जाता उनकी छतरी पर भी एक बल्ब टांग दिया गया। वे भी रोशनी में नहाने लगे।

सालों से ऊंघने वाला कस्बा फैलने लगा था और नगरपालिका से महापालिका बन गया। अब उसके विकास कार्यों की योजना बनाने से लेकर उसकी देखरेख के लिए विकास प्राधिकरण भी बन गया। इतने सालों में काफी कुछ बदल गया। स्वराज ग्राम बड़े शहर में एक पता भर रह गया और उसके परिसर में स्थानीय भाषा में कहें तो भंख लोटने लगा। वहां स्वावलंबन का पाठ सीखने जाने वाले लोगों की संख्या पहले कम हुई और बाद में खत्म। अब उसके सामने एक बड़ा सा शापिंग मॉल खड़ा है जहां महंगी विदेशी कारों की कतारें देर रात तक लगी रहती हैं। तरह-तरह के फैशन का बोझ ढोती देवियों और सज्जनों की भीड़ रहती है। मॉल बनाने वाले नायक जी स्वराज ग्राम को शहर का कोढ़ कहते हैं। उनका वश चले तो वह इसे ढहाने में तनिक भी देरी न करें, लेकिन उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा वह शिलालेख है जिस पर महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद का नाम खुदा है। नायकजी को दुख है कि उनके मॉल का पता स्वराज ग्राम के सामने लिखा जाता है। वे सपना देखते थे कि एक दिन स्वराज ग्राम का पता होगा ‘नायकजी के मॉल के सामने।’

कपास, सूत और चरखे के बाद चूहों ने गांधी साहित्य को निशाना बनाया। गांधीवादी विचारधारा से जुड़े जो भी साहित्य खादी भंडार में आते रातों-रात चूहे उसे कुतर कर रद्दी में बदल देते थे। चूहों ने न जाने कैसे यह भेद जान लिया था कि किसी व्यवस्था को खत्म करने के लिए विचार पर हमला जरूरी है। विचार को अप्रसांगिक करार देकर, फालतू और प्रलाप कह कर हत्या नहीं की जा सकती है। उसे खत्म करने के लिए लोगों को उससे काटना जरूरी होता है। पुस्तकों को ज्ञान का कोश समझने की मानसिकता की जगह उसे धर्म का आदेश मनवाना जरूरी होता है। तमाम ग्रंथों की जो हालत देश में हो चुकी थी उसी तरह जब तक गांधी की विचारधारा का हाल न किया जाए तब तक इसके पुनर्जीवित होने का खतरा है। बस क्या था चूहों ने गांधी साहित्य को निशाना बनाना शुरू कर दिया। वैसे भी अब गांधीवादी साहित्य पढ़ने और समझने के लिए नहीं खरीदा जा रहा था। संपन्न लोग दिखावे के लिए और खुद को बुद्धिजीवी घोषित करने वाले लोग अपनी आलमारी में सजाने के लिए उसे खरीदने लगे थे। चूहे की साजिश में लोग और व्यवस्था स्वत: ही शामिल हो गई थी।

देश का विकास हो रहा था और दुनिया के भूगोल पर एक नए देश का सृजन कर चीन की लड़ाई से उपजे पराजय बोध से विजेता के गर्व तक का सफर देश तय कर चुका था। समय के इस अंतराल में कई घटनाएं घट चुकी थी। खादी भंडार के कई मैनेजर बदल चुके थे, लेकिन उसकी हालत में कोई बदलाव नहीं आया था। कई सरकारें आई और गईं पर चूहों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। वे इतने चालाक थे कि जब कभी थोड़ा शोर होता और जांच समिति बैठती उसके नतीजे को वे गटक जाते थे या फिर किसी बड़ी घटना का शोर उनके कारनामे को दबा देता था। चुनावी नारा ‘युद्ध में विजय’, ‘गरीबी हटाओ’ से होता हुआ ‘भ्रष्टाचार मिटाओ’ तक पहुंच गया था। उल्टी दिशा में व्यवस्था चलाने की मुहिम छेड़ने वाली राजनीतिक पार्टी को राष्ट्रीयकरण का झुनझुना थमा कर सत्ता मंत्रमुग्ध कर चुकी थी और उनके सत्ता में आने की परिस्थिति का निर्माण होने तक मौजूदा सत्ता खुद के कायम रहने की गारंटी ले चुकी थी। वैकल्पिक विरोध को कुंद कर सत्ता निश्चिंत हो चुकी थी, इसलिए हमराही विरोधियों की उसे परवाह नहीं थी। हमराही विरोधी भ्रष्टाचार हटाओ का नारा लगाते हुए सड़कों पर उतर सन्नाटा तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। हड़तालें होने लगीं थीं। छात्र कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे थे। इनसे निपटने के लिए सत्ता ने आपातकाल लगा दिया। नारों में उलझे ज्यादातर लोग इस बात से कोई मतलब नहीं रख रहे थे कि देश पर कौन सा काल शासन कर रहा है। यदि नसबंदी का जोर नहीं होता तो उस आंदोलन का दम निकल जाता। जनसंख्या विस्फोट से निपटने के लिए शुरू की गई इस मुहिम को ही उस समय हथियार की तरह इस्तेमाल कर लिया गया। एक अफवाह ने धर्मभीरू जनता की नजर में सत्ता को अपराधी घोषित कर दिया। उस समय कहा गया था कि एक साधु की जबरिया नसबंदी कर दी गई। साधु की मौत आपरेशन टेबल पर हो गई।

उस साधु ने मरते-मरते यह श्राप दिया है कि जो भी सत्ता का साथ देगा वह नर्क में जाएगा। यह सत्ता कलियुग का प्रतीक है अतः इसका खात्मा जरूरी है। इस बात पर भरोसा करने के लिए लोगों को ठाकुर बाडिय़ों में रखी पोथियों में साधु बाबा के केश ढूंढने की सलाह दी गई थी। कई पोथियों में पके हुए लंबे केश मिल गए। जिन ठाकुर बाडिय़ों में केश मिले वहां भगवान का वास माना गया और वहां के लोगों ने इसलिए आंदोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया कि वे पवित्र हैं और ईश्वर के आदेश का पालन उन्हें ही करना है। जहां केश नहीं मिले वहां के लोग बुझे मन से, इस डर से आंदोलन में शरीक हुए कि कहीं नर्क न जाना पड़ जाय। धीमी गति से चलता आंदोलन तेज हो गया और विरोध की लहर क्रांति बन गई। यही क्रांति आगे चल कर संपूर्ण क्रांति कहलाई। यहीं से भारतीय राजनीति में साधुओं का बोलबाला शुरू हो गया। साधु भी दल में शामिल होने लगे जो आगे चल कर नेपथ्य से सरकार चलाने लगे।

साधुओं की इच्छा से जनता ने सरकार बदल दिया था। क्रांति सफल हो गई थी और कई बंदूकछाप लोग सीधे राजनीति में कूद पड़े थे। ऐसे बंदूक छाप लोगों को सत्ता का मारा हुआ कह कर राजनीति में अपना लिया गया था। बदली हुई सत्ता झक्क खादी लपेट नेता और भगवा खादीधारी के बेमेल जमावड़े का सुमेल था। सत्ता के बदलाव ने देश में आशा की एक नई किरण दिखाई थी। लोगों के साथ-साथ खादी भंडार के भी दिन बहुरने की उम्मीद जगी थी। कई विदेशी कंपनियों की दुकान बंद करने की कोशिशों ने खादी भंडार के चूहों में खौफ भर दिया था। थोड़े दिनों तक वे सहमे से रहे फिर जैसे ही उन्हें लगा कि बदली हुई सत्ता व्यवस्था में किसी किस्म का बदलाव नहीं करने जा रही, वे निर्द्वंद्व हो गए। चूहों ने फिर से अपना खेल शुरू कर दिया। बदली हुई सत्ता ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं रह सकी और बेमेल गठजोड़ का सुमेल खंडखंड हो कर बिखर गया। पहले सरकार गिरी और फिर भगवा और जाति-धर्म के हिसाब से कई रंगों की झंडियों वाली पार्टियों में लोग बिखर गए। जिस दिन संपूर्ण क्रांति का बाजा बजा उस दिन खादी भंडार के चूहों ने जम कर जश्न मनाया।

इसके बाद देश में तेजी से बदलाव हुए। हर कोई अपना चोला बदलने लगा। जितनी तेजी से नेता पार्टी बदलने लगे उतनी तेजी से रेडलाइट एरिया में ग्राहक भी नहीं बदलते थे। आगे चल कर नेताओं की छत्रछाया में हथियार उठाए घूमने वाले लोग खादी पहन नेता बनने लगे और मोहमाया त्याग भगवा बाना धारण करने वाले साधु-संन्यासी नेताओं की भाषा बोलने लगे। सरकार बनाने में ऐसे लोगों की भूमिका बढ़ती गई। जातियों और संप्रदाय में बंटे लोग जिन्हें चुन रहे थे वे हर समस्या के मूल में व्यवस्था को कम एक दूसरी जातियों, संप्रदायों को दोष देने में लिप्त होने लगे। दबी जुबान से कही गई बातें नारों में बदल जाती थी और छोटी-छोटी बातों पर बड़े-बड़े झगड़े होने लगे। कुनबों के नेता धनी होने लगे और घोटाले के आरोप दूसरी जाति की साजिश कह कर खारिज किए जाने लगे। इतिहास की घटना वर्तमान पर हावी होने लगी थी और कुछ पुराने मकानों की नींव में धर्म की जय-पराजय के सबूत तलाशे जाने लगे। जीर्ण भवन संप्रदायों, मतों के स्वाभिमान के प्रतीक बनने लगे।

ऐसे ही क्रांतिकारी समय में खादी भंडार में हुई एक क्रांति ने चूहों की समस्या को राष्ट्रीय समस्या बना दिया। हुआ यह कि खादी भंडार के सामने जमाने से बैठने वाले मुर्शीद भाई ने अपना नुकसान होने पर गुस्से में एक दिन घुमा कर एक पटका दे मारा जिससे तीन चूहे एक ही चोट में परलोक सिधार गए। उन दिनों शहर की हवा कुछ ठीक नहीं थी। स्वराज ग्राम के समीप मॉल बनाने वाले नायक जी उन दिनों साधुओं की पार्टी के कर्ताधर्ता बने हुए थे। खादी भंडार और स्वराज ग्राम के खिलाफ हाथ लगे इस तुक्के को वे जाया नहीं होने देना चाहते थे। चूहों की हत्या मुद्दा बन गया। मुर्शीद भाई करीब तीस साल से खादी भंडार के सामने बैठ रहे थे। एक कत्तिन से लगाई के कारण दर्जी का काम सीखा था। ऐसे मनोयोग से कपड़े सिलते थे कि उसमें जान आ जाती थी। क्या हिंदू, क्या मुसलमान, सभी उनके हुनर के कायल थे। उनके जीवन का एक ही दर्द था कि जिसके लिए वे दर्जी बने वह उन्हें नहीं मिल सकी।

इश्क की राह में मजहब पहाड़ बन कर खड़ा हो गया था। चट्टान होता तो लांघ लेते पर पहाड़ का क्या करें? मन मार लिया और खुद को हुनर में ऐसा झोंक लिया कि कम उम्र में ही अपने उस्ताद से बढ़िया कुर्ता, मिर्जई सिलने का फन हासिल कर लिया था। पूरे इलाके में कुर्ता सिलने में मुर्शीद भाई का कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। एक जमाना था संपन्न लोगों की मिर्जई सिलने के लिए उनकी खुशामद होती थी। अब तो सिर्फ शादियों के मौसम में वे पेट का जुगाड़ कर रहे थे। बदलते समय और रेडीमेड फैशन ने उनके जैसे कई हुनरमंदों की हालत पतली कर दी थी। छोटे कारीगर खत्म हो रहे थे, बड़े स्तर की कारीगरी जगह ले रही थी। ऐसे में जब मुर्शीद भाई के एक पुराने कस्टमर के कपड़े पर जब चूहों ने मुंह मारने की कोशिश की तब उनका गुस्सा फूट पड़ा था। चूहे उनकी पेट पर लात मारने की फिराक में थे और पेट पर लात कोई क्यों सहे?

मुर्शीद भाई शायद ऐसा नहीं करते। उन्होंने तीसरी-चौथी जमात में बहादुर दर्जी की कहानी पढ़ी थी। मक्खियों से परेशान होने पर उस दर्जी ने एक चोट में तीन मक्खियां मारी थी और अपनी पेटी पर लिख लिया था ‘एक चोट में तीन।’ उस दर्जी ने इसी स्लोगन के सहारे राक्षस को पराजित कर दिया था। मुर्शीद भाई को सपने में अक्सर वह दर्जी परेशान किया करता था। सपने में बार-बार उन्हें चूहों से हारने के लिए कोसता था। बस एक दिन मुर्शीद भाई को ताव आ गया और उन्होंने पटका चला दिया। बहादुर दर्जी की तरह मुर्शीद भाई ने भी एक स्लोगन लिखा ‘गांधीजी के तीन बंदर, बहादुर दर्जी ने मारी तीन मक्खियां, मुर्शीद ने मारे तीन चूहे।’ चूहों की तुलना बंदर और मक्खियों से कर दी। यहीं मुर्शीद भाई गलती कर गए।

मुर्शीद भाई के हाथों चूहे मारे जाने के बाद दो काम हुए। एक तो खादी भंडार के तत्कालीन मैनेजर देवनाथजी ने अहिंसा के पुजारी के घर में हिंसा होने का पश्चाताप किया और साधु पार्टी ने इस घटना पर शोक मनाया। देवनाथजी ने खादी भंडार के सामने एक दिन का उपवास रख अहिंसक कार्य के लिए गांधीजी से क्षमा याचना की।

मुर्शीद भाई को खादी भंडार आने से मना कर दिया। नायकजी को बैठे-बैठे एक मुद्दा मिला था। वे इसे जोरशोर से उछाल रहे थे। मारे गए तीनों चूहों को धर्म का सिपाही बताते हुए साधु पार्टी ने उसे मलेच्छ के हाथों शहीद करार दे दिया। साधु पार्टी ने चूहों को भगवान गणेश की सवारी बताते हुए धर्म में उनके महत्व को प्रचारित किया। तीनों चूहों को धर्म का त्रिगुण बताते हुए तय हुआ कि जन सहयोग से उनकी याद में स्वराज ग्राम के सामने एक स्मारक बनवाया जाएगा।

मुर्शीद भाई को हटा कर देवनाथ बाबू भी नहीं बच पाए। वैसे देवनाथ बाबू की छवि कठोर गांधीवादी की थी, लेकिन हकीकत कुछ और ही था। खादी भंडार में वे तब दाखिल हुए थे जब चूहों का वहां साम्राज्य कायम हो गया था। खादी भंडार के जानकार बताते हैं कि मैनेजर बनने से पहले देवनाथ बाबू का घर साधारण था, लेकिन दो साल बाद ही पक्का घर बन गया था। वे खादी पहनते थे और गांधी टोपी भी लगाते थे। मैनेजर बनने के बाद उन्होंने कई फैसले लिए थे। बुनाई के पुराने करघे से लेकर कई और पुराने उपकरण यह कह कर नीलाम कर दिए कि इनकी जगह नए लगाए जाएंगे। पुराने तो चले गए, नए आए ही नहीं। बुनाई समेत सभी कार्य ठप पड़ चुके थे इसलिए किसी ने कभी पूछा भी नहीं कि नए आएंगे कब? मुर्शीद भाई ने जो कांड किया था उससे बचने के लिए उन्होंने उनकी बलि तो ले ली थी, फिर भी बोर्ड की जांच की आंच से नहीं बच सके। बस इतना ही हुआ कि उन्हें जाना पड़ा। वे घोटालों से कैसे बचे यह भी एक राज है। कुछ लोग बताते हैं कि जांच करने आए लोगों को खादी भंडार का शहद बेहद पसंद था। शहद की मिठास में देवनाथ बाबू का नीलामी घोटाला घुल गया था। देवनाथ बाबू को हटा कर केशव बाबू को खादी भंडार की कमान सौंप दी गई।

केशव बाबू पहले ऐसे मैनेजर थे जिनका इससे पहले खादी भंडार से कोई रिश्ता नहीं रहा था। एक तरह से उन्हें खादी भंडार पर थोप दिया गया था। क्यों और कैसे इसका जवाब सत्ताधारी दल से उनका संबंध था। कमाल के आदमी थे। मैट्रिक फेल थे। जानवरों और आदमी की एक साथ डाक्टरी करते थे। उनका जलवा ऐसा था कि जिसे चाहते जिंदा कर देते जिसे चाहते मौत के मुंह में ढकेल देते। हकीमी से जो धन जमा किया था उसे ब्याज पर देते थे और जो भी ब्याज देने में आनाकानी करता था या तो वह बीमार हो कर उनके पास पहुंचता था या फिर उसके ढोर डांगर बीमार हो जाते थे। इतना सबकुछ होने के बावजूद केशव बाबू साइकिल पर चलते थे। वे दुनिया में दो जीवों से ही डरते थे। एक तो उनकी पत्नी रमावती थी जिसके डर से लोग बताते हैं कि उनका मूत निकल जाता है और कुत्ते जिन्हें देख कर उन्हें सांप सूंघ जाता है। रमावती का तो खैर उनके पास कोई इलाज नहीं था, लेकिन कुत्तों से निपटने के लिए वे हमेशा डंडा साथ रखते हैं।

पत्नी से डरने की वजह का केशव बाबू ने कभी खुलासा नहीं किया। तरह-तरह के किस्से इस वजह के एवज में सुनाए जाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सुहाग रात को ही रमावती ने एक फटका जमा दिया था और केशव बाबू की नाक बहने लगी थी। कुछ लोग बताते हैं कि केशव बाबू का दिल अपनी साली पर आ गया था। एक बार होली में साली के साथ कुछ ऐसा-वैसा करने की कोशिश की तो रमावती ने जो होली खेली कि उसके बाद से वे डरने लगे। चाहे जो भी कारण हो, केशव बाबू के पास रमावती के खौफ से निजात पाने का कोई उपाय नहीं था। कुत्तों से तो वे तब से डर रहे थे जब स्कूल में पढ़ाई के दौरान उनके चचेरे भाई को कुत्ते ने काट लिया था। सरकारी अस्पताल तक सूई लगवाने में भाई के साथ वे भी जाते थे। वहां कंपाउंडर कुछ इस तरह सूई लगाता था जैसे वह आदमी को नहीं कुत्ते को सूई लगा रहा हो।

एक मोटे से सिरिंज में कंपाउंडर दवा भरता और फिर खड़े-खड़े मरीज के पेट में इतनी जोर से सूई भोंक देता कि मरीज जोर से चिल्ला उठता था। ऐसा करने के बाद कंपाउंडर के चेहरे पर एक संतोष का भाव उभरता था। यह दृश्य केशव बाबू के कोमल मन पर कुछ इस कदर चस्पां हुआ कि वे कुत्ते से डरने लगे। हर कुत्ता उन्हें अस्पताल का कंपाउंडर और उसके हाथ में पकड़ी हुई मोटी सिरिंज नजर आने लगा। फिर कुत्तों से निपटने के लिए उन्होंने डंडा रखना शुरू किया। कुत्ता नजर आते ही उनका डंडा तब तक नहीं थमता था जब तक कुत्ता केंकें करता पतली गली नहीं पकड़ लेता था।

मुर्शीद भाई हक्का-बक्का थे। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि आखिर नुकसान पहुंचाने वाले चूहों के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए उन्हें क्यों निकाला गया। वे इस बात से आहत थे कि उनके हाथों चूहों के मारे जाने पर लोगों ने इतना हल्ला क्यों मचाया। शहर में जो कुछ हुआ उससे बेहद खिन्न मुर्शीद भाई की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जब समाज की एक जाति के आहार में चूहे भी शामिल है तो उनके हाथ मारे गए चूहे खास कैसे हो गए? मुर्शीद भाई ने मन ही मन कहा, ‘वाह किसी के लिए काम, हम वही करें तो बदनाम।’

हंगामे ने चूहों को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में ला दिया था। चूहों ने मुर्शीद भाई का रोजगार छीन लिया, और साधु पार्टी को जनाधार दे दिया था। वैसे भी साधु पार्टी को खादी भंडार से क्या मतलब? साधु तो डिजाइनर चोगा पहन रहे थे। भगवा रंग के रेशमी लिबास में लोगों को सहज जीवन जीने का उपदेश दे रहे थे। भव्य और आलीशान भवन जिन्हें वे आश्रम कहते थे वहीं उनका डेरा था। उनके लिए स्वराज ग्राम जैसे आश्रम की न तो कोई उपयोगिता थी और न ही उसके दर्द का कोई महत्व। चूहों की मौत पर मचे हो-हल्ला से शहर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में आ गया। फिर शहर में जाने कैसे गड़बड़ी फैल गई और चूहे मुद्दा बन गए। कई दिनों तक चूहों पर समचारों में चर्चा होती रही। इन सबके बीच खादी भंडार और गांधी कहीं चर्चा में नहीं थे। पाठकों-दर्शकों को समाचार माध्यमों से किस्म-किस्म की जानकारी दी जाती रही। कितने तरह के चूहे होते हैं? उनका मुख्य भोजन क्या होता है? एक विशेषज्ञ ने बताया कि पूर्वोत्तर के राज्यों में जब बांस पर फूल लगते हैं तो चूहों की संख्या बढ़ जाती है। उन्होंने यह भी बताया कि चूहों के लिए बांस के फल के बीज वियाग्रा का काम करते हैं जिन्हें खा कर वे अपनी यौन शक्ति बढ़ाते हैं। एक विशेषज्ञ ने बिहार की एक जाति के भोजन में चूहों के शामिल होने का मिथकीय अर्थ समझाया किस तरह एक महर्षि ने त्याग की पराकाष्ठा साबित करते हुए खेतों में फसलों का बचा हुआ हिस्सा जमा कर उससे जीवन चलाने का संकल्प लिया और किस तरह फसलों के दानों की तलाश में उनके वंशज चूहों के बिल तक पहुंचे और फिर दाने के साथ-साथ चूहों को भी खाना शुरू कर दिया। ऐसी बेसुरी चर्चाएं तब तक जारी रहीं जब तक कि केंद्र की सरकार ने विपक्ष की मांग के आगे झुकते हुए चूहा आयोग का गठन नहीं कर दिया।

खादी भंडार के चूहों को कभी किसी ने नोटिस में नहीं लिया था। सभी उसके नुकसान से वाकिफ थे पर इस पर चर्चा करना मुनासिब नहीं समझते थे। संसद में ढेर सारे मुद्दे थे जिनसे सर खपाई करते हुए पांच साल बीत जाते और फिर चुनाव आ जाता था। कई दशकों से यही ढर्रा कायम था। इस बार मामला अलग था। सत्ता में साधु समर्थक बैठे थे और साधु आंदोलित थे सो इस पर चर्चा तो होनी ही थी। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री केवल बात ही नहीं कहते थे, उसका मतलब भी समझाते थे। वे बातों को घुमा-फिराकर कहने के फन के उस्ताद थे। उनकी बातों का जाल ऐसा था जिसमें जनता उलझी हुई थी और उनसे वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले सहयोगी उनकी अदाओं पर फिदा थे। संसद में अब डिजायनर कुर्ताधारियों की संख्या बढ गई थी और फैशन को बढ़ावा देने वाले कई अभिनेता सांसद और मंत्री बन चुके थे। चूहों के मारे जाने का मुद्दा एक ऐसे ही डिजायनर कुर्ताधारी सांसद ने उठाते हुए कहा कि देश में इस प्रकार से जीव हिंसा की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। खास तौर पर उस देश में तो नहीं जहां गाय को माता मान कर पूजा जाता है।

सांसद के इतना कहते ही विपक्षी खेमे में बैठे उल्टी दिशा पार्टी के सांसद भडक़ उठे और इसे एक समुदाय विशेष के खिलाफ साजिश करार दे दिया। उल्टी दिशा पार्टी के सांसदों ने समवेत स्वर में शेम-शेम कहना शुरू कर दिया और सदन में हंगामा होने लगा। सभा अध्यक्ष कभी मेमिया कर तो कभी गुस्सा दिखा कर सांसदों को शांत करने की कोशिश करने लगे। जब बात नहीं बनी तो एक घंटे का ब्रेक यह कहते हुए दे दिया गया कि इस मुद्दे पर आपस में चर्चा कर लीजिए। हर किसी को अपनी बात रखने का अधिकार है। एक घंटे बाद जब सभा बहाल हुई तो समुदाय विशेष के हितैषी होने का दावा करने वाली एकरंगा टोपी पार्टी समेत सत्ता विरोधी सभी पार्टी के नेता प्रदर्शन में कूद पड़े। उल्टी दिशा पार्टी के नेताओं को बल मिल गया और हंगामा तेज हो गया। एक रंगा टोपी पार्टी के एक बंदूक छाप सांसद और भगवा पार्टी के एक साधु सांसद के बीच हाथापाई की नौबत आ गई। उस समय सभा अध्यक्ष आसन पर नहीं थे और आसंदी अध्यक्ष के चेहरे पर हवाई उड़ने लगी, क्योंकि देश के कई राज्यों की विधानसभाओं में जूतम पैजार से लेकर माइक उखाड़ सर फोड़ प्रदर्शन हो चुके थे। आसंदी का भाग्य अच्छा था इसलिए उस दिन बात यहीं तक रह गई और सभा अध्यक्ष ने सदन में उत्पन्न स्थिति को देखते हुए कह दिया कि यदि यही हाल रहा तो देश की सबसे बड़ी पंचायत के सम्मान को बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा। उन्होंने कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में इस स्थिति का हल निकालने का आदेश देकर सभी दलों के नेताओं की बैठक बुलाने के लिए कह दिया। कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में शामिल नेताओं ने माना कि राजनीति में मूल्यों का पतन हो चुका है। सभी पार्टियां इस बात से सहमत थी कि संसद में जो कुछ हुआ वह अशोभनीय था। नेताओं ने अध्यक्ष से कहा कि इस मुद्दे पर हर पार्टी को बोलने के लिए पूरा समय दिया जाए। फिर तय हुआ कि हर पार्टी के नेता को एक निश्चित समय सीमा में अपनी बात रखनी होगी। सदस्यों की भावना से अवगत होने के बाद सभा अध्यक्ष संतुष्ट हो गए और उन्होंने आगे कार्यवाही जारी रखने का फैसला लिया।

सदन के बहाल होने के बाद बहस शुरू हुई, लेकिन टोका-टाकी के बीच कोई भी अपनी बात पूरी तरह से नहीं कह पा रहा था। विपक्ष के नेता के आरोप लगाते ही सत्ता पक्ष से हंगामा होता और सत्ताधारियों के आरोप पर विपक्ष नारे लगाने लग जाता। सिर्फ इसी बात का संतोष था कि सांसद अपनी जगह पर खड़े हो कर नारे लगा रहे थे, माइक नहीं उखाड़ रहे थे, जूते नहीं फेंक रहे थे।

संसद में बहस भी बेजोड़ अंदाज में हो रहा था। हर दिन बहस खादी भंडार के चूहों और उससे होने वाले नुकसान से शुरू होती थी और फिर भटक कर पशुओं के प्रति क्रूरता से लेकर सत्ताधारियों की सांप्रदायिक सोच पर अटक जाती थी। यह स्थिति तब तक जारी रही जब तक कि उल्टी पार्टी के एक मजदूर नेता ने इस मुद्दे पर अपनी बात नहीं रखी। बंगाल से चुनकर पहुंचे मजदूर नेता ने चूहों का संबंध महात्मा गांधी की हत्या से जोड़ते हुए कह दिया कि देश को पंगू बनाने के लिए एक साजिश के तहत गांधी की हत्या की गई और उनके खादी भंडार में चूहे छोड़ दिए गए। यह सबकुछ इसलिए किया गया ताकि जनता स्वावलंबी न हो सके और निजी कंपनियों को बाजार मिल सके। आज देश नीलाम हो रहा है, अमेरिका के सामने घुटने टेक रहा है। मजदूर नेता ने यह भी कह दिया कि हमको जानकारी मिली है कि ये जो चूहे खादी भंडार पर कब्जा जमाए हुए हैं उन्हें अमरीका से सीआईए ने स्पेशल मिशन पर भेजा था। उसका मकसद पहले तो बाजार के लिए सहकार को खत्म करना है फिर हमारी फूड सिक्योरिटी को निशाना बनाना है, ताकि आर्थिक संकट और जिंसों के अवमूल्यन का सामना कर रहे उनके किसानों के लिए भारत का बड़ा बाजार मुहैया हो सके।

इसीलिए हमारे किसानों को पपीता, फूल और केले जैसी फसल उगाने की सलाह दी जा रही है। जाहिर है चूहे फूल तो खाते नहीं, किसान भी इसी ओर आकर्षित हो जाएंगे और घाटा होने पर जहर खा कर मर जाएंगे। यही अब हो भी रहा है। मजदूर नेता के इतना कहते ही गांधी वध के लिए बदनाम किए जा रहे संगठन से सहानुभूति रखने वाली पार्टी के कई सांसद अपनी जगह से उछलने लगे। उल्टी पार्टी के नेताओं को द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ देने वाला, चीन के साथ युद्ध में देश का विरोध करने वाला और आपातकाल में तत्कालीन सत्ताधारी के आंचल में छिपने वाला कह कर शेम-शेम के नारे लगाने लगे। सत्ता पक्ष के कई सांसदों ने मजदूर नेता के बयान की भारी निंदा की और उनकी पार्टी को विकास विरोधी बताते हुए विश्वव्यापी स्तर पर बन रहे आर्थिक संबंधों को समय की मांग बताया। बहस एक बार फिर पटरी से उतर गई थी और खादी भंडार के चूहों के सहारे भूमंडलीकरण, निजीकरण और विनिवेश पर निशाना साधा जाने लगा। बहस की दिशा फिर तब बदली जब सत्ता पक्ष के एक नेता ने सदन में रहस्योद्घाटन किया कि खादी भंडार में चूहे देश के बंटवारे के समय पड़ोसी मुल्क ने भेज दिए थे। इस रहस्योद्घाटन के साथ ही विपक्ष में बैठे समुदाय विशेष के हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टियों के नेता बिलबिला उठे और सवाल दाग दिया ‘फिर मुर्शीद भाई तो देश का हीरो है। उसने तो दुश्मन के चूहों का नाश किया। आप तो उन्हीं चूहों को शहीद कह रहे हैं और धर्म का सिपाही बता कर स्मारक बनवा रहे हैं।’

अपने जवाब से विरोधियों के घेरे में फंसी सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष ने सांसद के बयान से खुद को यह कहते हुए अलग किया कि उनकी पार्टी अपने सदस्य के विचार से सहमति नहीं रखती है। रहस्योद्घाटन करने वाले सांसद को खूब कोसा गया। पार्टी फंस चुकी थी और इससे बचने का रास्ता तलाश रही थी। ऐसे संकट की घड़ी में उसे सभा अध्यक्ष ही तारनहार नजर आ रहे थे इसलिए संसदीयकार्य मंत्री चुपके से अकेले रात में सभा अध्यक्ष से मिल आए और इस मसले का एक ऐसा हल निकालने का आग्रह किया जिससे काम भी हो जाए और हंगामा भी खत्म हो जाए। सभा अध्यक्ष ने सत्ताधरियों की समस्या की गंभीरता को समझते हुए चूहा आयोग का गठन करने का आदेश सरकार को देते हुए बहस का पटाक्षेप कर दिया। आदेश देने से पहले अपने अध्यक्षीय संबोधन में सभा अध्यक्ष ने कहा, ‘कई दिनों से चली आ रही बहस में यह साफ नहीं हो पाया कि चूहे आखिर आए कहां से? कुछ सदस्यों ने इसे अमेरिका से आया हुआ बताया है तो कुछ ने चीन से या पाकिस्तान से। जब तक यह पता नहीं चल जाता कि आखिर ये चूहे किस देश से आए, तब तक उससे निपटने का उपाय पूरी तरह कारगर नहीं हो सकता। इसलिए सदन की नियमावली के अनुसार सरकार चूहों के मूल देश का पता लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन करे जो तीन माह के भीतर यह रिपोर्ट देगा कि आखिर चूहे कब, कैसे और कहां से आए? आयोग इन चूहों से निपटने के उपाय भी बताएगा।’

जिस समय संसद में चूहों पर बहस हो रही थी उसी समय शहर में चूहा स्मारक के लिए चंदा जोर-शोर से वसूला जा रहा था। सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम करते हुए सत्ताधारी पार्टी के अल्पसंख्यक सेल के नेता ने भी इस अभियान में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इतने पैसे जमा हो गए जिसमें नायकजी के मॉल से भी भव्य भवन बनाया जा सकता था। पत्थर की मूर्तियों के दूध पीने का चमत्कार देख चुके लोगों ने दिल खोल कर चंदे दिए। तय हुआ कि आयोग की रिपोर्ट जब आ जाएगी तब स्मारक आंदोलन को तेज किया जाएगा और खादी भंडार व स्वराज ग्राम को अन्यत्र शिफ्ट कर दिया जाएगा। उसकी जगह यहां भव्य चूहा मंदिर बनेगा।

तीन महीने के लिए गठित आयोग अपना काम तय समय में नहीं निबटा सकी और उसे पहले छह महीने फिर एक साल और आगे भी समय विस्तार दिया जाने लगा। आयोग के अध्यक्ष और सदस्य हवाई यात्राएं करते। देश के विभिन्न हिस्सों में जा कर जाने क्या कुछ जांचते रहे। बीच-बीच में खबरें आती रहती कि आज अरुणाचल प्रदेश के साथ लगती चीन सीमा के उन कमजोर बिंदुओं का आयोग ने निरीक्षण किया जहां से चूहों के घुस आने की प्रबल आशंका है। यही दौरा कभी राजस्थान में तो कभी पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर तो कभी गुजरात में होते रहे। जब स्थल से जुड़ी सभी सीमाओं का दौरा हो चुका तब आयोग ने समुद्री सीमाओं का दौरा शुरू किया। इन सब में करीब सात साल बीत गए और तब तक एक मध्यावधि और एक आम चुनाव भी हो गए। केंद्र में सत्ता बदल गई और साधुओं से सहानुभूति रखने वाली पार्टी हार गई। चूंकि आयोग का गठन पिछली सरकार में हुआ था इसलिए सत्ता के नए सूत्रधार उसके नतीजे क्या होंगे इस पर उदासीन भाव प्रकट कर रहे थे। सत्ता खो चुकी पार्टियों के नेता यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि आयोग के परिणाम को सत्ताधारी प्रभावित करेंगे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट नहीं दी थी, लेकिन उस पर अविश्वास पहले से ही जताया जाने लगा था। इसी अविश्वास के माहौल में देश में खोजी पत्रकारिता के लिए विख्यात एक अखबार ने खबर दी कि आयोग की रिपोर्ट में यह पता नहीं चल पाया है कि चूहे आए कहां से?

खबर लीक होने पर आयोग के अध्यक्ष ने बेहद नाराजगी जताई और इसे आयोग के कामकाज में दखल करार दे दिया। इसके तुरंत बाद ही आनन-फानन में आयोग की रिपोर्ट भी आ गई। आयोग ने लिखा कि आजादी मिले आधी सदी गुजर जाने के बाद चूहों के मार्ग का पता कर पाना असंभव है। आयोग ने कहा कि चूंकि चूहों के पैर छोटे होते हैं और आयोग की जीव विशेषज्ञों के साथ हुई चर्चा में जो कुछ सामने आया उससे चूहों के मार्ग का पता नहीं लगाया जा सकता। विशेषज्ञों के मुताबिक चूहों का शरीर बेहद हल्का होता है और उनके पंजे छोटे होते हैं। ऐसे में उनके पदचिह्न बनते ही नहीं। रेत या धूल पर उनके पदचिह्न बने भी होंगे तो वे इतने सालों में मिट गए। आयोग ने खादी भंडार के शैतान चूहों से निपटने का काम देश की नामी गिरामी जांच एजेंसी सीबीआई को सौंपने का सुझाव दिया। इतने सालों में खादी भंडार की सत्ता कई बार बदल गई थी। स्मारक समिति के कर्ताधर्ता चंदे के पैसे से व्यापार कर धन्ना सेठ बन गए थे। लोग भूल गए थे कि चूहों का स्मारक बनाने के लिए उन्होंने कोई चंदा भी दिया था। देश में कई चमत्कार हो चुके थे। पेड़ बाबा, मोबाइल बाबा से लेकर रोटी बाबा तक के चमत्कार से लोग अभिभूत थे। कई सरकारी कंपनियां निजी हाथों में जा चुकी थी जिसके विरोध में उस शहर के लोग भी शामिल नहीं हुए जहां की संपत्ति निजी हाथों में सौंप दी गई थी। विरोध का कोई स्वर नहीं था हां कुछ लोग जिंदा साधुओं के चेले बन गए तो कुछ लोगों ने मरे हुए उन लोगों को गुरु मान लिया जिनके नाम के पहले संत लगा हुआ था। ऐसे गुरुओं की जाति अहम थी और विजातीय संतों को लोग खारिज कर रहे थे। लोग संतों की शिक्षा से ज्यादा इस बात पर ध्यान देने लगे कि किसने उनका अपमान किया है। हर कोई तख्त बना कर खुद को सर्वोपरि घोषित कर रहा था और समाज, सरकार और विचार पर अपना अंकुश लगा कर खुश हो रहा था।

सीबीआई ने अपने तय स्टाईल में खादी भंडार के चूहों के खिलाफ पर्चा दाखिल किया। विशेष कोर्ट से चूहों के अनाम लीडर के नाम से गैर जमानती वारंट हासिल कर सीबीआई ने जांच की दिशा में सबसे पहली बाधा पार कर ली। सीबीआई के तत्कालीन महानिदेशक बेहद कड़क पुलिस अफसर माने जाते थे। उनका सारा रौब उनकी मूंछों में था जिसे वे हमेशा ऊपर की ओर घड़ी के दस बज कर दस मिनट बजाने की स्टाइल में रखते थे। उन्हें हमेशा उन्हीं इलाकों में लगाए रखा जाता था जहां कोई भी अफसर जाने से कतराता था। उनकी कड़क छवि पर सिर्फ यही दाग था कि वे अपराधी को गिरफ्तार करने के बाद मुठभेड़ कर देते थे। न थाना न कोर्ट फैसला फटाफट।

यह अलग बात थी कि उन्होंने कभी बंदूकछाप नेताओं का कुछ नहीं बिगाड़ा। कई घोटालों की जांच में लिप्त एजेंसी के सिर पर इस नई मुसीबत का बोझ जब सरकार ने डाला तब महानिदेशक को बड़ी कोफ्त हुई थी। प्रेस ब्रीफिंग में महानिदेशक ने भारी रोष जताया था और इस बात के पूरे संकेत दिए थे कि पुलिस की जांच में सत्ता का दखल जिस तरह से बढ़ रहा है उससे एक दिन देश में थानों की जगह सीबीआई के दफ्तर खोलने होंगे। इन सब के बावजूद वे इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि आखिर उनकी एजेंसी ने आज तक नेताओं के खिलाफ लंबित भ्रष्टाचार के मामलों में प्रगति क्यों नहीं की? कई ऐसे मामले थे जिसमें जांच एजेंसी का रुख लचीला रहा। सत्ता से बाहर रहने तक नेता जांच एजेंसी के शिकंजे में रहते हैं और सत्ता में आते ही निकल कैसे जाते हैं? इन सवालों का जवाब देने की बजाय उन्होंने कहा एजेंसी की विश्वसनीयता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चूहों के खिलाफ जांच भी उसी को सौंपी गई है। यद्यपि वे यह नहीं जानते थे कि जनता इसे मामले पर लीपापोती का प्रयास मान रही थी।

करीब डेढ़ साल की मशक्कत के बाद भी चूहों के लीडर को सीबीआई दबोच नहीं सकी। वह जांच एजेंसी की निगाह में ही नहीं आया। सच पूछिए तो सीबीआई उसकी पहचान का भी खुलासा नहीं कर पाई। इस बीच कड़क महानिदेशक रिटायर हो गए और उनकी जगह दूरदर्शी अन्वेषक को महानिदेशक बना दिया गया था। कमान संभालते ही उन्होंने दो काम किए। पहला तो खादी भंडार का दौरा कर वहां जो भी घपले सामने आए थे उसके लिए मरे हुए मैनेजरों और चूहों के खिलाफ आरोप लगाते हुए विशेष कोर्ट में आरोप पत्र पेश कर दिया। दूसरा काम उन्होंने यह किया कि कोर्ट से चूहों पर काबू पाने और उन्हें गिरफ्तार कर कठघरे तक लाने के लिए अमेरिका से बिल्ली बुलाने की अनुमति ले ली। कोर्ट ने भी चूहों और मृत मैनेजरों की गैरहाजिरी पर कड़ा संज्ञान लेते हुए सीबीआई के पक्ष में एकतरफा वाद निपटारा करते हुए अमेरिका से बिल्ली लाने की अर्जी मंजूर कर ली। उस दिन सीबीआई के नए निदेशक ने इसे जांच एजेंसी की सबसे बड़ी कामयाबी करार देते हुए देश की राजधानी में भव्य प्रेस वार्ता का आयोजन किया जिसमें सभी अखबारों और चैनलों के संवाददाता शामिल हुए। खबरों में इसे जांच एजेंसी की बड़ी जीत बताया गया।

सीबीआई ने गेंद भारतीय विदेश मंत्रालय के पाले में फेंक दिया था। अब अमेरिका से जब तक बिल्ली नहीं आती तब तक सीबीआई से कोई यह सवाल नहीं पूछ सकता था कि आखिर खादी भंडार के चूहों का क्या हुआ? बड़ी सफाई से इस झंझट से पीछा सीबीआई ने छुड़ा लिया था। इस केस को अन साल्व कह कर जांच एजेंसी की क्षमता पर कोई भी सवाल खड़ा नहीं कर सकता था। सीबीआई की निगाह में यह केस हल हो चुका था बस दोषी को पकड़ने के लिए जिस तरह की बिल्ली की उसे दरकार थी वैसी बिल्ली देश में उपलब्ध नहीं थी। देश में तो सिर्फ स्निफर डॉग थे जो छोटे-मोटे अपराधियों को पकड़ सकते थे। लेकिन यह चूहों का मामला था। इसमें कुत्ते कहां कामयाब होते?

अमेरिका से बिल्ली कैसे आई यह एक रहस्य ही है। उस बिल्ली के लिए सरकार ने क्या किया यह क्लासीफाइड दस्तावेज है इसलिए आरटीआई से भी इसकी जानकारी कोई हासिल नहीं कर सकता। अमेरिकी बिल्ली देखने में ही बेहद खूंखार लगती थी। कहा गया था कि इसी बिल्ली ने अफगानिस्तान की लड़ाई में अमरीका के दुश्मनों की दूध की सप्लाई रोकने में अहम भूमिका निभाई थी। यह भी बताया गया कि यह बिल्ली जमीन के सात परतों के नीचे छिपे दुश्मनों को भी सूंघने की शक्ति रखती है।

उस बिल्ली को पूरे शानो-शौकत, ताम-झाम के साथ खादी भंडार तक लाया गया था। कई दिनों तक बिल्ली ने खादी भंडार और स्वराज ग्राम का जायजा लिया। वह कुछ और दिन वहां रुकती और चूहों पर धौंस पट्टी जमाती, लेकिन एक दिन एक नौजवान चूहे ने अपना कमाल कर दिखाया। हुआ यह कि वह नौजवान चूहा महात्माजी के तैल चित्र के पीछे फारिग हो रहा था कि बिल्ली वहां आ धमकी। बिल्ली का डील-डौल देख कर चूहे की पाद सटक गई। जान पर आई आफत देख कर वह भाग लेना चाहता था, लेकिन पांव जवाब दे गए थे। जैसे ही बिल्ली उसे दबोचने के लिए आगे बढ़ी न जाने कहां से उस नौजवान चूहे के शरीर में दम आ गया और उसने उछल कर बिल्ली की नाक को अपने मुंह में दबोच लिया। चूहे के तेज लंबे दांत में बिल्ली की नाक फंस गई थी और वह छटपटा रही थी। इसी छटपटाहट में उसकी नाक कट कर चूहे के मुंह में रह गई। दर्द से बिलबिलाती हुई बिल्ली खादी भंडार से भाग निकली।

कटी नाक लेकर बिल्ली अमेरिका विदा हो गई। इस घटना से विश्व बिरादरी में भारत की प्रतिष्ठा को भारी धक्का पहुंचा था। सरकार को इस बात का खतरा था कि अब कोई भी देश अपनी प्रशिक्षित बिल्ली को यहां भेजने पहले सौ बार सोचेगा। खादी भंडार के चूहों को ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया। यह तय किया गया कि इन चूहों को खदेड़ने के लिए खादी भंडार का विनिवेश कर दिया जाएगा। उसकी परिसंपत्ति का मूल्यांकन कर लिया गया है। यह बताया गया है कि खादी भंडार का भवन ढहाने के अलावा चूहों से निजात पाने का कोई चारा नहीं है। खादी भंडार की जगह एक मॉल बनाया जाएगा जहां अमेरिकी उत्पादों की प्रमुखता से बिक्री की जाएगी। सरकार की इस घोषणा से चूहों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। वे अब और बे-खौफ हो गए हैं और महात्मा गांधी के सपनों को पूरी लगन से कुतर रहे हैं।

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नरेंद्र अनिकेत

जन्म : 12 अप्रैल 1967 ग्राम :- भगवानपुर कमला, समस्तीपुर बिहार।

बीआर अंबेदकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर।

कृतियां: विभिन्न समाचार पत्रों में समसामयिक विषयों पर आलेख।

कथादेश के युवा कहानीकारों पर केंद्रित अंक में कहानी अनंत यात्रा समेत अभी तक चार कहानियां प्रकाशित

संप्रति: दैनिक जागरण सेंट्रल डेस्क से संबद्ध

डी-210, सेक्टर 63, नोएडा, उत्तर प्रदेश  

मोबाइल : 09716320281, ई-मेल : naniketn@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. इतनी लम्बी रचना को शुरू से अंत तक पढ़ना
    वाकई..हिम्मत का काम है
    सुनहरे पदक की हकदार हूँ मैं
    सादर

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: कहानी / खादी भंडार के चूहे / नरेंद्र अनिकेत
कहानी / खादी भंडार के चूहे / नरेंद्र अनिकेत
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