नरेन्द्र अनिकेत की कहानी : अनंत यात्रा

SHARE:

**-** उस दिन शरद अचानक भड़क उठा. एकदम अचानक गालियाँ बकने लगा, ‘सारी व्यवस्था चोर है. सब साले कुत्ते हैं.’ इससे पहले सारी बहसों में वह नई व्य...



**-**

उस दिन शरद अचानक भड़क उठा. एकदम अचानक गालियाँ बकने लगा, ‘सारी व्यवस्था चोर है. सब साले कुत्ते हैं.’ इससे पहले सारी बहसों में वह नई व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक होता था. वह तर्क देता था- ‘एक मेघावी आदमी और अयोग्य के बीच फर्क तो रखना ही होगा. सरकार नहीं रख रही है इसी लिए तो रसातल को जा रही है. इससे बचने का नाम ही नई व्यवस्था है.’ हर तरह से पूंजी, भोग और शोषण को जायज ठहराने के लिए वह तर्क गढ़ देता था.

उस समय उस महाजोट में शामिल पत्रकार उदितनाथ ‘घायल’ बहुत घायल हो जाते थे. उन्हें लगता था कि यह लड़का दुनिया के बदलाव से नावाकिफ एक ऐसी दुनिया में जी रहा है जिसे सपनों और खालिस सपनों की दुनिया कहा जाए तो गैर मुनासिब नहीं होगा. बकौल घायल जी ऐसे लोग फूल्स पैराडाइज में जीने वाले लोग हैं और जब तक लात नहीं खाते इन्हें अक्ल नहीं आती.

तब की बात है जब उदितनाथ घायल बिहार के एक छोटे से कस्बे से दुनिया बदलने की हसरत और हौसले के साथ दिल्ली की भीड़ में अपनी पहचान खड़ी करने आए थे. घायल कवि थे और उनकी कविताएँ कुछेक जगहों पर छप चुकी थीं. हिन्दी साहित्य उन्होंने पढ़ा था और उन्हें विश्लेषण करना आता था. एक अख़बार में बतौर रिपोर्टर काम करने का भी अनुभव था और उस अख़बार में इज्जत के साथ छप चुके थे. उन्हें भरोसा था कि उनकी प्रतिभा के कायल लोग उन्हें ‘जगह’ दिला देंगे, लेकिन यहाँ आकर मालूम हुआ कि इस पेशे का बाजार क्या है और यहाँ किस प्रकार की प्रतिभाओं की दरकार है?

जीने के लिए उन्होंने एक बिल्डर के अख़बार की नौकरी कर ली और संघर्ष का मोर्चा खोल दिया. उस अख़बार में बस इतना ही मिल पाता था कि या तो कमरा ले सकते थे या फिर खाना खा सकते थे. दोनों सुविधाएँ एक साथ मिल पाना असम्भव था. इस अवस्था ने घायल जी जैसे अड़ियल आदमी में एक परिवर्तन ला दिया. उन्होंने सामंजस्य से काम लेने का फैसला लिया.

घायल जी ने कामरेड वीआई लेनिन को पढ़ा था. रूसी क्रान्ति के दस्तावेज़ से बावस्ता थे. ऐसे में कम्यूनिस्टों के सौ कदम पीछे, एक कदम आगे वाले फ़ॉर्मूले पर उन्होंने अमल किया और महाजोट में शामिल हो गए. रहने और खाने के लिए. वैसे उन्होंने कभी महाजोट को अपने काबिल नहीं माना. वे यह मानकर चलते थे कि यह टोली बुद्धिहीनों का जमावड़ा है. यही वजह थी कि वे मुद्दों पर बात करने से कतराते थे.

उस टोली में शरद ही एक ऐसा लड़का था जिसके पास कलेक्टर बनने का सपना था. वह पढ़ाकू था और खुद को महान मानता था. घायल जी से वही उलझता था और घायल तमाम उदाहरणों के जरिए उस पर हावी होने का प्रयत्न करते, लेकिन हर बार वह रूसी समाजवाद के बिखराव और रोमानियाँ के कम्यूनिस्ट शासक चाउसेस्कू जैसों को उनके सामने ला पटकता.

महाजोट के लड़के मजा लेने के लिए कभी-कभार बहस में शामिल होते थे. उनके पल्ले बहस नहीं पड़ती थी इसलिए इससे बाहर रहना उनकी मजबूरी थी. उनके लिए तो यह बहस एक फालतू और बिलावजह बकवास थी.

उन्हीं दिनों की बात है एक दिन घायल जी ने झल्लाकर शरद से कह दिया - ‘अभी सड़कें नहीं नापे हो बबुआ जब नापनी पड़ेगी और निजी क्षेत्र की कारगुजारियाँ झेलनी पड़ेंगी तब समझोगे कि निजीकरण और भूमंडलीकरण गरीब लोगों को छलने के शाब्दिक मायाजाल के सिवाय कुछ भी नहीं है. नयी व्यवस्था कुछ और नहीं है, बस यह चन्द लुटेरों की लूट को जायज बनाने की साजिश है. दुनिया बाजार हो रही है. लोग या तो खरीदार हो रहे हैं या फिर बिकाऊ. जो दोनों में से कुछ भी होने के काबिल नहीं हैं, बाजार उन्हें निकाल बाहर कर रहा है. वे कहीं के नहीं हैं.’

तब शरद ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा था ‘घायल जी अव्वल तो दुनिया में वही सरवाइव करते हैं जो दुनिया के हिसाब से फिट हैं, और फिर ऐसे लोगों की फिक्र करने के लिए आप जैसे घायल तो हैं ही. हम जैसे एडमिनिस्ट्रेटर माइंडेड यह सब नहीं सोचते. हमारा काम तो बस स्मूथली सिस्टम को चलाना होगा.’

उसने उनकी औकात बताते हुए कहा था ‘और घायल जी सच तो यह है कि आप जिस अख़बार में अपनी कलम घसीट रहे हैं वह भी किसी ‘मन्दिर के महन्त’ का या आपके किसी कामरेड का नहीं है. खालिस पूंजीवादी आदमी का अख़बार है. आपके आदि कामरेड मार्क्स को भी उनके पूंजीपति मित्र एंजेल्स का सहारा नहीं मिला होता तो आपका समाजवाद उन्हीं के साथ दफन हो गया होता.’

यह सुनकर घायल जी बहुत घायल हो गए थे. उन्हें लगा था ऐसे ही संवेदना से रहित लोग व्यवस्था चला रहे हैं और ऐसे ही लोगों के दम पर यह व्यवस्था टिकी है. मध्यम वर्ग का यही हिस्सा अपनी दोगली सोच और मक्कारी से किसी भी देश के वंचितों को और वंचित और शोषकों के हितों का पोषण करता है. तब घायल जैसे नास्तिक ने भी भगवान को याद किया था और यह प्रार्थना की थी कि यह सात जन्म में भी प्रशासनिक अधिकारी नहीं हो पाए.

उस समूह में घायल जी के अलावा तीन और लड़के थे. सभी का पेशा अलग-अलग था. एक देश के सबसे बड़े कम्प्यूटर संस्थान का छात्र था. उसका नाम प्रवीण था और वह बस अमेरिका की समृद्धि और वैभव का बखान करता था. भारत में रहते हुए भी वह अमेरिका में जी रहा था. वह कुछ इस अन्दाज में बातें करता मानों दर्जनों बार अमेरिका हो आया हो. उसके सपने में पैसा और लड़की के अलावा और कुछ था ही नहीं. उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि दुनिया कहाँ जा रही है.

तीसरे सज्जन चन्दन कुमार एक थ्री स्टार होटल में ट्रेनी मैनेजर थे. एक कपड़े की दुकान के मुंशी के बेटे चन्दन कुमार ने खातों की लीपापोती का पुश्तैनी ज्ञान हासिल कर लिया था और वाणिज्य की कामचलाऊ पढ़ाई ने उसके इस ज्ञान को और माँज दिया था. महाजोट में उसकी बड़ी चलती थी. उसके कई कारण थे. वह अकसर होटल से खाना और किसी विदेशी-देशी सम्पन्न ग्राहक से बख़्शीश में मिली शराब मुहैया करा देता था. घायल उसे बात करने के लायक नहीं समझते थे. हालांकि वह उनकी बड़ी इज्जत करता था.

महाजोट में रोजगार में आने वाला तीसरा सदस्य प्रवीण बना. देश की नामी बिल्डिंग कन्सट्रक्शन कम्पनी में कम्प्यूटर ऑपरेटर का ओहदा मिला था. प्रवीण ने इस नौकरी को टाइम पास कहा था. उसकी दृष्टि में भारत वह देश ही नहीं जहाँ आदमी काम कर सके. उसकी बातों से यही लगता था कि उसे इस देश में पैदा होने का दुःख है. प्रवीण को नौकरी लगे कुछ ही दिन हुए थे. सभी के किस्से पुराने थे. चन्दन के होटल में आने वाले यात्रियों और उनकी अय्याशी, यहाँ तक कि किस तरह की लड़कियाँ उन देशी-विदेशी कस्टमरों के लिए बिछती हैं, इसके सिवाय कुछ नहीं होता था.

प्रवीण के नौकरी में आने के बाद दफ़्तरी संस्मरणों में थोड़ा रस आ गया था. प्रवीण के एक साहब थे. उन साहब के भी साहब थे और इन सबकी बड़ी फौज थी. ढेर सारे कर्मचारी थे. एक बड़ी बिल्डिंग में पूरा दफ़्तर था. रोज कम्पनी की बस से आते-जाते थे. प्रवीण ने एक दिन खुलासा किया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर कैसे-कैसे काम होते हैं. उसने बताया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर उन फ़िल्मों को आसानी से देखा जाता था, जिसे देखना नैतिक और क़ानूनी तौर पर गलत माना जाता है. इस काम में उसके बॉस मेहरा साहब तो सबसे आगे रहते थे.

प्रवीण के साथ उस कम्पनी में एक लड़की को भी नौकरी मिली थी. यह संयोग था कि दोनों के सरनेम एक जैसे थे और एक दिन एक ही समय दोनों का साक्षात्कार हुआ था. दोनों को एक साथ नौकरी पर बहाल किया गया था और साथी कर्मचारी से लेकर उसके बॉस तक को यह लगता था कि दोनों पूर्व परिचित हैं और दोनों के बीच कुछ है. एक सप्ताह बाद ही दफ़्तर के एक बुजुर्ग साथी ने प्रवीण को टोक दिया था - ‘और भाई, कब तक शादी-वादी कर रहे हो. अभी रोमांस का ही इरादा है या फिर यूँ ही मजे ले रहे हो.’ इस सवाल ने प्रवीण जैसे मॉड दिमाग के लड़के को थोड़ी देर के लिए निरूत्तर कर दिया था. उसने बहुत कोशिश करके पूछा और तब उसे मालूम हुआ कि उसके बारे में कैसी कथा चल रही है.

सिर्फ प्रवीण को ही नहीं, उस लड़की को भी महिला साथियों ने पूछा था. एक दिन दोपहर को खाने की छुट्टी में दोनों कैंटीन में एक ही टेबल पर मिले. दोनों दफ़तर में चल रही चर्चाओं पर खूब हँसे. प्रवीण को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसके कम्प्यूटर पर जो कुछ होता है वही सब कुछ लड़की के कम्प्यूटर पर भी होता है.

महाजोट में यह विवरण काफी रोचक था. सिर्फ घायल जी को छोड़ सभी ने मजा लिया. घायल जी ने इसे तकनीक के अनैतिक उपभोग के तहत वर्गीकृत किया था. इसके अलावा घायल जी इस नतीजे पर भी पहुँचे कि बाजार आदमी को दिमागी रुप से पंगु बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल करता है. उनके अनुसार आदमी को सीयर रोमांटिसिज्म में डुबोना और फिर उसे किसी लायक नहीं छोड़ना व्यवस्था के कायम रहने की पहली और आखिरी शर्त होती है. उन्होंने यह भी माना कि असन्तोष और कुव्यवस्था के खिलाफ एकजुट और एकमुश्त आवाज नहीं उठने देने के लिए सिर्फ लोगों को खेमों में बांटना ही जरूरी नहीं है. बल्कि उनके बीज इतने सपने पलने चाहिए कि लोग उन्हें पूरी करने के जायज-नाजायज तरीके ही आजमाते रह जाएँ. व्यवस्था इस बात को अच्छी तरह जानती है और उसे बड़ी सावधानी से आजमाया जा रहा है, ताकि लोगों में विरोध की ताकत ही न रहे.

स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं. नई तकनीक के नाम पर नई तरकीब सामने आ रही थी. नौकरी से छंटनी के लिए वी.आर.एस की तरकीब से लोग निकाले जा रहे थे. बीमार बताकर उद्योगों में तालाबन्दी हो रही थी. बीमार बनाने के लिए तरकीब आजमाई जाती थी फिर विनिवेश के नाम पर उनका निजीकरण किया जा रहा था. छोटे-छोटे घपले बड़े घपलों की आंधी में छिपते जा रहे थे. इन सबके बीच ईमानदारी और कानून के शासन का ढोंग चल रहा था. उदारीकरण के विरोधी सत्ता में आते ही इसके प्रबल समर्थक बन गए थे और धीमी गति से चल रही पूंजीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई थी. निजी क्षेत्र में छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ निगल रही थीं. कमजोर अर्थव्यवस्था उदारीकृत होकर मजबूत अर्थव्यवस्था को और मजबूत बना रही थी और खुद का अस्तित्व मिटा रही थी.

इस बदलाव ने सबसे पहले घायल जी का रोजगार छीना. एक दिन उनके मालिक ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘घायल जी, आप तो योग्य आदमी हैं. आपके पास योग्यता है, कहीं भी नौकरी मिल जाएगी. मेरे यहाँ काम ही कितना है. सच पूछिए तो मेरे अख़बार की हैसियत ही क्या है. आप जैसे प्रतिभावान व्यक्तियों को सहारा मिल जाता है यही इस अख़बार का गौरव है.’ घायल जी जैसे सीधे-साधे आदमी को बात बहुत सम्मानजनक लगी थी. उन्हें लगा था कि यह आदमी उन्हें अपने से ज्यादा आंकता है. पर महाजोट में शामिल लड़कों ने उनकी सोच की धज्जियाँ उड़ा दी थीं.

शरद ने कहा था, ‘घायल जी दुनिया को अक्ल देने से पहले खुद अक्ल से काम लेना सीखिए.’ तब घायल जी भी बुद्धू बन गए थे. घायल जी का मालिक एक छोटा सा बिल्डर था, इसलिए सबसे पहले उनका मालिक ही धराशायी हुआ था. सरकारी जमीनों की हेराफेरी और फिर उस पर बड़े भवन बनाकर बेचने के धन्धे में बड़ी मन्दी छा गई और इस धन्धे में कुछ और बड़ी फर्में कूद गई थीं. जिन जमीनों की हेराफेरी वह निचले स्तर के नेता और अफसरों से सांठगांठ कर लेता था, उसमें ऊपर से ही डीलिंग शुरू हो गई थी. इसलिए आमदनी कम हो गई थी. मालिक की माली हालत खराब हो गई थी इसलिए वह अख़बार नहीं चला पा रहा था.

घायल जी बुद्धू बनकर उस अख़बार से बाहर हो गए थे. वैसे भी वह अख़बार घायल जी जैसे ‘मिशनरी’ आदमी के लिए था ही क्या? सिर्फ ठहराव का एक साधन. बेरोजगारी की दौड़ शुरू होते ही घायल जी ने देखा सबसे पहले उनके जिगरी अलग हो गए. उन्हें लगा कि लोग बस रस्मी तौर पर उनसे मिल रहे हैं. एक दिन घर के लोगों को मालूम पड़ा और सबसे खास पत्नी का जो पत्र मिला उससे घायल जी ‘रिश्तों का अर्थशास्त्र’ जैसे गम्भीर विषय पर सोचने के लिए मजबूर हुए और अन्ततः उन्होंने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया - ‘संवेदनशील रिश्तों तक बाजार की दखल.’

काफ़ी दिनों तक घायल जी बाजार की मारामारी में शामिल रहे. जीने के लिए इस बीच फुटकर काम से काम चलाते रहे. कुछ समय बाद एक अख़बार में नौकरी मिल गई. इस अख़बार की खूबी अपनी थी. जिस अख़बार में घायल जी काम कर रहे थे उसका मालिक 32 अख़बार निकाला करता था. विज्ञापन के दम पर वह अख़बार निकालता था. उस अख़बार ने यह ज्ञान दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पैसे कमाने की स्वतन्त्रता के सिवाय कुछ नहीं है.

यह संयोग ही था कि घायल जी के फिर से रोजगार में आने के चन्द रोज पहले जिस शख्स की नौकरी गई वह प्रवीण था. नौकरी जाने के दिन तो प्रवीण बिल्कुल निस्पृह दिखा था, पर एक सप्ताह बाद ही उसमें अजीबो-गरीब परिवर्तन दिखने लगे थे. भारत को नौकरी के लायक नहीं समझने वाले लड़के में एक समझदार परिवर्तन था. वह घायल जी के जैसा शब्दों का जाल बुनने में उस्ताद नहीं था और नहीं शरद के जैसा वाक चातुर्य सम्पन्न व्यक्ति कि वह कुछ ज्यादा कह पाता. वह सपाट भाषा में सब कुछ बयान करने वाला आदमी था अतः उसकी व्यथा सपाट थी.

उसके एक साथ कई दुःख थे. नौकरी जाने का दुःख. बैठे रहने का दुःख. और सबसे ज्यादा उसकी प्रेम कहानी अधूरी रहने का दुःख. शुरू में उसने यही जाहिर किया था कि उसे कोई गम नहीं है, पर धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आते गए. उसे यह मालूम नहीं हो सका था कि कब और कैसे वह उस लड़की से प्यार कर बैठा था. दोनों अकसर दोपहर की छुट्टी में मिलते थे और दफ़्तरी प्रेम कथा के नए संस्करणों का मजा लेते थे. यह क्रम नौकरी जाने से पहले तक जारी रहा. नौकरी जाते ही यह घनिष्ठता सिर्फ परिचय तक सिमटकर रह गई. यही प्रवीण के दुःख का कारण था.

प्रवीण की कम्पनी एक बड़ी निर्माण कम्पनी थी. बड़े ठेके और गगन चुम्बी भवनों का निर्माण करने में उसका बड़ा नाम था. उदारीकरण की इस व्यवस्था में उसके डूबने का कोई खतरा नहीं था, लेकिन उसकी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों ने पूर्व के एक ठेके में हुई गड़बड़ी के आधार पर उसकी जमीन खिसकानी शुरू कर दी. इस खेल में राजनीति से लेकर सबसे तेज बढ़ते अख़बार और सबसे पहले सूचना देने का दावा करते हुए टीवी चैनल भी शामिल हुए. मीडिया वार के इस कुचक्र को प्रवीण की कम्पनी भेद नहीं पाई. नई कम्पनियों ने ठेके हथियाने के लिए और भी कई हथकंडे आजमाए थे. कई नेताओं को भागीदारी दी थी या उन्हें दूसरी तरह का लाभ पहुँचाया था. नए काम के नहीं मिलने और पुराने के विवाद ने कम्पनी की हालत पतली कर दी.

इन सारी सूचनाओं को पाकर घायल जी ने एक निष्कर्ष निकाला कि पूँजीवाद अन्ततः अपने ही अन्तर्विरोधों का शिकार होगा. उनके हिसाब से अंश, हिस्सेदारी और वर्चस्व की लड़ाई इस व्यवस्था के लिए वाटलरू साबित होगी. यह व्यवस्था भी अपने प्रतिद्वन्द्वियों से भिड़ने में उसी तरह तबाह होगी जिस तरह उपनिवेशवाद का खात्मा हुआ.

यह न्यायिक सक्रियता का दौर था. भ्रष्ट व्यवस्था में अदालती फैसलों की गूंज सुनाई दे रही थी. देश की राजनीति में मंडल-कमंडल के अलावा और कोई मुद्दा नहीं था. घायल जी को लगता था कि उनके सारगर्भित लेखों का जमाना अभी है ही नहीं, इसलिए उन्हें उन अखबारों में काम मिलता है जिनकी पहुँच नदी-नाले से लेकर भाजी बेचने वाले की दुकान या फिर कूड़ेदान तक है. इसके विपरीत सर्वाधिक प्रसार वाले अखबारों में या तो अमेरिका या फिर पश्चिमि दुनिया की नकल छपती है या फिर मुद्दाहीन राजनीति की बकवास. इन सबके अलाबा जनता के वाजिब सवालों को बड़ी बेदर्दी से दबाया जा रहा था. आंकड़े छप रहे थे. अमुक राज्य ने नई आर्थिक नीतियाँ अपनाकर अमुक क्षेत्र में इतना प्रतिशत तरक्की की है. अमुक राज्य ने सूचना-तकनीक से अपने शासन में इतना सुधार किया है. तब यह समाचार कहीं बिसूर रहा होता था कि उन्हीं अगुआ राज्यों में कितने किसान घाटे नहीं सह पाने के कारण आत्महत्या कर बैठे. तब यह खबर सिर्फ चौंकाऊ अन्दाज में आती और गुम हो जाती कि उड़ीसा के अमुक जिले में आदिवासी जहरीले पौधे का व्यंजन खाकर मर गए. जैसे ही इन खबरों की विक्रय क्षमता खत्म हो जाती थी वैसे ही खबर भी लापता हो जाती थी. अलबत्ता हालीवुड और बालीवुड की खबरों से लेकर दिल्ली के पंचसितारा संस्कृति की खबरें प्रमुखता पाती जा रही थीं. घायल जी को लगा कि समाचारों का भी उदारीकरण हो चुका है और पत्रकारिता अपना वैश्विक रूप ले चुकी है.

उसी दौरान घायल जी के जीवन में एक और युगान्तरकारी घटना घटी. उन्हें पता चला कि उनका मालिक जिन लड़कियों को नौकरी पर रखता है, उन्हीं की बदौलत विज्ञापन पाता है. इतना ही नहीं मालिक की बीवी और साली भी विज्ञापन हासिल करने की इस नायाब विद्या में साझीदार थीं. इस स्थिति में खुद को नैतिक रूप से छल पाने में असमर्थ घायल जी ने एक दिन नौकरी छोड़ दी.

महाजोट अब भी कायम था. नौकरशाह बनने का सपना लिए शरद जी घूमते-घामते जमीन पर आ गए थे. उनके पास प्रबन्धन की डिग्री थी और इन्जीनियर थे ही. तैयारी करने के दौरान इतिहास और सामान्य ज्ञान भी हासिल कर लिया था. इतनी योग्यता उन्हें जीने-खाने लायक तो दिला ही देती, पर उन्हें इतने से सन्तोष नहीं था. फिर नौकरशाही की एक मानसिकता होती है. सब मिलाकर शरद जी नई व्यवस्था में मिसफिट महसूस कर रहे थे और सरकारी नौकरियों के भाव के हिसाब से दाम न दे पाने की मजबूरी ने उन्हें हिलाकर रख दिया था. इसके अलावा निजी क्षेत्र की नौकरी के पचड़े अब दिख रहे थे. इसीलिए अब वे मुद्दों पर चुप हो गए थे. उनकी चुप्पी शराब के प्याले से टूटती थी और फिर उसमें डूब जाती थी.

महानगरीय जीवन में प्रेम का दर्शन पढ़कर प्रवीण जी सूफ़ियाना अन्दाज में बातें करने लगे थे. महाजोट में एक ही आदमी नहीं बदला था वह था चन्दन. उसके होटल व्यवसाय में कोई मन्दी नहीं थी. भला हो सरकार की विनिवेश नीति का कि कई सरकारी होटल भी उसके मालिक के कब्जे में आ गए थे. चन्दन की कमाई बढ़ गई थी और फिर भी वह महाजोट में ही था.

सड़क पर आने के बाद घायल जी ने एक बार फिर अपने मन के लायक अख़बार की तलाश शुरू कर दी थी. जिन्दगी में रास्तों की तलाश में घायल जी एक शाम को दिल्ली के कनाट प्लेस में थे. हर रोज की तरह आज भी फुटपाथ से सड़क पर भागती हुई जिन्दगी थी. सड़क के किनारे अपनी दुनिया की तलाश कर ठिकाने की ओर भागते लोगों की भीड़ का हिस्सा वह भी थे. नौकरी में रहते हुए घायल जी को दिल्ली की शाम कभी ऐसी नहीं लगी थी. पटरी की दूसरी ओर एक लड़का एक लड़की से चिपटा चला जा रहा था. एक जोड़ा जोरदार चुम्बन लेते हुए दिखा, पर इससे बेखबर एक भीड़ सबको रौंदते हुए आगे बढ़ने को उतावली दिख रही थी. घायल जी इसी भीड़ का हिस्सा थे. उन्हें लगा इस भीड़ में वे लोग शामिल हैं जो सपने की तलाश में हैं. मगर वह सपना क्या है? वे लोग जो दूसरी और किनारे पर दिख रहे हैं क्या वही सपना है? क्या वही मंजिल है? या फिर पंचसितारा होटलों के कमरे या पॉश कॉलोनियों की कोठियाँ? मंजिल क्या है, सपना क्या है? ये लोग क्या पाना चाहते हैं? यह पहला मौका था जब घायल जी को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में कठिनाई हुई. उन्हें लगा कि सभी एक अन्तहीन यात्रा में शामिल हैं. वह, प्रवीण, शरद और चन्दन सभी इसी भागती हुई भीड़ का हिस्ता हो गए हैं.

वे तेज कदमों से बस स्टैंड की तरफ बढ़ने लगे जहाँ से उन्हें हौजख़ास के लिए बस पकड़नी थी.

**-**
रचनाकार – नरेन्द्र अनिकेत के विभिन्न विषयों पर आलोचनात्मक आलेख देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. संप्रति दैनिक भास्कर के सेंट्रल डेस्क पर उप-सम्पादक हैं.

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: नरेन्द्र अनिकेत की कहानी : अनंत यात्रा
नरेन्द्र अनिकेत की कहानी : अनंत यात्रा
http://photos1.blogger.com/blogger/4284/450/320/1.jpg
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2005/12/blog-post_16.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2005/12/blog-post_16.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content