आलेख : काग के भाग

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- जयप्रकाश मानस सृष्टि का सबसे बड़ा चमत्कार है- हर कृति का अनन्य एवं अनुपम स्वभाव । सबकी अपनी-अपनी अर्थवत्ता, अपना-अपना माहात्म्य । निरुद्देश...


- जयप्रकाश मानस

सृष्टि का सबसे बड़ा चमत्कार है- हर कृति का अनन्य एवं अनुपम स्वभाव । सबकी अपनी-अपनी अर्थवत्ता, अपना-अपना माहात्म्य । निरुद्देश्य कदाचित् कुछ भी नहीं । एक सर्वमान्य तथ्य यह भी-सर्वगुण संपन्न संज्ञा संसार में कहाँ कोई-

जड़ चेतन गुन-दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहि पय परिहरि वारि विकार ॥

वस्तुत: अभिमत, धारण, मंतव्य विचार या मूल्यांकन आदि भी निरपेक्ष नहीं होते । अर्थात् पूर्वाग्रह रहित स्थापना एक संभ्रम मात्र होता है । ऐसे में परस्पर सायास उपेक्षा-वृत्ति निजता की अस्वीकृति है और तथाकथित अवगुणों के तर्क पर किसी कृति विशेष का समग्रत:नकार सृष्टि का नकार भी है । समय की शृंखला को ही लीजिए-निशा जहाँ तिमिर का प्रतीक है, वहाँ वह साधकों के लिए निर्द्वंद्व एवं निस्संग वातावरण भी है । इतनी लम्बी भूमिका से सहमति के पश्चात् काग-प्रसंग में रस लेने का अवसर आप शायद ही खोना चाहेंगे । आपने तो कभी न कभी सुना होगा- 'काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी ।' चलिए कागराज जी की जन्मपत्री ढूँढते हैं ।

दादा जी को पक्षियों में कबूतर पर अति विश्वास है । दाना चुगाकर वे आत्मतृप्त हो लेते हैं । दादीमाँ सुग्गे का आश्रय लेती है, उसके साथ वह अपनी मुक्ति के गीत जो दुहराती है-'कमलाबर, पक्षी जनम रु पारी कर ।' पिताजी को पंडूक से गहरा लगाव है, वह भरी दुपहरी, सुनसान खेत में अपनी उपस्थिति से उन्हें आश्वस्त करता है और माँ का आलंबन कागा जी । एक वही तो हैं, जिनका नाम धरते ही माँ का सारा संशय छूमंतर हो जाता है और चंचल-चपल शिशु जादुई अंदाज से हठ बिसार कर ग्रास ग्रहण कर लेता है –

करिया कउंआ आजा रे,
बुधवा कउंआ आजा रे ।
जंगाय हे मुन्ना राजा रे,
ए पंँ वरा ला खाजा रे ॥

(काले कौए आ जाओ, विद्वान् कौए आ जाओ । मुन्ना राजा नाराज है, इस ग्रास को खा जाओ ।)

मै अब तक बूझ नहीं पाया हूँ कि ऐसी जटिल मनोदशा की घड़ी में माँओं का साथ निभाने कौवे ही क्यों चले आते हैं ? अन्य पंछी क्यों नहीं ? यह यों ही है या नैमित्तिक । जो भी हो, वे पंछियों में हैं सौभाग्यशाली, जिनके नाम 'मनुष्य के लिये प्रथम परिचित विहंग' का पदक सुरक्षित है । मेरे अपने देश पे संदर्भ में तो ऐसा कहा ही जा सकता है, पश्चिम के देशों के बारे में मुझे पता नहीं । पश्चिम में माँंओं को इतनी फुर्सत कहाँ । वहाँ तो शिशु मंथली पेमेन्ट वाली आया-मदर से पलते हैं । पेमेन्ट से जननी खरीदी जा सकती है, ममता नहीं । पेमेंट से आंगन बनाया जा सकता है, पर ऑंगन में कौवे कैसे आयेंगे ?

कागा को समर्पित सामाजिक पदक पर आपत्तियाँ उठ सकती हैं कि-बच्चों की किलकारी का पहला प्रस्तावक गौरेय्या होती है, कागा नहीं । भाई साहब ! अच्छा होगा, अम्मा जी से ही पूछ लें । तनिक गंभीर गृहस्थ होकर ऑंगन में बिलम कर तो देख लें। सबसे पहले इस कविता को गूँजते हुए न पाएँ, तो मुझे जरूर कहें । मुझे तो माँ से सुनी यह कविता अब भी याद है –

कीची-काची कौआ खाये
दूध-भात मोर बाबू खाये ।

जमाने को कौआ नहीं, कोकिल से अनुराग है कि कोकिल के निमंत्रण पर बसंत पधारता है कि कोकिल प्रेम की अमराई में मादकता घोलता है कि कोकिल उदास यौवन के लिए कामासव बाँटता है कि कोकिल के बिना सारी दुनिया संत हो जाये । कागा की बिसात ही क्या है कोकिल के सामने ? चलो मान भी लेते हैं -कोकिल प्रेमिल काव्य है । कोकिल राग-रंग का संगीत है, पर संत को भी बसंत बनाने वाले स्वयं कोकिल का प्रेम कितना विश्वसनीय है ? उसका सारा प्रेम भोग की परिणति तक पहुँचते-पहुँचते उतर जाता है । प्रेम दायित्वहीन नहीं होता । दायित्वहीन प्रेम काम की उत्तेजना मात्र है । अपनी ही संतानों को अनाथ बना देने का कलंक कोकिल पर है, कागा पर नहीं । कागा तो अनाथों का नाथ है । औरों की औलादों को भी पालते- पोसते उसका जातीय प्रेम कम नहीं होता । संकट की घड़ी में आवाज दे कर पक्षी जाति को इकट्ठा करने वाला एक वही है । जीवधारी समाज में जैसा सतर्क कोई ढूँढे न मिले । सतर्कता की भाषा कड़वी होती है । कोकिल मिठलबरा है और कागा खरा । चंद दिनों के लिए मिसरी घोलना फिर गायब हो जाना मिठलबरा का ही लक्षण है । समाज को खरा चाहिए या मिठलबरा ?

खरापन संत का गुण है । संत समाज का नमक है । संत सिर्फ अपने लिए नहीं जीता । वह सबका संरक्षक होता है । सिध्दार्थ जब तक अपनों में धँसे रहे केवल सिध्दार्थ बने रहे । एक छोटी-सी रियासत कपिलवस्तु के राजपुँ वर बनकर । अपने-पराये की देहरी लाँघते ही वे भगवान गौतम बुध्द बन गये, समूचे विश्व के कंठहार । हो न हो कागा ने विचरण करते-करते 'जोगी मारा' या नेतनागर के बौध्द कानन में कभी 'बुध्दम् शरणम् गच्छामि'का मुक्ति राग सुन लिया हो और फिर बुध्दिश्रेष्ठ काग ने बुध्द को मन ही मन गुरु मान लिया हो । कागा शब्द के लिये संस्कृत भाषा में 'श्रावक' प्रयुक्त होता है । 'श्रावक'अर्थात् श्रवण करने वाला ।'श्रावक ' का एक अर्थ बौध्द सन्यासी भी होता है।

यह पृथ्वी कभी रसातल के केंचुल राजा गिचना के गिरफ्त में थी । उसे गिचना के उदर से मुक्त कराने में ईश्वर के दूत कौवे ने जिस तरह बुध्दि-चातुर्य प्रदर्शित किया था, उसकी अनुगूँज वाचिक परंपरा में हम आज भी सुन सकते हैं । उदासीन तो शिष्ट साहित्य है, जिसने कौवे की घोर उपेक्षा की । क्या यह लोक-दृष्टि में शिष्ट साहित्य की अशिष्टता नहीं ?
देवभाषा संस्कृत का संपूर्ण वाङ्मय पिक, शुक, सारिका, कपोत आदि विहंगों के लिये अनुग्रह रचता है । कागा का पक्ष रखने में वह एकबारगी अनुत्साही हो जाता है। क्या काग राज इतने उपेक्षित हैं ? कविता क्यों उन तक नहीं पहुँच सकी ? कवियों की वैष्णवता इसे ही कहते हैं ?
कविता एक आग्रह भी है, वैष्णवी आग्रह, जिसे खरा वैष्णव बनकर ही साधा जा सकता है । वैष्णव चोला धारण कर कोई कवि-सा दीख सकता है । स्पष्ट है, कवि कोई अभिनय की मुद्रा नहीं, यदि ऐसा होता, तो वेशभूषा की श्रेष्टता से श्रेष्ठ कविता सृजित होती । कविता कवि का विज्ञान है और यह विज्ञान वैष्णव बुध्दि से ही संभव है । दरअसल हृदय में एक निरंकुश सर्प छुपा बैठा रहता है । अवसर पाते ही वह फूंफकारने लगता है । यह अवचेतन मन में रचे-पचे संस्कार का प्रतिफल ही है जो अभिजन का प्रलाप भी छंद घोषित हो जाता है और अंत्यज का छन्द भी प्रलाप । जहाँ निम्न के प्रति कुशंका, अविश्वास एवं घृणा अभिजातों का दंभ मात्र है, वहीं तज्जनित प्रासंगिक आक्रोश, सामाजिक विद्रोह एवं पंथ-परिवर्तन की उत्तेजना अंत्यजों की कूंठा के अलावा कुछ भी नहीं । रामकथा के अमर गायक कागभुशुंडि की श्रेष्ठता पर उपजा पार्वती का संदेह केवल पार्वती का संदेह नहीं, उनके संस्कार का संदेह भी है । दरअसल यह समाज का संदेह है –

बिरति ग्यान विग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह ।
वायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥

कागभुशुंडि के अनुताप से तुलसी का वैष्णव मन संतप्त हो उठा । एक सच्चा वैष्णव ही सांसारिक संदेहों के निराकरण में भावनात्मक तटस्थता की भूमिका को परख सकता है । उन्होंने सामाजिक संरचना की अंतर्लय को बाधित किये बिना सर्वप्रथम पक्षी प्रवर गरुड़ को कौए के द्वार तक पहुँचाया, वह भी पार्वती-पति शंकर के समाधानी संकेतों में-

राम भगति पथ परम प्रवीना । ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ।
राम कथा सो कहइ निरंतर । सादर सुनहि विविध विहंगवर ।
जाइ सुनहु तहं गुन भूरी । होइ हि मोह जनित दु:ख दूरी ।

इस पर कागभुशुंडि की विनयशीलता तो देखिए, सदाशयता तो देखिए-वे उच्चपदधारी गरुड़ की न्यूनता स्वीकृति पर भी अपनी ज्येष्ठता को सर उठाने नहीं देते बल्कि गरुड़ की उपस्थिति को श्रीराम द्वारा सँजोया गया सत्संग का अवसर मान कर कृतकृत्य हो जाते हैं ।

जातीय या वर्गीय श्रेष्ठता तुच्छ होती है, सो तुलसीदास कागभुशुन्डि की प्रतिभा पर लोकनायक राम की मुहर लगाकर उसकी सामाजिक प्र्रतिष्ठा को परिपुष्ट कर देते हैं –

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । जोग चरित्र रहस्य विभागा ।
जानब तैं सबही कर भेदा । मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ।

कौए को सदा दलित, दीन-हीन, अस्पृश्य मानकर उसकी प्रज्ञा को प्रतिक्षिप्त किया जाता रहा है । कौए का प्रत्यय निर्हेतुक विवादास्पद होता रहा है । समूची कौआ- जाति को छल-छद्म से वर्चस्ववादियों और वर्ण-भेदवादियों ने अपयश का पात्र सिध्द करने में कोई मौका नहीं छोड़ा । त्रेता में इन्द्र-पुत्र जयंत कौए का रूप धारण कर के जगन्माता सीता के पैरों पर चंचु प्रहार किए जाने को क्या मानें ? वनवासी राम में ईश्वरत्व-परीक्षण हेतु मात्र जयंत की मूढ़ता ! उसकी मूढ़ता में कौए के चरित्र-हनन की गूढ़ता की संभावना किंचित् भी नहीं ?
महाभारत के शांति-पर्व में कवि का हृदय कितना अशांत हो उठा था-

भक्षार्थ क्रीडनार्थ वा नरा वांच्छन्ति पक्षिणम्
तृतीयो नास्ति संयोगो बध वंधाध्दते क्षम:

कौए आदि पक्षियों के रुदन में मनुष्य भला कब सम्मिलित हुआ है ?
इधर कौओं की उपस्थिति निरन्तर क्षीण हो रही है, मनुष्य में संवेदना की तरह, राजनीति में ईमानदारी की तरह, समाज में आत्मीयता की तरह । न वह कवि के जनपद में दीखता है, न ही कविता के जनपद में । यदि कहीं वह है तो बचपन के स्मृति-गाछ की किसी शाख में टुकुर-टुकुर निहारता हुआ । अपनी विभिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ कभी वह ऑंगन में तुलसी-चौरे में उतर आता है, मेरे लिये खास तौर पर बनी पनपुरुवा रोटी की ताक में, तो कभी वह मुँडेर पर बैठकर मामा जी के आने की खबर बाँचता है। सुबह-सुबह घर की मुंडेर पर कौए का बोलना शुभ-सूचक माना जाता है । लोक- विश्वास है यदि कौआ बोले, तो उस दिन परदेश गये कि सी अपने का घर आगमन होता है ।'काँव-काँव' की धुन विरही के लिए सरस आश्वासन का गीत है । प्रियतम का बाट जोहती प्रिया कौए से निवेदन करती है –

पैजनी गढ़ाई चोंच सोन में मढ़ाइ दैहौं
कर पर लाई पर रुचि सुधिरहौं ।
कहे कवि तोष छिन अटक न लैहौं कवौ
कंचन कटोरे अटा खीर भरि धरिहौं ।
ए रे काग तेरे सगुन संजोग आजु
मेरे पति आवैं तो वचन ते न टरिहौ ।
करती करार तौन पहिले करौंगी सब
अपने पिया को फिरि पाछे अंक भरिहों ।

कौआ भविष्यवक्ता है । उसके पूर्वाभास-ज्ञान के सामने वैज्ञानिक भी गँवार बन जाते हैं । इस अगम-ज्ञानी पंछी के संकेतों से माँ कभी-कभी चिंतित हो उठती । तंग हालत में पहुनाई से भला कौन आनंदित हो उठेगा, पर मैने माँ को एक भी बार कौवों को दुत्कारते हुए नहीं देखा ।
पितृपक्ष में जब माँ पत्तल में काकबलि के खीर, पुरी, बरा, भात-दाल, आम्मिला आदि षडरस व्यंजन परोस कर इधर आह्वान करती उधर कौए सदल-बल टूट पड़ते । वे भरपेट जीमते, फिर चोंच से उच्छिष्ट हटाने के लिए जमीन पर चोंच ठोंकते । मानो मुख- प्रक्षालन कर रहे हों । बाड़ी के अमरूद पेड़ पर बैठ कर दो-चार बार काँव-काँव करते । जैसे वे कृतज्ञता-ज्ञापन कर रहे हों । माँ के साथ हम तीनों भाई -बहनों को विश्वास होने लगता, जैसे वे हमारा कुशल-क्षेम पितरों तक पहुँचाने अब विदा माँग रहे हों । देखते ही देखते वे उड़ जाते । हम आकाश में उनके नहीं दिखाई देने तक देखते रहते ।

अभी-अभी तो पाठशाला पहुँचा था कि लो एक कौआ फिर आ गया,अपने बुध्दि-चातुर्य की कहानी सुनाने । गरमी का मौसम था । सभी नदियाँ, ताल-तलैये सूख गये थे । मैं बहुत तृषित था । पानी की तलाश में इधर-उधर उड़ता रहा । थक-हार कर एक पेड़ पर जा बैठा । मुझे एक कलसा दिखाई दिया । कलसा में पानी बहुत नीचे था । मेरी चोंच पानी तक नहीं पहुँच पा रही थी । मानस ! अब तुम ही बताओ, मैंने क्या किया होगा ?

तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो- मैं आसपास बिखरे पड़े कंकड़-पत्थर चोंच से ला-लाकर कलसे में डालने लगा । बस क्या था ! पानी धीरे-धीरे घड़े के मुँह तक आ गया । मैं पानी पीकर परितृप्त हो गया ।

अब मैं बालक नहीं रहा । बालक का पिता हो गया, यानी पालक हो गया, लेकिन चतुर कौए की कहानी आज भी मेरे अंतस् के पृष्ठों में आलोकित है । कल ही की बात है । प्रगति बिटिया की किताब देख रहा था । ज्ञात हुआ-कौए का पाठ अब बच्चों को नहीं पढ़ाया जाता । अब किसी भी कक्षा की पाठयपुस्तक में कौए या ऐसी कोई प्रेरणात्मक कहानी पढ़ा कर सरकार बच्चों को चतुर नहीं बनाना चाहती । हाँ ! कौए की जगह आलू ने अवश्य ले ली है, जिसका स्वाद आप भी लीजिए-

काटा आलू
निकला भालू
या फिर उलझिये यहाँ -
ककड़ी पर आई मकड़ी
ककड़ी ने कहा -भाग,
मकड़ी ने मारी-लात,

बहुत अफसोस होता है हमारे शिक्षाविदों पर । शिक्षा को प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया गया है । परिवर्तन के नाम सब कुछ बदल डालने में कौन-सी बुध्दिमत्ता है ? वायवी प्रसंगों वाली ऐसी तुकबंदियों से क्या भाषायी संस्कार या वैचारिक बुनियाद का गढ़ाव संभव है ? कल्पनाशक्ति को भोथरी करने वाली ऐसी पाठय-सामग्री का मतलब विद्यार्थी को उहापोह के गर्त में धकेलना है । ऐसी बिंबविहीन कविताओं से हमारे बच्चों के मन में कविता को हवामहल की चीज मानने का दृष्टिकोण विकसित नहीं होगा ? यह कविता के भविष्य को कूंठित करने का उपक्रम है और भविष्य की कविता को खंडित करने का अनुक्रम भी । कविता पर संकट सिर्फ कविता का संकट नहीं है, इसमें मानव जाति का संकट भी सम्मिलित है । मनुष्य तो होगा, पर नितांत एकांगी, अन्यमनस्क, मनहूस, स्वप्नविहीन और स्मृतिरहित ।
मुझे कोई आश्वस्त करेगा कि ब्रह्म-मुहूर्त का भान कराने को हमारे घरों की मुंडेर पर कौए आयेंगे ही और तब सारा पड़ोस जागेगा ही ?

**-**
रचनाकार – जयप्रकाश मानस छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार हैं. जयप्रकाश मानस की अन्य रचनाएँ जालस्थल - http://www.jayprakashmanas.info/ पर आप पढ़ सकते हैं.

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