असग़र वजाहत का सम्पूर्ण कहानी संग्रह: मैं हिन्दू हूँ टीप – 1-संपूर्ण संग्रह की फ़ाइल बड़ी है, अतः पृष्ठ लोड होने में समय लग सकता है, अतः कृप...
असग़र वजाहत का सम्पूर्ण कहानी संग्रह: मैं हिन्दू हूँ
टीप –
1-संपूर्ण संग्रह की फ़ाइल बड़ी है, अतः पृष्ठ लोड होने में समय लग सकता है, अतः कृपया धैर्य बनाए रखें.
2-इस संग्रह के फ़ॉन्ट का रूपांतरण मशीनी रूप से किया गया है, अतः वर्तनी की अशुद्धियाँ हो सकती हैं. कृपया अशुद्धियों की खबर रचनाकार को दें ताकि उन्हें ठीक किया जा सके.
अनुक्रम
१ केक
२ सरगम-कोला
३ दिल्ली पहुंचना है
४ राजा
५ योद्धा
६ बंदर
७ चन्द्रमा के देश में
८ हरिराम गुरू संवाद
९ स्विमिंग पूल
१० ज़ख्म़
११ मुश्किल काम
१२ होज वाज पापा
१३ तख्त़ी
१४ विकसित देशों की पहचान
१५ मुर्गाबियों के शिकारी
१६ लकड़ियां
१७ मैं हिंदू हूं
१८ शाह आलम कैम्प की रूहें
कहानी लिखने का कारण
कहानी हम क्यों लिखते हैं? कुछ बताने के लिए? कुछ कहने के लिए? कह कर संतोष पाने के लिए? दूसरों या समाज के सुख-दुख में हिस्सेदारी करने के लिए? मजबूरी में कि और कुछ नहीं कर सकते? आदत पड़ गयी है इसलिए? कुछ यादें कुछ बातें छोड़ने के लिए? समाज को बदलने के लिए? अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए? अपनी विद्वता दिखाने के लिए? भाषा और शिल्प के चमत्कार दिखाने के लिए?
मेरे ख्य़ाल में कहानी लिखने से पहले अगर कहानीकार के मन में सवाल उठता है कि मैं कहानी क्यों लिखने जा रहा हूं तो शायद वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पायेगा और आख़िरकार कहानी भी नहीं लिख पायेगा। इसलिए कहानीकार को भी बहुत बाद में ही पता चलता है कि वह कहानी क्यों लिख रहा है।
इसी से जुड़ी हुई एक दूसरी रोचक बात यह है कि कहानीकार को अगर यह लग जाये कि उसे आज तक लिखी गयी कहानियों से अच्छी या कम से कम वैसी ही कहानी लिखनी चाहिए तो व शायद कहानी नहीं लिख पायेगा। अब चेख़व से अच्छी कहानी तो लिख नहीं पायेगा। इसलिए सोचेगा कि अगर चेख़व से अच्छी कहानी मैं नहीं लिख सकता तो क्यों लिखूं? मतलब यह कि सौ साल पहले जो कहानी लिखी गयी थी उससे मेरी कहानी अच्छी ही होना चाहिए, अगर नहीं तो क्या फ़ायदा?
जहां तक मेरा सवाल है मैंने आज से कोई तीस साल पहले एक कहानी लिख मारी थी जिसका नाम था 'वह बिक गयी` उस ज़माने में मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. कर रहा था। यह कहानी उर्दू लिपि में लिखी थी। वहां के विश्वविद्यालयी अख्ब़ार 'शहरे तमन्ना` में छपी थी जिसके सम्पादक जैद़ी साहब थे जिनके युवा चेहरे पर बड़ी काली और घनेरी दाढ़ी हुआ करती थी। कहानी लिखकर दोस्तों को सुनाई थी और सबकी यह राय बनी थी कि जैद़ी साहब का दे दो। जैद़ी साहब ने छाप दी थी और हॉस्टल के लड़कों में मैं थोड़ा जाना जाने लगा था। पता नहीं क्यों यह कहानी लिखने के बाद दिमाग में बैठ गया था कि अगली कहानी नहीं लिख सकता क्योंकि कहानी को किस शब्द से शुरू किया जाये या बहुत मुश्किल लगता था, 'वह बिक गयी` कहानी केवल संवादों पर आधारित नहीं हो सकती। इसलिए अगली कहानी का पहला शब्द कया होना चाहिए? शायद इस मुश्किल में ती-चार महीने फंसा रहा। फिर कोई कथानक मिल गया और पहले शब्द की समस्या दूर हो गयी। इस कहानी का नाम याद नहीं।
कहानियां लिखने के साथ-साथ कहानियां पढ़ने और चीज़ों को जानने समझने और लड़कियों से एकपक्षीय प्रेम करने के सिलसिले चल पड़े। चीज़ों को कार्यकलापों को, आदमियों को, समाज को, सरोकारों को, पड़ताल ने कहानी को बदलना शुरू कर दिया। और एक कहानी शायद नाम था 'उनके हिस्से का आकाश` यह सन् १९६८ के आसपास 'धर्मयुग` में छप गयी थी जो उस ज़माने में कहानीकारों के लिए मील का पत्थर माना जाता था। यह कहानी भावुक, संबंधों के तनाव पर केन्द्रित थी लेकिन कोई तिकोना प्रेम वगैरा नहीं था। बहरहाल जल्दी ही भावुकता के इस दौर से निकला क्योंकि कुछ मार्क्सवादी विचारों वगैरा की सुगंध मिलने लगी थी। समाजवादी राजनीति और उस पर बेलाग आलोचना- ये दोनों ही बातें एक साथ सामने आती चली गयीं। सोचा आंखें खुली रहे अंध भक्ति जब धार्मिक विश्वासों की नहीं की तो किसी भी 'वाद` की क्यों जी जाये? हालात उलटते-पलटते रहे। चीजें बनती बिगड़ती और बिगड़ कर बनती रहीं और कहानी भी उसी के साथ-साथ हिचकोले खाती रही।
आज तीस साल सोचता हूं कि कहानी क्यों लिखता हूं तो ईमानदारी से कई बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि अपने परिवेश की विसंगतियों पर गुस्सा बहुत आता है जिसे दबाया नहीं जा सकता। दूसरे यह इच्छा बनी रहती है कि 'शहर को यहां से देखो` तीसरा यह कि और ऐसा क्या कर सकता हूं जो कहानी का 'बदला हो? शायद कुछ नहीं? चौथा यह कि गवाही रहे कि मैंने या मेरी पीढ़ी ने क्या देखा और भोगा। पांचवां यह कि पढ़कर शायद किसी की संवेदना को हल्की सी चोट पहुंचे और छटवां यह कि दिल की भड़ास निकल जाये और रात कुछ चैन की नींद आये, सातवां यह कि यार लेखक हैं तो लिखें। न लिखने की कोई वजह भी तो नहीं है। हमारा माध्यम कितना प्यारा है कि क़लम है और कागज़ है और मानव सभ्यता की प्राचीनतम अभिव्यक्ति विध यानी शब्द है। कोई बीच में नहीं है, कोई मजबूरी नहीं है। बाहरी दबाव नहीं है। कहीं-न-कहीं छप तो जाता ही है। लोगों को रचना पसंद आती है, तारीफ करते हैं तो अच्छा लगता है।
प्रस्तुत चयन में कोई प्रांरभिक कहानी नहीं है। पर १९७१ से लेकर आज तक की कहानियां हैं पढ़ने वालों को सहज ही पता लग सकता है कि मैंने क्या खोया है, क्या पाया है? वैसे आलोचक क्या कहते हैं इस पर तो मुझे बहुत विश्वास है नहीं।
असग़र वज़ाहत
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1 केक
उन्होंने मेज़ पर एक ज़ोरदार घूंसा मारा और मेज़ बहुत देर तक हिलती रही। 'मैं कहता हूं जब तक ऐट ए टाइम पांच सौ लोगों को गोली से नहीं उड़ा दिया जायेगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।' अपनी खासी स्पीकिंगपावर नष्ट करके वह हांफने लगे। फिर उन्होंने अपना ऊपरी होंठ निचले होंठ से दबाकर मुझे घूरना शुरू किया। वह अवश्य समझ गये थे कि मैं मुस्करा रहा हूं। फिर उन्होंने घूरना बंद कर दिया और अपनी प्लेट पर पिल पड़े।
रोज़ ही रात को राजनीति पर बात होती है। दिन के दो बजे से रात आठ बजे तक प्रूफ़रीडिंग का घटिया काम करते-करते वह काफ़ी खिसिया उठते हैं।
मैंने कहा, 'उन पांच सौ लोगों में आप अपने को भी जोड़ रहे हैं?'
'अपने को क्यों जोडूं? क्या मैं क्रुक पॉलिटीशियन हूं या स्मगलर हूं या करोड़ों की चोरबाज़ारी करता हूं?' वह फिर मुझे घूरने लगे तो मैं हंस दिया। वह अपनी प्लेट की ओर देखने लगे।
'आप लोग तो किसी भी चीज़ को सीरियसली नहीं लेते हैं।'
खाने के बाद उन्होंने जूठी प्लेटें उठायीं और किचन में चले गये। कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे मिसेज़ डिसूजा ने कहा, 'डेविड, मेरे लिये पानी लेते आना।'
डेविड जग भरकर पानी ले आये। मिसेज़ डिसूजा को एक गिलास देने के बोले, 'पी लीजिए मिस्टर, पी लीजिए।'
मेरे इनकार करने पर जले-कटे तरीके से चमके, 'थैंक्स टू गॉड! यहां दिन-भर पानी तो मिल जाता है। अगर इंद्रपुरी में रहते तो पता चल जाता। ख़ैर, आप नहीं पीते तो मैं ही पिये लेता हूं,' कहकर वह तीन गिलास पानी पी गये।
खाने के बाद इसी मेज पर डेविड साहब काम शुरू कर देते हैं। आज भी वह प्रूफ़ का पुलिंदा खोलकर बैठ गये। उन्होंने मेज़ साफ की। मेज़ के पाये की जगह इसी ईंटों को हाथ से ठीक किया, ताकि मेज़ हिल न सके। फिर टूटी कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक अकड़ गये और नाक का चश्मा इस तरह फिट किया जैसे बंदूक में गोलियां भर ली हों। होंठ खास तरह से दबा लिये। प्रूफ़ पांडुलिपि से मिलाने लगे। गोलियां चलने लगीं। इसी तरह डेविड साहब रात बारह बजे तक प्रूफ़ देखते रहते हैं। इसी बीच से कम-से-कम पचास बार चश्मा उतारते और लगाते हैं। बंदूक में कुछ खराबी हैं। पांच साल पहले आंखें टैस्ट करवायी थीं और चश्मा खरीदा था। अब आंखें ज्यादा कमज़ोर हो चुकी हैं, परंतु चश्मे का नंबर नहीं बढ़ पाया है। हर महीने की पंद्रह तारीख को वह अगले महीने आंखें टैस्ट करवाकर नया चश्मा खरीदने की बात करते हैं। बंदूक की कीमत बहुत बढ़ चुकी है। प्रूफ़ देखने के बीच पानी पीयेंगे तो वह 'बासु की जय` का नारा लगायेंगे। 'बासु` उनका बॉस है जिससे उन्हें कई दर्जन शिकायतें मुझे भी हैं। ऐसी शिकायतें पेश्तर छोटा काम करने वालों को होती हैं।
'बड़ा जान लेवा काम है साहब।' वे दो-एक बार सिर उठाकर मुझसे कहते हैं। मैं 'हूं-हां` में जबाव देकर बात आगे बढ़ने नहीं देता। लेकिन वह चुप नहीं होते। चश्मा उतार कर आंखों की रगड़ाई करते हैं, 'बड़ी हाईलेविल बंगलिंग होती है। अब तो छोटे-मोटे करप्शन केस पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं कुत्ते. . .। मैं भी आजादी से पहले गांधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन-वाइलेंस इज द बेस्ट पॉलिसी। लटका दो पांच सौ आदमियों को सूली पर। अरे, इन सालों का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए, पब्लिक ट्रायल!'
'पब्लिक ट्रायल कौन करेगा, डेविड साहब,' मैं झल्ला जाता हूं। इतनी देर से लगातार बकवास कर रहे हैं।
वे दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर बैठ जाते हैं।
'मासेज में अगर लेफ़्ट फोर्सेज. . .', वे धीरे-धीरे बहुत देर तक बड़बड़ाते रहते हैं।
मैं जासूसी उपन्यास के नायक को एक बार फिर गोलियों की बौछार से बचा देता हूं।
वह कहते हैं, 'आप, भी क्या दो-ढाई सौ रुपये के लिए घटिया नॉवल खिला करते हैं!' मैं मुस्कराकर उनके प्रूफ़ के पुलिंदे की तरफ़ देखता हूं और वह चुप हो जाते हैं। गंभीर हो जाते हैं।
'मैं सोचता हूं ब्रदर, क्या हम-तुम इसी तरह प्रूफ़ पढ़ते और जासूसी नॉवल लिखते रहेंगे? सोचो तो यार! दुनिया कितनी बड़ी है। यह हमें मालूम है कि कितनी अच्छी तरह से जिंद़गी गुजारी जा सकती है। कितना आराम और सुख है, कितनी ब्यूटी है. . .।'
'परेशानी तो मेरे लिए है, डेविड साहब। आप तो बहुत से काम कर सकते हैं। मुर्गी-खाना खोल सकते हैं। बेकरी लगा सकते हैं. . .।'
वह आंखें बंद करके अविश्वास-मिश्रित हंसी हंसने लगते हैं। और कमरे की हर ठोस चीज़ से टकराकर उनकी हंसी उनके मुंह में वापस चली जाती है।
अक्सर खाने के बाद वे ऐसी ही बात छेड़ देते हैं। काम में मन नहीं लगता और वक्त बोझ लगने लगता है। जी में आता है कि लोहे की बड़ी-सी रॉड लेकर किसी फैशनेबुल कॉलोनी में निकल जाऊँ। डेविड साब तो साथ चलने पर तैयार हो जायेंगे। वह फिर बोलने लगते हैं और उनके प्रिय शब्द 'बिच`, 'क्रूक`, 'नॉनसेंस`, 'बंगलिंग`, 'पब्लिक ट्रायल`, 'एक्सप्लॉइटेशन`, 'क्लास स्ट्रगल` आदि बार-बार सुनायी पड़ते हैं। बीच-बीच में वह हिंदुस्तानी गालियां फर्राटे से बोलते हैं।
'अब क्या हो सकता है! पच्चीस साल तक प्रूफ़रीडरी के बाद अब और क्या कर सकता हूं। सन् १९४८ में दिल्ली आया था। अरे साब, डिफेंस कॉलोनी की ज़मीन तीन रुपये गज मेरे सामने बिकी है, जिसका दाम आज चार सौ रुपये है। निजामुद्दीन से ओखला तक जंगल था जंगल। कोई शरीफ़ आदमी रहने को तैयार ही नहीं होता था। अगर उस वक्त उतना पैसा नहीं था और आज. . .। सीनियर कैम्ब्रिज में तेरे साथ पॉटी पढ़ता था। अब अगर आप आज उसे देख लें तो मान ही नहीं सकते कि मैं उसका क्लासफेलो और दोस्त था। गोरा-चिट्टा रंग, ए-क्लास सेहत, एक जीप, एंबेसेडर और एक ट्रैक्टर है उसके पास। मिर्जापुर के पास फार्मिंग करवाता है। उस जमाने में दस रुपये बीघा ज़मीन खरीदी थी उसने। मुझसे बहुत कहा था कि तुम भी ले लो डेविड भाई, चार-पांच सौ बीघा। बिलकुल उसी के फार्म के सामने पांच सौ बीघे का प्लाट था। ए-क्लास फर्टाइल ज़मीन। लेकिन उस ज़माने में मैं कुछ और था।' वह खिसियानी हंसी हंसे, 'आज उसकी आमदनी तीन लाख रुपये साल है। अपनी डेयरी, अपना मुर्गीखाना-ठाठ हैं, सब ठाठ।' डेविड साहब खुश हो गये जैसे वह सब उन्हीं का हो। प्रूफ़ के पुलिंदे को उठाकर एक कोने में रखते हुए बोले, 'मेरी तो किस्मत में इन शानदार कमरे में मिसेज़ डिसूजा का किरायेदार होना लिखा था।'
मिसेज़ डिसूजा को पचास रुपये दो, कमरा मिल जायेगा। पच्चीस रुपये और दो तो सुबह नाश्ता मिल जायेगा और तीस रुपये दो रात का खाना, जिसे मिसेज़ डिसूजा अंग्रेज़ी खाना कहती हैं, मिल जायेगा। मिसेज़ डिसूजा के कमरे से लगी तस्वीरों को, जो प्राय: उनकी जवानी के दिनों की हैं, किरायेदार हटा नहीं सकता। किसी तस्वीर में वह मोमबत्ती के सामने बैठी किताब पढ़ रही हैं, तो किसी में अपन बाल गोद में रखे शून्य में देखने का प्रयत्न कर रही हैं। कुछ लोगों का परिचय अंग्रेज़ अफ़सर के रूप में करवाती हैं, पर देखने में वे सब हिन्दुस्तानी लगते हैं। एक चित्र मिसेज़ डिसूजा की लड़की का भी है, जो डेविड साहब की मेज़ पर रखा रहता है। लड़की वास्तव में कंटाप है। छिनालपना उसके चेहरे से ऐसा टपकता है कि अगर सामने कोई बर्तन रख दे तो दिन में दसियों बार खाली करना पड़े। उसे सिर्फ देखकर अच्छे-अच्छे दोनों हाथों से दबा लेते होंगे। कुछ पड़ोस वालों का यह भी कहना है कि इसी तस्वीर को देख-देखकर डेविड साहब ने शादी करने और बच्चा पैदा करने की क्षमता से हाथ धो लिये हैं। मिसेज़ डिसूजा देसी ईसाइयों की कई लड़कियां उनके लिए खोज चुकी हैं। परंतु सब बेकार। वह तो ढाई सौ वोल्टेज ही के करंट से जल-भुनकर राख हो चुके थे और एक दिन तंग आकर मिसेज़ डिसूजा ने मोहल्ले में उनको नामर्द घोषित कर दिया और उनके सामने कपड़े बदलने लगीं।
सुबह का दूसरा नाम होता है। जल्दी-जल्दी बिना दूध की चाय के कुछ कप। रात के धेये कपड़ों पर उलटा-सीधा प्रेस। जूते पर पॉलिश। और दिन-भर फ्रूफ़ करेक्ट करते रहने के लिए आंखों की मसाज। फ्रूफ़ के पुलिंदे। करेक्ट किये हुए और प्रेस से आये हुए। फिर करेक्ट किये हुए फिर आये हुए। धम्! साला ज़ोर से गाली दे मारता है, 'देख लो बाबू, जल्दी दे दो। बड़ा साहब कॉलम देखना मांगता है।' पूरी जिंद़गी घटिया किस्म के कागज पर छपा प्रूफ़ हो गयी है, जिसे हम लगातार करेक्ट कर रहे हैं।
घर से बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी बस स्टॉप की तरफ़ दौड़ना, जैसे किसी को पकड़ना हो, हम दोनों एक ही नंबर की बस पकड़ते हैं। रास्तें में डेविड साहब मुझसे रोज़ एक-सी बातें करते हैं, 'हरी सब्जियों से क्या फायदा है, किस सब्जी में कितना स्टार्च होता है। अंडे और मुर्गे खाते रहो तो अस्सी साल की उम्र में भी लड़का पैदा कर सकते हो।` बकरी और भैंस के गोश्त का सूक्ष्म अंतर उन्हें अच्छी तरह मालूम है। अंग्रेजी खाने के बारे में उनकी जानकारी अथाह है। केक में कितना मैदा होना चाहिए। कितने अंडे डाले जायें। मेवा और जेली को कैसे मिलाया जाये। दूध कितना फेंटा जाये। केक की सिकाई के बारे में उनकी अलग धरणाएं हैं। क्रीम लगाने और केक को सजाने के उनके पास सैकड़ों फार्मूले हैं जिन्हें अब हिंदुस्तान में कोई नहीं जानता। कभी-कभी कहते, 'ये साले धोती बांधने वाले, खाना खाना क्या जानें! ढेर सारी सब्जी ले ली, तेल में डाली और खा गये बस, खाना पकाना और खाना मुसलमान जानते हैं या अंग्रेज। अंग्रेज़ तो चले गये, साले मुसलमानों के पास अब भैंसे का गोश्त खा-खाकर अकल मोटी करने के सिवा कोई चारा नहीं है। भैंसे का गोश्त खाओ, भैंसे की तरह अकल मोटी हो जायेगी और फिर भैंसे की तरह ही कोल्हू में पिले रहो। रात घर आकर बीवी पर भैंसे की तरह पिल पड़ो।`
आज फिर घूम-फिर कर वह अपने विषय पर आ गये।
'नाश्ता तो हैवी होना ही चाहिए।'
मैंने हामी भरी। इस बात से कोई उल्लू का पट्ठा ही इनकार कर सकता है।
'हैवी और एनरजेटिक?' चलते-चलते वह अचानक रुक गये। एक नये बनते हुए मकान को देखकर बोले, 'किसी ब्लैक मार्किटियर का मालूम होता है। फिर उन्होंने अकड़कर जेब से चश्मा निकाला, आंखों पर फिट करके मकान की ओर देखा। फ़ायर हुआ ज़ोरदार धमाके के साथ, और सारा मकान अड़-अड़ धड़ाम करके गिर गया।'
'बस, एक गिलास दूध, चार-टोस्ट और मक्खन, पौरिज और दो अंडे।' उन्होंने एक लंबी सांस खींची, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गयी हो।
'नहीं, मैं आपसे एग्री नहीं करता, फ्रूट जूस बहुत ज़रूरी है। बिना. . .।'
'फ्रूट जूस?' वह बोले? 'नहीं अगर दूध हो तो उसकी ज़रूरत नहीं है।'
'पराठे और अंडे का नाश्ता कैसा रहेगा?'
'वैरी गुड, लेकिन परांठे हलके और नर्म हों।'
'और अगर नाश्ते में केक हो?' वह सपाट और फीकी हंसी हंसे।
कई साल हुए। मेरे दिल्ली आने के आसपास। डेविड साहब ने अपनी बर्थ डे पर केक बनवाया था। पहले पूरा बजट तैयार कर लिया गया था। सब खर्च जोड़कर कुल सत्तर रुपये होते थे। पहली तारीख को डेविड साहब मैदा, शक्कर और मेवा लेने खारीबावली गये थे। सारा सामान घर में फिर से तौला गया था। फिर अच्छे बेकर का पता लगाया गया था। डेविड साहब के कई दोस्तों ने दरियागंज के एक बेकर की तारीफ़ की तो वह उससे एक दिन बात करने गये बिलकुल उसी तरह जैसे दो देशों के प्रधनमंत्री गंभीर समस्याओं पर बातचीत करते हैं। डेविड साहब ने उसके सामने एक ऐसा प्रश्न रख दिया किया वह लाजवाब हो गया, 'अगर तुमने सारा सामान केक में न डाला और कुछ बचा लिया तो मुझे कैसे पता चलेगा?` इस समस्या का समाधान भी उन्होंने खुद खोज लिया। कोई ऐसा आदमी मिले जो बेकर के पास उस समय तक बैठा रहे, जब तक कि केक बनकर तैयार न हो जाये। डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा ने इस काम के लिए अपने-आपको कई बार 'ऑफ़र` किया। मगर वास्तव में डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा पर भी एतबार नहीं था। हो सकता है बेकर और मिसेज़ डिसूजा मिलकर डेविड साहब को चोट दे दें। जब पूरी दिल्ली में 'मोतबिर` आदमी नहीं मिला तो डेविड साहब ने एक दिन की छुट्टी ली। मैंने इस काम में कोई रुचि नहीं दिखायी थी, इसलिए उन दिनों मुझसे नाराज़ थे और पीठ पीछे उन्होंने मिसेज़ डिसूजा से कई बार कहा कि जानता ही नहीं 'केक` क्या होता है। मैं जानता था कि 'केक` बन जाने के बाद किसी भी रात को खाने के बाद मुर्गी खाना खोलने वाली बात करके डेविड साहब को खुश किया जा सकता है या उनके दोस्त के बारे में बात करके उन्हें उत्साहित किया जा सकता है, जिसका मिर्जापुर के पास बड़ा फार्म है और वह वहां कैसे रहता है।
केक बर्थ डे से एक दिन पहले आ गया था। अब उसे रखने की समस्या थी। मिसेज़ डिसूजा के घर में चूहे ज़रूरत से ज्यादा हैं। इस आड़े वक्त में मैंने उनकी मदद की। अपने टीन के बक्स में से कपड़े निकालकर तौलिये में लपेटकर मेज़ पर रख दिये और बक्स में केक रख दिया गया। मेरा बक्स पूरे एक महीने घिरा रहा।
हम सबको उस केक के बारे में बातचीत कर लेना बहुत अच्छा लगता है। डेविड साहब तो उसे अपना सबसे बड़ा 'एचीवमेंट` मानते हैं। और मैं अपने बक्स को खाली कर देना कोई छोटा कारनामा नहीं समझता। उसके बाद से लेकर अब तक केक बनवाने के कई प्रोग्राम बन चुके हैं। अब डेविड साहब की शर्त यह होती है कि सब 'शेयर` करें। ज्यादा मूड में आते हैं तो आध खर्च उठाने पर तैयार हो जाते हैं।
उन्हीं के अनुसार, बचपन से उन्हें दो चीज़ें पंसद रही हैं जॉली और केक। जॉली की शादी किसी कैप्टन से हो गयी, तो वह धीरे-धीरे उसे भूलते गये। पर केक अब भी पसंद है। केक के साथ कौन शादी कर सकता है? लेकिन खारी-बावली के कई चक्कर लगाने पर उन्होंने महसूस किया कि केक की भी शादी हो सकती है। फिर भी पसंद करना बंद न कर सके।
दफ़्त़र से लौटकर आया तो सारा बदन इस तरह दर्द कर रहा था, जैसे बुरी तरह से मारा गया हो। बाहरी दरवाज़ा खोलने के लए मिसेज़ डिसूजा आयीं। वह शायद किचन में अपने खटोले पर सो रही थीं। अंदर आंगन में उनके गुप्त वस्त्र सूख रहे थे। 'गुप्त वस्त्र` शब्द सोचकर हंसी आयी। कोई अंग गुप्त ही कहां रह गया है! डी.टी.सी. की बसों में चढ़ते-उतरते गुप्त अंगों के भूगोल का अच्छा-खासा ज्ञान हो गया है। उनकी गरमाहट, चिकनाई, खुदरेपन, गंदेपन और लुभावनेपन के बारे में अच्छी जानकारी है। 'आज जल्दी चले आये।` मिसेज़ डिसूजा 'गुप्त वस्त्र` उतारने लगीं, 'चाय पीयोगे?` मैंने अभी तक नहीं पी है।`
'हां, जरूर।' सोचा अगर साली ने पी ली होती तो कभी न पूछती।
कमरे के अंदर चला आया। पत्थर की छत के नीचे खाने की मेज़ है। जिसके एक पाये की जगह ईंटें लगी हैं। दूसरे पायों को टीन की पट्टियों से जकड़ कर कीलें ठोंक दी गयी हैं। रस्सी, टीन, लोहा, तार और ईंटों के सहारे खड़ी मेज़ पहली नज़र में आदिकालीन मशीन-सी लगती है। मेज़ के उपर मिसेज़ डिसूजा की सिलाई मशीन रखी है। खाना खाते समय मशीन को उठाकर मेज़ के नीचे रख दिया जाता है। खाने के बाद मशीन फिर मेज़ पर आ जाती है। रात में डेविड साहब इसी मेज पर बैठकर प्रूफ़ देखते हैं। कई गिलास पानी पीते हैं और एक बजते-बजते उठते हैं तो कमरा अकेला हो जाता है। मैं कमरे में रखी सिलाई मशीन या मेज़ की तरह कमरे का एक हिस्सा बन जाता हूं।
'ये लो टी, ग्रीनलेबुल है!' मिसेज़ डिसूजा ने चाय की प्याली थमा दी। वह खानों के नाम अंग्रेज़ी में लेती है। रोटी को ब्रेड कहती है, दाल को पता नहीं क्यों उन्होंने सूप कहना शुरू कर दिया है। तरकारी को 'बॉयल्ड वेजिटेबुल्स` कहती हैं। करेलों को 'हॉटडिश` कहती हैं। मिसेज़ डिसूजा थोड़ी बहुत गोराशाही अंग्रेज़ी भी बोल लेती हैं, जिससे मोहल्ले के लोग काफ़ी प्रभावित होते हैं। मैंने टी ताजमहल ले ली। मिसेज़ डिसूजा आज के जमाने की तुलना पहले जमाने से करने लगीं। उन्हें चालीस साल तक पुराने दाम याद हैं। इसके बाद अपने मकान की चर्चा उनका प्रिय विषय है, जिसका सीधा मतलब हम लोगों पर रोब डालना होता है। वैसे रोब, डालते वक्त यह भूल जाया करती हैं कि दोनों कमरे किराये पर उठा देने के बाद वह स्वयं किचन में सोती हैं। मैं उनकी बकवास से तंग आकर बाथरूम में चला गया। अगर डेविड साहब होते तो मजा आता। मिसेज़ डिसूजा मुंह खोलकर और आंखें फाड़कर मुर्गी-पालन की बारीकियों को समझने का प्रयत्न करतीं। ' याद नहीं, सिर्फ दो हज़ार रुपये से काम शुरू करे कोई। चार सौ मुर्गियों से शानदार काम चालू हो सकता है। चार सौ अंडे रोज़ का मतलब है कम-से-कम सौ रुपये रोज़। एक महीने में तीन हज़ार रुपये और एक साल में छत्तीस हज़ार रुपये। मैं तो आंटी, लाइफ में कभी-न-कभी ज़रूर करूंगा कारोबार। फायदा. . .? मैं कहता हूं चार साल में लखपति। फिर अंडे, मुर्गीखाने का आराम अलग। रोज़ एक मुर्गी काटिये साले को। बीस अंड़ों की पुडिंग बनाइए। तब यह मकान आप छोड़ दीजिएगा, आंटी। यह भी कोई आदमियों के रहने लायक मकान है। फिर तो महारानी बाग या बसंत विहार में कोठी बनवाइएगा। एक गाड़ी ले लीजिएगा।`
तब थोड़ी देर के लिए वे दोनों 'बसंत विहार` पहुंच जाया करते। बड़ी-सी कोठी के फाटक की दाहिनी तरफ़ पीतल की चमचमाती हुई प्लेट पर एरिक डेविड और मिसेज़ जे. डिसूजा के अक्षर इस तरह चमकते जैसे छोटा-मोटा सूरज।
मैं लौटकर आया तो डेविड साहब आ चुके थे। कपड़े बदलकर आंगन में बैठे वह बासु को थोक में गालियां दे रहे थे, 'यह साला बासु इस लायक है कि इसका 'पब्लिक ट्रायल` किया जाये।' उनकी आंखों में नफ़रत और उकताहट थी। चश्मा थोड़ा नीचे खिसक गया था। उन्होंने अपनी गर्दन अकड़ाकर चश्मा चेहरे पर फिट किया। मैंने तिलक ब्रिज के सामने एक पेड़ की बड़ी-सी डाल पर रस्से के सहारे बासु की लाश को झूलते हुए देखा। लहरें मारती भीड़-अथाह भीड़। और कुछ ही क्षण बाद डेविड साहब को एक नन्हें से मुर्गीखाने में बंद पाया। चारों ओर जालियां लगी हुई हैं। और उसके अंदर दो सौ मुर्गियों के साथ डेविड साहब दाना चुग रहे हैं। गर्दन डालकर पानी पी रहे हैं और अंडे दे रहे हैं। अंडों के एक ढेर पर बैठे हैं। मुर्गीखाने की जालियों से बाहर 'बसंत विहार` साफ दिखाई पड़ रहा है।
मैंने कहा, 'आप क्यों परेशान हैं डेविड साहब? छोड़िए साली नौकरी को। एक मुर्गीखाना खोल लीजिए। फिर बसंत विहार में मकान।'
'नहीं-नहीं, मैं बसंत विहार में मकान नहीं बनवा कसता। वहां तो बासु का मकान बन रहा है। भाई साहब, यह तो दावा है कि इस देश में बगैर चार सौ बीसी किये कोई आदमी की तरह नहीं रह सकता। आदमियों की तरह रहने के लिए आपको ब्लैक मार्केर्टिंग करनी पड़ेगी लोगों को एक्सप्लायट करना पड़ेगा. . .अब आप सोचिए, मैं किसी साले से कम काम करता हूं। रोज़ आठ घंटे ड्यूटी और दो घंटे बस के इंतजार में. . .।'
'तुम बहुत गाली बकते हो,' मिसेज़ डिसूजा बोलीं।
'फिर क्या करूं आंटी? गाली न बकूं तो क्या ईशू से प्रार्थना करूं, जिसने कम-से-कम मेरे साथ बड़ा 'जोक` किया है?'
'छोड़िए यार डेविड साहब। कुछ और बात कीजिए। कहीं प्रूफ़ का काम ज्यादा तो नहीं मिला।'
'ठीक है, छोड़िए। दिल्ली में अभी तीन साल हुए हैं न! कुछ जवानी भी है। अभी शायद आपने दिल्ली की चमक-दमक भी नहीं देखी? क्या हमारा कुछ भी हिस्सा नहीं है उसमें? कनाट प्लेस में बहते हुए पैसे को देखा है कभी?' वह हाथ चला-चलाकर पैसे के बहास के बारे में बताने लगे, 'लाखों-करोड़ों रुपये लोग उड़ा रहे हैं। औरतों के जिस्मों पर से बहता पैसा। कारों की शक्ल में तैरता हुआ।' वह उत्तेजित हो गये, और उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, गर्दन अकड़ायी और चश्मा आंखों पर फिट कर लिया।
मुझे उकताहट होने लगी। तबीयत घबराने लगी, जैसे उमस एकदम बैठ गयी हो। सांस लेने में तकलीफ होने लगी। लोहे का सलाखोंदार कमरा मुर्गीखाना लगने लगा जिसमें सख्त बदबूभर गयी हो। मिसेज़ डिसूजा कई बार भविष्यवाणी कर चुकी हैं कि डेविड साहब एक दिन हम लोगों को एरेस्ट करवायेंगे और डेविड साहब कहते हैं कि मैं उस दिन का 'वेलकम` करूंगा।
गुस्से में लगातार होंठ दबाये रहने के कारण उनका निचला होंठ काफी मोटा हो गया है। चेहरे पर तीन लकीरें पड़ जाती हैं। बचपन में सुना करते थे कि माथे पर तीन लकीरें पड़ने वाला राजा होता है।
कुछ ही देर में वह काफ़ी शांत हो चुके थे। खाने की मेज़ पर उन्होंने 'बासु की जय` पर नारा लगाया और दो गिलास पानी पी गये। मिसेज़ डिसूजा की 'हॉटडिश`, 'सूप` और 'ब्रेड` तैयार थी।
'करेले की सब्जी पकाना भी आर्ट है, साब!' डेविड साहब ने जोर-जोर से मुंह चलाया।
'तीन डिश के बराबर एक डिश है।' मिसेज़ डिसूजा ने एहसान लादा।
डेविड उनकी बात अनसुनी करते हुए बोले, 'करेले खाने का मज़ा तो सीतापुर में आता था आंटी। कोठी के पीछे किचन गार्डन में डैडी तरह-तरह की सब्जी बुआते थे। ढेर सारी प्याज के साथ इन केरेलों में अगर कीमा भरकर पकाया जाये तो क्या कहना!'
हम लोग समझ गये कि अब डेविड साहब बचपन के किस्से सुनायेंगे। इन किस्सों के बीच नसीबन गवर्नेस का ज़िक्र भी आयेगा जो केवल एक रुपया महीना तनख्व़ाह पाकर भी कितनी प्रसन्न रहा करती थी। और जिसका मुख्य काम डेविड बाबा की देखभाल को दीपक बाबा ही कहती रही। इसी सिलसिले में उस पिकनिक पार्टी का जिक्र आयेगा जिसमें डेविड बाबा ने जमुना के स्लोप पर गाड़ी चढ़ा दी थी। तजुर्बेकार ड्राइवर इस्माइल खां को पसीना छूट आया था। खां को डांटकर गाड़ी से उतार दिया था। सब लड़के और लड़कियां उतर गये। अंग्रेज़ लड़के की हिम्मत छूट गयी थी। परंतु जॉली ने उतरने से इंकार कर दिया था। डेविड बाबा ने गाड़ी स्टार्ट की। दो मिनट सोचा। गियर बदलकर एक्सीलेटर पर दबाव डाला और गाड़ी एक फर्राटे के साथ उपर चढ़ गयी। इस्माइल खां ने उपर आकर डेविड बाबा के हाथ चूम लिये थे। वह बड़े-बड़े अंग्रेज़ अफ़सरों को गाड़ी चलाते देख चुका था मगर डेविड बाबा ने कमाल ही कर दिया था। जॉली ने डेविड बाबा को उसी दिन 'किस` देने का प्रामिस किया था।
इन बातों को सुनाते समय डेविड साहब की बिटरनेस गायब हो जाती है। वह डेविड साहब नहीं, दीपक बाबा लगते हैं। हलकी-सी धूल उड़ती है और सीतापुर की सिविल लाइंस पर बनी बड़ी-सी कोठी के फाटक में १९३० की फोर्ड मुड़ जाती है। फाटक के एक खंभे पर साफ अक्षरों में लिखा हुआ है पीटर जे. डेविड, डिप्टी कलेक्टर। कोठी की छत खपरैलों की बनी हुई है। कोठी के चारों ओर कई बीघे का कंपाउंड। पीछे आम और संतरे का बाग। दाहिनी तरफ़ टेनिस कोर्ट की बायीं तऱफ बड़ा-सा किचन गार्डन, कोठी के उंचे बरामदे में बावर्दी चपरासी उंघता हुआ दिखाई पड़ेगा। अंदर हाल में विक्टोरियन फ़र्नीचर और छत पर लटकता हुआ हाथ से खींचने वाला पंखा। दोपहर में पंखा-कुली पंखा खींचते-खींचते उंघ जाता है तो मिस्टर पीटर जे.डेविड डिप्टी कलेक्टर अपने विलायती जूतों की ठोकरों से उसके काले बदन पर नीले रंग के फल उगा देते हैं। बाबा लोग टाई बांधकर खाने की मेज़ पर बैठकर चिकन सूप पीते हैं। खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते हैं और मम्मी-डैडी को गुडनाइट कहकर अपने कमरे में चले जाते हैं। साढ़े नौ बजे के आस-पास १९३० की फोर्ड गाड़ी फिर स्टार्ट होती है। अब वह या तो क्लब चली जाती है या किसी देशी रईस की कोठी के अंदर घुसकर आधी रात को डगमगाती हुई लौटती है।
मिसेज़ डिसूजा के मकान की छत के उपर से दिल्ली की रोशनियां दिखाई पड़ती हैं। सैकड़ों जंगली जानवरों की आंखें रात में चमक उठती है। पानी पीने के लिए नीचे आता हूं तो डेविड साहब प्रूफ़ पढ़ रहे हैं। मुझे देखकर मुस्कराते हैं, कलम बंद कर देते हैं और बैठने के लिए कहते हैं। आंखों में नींद भरी हुई है। वह मुझे धीरे-धीरे समझाते हैं। उनके इस समझाने से मैं तंग आ गया हूं। शुरू-शुरू में तो मैं उनको उल्लू का पट्ठा समझता था, परंतु बाद में पता नहीं क्यों उनकी बातें मेरे उपर असर करने लगीं। 'भाग जाओ इस शहर से। जितनी जल्दी हो सके, भाग जाओ। मैं भी तुम्हारी तरह कॉलेज से निकलकर सीधे इस शहर में आ गया था राजधनी जीतने। लेकिन देख रहे हो, कुछ नहीं है इस शहर में, कुछ नहीं। मेरी बात छोड़ दो। मैं कहां चला जाउं! गांड़ के रास्ते यह शहर मेरे अंदर घुस चुका है।'
'लेकिन कब तक कुछ नहीं होगा, डेविड साहब?'
'उस वक्त तक, जब तक तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। और मैं जानता हूं, तुम्हारे पास वह सब कुछ नहीं है जो लोगों को दिया जा सकता है।'
मैं लौटकर उपर आ जाता हूं। मेरे पास क्या है देने के लिए? उंची कुर्सियां, कॉकटेल पार्टियां, लंबे-चौड़े लान, अंग्रेज़ी में अभिवादन, सूट और टाइयां, लड़कियां, मोटरें, शॉपिंग! तब ये लोग, जो तंग गलियारों में मुझसे वायदे करते हैं, मुस्कुराते हैं, कौन हैं? इसके बारे में फिर सोचना पड़ेगा। और काफ़ी देर तक फिर मैं सोचने का साहस जुटाता हूं। परंतु वह पीछे हटता जाता है। मैं उसकी बांहें पकड़कर आगे घसीटता हूं। एक बिगड़े हुए खच्चर की तरह वह अपनी रस्सी तुड़ाकर भाग निकलता है।
मैं फिर पानी के लिए नीचे उतरता हूं। अपनी मेज़ पर सिर रखे वह सो रहे हैं। प्रूफ़ का पुलिंदा सामने पड़ा है। मैं उसका कंधा पकड़कर लगा देता हूं। 'अब सो जाइए। कल आपको साइट देखने जाना है।` उनके चेहरे पर मुस्कराहट आती है। कल वह मुर्गीखाना खोलने की साइट देखने जा रहे हैं। इससे पहले भी हम लोग कई साइट देख चुके हैं। डेविड साहब उठकर पानी पीते हैं। फिर अपने पलंग पर इस तरह गिर पड़ते हैं जैसे राजधनी के पैरों पर पड़ गये हों। मैं फिर उपर आकर लेट जाता हूं। 'मैंने कॉलेज में इतना पढ़ा ही क्यों? इतना और उतना की बात नहीं है, मुझे कॉलेज में पढ़ना ही नहीं चाहिए था और अब दो साल तक ढाई सौ रुपये की नौकरी करते हुए क्या किया जा सकता है? क्यों मुस्कराता और क्यों शांत रहा? दो साल से दोपहर का खाना गोल करते रहने के पीछे क्या था?` नीचे से भैंस के हगने की आवाज़ आती है। एक परिचित गंध फैल जाती है। उस अर्द्धपरिचित कस्बे की गंध, जिसे मैं अपना घर समझता हूं, जहां मुझे बहुत ही कम लोग जानते हैं। उस छोटे से स्टेशन पर यदि मैं उतरूं तो गाड़ी चली जाने के बाद कई लोग मुझे घूर कर देखेंगे। और इक्का-दुक्का इक्के वाले भी मुझसे बात करते डरेंगे। उनका डर दूर करने के लिए मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा। अर्थात अपने पिता का परिचय देना पड़ेगा। तब उनके चेहरे पर मुस्कराहट आयेगी और वे मुझे इक्के पर बैठने के लिए कहेंगे। इस मिनट इक्का चलता रहेगा तो सारी बस्ती समाप्त हो जायेगी। उस पार खेत हैं जिनका सीधा मतलब है उस पर गरीबी है। वे गरीबी के अभ्यस्त हैं। पुलिस उनके लिए सर्वशक्तिमान है और अपनी हर होशियारी में वे काफी मूर्ख हैं. . .उपर आसमान में पालम की ओर जाने वाले हवाई जहाज की संयत आवाज सुनाई पड़ती है। नीचे सड़क पार बालू वाले ट्रक गुजर रहे हैं। लदी हुई बालू के उपर मजदूर सो रहे हैं, जो कभी-कभी किसान बन जाने का स्वप्न देख लेते हैं, अपने गांव की बात करते हैं, अपने खेतों की बात करते हैं, जो कभी उनके थे। ट्रक तेजी से चलता हुआ ओखला मोड़ से मथुरा रोड पर मुड़ जायेगा। फ्रेंड्स कालोनी और आश्रम होता हुआ 'राजदूत` होटल के सामने से गुजरेगा जहां रात-भर कैबरे और रेस्तरां के विज्ञापन नियॉनलाइट में जलते बुझते रहते हैं। उसी के सामने फुटपाथ पर बहुत से दुबले-पतले, काले और सूखे आदमी सोते हुए मिलेंगे, जिनकी नींद ट्रक की कर्कश आवाज़ से भी नहीं खुलती। उपर तेज बल्ब की रोशनी में उनके अंग-प्रत्यंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। मैं अक्सर हैरान रहता हूं कि वे इस चौड़े फुटपाथ पर छत क्यों नहीं डाल लेते। उसके चारों ओर, कच्ची ही सही, दीवार तो उठाई जा सकती है। इन सब बातों पर सरसरी निगाह डाली जाये, जैसी कि हमारी आदत है, तो इनका कोई महत्व नहीं है। बेवकूफी और भावुकता से भरी बातें। परंतु यदि कोई उपर से कीड़े की तरह फुटपाथ पर टपक पड़े तो उसका समझ में सब कुछ आ जायेगा।
दिन इस तरह गुजरते हैं जैसे कोई लंगड़ा आदमी चलता है। अब इस महानगरी में अपने बहुत साधरण और असहाय होने का भाव सब कुछ करवा लेता है। और अपमान, जो इस महानगर में लोग तफरीहन कर देते हैं, अब उतने बुरे नहीं लगते, जितने पहले लगते थे। ऑफिस में अधिकारी की मेज़ पर तिवारी का सुअर की तरह गंदा मुंह, जो एक ही समय में पक्का समाजवादी भी है और प्रो-अमरीकन भी। उसकी तंग बुशर्ट में से झांकता हुआ हराम की कमाई का पला तंदुरुस्त जिस्म और उसकी समाजवादी लेखनी जो हर दूसरी पंक्ति केवल इसलिए काट देती है कि वह दूसरे की लिखी हुई है। उसका रोब-दाब, गंभीर हंसी, षड्यंत्र-भरी मुस्कान और उसकी मेज़ के सामने उसके साम्राज्य में बैठे हुए चार निरीह प्राणी, जो कलम घिसने के अलावा और कुछ नहीं जानते। उन लोगों के चेहरे के टाइपराइटरों की खड़खड़ाहट। इन सब चीज़ों को मुट्ठी में दबाकर 'क्रश` कर देने को जी चाहता है। भूख भी कमबख्त लगती है तो इस जैसे सोरे शहर का खाना खाकर ही खत्म होगी। शुरू में पेट गड़गड़ाता है। यदि डेविड साहब होते तो बात यहीं ये झटक लेते, 'जी, नहीं, भूख जब ज़ोर से लगती है तो ऐसा लगता है जैसे बिल्लियां लड़ रही हों। फिर पेट में हलका-सा दर्द शुरू होता है जो शुरू में मीठा लगता है। फिर दर्द तेज़ हो जाता है। उस समय यदि आप तीन-चार गिलास पानी पी लें तो पेट कुछ समय के लिए शांत हो जायेगा और आप दो-एक घंटा कोई भी काम कर सकते हैं। इतना सब कुछ कहने के बाद वह अवश्य सलाह देंगे कि इस महानगरी में भूखों मरने से अच्छा है कि मैं लौट जाउं। लेकिन यहां से निकलकर वहां जाने का मतलब है एक गरीबी और भुखमरी से निकलकर दूसरी भुखमरी में फंस जाना। इसी तरह की बहुत सारी बातें एक साथ दिमाग में कबड्डी खेलती रहती हैं। तंग आकर ऐसे मौके पर डेविड साहब से पूछता हूं, 'ग्रेटर कैलाश की मार्केट चल रहे हैं?' वह मुस्कराते हैं और कहते हैं, 'अच्छा, तैयार हो जाउं।' मैं जानता हूं उनके तैयार हाने में काफ़ी समय लगेगा। इसलिए मैं बड़े प्रेम से जूते पॉलिश करता हूं। एक मैला कपड़ा लेकर जूते की घिसाई करता हूं। जूते में अपनी शक्ल देख सकता हूं। टिपटाप होकर डेविड साहब से पूछता हूं, 'तैयार हैं?'
हम दोनों बस स्टाप की तरफ़ जाते हुए एक-दूसरे के जूते देखकर उत्साहित होते हैं। एक अजीब तरह का साहस आ जाता है।
ग्रेटर कैलाश की मार्किट की हर दूकान का नाम हमें जबानी याद है। बस से उतरकर हम पेशाबखाने में जाकर अपने बाल ठीक करते हैं। वह मेरी ओर देखते हैं। मैं फर्नीचर की ओर देखता हूं। दो जोड़ा चमचमाते जूते बरामदे में घूमते हैं। मैं फर्नीचर की दूकान के सामने रुक जाता हूं। थोड़ी देर तक देखता रहता हूं। डेविड साहब अंदर चलने के लिए कहते हैं और मैं सारा साहब बटोर कर अंदर घुस जाता हूं। यहां के लोग बड़े सभ्य हैं। एक वाक्य में दो बार 'सर` बोलते हैं। चमकदार जूते दूकान के अंदर टहलते हैं। डेविड साहब यहां कमाल की अंग्रेज़ी बोलते हैं कंधे उचकाकर और आंखें निकालकर। चीज़ों को इस प्रकार देखते हैं जैसे वे काफी घटिया हों। मैं ऐसे मौकों पर उनसे प्रभावित होकर उन्हीं की तरह बिहेव करने की कोशिश करता हूं।
कंफेक्शनरी की दूकान के सामने वह बहुत देर तक रुकते हैं। शो-विंडो में सब कुछ सजा हुआ है। पहली बार में भ्रम हो सकता है कि सारा सामान दिखावटी है, मिट्टी का, परंतु निश्चय ही ऐसा नहीं है।
'जल्दी चलिए। साला देखकर मुस्करा रहा है।'
'कौन?' डेविड साहब पूछते हैं, मैं आंख से दूकान के अंदर इशारा करता हूं और वह अचानक दूकान के अंदर घुस जाते हैं। मैं हिचकिचाहट बरामदे में आगे बढ़ जाता हूं। 'पकड़े गये बेटा! बड़े लाटसाहब की औलाद बने फिरते हैं। उनकी जेब में दस पैसे का बस का टिकट और कुल साठ पैसे निकलते हैं। सारे लोग हंस रहे हैं। डेविड साहब ने चमचमाता जूता उतारकर हाथ में पकड़ा और दूकान में भागे।` मैं साहस करके दूकान के अंदर जाता हूं। डेविड साहब दूकानदार से बहुत फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रहे हैं और वह बेचारा घबरा रहा है। मैं खुश होता हूं। 'ले साले, कर दिया न डेविड साहब ने डंडा! बड़ा मुस्करा रहे थे।` डेविड साहब अंग्रेजी में उससे ऐसा केक मांग रहे हैं जिसका नाम उसके बाप, दादा, परदादा ने भी कभी न सुना होगा।
बाहर निकलकर डेविड साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
रोज़ की तरह खाने की मेज़ पर यहां से वहां तक विलायती खाने सजे हुए हैं। मिसेज़ डिसूजा का मूड़ कुछ आफ है। कारण केवल इतना है कि मैं इस महीने की पहली तारीख को पैसा नहीं दे पाया हूं। एक-आध दिन मुंह फला रहेगा। फिर वे महंगाई के किस्से सुनाने लगेंगी। चीजों की बढ़ती कीमतें सुनते हम लोग तंग जा जायेंगे।
बात करने के लिए कुछ जरूरी था और चुप टूटती नहीं लग रही थी, तो मिसेज़ डिसूजा ने पूछा, 'आज तुम डिफेंस कॉलोनी जाने वाले थे?'
'नहीं जा सकता,' डेविड साहब ने मुंह उठाकर कहा।
'अब तुम्हारा सामान कैसे आयेगा?' मिसेज़ डिसूजा बड़बड़ायीं, 'बेचारी कैथी ने कितनी मुहब्बत से भेजा है।'
'मुहब्बत से भिजवाया है आंटी?' डेविड साहब चौंके, 'आंटी, उसका हस्बैंड दो हज़ार रुपये कमाता है। कैथी एक दिन बाज़ार गयी होगी। सवा सौ रुपये की एक घड़ी और दो कमीजें खरीद ली होंगी। और डीनू के हाथ दिल्ली भिजवा दीं। इसमें मुहब्बत कहां से आ गयी?'
'मगर तुम उन्हें जाकर ले तो जाओ।'
'डीनू उस सामान को यहां ला सकता है।'
डीनू का डिफेंस कालोनी में अपना मकान है। कार है। डेविड साहब का बचपन का दोस्त है। वह उस शिकार पार्टी में भी था, जिसमें हाथी पर बैठकर डेविड साहब ने प्लाइंग शॉट में चार गाजें गिरा दी थीं।
'डिफेंस कॉलोनी से यहां आना दूर पड़ेगा। और वह बिजी आदमी है।'
'मैं बिज़ी प्रूफ़रीडर नहीं हूं?' वह हंसे, 'और वह तो अपनी काम से आ सकता है, जबकि मुझे दो बसें बदलनी पड़ेंगी।' वह दाल-चावल इस तरह खा रहे थे, जैसे 'केक` की याद में हस्तमैथुन कर रहे हों।
'जैसी तुम्हारी मर्जी।'
खाना खत्म होने पर कुछ देर के लिए महफिल जम गयी। मिसेज़ डिसूजा पता नहीं कहां से उस बड़े जमींदार का जिक्र ले बैठीं जो जवानी के दिनों में उन पर दिलोजान से आशिक था, और उनके अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद भी एक दिन पता लगाता हुआ दिल्ली के उनके घर आया था। वह पहला दिन था जब इस मकान के सामने सेकेंड-हैंड एंबेसडर खड़ी हुई थी और डेविड साहब को किचन में सोना पड़ा था। उस जमींदार का जिक्र डेविड साहब को बड़ा भाता है। मैं तो फौरन उस जमींदार की जगह अपने-आपको 'फिट` करके स्थिति का पूरा मज़ा उठाने लगता हूं।
कुछ देर बाद इधर-उधर घूम-घामकर बात फिर खानों पर आ गयी। डेविड साहब सेंवई पकाने की तरकीब बताने लगे। फिर सबने अपने-अपने प्रिय खानों के बारे में बात की। सबसे ज्यादा डेविड साहब बोले।
खाने की बात समाप्त हुई तो मैंने धीरे से कहा, 'यार डेविड साहब, इस गांव में कोई लड़की ऐसी नज़र पड़ जाती है कि पांव कांपने लगते हैं।'
'कैसी थी, मुझे बताओ? छिद्दू की बहू होगी या. . .।'
'बस डेविड, तुम लड़कियों की बात न किया करो। मैंने कितनी खूबसूरत लड़की से तुम्हारा 'इंगेजमेंट` तय किया था।'
'क्या खूबसूरती की बात करती हैं आंटी! अगर जॉली को आपने देखा होता. . .।'
'जॉली? खैर, उसको तो मैंने नहीं देखा। तुमने अगर मेरी लड़की को देखा होता।' उनकी आंखें डबडबा आयीं, 'मगर वह हज. . .' कुछ देर बाद बोलीं, 'अगर अब वह होती तो यह दिन न देखना पड़ता। मैं उसकी शादी किसी मिलिटरी अफ़सर से कर देती। उससे तो कोई भी शादी कर सकता था।'
कुछ ठहर कर डेविड साहब से बोली, 'तुम शादी क्यों नहीं कर लेते डेविड?'
'मैं शादी कैसे कर लूं आंटी? दो सौ पचहत्तर रुपये इक्कीस पैसे से एक पेट नहीं भरता। एक और लड़की की जान लेने से क्या फायदा। मेरी जिंदगी तो गुजर ही जायेगी। मगर मैं यह नहीं चाहता कि अपने पीछे एक गरीब औरत और दो तीन प्रूफ़रीडर छोड़कर मर जाउं जो दिन-रात मशीनों की कान फाड़ देने वाली आवाज़ बैठकर आंखें फोड़ा करें।' वह कुछ रुके, 'यही बात मैं इनसे कहता हूं।' उन्होंने मेरी ओर संकेत किया, 'इस आदमी के पास गांव में थोड़ी-सी ज़मीन है जहां गेहूं और धन की फसल होती है। इसको चाहिए कि अपने खेत के पास एक कच्चा घर बना ले। उसके सामने एक छप्पर डाल ले, बस, उस पर लौकी की बेल चढ़ानी पडेग़ी। देहात में आराम से एक भैंस पाली जा सकती है। कुछ दिनों बाद मुर्गीखाना खोल सकते हैं। खाने और रहने की फिक्र नहीं रह जायेगी। ठाठ से काम करे और खायें।'
'उसके बाद आप वहां आइएगा तो 'केक` बनाया जायेगा। बहुत से अंडे मिलाकर'
मैंने मजाक किया।
दीपक बाबा हंसने लगे। बिलकुल बच्चों की-सी मासूम हंसी।
***-***
2 सरगम-कोला
जैसे कुत्तों के लिए कातिक का मौसम होता है वैसे ही कला और संस्कृति के लिए जोड़ का मौसम होता है दिल्ली में, गोरी चमड़ी वाले पर्यटक भरे रहते हैं खलखलाते, उबलते, चहकते, रिझाते, लबालब हमारी संस्कृति से सबसे बड़े खरीदार और इसीलिए पारखी। बड़े घरों की महिलाएं लिपी-पुती कलैंडर आर्ट जिससे घृणा करने का कोई कारण नहीं है, जाड़े की शामें किसी आर्ट गैलरी और नाटक देखने में गुजारना पसंद करती हैं। जाड़ा कला और संस्कृति का मौसम है।
सूरज जल्दी डूब जाता है और नर्म मुलायम गर्म कपड़ों से टकराती ताजगी देने वाली हवा आर्ट गैलरियों और आडीटोरियमों के आसपास महक जाती है? ऐसी सुगंध जो नामर्द को मर्द बना दे और मर्द को नामर्द। लोग कला और संस्कृति में डूब जाते हैं। कला और संस्कृति लोगों में डूब जाती है।
म्यूज़िक कांफ्रेंस के गेट पर चार सिपाही खड़े थे। ऊबे, उकताये डंडे लिये। उनके पीछे दो इंस्पेक्टर खड़े थे, गर्दन अकड़ाये क्योंकि उनके सामने चार सिपाही खड़े थे। फिर दो सूटधरी थे। सूटधरियों के सूट एक से थे। बनवाये गये होंगे। सूटधरी काफी मिलती-जुलती शक्ल के थे। काफी मुश्किल से खोजे गये होंगे।
गेट के सामने बजरी पड़ा रास्ता था। बजरी भी डाली गयी होगी। फलों के गमले जमीन के अंदर गाड़ दिये गये थे। न जानने वालों को अचंभा होता था कि ऊसर में फल उग आये हैं। उपर कागज के सफेद फलों की चादर-सी तानी गयी थी जो कुछ साल पहले तक-कागज के फलों की नहीं, असली फलों की, पीरों, फकीरों की मज़ारों पर तानी जाती थी। फिर शादी विवाह में लगायी जाने लगी। दोनों तरफ गिलाफ चढ़े बांस के खंभे थे। इन गिलाफ चढ़े बांसों पर ट्यूब लाइटें लगीं थीं। इसी रास्तें से अंदर जाने वाले जा रहे थे। दासगुप्ता को गेट के बिलकुल सामने खड़े होने पर केवल इतना ही दिखाई दे रहा था। जाने वाले दिखाई दे रहे थे, जो ऊंचे-ऊंचे जूतों पर अपने कद को और ऊंचा दिखाने की नाकाम कोशिश में इस तरह लापरवाही से टहलते अंदर जा रहे थे जैसे पूरा आयोजन उन्हीं के लिए किया गया हो। अधेड़ उम्र की औरतें थीं जिनकी शक्लें विलायती कास्मेटिक्स ने वीभत्स बना दी थीं। लाल साड़ी, लाल आई शैडो, नीली साड़ी, नीली आई शैडो, काली के साथ काला. . .पीली के साथ पीला। जापानी साड़ियों के पल्लू को लपेटने की कोशिश में और अपने अधखुले सीने दिखाती, कश्मीरी शालों को लटकने से बचाती या सिर्फ सामने देखती. . .या जीन्स और जैकेट में खट-खट खट-खट। सम्पन्नता की यही निशानियां हैं। दासगुप्ता ने मन-ही-मन सोचा। गंभीर, भयानक रूप से गंभीर चेहरे, आत्म संतोष से तमतमाये. . .गर्व से तेजवान्, धन, ख्याति, सम्मान से संतुष्ट. . .दुराश से मुक्त। 'साला कौन आदमी इस कंट्री में इतना कान्फीडेंस डिजर्व करता है?' दासगुप्ता अपनी डिजर्व करने वाली फिलासफी बुदबुदाने लगे। सामने से भीड़ गुजरती रही। हिप्पी लड़कियां. . .अजीब-अजीब तरह के बाल. . .घिसी हुई जीन्स. . .मर्दमार लड़कियां। उनको सूंघते हुए कुत्ते. . .कुत्ते-ही-कुत्ते. . .डागी. . .डागीज. . .स्वीट डागीज।
प्रोग्राम शुरू हो गया। भीमसेन जोशी का गायन शुरू हो चुका था, लेकिन दासगुप्ता का कोई जुगाड़ नहीं लग पाया था, बिना टिकट अंदर जाने का जुगाड़।
गेट, बजरी पड़े रास्ते, सूटधारी स्वागतकर्ताओं, पुलिस इंस्पेक्टरों और सिपाहियों से दूर बाहर सड़क पर दाहिनी तरफ़ एक घने पेड़ के नीचे अजब सिंह अपना पान-सिगरेट को खोखा रखे बैठा था। ताज्जुब की बात है, मगर सच है कि इतने बड़े शहर में दासगुप्ता और अजबसिंह एक-दूसरे को जानते हैं। दासगुप्ता गेट के सामने से हटकर अजबसिंह के खोखे के पास आकर खड़े हो गये। सर्दी बढ़ गयी थी और अजब सिंह ने तसले में आग सुलगा रखी थी।
'दस बीड़ी।'
'तीस हो गयीं दादा।'
'हां, तीस हो गया। हम कब बोला तीस नहीं हुआ।. . .हम तुमको पैसा देगा।' दासगुप्ता ने बीड़ी ले ली। ऐ बीड़ी तसले में जलती आग से सुलगायी। और खूब लंबा कश खींचा।
'जोगाड़ नहीं लगा दादा?'
'लगेगा, लगेगा।'
'अब घर जाओ। ग्यारा बजने का हैं।'
'क्यों शाला घर जाये। हमको भीमसेन जोशी को सुनने का है. . .।'
'दो सादे बनारसी।'
उस्ताद भीमसेन जोशी की आवाज़ का एक टुकड़ा बाहर आ गया।
'विल्स।'
'किंग साइज, ये नहीं।'
दासगुप्ता खोखे के पास से हट आये। अब आवाज़ साफ सुनायी देगी।. . लेकिन आवाज़ बंद हो गयी।. . .एक आइडिया आया। पंडाल के अंदर पीछे से घुसा जाये। बीड़ी के लंबे-लंबे कश लगाते वे घूमकर पंडाल के पीछे पहुंच गये। अंधेरा। पेड़। वे लपकते हुए आगे बढ़े। टॉर्च की रोशनी।
'कौन है बे?' पुलिस के सिपाही के अलावा ऐसे कौन बोलेगा।
दासगुप्ता जल्दी-जल्दी पैंट के बटन खोलने लगे 'पिशाब करना है जी पिशाब।' टॉर्च की रोशनी बुझ गयी। दासगुप्ता का जी चाहा इन सिपाहियों पर मूत दें। साले यहां भी डियूटी बजा रहे हैं।. . .पिशाब की धर सिपाहियों पर पड़ी। पंडाल पर गिरी। चूतिये निकल-निकलकर भागने लगे।. . .दासगुप्ता हंसने लगे।
वे लौटकर फिर खोखे के पास आ गये। पास ही में एक छोटे-से पंडाल के नीचे कैन्टीन बनायी गयी थी। दो मेज़ों का काउंटर। काफी प्लांट। उपर दो सौ वाट का बल्ब। हाट डॉग, हैम्बर्गर, पॉपकार्न, काफी की प्यालियां। दासगुप्ता ने कान फिर अंदर से आने वाली आवाज़ की तरफ़ लगा दिये. . .सब अंदर वालों के लिए है। जो साला म्यूजिक सुनने को बाहर खड़ा है, चूतिया है। लाउडस्पीकर भी साला ने ऐसा लगाया है कि बाहर तक आवाज़ नहीं आता। और अंदर चूतिये भरे पड़े हैं। भीमसेन जोशी को समझते हैं? उस्ताद की तानें इनज्वाय कर सकते हैं? इनसे अगर यह कह दो कि उस्ताद जोशी तानों में मंद सप्तक से मध्य और मध्यम सप्तक से तार सप्तक तक स्वरों का पुल-सा बना देते हैं, तो ये साले घबराकर भाग जायेंगे. . .ये बात भीमसेन जोशी को नहीं मालूम होगा? होगा, जरूर होगा। साले संगीत सुनने आते हैं। अभी दस मिनट में उठकर चले जायेंगे. . .डकार कर खायेंगे और गधे की तरह पकड़कर सो जायेंगे।
'दादा सर्दी है,' अजब सिंह की उंगलियां पान लगाते-लगाते ऐंठ रही थीं।
'शर्दी क्यों नहीं होगा। दिशम्बर है, दिशम्बर।'
'ईंटा ले लो दादा, ईंटा।' अजब सिंह ने दासगुप्ता के पीछे एक ईंटा रख दिया और वे उस पर बैठ गये।
जैसे-जैसे सन्नाटा बढ़ रहा था अंदर से आवाज़ कुछ साफ आ रही थी। उस्ताद बड़ा ख्याल शुरू कर रहे हैं। दासगुप्ता ईंटें पर संभलकर बैठ गये।. . .पग लगाने दे. . .घिं-घिं. . .धगे तिरकिट तू ना क त्ता धगे. . .तिरकिट धी ना. . .ये तबले पर संगत कर रहा है? दासगुप्ता ने अपने-आपसे पूछा। वाह क्या जोड़ हे।
'ये तबले पर कौन है?' उन्होंने अजब सिंह से पूछा।
'क्या मालूम कौन है दादा।'
कितनी गरिमा और गंभीरता है। अंदर तक आवाज़ उतरती चली जाती है।. . .तू ना क त्ता. . .।
'तुम्हारे पास कैम्पा हैय?' तीन लड़कियां थीं और चार लड़के। दो लड़कियों ने जींस पहन रखी थीं और उनके बाल इतने लंबे थे कि कमर पर लटक रहे थे। तीसरी के बाल इतने छोटे थे कि कानों तक से दूर थे। एक लड़के ने चमड़े का कोट पहन रखा था और बाकी दो असमी जैकेट पहने थे। तीसरे ने एक काला कम्बल लपेट रखा था। एक की पैंट इतनी तंग थी कि उसकी पतली-पतली टांगे फैली हुई और अजीब-सी लग रही थीं। लंबे बालों वाली लड़कियों में से एक लगातार अपने बाल पीछे किये जा रही थी, जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी। तीसरी लड़की ने अपनी नाक की कील पर हाथ फेरा।
'तुम्हारे पास कैम्पा हैय?' लंबी और पतली टांगों वाले लड़के ने कैंटीन के बैरे से पूछा। उसका ऐक्सेंट बिलकुल अंग्रेजी था। वह 'त` को 'ट` और 'ह` को 'य` के साथ मिलाकर बोल रहा था। 'ए` को कुछ यादा लंबा खींच रहा था।
'नहीं जी अभी खतम हो गया. . .'
'ओ हाऊ सिली,' छोटे बालों वाली लड़की ठुनकी।
'हाऊ स्टूपिड कैन्टीन दे हैव।'
'वी मस्ट कम्पलेन्ट।'
'लेट्स हैव काफी स्वीटीज,' लंबी टांगों वाले ने अदा से कहा।
'बट आइ कान्ट हैव काफी हियर,' जो लड़की अपनी नाक की कील छूए जा रही थी और शायद इन तीनों में सबसे ज्यादा खूबसूरत थी, बोली।
'वाये माई डियर,' लंबी टांगों वाला उसके सामने कुछ झुकता हुआ बोला और वह बात बाकी दो लड़कियों को कुछ बुरी लगी।
'आई आलवेज हैव काफी इन माई हाउस ऑर इन ओबरॉयज।'
'फाइन लेट्स गो टु द ओबरॉय देन,' लंबी टांगों वाला नारा लगाने के से अंदाज़ में चीखा।
'सर. . .सर कैम्पा आ गया,' कैन्टीन के बैरे ने सामने इशारा किया। एक मजदूर अपने सिर पर कैंपा का क्रेट रखे चला आ रहा था।
'ओ, कैम्पा हेज कम,' दूसरी दो लड़कियों ने कोरस जैसा गाया। अंदर से भीमसेनी जोशी की आवाज़ का टुकड़ा बाहर आ गया।
'ओ कैम्पा {{{{ हैज कम,' सब सुर में गाने लगे, 'के ए ए ए म पा {{{{. . . .पार करो अरज सुनो ओ. . .ओ. . .पा {{{{. . .कैम्पा {{{ पार करो. . .पा {{{{ र. . .कैम्पा {{{{. . .'
'बट नाउ आई वांट टु हैव काफी इन ओबरॉय,' खूबसूरत चेहरे वाली लड़की ठुनकी।
'बट वी केम हियर टु लिसन भीमसेनी जोशी।'
'ओ, डोन्ट बी सिली. . .ही विल सिंग फॉर द होल नाइट. . .हैव कॉफी इन ओबरॉय देन वी कैन कम बैक. . .इविन वी कैन हैव स्लीप एण्ड कम बैक. . .' लंबी टांगों वाला चाबियों का गुच्छा हिलाता आगे बढ़ा. . .भीमसेन जोशी की दर्दनाक आवाज़ बाहर तक आने लगी थी. . .आत्मनिवेदन की, दुखों और कष्टों से भरी स्तुति. . .अरज सुनो {{{{. . . .मो{{{{. . .खचाक. . .खचाक. . .कार के दरवाजे एक साथ बंद हुए और क्रिर्रर क्रिर्ररर क्रिर्र. . .भर्र{{{{ भर्र {{{{. . .।'
बारह बज चुका था। सड़क पर सन्नाटा था। सड़क के किनारों पर दूर-दर तक मोटरों की लाइनें थीं। लोग बाहर निकलने लगे थे। ज्यादातर अधेड़ उम्र और गंभीर चेहरे वाले- उकताये और आत्मलिप्त. . .मोटी औरतें. . .कमर पर लटकता हुआ गोश्त. . .जमहाइयां आ रही हैं। साले, नींद आने लगी. . .टिकट बर्बाद कर दिया। अरे उस्ताद तो दो बजे के बाद मूड़ में आयेंगे। बस टिकट लिया. . .मंगवा लिया ड्राइवर से। घंटे-दो घंटे बैठे। पब्लिक रिलेशन. . .ये टिकट ही नहीं डिजर्व करते. . .पैसा वेस्ट कर दिया. . .उस्ताद को भी वेस्ट कर दिया. . .ऐसी रद्दी आडियन्स। जो लोग जा रहे हैं उनकी जगह खाली. . .उसमें शाला हमको नहीं बैठा देता. . .बोलो, पैशा तो तुमको पूरा मिल गया है। अब क्यों नहीं बैठायेगा।
दासगुप्ता को सर्दी लगने लगी और उन्होंने एयरफोर्स के पुराने ओवरसाइज कोट की जेबों में हाथ डाल दिये। अजब सिंह कुछ सूखी पत्ती उठा लाया। तसले की आग दहक उठी।. . .ये साला निकल रहा है 'आर्ट सेंटर` का डायरेक्टर। पेंटिंग बेच-बेचकर कोठियां खड़ी कर लीं। अब सेनीटरी फिटिंग का कारोबार डाल रखा है। यही साले आर्ट कल्चर करते हैं। क्योंकि इनको पब्लिक रिलेशन का काम सबसे अच्छा आता है। पार्टियां देते हैं। एक हाथ से लगाते हैं, दूसरे से कमाते हैं। अपनी वाइफ के नाम पर इंटीरियर डेकोरेशन का ठेका लेता है। अमित से काम कराता है। उसे पकड़ा देता है हज़ार दो हज़ार. . .लड़की सप्लाई करने से वोट खरीदने तक के धंधे जानता है. . .देखो म्युजिक कान्फ्रेंस की आर्गनाइजर कैसे इसकी कार का दरवाजा खोल रही है. . .ब्रोशर में दिया होगा एक हजार का विज्ञापन। जैसे सुअर गू पर चलता है और उसे खा भी जाता है वही ये आर्ट-कल्चर के साथ करते हैं। फैक्ट्री न डाली 'कला केन्द्र` खोल लिया।. . .विदेशी कार का दरवाजा सभ्य आवाज़ के साथ बंद हो गया। कुसुम गुप्ता. . .साली न मिस है, न मिसेज़ है. . .दासगुप्ता सोचने लगे। क्यों न इससे बात की जाये। वह तेजी से गेट की तरफ बढ़ रही थी। इससे अंग्रेजी ही में बात की जाये।
'कैन यू प्लीज. . .'
उसने बात पूरी नहीं सुनी। मतलब समझ गयी। गंधे उचकाये।
'नो आइ एम सॉरी. . .वी हैव स्पेंट थर्टी थाउजेंड टू अरैंज दिस. . .' आगे बढ़ती चली गयी।
थर्टी थाउजेंड, फिफ्टी थाउजेंड, वन लैख. . .फायदे, मुनाफे के अलावा वह कुछ सोच ही नहीं सकती। वे आकर ईंट पर बैठ गये।
'विल्स।'
'मीठा पान।'
'नब्बे नंबर डाल, नब्बे. . .'
'ओ हाउ मीन यू आर।' औरतनुमा लड़की को कमसिन लड़का अपना हैम्बर्गर नहीं दे रहा था। औरतनुमा लड़की ने अपना हाथ फिर बढ़ाया और कमसिन लड़के ने अपना हाथ पीछे कर लिया। उनके साथ की दूसरी दो लड़कियां हंसे जा रही थीं।
'मीन,' लड़की अदा से बोली।
मीन? मीन का मतलब तो नीच होता है। लेकिन ये साले ऐसे बोलते हैं जैसे स्वीट। और स्वीट का मतलब मीन होगा।
कमसिन लड़का और औरतनुमा लड़की एक ही हैम्बर्गर खाने लगे। उनके साथ वाली लड़कियां ऐसे हंसने लगीं जैसे वे दोनों उनके सामने संभोग कर रहे हों।
'डिड यू अटेंड दैट चावलाज पार्टी?'
'ओ नो, आई वानटेड टु गो बट. . .'
'मेहराज गिव नाइस पार्टी।'
'हाय बॉबी!'
'हाय लिटी!'
'हाय जॉन!'
'हाय किटी!'
'यस मेहराज गिव नाइस पार्टीज. . .बिकाज दे हैव नाइस लॉन. . .लास्ट टाइम देयर पार्टी वाज टिर्रेफिक. . .देयर वाज टू मच टू ईट एंड ड्रिंक. . .वी केम बैक टू थर्टी इन द मॉर्निंग. . .यू नो वी हैड टू कम बैक सो सून? माई मदर इनला वाज देयर इन अवर हाउस. . . डिड यू मीट हर? सो चार्मिंग लेडी दैड द एज आफ सेवेन्टी थ्री. . .सो एट्ट्रेक्टिव आइ कांट टेल यू।'
'डिड यू लाइक द प्रोग्राम?'
'ओ ही इस सो हैंडसम।'
'डिड यू नोटिस द रिंग ही इज वियरिंग?'
'ओ यस, यस. . .ब्यूटीफुल।'
'मस्ट बी वेरी एक्सपेन्सिव।'
'ओ श्योर।'
'माइ मदर्स अंकल गाट द सेम रिंग।'
'दैट इज प्लैटिनम।'
'हैय वेटर, टू काफी।'
सुनने नहीं देते साले। अब अंदर से थोड़ी-बहुत आवाज़ आ रही थी। दासगुप्ता ने ईंट खिसका ली और अंगीठी के पास खिसक आये।
'ही हैज जस्ट कम बैक फ्राम योरोप।'
'ही हैज ए हाउस इन लण्डन।'
'मस्ट बी वेरी रिच।'
'नेचुरली ही टेस्ट टेन थाउजेंड फार ए नाइट।'
'देन आइ विल काल हिम टु सिंग इन अवर मैरिज।' कम उम्र लड़के ने औरतनुमा लड़की की कमर में हाथ डाल दिया।
साले के हाथ देखो। कलाइयां देखो। दासगुप्ता ने सोचा। अपने बल पर साला एक पैसा नहीं कमा सकता। बाप की दौलत के बलबूते पर उस्ताद को शादी में गाने बुलायेगा।
अजब सिंह ने फिर अंगीठी में सूखे पत्ते डाल दिये। बीड़ी पीता हुआ एक ड्राइवर आया और आग के पास बैठ गया। उसने खाकी वर्दी पहन रखी थी।
'सर्दी है जी, सर्दी।' उसने हाथ आग पर फैला दिये। कोई कुछ नहीं बोला।
'देखो जी कब तक चलता है ये चुतियापा। डेढ़ सौ किलोमीटर गाड़ी चलाते-चलाते हवा पतली हो गयी। अब साले को मुजरा सुनने की सूझी है। दो बजने. . .'
'सुबह छ: बजे तक चलेगा।'
'तब तो फंस गये जी।'
'प्राजी कोई पास तो नहीं है?' अजब सिंह ने ड्राइवर से पूछा।
'पास? अंदर जाना है?'
'हां जी अपने दादा को जाना है,' अजब सिंह ने दासगुप्ता की तरफ इशारा किया।
'देखो जी देखते हैं।'
ड्राइवर उठा तेजी से गेट की तरफ बढ़ा। लंबा तडंग़ा। हरियाणा का जाट। गेट पर खड़े सिपाहियों से उसने कुछ कहा और सिपाही स्वागतकर्ता को बुला लाया।
ड्राइवर जोर-जोर से बोल रहा था, 'पुलिस ले आया हूं जी। एस.पी. क्राइम ब्रांच, नार्थ डिस्ट्रिक्ट का ड्राइवर हूं जी। डी.वाई.एस.पी. क्राइम ब्रांच और डी.डी.एस.पी. ट्रैफिक की फैमिली ने पास मंगाया है जी,' वह लापरवाही से एक सांस में सब बोल गया।
सूटधारी स्वागतकर्ता ने सूट की जेब से पास निकालकर ड्राइवर की तरफ बढ़ा दिये। वह लंबे-लंबे डग भरता आ गया।
'सर्दी है जी, सदी है।' हाथ आगे बढ़ाया 'ये लो जी पास।'
'ये तो चार पास हैं।'
'ले लो जी अब, नहीं तो क्या इनका अचार डालना है।'
दासगुप्ता ने एक पास ले लिया, 'हम चार पास का क्या करेगा?'
हरियाणा का जाट को काफी ऊब चुका था, इस सवाल का कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहता था। उसने बचे हुए तीन पास तसले में जलती आग में डाल दिये। ड्राइवर और अजबसिंह ने तसले पर ठंडे हाथ फैला दिये। दासगुप्ता गेट की तरफ लपके। अंदर से साफ आवाज़ आ रही थी. . .जा{ गो{. . .उस्ताद अलाप लेकर भैरवी शुरू करने वाले हैं. . .जा{ गो{ मो{ ह न प्या{{{{रे {{. . .ध धिं धिं ध ध तिं तिं ता. . .जा{ गो{ मो{ ह{ न प्या{ {{ {{ {{ रे {{ {{{. . .
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3 दिल्ली पहुंचना है
रात के दो बजे थे और कायदे से इस वक्त स्टेशन पर सन्नाटा होना चाहिए था। इक्का-दुक्का चाय की ठेलियों को छोड़कर या दो-चार उंघते हुए कुलियों या सामान की गांठों और गट्ठरों या प्लेटफार्म पर सोये गरीब फटेहाल लोगों के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं था। पूरे स्टेशन पर ऐसी चहल-पहल थी, जैसे रात के दो नहीं, सात बे हों। आठ-आठ दस-दस की टुकड़ियों में लोग प्लेटफार्म पर इधर-उधर खड़े थे या किसी कोने में गोले बनाये बैठे थे या पानी के नल के पास बैठे चिउड़ा खा रहे थे।
ये सब एक ही तरह के लोग थे। मैली, फटी, उंची धोतियां या लुंगियां और उलटी, बेतुकी, सिलवटें पड़ी कमीजें या कपड़े की सिली बनियानें पहने। नंगे सिर, नंगे पैर, सिर पर छोटे-छोटे बाल। एक हाथ में पोटली और दूसरे हाथ में लाल झंडा।
बिपिन बिहारी शर्मा, मदनपुर गांव, कल्याणपुर ब्लाक, मोतिहारी, पूर्वी चंपारन आज सुबह गांव से उस समय निकले थे जब पूरब में आम के बड़े बाग के उपर सूरज का कोई अता-पता न था। सूरज की हलकी-हलकी लाली उन्हें खजुरिया चौक पहुंचने से कोई एक घंटा पहले दिखाई दी थी, जहां आकर सब जनों ने दातुन-कुल्ला किया था।
इमली, आम और नीम के बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे दुबका गांव सो रहा था। इन पेड़ों की अंधेरी परछाइयां इधर-उधर खपरैल के घरों, गलियारों, कच्ची दीवारों पर पड़ रही थीं। बड़े बरगद के पेड़ के पत्ते हवा में खड़खड़ाते तो सन्नाटा कुछ क्षण के लिए टूटता और फिर पूरे गांव को छाप कर बैठ जाता। उपर आसमान के सफेद रुई जैसे बादल उत्तर की ओर भागे चले जा रहे थे। चांद पीला पड़ चुका था और जैसे सहमकर एक कोने में चला गया था।
कुएं में किसी ने बाल्टी डाली और उसकी आवाज़ से कुएं के पास लगे नीम के पेड़ से तोतों का एक झुंड भर्रा मारकर उड़ा और गांव का चक्कर लगाता हुआ उत्तर की ओर चला गया। धीरे-धीरे इधर-उधर के बगानों से कुट्टी काटने की आवाजें आने लगीं। गंडासा चारा काटता हुआ लकड़ी से टकराता और आवाज़ दूर तक फैल जाती। कुट्टी काटने की दूर से आती आवाज़ के साघ्थ कुछ देर बाद घरों से जांता पीसने की आवाज़ भी आने लगी। कुछ देर तक यही दो आवाजें इधर-उधर मंडराती रहीं, फिर बलदेव के घर में आती बाबा बकी फटी और भारी आवाज़, 'भये प्रकट क्रिपाला दीनदयाला. . .' भी कुट्टी काटने और पीसने की आवाजों के साथ मिल गयी। अंधेरा ही था, पर कुछ परछाइयां इधर-उधर आती-जाती दिखायी पड़ने लगी थीं।
सुखवा काका की घर की ओर से एक परछाइयाँ भागी चली आ रही थी। पास आया तो दिखायी पड़ा दीनदयाला। उसने कमीज कंधे पर रखी हुई थी, एक हाथ में जूते, दूसरे में चिउड़ा की पोटली थी। माई के थान पर कई लोग लगा थे। दीनदयाला भी माई के थान पर खड़ी परछाइयों में मिल गया। नीचे टोली से 'ललकारता` रघुबीरा चला आ रहा था। अब इन लोगों की बातें करने की आवाज़ों में दूसरी आवाज़ें दब गयी थीं।
खजुरिया चौक से सिवान स्टेशन के लिए बस मिलती है, पर बस के पैसे किसके पास थे? दातुन-कुल्ला के बाद वे फिर चल पड़े थे। अब सिवार रह ही कितना गया है, बस बीस 'किलोमीटर`! बीस किलोमीटर कितना होता है। चलते-चलते रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी तो बिपिनजी कहते, 'लगाइए ललकारा।' ललकारा लगाया जाता और सुस्त पड़े पैर तेज जो जाते। ग्यारह बजते-बजते सिवान स्टेशन पहुंच गये तो गाड़ी मिलेगी। और फिर पटना।
ट्रेन दनदनाती हुई प्लेटफार्म के नजदीक आती जा रही थी। इंजन के उपर बड़ी बत्ती की तेज रोशनी में रेल की पटरियां चमक रही थी। ट्रेन पूरी गरिमा और गंभीरता के साथ नपे-तुले कदम भरती स्टेशन के अंदर घुसती चली आयी। रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी और दरवाजों पर लटके हुए आदमी प्लेटफार्म की सफेद रोशनी में नहा गये।
इंतजार करते लोगों में इधर-से-उधर तक बिजली-सी दौड़ गयी कि अगर यह ट्रेन निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली नहीं पहुंच पायेंगे। कल शाम तक उसको दिल्ली पहुंचना है, किसी भी हालत में। पोटली में बंधे मकई के सत्तू, चिउड़ा और भूजा इसी हिसाब से रखे गये हैं। ऐसा नहीं है कि दस-पन्द्रह दिन चलते रहेंगे और ऐसा भी नहीं कि गाड़ी नहीं पकड़ पाने का बहाना लेकर लौट जायेंगे। कल शाम दिल्ली जरूर पहुंचना है। सबको। हर हालत में।
ट्रेन खड़ी हो गयी। इस्पात, बिजली के तारों और लकड़ी के टुकड़ों से बनी ट्रेन एक चुनौती की तरह सामने खड़ी थी। यहां से वहां तक ट्रेन देख डाली गयी। पर बैठने क्या, खड़े होने क्या, सांस लेने तक की जगह नहीं है। सेकेंड क्लास के डिब्बे उसी तरह के लोगों से भरे हैं। उनको भी कल किसी भी हालत में दिल्ली पहुंचना है।
'अब क्या होगा बिपिनजी?' यह सवाल बिपिन बिहारी शर्मा से किसी ने पूछा नहीं, पर उन्हें लग रहा था कि हज़ारों बार पूछा जा चुका है।
'बैठना तो है ही। काहे नहीं प्रथम श्रेणी में जायें।'
प्रथम श्रेणी का लंबा-सा डिब्बा बहुत सुरक्षित है। इस्पात के दरवाजे पूरी तरह से बंद। अंदर अलग-अलग केबिनों के दरवाजे पूरी तरह से बंद।
'दरवाजा खुलवा बाबूजी!' धड़-धड़-धड़।
'बाबूजी दरवाजा खोलवा!' धड़-धड़-धड़।
'नीचे बैठ गइले बाबूजी!' धड़-धड़-धड़।
'बाबूजी दिल्ली बहुत जरूरी पहुंचना बा!' धड़-धड़-धड़।
तीन-सौ आदमी बाहर खड़े दरवाजा खोलने के लिए कह रहे थे और जवाब में इस्पात का डिब्बा हंस रहा था। समय तेजी से बीत रहा था। अगर यह गाड़ी भी निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली पहुंच सकेंगे।
'दरवाजे के पास वाली खिरकी तोरते हैं।' बिपिनजी खिड़की के पास आ गये और फिर पता नहीं कहां से आया, किसने दिया, उनके हाथ में एक लोहे का बड़ा सा टुकड़ा आ गया। पूरा स्टेशन खिड़की की सलाखें तोड़ने की आवाज़ से गूंजने लगा।
'कस के मार-मार दरवाजा तोड़े का पड़ी। हमनी बानी एक साथ मिलके चाइल जाई तो. . .' भरपूर हाथ मारने वालों में होड़ लग गयी। दो। सलाखें टूट गयीं तो उनसे भी हथौड़े का काम लिया जाने लगा।
'अरे, ये आप क्या करता हे, फर्स्ट क्लास का डिब्बा है,' काले कोट वाले बाबू ने बिपिन का हाथ पकड़ लिया। बिपिनजी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने पूरी ताकत से नारा लगाया।
'हर जोर जुल्म की टक्कर में'
तीन सौ आदमियों ने पूरी ताकत से जवाब दिया:
'संघर्ष हमारा नारा है।'
काले कोट वाले बाबू को जल्दी ही अपने दोनों कानों पर हाथ रखने पड़े।
'संघर्ष हमारा नारा है' प्रतिध्वनियां इन लोगों के चेहरों पर कांप रही थी।
काले कोट वाले बाबू को समझते देर न लगी कि स्थिति विस्फोटक है। वे लाल झंड़ों और अधनंगे शरीरों के बीच से मछली की तरह फिसलते निकल गये और सीधे स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गये।
कुछ देर बाद उधर से एक सिपाही डंडा हिलाता हुआ आया और सामने खड़ा हो गया।
'क्या तुम्हारे बाप की गाड़ी है?' सिपाही ने बिपिनजी से पूछा।
'नहीं, तुम्हारे बाप की है?' सिपाही ने बिपिन शर्मा को उपर से नीचे तक देखा। चमड़े की घिसी हुई चप्पल। नीचे से फटा पाजामा, उपर खादी का कुर्ता और कुर्ते की जेब में एक डायरी, एक कलम।
'तुम इनके नेता हो?'
'नहीं।'
'फिर कौन हो?'
'इन्हीं से पूछिए।'
सिपाही ने बिपिन बिहारी शर्मा को फिर ध्यान से देखा। उम्र यही कोई तेईस-चौबीस साल। अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं निकली है। आंखों में ठहराव और विश्वास।
'तुम्हारा नाम क्या है?'
'अपने काम से काम रखिए। हमारा नाम पूछकर क्या करेंगे?'
बातचीत सुनने के लिए भीड़ खिसक आयी थी। रामदीन हजरा ने चिउड़ा की पोटली बगल में दबाकर सोचा, यही साली पुलिस थी जिसने उसे झूठे डकैती के केस में फंसाकर पांच-सौ रुपये वसूल कर लिये थे। बलदेव तो पुलिस को मारने की बात बचपन से सोचता है। जबसे उसने अपने पिता के मुंह पर पुलिस की ठोकरें पड़ती देखी हैं, तबसे उसके मन में आता है, पुलिस को कहीं जमके मारा जाये। आज उसे मौका मिला है। उसने डंडे मे लगे झंडे को निकालकर जेब में रख लिया और अब उसके हाथ में डंडा-ही-डंडा रह गया।
'ठीक से जवाब नहीं देंगे तो तुम्हें बंद कर देंगे साले,' सिपाही ने डंडा हवा में लहराते हुए कहा।
'देखो भाई साहब, बंद तो हमें तुम कर नहीं सकते। और ये जो गाली दे रहे हैं, तो हम आपको मारे-पीटेंगे नहीं। आपको वर्दी-पेटी उतारकर वैसे ही छोड़ देंगे।'
सिपाही ने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। चारों तरफ काले, अधनंगे बदनों और लाल झंड़ों की अभेद्य दीवार थी। अब उसके सामने दो ही रास्ते थे, नरम पड़ जाता या गरम। नया-नया लगा था, गरम पड़ गया।
'मादर. . .कानून. . .' फिर पता नहीं चला कि उसकी टोपी, डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा छीनने के लिये बढ़े हों, दस हाथों ने टोपी उतारी हो, सात-आठ आदमी कमीज पर झपटे हों, तीन-चार लोगों ने जूते और मोजे उतारे हो, तो इस काम में कितना समय लगा होगा? अब सिपाही, सिपाही से आदमी बन चुका था। उसके चेहरे पर न रोब था, न दाब। सामने खड़ा था बिलकुल नंगा। इस छीना झपटी में उसकी शानदार मूंछ छोटी, बहुत अजीब लग रही थी। लोग हंस रहे थे।
पता नहीं कहा से विचार आया बहरहाल एक बड़ा-सा लाल झंडा सिपाही के मुंह और सिर पर कसकर लपेटा और फिर पतली रस्सी से पक्का करके बांध दिया गया। उसी रस्सी के दूसरे कोने से सिपाही के हाथ बांध दिये गये।
खोपड़ा और चेहरा लाल, शरीर नंगा। दु:ख, भुखमरी और जुल्म से मुरझाये चेहरों पर हंसी पहाड़ी झरनों की तरह फट पड़ी। उन चेहरों पर हंसी कितनी अच्छी लगती है, जिन पर शताब्दियों से भय, आतंक के कांटे लगे हों।
फिर सिपाही के नंगे चूतड़ पर उसी का डंडा पड़ा और वह प्लेटफार्म पर भागता चला गया।
इन मनोरंजन के बाद काम में तेजी आयी। बाकी बची दो सलाखें जल्दी ही टूट गयीं। शीशा टूटने में कितनी देर लगती है? अब रास्ता साफ था। एक लड़का बंदर की तरह खिड़की में से अंदर कूद गया। अंदर से उसने दरवाजे के बोल्ट खोल दिये।
सारे लोग जल्दी-जल्दी अंदर चढ़े। बत्ती हरी हो चुकी थी और ट्रेन रेंगने लगी थी। लंबे डिब्बे की पूरी गैलरी खचाखच भर गयी। और अब भी लोग दरवाजे के डंडे पकड़े लटक रहे थे। अब केबिन भी खुलना चाहिए। अंदर बैठने की ज्यादा जगह होगी।
बिपिनजी पहले केबिन के बंद दरवाजे के सामने आये।
'देखिए, हमने आपके डिब्बे का बड़ा लोहा वाला दरवाजा तोर दिया है, भीतर आ गइले। केबिन का दरवाजा खोल दीजिए। नहीं तो इसे तोड़ने में क्या टैम लगेगा।'
अंदर से कोई साहब नहीं आया।
'आप अपने से खोल देंगे तो हम केवल बैठभर जायेंगे। और जो हम तोर कर अंदर आयेंगे तो आप लोगों को मारेंगे भी।'
केबिन का दरवाजा खुला। धरीदार कमीज-पाजामा पहने-आदमी ने खोला था। अंदर मद्धिम नीली बत्ती जल रही थी, पर तीनों लोग जगे हुए थे और इस तरह सिमटे-सिकुड़े बैठे थे कि सीटों पर बैठने की काफी जगह हो गयी थी।
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4 राजा
उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता।
ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल। अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।
लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती 'अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!' शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।
एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, 'मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?' लोमड़ी ने उससे कहा, 'ठीक है, तुम परसों आना।' शेर चला गया।
लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।
दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।
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5 योद्धा
किसी देश में एक बहुत वीर योद्धा रहता था। वह कभी किसी से न हारा था। उसे घमंड हो गया था। वह किसी को कुछ न समझता था। एक दिन उसे एक दरवेश मिला। दरवेश ने उससे पूछा, 'तू इतना घमंड क्यों करता है?' योद्धा ने कहा, 'संसार में मुझ जैसा वीर कोई नहीं है।' दरवेश ने कहा, 'ऐसा तो नहीं है।'
योद्धा को क्रोध आ गया, 'तो बताओ पूरे संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैं हरा न सकता हूं।'
दरवेश ने कहा, 'चींटी है।'
यह सुनकर योद्धा क्रोध से पागल हो गया। वह चींटी की तलाश में निकलने ही वाला था कि उसे घोड़ी की गर्दन पर चींटी दिखाई दी। योद्धा ने चींटी पर तलवार का वार किया। घोड़े की गर्दन उड़ गई। चींटों को कुछ न हुआ। योद्धा को और क्रोध आया। उसने चींटी को ज़मीन पर चलते देखा। योद्धा ने चींटी पर फिर तलवार का वार किया। खूब धूल उड़ी। चींटी योद्धा के बाएं हाथ पर आ गई। योद्धा ने अपने बाएं हाथ पर तलवार का वार किया, उसका बायां हाथ उड़ गया। अब चींटी उसे सीने पर रेंगती दिखाई दी। वह वार करने ही वाला था कि अचानक दरवेश वहां आ गया। उसने योद्धा का हाथ पकड़ लिया।
योद्धा ने हांफते हुए कहा, 'अब मैं मान गया। बड़े से, छोटा ज्यादा बड़ा होता है।'
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6 बंदर
एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा, 'भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।'
यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला, 'चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूं।'
बंदर बोला, 'तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूं।'
इस पर आदमी तैयार हो गया।
आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला, 'भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।'
आदमी ने कहा, 'हज़ारों लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।'
बंदर रोने लगा, 'भाई, इतना अत्याचार न करो।' पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुंचा और नज़रों से ओझल हो गया।
विवश होकर बंदर लौट आया।
और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।
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7 चंद्रमा के देश में
हम दिल्ली के रहने वाले जब छोटे शहरों या कस्बों में पहुंचते हैं तो हमारे साथ कुछ इस तरह का बर्ताव किया जाता है जैसे पहले ज़माने में तीर्थयात्रा या हज से लौटकर आए लोगों के साथ होता था। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम हिंदुस्तान के दिल दिल्ली की रग-रग जानते हैं। प्रधानमंत्री से न सही तो मंत्रियों से तो मिलते होंगे। मंत्रियों से न सही तो उनके चमचों से तो टकराते ही होंगे। हमसे उम्मीद की जाती है हम अखबारों में छपी खबरों के पीछे छिपी असली खबरों को जानते होंगे। नई आने वाली विपदाओं और परिवर्तनों की जानकारी हमें होगी। हमसे लोग वह सब सुनना चाहते हैं जिसकी जानकारी हमें नहीं होगी। लेकिन मुफ़्त में मिले सम्मान से कौन मुंह मोड़ लेगा? और वह भी अगर दो-चार उल्टी-सीधी बातें बनाकर मिल सकता हो, तो फिर मैं विश्वसनीय गप्पें पूरे कस्बे में फैल जाती हैं। रात तक दूसरे शहर और अगले दिन तक राज्य में इस तरह फैलती हैं, जैसे वहीं की जमीन से निकली हों।
छुट्टियों के समय बर्बाद करने के लिए वहां कई जगहें हैं। उनमें से एक 'खादी आश्रम` भी है। चूंकि वहां के कर्मचारी फुर्सत में होते हैं। आसपास में लड़-लड़कर थक चुके होते हैं इसलिए ग्राहकों से दो-चार बातें कर लेने का मोह उन्हें बहुत शालीन बना देता है। अच्छी बात है कि गांधीजी ने खादी की तरह समय के सदुपयोग के बारे में जोर देकर कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिससे उनके अनुयायियों को समय बर्बाद करने में असुविधा महसूस हो। लेकिन समय के बारे में ऐसी कोई बात न कहकर गांधीजी ने संस्थाएं बनाने वालों के साथ जरूर अन्याय किया है, नहीं तो अब तक 'समय आश्रम` जैस कई संस्थाएं बन चुकी होतीं।
सफेद कुर्ता-पाजामाधरी युवक पान खाए था। मुझे अंदर आता देखकर उसने खादी प्रचारक से अपना वाकयुद्ध कर दिया और इत्मीनान से खादी के थान पर थान दिखाने लगा। मैं इस तरह जैसे गांधीजी के बाद दूसरा आदमी होऊँ जिसने खादी के महत्व का समझा हो, खादी देखता रहा। बीच-बीच में बातचीत होती रही। खादी आश्रम का विक्रेता कुछ देर बाद थोड़ा आत्मीय होकर बोला, 'श्रीमान, आप जैसी खादी-प्रेमी यहां कम आते हैं?'
मैं बात करने का मौका क्यों छोड़ देता। पूछा, 'कैसे?'
बोला, 'यहां तो टिंपरेरी खादी-प्रेमी आते हैं?'
'ये क्या होता है?'
'अरे मतलब यही श्रीमान कि लखनऊ वाली बस पकड़ने से पहले धड़धड़ाते हुए आए। पैंट, कमीज उतारी। सफेद कर्ता-पाजामा खरीदा। पहना। टोपी लगाई। सड़क पर आए। लखनऊ जाने वाली बस रुकवाई। चढ़ने से पहले बोले, 'शाम को पैंट-कमीज ले जाएंगे।` और सीधे लखनऊ।'
इस पर याद आया कि मरे भाई जो वकील हैं, एक बार बता रहे थे कि एक पेशेवर डाकू जो उनका मुवक्किल था, बहुत दिनों से कह रहा था कि वकील साहब हमें 'सहारा` दिला दो। खैर, तो एक दिन वह शुभ दिन आया। हमारे भाई साहब, उनके दो दोस्त और पेशेवर डाकू भाड़े की टैक्सी पर लखनऊ की तरफ रवाना हुए। जैसे ही टैक्सी लखनऊ में दाखिल होने लगी, डाकू ने टैक्सी वाले को रुकने का आदेश दिया। टैक्सी रुकी। वे लोग समझे, साले को टुट्टी-टट्टी लगी होगी। वह अपना थैला लेकर झाड़ियों के पीछे चला गया। कुछ मिनट बाद झाड़ियों के पीछ से मंत्री निकला। सिर खादी की टोपी में, पैर खादी के पाजामे में, बदन खादी के कुर्ते में। पैर गांधी चप्पल में।
इनमें से एम ने पूछा, 'ये क्या?'
'जरूरी हे। उकील साब, जरूरी है,' वह बोला।
'अमां तुम तो हमसे होशियार निकले।'
'सो तो हइये है उकील साब!'
अपना खादी-प्रेम प्रदर्शित करके और दो कुर्तों का कपड़ा बगल में इस तरह दबाए जैसे वही गांधीजी द्वारा देश के लिए छोड़ी संपूर्ण संपत्ति हो, मैं आगे बढ़ा। अब मेरा निशाना एक गृहस्थ आश्रम था।
अब छोटे शहरों में किसी भी चीज की कमी हो, वकीलों की कमी नहीं है। हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के वकील हैं। यही कारण है कि हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के लोगों के मुकदमेबाजियां हैं। कहने का मतलब यह कि वकीलों की कमी नहीं है।
इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? आप चाहें तो मोतीलाल नेहरू या जवाहरलाल नेहरू को दे सकते हैं, लेकिन मैं तो ऐसा नहीं करूंगा, क्योंकि ये हमारे वकीलों के पुरखे नहीं हो सकते। कहां तो उनके विलायत से धुलकर कपड़े आते थे और कहां ये विलायत से मंगवाकर कपड़े धोते हैं। इतने अंतर के कारण इन्हें किसी और का ही जांनशीन कहा जाना चाहिए। ये फैसला आप करें, क्योंकि वकीलों के लिए किसी पर मानहानि का मुकदमा दाग देना उतना ही आसान है, जितना हमारे आपके लिए एक सिगरेट सुलगा लेना।
वकील साहब का घर यानी 'गृहस्थ आश्रम` नजदीक था। छके हुए वकील हैं। छके हुए शब्दों के दो अर्थ हैं। पतला मतलब खूब खाए-पिए, मोटे-ताजे, तंदुरुस्त। दूसरा मतलब परेशान, सताए गए, थके हुए। कहते हैं कि यार यह काम करते-करते मैं छक गया। तो वकील साहब दूसरी तरह के छके हुए आदमी हैं। उर्दू के इम्तहानात यानी 'अदीब` वगैरा पास करके बी.ए. किया था। फिर अलीगढ़ से एल.एल.बी। उसके बाद की पढ़ाई यानी जो असली पढ़ाई थी, यानी मजिस्ट्रेटों और जजों को कैसे काबू किया जाए। ये न पढ़ सके थे। इसीलिए जीवन के इम्तहान में फेल हो गए थे।
मैं उनके घर पहुंचा तो खुश हो गए। मुझमें उम्र में आठ-दल साल बड़े हैं इसका हम दोनों को एहसास है। और इसका ख्याल करते हैं। फिर वकील साब को अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। अपनी जिंदगी में अब तक ये काम कर चुके हैं: खेती करवा चुके हैं, भट्टे लगवा चुके हैं, अनाज की मंडी लगवा चुके हैं, मोजे बुनवाने का काम किया है, पावरलूम लगवा चुके हैं, डेरी खोल चुके हैं और आपकी दुआ से इन सब कामों में इन्हें घाटा हो चुका है। सब काम बंद हो चुके हैं। कुछ कर्ज अब तक चुका रहे हैं। कुछ का चुक चुका है। अब आपको जिज्ञासा होगी कि ऐसे हालात में वकील साहब की गाड़ी कैसी चल रही है। वकील साहब के पिताश्री ने उनको किराए की तीन दुकानें और एक मकान एक तरह छोड़े हैं कि वकील साहब को ये लगता ही नहीं कि वालिद मरहूम हकीकत में मरहूम हो चुके हैं। इसके अलावा वकील साहब कचहरी रोज जाते हैं तो दस-बीस रुपया बन ही जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि खाली हाथ आए। अरे दो दरख्वास्तें ही लिख दीं तो दस रुपये हो गए।
'आओ. . .कब आए?'
'परसों। जी वो. . .'
'खैर छोड़ो. . .सुनाओ दिल्ली के क्या हाल हैं।'
फिर वही दिल्ली। अरे आप लोग दिल्ली को छोड़ क्यों नहीं देते। ये क्यों नहीं कहते कि दिल्ली जाए चूल्हे भाड़ में, यहां के हाल सुनो!
'कोई खास बात नहीं।'
'बिजली तो आती होगी?'
'हां, बिजली हो आती है।'
'यहां तो साली दिन-दिन-भर नहीं आती। सुनते हैं इधर की बिजली काटकर दिल्ली सप्लाई कर देते हैं।'
'हां जरूर होता होगा।'
'होगा नहीं, है। इधर के पढ़े-लिखे लोग नौकरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर के मजदूर मजदूरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर का माल बिकने दिल्ली जाता है।'
'दिल्ली से अधर कुछ नहीं आता?' मैंने हंसकर पूछा।
'हां आता है. . .आदेश. . .हुक्म. . .और तुम कह रहे हो दिल्ली में कोई खास बात नहीं है। अरे मैं तुम्हें गारंटी देता हूं कि दिल्ली में वक्त हर कहीं कोई-न-कोई खास बात होती रहती है।'
'और आप आजकल क्या कर रहे हैं?'
'मियां, सोचते है। एक इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल खोल दें। बताओ कैसा आइडिया है? दिल्ली में तो बड़े-बड़े इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।'
'लेकिन. . .'
उन्होंने मेरी बात काटी, 'लेकिन क्या,' वे शेर की तरह बमके। मैं समझ गया कि वे मन-ही-मन इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने की बात ठान चुके हैं।
'क्या कुछ इस्कोप है?'
'इस्कोप-ही-स्कोप है। आज शहर में आठ इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल हैं। सब खचाखच भरे रहते हैं। सौ रुपया महीने से कम कहीं फीस नहीं लगती। सौ बच्चे भी आ गए तो फीस-ही-फीस के दस हज़ार महीना हो गए। टीचरें रख लो आठ-दस। उनको थोड़ा बहुत दिया जाता है।. . .मकान-वकान का किराया निकालकर सात-आठ हज़ार रुपया महीना भी मुनाफा रख लो तो इतनी आमदनी और किस धंधे से होगी? और फिर दो टीचर तो हम घर ही के लोग हैं।'
'घर के, कौन-कौन?'
'अरे मैं और सईद।'
उनको चूंकि अपना बड़ा मानता हूं और चूंकि वे मेरा हमेशा खयाल करते हैं, इसलिए दिल खोलकर हंसने की ख्वाहिश दिल ही में रह गई। वकील साहब को अगर छोड़ भी दें तो उनके सुपुत्र सईद मियां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हुए मुझे कल्पना में ऐसे लगे जैसे भैंस उड़ रही हो। पेड़ की जड़ें उपर हों और डालियां जमीन के अंदर। मतलब ऐसा लगता है, जैसे उसे दुनिया का आठवां अजूबा मान लिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं, पूरे-के-पूरे बेल्ट में अंग्रेजी की जो हालत है, किसी से छिपी नहीं है। यह अच्छा है या बुरा, यह अपने-आप में डिबेटेबुल प्वाइंट हो सकता है। लेकिन 'एम` को 'यम`, 'एन` को 'यन` और 'वी` को 'भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।
यह तो हुई सबकी हालत। इसकी तुलना में सईद मियां की हालत सोने पर सुहागे जैसी है। जब पढ़ाते थे तब अंग्रेजी का नाम सुनते ही किसी नए नाथे गए बछड़े की तरह बिदकते थे और 'ग्रामर` का नाम सुनते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम नहीं नहीं हो जाया करती थी, खून खुश्क हो जाया करता था। कुछ शब्द तो उन पर गोली से ज्यादा असर करते थे, जैसे 'पंक्चुएशन`, 'डायरेक्ट इनडायरेक्ट टेंस`, 'फिल इन द ब्लैंक्स`। अंग्रेजी के अध्यापक को वे कसाई और आपको बकरा समझते थे।
सईद मियां को इंटर में अंग्रेजी के पर्चे में तीन सवाल नकल करते ही लगा था, जैसे एवरेस्ट फतह कर ली हो। उसके बाद कहां अंग्रेजी और कहां सईद मियां वे हथेली पर सरसों जमाना न जानते थे। होगी दुनिया में धूम-अपने ठेंगे पर।
वकील साहब ने फिर प्वाइंट क्लीयर किया, 'भई हमें इन इंग्लिस स्कूल वालों का सिस्टम अच्छा लगा। रटा दो लौंडों को। दे दो सालों को होम वर्क। मां-बाप कराएं, नहीं तो टीचर रखें। हमारे ठेंगे से। होम वर्क पूरा न करता हो तो मां-बाप को खींच बुलवाओ और समझाओ कि मियां बच्चे को अंग्रेजी मिडीयम में पढ़वा रहे हो, हंसी-मजाक नहीं है। फिर कसकर फीस लो। आज इस नाम से, तो कल उस नाम से। बिल्डिंग फंड, फर्नीचर फंड, पुअर फंड, टीचर फंड और स्कूल फंड. . .' वे हंसने लगे।
'हां, ये बात तो है।'
'अरे भइ भूल ही गया. . .चाय. . .लेकिन चाय तो तुम पीते ही रहते होंगे. . .बेल का शरबत पियोगे?'
जी में आया कि कहं, हुजूर, अब तो बियर पिलाइए। कहां इंग्लिश मीडियम, कहां बेल का शरबत।
बेल का शरबत आने से पहले आए सईद मिया। उन्हें देखते ही वकील साहब खुश हो गए, बोले, ' आओ आओ, बैठो। स्कूल के बारे में ही बात कर रहे हैं।'
मैंने सईद मियां के चेहरे पर वह सब कुछ देख लिया जो उनके बारे में लिखा जा चुका है।
'जी!' उन्होंने छोटा-सा जवाब दिया और बैठ गए। वकील साहब इस बात पर यकीन करने वाले आदमी हैं कि बच्चों को खिलाओ सोने का निवाला, पर देखो शेर की निगाह से। तो उन्होंने सईद मियां को हमेशा शेर की निगाह से देखा है और सईद मियां ने 'अकबर` इलाहाबादी के अनुसार 'अब काबिले जब्ती किताबें` पढ़ ली हैं और 'बाप को खब्ती` समझते हैं।
लेकिन सईद मिया खब्ती बाप से बेतहाशा डरते हैं। वकील साब इसे कहते हैं, लड़का सआदतमंद है। लेकिन इधर कुछ साल से इस सआदतमंदी में कुछ कमी आ रही है। दरअसल चक्कर यह है कि वकील साहब ने बेटों को चकरघिन्नी की तरह नचाया है। एक तो बेटे का पूरा कैरियर ही 'शानदार` था, दूसरे वकील साहब की रोज-रोज बनती-बिगड़ती योजनाओं ने सईद मियां को बुरी तरह कन्फ़्यूज़ कर रखा है। वकील साहब ने कभी उन्हें कम्प्यूटर साइंटिस्ट, कभी चार्टर्ड एकाउंटेंट, कभी एक्सपोर्टर वगैरा बनाने की ऐसी कोशिश की कि सईद मियां कुछ न बन सके।
'अब तुम कोई अच्छा-सा नाम बताओ स्कूल के लिए। यहां तो यही सिटी मांटेसरी, इंग्लिस मिडियम पब्लिक नाम चलते हैं। लेकिन नाम अंग्रेजी में होना चाहिए. . .वो मुझे पसंद नहीं कि स्कूल तो इंग्लिश मिडियम है लेकिन नाम पक्का हिंदी का है।' वे मेरी तरफ देखने लगे, 'अरे दिल्ली में तो बहुत इंग्लिस मीडियम स्कूल होंगे. . .उनमें से दो-चार के नाम बताओ।'
फिर आ गई दिल्ली। मैंने मन में दिल्ली को मोटी-सी गाली दी और दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के नाम सोचने लगा।
'ज़रा माडर्न फैशन के नाम होना चाहिए,' वे बोले।
मैंने सोचकर कहा, 'टाइनी टॉट।'
'टाइनी टॉट? ये क्या नाम हुआ? नहीं नहीं, ये तो बिलकुल नहीं चलेगा. . .अरे मियां, कोई समझेगा ही नहीं। अब तो कमस खुदा की, मैं भी नहीं समझा टाइनी क्या बला है। क्यों सईद मियां, क्या ख्य़ाल है?'
सईद मियां गर्दन इनकार में हिलाने लगे और और बोले, 'चचा, यहां तो सिटी मांटेसरी और इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल ही समझते हैं और वो. . .' उनकी बात काटकर वकील साहब बोले, 'वो भी हिंदी में लिखा होना चाहिए।'
'टोडलर्स डेन,' फिर मैंने मजाक में कहा, 'रख लीजिए।'
इस पर तो वकील साहब लोटने लगे। हंसते-हंसते उनके पेट में बल पड़ गए। बोले, 'वा भई वाह. . .क्या नाम है. . .जैसे मुर्गी का दड़बा।'
अब सईद मियां की तरफ मुड़े, 'तुम अंग्रेजी की प्रैक्टिस कर रहे हो?'
'जी हां।'
'क्या कर रहे हो?'
'प्रेजेंट, पास्ट और 'फ़्यूचर टेंस याद कर रहा हूं।'
'पिछले हफ़्ते भी तुमने यही कहा था। अच्छी तरह समझ लो कि मैं स्कूल में एक लफ़्ज़ भी हिंदी या उर्दू का नहीं बर्दाश्त करूंगा।'
'जी हां,' सईद मियां बोले।
'बच्चों से तो अंग्रेजी में बता कर सकते हो?'
'क्यों नहीं कर सकता. . .जैसे ये सिटी व इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल, जो शहर का टॉप इंग्लिस स्कूल है, की टीचरें बच्चों से अंग्रेजी में बात करती हैं, वैसे तो कर सकता हूं।'
'ये कैसे?' मैंने पूछा।
'अरे चचा, कापी में लिख लेती हैं। पहले सवाल लिखती हैं जो बच्चों को रटा देती हैं। जैसे बच्चों से कहती हैं अगर तुमको बाथरूम जाना है तो कहा, 'मैम में आई गो टु बाथरूम।` जब बच्चे उनसे पूछते हैं तो वे कापी में देखकर जवाब दे देती हैं।'
'लेकिन इस सवाल का जवाब देने के लिए तो कापी में देखने की जरूरत नहीं है।'
'चचा, यह तो एग्जांपल दी है। करती ऐसा ही हैं।'
'अच्छा जनाब, एडमीशन के लिए जो लोग आएंगे, उनसे भी आपको अंग्रेजी ही में बातचीत करनी पड़ेगी।' मुझे लगा वकील साहब और सईद मियां के बीच रस्साकशी हो रही है। इस सवाल पर सईद मियां थोड़ा कसमसाए, फिर बोले, 'हां अगर वो लोग अंग्रेजी में बोले तो मैं भी अंग्रेजी में बोलूंगा।' वकील साहब जवाब सुनकर सकते में आ गए। सब जानते हैं कि इस शहर में जो लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मिडियम स्कूल में दाखिल कराने आएंगे, वे अंग्रेजी नहीं बोल सकते।
'यही तो तुम्हारी गलती है. . .तुम अपना सब काम दूसरों के हिसाब से करते हो. . .अरे तुम्हें क्या. . .वे चाहे बोले, चाहे न बोलो. . .तुम अपना अंग्रेजी पेलते रहो. . .साले समझें तो कहां आ गए हैं।'
'यानी चाहे समझ में आए न आए?'
'बिलकुल।'
'तो ठीक है, यही सही,' सईद मियां का चेहरा खिंच गया।
कुछ देर बाद वकील नरम होकर बोले, 'अब ऐसा भी कर देना कि साले भाग ही जाएं।'
'नहीं-नहीं, भाग क्यों जाएंगे।'
वकील साहब ने बताया कि उनके जमाने में हिंदी-इंग्लिश ट्रांसलेशन में इस तरह के जुमले दिए जाते थे, जैसे आज बाजार में जूता चल गया, या वह चप्पल लेकर नौ-दो ग्यारह हो गया। फिर वकील साहब ने कहा, 'मैं यह भी सोचता हूं कि सईद मियां को टीचिंग में न डालूं. . .इन्हें वाइस प्रिंसिपल बना दूं।'
'क्यों?' मैंने पूछा।
'अरे भाई स्कूल में पांच-छ: लड़कियां पढ़ाएंगी. . .ये उनके बीच कहां घुसेंगे।' मैं पूरी बात समझ गया। सईद मियां भी समझ गए और झेंप गए।
शर्बत आने के बाद वकील साहब बातचीत को स्कूल के नाम की तरफ घसीट लाए। वे चाहते थे, ये मसला मेरे सामने ही तय हो जाए। सेंट पॉल, सेंट जांस, सेंट कोलंबस जैसे नाम उन्हें पसंद तो आए, पर डर यही था कि यहां उन नामों को कोई समझेगा नहीं। स्थानीय लोगों के अज्ञान पर रोते हुए वकील साहब बोले, 'अमां मिया धुर गंवार. . .साले गौखे . . .ये लोग क्या जानें सेंट क्या होता है. . .घुर गंवार. . .मैली-चिक्कट धोती और गंदा सलूका, पांव में चमरौधा जूता- मुंह उठाये चलते जाते हैं। हिंदी तक बोलनी नहीं आती, लेकिन कहते हैं, 'बबुआ का इंगरेजी इस्कूल में पढ़ावा चहत हन। टेंट में दो-तीन हज़ार के नोट दाबे रहता है. . .अब तुम ही बताओ, मुनाफे का धंधा हुआ कि न हुआ?'
'बिलकुल हुआ।'
रात उपर आसमान में तारे-ही-तारे थे। चांदनी फैली हुई थी। रात की रानी की महक बेरोक-टोक थी। अच्छी-खासी तेज़ हवा न चल रही होती तो मच्छर इस सुहावनी रात में फिल्मी खलनायकों जैसा आचरण करने लगते। बराबर में सबकी चारपाइयां बिछी थीं। सब सो रहे थे। रात का आखिरी पहर था। मैं वकील साहब से जिरह कर रहा था, 'आप ये क्यों नहीं समझते कि पूरी दुनिया में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है।'
'मुझे क्या मतलब लोगों से, क्या मतलब मातृभाषा से. . .ये तो धंधा है. . .धंधा। हर आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़वाना चाहता है।'
'लेकिन क्यों?'
'अंग्रेजी तो पानी है. . .जैसे बिन पानी सब सून है. . .वैसे ही बिन अंग्रेजी सब कुछ सूना है।'
'लेकिन ऐसा है क्यों?'
'अंग्रेज़ी हम लोगों के हुक्मरानों की जबान है।'
'क्या अब भी कोई हमारे उपर शासन करता है?'
वकील साहब जोर से हंसे, 'तुम यही नहीं जानते?'
मैंने दिल में कहा, 'जानता हूं पर मानता नहीं।`
वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ इस तरह बोलने लगे जैसे उनका एक-एक वाक्य पत्थर पर खिंची लकीर जैसा सच हो- 'अंग्रेजी से आदमी की इज्जत होती है. . .'रुतबा. . .पोजीशन. . .पावर. . .जो इज्जत तुम्हें अंग्रेजी बोलकर मिलेगी वह हिंदी या उर्दू या दीगर हिंदुस्तानी जुबानें बोलकर मिलेगी?' उन्होंने सवाल किया।
'हां मिलेगी. . .आज न सही तो कल मिलेगी।'
हवा के झोंकों ने मच्छरों को फिर तितर-बितर कर दिया। रात की रानी की महक दूर तक फैल गयी। पूरब में मीलों दूर 'सूर्य के देश में` सुबह हो चुकी होगी।
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8 हरिराम और गुरु-संवाद
(1)
गुरु : तुम्हारा जीवन बर्बाद हो गया हरिराम!
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : तुम जीभी चलाना न सीख सके!
हरिराम : पर मुझे तलवार चलाना आता है गुरुदेव!
गुरु : तलवार से गरदन कटती है, पर जीभ से पूरा मनुष्य कट जाता है।
(2)
गुरु : हरिराम, भीड़ में घुसकर तमाशा देखा करो।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए की भीड़ में घुसकर तमाशा न देख सके तो खुद तमाशा बन जाओगे!
(3)
हरिराम : क्रांति क्या है गुरुदेव?
गुरु : क्रांति एक चिड़िया है हरिराम!
हरिराम : वह कहां रहती है गुरुदेव!
गुरु : चतुर लोगों की ज़ुबान पर और सरल लोगों के दिलों में।
हरिराम : चतुर लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके गीत गाते हैं और समय आने पर उसे चबा जाते हैं।
हरिराम : और सरल लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : वह उनके हाथ कभी नहीं आती।
(4)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक हड्डी के लिए दो भूखे कुत्ते लड़ रहे हों तो उन्हें देखकर एक सरल आदमी क्या करेगा?
गुरु : बीच-बचाव कराएगा।
हरिराम : और चतुर आदमी क्या करेगा?
गुरु : हड्डी लेकर भाग जाएगा।
हरिराम : और राजनीतिज्ञ क्या करेगा?
गुरु : दो भूखे कुत्ते वहां और छोड़ देगा।
(5)
हरिराम : आदमी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक प्रकार का जानवर है हरिराम!
हरिराम : यह जानवर क्या करता है गुरुदेव?
गुरु : यह विचारों का निर्माण करता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों के महल बनाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर उनमें विचरता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों को खा जाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर नए विचारों का निर्माण करता है।
(6)
हरिराम : संसार क्या है गुरुदेव?
गुरु : एक चारागाह है हरिराम!
हरिराम : उसमें कौन चरता है?
गुरु : वही चरता है जिसके आंखें होती हैं।
हरिराम : आंखें किसके होती हैं गुरुदेव?
गुरु : जिसके जीभ होती है।
हरिराम : जीभ किसके होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास बुद्धि होती है।
हरिराम : बुद्धि किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास दुम होती है।
हरिराम : दुम किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसे दुम की इच्छा होती है।
(7)
गुरु : हरिराम, बताओ सफलता का क्या रहस्य है?
हरिराम : कड़ी मेहनत गुरुदेव!
गुरु : नहीं।
हरिराम : बुद्धिमानी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : ईमानदारी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : प्रेम?
गुरु : नहीं।
हरिराम : फिर सफलता का क्या रहस्य है गुरुदेव?
गुरु : असफलता।
(8)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक सुंदर स्त्री के पीछे दो प्रेमी लड़ रहे हों तो स्त्री को क्या करना चाहिए।
गुरु : तीसरे प्रेमी की तलाश।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए कि स्त्री के पीछे लड़ने वाले प्रेमी नहीं हो सकते।
(9)
हरिराम : सबसे बड़ा दर्शन क्या है गुरुदेव?
गुरु : हरिराम, सबसे बड़ा दर्शन चाटुकारिता है।
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : इस तरह कि चाटुकार बड़े-से-बड़े दर्शन को चाट जाता है।
(10)
हरिराम : ईमानदारी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक भयानक जानलेवा बीमारी का नाम है।
हरिराम : क्या ये बीमारी हमारे देश में भी होती है?
गुरु : हरिराम, बहुत पहले प्लेग, टी.बी. और हैजे की तरह इसका भी कोई इलाज न था। तब ये हमारे देश में फैलती थी और लाखों लोगों को चट कर जाती थी।
हरिराम : और अब गुरुदेव?
गुरु : अब उस दवा का पता चल गया है, जिसके कारण यह बीमारी रोकी जा सकती है।
हरिराम : उस दवा का क्या नाम है गुरुदेव?
गुरु : आज बच्चे-बच्चे की जुबान पर उस दवा का नाम है लालच।
***-***
9 स्विमिंग पूल
मुझे लग रहा था कि जिसका मुझे डर था, वही होने जा रहा है। और अफसोस यह कि मैं कोशिश भी करूं तो उसे रोक नहीं सकता। मैंने कई प्रयत्न किए कि पत्नी मेरी तरफ देख लें ताकि इशारे-ही-इशारे में उन्हें खामोश रहने का इशारा कर दूं, लेकिन वे लगातार वी.आई.पी. से बातें किए जा रही थीं! मेरे सामने कुछ दूसरे अतिथि खड़े थे, जिन्हें छोड़कर मैं एकदम से पत्नी और वी.आई.पी. की तरफ नहीं जा सकता था। प्रयास करता हुआ जब तक मैं वहां पहुंचा तो पत्नी वी.आई.पी. से 'उसी` के बारे में बात कर रही थीं। धाराप्रवाह बोल रही थीं। मैं शर्मिंदा हुआ जा रहा था। जब मुझसे खामोश न रहा गया तो बोला, 'अरे छोड़ो, ठीक हो जाएगा।'
पत्नी गुस्से में बोली, 'आपको क्या है, सुबह घर से निकल जाते हैं तो रात ही में वापस आते हैं। जो दिन-भर घर में रहता हो उससे पूछिए कि क्या गुज़रती है।'
यह कहकर पत्नी फिर 'उसके` बारे में शुरू हो गईं। मैं दिल-ही-दिल में सोचने लगा कि पत्नी पागल नहीं हो, हद दर्जे की बेवकूफ जरूर है जो इतने बड़े, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली वी.आई.पी. से शिकायत भी कर रही है तो ये कि देखिए हमारे घर के सामने नाला बहता है, उसमें से बदबू आती है, उसमें सुअर लौटते हैं, उसमें आसपास वाले भी निगाह बचाकर गंदगी फेंक जाते है।, नाले को कोई साफ नहीं करता। सैंकड़ों बार शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी हैं। एक बार तो किसी ने मरा हुआ इतना बड़ा चूहा फेंक दिया था। वह पानी में फूलकर आदमी के बच्चे जैसा लगने लगा था।
यह सच है कि हमने घर के सामने वाले नाले की शिकायतें सैकड़ों बार दर्ज कराई हैं। लेकिन नाला साफ कभी नहीं हुआ। उसमें से बदबू आना कम नहीं हुई। जब हम लोग शिकायतें करते-करते थक गए तो ऐसे परिचितों से मिले जो इस बारे में मदद कर सकते थे, यानी कुछ सरकारी कर्मचारी या नगरपालिका के सदस्य या और दूसरे किस्म के प्रभावशाली लोग। लेकिन नाला साफ नहीं हुआ। हमारे यहां जो मित्र लगातार आते हैं, वे नाला-सफाई कराने संबंधी पूरी कार्यवाही से परिचित हो गए हैं। सब जानते हैं कि इस बारे में उपराज्यपाल को दो रजिस्टर्ड पत्र जा चुके हैं। इसके बारे में एक स्थानीय अखबार में फोटो सहित विवरण छप चुका है। इसके बारे में महानगरपालिका के दफ़्तर में जो पत्र भेजे गए हैं उनकी फ़ाइल इतनी मोटी हो गई है कि आदमी के उठाए नहीं उठती, आदि-आदि।
वी.आई.पी. को घर बुलाने से पहले भी मुझे डर था कि पत्नी कहीं उनसे नाले का रोना न लेकर बैठ जाएं। क्योंकि मैं उनकी मानसिक हालत समझता था, इसलिए मैंने उन्हें समझाया था कि देखो नाला-वाला छोटी चीज़ें हैं, वह वी.आई.पी. के बाएं हाथ का भी नहीं, आंख के इशारे का काम है। ये काम तो उनके यहां आने की खबर फैलते ही, अपने-आप हो जाएगा। लेकिन इस वक्त पत्नी सब कुछ भूल चुकी थीं। मजबूरन मुझे भी वी.आई.पी. के सामने 'हां` 'हूं` करनी पड़ रही थी। आखिरकार वी.आई.पी. ने कहा कि यह चिंता करने की कोई बात नहीं है।
वी.आई.पी. के आश्वासन के बाद ही पत्नी कई साल के बाद ठीक से सो पाईं। उन्हें दोस्तों और मोहल्ले वालों ने बधाई दी कि आखिर काम हो ही गया।
वी.आई.पी. के आश्वासन से हम लोग इतने आश्वस्त थे कि एक-दो महीने तो हमने नाले के बारे में सोचा ही नहीं, उधर देखा ही नहीं। नाला हम सबको कैंसर के उस रोगी जैसा लगता था जो आज न मरा तो कल मर जाएगा।. . .कल न सही तो परसों. . .पर मरना निश्चित है। धीरे-धीरे नाला हमारी बातचीत से बाहर हो गया।
जब कुछ महीने गुज़र गए तो पत्नी ने महानगर पालिका को फोन किया। वहां से उत्तर मिला कि नाला साफ किया जाएगा। फिर कुछ महीने गुज़रे, नाला वैसे का वैसा ही रहा। पत्नी ने वी.आई.पी. के ऑफिस फोन किए। वे इतने व्यस्त थे, दौरों पर थे, विदेशों में थे कि संपर्क हो ही नहीं सका।
महीनों बाद जब वी.आई.पी. से संपर्क हुआ तो उन्हें बहुत आत्मविश्वास से कहा कि काम हो जाएगा। चिंता मत कीजिए। लेकिन यह उत्तर मिले छ: महीने बीत गए तो पत्नी के धैर्य का बांध टूटने लगा। वे मंत्रालय से लेकर दीगर दफ़्तरों के चक्कर काटने लगीं। इस मेज से उस मेज तक। उस कमरे से इस कमरे तक। सिर्फ 'हां` 'हां` 'हां` 'हां` जैसे आश्वासन मिलते रहे, लेकिन हुआ कुछ नहीं।
एक दिन जब मैं ऑफिस से लौटकर आया तो पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में बहुत-से फल बहते देखे हैं। मैंने कहा, 'किसी ने फेंके होंगे।'
इस घटना के दो-चार दिन बाद पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में किताबें बहती देखी हैं। यह सुनकर मैं डर गया। लगा शायद पत्नी का दिमाग हिल गया है, लेकिन पत्नी नार्मल थीं।
फिर तो पत्नी ही नहीं, मोहल्ले के और लोग भी नाले में तरह-तरह की चीजें बहती देखने लगे। किसी दिन जड़ से उखड़े पेड़, किस दिन चिड़ियों के घोंसले, किसी दिन टूटी हुई शहनाई।
एक दिन देर से रात गए घर आया तो पत्नी बहुत घबराई हुई लग रही थीं। बोली, 'आज मैंने वी.आई.पी. को नालें में तैरते देखा था। वे बहुत खुश लग रहे थे। नाले में डुबकियां लगा रहे थे। हंस रहे थे। किलकारियां मार रहे थे। उछल-कूद रहे थे, जैसा लोग स्विमिंग पूल में करते हैं!'
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10 ज़ख्म़
बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे 'गर्मी बहुत बढ़ गयी है` या 'अबकी पानी बहुत बरसा` जैसी खबरें सुनी जाती हैं। दंगों की खबर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा 'कर्फ़्यूग्रस्त` हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम-काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर आते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्राय: हाशिए पर ही छाप देते हैं। हां, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती है, नहीं तो सामान्य।
यह भी एक स्वस्थ परंपरा-सी बन गयी है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा होने के तुरंत बात न करके सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातांत्रिक तरीके से काम करने में समय लगता है क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी का प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी एक तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नया कमेटी बनायी जाती है जिसका काम सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है। अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतांत्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाये, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतांत्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिंदी, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतांत्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिंदी, मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकाशप्राप्त एक लेफ़्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अल्पसंख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुसलमान हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिंदू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में उनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे और बड़े-बड़े पदों पर आसीन या अवकाशप्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।
एक दिन सो कर उठा और हस्बे-दस्तूर आंखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी 'पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गये। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।` पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्माबपुरे में भी हुआ है। कस्माबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने ही शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की एक दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे 'कान्टैक्ट` हो। कोई रास्ता नहीं था, न फोन, न कर्फ़्यूपास और न कुछ और।
मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूं, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा था और फिर अपने पुश्तैनी सिलाई के धंधे में लग गया था। मैं उससे बहुत बाद में मिला था। उस वक्त जब मैं हिंदी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहां मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हैदर हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब ये कि बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर का मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शाम को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते ही दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोला कि मुख्तार भी 'बिरादर` है। 'बिरादर` का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में 'बिरादर` का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।
शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार बराबर पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो शेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गयी होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और और वहां 'स्टूडेंट्स फेडरेशन` की राजनीति करने के कारण थोड़ा पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें 'कायदे आजम` कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह पाकिस्तान के बनने और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर वह गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।
मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गयी थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रहा था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद 'चुस्की` लगाई जायेगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और चार 'चार की प्यालियां` लेकर हम बैठ गये। बातचीत घूम-फिर कर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। 'कायदे आजम` की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, 'ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया?'
'इसलिए कि मुसलमान वहां रहेंगे,' वह बोला।
'मुसलमान तो यहां भी रहते हैं।'
'लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।'
'तुम पाकिस्तान तो गये हो?'
'हां, गया हूं।'
'वहां और यहां क्या फर्क है?'
'बहुत बड़ा फर्क है।'
'क्या फर्क है?'
'वो इस्लामी मुल्क है।'
'ठीक है, लेकिन ये बताओ कि वहां गरीबों-अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहां है? क्या वहां रिश्वत नहीं चलती? क्या वहां भाई-भतीजावाद नहीं है? क्या वहां पंजाबी-सिंधी और मोहाजिर 'लीजिंग` नहीं है? क्या पुलिस लोगों को फंसाकर पैसा नहीं वसूलती?' मुख्तार चुप हो गया। उमांशकर बोले, 'हां, बताओ. . .अब चुप काहे हो गये?' मुख्तार ने कहा, 'हां, ये सब तो वहां भी है लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।'
'यार, वहां डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ?'
'अमें छोड़ो. . .क्या औरतें वहां पर्दा करती हैं? बैंक तो वहां भी ब्याज लेते-देते होंगे. . .फिर काहे की इस्लामी मुल्क।' उमाशंकर ने कहा।
'भइया, इस्लाम 'मसावात` सिखाता है. . .मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी?'
मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, 'और वहां क्या है मुसलमानों के लिए? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली, भिवण्डी- कितने नाम गिनाऊँ. . .मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोड़े हों।'
'हां, तुम ठीक कहते हो।'
'मैं कहता हूं ये फसाद क्यों होते हैं?'
'भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराये जाते हैं।'
'कराये जाते हैं?'
'हां भाई, अब तो बात जग जाहिर है।'
'कौन कराते हैं?'
'जिन्हें उससे फायदा होता है।'
'किन्हें उससे फायदा होता है?'
'वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट मांगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।
'कैसे?'
'देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिंदुस्तान में हिंदुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम-जन्मभूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसा हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जायेगा? उनका तो वजूद ही खत्म हो जायेगा। इस तरह समझ लो कि किसी शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान की कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर को अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।'
वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, 'और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।'
'कैसे?'
'अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता. . .उसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहे तो सरकार से क्या लड़ेंगे? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है तो तीसरा फायदा उन लोगों को पहुंचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी में फसाद इसकी मिसालें हैं।'
ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय का होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई वीरान-सी पुलिया- बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है। अगर सामने वाले को बीच बहस में लग गया कि आप उसे जाहिल समझते हैं, उसका मजाक उड़ा रहे हैं, उसे कम पढ़ा-लिखा मान रहे हैं, तो बहस कका कभी कोई अंत नहीं होता।
उस जमाने में मुख्तार उर्दू के अखबारों और रिसालों का बड़ा भयंकर पाठक था। शहर में आने वाला शायद ही ऐसा कोई उर्दू अखबार, रिसाला, डाइजेस्ट हो जो वह न पढ़ता हो। इतना ज्यादा पढ़ने की वजह से उसे घटनायें, तिथियां और बयान इस कदर याद हो जाते थे कि बहस में उन्हें बड़े आत्मविश्वास के साथ 'कोट` करता रहता था। एक दिन उसने मुझे उर्दू के कुछ रिसालों और अखबारों का एक पुलिंदा दिया और कहा कि इन्हें पढ़कर आओ तो बहस हो। उर्दू में सामान्यत: जो राजनीतिक पर्चे छपते हैं, उनके बारे में मुझे हल्का-सा इल्म था। लेकिन मुख्तार के दिये रिसाले जब ध्यान से पढ़े तो भौंचक्का रह गया। इन परचों में मुसलमानों के साथ होने वाली ज्यादतियों को इतने भयावह और करुण ढंग से पेश किया गया था कि साधारण पाठक पर उनका क्या असर होगा, यह सोचकर डर गया। मिसाल के तौर पर इस तरह के शीर्षक थे 'मुसलमानों के खून से होली खेली गयी` या 'भारत में मुसलमान होना गुनाह है` या 'क्या भारत के सभी मुसलमानों को हिंदू बनाया जायेगा` या 'तीन हजार मस्जिदें, मन्दिरबना ली गयी हैं।` उत्तेजित करने वाले शीर्षकों के नीचे खबरें लिखने का जो ढंग था वह भी बड़ा भावुक और लोगों को मरने-मारने या सिर फोड़ लेने पर मजबूर करने वाला था।
वह दो-चार दिन बाद मिला तो बड़ा उतावला हो रहा था। बातचीत करने के लिए बोला, 'तुमने पढ़ लिये सब अखबार?'
'हां, पढ़ लिये।'
'क्या राय है. . .अब तो पता चला कि भारत में मुसलमानों के साथ क्या होता है। हमारी जान-माल, इज्जत-आबरू कुछ भी महफूज़ नहीं है।'
'हां, वो तो तुम ठीक कहते हो. . .लेकिन एक बात ये बताओ कि तुमने जो रिसाले दिये हैं वो फिरकापरस्ती को दूर करने, उसे खत्म करने के बारे में कभी कुछ नहीं लिखते?'
'क्या मतलब?' वह चौंक गया।
'देखो, मैं मानता हूं मुसलमानों के साथ ज्यादती होती है, दंगों में सबसे ज्यादा वही मारे जाते हैं। पी.ए.सी. भी उन्हें मारती है और हिंदू भी मारते हैं। मुसलमान भी मारते हैं हिंदुओं को। ऐसा नहीं है कि वे चुप बैठे रहते हों. . .।'
'हां, तो कब तक बैठे रहे? क्यों न मारें?' वह तड़पकर बोला।
'ठीक है तो वो तुम्हें मारें तुम उनको मारो. . .फिर ये रोना-धोना कैसा?'
'क्या मतलब है तुम्हारा?'
'मेरा मतलब है इसी तरह मारकाट होती रही तो क्या फिरकापरस्ती खत्म हो जायेगी?'
'नहीं, नहीं खत्म होगी।'
'और तुम चाहते हो, फिरकापरस्ती खत्म हो जाये?'
'हां।'
'तो ये अखबार, जो तुमने दिये, क्यों नहीं लिखते कि फिरकापरस्ती कैसे खत्म की जा सकती है?'
'ये अखबार क्यों नहीं चाहते होंगे कि फिरकापरस्ती खत्म हो?'
'ये तो वही अखबार वाले बता सकते हैं। जहां तक मैं समझता हूं ये अखबार बिकते ही इसलिए हैं कि इनमें दंगों की भयानक दर्दनाक और बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गयी तस्वीरें होती हैं। अगर दंगे न होंगे तो ये अखबार कितने बिकेंगे।'
मेरी इस बात पर वह बिगड़ गया। उसका कहना था कि ये कैसे हो सकता है कि मुसलमानों के इतने हमदर्द अखबार ये नहीं चाहते कि दंगे रुकें, मुसलमान चैन से रहें, हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद बने।
कुछ महीनों की लगातार बातचीत के बाद हम लोगों के बीच कुछ बुनियादी बातें साफ हो चुकी थीं। उसे सबसे बड़ी दिलचस्पी इस बात में पैदा हो गयी थी कि दंगे कैसे रोके जा सकते हैं। हम दोनों ये जानते थे कि दंगे पुलिस, पी.ए.सी. प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो सिर्फ लोग रोक सकते हैं।
'लेकिन लोग तो दंगे के जमाने में घरों में छिपकर बैठ जाते हैं।' उसने कहा।
'हां, लोग इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं क्योंकि दंगा करने वालों के मुकाबले वो मुत्तहिद नहीं हैं. . .अकेला महसूस करते हैं अपने को. . .और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। जबकि दंगा करने वो 'आरगेनाइज` होते हैं. . .लेकिन जरूरी ये है कि दंगों के खिलाफ जिन लोगों को संगठित किया जाये उनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हों. . .और उनके ख्यालात इस बारे में साफ हों।'
'लेकिन ये काम करेगा कौन?'
'हम ही लोग, और कौन?'
'लेकिन कैसे?'
'अरे भाई, लोगों से बातचीत करके. . .मीटिंगें करके. . .उनको बता-समझाकर . . .मैं कहता हूं शहर में हिंदू-मुसलमानों का अगर दो सौ ऐसे लोगों का ग्रुप बन जाये जो जान पर खेलकर भी दंगा रोकने की हिम्मत रखते हों तो दंगा करने वालों की हिम्मत परस्त हो जायेगी। तुम्हें मालूम होगा कि दंगा करने वाले बुजदिल होते हैं। वो किसी 'ताकत` से नहीं लड़ सकते। अकेले-दुकेले को मार सकते हैं, आग लगा सकते हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि सामने ऐसे लोग है। जो बराबर की ताकत रखते हैं, उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, तो दंगाई सिर पर पैर रखकर भाग जायेंगे।'
वह मेरी बात से सहमत था और हम अगले कदम पर गौर करने की स्थिति में आ गये थे। मुख्तार इस सिलसिले में कुछ नौजवानों से मिला भी था।
कुछ साल के बाद हम दिल्ली में फिर साथ हो गये। मैं दिल्ली में धंधा कर रहा था और वह कनाट प्लेस की एक दुकान में काम करने लगा था और जब दिल्ली में दंगा हुआ और ये पता चला कि कस्साबपुरा भी बुरी तरह प्रभाव में है तो मुझे मुख्तार की फिक्र हो गयी। दूसरी तरफ मुख्तार के साथ जो कुछ घटा वह कुछ इस तरह था।. . .शाम का छ: बजा था। वह मशीन पर झुका काम कर रहा था। दुकान मालिक सरदारजी ने उसे खबर दी कि दंगा हो गया है और उसे जल्दी-से-जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए।
पहाड़गंज में बस रोक दी गयी थी। क्योंकि आगे दंगा हो रहा था। पुलिस किसी को आगे जाने भी नहीं दे रही थी। मुख्तार ने मुख्य सड़क छोड़ दी और गलियों और पिछले रास्तों से आगे बढ़ने लगा। गलियां तक सुनसान थीं। पानी के नलों पर जहां इस वक्त चांव-चांव हुआ करती थी, सिर्फ पानी गिरने की आवाज आ रही थी। जब गलियों में लोग नहीं होते तो कुत्ते ही दिखाई देते हैं। कुत्ते ही थे। वह बचता-बचाता इस तरह आगे बढ़ता रहा कि अपने मोहल्ले तक पहुंच जाये। कभी-कभार और कोई घबराया परेशान-सा आदमी लंबे-लंबे कदम उठाता इधर से उधर जाता दिखाई पड़ जाता। एक अजीब भयानक तनाव था जैसे ये इमारतें बारूद की बनी हुई हों और ये सब अचानक एक साथ फट जायेंगे। दूर से पुलिस गाड़ियों से सायरन की आवाजें भी आ रही थीं। कस्साबपुरे की तरफ से हल्का-हल्का धुआं आसमान में फैल रहा था। न जाने कौन जल रहा होगा, न जाने कितने लोगों के लिए संसार खत्म हो गया होगा। न जाने जलने वालों में कितने बच्चे, कितनी औरतें होंगी। उनकी क्या गलती होगी? उसने सोचा अचानक एक बंद दरवाजे के पीछे से किसी औरत की पंजाबी में कांपती हुई आवाज गली तक आ गयी। वह पंजाबी बोल नहीं पाता था लेकिन समझ लेता था। और कह रही थी, बबलू अभी तक नहीं लौटा। मुख्तार ने सोचा, उसके बच्चे भी घर के दरवाजे पर खड़े झिर्रियों से बाहर झांक रहे होंगे। शाहिदा उसकी सलामती के लिए नमाज पढ़ रही होगी। भइया छत पर खड़े गली में दूर तक देखने की कोशिश कर रहे होंगे। छत पर खड़े एक-दो और लोगों से पूछ लेते होंगे कि मुख्तार तो नहीं दिखाई दे रहा है। उसके दिमाग में जितनी तेजी से ये ख्याल आ रहे थे उतनी तेज उसकी रफ़्तार होती जाती थी। सामने पीपल के पेड़ से कस्साबपुरा शुरू होता है और पीपल का पेड़ सामने ही है। अचानक भागता हुआ कोई आदमी हाथ में कनस्तर लिये गली में आया और मुख्तार को देखकर एक पतली गली में घुस गया। अब मुख्तार को हल्का-हल्का शोर भी सुनाई पड़ रहा था। पीपल के पेड़ के बाद खतरा न होगा, क्योंकि यहां से मुसलमानों की आबादी शुरू होती थी। ये सोचकर मुख्तार ने दौड़ना शुरू कर दिया। पीपल के पेड़ के पास पहुंचकर मुड़ा और उसी वक्त हवा में उड़ती कोई चीज उसके सिर से टकराई और उसे लगा कि सिर आग हो गया है। दहकता हुआ अंगारा। उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और भागता रहा। उसे ये समझने में देर नहीं लगी कि एसिड का बल्ब उसके सिर पर मारा गया है। सर की आग लगातार बढ़ती जा रही थी और वह भागता जा रहा था। उसे लगा कि वह जल्दी ही घर न पहुंच गया तो गली में गिरकर बेहोश हो जायेगा और वहां गिरने का नतीजा उसकी लाश पुलिस ही उठाएगी। दोनों बच्चों के चेहरे उसकी नजरों में घूम गये।
दंगा खत्म होने के बाद मैं मुख्तार को देखने गया। उसके बाल भूरे जैसे हो गये थे और लगातार गिरते थे। सिर की खाल बुरी तरह जल गयी थी और ज़ख्म़ हो गये थे। एसिड का बल्ब लगने के बराबर ही भयानक दुर्घटना ये हुई थी कि जब वह घर पहुंचा था तो उसे पानी से सिर नहीं धोने दिया गया था। सबने कहा था कि पानी मत डालो। पानी डालने से बहुत गड़बड़ हो जायेगी। और वह खुद ऐसी हालत में नहीं था कि कोई फैसला कर सकता। आठ दिन कर्फ्यू चला था और जब वह डॉक्टर के पास गया था तो डॉक्टर ने उसे बताया था कि अगर वह फौरन सिर धी लेता तो इतने गहरे ज़ख्म़ न होते।
दंगे के बाद साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए सम्मेलन किये जाने की कड़ी में इन दंगों में तीन महीने बाद सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में मैंने सोचा मुख्तार को ले चलना चाहिए। उसे एक दिन की छुट्टी करनी पड़ी और हम दोनों राजधानी की वास्तविक राजधानी- यानी राजधानी का वह हिस्सा जहां चौड़ी साफ सड़कें, सायादार पेड़, चमचमाते हुए फुटपाथ, उंचे-उंचे बिजली के खम्बे और चिकनी-चिकनी इमारते हैं और वैसे ही चिकने-चिकने लोग हैं। मुख्तार भव्य इमारत में घुसने से पहले कुछ हिचकिचाया, लेकिन मेरे बहादुरी से आगे बढ़ते रहने की वजह से उसमें कुछ हिम्मत आ गयी और हम अंदर आ गये। अंदर काफी चहल-पहल थी। विश्वविद्यालयों के छात्र, अध्यापक, संस्थानों के विद्वान, बड़े सरकारी अधिकारी, दफ़्तरों में काम करने वाले लोग, सभी थे। उनमें से अधिकतर चेहरे देखे हुए थे। वे सब वामपंथी राजनीति या उसके जन-संगठनों में काम करने वाले लोग थे। कहां कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, रंगकर्मी और संगीतज्ञ भी थे। पूरी भीड़ में मुख्तार जैसे शायद ही चन्द रहे हों या न रहे हों, कहा नहीं जा सकता।
अंदर मंच पर बड़ा-सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` लिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किये गये सम्मेलन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफेद कागज चिपकाकर नयी तारीखें लिख दी गयी थीं। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया। पिछले सम्मेलन के एक आयोजक से सम्मेलन के बाद मेरी कुछ बातचीत हुई थी और मैंने कहा था कि दिल्ली के सर्वथा भद्र इलाके में सम्मेलन करने तथा ऐसे लोगों को ही सम्मेलन में बुलाने का क्या फायदा है जो शत-प्रतिशत हमारे विचारों से सहमत हैं। इस पर आयोजक ने कहा था कि सम्मेलन मजदूर बस्तियों, घनी आबादियों तथा उपनगरीय बस्तियों में भी होंगे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उसके बाद ऐसा हुआ हो।
हाल में सीट पर बैठकर मुख्तार ने मुझसे यही बात कही। वह बोला 'इनमें तो हिंदु भी हैं और मुसलमान भी।'
मैंने कहा, 'हां!'
वह बोला, 'अगर ये सम्मेलन कस्साबपुरा में करते तो अच्छा था। वहां के मुसलमान ये मानते ही नहीं कि कोई हिंदू उनसे हमदर्दी रख सकता है।'
'वहां भी करेंगे. . .लेकिन अभी नहीं।' तभी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। संयोजक ने बात शुरू करते हुए साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती हुई ताकत तथा उसके खतरों की ओर संकेत किया। यह भी कहा कि जब तक साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक जनवारी शक्तियां मजबूत नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि अब सब संगठित होकर साम्प्रदायिक रूपी दैत्य से लडेंगे। इस पर लोगों ने जोर की तालियां बजायीं और सबसे पहले अल्पसंख्यकों के विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को बोलने के लिए आमंत्रित किया। उप-कुलपति आई.ए.एस. सर्विसेज में थे। भारत सरकार के उंचे ओहदों पर रहे थे। लंबा प्रशासनिक अनुभव था। उनकी पत्नी हिंदू थी। उनकी एक लड़की ने हिंदू लड़के से विवाह किया था। लड़के की पत्नी अमरीकन थी। उप-कुलपति के प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष होने में कोई संदेह न था। वे एक ईमानदार और प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने अपने भाषण में बहुत विद्वत्तापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिकता की समस्या का विश्लेषण किया। उसके खतरनाक परिणामों की ओर संकेत किये और लोगों को इस चुनौती से निपटने को कहा। कोई बीस मिनट तक बोलकर वे बैठ गये। तालियां बजीं।
मुख्तार ने मुझसे कहा, 'प्रोफेसर साहब की समझ तो बहुत सही है।'
'हां, समझ तो उन सब लोगों की बिलकुल सही है जो यहां मौजूद हैं।'
'तो फिर?'
तब तक दूसरे वक्ता बोलने लगे थे। ये एक सरदार जी थे। उनकी उम्र अच्छी-खासी थी। स्वतंत्रता सेनानी थे और दसियों साल पहले पंजाब सरकार में मंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने बचपन, अपने गांव और अपने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख दोस्तों के संस्मरण सुनाये। उनके भाषण के दौरान लगभग लगातार तालियां बजती रहीं। फिर उन्होंने दिल्ली के हालिया दंगों पर बोलना शुरू किया।
मुख्तार ने मेरे कान में कहा, 'सरदार जी दंगा कराने वालों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? बच्चा-बच्चा जानता है दंगा किसने कराया था।'
मैंने कहा, 'बचपने वाली बातें न करो। दंगा कराने वालों के नाम ले दिये तो वे लोग इन पर मुकदमा ठोक देंगे।'
'तो मुकदमे के डर से सच बात न कही जाये?'
'तुम आदर्शवादी हो। आइडियलिस्ट. . .।'
'ये क्या होता है?' मुख्तार बोला।
'अरे यार, इसका मकसद दंगा कराने वालों के नाम गिनाना तो है नहीं।'
'फिर क्या मकसद है इनका?'
'बताना कि फिरकापरस्ती कितनी खराब चीज है और उसके कितने बुरे नतीजे होते हैं।'
'ये बात तो यहां बैठे सभी लोग मानते हैं। जब ही तो तालियां बजा रहे हैं।'
'तो तुम क्या चाहते हो?'
'ये दंगा करने वालों के नाम बतायें।' मुख्तार की आवाज तेज हो गई। वह अपना सिर खुजलाने लगा।
'नाम बताने से क्या फायदा होगा?'
'न बताने से क्या फायदा होगा?'
स्वतंत्रता सेनानी का भाषण जारी था। वे कुछ किये जाने पर बोल रहे थे। इस पर जोर दे रहे थे कि इस लड़ाई को गलियों और खेतों में लड़ने की जरूरत है। स्वतंत्रता सेनानी के बाद एक लेखक को बोलने के लिए बुलाया गया। लेखक ने साम्प्रदायिकता के विरोध में लेखकों को एकजुट होकर संघर्ष करने की बात उठाई।
'तुम मुझ एक बात बताओ,' मुख्तार ने पूछा।
'क्या?'
'जब दंगा होता है तो ये सब लोग क्या करते हैं?'
मैं जलकर बोला, 'अखबार पढ़ते हैं, घर में रहते हैं और क्या करेंगे?'
'तब तो इस जुबानी जमा-खर्च का फायदा क्या है?'
'बहुत फायदा है, बताओ?'
'भाई, एक माहौल बनता है, फिरकापरस्ती के खिलाफ।'
'किन लोगों में? इन्हीं में जो पहले से ही फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं? तुम्हें मालूम है दंगों के बाद सबसे पहले हमारे मोहल्ले में कौन आये थे?'
'कौन?'
'तबलीगी जमात और जमाते-इस्लामी के लोग. . .उन्होंने लोगों को आटा-दाल, चावल बांटा था, उन्होंने दवाएं भी दी थीं। उन्होंने कर्फ्यू पास भी बनवाये थे।'
'तो उनके इस काम से तुम समझते हो कि वे फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं।'
'हों या न हों, दिल कौन जीतेगा. . .वही जो मुसीबत के वक्त हमारे काम आये या जो. . .'
मैं उसकी बात काटकर बोला, 'खैर बाद में बात करेंगे, अभी सुनने दो।'
कुछ देर बाद मैंने उससे कहा, 'बात ये है यार कि इन लोगों के पास इतनी ताकत नहीं है कि दंगों के वक्त बस्तियों में जायें।'
'इनके पास उतनी ताकत नहीं है और जमाते इस्लामी के पास है?'
मैं उस वक्त उसके इस सवाल का जवाब न दे पाया। मैंने अपनी पहली ही बात जारी रखी, 'जब इनके पास ज्यादा ताकत आ जायेगी तब ये दंगाग्रस्त इलाकों में जा सकेंगे, काम कर सकेंगे।'
'उतनी ताकत कैसे आयेगी?'
'जब ये वहां काम करेंगे।'
'पर अभी तुमने कहा कि इनके पास उतनी ताकत ही नहीं है कि वहां जा सकें. . .फिर काम कैसे करेंगे?'
'तुम कहना क्या चाहते हो?'
'मतलब यह है कि इनके पास इतनी ताकत नहीं है कि ये दंगे क बाद या दंगे के वक्त उन बस्तियों में जा सकें जहां दंगा होता है, और ताकत इनके पास उसी वक्त आयेगी जब ये वहां जाकर काम करेंगे. . .और जा सकते नहीं।'
'यार, हर वक्त दंगा थोड़ी होता रहता है, जब दंगा नहीं होता तब जायेंगे।'
'अच्छा ये बताओ, जमाते इस्लामी के मुकाबले इन लोगों को कमजोर कैसे मान रहे हो. . .इनके तो एम.पी. हैं, दो तीन सूबों में इनकी सरकारें हैं, जबकि जमाते इस्लामी का तो एक एम.पी. भी नहीं।'
मैं बिगड़कर बोला, 'तो तुम ये साबित करना चाहते हो कि ये झूठे, पाखंडी, कामचोर और बेईमान लोग हैं?'
'नहीं, नहीं, ये तो मैंने बिलकुल नहीं कहा!' वह बोला।
'तुम्हारी बात से मतलब तो यही निकलता है।'
'नही, मेरा ये मानना नहीं है।'
मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगा, 'यार, बात दरअसल ये है कि हम लोग खुद मानते हैं कि काम जितनी तेजी से होना चाहिए, नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन पक्के तरीके से हो रहा है। उसमें टाइम तो लगता ही है।'
'तुम ये मानते होगे कि फिरकापरस्ती बढ़ रही है।'
'हां।'
'तो ये धीरे-धीरे जो काम हो रहा है उनका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है, हां फिरकापरस्ती जरूरी दिन दूनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रही है।'
'अभी बाहर निकलकर बात करते हैं।' मैंने उसे चुप करा दिया।
इस बीच चाय सर्व की गयी। आखिरी वक्ता ने समय बहुत जो जाने और सारी बातें कह दी गयी हैं, आदि-आदि कहकर अपना भाषण समाप्त कर दिया। हम दोनों थोड़ा पहले ही बाहर निकल आये। सड़क पर साथ-साथ चलते हुए वह बोला, 'कोई ऐलान तो किसी को करना चाहिए था।'
'कैसा ऐलान?'
'मतलब ये है कि अब ये किया जायेगा, ये होगा।'
'अरे भाई, कहा तो गया कि जनता के पास जायेंगे, उसे संगठित और शिक्षित किया जायेगा।'
'कोई और ऐलान भी कर सकते थे।'
'क्या ऐलान?'
'प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।' उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, 'ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?'
वह मेरे आगे झुका। कुछ बोला नहीं। उसने अपने सिर के बाल हटाये। मेरे सामने लाल-लाल जख्म थे जिसे ताजा खून रिस रहा था।
***-***
11 मुश्किल काम
जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई। मीटिंग की जगह आदर्श थी यानी शराब का ठेका- जिसे सिर्फ चंद साल पहले से ही 'मदिरालय` कहा जाने लगा था, वहां दोनों गिरोह जमा थे, पीने-पिलाने के दौरान किसी भी विषय पर बात हो सकती है, तो बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि।
मदिरालय में कभी कोई झूठ नहीं बोलता यानी वहां कही गयी बात अदालत में गीता या कुरान पर हाथ रखकर खायी गयी कसम के बराबर होती है, इसलिए यहां जो कुछ लिखा जा रहा है, सच है और सच के सिवा कुछ नहीं है। खैरियत खैरसल्ला पूछने के बाद बातचीत इस तरह शुरू हुई। पहले गिरोह के नेता ने कहा 'तुम लोग तो जन्खे हो, जन्खे. . .हमने सौ दुकानें फूंकी हैं।' दूसरे ने कहा, 'उसमें तुम्हारा कोई कमाल नहीं है। जिस दिन तुमने आग लगाई, उस दिन तेज हवा चल रही थी. . .आग तो हमने लगाई थी जिसमें तेरह आदमी जल मेरे थे।'
बात चूंकि आग में आदमियों पर आयी थी, इसलिए पहले ने कहा, 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं।' दूसरा बोला, 'छब्बीस मत कहो।'
'क्यों?'
'तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं।'
यह सुनकर पहला हंसा। उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, 'गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?'
'हां।'
'नहीं, ये गलत है।' पहला गरजा।
'कैसे?'
'औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है।'
'लेकिन वे होती कमजोर हैं।'
'तुम नहीं जानते औरतें कितनी जोर से चीखती हैं. . .और किस तरह हाथ-पैर चलाती हैं. . .उस वक्त उनके शरीर में पता नहीं कहां से ताकत आ जाती है. . .'
'खैर छोड़ो, हमने कुल बाइस मारे हैं. . .आग में जलाये इसके अलावा हैं।' दूसरा बोला।
पहले ने पूछा, 'बाईस में बूढे कितने थे?'
'झूठ नहीं बोलता. . .सिर्फ आठ थे।'
'बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?'
'तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?'
'चलो, चार बूढ़ों को एक जवान के बराबर गिन लूंगा।'
'ये तो अंधेर कर रहे हो।'
'अबे अंधेर तू कर रहा है. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तू हमारी बराबरी कर रहा है।'
दूसरा चिढ़ गया, बोला, 'तो अब तू जबान ही खुलवाना चाहता है क्या?'
'हां-हां, बोल बे. . .तुझे किसने रोका है।'
'तो कह दूं सबके सामने साफ-साफ?'
'हां. . .हां, कह दो।'
'तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?'
'तूने कभी रिक्शेवालों, मजदूरों को मारा है?'
'नहीं. . .मैंने कभी नहीं मारा।' वह झूठ बोला।
'अबे, तूने रिक्शे वालों, झल्ली वालों और मजदूरों को मारा होता तो ऐसा कभी न कहता।'
'क्यों?'
'पहले वे हाथ-पैर जोड़ते हैं. . .कहते हैं, बाबूजी, हमें क्यों मारते हो. . हम तो हिंदू हैं न मुसलमान. . .न हम वोट देंगे. . .न चुनाव में खड़े होंगे. . .न हम गद्दी पर बैठेंगे. . .न हम राज करेंगे. . .लेकिन बाद में जब उन्हें लग जाता है कि वो बच नहीं पायेंगे तो एक-आध को ज़ख्म़ी करके ही मरते हैं।'
दूसरे ने कहा, 'अरे, ये सब छोड़ो. . .हमने जो बाईस आदमी मारे हैं. . .उनमें दस जवान थे. . कड़ियल जवान. . . '
'जवानों को मारना सबसे आसान है।'
'कैसे? ये तुम कमाल की बात कर रहे हो!'
'सुनो. . .जवान जोश में आकर बाहर निकल आते हैं उनके सामने एक-दो नहीं पचासों आदमी होते हैं. . .हथियारों से लैस. . .एक आदमी पचास से कैसे लड़ सकता है?. . .आसानी से मारा जाता है।'
इसके बाद 'मदिरालय` में सन्नाटा छा गया, दोनों चुप हो गये। उन्होंने कुछ और पी, कुछ और खाया, कुछ बहके, फिर उन्हें धयान आया कि उनका तो आपस में कम्पटीशन चल रहा था।
पहले ने कहा, 'तुम चाहो जो कहो. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तुमने बाईस. . .'
'नहीं, यह गलत है. . .तुमने हमसे ज्यादा नहीं मारे।' दूसरा बोला।
'क्या उल्टी-सीधी बातें कर रहे हो. . .हम चार नंबरों से तुमसे आगे हैं।'
दूसरे ने ट्रम्प का पत्ता चला, 'तुम्हारे छब्बीस में बच्चे कितने थे?'
'आठ थे।'
'बस, हो गयी बात बराबर।'
'कैसे?'
'अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना।'
'नहीं बेटा, नहीं. . .ये बात नहीं है. . . तुम अनाड़ी हो।'
दूसरा ठहाका लगाकर बोला, 'अच्छा तो बच्चों को मारना बहुत कठिन है?'
'हां।'
'कैसे?'
'बस, है।'
'बताओ न . . '
'बताया तो. . .'
'क्या बताया?'
'यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल।'
'लेकिन क्यों?'
'इसलिए कि बच्चों को मारते वक्त. . .'
'हां. . .हां, बोलो रुक क्यों गये?'
'बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं।'
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12 होज वाज पापा
अस्पताल की यह उंची छत, सफेद दीवारों और लंबी खिड़कियों वाला कमरा कभी-कभी 'किचन` बन जाता है। 'आधे मरीज` यानी पीटर 'चीफ कुक` बन जाते हैं और विस्तार से यह दिखाया और बताया जाता है कि प्रसिद्ध हंगेरियन खाना 'पलचिंता` कैसे पकाया जाता है। पीटर अंग्रेजी के चंद शब्द जानते हैं। मैं हंगेरियन के चंद शब्द जानता हूं। लेकिन हम दोनों के हाथ, पैर, आंखें, नाक, कान हैं जिनसे इशारों की तरह भाषा 'ईजाद` होती है और संवाद स्थापित ही नहीं होता दौड़ने लगता है। पीटर मुझे यह बताते हैं कि अण्डे लिये, तोड़े, फेंटे, उसमें शकर मिलाई, मैदा मिलाया, एक घोल तैयार किया। 'फ्राईपैन` लिया, आग पर रखा, उसमें तेल डाला। तेल के गर्म हो जाने के बाद उसमें एक चमचे से घोल डाला। उसे फैलाया और पराठे जैसा कुछ तैयार किया। फिर उसे बिना चमचे की सहायता से 'फ्राइपैन` पर उछाला, पलटा, दूसरी तरफ से तला और निकाल लिया। पीटर ने मजाक में यह भी बताया था कि उनकी पत्नी जब 'पलचिंता` बनाने के लिए मैदे का 'पराठा` 'फ्राइपैन` को उछालकर पलटती हैं तो 'पराठा` अक्सर छत में जाकर चिपक जाता है। लेकिन पीटर 'एक्सपर्ट` हैं, उनसे ऐसी गलती नहीं होती।
पीटर का पूरा नाम पीटर मतोक है। उनकी उम्र करीब छियालीस-सैंतालीस साल है। लेकिन देखने में कम ही लगते हैं। वे बुदापैश्त में नहीं रहते। हंगेरी में एक अन्य शहर पॉपा में रहते हैं और वहां के डॉक्टरों ने इन्हें पेट की किसी बीमारी के कारण राजधानी के अस्पताल में भेजा है। यहां के डॉक्टर यह तय नहीं कर पाये हैं कि पीटर का वास्तव में ऑपरेशन किया जाना चाहिए या वे दवाओं से ही ठीक हो सकते हैं। यानी पीटर के टेस्ट चल रहे हैं। कभी-कभी डॉक्टर उनके चेहरे और शरीर पर तोरों का ऐसा जंगल उगा देते हैं कि पीटर बीमार लगने लगते हैं। लेकिन कभी-कभी तार हटा दिये जाते हैं तो पीटर मरीज ही नहीं लगते। यही वजह है कि मैं उन्हें आधे मरीज के नाम से याद रखता हूं। पीटर 'सर्वे` करने वाले किसी विभाग में काम करते हैं। उनकी एक लड़की है जिसकी शादी होने वाली है। एक लड़का है जो बारहवीं क्लास पास करने वाला है। पीटर की पत्नी एक दफ़तर में काम करती हैं। पीटर कुछ साल पहले किसी अरब देश में काम करते थे। ये सब जानकारियां पीटर ने मुझे खुद ही दी थीं। यानी अस्पताल में दाखिल होते ही उनकी मुझसे दोस्ती हो गयी थी। पीटर मुझे सीधे-सादे, दिलचस्प, बातूनी और 'प्रेमी` किस्म के जीव लगे थे। पीटर का नर्सों से अच्छा संवाद था। मेरे ख्याल से कमउम्र नर्सों को वे अच्छी तरह प्रभावित कर दिया करते थे। उन्हें मालूम था कि नर्सों के पास कब थोड़ा-बहुत समय होता है जैसे ग्यारह बजे के बाद और खाने से पहले या दो बजे के बाद और फिर शाम सात बजे के बाद वे किसी-न-किसी बहाने से किसी सुंदर नर्स को कमरे में बुला लेते थे और गप्पशप्प होने लगती थी। जाहिर है वे हंगेरियन में बातचीत करते थे। मैं इस बातचीत में अजीब विचित्र ढंग से भाग लेता था। यानी बात को समझे बिना पीटर और नर्सों की भाव-भंगिमाएं देखकर मुझे यह तय करना पड़ता था कि अब मैं हंसूं या मुस्कराऊँ या अफसोस जाहिर करूंगा 'हद हो गयी साहब` जैसा भाव चेहरे पर लाऊँ या 'ये तो कमाल हो गया` वाली शक्ल बनाऊँ? इस कोशिश में कभी-कभी नहीं अक्सर मुझसे गलती हो जाया करती थी और मैं खिसिया जाया करता था। लेकिन ऑपरेशन, तकलीफ, उदासी और एकांत के उस माहौल में नर्सों से बातचीत अच्छी लगती थी या उसकी मौजूदगी ही मजा देती थी। पीटर ने मरे पास भारतीय संगीत के कैसेट देख लिये थे। अब वे कभी-कभी शाम सात-आठ बजे के बाद किसी नर्स को सितार, शहनाई या सरोद सुनाने बुला लाते थे। बाहर हल्की-हल्की बर्फ गिरती होती थी। कमरे के अंदर संगीत गूंजता था और कुछ समय के लिए पूरी दुनिया सुंदर हो जाया करती थी।
पीटर के अलावा कमरे में एक मरीज और थे। जो स्वयं डॉक्टर थे और 'एपेण्डिसाइटिस` का ऑपरेशन कराने आये थे। पीटर को जितना बोलने का शौक था इन्हें उतना ही खामोश रहने का शौक था। वे यानी इमैर अंग्रेजी अधिक जानते थे। मेरे और पीटर के बीच जब कभी संवाद फंस या अड़ जाता था तो वे खींचकर गाड़ी बाहर निकालते थे। लेकिन आमतौर पर वे खामोश रहना पसंद करते थे।
मैं कोई दस दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुआ था। मेरा ऑपरेशन होना था। लेकिन एक जगह एक, एक ही किस्म का ऑपरेशन अगर बार-बार किया जाये तो ऑपरेशन पर से विश्वास उठ जाता है। मेरी यही स्थिति थी। मैं सोचता था, दुनिया में सभी डॉक्टर 'ऑपरेशन` प्रेमी होते हैं और खासतौर पर मुझे देखते ही उनके हाथ 'मचलने` लगता है। लेकिन बहुत से काम 'आस्थाहीनता` की स्थिति में भी किए जाते हैं। कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। तो मैं भर्ती हुआ था। तीसरे दिन ऑपरेशन हुआ था। पर सच बताऊँ आपरेशन में उम्मीद के खिलाफ काफी मजा आया था। ये डॉक्टरों, 'टेक्नोलॉजी` का कमाल था या इसका कारण पिछले अनुभव थे, कुछ कह नहीं सकता। लेकिन पूरा ऑपरेशन ख्वाब और हकीकत का एक दिलचस्प टकराव जैसा लगा था। पूरे ऑपरेशन के दौरान मैं होश में था। लेकिन वह होश कभी-कभी बेहोशी या गहरी नींद में बदल जाता था। उपर लगी रोशनियां कभी-कभी तारों जैसी लगने लगती थीं। डॉक्टर परछाइयों जैसे लगते थे। आवाजें बहुत दूर से आती सरगोशियों जैसी लगती थीं। औजारों की आवाजें कभी 'खट` के साथ कानों से टकराती थीं। और कभी संगीत की लय जैसी तैरती हुई आती थीं। कभी लगता था कि यह आपरेशन बहुत लंबे समय से हो रहा है और फिर लगता कि नहीं, अभी शुरू ही नहीं हुआ। कुछ सेकेण्ड के लिए पूरी चेतना एक गोता लगा लेती थी और फिर आवाजें और चेहरे धुंधले होकर सामने आते थे। जैसी पानी पर तेज हवा ने लहरें पैदा कर दी हों। एक बहुत सुंदर महिला डॉक्टर मेरे सिरहाने खड़ी थीं। उसका चेहरा कभी-कभी लगता था पूरे दृश्य में 'डिज़ाल्व` हो रहा है और सिर्फ उसका चेहरा-ही-चेहरा है चारों तरफ बाकी कुछ नहीं है। इसी तरह उसकी आंखें भी विराट रूप धरण कर लेती थीं। कभी यह भी लगता था कि यहां जो कुछ हो रहा है उसका मैं दर्शक मात्र हूं।
जिस तरह तूफान गुजर जाने के बाद ही पता चलता है कि कितने मकान ढहे, कितने पेड़ गिरे, उसी तरह ऑपरेशन के बाद मैंने अपने शरीर को 'टटोला` तो पाया कि इतना दर्द है कि बस दर्द-ही-दर्द हे। यह हालत धीरे-धीरे कम होती गयी लेकिन ऑपरेशन के बाद मैंने 'रोटी सुगंध` का जो मजा लिया वह जीवन में पहले कभी न लिया था। चार दिन तक मेरा खाना बंद था। गैलरी में जब खाना लाया जाता था तो 'जिम्ले` ;एक तरह की पाव रोटी की खुशबू मेरी नाक में इस तरह बस जाती थी कि निकाले न निकलती थी। चार दिन के बाद वही रोटी जब खाने को मिली तब कहीं जाकर उस सुगंध से पीछा छूटा।
जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, एक ही जगह पर एक ऑपरेशन बार-बार किये जाने के क्रम में यह दूसरा ऑपरेशन था। डॉक्टरों ने कहा था कि इसकी प्रगति देखकर वे अगला ऑपरेशन करेंगे। फिर अगला और फिर अगला और फिर . . .तंग आकर मैंने उसके बारे में सोचना तक छोड़ दिया था।
पीटर मेरे ऑपरेशन के बाद दाखिल हुए थे या कहना चाहिए जब मैं दूसरे ऑपरेशन की प्रतीक्षा कर रहा था तब पीटर आये थे और उनके टेस्ट वगैरा हो रहे थे। आखिरकार उनसे कह दिया गया कि वे दवाओं से ठीक हो सकते हैं। पीटर बहुत खुश हो गये थे। उन्होंने जल्दी-जल्दी सामान बांध था और बाकायदा मुझसे गले-वले मिल गये थे। इमरे तो उससे पहले ही जा चुके थे। इन दोनों के चले जाने के बाद मैं कमरे में अकेला हो गया था, लेकिन अकेले होने का सुख बड़े भयंकर ढंग से टूटा। यानी मुझे सरकारी अस्पताल के कमरे में दो दिन तक अकेले रहने की सजा मिली। यानी तीसरे दिन मेरे कमरे में एक बूढ़ा मरीज आ गया था। देखने में करीब सत्तर के आसपास का लगता था। लेकिन हो सकता है ज्यादा उम्र रही हों। वह दोहरे बदन का था। उसके बाल बर्फ जैसे सफेद थे। चेहरे का रंग कुछ सुर्ख था। आंखें धुंधली और अंदर को धंसी हुई थीं। जाहिर है कि वह अंग्रेजी नहीं जानता था। वह देखने में खाता-पीता या सम्पन्न भी नहीं लग रहा था। लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि उसके आते ही एक अजीब अजीब किस्त की तेज बदबू ने कमरे में मुस्तकिल डेरा जैसा जैसा जमा लिया था। मैं बूढ़े के आने से परेशान हो गया था। लगा कि शायद मैं नापसंद करता हूं, यह नहीं चाहता कि वह इस कमरे में रहे। लेकिन जाहिर है कि मैं इस बारे में कुछ न कर सकता था। सिर्फ उसे नापसंद कर सकता था और दिल-ही-दिल में उससे नफरत कर सकता था। उसकी अपेक्षा कर सकता था या उसके वहां रहने से लगातार बोर होता रह सकता था। फिर यह भी तय था कि अभी मुझे अस्पताल कम-से-कम बीस दिन और रहना है। यह बूढ़ा भी ऑपरेशन के लिए आया होगा और उसे भी लंबे समय तक रहना होगा। मतलब उसके साथ मुझे बीस दिन गुजारने थे। अगर मैं उससे घृणा करने लगता तो बीस दिन तक घृणित व्यक्ति के साथ रहना बहुत मुश्किल हो जाता। इसलिए मैंने सोचा कम-से-कम उससे घृणा तो नहीं करनी चाहिए। आदमी है बूढ़ा है, बीमार है, गरीब है, उसे ऐसी बीमारी है कि उसके पास से बदबू आती है तो उसमें उस बेचारे की क्या गलती? तो बहुत सोच-समझकर मैंने तय किया कि बूढ़े के बारे में मेरे विचार खराब नहीं होने चाहिए। जहां तक बदबू का सवाल है उसकी आदत पड़ जायेगी या खिड़की खोली जा सकती है, हालांकि बाहर का तापमान शून्य से चार-पांच डिग्री नीचे ही रहता था।
उसी दिन शाम को मुझसे मिलने डॉ. मारिया आयीं। वे भी बूढ़े को देख कर बहुत खुश नहीं हुईं। लेकिन जाहिर है वे भी कुछ नहीं कर सकती थीं। उन्होंने इतना जरूर किया कि एक खिड़की थोड़ी-सी खोल दी।
'ये कब आये?' उन्होंने पूछा।
'आज ही।' मैंने बताया।
'क्या तकलीफ है इन्हें?' उन्होंने कहा।
'मैं नहीं जानता। आप पूछिए। मेरे ख्याल से ये अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं।'
डॉ. मारिया ने बूढ़े सज्जन से हंगेरियन में बातचीत शुरू कर दी। मारिया बुदापैश्त में हिंदी पढ़ाती हैं और हम दोनों 'क्लीग` हैं। एक ही विभाग में पढ़ाते हैं।
कुछ देर बूढ़े से बातचीत करने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि बूढ़े को टट्टी करने की जगह पर कैंसर है और ऑपरेशन के लिए आया है। काफी बड़ा ऑपरेशन होगा। बूढ़ा काफी डरा हुआ है क्योंकि वह चौरासी साल का है और इस उम्र में इतना बड़ा आपरेशन खतरनाक हो सकता है। यह सुनकर मुझे बूढ़े से हमदर्दी पैदा हो गयी। बेचारा! पता नहीं क्या होगा!
अचानक कमरे में एक पचास साल की औरत आयी। वह कुछ अजीब घबराई और डरी-डरी-सी लग रही थी। उसके कपड़े और रखरखाव वगैरा देखकर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि वह बहुत साधरण परिवार की है। वह दरअसल इस बूढ़े की बेटी थी। उससे भी मारिया ने बातचीत की। वह अपने पिता के बारे में बहुत चिंतित लग रही थी। बूढ़े की लड़की से बातचीत करने के बाद मारिया ने मुझे फिर सब कुछ विस्तार से बताया। हम बातें कर ही रहे थे कि कमरे में हॉयनिका आ गयी। यहां कि नर्सों में वह एक खुशमिजाज नर्स है। खूबसूरत तो नहीं बस अच्छी है और युवा है। उसके हाथों में दवाओं की ट्रे थी। आते ही उसने हंगेरियन में एक हांक लगायी। मैं दस-बारह दिन अस्पताल में रहने के कारण यह समझ गया हूं कि यह हांक क्या होती है। सात बजे के करीब रात की ड्यूटी वाली नर्स हम कमरे में जाती है और मरीजों से पूछती है कि क्या उन्हें 'स्लीपिंग पिल` या 'पेन किलर` चाहिए? आज उसने जब यह हांक लगायी तो मैं समझ गया। लेकिन मारिया ने उसका अनुवाद करना जरूरी समझा और कहा, 'पूछ रही हैं पेन किलर या सोने के लिए नींद की गोली चाहिए तो बताइए।' मैंने कहा, 'हां दो, 'पेन किलर` और एक 'स्लीपिंग पिल`।'
मारिया अच्छी बेतकल्लुफ दोस्त हैं। वे मजाक करने का कोई मौका नहीं चूकतीं। पता नहीं उनके मन में क्या आयी कि मुस्कुराकर बोलीं, 'क्या मैं नर्स से यह भी कहूं कि इन दवाओं के अलावा, रात में ठीक से सोने के लिए आपको एक 'पप्पी` भी दे?'
मैं बहुत खुश हो गया 'क्या ये कहा जा सकता है? बुरा तो नहीं मानेगी? अपने महान देश में यह कहने का प्रयास वही करेगा जो लात-जूते से अपना इलाज कराना चाहता हो।'
'नहीं, यहां कहा जा सकता है।' वे हंसकर बोलीं।
'तो कहिए।'
उन्होंने नर्स से कहा। वह हंसी, कुछ बोली और इठलाती हुई चली गयी।
'कह रही है मैं पत्नियों केसामने पति को 'पप्पी` नहीं देती। जब मैंने उससे बताया कि मैं पत्नी नहीं हूं तो बोली कि ठीक है, वह लौटकर आयेगी।'
मैंने मारिया से कहा, 'उर्दू के एक प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि अकबर इलाहाबादी का शेर है
'तहज़ीबे गऱिबी में बोसे तलक है माफ
आगे अगर बढ़े तो शरारत की बात है।'
शेर सुनकर वे दिल खोलकर हंसी और बोलीं, 'हां, ये सच है कि भारत और यूरोप की नैतिकता में बड़ा फर्क है। लेकिन उसी के साथ-साथ यह भी तय है कि भारतीय इस संबंध मैं प्राय: बहुत कम जानते हैं। जैसे अकबर इलाहाबादी शायद यह न जानते होंगे कि यूरोप में कुछ 'बोसे` बिलकुल औपचारिक होते हैं। जिन्हें हम हाथ मिलाने जैसा मानते हैं।
अब मेरी बारी थी। मैंने कहा, 'लेकिन हमारे यहां तो औरत से हाथ मिलाना तक एक 'छोटा-मोटा` 'बोसा` समझा जाता है।' इस पर वे खूब हंसीं।
कमरे के दूसरी तरफ बूढ़े के पास उसकी लड़की बैठी थी। दोनों बातें कर रहे थे। हल्की-हल्की आवाजें हम लोगों तक आ रही थीं। मैंने मारिया से पूछा, 'वे उधर क्या बातें कर रहे हैं?'
'वह अपनी लड़की से कह रहा है कि मेरी प्यारी बेटी, तुम सिगरेट पीना छोड़ दो। पिछली बीमारी के बाद तुम्हें डॉक्टर ने मना किया था कि सिगरेट न पिया करो. . .लड़की कह रही है कि उसने कम कर दी है. . .अब कुत्ते के बारे में बात हो रही है। बूढ़ा कह रहा है कि उसके अस्पताल में रहते कुत्ते का पूरा ख्याल रखना। अगर कुत्ते का ध्यान नहीं रखा गया तो वह नाराज हो जायेगा. . .अब वह कह रहा है कि दोपहर के खाने में और सुबह के नाश्ते में भी गोश्त था। कम था, लेकिन था. . .अब बाजार में गोश्त की बढ़ती कीमतों पर बात हो रही है. . .बूढ़ा बहुत नाराज है. . .अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा. . .' मारिया कुर्सी की पीट से टिक गयीं।
'बेचारे गरीब लोग मालूम होते हैं।'
'गरीब?'
'हां, हमारे यहां की गरीबी रेखा के नीचे के लोग।'
कुछ देर बाद 'विजिटर्स` के जाने का वक्त हो गया। बूढ़े की लड़की चली गयी। मारिया भी उठ गयीं। गर्म कपड़ों और लोमड़ी के बालों वाली टोपी से अपने को लादकर बोलीं
'आपकी नर्स तो नहीं आयी?'
'अच्छा ही है जो नहीं आयी।'
'क्यों?'
'इसलिए कि औपचारिक बोसे से काम नहीं चलेगा और अनौपचारिक बोसे के बाद नींद नहीं आयेगी।'
उन्होंने कहा, 'कोई-न-कोई समस्या तो रहनी ही चाहिए।'
अस्पताल की रातें बड़ी उबाऊ, नीरस, उकताहट-भरी और बेचैन करने वाली होती हैं। नींद क्यों आये जब जनाब दिन-भर बिस्तर पर पड़े रहे हों। नींद की गोली खा लें तो उसकी आदत-सी पड़ने लगती है। पढ़ने लगें तो कहां तक पढ़ें? सोचने लगें तो कहां तक सोचें? लगता है अगर अनंत समय हो तो कोई काम ही नहीं हो सकता। रात में सो पाने, सोचने, पढ़ने आदि-आदि की कोशिश करने के बाद मैं अपने कमरे में आये नये बूढ़े मरीज की तरफ देखने लगा। वह अखबार पढ़ते-पढ़ते सो गया था। जागते हुए भी उसका चेहरा काफी भोला और मासूम लगता है कि लेकिन सोते में तो बिलकुल बच्चा लग रहा था। उसके बड़े-बड़े कान हाथी के कान जैसे लग रहे थे। धंसे हुए गालों के उपर हड्डियां उभर आयी थीं। शायद उसने नकली दांतों का चौखटा निकाल दिया था। उसकी ओर देखकर मेरे मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। सबसे प्रबल था कैंसर का बढ़ा हुआ मर्ज, चौरासी साल की उम्र में जिंद़गी का एक ऐसा मोड़ जो अंधेरी गली में जाकर गायब हो जाता है। लगता था बचेगा नहीं. . .जो कुछ मुझे बताया गया था उससे यही लगता था कि ऑपरेशन के बाद बूढ़ा सीधा 'इन्टेन्सिव केयर यूनिट` में ही जायेगा। और फिर कहां? मुझे लगने लगा कि उसकी मृत्यु बिलकुल तय है। उसी तरह जैसे सूरज निकलना तय है। लगा कहीं ऑपरेशन टेबुल पर ही न चल बसे बेचारा . . .पता नहीं क्यों अचानक वह मुझे हंगरी के अतीत-सा लगा।
रात ही थी या पता नहीं दिन हो गया था। अचानक कमरे की सभी बत्तियां जल गयीं और हॉयनिका के अंदर आने की आवाज से मैं उठ गया। उसने मुस्कराकर 'थरमामीटर` हाथ में दे दिया। इसका मतलब है सुबह का छ: बजा है। उसकी मुस्कराहट बड़ी कातिल थी। शायद कल वाली बात उसे याद होगी। मैंने दिल-ही-दिल में कहा, इस तरह मुस्कराने से क्या होगा, वायदा निभाओ तो जानें। उसने बूढ़े आदमी को 'पापा` कहकर जगाया और उन्हें भी 'थरमामीटर` पकड़ा दिया।
संसार के सभी अस्पतालों की तरह इस अस्पताल में भी आप समय का अंदाजा नर्सों की विजिट, डॉक्टरों के आने, नाश्ता दिये जाने, गैलरी की बत्तियां बंद किये जाने वगैरा से लगा सकते हैं।
सुबह के काम धीरे-धीरे होने लगे। 'पापा` उठे। उन्होंने अपनी छड़ी उठायी। छड़ी बहुत पुरानी लगती है। उतनी तो नहीं जितने पापा हैं लेकिन फिर भी पुरानी है। छड़ी के हत्थे पर प्लास्टिक की डोरी का एक छल्ला-सा बंध हुआ था। उन्होंने छल्ले में हाथ डालकर छड़ी पकड़ ली और बाहर निकल गये। शायद बाथरूम गये होंगे। छड़ी के हत्थे से प्लास्टिक की डोरी बांधने वाला आइडिया मुझे अच्छा लगा। इसका मतलब यह है कि पापा के हाथ में छड़ी कभी गिरी होगी। बस में कभी चढ़ते हुए या ट्राम से उतरते हुए या मैट्रो से निकलते हुए। छड़ी गिरी होगी तो पापा भी गिरे होंगे। पापा गिरे होंगे तो उनके पास जो सामान रहा होगा वह भी गिरा होगा। लोगों ने फौरन उनकी मदद की होगी। सामान समेटकर उन्हें दिया होगा। उनकी छड़ी उन्हें पकड़ाई होगी। इस तरह के बूढ़ों को मैंने अक्सर बसों, ट्रामों से उतरते-चढ़ते समय गिरते देखा है। पूरा दृश्य आंखों के सामने कौंध गया। इसी तरह की घटना के बाद पापा ने प्लास्टिक की डोरी का छल्ला छड़ी के मुट्ठे से बांध लिया होगा।
इस शहर में मैंने अक्सर इतने बूढ़े लोगों को आते-जाते देखा है जो ठीक से चल भी नहीं पाते। फिर भी वे थैले लिये हुए बाजारों, बसों में नजर आ जाते हैं। शुरू-शुरू में मैं यह समझ नहीं पाता था कि यदि ये लोग इतने बूढ़े हैं कि चल नहीं सकते तो घरों से बाहर ही क्यों निकलते हैं। बाद में मेरी इस जिज्ञासा का सामाधान हो गया था। मुझे बताया गया था कि प्राय: बूढ़े अकेले रहते हैं। पेट की आग उन्हें कम-से-कम हफ़्ते में एक बार घर से निकलने पर मजबूर कर देती हैं।
यह आदमी, बूढ़ा आदमी, जिससे मैं कल नफरत करते-करते बचा, दरअसल बहुत अच्छा है। जैसे-जैसे दिन गुजर रहे हैं, मुझे उनके बारे में अधकि बातें पता चल रही हैं। भाषा के सभी बंधनों के होते हमारे जो रिश्ते बन रहे हैं उनके आधार पर उसे पसंद करने लगा हूं। हालांकि हम दोनों आमतौर पर चुप रहने के सिवाय इसके कि हर सुबह एक-दूसरे को 'यो रैग्गैल्स` मतलब 'गुड मार्निंग` कहते हैं। दिन में 'यो नपोत किवानोक` यानी 'विश यू गुड डे` कहते हैं। छोटी-मोटी मदद के बाद 'कोसोनोम`, धन्यवाद कहते हैं। या धन्यवाद कहे जाने का जवाब 'सीवैशैन` कहकर देते हैं।
मुझे याद है दो दिन पहले जब मैं अपने दूसरे ऑपरेशन के बाद कमरे में जाया गया था और दर्द-निवारक दवाओं का असर खत्म हो गया था तो दर्द इतना हो रहा था कि बकौल फैज अहमद 'फैज` हर रगे जां से उलझ रहा था। डॉक्टर कह रहे थे जितनी स्ट्रांग दर्द-निवारक दवाएं वे दे चुके हैं उससे अधकि और कुछ नहीं दे सकते। अब तो बस झेलना ही है। मैं झेल रहा था। बिस्तर पर तड़प रहा था। कराह रहा था। आंखें कभी बंद करता था, कभी खोलता था। उसी वक्त एक बार आंखें खुलीं तो मैंने देखा कि पापा हाथ में छड़ी लिये मेरे बेड के पास खड़े हैं। मुझे यह उम्मीद न थी। वे कह कुछ न रहे थे। क्योंकि भाषा की रुकावट थी। लेकिन जाहिर था कि क्यों खड़े हैं। दर्द की वजह से उनका चेहरा धुंधला लग रहा था। उनकी धंसी हुई आंखें बिलकुल ओझल थीं। लंबे-लंबे कान लटके हुए थे। गर्दन झुकी हुई थी। सिर पर सफेद बाल बेतरतीबी से फैले थे। वे चुपचाप खड़े थे पर मुझे लगा जैसे कह रहे हों, देखो दर्द भी क्या चीज है कोई बांट नहीं सकता। उसे सब अकेला ही झेलते हैं। पापा को देखते ही मैं अपने दर्द से उनके दर्द की तुलना करने लगा। लगा इस विचार ने दर्द-निवारक गोली का काम कर दिया। मैंने सोचा, पापा, तुम्हारे ऑपरेशन के बाद मैं शायद तुम्हें देख भी न पाउंगा जिस तरह तुम मुझे देख रहे हो क्योंकि तुम शायद आई.सी.यू में होगे या किसी ऐसी जगह जहां मैं पहुंच न सकूंगा। तुम्हारे इस तरह मुझे देखने का एहसान मेरे उपर हमेशा के लिए बाकी रह जायेगा।
ऑपरेशन के बाद मैं ठीक होने लगा। दूसरे दिन टहलने लगा। इस दौरान पापा के टेस्ट वगैरा चल रहे थे। हंगेरियन अस्पतालों में कोई हबड़-तबड़ नहीं होती क्योंकि नफा-नुकसान, लेन-देन आदि का कोई चक्कर नहीं है। इसलिए पापा के 'टेस्ट` काफी विस्तार से हो रहे थे। मैं दिन में घबराकर कमरे के चक्कर लगता था और उकताहट दूर करने के लिए या पता नहीं किसलिए दिन में दसियों बार पापा से पूछता था, होज वाज पापा? यानी कैसे हो पापा? पापा मेरे सवाल का हर बार एक ही जवाब देते थे, 'कोसोनोम योल` धन्यवाद, ठीक हूं।` मैं समझता था कि शायद मेरे बार-बार एक सवाल पूछने से वे चिढ़ जायेंगे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। शायद वे जानते थे कि मैं पता नहीं उनसे क्या-क्या कहना चाहता हूं लेकिन नहीं कह पाता।
पापा लगभग पूरे दिन बड़े ध्यान से अखबार पढ़ा करते थे। वे हंगेरी का वह अखबार पढ़ते थे जो पहले कम्युनिस्टों का था और अब समाजवादियों का अखबार है। पापा की अखबार में गहरी रुचि मुझे चमत्कृत कर देती थी। ऐसी उम्र में, इतनी खतरनाक बीमारी से जूझते हुए दुनिया में कितने लोगों की रुचि बचती है। या तो लोग चुप हो जाते हैं या रोते रहते हैं। लेकिन पापा के साथ ऐसा न था। एक रात अखबार पढ़ने के बाद वे हाथ बचाकर मेज पर चश्मा रखने लगे तो चश्मा फर्श पर गिर पड़ा था। तब मैंने पापा के मुंह से ऐसी आवाज सुनी जो दु:ख व्यक्त करने वाली आवाज थी। मैं तत्काल उठा और पापा का चश्मा उठाया। मैंने देखा, न केवल चश्मा बेहद गंदा था बल्कि उसे धागों से इस तरह बांध गया था कि कई जगहों से टूटा लगता था। जैसा भी रहा हो, उसका पापा के लिए बहुत ज्यादा महत्व था। मैंने चश्मा उनकी तरफ बढ़ाया। उनकी आंखों में कृतज्ञता का स्पष्ट भाव था। चश्मा टूटा नहीं था। अगर टूट जाता तो? बहुत बुरा होता, बहुत ही बुरा।
दो-चार दिन बाद मेरी हालत ये हो गयी थी, अपने बेड पर लेटा-लेटा मैं यह इंतजार किया करता था कि पापा की मदद करने का अवसर मिले। वे रात में सोने से पहले लैम्प बंद करने के लिए उठते थे। उठने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। पहले छड़ी टटोलते थे। फिर छल्ले में हाथ डालते थे। तब खड़े होते थे। बेड का पूरा चक्कर लगाकर दूसरी तरफ आते थे और तब लैम्प का 'स्विच` 'आफ` करते थे। मैं इंतजार करता रहता था। जैसे ही लैम्प बंद करने की जरूरत होती थी मैं जल्दी से उठकर लैम्प 'ऑफ` कर देता था। पापा 'कोसोनोम` कहते थे। इसी तरह दोपहर के खाने के बाद जैसे ही उनके बर्तन खाली होते थे मैं उठाकर बाहर रख आता था। पढ़ते-पढ़ते कभी उनका अखबार नीचे गिर जाता था तो झपटकर उठा देता था। कभी-कभी ये भी सोचता था कि यार मैं इस अजनबी बूढ़े के लिए यह सब क्यों करता हूं? मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता था।
तीन दिन बाद आज हॉयनिका फिर रात की ड्यूटी पर है। पिछली बार जब वह रात की ड्यूटी पर थी तो उसके केबिन में जाकर मैंने उसे अमजद अली खां का सरोद सुनाया था। उसे पसंद आया था। उसने मुझे कॉफी पिलायी थी। इशारों, दो-चार शब्दों, हंगेरियन-अंग्रेजी शब्दकोश की मदद से कुछ बातचीत हुई थी। पता चला कि वह विवाहित है। लेकिन उसके विवाहित होने ने मुझे हतोत्साहित नहीं किया था। क्या विवाह कर लेना किसी लड़की की इतनी बड़ी गलती करार दी जा सकती है कि उससे प्रेम न किया जाये? नहीं, नहीं, कदापि नहीं। शादी कर लेने का मतलब है कि उससे गलती हो गयी है। और हर तरह की गलती, भूल को माफ किया जाना चाहिए।
आज जब मुझे पता चला कि उसकी ड्यूटी है तो रात के दस बज जाने का इंतजार करने लगा। क्योंकि उसके बाद ही उसे कुछ फुर्सत होती थी। इस दौरान मुझसे मिलने एक-दो लोग आये। उनसे बातें होती रहीं। पापा की लड़की आयी तो मैं अपने 'विजिटर्स` को लेकर बाहर आ गया। दरअसल अब मैं पापा और उनकी लड़की को बातचीत करने के लिए एकांत देने के पक्ष में हो गया था। कारण यह है कि एक दिन मैंने कनखियों से देखा कि पापा अपनी लड़की को चुपचाप अस्पताल का खाना दे रहे हैं। लड़की इधर-उधर देखकर खाना अपने बैग में रख रही है। अस्पताल में रोटी, 'चीज` और दीगर चीजें खूब मिलती थीं। उन्हीं में से पापा कुछ बचाकर रख लेते थे और शाम को अपनी लड़की को दे देते थे। इसलिए अब जब उनकी लड़की आती थी तो मैं कमरे से बाहर आ जाता था।
आठ बजे के करीब सल चले गये। मैं कमरे में आकर लेट गया। हॉयनिका के बारे में सोचने लगा। मेरे और उसके संबंध मधुर होते जा रहे थे। न केवल उसकी मुस्कराहट में दोस्ती और अपनापन बढ़ रहा था बल्कि कभी-कभी बहुत प्यारसे मेरा कंधा भी दबा देती थी। मैं भी अपनी तरफ से यही दिखाता था कि उसे पसंद करता हूं। एक बार उसे छोटा-मोटा भारतीय उपहार भी दिया था। बहरहाल प्रगति थी और अच्छी प्रगति थी। चूंकि अस्पताल में कोरी कल्पनाएं करने के लिए काफी समय रहता था इसलिए मैं हॉयनिका के बारे में मधुर, कोमल, छायावादी किस्म की कल्पनाएं भी करने लगा थ। वह वैसे बहुत सुंदर तो न थी। क्योंकि हंगेरी में महिलाओं की सुंदरता के मानदण्ड बहुत उंचे हैं। अक्सर सड़क पर टहलते हुए ऐसी लड़कियां दिख जाती हैं कि लगता है कि आप स्वर्ग की किसी सड़क पर टहल रहे हैं। पर वह सुंदर न होते हुए भी अच्छी है। या शायद मुझे लगती हो। शायद इसलिए लगती हो कि मुझे थोड़ी-बहुत घास डाल देती है। बहरहाल कारण चाहे जो भी हो मैं ठीक दस बजे कमरे से बाहर आया। गैलरी की बत्तियां बंद हो चुकी थीं। चारों तरफ सन्नाटा था। डॉक्टर अपने कमरों में थके-मारे सो रहे होंगे। हॉयनिका अपने केबिन में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी। मुझे देखते ही उसने पत्रिका रख दी। मुझे बैठने के लिए कहा। वह कॉफी पी रही थी। छोटे-से कप में काली कॉफी। मुझे भी दी। मैं अमृत समझकर पीने लगा। इधर-उधर की टूटी-फटी बातों के बाद मैंने उसे 'वाकमैन` पर सितार सुनाया। मैं खुद हंगेरियन महिलाओं की पत्रिका के पन्ने पलटता रहा। कॉफी ने मुंह का मजा चौपट कर दिया था लेकिन क्या कर सकता था। सितार सुनने के बाद उसने 'वाकमैन` मुझे वापस कर दिया। मैंने मुस्कराकर उसकी तरफ देखा। वह सुंदर लग रही थी। वही नींद में डूबी आंखें, बिखरे हुए बाल, लाल और कुछ मोटे होंठ, शरारत से भरी आंखें। मैंने धीरे से एक हाथ उसके कंधे पर रखा और कुछ आगे बढ़ा। उसकी आंखों में मुस्कराहट नाच उठी। वह कुछ नहीं बोली। बल्कि शायद मौन स्वीकृति। गैलरी का अंधेरा, बाहर लैम्प पोस्टों से आती पीली रोशनी, पेड़ों पर चमकती सफेद बर्फ, दूर से आती स्पष्ट आवाजें। मैंने अपना चेहरा और आगे बढ़ाया। इतना आगे कि उसका चेहरा 'आउट ऑफ फोकस` हो गया। उसकी सांसें मुझसे टकराने लगीं। होंठों पर कॉफी, सिगरेट और 'लिपिस्टिक` का मिला-जुला स्वाद था। होंठों के अंदर एक दूसरा स्वाद था जिसमें न तो मिठास थी और न कड़वाहट। उसका चेहरा एक ओर झुकता चला गया। मेरे हाथ कंधे से हटकर उसकी पीठ पर आ गये थे। उसके हाथ भी निश्चल नहीं थे। जब मैं उसे देखा पाया तो उसके चेहरे पर बड़ा दोस्ताना भाव था। उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था। उसकी प्याली में कॉफी बच गयी थी। वह उसने मुंह में उड़ेल ली। मैं उठ गया। 'विसोन्तलात आशरा` का एक्सचेंज हुआ। कल मैंने उसे कुछ और नया संगीत सुनाने का वायदा किया। उसने हंसकर स्वीकार किया।
ये कुछ औपचारिक और अनौपचारिक के बीच वाली बात हो गयी थी। मैं कमरे में आया तो इतना खुश था कि यह सोचा ही नहीं कि वहां पापा लेटे होंगे। पापा बिलकुल सीधे लेटे थे। उनके सफेद बाल बिखरे हुए थे। उन पर खिड़की से आती चांदनी पड़ रही थी। पापा का चेहरा फरिश्तों जैसा शांत लग रहा था। बिलकुल काम, क्रोध, माया, मोह से अछूता। एक अजीब तरह की आध्यात्मिकता छायी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे वे अस्पताल के बेड पर नहीं अपने ताबूत में कब्र के अंदर लेटे हों। उनके चेहरे से दैवी ज्योति फट रही थी। मैं एकटक उन्हें देख रहा था। इससे पहले के दृश्य के बीच मैं कोई तारतम्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। पर मुझे सफलता नहीं मिल रही थी। मुझे लगने लगा था कि कमरे में नहीं ठहरा जा सकता। मैं बाहर आ गया। हॉयनिका अपने केबिन में थी पर मैं उधर नहीं गया। दूसरी तरफ मुड़ गया और एक लंबी, विशाल खिड़की से बाहर देखने लगा। पत्तीविहीन लंबे-लंबे पेड़ों की हवा में हिलती शाखाएं, जमीन पर चमकती बर्फ, लोहे की रेलिंग से आगे फुटपाथ पर दूधिया रोशनी और उसके भी आगे मुख्य सड़कपर पर उंचे-उंचे पीली रोशनी फैलाते लैम्प पोस्ट खड़े थे। नीचे से कारों की हेडलाइटें गुजर रही थीं। खिड़की के बाहर का पूरा दृश्य प्रकाश, अंधकार, गति और स्थिरता का एक कलात्मक कम्पोजीशन-सा लग रहा था। तेजी से गुजरती कारें देखकर यह अजीब बेवकूफी का ख्याल आया कि इनमें कौन बैठा होगा? आदमी या औरत? व्यापारी, अपराधी, कर्मचारी, किसान, नेता, अध्यापक, पत्रकार, छात्र, प्रेमी युगल? कौन होगा? क्या सोच रहा होगा? उबाऊ और नीरस जीवन के बारे में या चुटकियों में उड़ा देने वाली जिंदगी के बारे में? फिर अपने पर हंसी आयी। सोचा कोई भी हो सकता है, कुछ भी सोच रहा होगा, तुमसे क्या मतलब, जाओ सो जाओ। लेकिन फिर पापा की याद आ गयी। अंदर जाने में एक अजीब तरह की झिझक पैदा हो गयी।
मुझे अस्पताल में इतने दिन हो गये थे कि और मैं उस जीवन में इतना रम गया था कि लगा अब घर वापस गया तो अस्पताल 'मिस` करूंगा या शाम घर वापस लौटने के बजाय अस्पताल आ जाया करूंगा। क्योंकि अब मैं वार्ड में शायद सबसे सीनियर मरीज था इसलिए झिझक मिट गयी थी। मैं वार्ड के 'किचन` तक में चला जाता था। अपने लिए चाय बना लेता था। गैलरी में खूब टहलता था। नये मरीजों से बात करने की कोशिश करता था। पुराने मरीजों को जान-पहचान वाली 'हेलो` करता था। ये देखना भी मजेदार लगता था कि मरीज आते हैं तो उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। ऑपरेशन के बाद कैसे लगते हैं और ठीक होकर वापस जाते समय उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। और कुछ नहीं तो सुंदर नर्सों और लेडी डॉक्टरों की चाल देखता था। देखने वाली चीजों में पापा की मेज पर रखा जूस का डिब्बा भी था जिसे मैं कई दिन से उसी तरह देख रहा था जैसा वह था। पापा ने उसे नहीं खोला था। वह जैसे का तैसा कई दिन से वैसा ही रखा था।
हंगेरियन मैं नहीं जानता लेकिन इतना मालूम है कि संसार में किसी भाषा के समाचारपत्र में कई दिन तक 'प्रमुख शीर्षक` एक नहीं हो सकता। पापा जो अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे उसमें मुझे ऐसा लगा। यानी वे तीन दिन पुराना अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे। मुझे अखबार पर गुस्सा आया। यह ताजा अखबार की बदनसीबी थी कि वह पापा तक नहीं पहुंचता। दोपहर को अखबार बेचने वाला आया और पापा सो रहे थे तो मैंने उससे नया अखबार लेकर पापा की मेज पर रख दिया और पुराना बाहर रख आया। पापा जब उठे तो उन्हें नया अखबार मिला। वे समझ नहीं पाये कि यह कैसे हो गया। मैं बताना भी नहीं चाहता था।
हॉयनिका दो-तीन दिन के 'गैप` के बाद रात की ड्यूटी पर ही आती थी। मैं बराबर उससे मिलता था। लेकिन एक आध बार भाषा की बाध के कारण काफी खीज गया और सोचा किसी हंगेरियन मित्र के माध्यम से कभी हॉयनिका से लंबी बातचीत करूंगा। हमारी मित्रता में शब्दों का अभाव अब बुरी तरह खटकने लगा था और लगता था इस सीमा को तोड़ना जरूरी है। एक दिन शाम को जब मारिया आयीं तो मैंने उनसे अपनी समस्या बतायी। उन्होंने कहा, 'ठीक है, आप दुभाषिए के माध्यम से प्रेम करना चाहते हैं।'
मैंने कहा, 'नहीं, ये बात नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि अब मुझे उसके बारे में कुछ अधकि जानना चाहिए। हो सकता है उसके मन में भी यह हो।'
खैर तय पाया कि शाम के जरूरी काम जब वह निपटा लेगी तो हम उसके केबिन में जायेंगे और मारिया जी के माध्यम से बातचीत होगी। मैं खुश हो गया कि मेरी अमूर्त कल्पनाओं को कुछ ठोस सहारा मिल सकेगा।
हम जा हॉयनिका के केबिन में गये तो वह पत्रिका पढ़ रही थी और कॉफी पी रही थी। मारिया ने उसे जब मेरे और अपने आने का कारण बताया तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलती चली गयी।
मैंने मारिया से कहा, पहले तो इसे बताइये कि मुझे इस बात का कितना दु:ख है कि हंगेरियन नहीं बोल सकता और उससे बातचीत नहीं कर सकता। यही वजह है कि मैं न उससे वह सब पूछ सका या कह सका जो चाहता था। मेरी बातों पर वह लगातार मुस्कराये जा रही थी।
'ये कहां रहती है?'
'बुदापैश्त से दूर एक छोटा-सा शहर है वहां रहती है।'
'वहां से आने में कितना समय लगता है?'
'तीन घंटे।'
'तीन घंटे आने में और तीन ही जाने में?'
'जी हां।'
'यहां क्यों नहीं रहती है?'
'यहां फ़्लैटों के किराये इतने ज्यादा हैं कि वह 'एफोर्ड` नहीं कर सकती . . .और वहां इसने किश्तों पर एक मकान खरीद लिया है।'
'कितनी किश्त देनी पड़ती है?'
'पन्द्रह हजार फोरेन्त महीना।'
'और इसे तनख्वाह कितनी मिलती है?'
'सत्रह हजार फोरेन्त. . .'
'तो कहां से खाती-पीती है?'
'इसका पति भी काम करता है।'
'क्या काम करता है?'
'चौकीदार है. . .किसी फैक्ट्री में।' सुनकर मुझे लगा कि यह नितांत अन्याय है। सुंदर महिलाओं के पतियों को उनकी पत्नियों की सुंदरता के आधार पर नौकरी मिलनी चाहिए।
'इसकी एक दो साल की बच्ची भी है।'
'उसे कौन देखता-भालता है?'
'दिन में ये देखती है. . .कभी-कभी इसकी मां और रात में इसका पति. . .यह कह रही है कि उसकी जिंदगी काफी मुश्किल है। लेकिन घर-परिवार की या निजी समस्याएं यह अपने साथ अस्पताल में नहीं लाती। यहां तो हर मरीज के साथ हंसकर बात करनी पड़ती है।'
यह सुनकर मैं चौंक गया। 'हर मरीज` में तो मैं भी आ गया और 'करनी पड़ती है` का मतलब विवशता है। कुछ क्षण मैं खामोश रहा।
पता नहीं क्यों मैंने मारिया से कहा, 'इससे पूछिए कि इसकी सबसे बड़ी इच्छा क्या है? यह क्या चाहती है कि क्या हो? बड़ी ख्वाहिश, अभिलाषा?'
'ये कह रही है कि इसकी सबसे बड़ी कामना यही है कि हर महीने मकान की किश्तें अदा होती रहें और मकान अपना हो जाये. . .और यह भी चाहती है कि उसे एक बेटा भी हो। यानी एक बेटी, एक बेटा और अपना मकान।'
'ठीक है, ठीक है. . .बहुत अच्छा. . .अब चलें।' मैं थोड़ा घबराकर बोला। मारिया मुस्कराने लगीं बहुत अर्थपूर्ण और कुछ-कुछ व्यंग्यात्मक।
कल पापा का ऑपरेशन है। आज वे अच्छी तरह नहाये हैं। अच्छी तरह कंघी की है। मैं आज उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता। उनकी धुंधली आंखों में देखना आज मुश्किल काम है।
शाम के वक्त कुछ जल्दी ही उनकी लड़की आ गयी। आज वह बहुत ज्यादा उदास लग रही है। दोनों धीमे-धीमे बातें करने लगे। पापा की आवाज में सपाटपन है। वे बोलते-बोलते रुक जाते हैं। कुछ अंतराल पर थोड़ी बातचीत होती है। फिर दोनों सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं। पापा की आंखें गहरी सोच में डूबी हुई हैं। वे छत की तरफ देख रहे हैं। लड़की खिड़की के बाहर देख रही है। बाहर से आवाजें आ रही हैं। पापा ने कुछ कहना शुरू किया। लड़की शायद सुन नहीं पा रही थी। वह और अधकि पास खिसक आयी। उसी वक्त मारिया कमरे में आयीं। उनका आना दैवी कृपा जैसा लगा। अभी वे अपना ओवरकोट, भारी-भरकम टोपी उतारकर बैठने भी न पायी थीं कि मैंने फरमाइश कर दी
'जरा बताइये. . .क्या बातचीत हो रही है?'
'आप भी कुछ अजीब आदमी हैं!' वे हंसकर बोलीं।
'कैसे?'
'पूरे अस्पताल में आपको दो ही लोग पसंद आये हैं। एक पापा और दूसरी हॉयनिका। है ना?'
'हां है।'?
'और दोनों में अद्भुत साम्य है।' वे हंसीं।
'देखिए, बात मत टालिए. . .पापा कुछ कह रहे हैं. . .जरा सुनिए क्या कह रहे हैं।' कुछ सुनने के बाद मारिया बोलीं, 'पापा कह रहे हैं अब मैं किसी से नहीं डरता। अब मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है। मैं सच बोलूंगा. . .' मारिया जी चुप हो गयीं। पापा भी चुप हो गये थे। बातचीत का चूंकि ओई ओर-छोर न था इसलिए मैं सोचने लगा ये पापा क्या कह रहे हैं? अब किसी से नहीं डरते. . .मतलब पहले किसी से डरते थे। किससे डरते थे? बूढ़ा आदमी, जो हर तरह से अच्छा नागरिक मालूम होता है, किसी से क्यों डरेगा? और अब वह डर नहीं रहा। यह कैसा डर है जो पहले था अब खत्म हो गया? इस पहले को सुलझाना मेरे बस की बात न थी। मैं पूछ भी नहीं सकता था। किसी के डरने का कारण पूछना वैसे भी असभ्यता है और निश्चित रूप से अगर डर किसी बूढ़े आदमी का हो तो और भी। पापा की दूसरी बात समझ में आती है, अब उनका कोई क्या बिगाड़ सकता, क्योंकि यह स्पष्ट है कि अब उसका सामना सीधे मृत्यु से है। और जो कब्र में पैर लटकाये बैठा हो उसे क्या सजा दी जा सकती है? सबसे बड़ी सजा तो मृत्युदण्ड ही है न। सबसे बड़ी इच्छा जीवित रहने की ही है न। तो जो इनसे उपर उठ गया हो उसका कोई कानून, कोई समाज, कोई व्यवस्था क्या बिगाड़ सकती है? और जब उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता तो वे 'सब कुछ` कह सकते हैं। जो महसूस करते हैं बता सकते हैं। हद यह है कि 'सच` तक बोल सकते हैं। सच-एक ऐसा शब्द तो घिसते-पिटते बिलकुल विपरीत अर्थ देने देने लगा है। लेकिन चौरासी वर्षीय कैंसर-पीड़ित पापा, आठ घंटे का ऑपरेशन होने से पहले अगर 'सच` क्यों नहीं कह दिया? फैज की पंक्तियां याद आ गयीं 'हफे हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह। आज इजहार करें और खलिश मिट जाये।` तो पापा आज वह सत्य कहना चाहते हैं जो उनके दिल के बोझ को हल्का कर देगा। ठीक है पापा, कहो, जरूर कहो। कभी, कहीं, कोई, किसी तरह ये कहे तो कि 'हक` क्या है?
अगले दिन लंबे इंतजार के बाद शाम होते-होते पापा ऑपरेशन थियेटर से वापस लाये गये तो लगा जैसे तारों, नलकियों, बोतलों, बैगों का एक तिलिस्म है जो उनके चारों ओर लिपट गया है। पता नहीं कितनी तरह की दवाएं, कितनी जगहों से पापा के शरीर के अंदर जा रही थीं और शरीर से क्या-क्या निकल रहा था जो बेड के नीचे चटकते बैगों में जमा हो रहा था। इन सबमें जकड़े पापा को देखने की हिम्मत नहीं थी। वे बिलकुल शांत थे, आंखें बंद थीं। शायद बेहोश थे। वे सब बातें, वे सब डर, जो मेरे अंदर छिपे बैठे थे, सामने आ गये। पापा. . .बेचारे पापा. . .नर्सें थोड़ी-थोड़ी देर के बाद आ रही थीं और आवश्यक कार्यवाही कर रही थीं। कुछ देर बाद उनकी लड़की आयी। नर्स से बातचीत करके चली गयी। रात में मैं कई बार उठा लेकिन पापा की हालत में कोई बदलाव नहीं देखा। न हिल रहे थे, न डुल रहे थे, न खर्राटे ले रहे थे। बस ग्लूकोस की टपकती बूंदें ही बताती थीं कि सब कुछ ठीक है। रात में कई बार नर्स आयी, उसने बोतलें बदलीं, थैलियां बदलीं और पापा को टेम्प्रेचर वगैरा लिया और चली गयी।
रात में मुझ तरह-तरह से ख्याल आते रहे। कुछ बड़े भयानक ख्याल थे। जैसे अचानक नर्स घबराकर खट-खट करती हुई बाहर जायेगी। दूसरी ही क्षण कई डॉक्टर आ जायेंगे। पापा को बाहर निकाला जायेगा और फिर कुछ देर बाद दो-तीन लोगों के साथ पापा की लड़की आयेगी। वह सिसक रही होगी। उसकी आंखें लाल होंगी। वह धीरे-धीरे पापा का सामान समेटेगी। पापा का चश्मा, उनकी डायरी, उनका कलम, उनके कपड़े, जूते, तौलिया, साबुन और वह छोटी-सी गठरी जिसमें से सख्त बदबू आती है। मेज पर रखा जूस का वह डिब्बा उठायेगी जो अब तक बंद है। दराज खोलेगी तो उसमें से कुछ खाने का सामान, छुरी-कांटा और चम्मच निकलेगा। इस सबके दौरान वह रोती रहेगी। साथ वाले लोग सान्त्वना के एक-आध शब्द कहेंगे। फिर सामान समेटकर वह पापा के बेड पर एक नजर डालेगी और चीखकर रो पड़ेगी। उसी समय बड़ी नर्स जायेगी तो ताजी हवा अंदर आयेगी। छोटी नर्सें खटाखट बेड कवर, तकिये गिलाफ और चादरें बदल देंगी। लोहे के सफेद बेड को साफ कर देंगी और बाहर निकल जायेंगी। अब वहां सिर्फ मैं बचूंगा। और अगर मैं किसी को बताना भी चाहूंगा कि बेड पर पापा ने अपनी जिंदगी से सबसे सच्चे क्षण गुजारे हैं तो किसी को यकीन नहीं आयेगा।
दो दिन तक पापा की हालत बिल्कुल एक-सी रही। उसके बाद मेरा अपना छोटा वाला ऑपरेशन हुआ और मैं पड़ गया। एक-आध दिन के बाद करीब शाम के वक्त जब मेरे पास मारिया और पापा के पास उनकी लड़की बैठे थे तो सीनियर नर्स आयी और बोली कि पापा को बैठाया जायेगा। उसने पापा का बेड ऊँचा किया। पापा दर्द से चिल्लाने लगे। फिर बेड नीचा कर दिया गया। लेकिन नर्स ने कहा कि इस तरह काम नहीं चलेगा। आखिर दोनों के बीच फैसला हुआ कि जितना उंचा पहल किया गया था उसका आध उंचा कर दिया जाये। उस दिन मारिया ने बताया कि पापा कह रहे हैं कि 'भगवान की कृपा से अब मैं डेढ़-दो साल और जी जाऊँगा।' मारियाजी को इस वाक्य पर बड़ी हंसी आयी थी। उन्होंने कहा था कि भगवान पर ऐसा विश्वास हो तो फिर क्या समस्या है। पापा अपनी लड़की को यह भी बता रहे थे, उनका खाना बंद है और वे सूखकर कांटा हो गये है। पापा सिर्फ 'लिक्विड डाइट` पर थे। जूस का सौभाग्यशाली डिब्बा खुल गया था। उसके अलावा पापा को कॉफी और सूप मिलता था।
एक-आध दिन बाद मैं बाथरूम से कमर में आया तो एक अद्भुत दृश्य देखा। बेड का सहारा लिये पापा खड़े थे। उनके सफेद बाल बिखरे थे। सफेद लंबा-सा अस्पताल का चोगा लटक रहा था। हाथ और पैर बिलकुल काले गये थे। शरीर के चारों ओर कुछ नलकियां और बैग झूल रहे थे। उनके चेहरे पर कोई भाव न थे। अपने खड़े रहने पर वे इतना ध्यान दे रहे थे कि और कुछ व्यक्त करने का उनके पास समय ही न था। मैंने सोचा कि उनके खड़ा होने पर बधाई दूं या कम-से-कम हंगेरियन शब्द 'यो` 'यो` कहूं जिसका मतलब 'अच्छा` 'सुंदर` आदि है। लेकिन फिर लगा कि कहीं मैं पापा को 'डिस्टर्ब` न कर दूं। उसी तरह, जैसे बच्चे जब पहली-पहली बार खड़े होते हैं और उन्हें देखकर माता-पिता हंस देते हैं तो वे धप्प से बैठ जाते हैं। पापा खड़े रहे। उन्होंने एक बार गर्दन उठाकर सामने देखा। एक बार गर्दन झुकाकर नीचे देखा। बेड को पकड़े-पकड़े एक कदम आगे बढ़ाया, उसके बाद वे रुक गये। पापा को खड़े देखकर यह लगा कि केवल पापा ही नहीं खड़े हैं। उनके साथ न जाने क्या-क्या खड़ा हो गया है। मैं एकटक भी नहीं देख सकता था। डर था कहीं पापा मुझे देखता हुआ न देख लें।
मेरे अस्पताल से निकाल दिये जाने के दिन करीब आ रहे थे। मैं जानता था कि जितना यहां आराम है, उतना कहीं और न मिलेगा। जितनी यहां शांति है उतनी शायद शांति निकेतन में भी न होगी। यहां समय अपने वश में लगता है लेकिन बाहर मैं समय के वश में रहता हूं। बहरहाल अस्पताल से बाहर जाने का विचार इस माने में तो अच्छा था कि ठीक हो गया हूं लेकिन इस अर्थ में अच्छा नहीं था कि बाहर अधकि खुश रहूंगा। अस्पताल के जीवन का मैं इतना अभ्यस्त हो गया था या वह मुझे इतना पसंद आया था कि बाहर निकाल दिये जाने का विचार एक साथ खुशी और अफसोस की भावनाओं का संचार कर रहा था। हॉयनिका ने भी एक बार मजाक में कहा था कि मेरे अस्पताल से चले जाने के बाद मैं उसे बहुत याद आउंगा। मैंने कहा कि अस्पताल के बाहर भी कहीं मिला जा सकता है। लेकिन फिर खुद अपने प्रस्ताव पर शर्मिंदा हो गया था दो-तीन घंटे की यात्रा और पूरी रात अस्पताल में ड्यूटी के बाद सुबह सात बजे तीन घंटे की यात्रा करने के लिए निकलने वाले से 'कहीं बाहर` मिलने की बात करना अपराध लगा।
पापा को खाना दिया जाने लगा था। अब वे अपनी लड़की से यह शिकायत करते थे कि खाना कम दिया जाता है। कई दिन भूखे रहने के बाद उनकी खुराक शायद बढ़ गयी थी। लेकिन इस संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता था। अस्पताल वाले नियमित मात्रा में ही खाना देते थे। पापा अब चूंकि थैलियां लटकाये चलने फिरने लगे थे इसलिए भी भूख खुल गयी होगी। ऑपरेशन के बाद पापा के पास से वह दुर्गंध आना बंद हो गयी थी, लेकिन कभी-कभी वह 'ट्यूब` या थैली खुल जाती थी जिसमें टट्टी आती थी। उसके खुलते ही भयानक दुर्गंध कमरे में भर जाती थी और बाहर निकलने के अलावा कोई रास्ता न बचता था। एक दिन यह हुआ कि पापा की टट्टी वाली थैली खुल गयी। उन्होंने स्वयं बंद करने की कोशिश की तो वह और ज्यादा खुल गयी। मैं कमरे से बाहर चला गया। कुछ देर बाद कमरे में आया तो देखा पापा खड़े हुए थैलियों से जूझ रहे हैं। टट्टी की थैली गंदगी निकलकर बिस्तर पर, फर्श पर फैल गयी है। पापा का चोगा उतर गया है। वे बिलकुल नंगे खड़े हैं। सफेद बाल बिखरे हुए हैं। पापा थैलियों को लगाने की कोशिश कर रहे थे। नर्स को नहीं बुला रहे। यह देखकर अच्छा लगा। पापा अब ये काम अपने आप कर सकते हैं। लेकिन मैंने नर्सों से जाकर कहा। वे आयीं। पापा और कमरे की पूरी सफाई हो गयी। पापा नये चोगे में लेट गये। चश्मा लगाकर अखबार ले लिया। खिड़की खोल दी थी। मैं भी लेट गया, अमजद अली खां को सुनने लगा।
पापा कुर्सी पर भी अक्सर बैठ जाते थे। एक दिन मैंने देखा कि पापा चश्मा लगाये, गंभीर मुद्रा में, हाथ में कलम लिये कुर्सी पर बैठे हैं। सामने मेज पर कुछ कागज रखे थे। मैं समझा शायद कुछ हिसाब लिख रहे हैं, लेकिन कलम चलने की रफ़्तार से कुछ समझ में नहीं आया। न तो वे पत्र लिख रहे थे, न शायरी लिख रहे थे, न हिसाब कर रहे थे। वे कलम को हाथ में पकड़े गंभीरता से कागज की तरफ देखकर देर तक कुछ सोचते थे और फिर झिझकते हुए कलम उठाते थे। एक-आध शब्द लिखते थे और फिर कलम रुक जाता था। एकाग्रता बहुत गहरी थी। माथे पर लकीरें पड़ी हुई थीं। चिंता में डूबे थे जैसे कोई ऐसा काम कर रहे हों जो उनके लिए जरूरी से भी ज्यादा जरूरी हो। यह जानने के लिए, ऐसा क्या हो सकता है, मैं उठा और टहलने के बहाने पापा के पीछे पहुंच गया। अब मैं देख सकता था कि वे क्या कर रहे हैं। वाह पापा वाह! तो ये ठाठ हैं। इसका मतलब हैं अब तुम बिलकुल 'चंगे` हो गये हो। लाटरी वह भी यूरोप की सबसे बड़ी लाटरी. . .सौ मिलियन फोरेन्त। भई वाह. . .क्या करोगे इतना पैसा पापा? चर्च बनवाओगे? उस भगवान का घर जिसकी कृपा से तुम साल-डेढ़ साल और जीओगे या अपने लिए शानदार कोठी बनवाओगे? या हर साल जाड़ों में फ्रांस के समुद्र तट पर जाया करोगे? समुद्र में नहाओगे? ख़ूबसूरत फ्रांसीसी लड़कियों के साथ 'बीच` पर लेटकर अपना रंग सुनहरा करोगे? या ये सौ मिलियन डालर तुम अपनी लड़की को दे दोगे? या महंगी-महंगी गाड़ियां खरीदोगे। जायदाद बनाओगे या कोई सरकारी फैक्टरी खरीद लोगे जो आजकल धड़ाधड़ बिक रही हैं? क्या करोगे पापा? क्या करोगे सौ मिलियन फोरेन्त? ये बताओ कि अगर ये लाटरी तुम्हारी नाम निकल आयी तो तुम्हें ये सूचना देने का जोखिम कौन उठायेगा? यह सुनकर तुम्हें क्या लगेगा कि मरने से डेढ़-दो साल पहले तुम करोड़पति हो गये हो? फिर तुम्हारे लिए एक मिनट एक महीने जैसा कीमती होगा। तब तुम अपना एक मिनट कितनी होशियारी, चतुराई, सतर्कता, समझदारी से गुजारोगे? कुछ भी कहो पापा, सौ मिलियन मिलने के बाद तुम्हारी परेशानियां बढ़ ही जायेंगी। लेकिन यह बड़ी बात है। कितने ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारी उम्र तक पहुंचते-पहुंचते इच्छाओं से खाली हो जाते हैं। तुम्हारे पास सौ मिलियन फोरेन्त खर्च करने की योजना भी होगी। क्योंकि हर लाटरी खेलने वाले के पास इस प्रकार की एक योजना होती है। तुम्हारे पास योजना है तो तुम सोचते हो अपने बारे में, परिवार के बारे में, लोगों के बारे में। यह बहुत है पापा, बहुत है। अच्छा पापा, एक बात पूछूं? कान में, ताकि कोई ओर सुन न लें। ये बताओ कि यह इच्छा- मतलब लाटरी निकल आने की इच्छा कब से है तुम्हारे मन में? क्या मंदी के दिनों से है जब तुम जवान और बेरोजगार थे? या उस समय से हैं जब जर्मन और रूसी गोलियों से बचने तुम किसी अंधेरे तहखाने में छिपे हुए थे? क्या यह इच्छा उस समय भी भी तुम्हारे मन में जब तुम विजयी लाल सेना का स्वागत कर रहे थे? बाद के दिनों में क्रांति के बीत गाते हुए या सहकारी आंदोलन में रात-दिन भिड़े रहने के बाद भी तुम यह सपना देखने के लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेते थे? माफ करना पापा, मैं ये सब इसलिए पूछ रहा हूं कि ऐसे सपने देखना कोई बुढ़ापे में शुरू नहीं करता। है न?
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13 तख्ती
लोग अक्सर मुझसे कहते या पूछते हैं या सिर्फ इस हकीकत की तरफ इशारा करते हैं कि मुझे बहुत-सी आवश्यक जानकारियां नहीं हैं। गणित, व्याकरण खगोलशास्त्र, पुरातत्व जैसे बहुत से विषयों के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। यही नहीं, सामान्य जानकारियां भी नहीं। उदाहरण के लिए आप कहें कि मैं दस चिड़ियों, फलों, मछलियों या पत्थरों के नाम बता दूं तो नहीं बता सकता। यदि आप पूछें कि विश्व की दूसरी प्राचीनतम सभ्यता कौन-सी थी या भूमध्य रेखा कहां से गुजरती है तो मैं मुंह खोल दूंगा। शायद यही वजह है कि कहा जाता है, मेरी शिक्षा कुछ ठीक-ठाक नहीं हुई। लोग उन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में नाम जानना चाहते हैं जहां मैं पढ़ा हूं। कुछ लोग मेरे गुरुजनों के नाम पता लगाने की धृष्टता करते हैं। अब मैं क्या कहूं, कमीनेपन की भी हद होती है।
बहरहाल, इन सवालों से घबराकर मैंने एक यात्रा शुरू की है, जिसमें चाहता हूं आप मेरे साथ चलें। लेकिन कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन आप इनकार करें तो कोई खूबसूरत-सा बहाना जरूर तलाश करें। यह मुझे पंसद है। समझ जाउंगा कि बाहना बना रहे हैं लेकिन दिन नहीं दुखना चाहते। आज के जमाने में यह भी बड़ी बात है। मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा। लेकिन अगर आप मेरे साथ चलेंगे तो उसमें कम-से-कम आपको कोई नुकसान न होगा। हां, अगर आप मेरी धारणा के विपरीत समय को मूल्यवान समझते हो तो बात दूसरी है। अगर आप ऐसा नहीं समझते तो मेरे साथ चलें। बकौल नासिर काजमी 'सब मेरे दौर में मुंहबोलती तस्वीरें हैं। कोई देखे मेरे दीवान के किरदारों को।`
कहां जाता है कि जब मैं सात-आठ साल का था तो मेरी पढ़ाई का सवाल उठा। इतनी देर से इसलिए कि परिवार में कई पीढ़ियों ने पढ़ने-लिखने की कोई जरूरत न महसूस की थी। सगड़ दादा को तो कलम-कागज से ऐसी नफरत थी कि वे अपनी जमींदारी का हिसाब-किताब करने वाले मुंशियों तक को लिखते-पढ़ते देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लेकिन सगड़ दादा बहुत समय तक परिवार के आदर्श न बने रह सके। हां, यह धारणा जरूर बची रही कि लोग नौकरी करने के लिए पढ़ते हैं और चूंकि हमारे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है, हम किसी की नौकरी नहीं करेंगे तो क्यों पढ़ें। घर की पढ़ाई बहुत है। थोड़ी फारसी, थोड़ा हिसाब, थोड़ी अरबी आ जाए तो बहुत है। हमारे परदादा ने अपने दोनों लड़कों को घर की पढ़ाई के बाद पहली बार स्कूल भेजा था। इस वक्त बड़े लड़के की उम्र सोलह सात की छोटे की चौदह साल थी। यह उन्नीसवीं सदी के चलचलाव का जमाना था। बड़े लड़के की स्कूल तालीम इस तरह अंजाम तक पहुंची कि उसकी किसी टीचर से कहा-सुनी हो गई । टीचर ने गाली दे दी। उसने टीचर को उठाकर पटक दिया, हाथ-पैर तोड़ दिए और घर आ गया। परदादा ने इस मामले को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। सोचा, जहां बारह मुकदमे चले रहे हैं वहां तेरहवां भी चलेगा। बस छोटे बेटे की तालीम बड़े सुखद कारणों से अंजाम तक पहुंची। यानी उनकी शादी हो गई। चौथी के बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया।
जिंद़गी के आखिरी दौर में तो नहीं बल्कि उससे पहले ही हमारे दादाजान की समझ में यह बात आ गई थी कि स्कूली शिक्षा जरूरी है। इसकी वजह यह थी कि वे शहर के रईस होने के नाते अंग्रेज अफसरों से उनकी कोठियों, दफ़्तरों, क्लबों में मिलते थे और देखते थे कि उनके दरबारों में आमतौर उन काले लोगों को सम्मान मिलता है जो टूटी-फटी ही सही, गोराशाही ही सही, लेकिन अंग्रेजी बोलते हैं। पर चिड़िया खेत चुग चुकी थी। यानी दादाजान अपने पढ़ने को सुहाना समय गंवा चुके थे इसलिए उन्होंने हमारे पिताजी की पढ़ाई का पक्का धयान रखा। पिताजी छोटे ही थे कि उनको पढ़ाने के लिए सुबह मौलवी, दोपहर के वक्त एक मास्टर अंग्रेजी पढ़ाने और शाम के वक्त एक मास्टर हिसाब पढ़ाने आने लगा। इस तरह दादाजान का इरादा था कि पिताजी की जड़ें मजबूत कर दी जाएं ताकि आगे कोई दिक्कत न हो। नतीजा यह हुआ कि अब्बा गणित से इतना डरने लगे जितना लोग अल्लाह से भी नहीं डरते। अंकगणित और बीजगणित उन्हें दो ऐसे जिन्न लगते थे जो उन्हें दबाकर बैठ गए हों और लगातार मार रहे हों। नतीजा यही निकला कि आठवीं में दो बार लुढ़क गए। दसवीं में थे कि आजादी मिल गई उनको ही,देश को। दसवीं ही में थे कि गांधीजी की हत्या हो गई। फिर दसवीं ही में थे कि जमींदारी खत्म हो गई। पर कुछ ऐसे जरूरी काम थे जो उनके दसवीं में लगातार वक़्त पास की जब दो बच्चों के बाप बन चुके थे।
अब्बा ने मेरी पढ़ाई की तरफ समय से ध्यान दिया। अब चूंकि जमींदारी नहीं थी। किसी-न-किसी को नौकरी करनी थी। इसलिए पढ़ाई जरूरी हो गई थी। मेरी जड़ें मजबूत करने का काम उतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ जितना अब्बा का हुआ था। मुझे पढ़ाने एक मास्टर आते थे। उनका नाम शराफत हुसैन था। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। पान के रसिया। जब पढ़ाते तो पान मुंह में इस कदर भरा रहता था कि मुंह से आवाज के बजाय पान की छींटें निकलती थीं। पढ़ाई के दौरान कई बार वे मुझे घर के अंदर पान लेने भेजते थे, 'जाओ पान लगवा लाओ।' मैं खुशी-खुशी उठकर भागने वाला होता तो कहते, 'इससे पहले जो पान लाए थे वो किससे लगवाया था?'
'अम्मा से।'
'अबकी बड़ी बिटिया से लगवाना।' बाकी डिटेल मुझे याद थी माट साब के पान में कत्था कम चूना ज्यादा, डली कम किमाम ज्यादा. . .
मास्टर साहब अच्छे आदमी थे। मुझे पर विश्वास करते थे। एक बार पढ़ाने के बाद पूछते थे, 'क्यों, समझ गए?' मैं कहता था, 'हां समझ गया।' और वे विश्वास कर लेते थे। कहते थे 'लड़का जहीन है, जल्दी समझ जाता है। तरक्की करेगा।' मैं यह जानता था कि यह पूछने के बाद कि समझ गये वे और कुछ नहीं पूछेंगे इसलिए हां कर दिया करता था। मुझे लगता था जैसे 'हां समझ गया` कहकर मैंने अपनी जिंदगी को आसान बना लिया है वैसे ही दूसरे लोग क्यों नहीं करते। मुझे बचपन में कुएँ से पानी भरकर लाने वाले भिश्ती से बड़ी हमदर्दी थी। मैं यह चाहता कि मेरे काम की तरह उसका काम भी हल्का हो जाए। लड़कपन में कुएँ के पास जाने मनाही थी। एक दिन चला गया था। कुआं घर के बाहर कोने में था। वह मुख्य घर से करीब हजार-डेढ़ हजार फीट दूर था। वहां भिश्ती करीमउद्दीन पानी भर रहा था। मैंने उससे गिड़गिड़ाकर दरखास्त की थी कि क्या एक बाल्टी मैं भी खींच सकता हूं? उसने मुझे ऐसा करने दिया था कि तब से मैं सोचा करता था कि अल्लाह मियां, तू करीमउद्दीन का काम हल्का क्यों नहीं कर देता। बहरहाल, बात हो रही थी कि मास्टर साहब की तो माट साब मुझ पर विश्वास करते थे। मैं माट साहब पर विश्वास करता था। अब्बा जब भी पूछते थे कि माट साब जो पढ़ाते हैं वो समझ में आता है तो मैं कहता था हां आता है जबकि हकीकत यह थी कि जब माट साब पढ़ाते थे तो मैं करीमउद्दीन के बारे में सोचा करता था यह सोचा करता था कि फलों को अगर बहुत जोर से मसला जाए तो रंग निकाला जा सकता है। और रंग से बड़ी अच्छी तस्वीर बन सकती है। या सोचा करता था कि अबकी कमल तोड़ने के लिए किस तालाब में जाना चाहिए। या तैरना सीख लूं तो कितना अच्छा हो। वगैरह-वगैरह।
लड़कपन में माट साब के अलावा कभी-कभी जब जी चाहता था तो अब्बा भी पढ़ाते थे। वह वक्त मेरी उपर बहुत ही सख्त गुजरता था जब अब्बा कहते थे कि अपनी किताबें-कापियां लेकर आओ। अब्बा हिसाब नहीं पढ़ाते थे। हालांकि वे हाईस्कूल थे, मैं पाँचवी में पढ़ता थ। अब्बा का ख्याल था कि अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। अब्बा साल-छह महीने में एकाध बार यह ऐलान करते थे कि वे मुझे पढ़ाने जा रहे हैं तो उसका असर घर में कुछ उसी तरह होता था जैसे हवाई हमले के सूचक सायरन का असर किसी सैनिक अड्डे पर होता है। मतलब अम्मा जानमाज बिछाकर बैठ जाती थी और दुआ मांगती थी कि आज की पढ़ाई के परिणामस्वरूप भंयकर हिंसा न हो। घर में खाना पकाने वाली औरत मेरी पसंद का खाना चढ़ा देती थी कि पिटने के बाद मुझे वह खाना खिलाया जा सके। एक नौकर अर्रे की पतली छड़ी ले आता था क्योंकि अब्बा छड़ी सामने रखकर ही पढ़ाते थे। मेरे साथ गेंद खेलने वाले नौकरों के लड़के भाग जाते थे। कोई जोर-जोर से बात नहीं करता था। बहुत साफ करके एक लालटेन पास रख दी जाती थी कि अंधेरा होने पर फौरन जलाई जा सके। एक नौकरानी हल्दी पीसने लगती थी कि पढ़ाई के बाद मेरी चोट पर लगाई जाएगी. . .जनाबेवाला, हो सकता है कि यह विवरण देने में कुछ अतिशयोक्ति से काम ले रहा हूं लेकिन यह सच है कि अब्बा ने मुझे किस तरह पढ़ाया था आज तक याद है। क्या पढ़ाया था वह भूल चुका हूं।
जब पांचवीं पास करने के बाद मैं छठी में आया तो पुराने माट साब को निकाल दिया गया और उनकी जगह नए माट साब, जो सरकारी स्कूल में अध्यापक भी थे, घर पढ़ाने आने लगे। उनका वेतन उस जमाने के हिसाब से बहुत ही ज्यादा था, जिसका उलाहना मुझे दिया जाता था कि तुम्हारी पढ़ाई पर इतना खर्च किया जा रहा है, तुम ठीक से पढ़ा करो। नए माट साब का नाम शुक्ला माट साब था लेकिन लड़के इन्हें पीछे बग्गड़ माट साब कहा करते थे। माफ कीजिएगा, मैं अपने गुरु का नाम बिगाड़कर उनका अपमान नहीं कर रहा हूं। न तो मैंने उन्हें यह नाम दिया था और न मैं इसे अच्छा समझता था। मैं तो केवल बताने के लिए बता रहा हूं। पाप अन पर पड़ेगा या पड़ा होगा जिन्होंने यह नाम रखा था। तो साहब, बग्गड़ माट साब की उम्र चालीस-पैंतालीस के बीच रही होगी। कद औसत था। जिस्म गठीला था। आंखें छोटी और अंदर को धंसी हुई थीं। होंठ पतले थे। क्लीन शेव रहते थे। गालों के उपर वाली हड्डियों कुछ अधकि उभरी हुई थीं। माथा छोटा था। सिर के बाल बड़े अजीबोग़रीब थे। यानी बिलकुल खड़े रहते थे। काले और बेहद मजबूत थे। रोज ही उनसे सरसों के असली तेल की सुगंध आती थी। उनकी गरदन छोटी थी। शायद उनके बालों के कारण ही लोग उन्हें बग्गड़ कहते थे। बहरहाल, खुदा जाने क्या वजह थी।
जैसा कि उपर बताया गया, बग्गड़ माट साब के बाल बहुत खास थे। उन्हें अपने बालों पर गर्व था। अक्सर उसका प्रदर्शन भी करते रहते थे जिसका तरीका बड़ा रोचक होता था। पढ़ाते-पढ़ाते कभी बालों की चर्चा छिड़ जाती तो पूरे एक घंटे का भाषण और प्रैक्टिकल हमेशा तैयार रहता था। विषय की थ्योरी में मेरी अधकि रुचि नहीं थी। प्रैक्टिकल में मजा आता था यानी बग्गड़ मास्टर अपना सिर झुका लेत थे और मुझसे कहते थे कि मैं उनके बाल पूरी ताकत से खींचूं। कभी-कभी मैं इतनी जोर से उनके बाल खींचता था कि मेरा चेहरा लाल हो जाया करता था, लेकिन बग्गड़ माट साब का एक बाल भी न टूटता था। वे मुस्कराते रहते थे। उसका रहस्य छिपा था थ्योरी में। बग्गड़ माट साहब कहते थे कि वे साबुन से नहीं नहाते। सिर में हमेशा शुद्ध - अपने सामने पिराया - सरसों का तेल लगाते हैं। तेल रोज सुबह लगाते हैं। कंघा कभी नहीं करते आदि-आदि। बग्गड़ माट साब रोज शाम पांच बजे आते थे। घर के बाहर अहाते में कच्ची कोठरी को लीप-पोतकर 'स्टडी रूम` बनाया गया था। उसमें लकड़ी की मेज-कुर्सियां और एक अच्छा-सा मिट्टी के तेल का लैम्प रखा रहता था। बग्गड़ माट साह रोज एक घंटे के लिए आते थे। इतवार छुट्टी होती थी। कभी-कभी उनसे नागा भी हो जाता था। वह सबसे सुहावनी शाम होती थी।
बग्गड़ माट साब में और चाहे जितने दोष रहे हों वे हिंसक नहीं थे, जबकि स्कूल के दूसरे अध्यापक जैसे त्रिपाठी माट साब, खरे माट साब, संस्कृत के पंडित जी, आर्ट के माट साब वगैरह खाल उधेड़ने के लिए मशहूर थे। लेकिन इन सबसे हिंसक होने के अलग-अलग कारण हुआ करते थे और हिंसा व्यक्त करने के तरीके भी जुदा-जुदा थे। जैसे किसी को छड़ी चलाने का अच्छा अभ्यास था। कोई कुर्सी के पाए के नीचे हाथ रखवाकर उस पर बैठ जाता था। कोई तमाचे लगाने और कान खींचने में निपुण था। कोई मुर्गा बनाकर उपर बोझ रखा दिया करता था। कोई उंगलियों के बीच में पेंसिल रखकर उंगलियों को दबाकर असह्य पीड़ा पैदा करने का हुनर जानता था। बहरहाल, एक ऐसा बाग था जिसमें तरह-तरह के फल खिले थे। हां, त्रिपाठी माट साब का तरीका बड़ा मौलिक और रोचक था। वे कुर्सी पर बैठकर लड़के का सिर अपने दोनों घुटनों के बीच दबा लेते थे और उसकी पीट पर अपने दोनों हाथों से दोहत्थड़ मारते थे। यह करते समय वे 'बोतल-बोतल` कहा करते थे। पता नहीं बोतल क्यों कहते थे। लड़कों ने इस सजा का नाम 'बोतल बनाया` रखा था।
एक दिन का किस्सा है, त्रिपाठी माट साब ने बैजू हलवाई के लड़के को बोतल बनाने के लिए उसका सिर घुटने में दबाया और दोहत्थड़ मारा। पता नहीं लड़के को चोट बहुत ज्यादा लगी या वह तड़पा ज्यादा या त्रिपाठी माट साब ने उसे ठीक से पकड़ नहीं रखा था, वह छूट गया। उठकर भागा। माट साब उसके पीछे दौड़े। वह खिड़की से बाहर कूद गया। माट साब भी कूद गये। वह भागकर स्कूल के गेट से बाहर निकल गया। माट साब भी निकल गये। उन्हीं के पीछे पूरी क्लास 'पकड़ो-पकडो` का शोर मचाती निकल गई। भागदौड़ में माट साब की धोती आधी खुल गई और उनकी चोटी भी खुल गई। पर वे सड़क पर उसका पीछा करते रहे। स्कूल के सामने तहसील थी। उसके बराबर में कुछ हलवाइयों की दुकानें थीं। बैजू हलवाई की दुकान और उसके पीछे घर था। लड़का दुकान में घुसा और घर के अंदर चला गया। पीछे-पीछे माट साब पहुँचे। माट साब कहने लगे, 'निकालो ससुरउ को बाहर. . .अब तो जब तक हम दिल भर के मार न लेब, हमें खाया पिया हराम है।'
'पर बात का भई माट साहिब?' बैजू ने पूछा।
'हमारा अपमान किहिस ही. . .और का बात है।'
बैजू समझ गया। उसकी पत्नी भी समझ गई। लोग भी समझ गए। तहसील के सामने वकीलों के बस्तों पर बैठे मुंशी भी उठकर आ गए। थोड़ी ही दे में मजमा लग गया। माट साब जिद ठाने थे कि लड़के को बाहर निकालकर उन्हें सौंप दिया जाये। बैजू बहाने बना रहा था। अत में उसने कहा कि लड़के ने घर के अंदर से जंजीर लगा ली है और खोल नहीं रहा है। यह जानकर त्रिपाठी माट साब और गरम हो गये। इस नाजुक मौके पर मुंशी अब्दुल वहीद काम आये, जो त्रिपाठी के साथ उठते-बैठते थे। मुंशीजी ने कहा, 'ठीक है, त्रिपाठी जी, लड़का तुम्हें दे दिया जाएगा। जितना मारना चाहो मार लेना, पर यह तमाशा तो न करो। तुम अध्यापक हो, यहां इस तरह भीड़ तो न लगाओ।' फिर उन्होंने सब लड़कों को डांटकर भगा दिया। और बैजू से कहा, 'माट साब के हाथ-मुंह धोने को पानी दे।' इशारा काफी था। बैजू ने एक बड़ा लोटा ठंडा पानी दिया। माट साब ने हाथ-मुंह धोया। फिर बैठ गये। बैजू ने करीब डेढ़ पाव ताजा बर्फ़ी सामने रख दी। एक लोटा पानी और रख दिया। त्रिपाठी जी का गुस्सा कुछ तो पानी ने ठंडा कर दिया था। कुछ बर्फ़ी ने कर दिया।
बैजू हलवाई ने कहा, 'आप चिंता न करो। साला जायेगा कहां समझा-बुझा के आपके पास ले आएंगे। दंड तो ओका मिला चाही।' उसी वक्त स्कूल का चपरासी आया और कहा कि त्रिपाठी माट साब को हेड मास्टर साहब याद करते हैं।
कुछ दिनों बाद यह पूरा किस्सा एक बड़े रोचक मोड़ पर आकर धीरे-धीरे खत्म हो गया। बैजू हलवाई के लड़के को एम.ए. की डिग्री मिल गई। यानी उसका शिक्षाकाल समाप्त हो गया। त्रिपाठी माट साब महीने में दो-तीन बार स्कूल आते वक्त जब जी चाहता था बैजू हलवाई की दुकान की तरफ मुड़ जाते थे। उन्हें देखते ही बैजू का लड़का घर के अंदर चला जाता था। बैजू से माट साब पूछते थे, 'कहां गवा ससुरा?' बैजू बहाना बना देता था। माट साब भी समझते थे कि टाल रहा है। तब बैजू उन्हें एक दोना जलेबी या बेसन के लड्डू या कलाकंद पकड़ा देता था। माट साब बेंच पर बैठकर खाते और पानी पीते थे। बैजू और उनके बीच कुछ गहरे आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत होती थी कि यदि हम राम, रामहु, राम: वगैरह-वगैरह सीख भी लेंगे तो क्या होगा! कुछ दिनों बाद यह विश्वास हो गया था कि कभी न सीख सकेंगे और कुछ दिनों बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे कि व्याकरण पैदा ही इसलिए हुई है कि हमें पिटने के अवसर मिलते रहें।
अगर मैं सभी अध्यापकों के सजा देने के तरीक़ों का पूरा विवरण दूं तो बहुत से पन्ने काले हो जाएंगे। आप ऊब जाएंगे। लगेगा मैं स्कूल का नहीं पुलिस थाने का विवरण दे रहा हूं। इसलिए मुख़तसर लिखे को बहुत जानो।
हमारे स्कूल का नाम गवर्नमैंट नार्मल स्कूल था। नाम शायद स्कूल खोले जाने के बाद रखा गया था क्योंकि वहां हर चीज 'एबनार्मल` थी। लेकिन शहर के अन्य स्कूलों की तुलना में यह बहुत आदर्श स्कूल माना जाता था क्योंकि यहां कमरे, कुर्सियां, ब्लैकबोर्ड आदि थे। अध्यापक भी दूसरे स्कूलों की तुलना में पढ़े-लिखे तथा प्रशिक्षित थे। हम अक्सर गर्व भी किया करते थे कि हम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। बग्गड़ माट साब गर्व करते थे कि वे सरकारी नौकर हैं। रिटायर होने के बाद उन्हें बाकायदा पेंशन मिलेगी।
मेरा विषय चूंकि गुरुजनों पर केंद्रित है इसलिए लौटकर फिर बग्गड़ माट साब पर आता हूं जिनका प्रभाव आज तक मुझ पर है यानी उन्होंने मुझे जो सिखाया या नहीं सिखाया, जो बनाया या बिगाड़ा वह आज तक मरे अंदर झलकता है। मैं उनका आभारी हूं। बग्गड़ माट साब अनौपचारिक शिक्षा के महत्व को उस जमाने में भी बहुत गहराई से समझते थे। यही कारण था कि अक्सर गणित पढ़ाते-पढ़ाते वे अपनी घरेलू समस्याओं तक पहुंच जाते थे। उनकी एक समस्या, छोटी-सी उलझन यह थी कि उन्हें दूध बाजार में पीना पड़ता था। कारण यह था कि उनके बच्चे अधकि थे। घर में यदि दूध मंगाते तो सभी को थोड़ा-थोड़ा देना पड़ता। और इस तरह बग्गड़ माट साब के हिस्से में छटांक भर ही आता। यह सब सोच-समझकर वे बाजार में दूध पीते थे। किसी हलवाई की दुकान के सामने खड़े होकर डेढ़ पाव दूध गरमागरम पीने के बाद ही वे घर लौटते थे। लेकिन इसमें एक दिक्कत थी हलवाई की दुकान का दूध पीते उन्हें यदि कोई देख लेता था तो बग्गड़ माट साब को बड़ी शर्म आती थी। फिर उसे आमंत्रित करना पड़ता था। फिर शकर में खूब चर्चा होती थी कि बग्गड़ माट साब रात में ट्यूशन पढ़ाने के बाद जब घर लौटते हैं तो हलवाई के यहां खड़े होकर दूध पीते हैं। यह बात उड़ते-उड़ते घर भी पहुंच जाती थी जिससे बग्गड़ माट साब की उनकी पत्नी से लड़ाई तक जो जाया करती थी। इस लड़ाई में लड़के, जिनमें जवान लड़के से लेकर दो साल की उम्र तक के शामिल थे, अम्मा का पक्ष लेते थे।
बग्गड़ माट साब बी.ए., बी.टी. थे। पता नहीं उनके मन में क्या आई कि हिंदी में प्राइवेट एम.ए. करने के लिए फार्म भर दिया। वे स्कूल में लड़कों से तथा घर में मुझसे कहते थे कि यह हम लोगों के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे अध्यापक एम.ए. पास हैं। कुछ दिनों के बाद यह होने लगा कि बग्गड़ माट साब अपने साथ एक मोटी-सी किताब लाने लगे। जब पढ़ाने बैठते तो कहीं-न-कहीं से अपनी एम.ए. की पढ़ाई का जिक्र छेड़ देते और फिर एक मोटी-सी पुस्तक निकालकर जोर-जोर से पढ़ने लगते। मेरी समझ में वह बिलकुल न आयी थी, लेकिन खुश होता था कि चलो मैं खुद पढ़ाई से बच रहा हूं। एक पुस्तक का नाम अभी तक याद है जो बग्गड़ माट साब लाया करते थे 'पद्मावत`। वे जो पंक्तियां पढ़ते थे उसकी व्याख्या भी करते जाते थे। जब तक उन्होंने एम.ए. पास नहीं कर लिया तब तक उनकी पढ़ाई और मेरी पढ़ाई साथ-साथ होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि वे एक घंटे के बजाय दो घंटे बैठते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि वे एम.ए. पास हो गये हैं। डिवीजन पूछने पर बोले, 'मैंने डिवीजन के लिए एम.ए. थोड़ी ही किया है। मेरा ध्येय है कि कभी जब मैं प्रिंसिपल बनूं तब तख़्ती पर मरे नाम के साथ जो डिग्रियां हों उनमें बी.ए., बी.टी., एम.ए. होना चाहिए।' इस तरह वे अपने मकसद में कामयाब हो गये थे। स्कूल में अन्य अध्यापक कहते थे कि बग्गड़ माट साब की थर्ड डिवीजन आई है।
बग्गड़ माट साब ने मुझे कक्षा छ: से लेकर दस तक पढ़ाया था। नवीं तक मैं बराबर पास होता रहा। इसमें उनकी पढ़ाई का योगदान था या मेरी बुद्धि का चमत्कार, कह नहीं सकता। लेकिन नवीं तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। दसवीं में जब पहुंचा तो बग्गड़ माट साब ने घोषणा कर दी कि मैं दूसरी सभी विषयों में पास हो जाउंगा लेकिन वे गणित में पास होने की गारंटी नहीं लेते। अब्बा को जब यह पता चला तो उन्होंने इस सहज ही लिया। वे जानते थे कि मैं गणित में बहुत कमजोर हूं। मैंने यह लाइन ले ली थी कि गणित की जो कमजोरी मुझे 'विरसे` में मिली है उसके जिम्मेदार अब्बा हैं। मतलब यह कि बग्गड़ माट साब की तरफ से मेरी तरफ से, अब्बा की तरफ से यह तैयारी पूरी थी कि मैं गणित में फेल हो गया तो अचंभा किसी को नहीं होगा।
गणित से मेरी कभी नहीं पटी। गणित के अपने कृपा के द्वार मेरे लिए सदा बंद रखे हैं। और इसका आरोप बिना वजह मेरे उपर लगाया जाता था। सब, सबसे ज्यादा अब्बा कहा करते थे कि मैं 'कूढ़मगज` हूं। मैं इस शब्द का मतलब यह समझता था कि मेरे दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है। गणित पढ़ते समय यह संदेह विश्वास में बदल जाता था। मैं अपने गणित न सीख पाने का रहस्य समझ चुका था। लगता था कि अब प्रयास करना भी बेकार है। जब दिमाग में साला कूड़ा भरा हुआ है तो हम क्या कर सकते हैं। फिर खुशी भी होती थी कि चलो इसकी जिम्मेदारी हम पर नहीं आती, क्योंकि कोई अपने आप तो अपने दिमाग में कूड़ा नहीं भर सकता। अकल कम है वाली धारणा मेरे अंदर बहुत गहराई में जाकर बैठ गई थी।
जिस मेरे गणित का पेपर था, उस दिन अब्बा ने कहा कि वे नमाज पढ़ेंगे। मैंने कहा मैं भी पढ़ूंगा। तब अब्बा ने कहा, नहीं तुम अपना हिसाब पढ़ो। वे चाहते थे कि काट बंट जाये। बहरहाल, दोनों तरफ से तैयारियां पूरी थीं। मैं सुबह साढ़े छह बजे शहीदों वाली मुद्रा में घर से निकला। इतना ज्यादा पढ़ लिया था कि कुछ भी याद न था। सेंटर दूसरी जगह था। वहां गया। बरामदे में सीट लगी थी। पीछे की सीट पर एक दादा किस्म का लड़का बैठा था। उसने इम्तिहान शुरू होने से पहले मुझसे कहा कि ठीक एक घंटे के बाद मैं पेशाब करने के लिए जाउं और पेशाबखाने की खिड़की के पीछे नकल कराने आये लोगों में से कोई करीम मुझे हल किया पर्चा दे देगा। मैंने कहा, पर मैं करीम को पहचानूंगा कैसे. . .? उसने कहा, तुम आवाज देना करीम। वह रोशनदान से पर्चा दे देगा। कहना, सल्लू दादा ने भेजा है। पर्चा ले आना।
खैर साहब, घंटा बजा। पर्चा बांटा गया। देखा तो मामला पूरा गोल यानी कोई सवाल नहीं आता था। सल्लू दादा ने पर्चा बनाने वाले की मां-बहन को याद किया और पंद्रह मिनट बाद पर्चा जेब में ठूंसकर पेशाबखाने की तरफ दौड़े। उन्होंने इसकी इजाजत भी नहीं ली, जो जरूरी थी। बहरहाल, उनके हाव-भाव से सब समझ चुके थे कि वे दादा हैं और कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए बेचारे सूखे मरियल अध्यापक उन्हें बड़ी-से-बड़ी सीमा तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार थे। वे पर्चा दे आये और कापी पर इस तरह झुककर लिखने लगे जैसे सारी जान उसी में लगा देंगे। मैंने भी यही किया। जब पूरा एक घंटा हो गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जाउं। मैं बाकायदा इजाजत लेकर गया तो मेरे पीछे-पीछे एक अध्यापक भी गये। और नतीजे में काम नहीं हो पाया। सल्लू दादा से मैंने बता दिया कि ऐसा हुआ। उन्होंने चुनिंदा गालियों का पिटारा खोल दिया। उठे और पेशाबखाने की तरफ बढ़ गये। अध्यापक उनके पास तक आया, कुछ बात हुई और फिर लौट गया। मतलब सल्लू दादा की विजय। वे आये। नजरों में विजय का हर्षोल्लास था। बिलकुल नेपोलियन की तरह। इसके बाद उन्होंने काम शुरू कर दिया। करीब एक घंटे इंतजार के बाद फिर मेरी बारी आई। जिंदगी में पहली बार यह पवित्र काम कर रहा था। हाथ कांप रहे थे। होंठ सूख रहे थे। लिखा कुछ था दिखाई कुछ दे रहा था। और एक ही घंटा रह गया था। निगरानी बढ़ गई थी। पकड़े जाने पर तीन साल के लिए निकाले जाने का डर था। बहरहाल, तनाव इतना था कि कह नहीं सकता। पर मरता क्या न करता!
गर्मियों की छुट्टियों के सुखद दिनों में एक तनावपूर्ण सप्ताह आया जब बताया गया कि 'रिजल्ट` आने वाला है। साइकिलों पर बैठकर लड़के स्टेशन जाते थे, जहां सबसे पहले अखबार पहुंचता था। एक दिन गये, नहीं आया। बताया गया दो दिन बाद आयेगा। फिर गये, नहीं आया। फिर एक दिन आया। खुद देखने की हिम्मत न थी। किसी ने बताया, साले तुम पास हो गये हो। अपनी खुशी का हाल मैं क्या बताऊँ। लेकिन श्रेय सल्लू दादा को जाता है।
हाईस्कूल करने से पहले ही मेरे भविष्य के बारे में बड़ी-बड़ी योजनाएं बननी शुरू हो गई थीं। योजनाएं बनाने वालों के कई गुट हो गये थे। अब्बा मुझे एयरफोर्स में भेजना चाहते थे। हाईस्कूल के बाद ही कोई ट्रेनिंग होती थी जो मुझे करनी थी। अम्मा इसकी सख्त विरोधी थी। उसका मानना था कि मुझे डॉक्टर बनना चाहिए। अब्बा मान गये कि चलो ठीक है, मैं डॉक्टर बन जाउं। एक छोटा-सा गुट यह भी कहता था कि कृषि-विज्ञान में कुछ करना चाहिए ताकि घर की खेती-बाड़ी संभाल सकूं। तीसरे गुट की राय यह थी कि वकालत पढ़ लूं क्योंकि हम लोगों में बहुत से मुकदमे चला करते थे। बहरहाल जितने मुंह उतनी बातें। आखिरकार राय यह बनी कि मुझे डॉक्टर ही बनना चाहिए और घर पर रहकर प्रैक्टिस करनी चाहिए। इस तरह मैं घर की खेती भी देख सकूंगा, मुक़दमेबाज़ी भी कर सकूंगा वगैरह-वगैरह। मजेदार बात यह है कि मुझसे कभी कोई नहीं पूछता था कि तुम क्या बनना चाहते हो। मुझे मालूम था कि अगर मुझसे पूछा जाता और मैं अपनी मर्जी का पेशा बता भी देता तो मुझे वह न बनने दिया जाता। मैं दरअसल आर्टिस्ट बनना चाहता था- कलाकार, पेंटर। लेकिन चित्रकारों, या कहें हर तरह के कलाकर्मियों के बारे में अब्बा की राय बहुत ज्यादा खराब थी। वे लेखकों, शायरों, चित्रकारों आदि को बहुत ही घटिया और निम्नकोटि के लोग मानते थे। ऐसे लोग जो अनैतिक होते हैं, भ्रष्ट होते हैं, शराब पीते हैं, कई-कई औरतों से संबंध रखते हैं, खुदा को नहीं मानते वगैरह-वगैरह। मतलब, अगर मैं मुंह से यह बात निकाल भी देता तो डांट पड़ती। अब मैं आपको लगे हाथों एक मजेदार बात बता दूं। स्कूल में मुझे केवल कक्षा पांच तक आर्ट पढ़ाई गई थी। लेकिन मैं आगे भी पढ़ना चाहता था। पर थी ही नहीं तब मैं चाहता था कि रंग का एक डिब्बा खरीद लूं। लेकिन यह भी जानता था कि रंग का डिब्बा इतना बड़ा अपराध होगा कि उसकी माफी न मिलेगी, क्योंकि मुझे पेंसिल से तस्वीरें बनाते देखकर ही अब्बा को बेहद गुस्सा आ जाता था। करीब-करीब मारते-मारते छोड़ते थे। शायद यही वजह है कि आज सफेद कागज और रंग मेरी कमजोरी हैं। सफेद कागज मुझे ऐसी अद्वितीय सुंदरी जैसा लगता है जिसका अलौकिक सौंदर्य विवश कर देता है। कलम या रंग देखकर मेरी पहली तीव्र इच्छा उसे ले लेने की ही होती है। मैंने कागज की जितनी चोरी की है उतना शायद कुछ और नहीं चुराया। कागज में मेरा प्रेम बढ़ती हुई उम्र में साथ बढ़ता ही गया। करीब दस साल पहले अमेरिका में एक धनाढ्य महिला ने मुझसे पूछा कि मैं न्यूयार्क में क्या देखना या करना चाहता हूं। वह महिला मेरी मदद या खातिर वगैरह करना चाहती थी। वह समझ रही थी कि कम पैसा और कम साधन होने के कारण जो कुछ मैं अपने आप देख या खरीद नहीं सकता, उसमें वह मेरी मदद करेगी। मैंने उसे बताया कि मैं न्यूयॉर्क में कागज, कलम, रंग वगैरह, मतलब स्टेशनरी की दुकानें देखना चाहता हूं। वह प्रसन्न हो गई और मुझे कई दुकानें दिखाईं।
देखिए, बात कहां से कहां जा पहुंची। इसी तरह बग्गड़ माट साब भी बात को कहीं पहुंचाकर कहीं से कहीं ले आते थे। हाईस्कूल में मेरे पास होने के बाद बग्गड़ माट साहब मुझसे बिछुड़ गये। उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि विदाई 'समारोह` में उन्हें एक घड़ी उपहारस्वरूप दी जाये जिस पर खुदा हो कि क्यों, कब, कैसे, कहां किसने दी है। मैंने उनकी यह इच्छा अब्बा के सामने रख दी थी। उन्होंने कहा था, घड़ी बहुत महंगी आती है। बग्गड़ माट साब को कुछ और दिया गया था।
विश्वविद्यालय में जब दाखिल हुआ तो डॉक्टर बनने की योजना के अंतर्गत सांइस के विषय ही दिलाए गये। हॉस्टल में रहने की जगह मिली। पहली बार आजादी मिली। हाथ में पैसा आया। डर खत्म हो गया। जल्दी ही 'हाबीज वर्कशॉप` में पेंटिंग सीखने का कोर्स ज्वाइन कर लिया। यहां कलीम साहब नामक अध्यापक थे। काफी दोस्ताना माहौल में काम करते थे। हम तीन लड़कों से, जो आपस में दोस्त और क्लासफैलो थे, हमारी अच्छी-खासी दोस्ती हो गई थी। हद यह है कि थोड़ा उधर-व्यवहार तक चलने लगा था। कलीम साहब ने लखनऊ आर्ट कालिज से पढ़ाई की थी और 'जुलाजी डिपार्टमैंट` में आर्टिस्ट के पद पर काम करते थे। शाम को 'हाबीज वर्कशॉप` में क्लास लेते थे। कुछ ही महीनों में हमें पता लगा कि कलीम साब आदमी अच्छे हैं लेकिन आर्ट-वार्ट से उनका रिश्ता वाजबी-वाजबी-सा ही है। खैर, क्या किया जा सकता था। वैसे भी उनको जितना आता था उतना हम सीख लेते तो बड़ी बात थी, लेकिन धीरे-धीरे यह भी पता चला कि कलीम साब चतुर भी हैं। जैसे एक बार हमारे एक दोस्त को एक विशेष साइज के चित्र बनाना था। कलीम साब ने उसका खरीदा कैनवास इस तरह काट किया कि उस उसके लिए बेकार हो गया, लेकिन कलीम साब के काम आ गया। हमें यह बुरा लगा। पर कलीम साब हमें कभी-कभी अपने घर खाने के लिए भी बुलाते थे। और यह हमारे उपर इतना बड़ा उपकार होता था कि हमेशा उसके बोझ से दबा महसूस करते थे।
एक दिन मैं कलीम साब के घर पहुँचा तो देखा कि बड़ी मोटी-सी डिक्शनरी लिये बैठे हैं। पूछने पर कि क्या कर हैं, बोले कि 'कंटम्पलेशन` का मतलब देख रहा हूं. . .
'क्या कुछ पढ़ रहे थे?'
'नहीं भाई,' उन्होंने एक ठंडी सांस लेकर कहा, 'ये लफ़्ज कहीं देखा था पंसद आया। सोचा कि इस पर एक पेंटिंग बनाऊँ।'
कलीम साहब ने हम लोगों को दो-तीन साल ही सिखाया। उसके बाद विश्वविद्यालय में 'आर्ट क्लब` नामक संस्था खुल गई थी जिसके हम सब सदस्य हो गये थे।
कोर्स में दूसरे विषयों, जैसे केमिस्ट्री, बॉटनी आदि के अध्यापक बहुत साहब किस्म के लोग थे। पूरा सूट-टाई वगैरह पहनकर आते थे। लेक्चर थिएटर में टहल-टहलकर लेक्चर देते थे। कभी-कभी चाक से कुछ लिखते भी थे। फिर चले जाते थे। यानी उन्हें न हमसे कोई ताल्लुक था और न हमें उनसे कोई मतलब था। हम समझ रहे हैं या नहीं, इसकी वे चिंता नहीं करते थे। बस हमसे अपेक्षा की जाती थी कि हम चुपचाप क्लास में आकर बैठ जाएंगे। रोल नंबर पुकारने पर 'यस सर` बोलेंगे। पैंतालीस मिनट खामोश बैठेंगे और घंटा बजने पर चले जायेंगे। इस व्यवस्था से हम लोग भी खुश रहते थे और अध्यापक भी।
अन्य विषयों के अतिरिक्त हम लोगों को धर्मशास्त्र भी शिक्षा भी दी जाती थी। हमें धर्मशास्त्र मौलाना घोड़ा पढ़ाते थे। मौलाना का असली नाम क्या था यह शायद कागजात को ही मालूम था। सारी यूनिवर्सिटी में वे मौलाना घोड़ा कहे, पुकारे जाते थे। इस नाम के पीछे शायद उनकी शक्ल का हाथ था। बहरहाल, मौलाना लड़कों के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करते थे। मौलाना को पान खाने की लत थी और अक्सर वे पानों की डिबिया-बटुआ भूल आते थे। उनकी क्लास अक्सर इस तरह शुरू होती थी- भई, आज सुबह से मैं बड़ी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। हुआ यह कि रोज बेगम मेरी शेरवानी की जेब में पानों की डिबिया और बटुआ रख देती हैं, आज पता नहीं क्या हुआ कि भूल गईं। मैं जब यहां पहुंचा तो देखा दोनों चीजें नहीं है।। खैर, फर्स्टइयर की क्लास आ गई। उनको पढ़ाया। फिर तुम लोग आ गये। अब मैं तुम लोगों से भी पान नहीं मंगा सकता क्योंकि तुम लोग जूनियर हो। थर्डइयर के तालिबेइलम जब आएंगे तो उनसे कहूंगा। मौलाना घोड़ा के इस वक्तव्य पर शोर मच जाता था। लड़के कहते थे कि ये नहीं हो सकता, वे अभी जाकर पान ले आएंगे। मौलाना 'ना-ना` करते थे, लड़के 'हां-हां` करते थे। काफी खींचातानी, बहस-मुबाहिसों के बाद आखिरकार बहुत कलात्मक ढंग से मौलाना घोड़ा हथियार डाल देते थे। एक लड़का उठता था। मौलाना उसे बाजार जाकर पान लाने की इजाजत देते थे। वह अनुरोध करता था कि वह अकेला नहीं जा सकता, कम-से-कम एक लड़के को उसके साथ जाने दिया जाये। ऐसा हो जाता था। फिर कुछ लड़के कहते थे कि उन्हें भी पान की तलब महसूस हो रही है। जाहिर है, तलब तो तलब है। उसके महत्व से कौन इनकार कर सकता है। मौलाना उन लड़कों को भी जाने की इजाजत देते थे। तब कुछ और लड़के खड़े हो जाते थे कि उन्हें सिगरेट की तलब लगी है। इस तरह होता यह था कि पूरी क्लास अपनी 'तलब` पूरी करने चली जाती थी और दो लड़के साइकिल पर जाकर मौलाना घोड़ा के लिए दो पान ले आते थे।
साइंस की पढ़ाई में मेरा ही नहीं, हम तीनों दोस्तों का दिल न लगता था। हम सब अपने आपको आर्टिस्ट समझने लगे थे। क्लास में न जाना, प्रॉक्सी हाजिरी लगवाना, आवारागर्दी करना, चाय पना, रातों में टहलना, सिगरेट पीना, शेरो-शायरी में दिलचस्पी लेना, लड़कियों को देखने के लिए मीलों चले जाना, कलाकारों जैसे कपड़े पहनना, किराये की साइकिल पर शहर की वर्जित सड़कों के चक्कर काटना, साहित्यिक-सांस्कृतिक कामों में जान लड़ा देना, अपने से बड़ी उम्र के लोगों से दोस्ती करना, धर्म में अरुचि, ईश्वर है या नहीं, विषय पर विवाद करना आदि-आदि हम करते थे। इसलिए जाहिर है साइंस की पढ़ाई के लिए वक्त न मिलता था।
अध्यापकों से हमारा रिश्ता भी दिलचस्प था। जो हमें नहीं पढ़ाते थे, उनसे हमारे बड़े अच्छे संबंध थे। मतलब, विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों को हम जानते भी न थे, पर साहित्य और कला के अध्यापकों से हमारी मित्रता थी। केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम कभी न जाते थे लेकिन कला-प्रदर्शनी में जाना अपना पहला कर्तव्य समझते थे। नतीजा जो निकलना था वही निकला। पहले साल में फेल। दूसरे साल में सोचा सिफारिश कराई जाये। यह पूरा प्रसंग कुछ इस तरह मुड़ गया कि सिफारिश करने वाला ही असुविधा में पड़ गया। हमें मालूम था कि केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम फेल हो ही जाएंगे। पढ़ाने और परीक्षा लेने वाले अध्यापक के पास हम तीनों मित्र सिफारिश करने वाले सज्जन के साथ पहुँचे। सिफारिश करने वाले सज्जन ने बातचीत शुरू की, 'ये तीनों आपके स्टूडेंट मुझे यहां लाये हैं..' अध्यापक बात काटकर बोले, 'ये तीनों? नहीं, ये तो मेरी क्लास में नहीं हैं।' सिफारिश करने वाले अध्यापक सटपटाए। जल्दी ही समझ गये कि मामला क्या है। उन्होंने हम लोगों की तरफ अजीब नजरों से देखा। उन्हें लगा कि हमने उन्हें बहुत गलत काम के लिए राजी कर लिया था और धोखा दिया था। हमने नजरें झुकाकर भरी आवाज में कहा, 'जी, हम आपकी क्लास में ही हैं।'
अध्यापक ने फिर ध्यान से देखकर बड़ी उपेक्षा-भरी आवाज में कहा, 'नहीं, ये लोग मेरी क्लास में नहीं है। इन्हें क्लास में कभी नहीं देखा।'
अब काटो तो खून नहीं। बेशर्मों की तरह सिर झुकाए खड़े रहे। ये सच है कि हम तीनों दोस्त क्लास में न जाते थे। उसके अलावा हमें कहीं भी देखा जा सकता था। बी.एस.सी. के दूसरे साल में थे। सेशन समाप्त हो गया था। हाजिरी निकली तो हम सबकी हाजिरियां कम थीं और इम्तिहान में नहीं बैठ सकते थे। पढ़ाई या इम्तिहान की तैयारी नहीं थी। हॉस्टल तथा फीस आदि का जो पैसा चुकाना था वह बहुत ज्यादा था, क्योंकि हम उसे उड़ा गये थे। हम तीनों हॉस्टल के कमरे में बैठे सोच रहे थे कि इस मुसीबत से कैसे निबटा जाए। कोई रास्ता न नजर आता था। फिर एक ने सलाह दी कि यार ऐसा किया जाये कि किताबें बेल डाली जाएं। तीनों अपनी-अपनी किताबें बेचेंगे तो इतने पैसे आ जाएंगे कि एक रम की बोतल खरीदी जा सके। एक फिल्म देखी जा सके और घर वापस जाने का टिकट आ जाये। यह राय सबको पसंद आई। वैसा ही किया गया।
नशे की आदत हम सबको यानी तीनों दोस्तों को थी। तीनों सिगरेट पीते थे। कभी-कभी जब पैसा ज्यादा होते थे या घर से मनीआर्डर आता था तो 'ब्लैक फॉक्स` की तंबाकू खरीदते थे और पाइप पिया करते थे। शराब की आदत तो न थी पर पीना पंसद करते थे और जब पैसे होते थे तो शहर जाते थे जहां एक 'भगवान रेस्टोरेंट` नाम का होटल था। उसके पिछले केबिनों में बैठकर शराब पी जा सकती थी। वही हमारा अड्डा होता था।
मैंने जिंदगी में जब पहली बार पी तो मुझे बहुत मजा आया। जिस मित्र ने पिलाई थी उससे मैंने बहुत शिकायत की कि उसने पहले क्यों नहीं पिलाई। शहर से शराब पीकर रात में दस-ग्यारह बजे सुनसान सड़क पर टहलते हुए हम लोग हॉस्टल वापस आते थे। लगता था कि पूरा 'इंडिया अपने बाप` का है। यानी ऐसा मौज-मस्ती की हालत होती थी कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस तरह सड़कों पर शराब के नशे में टहलते हुए हम लोग 'मजाज़` की नज़्म 'अवारा` गाया करते थे।
एक बार पैसे कम थे हम शराब पीना चाहते थे। उतने पैसे में क्वार्टर भी न आता था। इसलिए सोचा कि चलो भांग खाकर देखते हैं। हो सकता है मजा आ जाए। पानवाले की दुकान पर भांग मिला करती थी। हमने उससे पूछा कि कितनी-कितनी गोलियां खानी चाहिए कि मजा आ जाए। उसने कहा कि चार-चार गोलियां खा लो। मैं समझ गया कि साला अपनी भांग बेचने के लिए हमें चूतिया बना रहा है। लेकिन मेरे दोस्तों ने कहा कि नहीं यार, जब वह चार-चार कह रहा है तो चार-चार ही खानी चाहिए। गोलियां काफी बड़ी, यानी कंचे की बड़ी गोलियों जैसी थीं। बहरहाल, हमने चार-चार खा लीं। पानी के साथ सटक गये और सिनेमा में जाकर बैठ गये। थोड़ी देर के बाद मुझे लगा कि मेरे पैर नहीं है और जब इंटरवल होगा तो मैं कैसे उठूंगा? मैंने दूसरे दोस्तों से पूछा कि क्या उनके पैर हैं? उन दोनो ने भी बताया कि उनके पैर नहीं है। अब बड़ी समस्या खड़ी हो गई। खैर, फिल्म खत्म होने के बाद हम किसी तरह बाहर आ गये। और फिर हम तीनों का बुरा हाल हो गया। उल्टियां करते-करते पस्त पड़ गये। कान पकड़ने और तौबा करने लगे कि कभी भांग नहीं खाएंगे। भांग खाने के प्रयोग के बाद एक बार कम पैसे में नशा करने की गरज से हम ताड़ी पीने भी गये थे।
हम तीनों दोस्तों में एक बड़ा पुराना पापी था। हम सब उसे इसी वजह से पापी कहकर पुकारते थे। पापी का असली नाम नामदार हुसैन रिजवी था। लेकिन दोस्त उसे पापी कहते थे। पापी शायरी भी करता था। उसका तखल्लुस 'वफा` या 'वफा साब` कहकर पुकारा जाता था। दूसरों के सामने हम लोग भी उसे 'वफा` कहते थे। 'वफा` भी एक तरह से हमारा अध्यापक था उसने हमें सिगरेट पीना, शराब पीना और रंडियों के कोठों पर जाना सिखाया था। 'वफा` एक पुराने ताल्लुकेदार का इकलौता लड़का था। वह ग्यारह-बारह साल का ही था कि उसके अब्बाजान का इंतकाल हो गया था। मां उसे बहुत चाहती थी। पैसा भी अच्छा-खासा था। यही वजह थी कि 'वफा` उन सब कामों में माहिर हो गया जो हमें नहीं आते थे।
मेरा एक और शिक्षक मेरा तीसरा दोस्त था। उसका नाम वाहिद था। वह चित्रकार था। अच्छे चित्र बनाने, लड़कियों को फंसाने और अपना काम निकाल लेने की कला में वह माहिर था। इन तीनों कलाओं में उसका जवाब नहीं था। एक बार उसका एक पेपर खराब हो गया। हम सब सोच रहे थे कि किस तरह उसे पास कराया जाये। उसने कहा कि किसी सिफारिश की जरूरत नहीं है। वह खुद परीक्षक के पास जाएगा और अपनी सिफारिश करेगा। हम लोगों ने सोचा कि साला पागल हो गया है। जरूर बुरी तरह अपमानित होकर वापस आएगा। लेकिन वह गया और आकर बोला कि पास हो जाएगा। हमें यकीन नहीं आया, लेकिन जब रिजल्ट निकला तो वह पास था। फिर उसने हमें विस्तार से बताया कि उसने परीक्षक से क्या बात की थी और कैसे उसे इस बात पर तैयार कर लिया था कि उसे पास कर दिया जाए। लड़कियों को फंसाने की कला में भी वह माहिर और शातिर था। लड़कियों और औरतों के बारे में उसकी राय अंतिम और प्रामाणिक सिद्ध हुआ करती थी। जैसे लड़कियों को देखकर ही बता देता था कि वह कैसी है? क्या पंसद करती है, उसके कमजोर पक्ष क्या है? अच्छाई क्या है? उस पर किस तरह 'अटैक` लेना चाहिए। लड़कियों से संबंध बनाने की प्रक्रिया को वह 'अटैक` लेना कहा करता था। उसका यह मानना था कि संसार में किसी भी आदमी को पटाया जा सकता है। उससे काम निकाला जा सकता है। लेकिन सबको पटाने का रास्ता एक नहीं है। हर आदमी के अंदर तक पहुंचने के लिए एक नये रास्ते की खोज करनी पड़ती है। वह केवल ऐसी बातें ही नहीं करता था, बल्कि प्रयोग करके भी दिखाता था। एक बार एक लड़की को हम तीनों ने किसी कला प्रदर्शनी में देखा। लड़की पसंद आई। हमने चुनौती दी। उससे कहा कि वह लड़की को हमारे साथ चाय पीने के लिए तैयार करके दिखा दे तो हम जानें कि वह बड़ा लड़कीमार है। उसने कहा कि चाय पिलाने के पैसे उसके पास नहीं है। अगर हम दोनों उसे पैसे दे दें तो वह लड़की को चाय पीने के लिए आमंत्रित कर सकता है। हम तैयार हो गए। वाहिद गया और आया बोला चलो तैयार है।
वाहिद की दसियों लड़कियों से दोस्ती थी और वे सब समझती थीं कि वह बहुत सीधा-सादा, सम्मानित और कलाकार किस्म का आदमी है। वह कभी-कभी झोंक में आकर लड़कियों के बारे में अपने मौलिक विचार बताया करता था। कहता था हर औरत प्रशंसा पसंद करती है पर यह प्रशंसा कैसी हो, किस गुण की हो और कितनी हो यह बहुत गंभीर बात है। दूसरी बात यह बताता था कि हर औरत एक बंद चारदीवारी की तरह होती है। लेकिन आप जिधर से चाहें रास्ता खोल सकते हैं। यदि चारदीवारी को वास्तव में चारदीवारी समझा तो कभी सफल नहीं हो सकते। इसी तरह की न जाने कितनी बातें वह किया करता था। कभी-कभी उसकी बातें 'वेग` भी हुआ करती थीं। जैसे कहता था, औरतें जिसे सबसे ज्यादा चाहती हैं उससे सबसे ज्यादा डरती हैं। औरतों से 'एप्रोच` करने की पहली शर्त वह मासूमियत मानता था। वह कहता था कि कहीं धोखे से भी आपने अपने को घाघ सिद्ध कर दिया तो औरत पास नहीं आएगी।
आमतौर पर महीने के पहले हफ़्ते में घर से मनीआर्डर आता था और दूसरे हफ़्ते तक हम लोग खलास हो जाते थे। उसके बाद शाम को चाय के पैसे न होते थे। मुफ़्त चाय पीने के चक्कर में हम लोग परिचित लोगों के घरों के चक्कर काटते थे। अक्सर तो ये भी होता था कि कई घरों के चक्कर काटने और कई मील का पैदल सफर करने के बाद भी चाय न मिल पाती थी। वैसे, हमारे चाय पीने के इतने अधकि अड्डे थे कि कहीं-न-कहीं कामयाबी हो ही जाती थी। जब हर तरफ से थक-हार जाते थे तो युनिवर्सिटी कैंटीन आ जाते थे। कैंटीन के ठेकेदार खां साहब से हमारे संबंध थे। वे न सिर्फ चाय, बल्कि विल्स फिल्टर की सिगरेट और शानदार पान तक खिलाया करते थे। खां साहब शायर थे। अच्छे शायर थे। 'कमाल` तखल्लुस रखते थे। रामपुर के रहने वाले थे। 'खां साहबियत` और 'शेरिअत` उनके व्यक्तित्व के बड़े कलात्मक ढंग से घुल-मिल गई थी। वे उर्दू में एम.ए. थे। वैसे भी अनुभवी आदती थे। बातचीत करने के बेहद शौकीन थे। पैसे को हाथ का मैल समझते थे। उन्होंने दरअसल क्लासिकी शायरी की तरफ हम लोगों को खींचा था। कभी-कभी मीर तकी 'मीर` के शेर सुनाने से पहले कहते थे कि यह शेर किसी लोकप्रिय गजल का नहीं है। उन्होंने 'कुल्लियात` से खुद ढूंढकर निकाला है। शायरी पर उनकी बातें बहुत दिलचस्प और मौलिक हुआ करती थीं। उनकी कैंटीन में विश्वविद्यालय के दूसरे शायर भी आते थे और देर रात तक महफिल जमी रहती थी। खां साहब अपने आप में एक संस्था थे। एक शेर पर चर्चा करते-करते कभी रात के बारह बजे जाया करते थे। शायरी के अलावा खां साहब अपने जीवन के लंबे अनुभवों का निचोड़ बताया करते थे। हमें लगता था कि जीवन अपनी परतें खोल रहा है।
खां साहब फिल्मों के भी रसिया थे। खासतौर पर अच्छी कलात्मक फिल्में दिखाने हम सबको ले जाते थे। तरीका काफी शाही किस्म का होता था। रिक्शे बुलवाए जाते थे। हम सब सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पूरा खर्चा खां साहब करते थे हद यह है कि इंटरवल में चाय के पैसे भी किसी को न देने देते थे। फिल्म के बाद उस पर विस्तार से बातचीत होती थी। विश्वविद्यालय के सभी नामी-गिरामी शायरों से उनकी दोस्ती थी जो अक्सर शामें उनकी कैंटीन में गुजारते थे। खां साहब को हर चीज या काम उसकी चरम सीमा तक कर में मजा आता था। कहते थे, तुम लोग क्या पीते हो, मैंने एक जमाने में इतनी पी है कि छ: महीने तक नशा ही नहीं उरतने दिया।
खां साहब की कैंटीन के अलावा हमारे मुफ़्त चाय पीने के अड्डे प्राध्यापकों के घर थे। मजेदार बात यह कि वे सब प्राध्यापक वे न थे जो हमें साइंस के विषय पढ़ाते थे। साइंस पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के बारे में हमारे अच्छे विचार न थे। हम उन्हें बिलकुल खुरा, नीरस और शुष्क समझते थे। साहित्य पढ़ाने वाले लोगों के घरों में दिलचस्प साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। चाय पीने का मजा आता था। इन घरों के अलावा हमारा चाय पीने का अड्डा एक और भी था। शहर से कुछ दूर एक पुराने किस्म की कोठी में एक पुराने जमाने के रईस- जिनका नाम राजा मोहसिन अली खां उर्फ मीर साहब रंगेड़ा और राजा साहब छदामा था, रहते थे। उनकी उम्र पचास के आसपास थी। उनसे हम लोगों की दोस्ती हो गयी थी। राजा साहब सनकी और औबाश किस्म के आदमी थे। हमेशा अतीत के नशे में चूर रहा करते थे। लेकिन बीते जमाने के किस्से सुनाने की कला में बड़े माहिर थे। उनका बयान बहुत रोचक और छोटी-छोटी 'डिटेल्स` से भरा होता था। उनकी स्मरण शक्ति भी जबरदस्त थी। मिसाल के तौर पर वे यह बताते थे कि तीस साल पहले जब वे किसी आदमी से मिलने गये थे तो उन्होंने किस रंग का सूट पहना था और कफ में जो बटन लगाए गए थे वे कैसे थे। राजा साहब की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी थी। अब वे सिर्फ बातों के धनी थे। उनके मनपसंद किस्से उनकी अय्याशियों की लंबी दास्तानें थीं। वे अनगिनत थीं। दास्तानें बताते हुए वे पूरा मजा लेते थे। औरतों के नख-शिख-वर्णन में उन्हें महारत हासिल थी। उसके साथ-ही-साथ संभोग का वर्णन काफी मनोयोग से करते थे।
कभी-कभी राजा साहब के यहां एक प्याली चाय और दालमोठ बहुत महंगी पड़ जाया करती थी। जैसे एक दिन चाय के लालच में हम थके-हारे उनके घर पहुंचे तो पता नहीं उनका क्या मूड था, बिना कुछ कहे-सुने एक अंग्रेजी की किताब के बीस पन्ने पढ़कर सुना दिए। फिर बताया, यह १८९१ का पटियाला गजेटियर है। इसमें मेरे खानदान का जिक्र है।
उनकी कई सनकें थीं। उनमें से एक यह थी कि अब तक अपने आपको बहुत बड़ा सामंत समझते थे। उन्होंने काले मखमल पर सुनहरे बेलबूटों वाला एक कोट सिलवाया था जिसे वे 'चीफ कोट` कहा करते थे। उस 'चीफ कोट` को पहन वे रिक्शे में बैठकर पूरे शहर का एक चक्कर लगाते। ऐसे मौकों पर उनके साथ होने में हम लोगों को बड़ी शर्म आती थी, लेकिन एक प्याली चाय की खातिर सब कुछ करना पड़ता था।
चाय पीने का एक और अड्डा गर्ल्स कॉलेज की एक सुंदर प्राध्यापिका का घर भी था। प्राध्यापिका बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि उन्हें पहली बार देखकर ही हम तीनों दोस्त उन पर आशिक हो गये थे। और तय किया था कि वे इतनी सुंदर हैं कि उन पर कोई अपना अकेला अधिकार नहीं जमाएगा। जब भी कोई उनके पास जाएगा, अकेला नहीं जाएगा। इस समझौते पर हम कायम रहे। सुंदर प्राध्यापिका गर्ल्स हॉस्टल के अंदर रहती थीं। वे वार्डेन थीं। अकेली रहती थीं। उनके घर में शामें गुजारना इतना सुखद होता था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हम इतना तो सीख ही गये थे कि तांत को इतना नहीं तानते कि वह टूट जाए। इसलिए महीने में दो-तीन ही बार उनके पास जाते थे। उनकी हंसी ऐसी थी कि हम सिर्फ उसी पर फिदा थे।
किसी भी विश्वविद्यालय की यह विशेषता होती है कि जो उससे चिमटे रहते हैं वे उपकृत होते हैं। हम फेल होते थे। हाजिरी कम होती थी। इम्तिहान में नहीं बैठाए जाते थे, लेकिन विश्वविद्यालय से चिमटे हुए थे। इस तरह रगड़ते-रगड़ते बी.एस.सी. पास हो गये। हम तीन दोस्त थे और तीनों को तीन-तीन डंडे मिले थे। यानी तीन नंबर हमारी किस्मत में लिख गया था। लेकिन हम खुश थे। मेरा दो अन्य मित्रों को जैसे ही डिग्री मिली उन्हें अपने राष्ट्रपति तक हो जाने के रास्ते साफ नजर आने लगे और उन्होंने पढ़ाई को धता बताई।
मैंने सोचा कि मैं विश्वविद्यालय में कुछ और पढूं। क्या पढूं इसका पता न था। इतना तो तय थ कि साइंस के किसी विषय में एम.एस.सी करने से अच्छा था कि कहीं डाका मारता और जेल चला जाता। इसलिए साहित्य ही बचता था। किसी ने कहा उर्दू में एम.ए. कर डालो। लेकिन समस्या यह थी कि उस समय मैं हिंदी में लिखने लगा था। हाईस्कूल तक की पढ़ाई हिंदी में हुई थी। उर्दू बहुत कम, और लिखना तो बिलकुल नाम बराबर ही, जानता था। इसलिए सोचा उर्दू से अच्छा है हिंदी में एम.ए. किया जाए। किसी ने कहा साहित्य में ही एम.ए. करना है तो अंग्रेजी में करो। लेकिन उस समय तक अंग्रेज-विरोधी बन गया था इसलिए कि अंग्रेजी बिलकुल न आती थी। या इतनी कम आती थी कि मुझे उससे शर्म आती थी। बहरहाल, हिंदी के पक्ष में अधकि मत पड़े।
जब बी.एस.सी. में पढ़ता था उस जमाने में हिंदी विभाग से कोई विशेष लेना-देना न था। हां, मुझे साहित्य लिखने की प्रेरणा देने वाले और विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण व्यक्ति रामपाल सिंह हिंदी में पी-एच.डी. कर रहे थे। दरअसल उन्होंने ही मुझे हिंदी में लिखने और छपने आदि की प्रेरणा दी थी। डॉ. सिंह के बयान के बगैर यह पूरा विवरण अधूरा है। इसलिए मैं उनका बयान सामने रखना चाहूंगा। डॉ. सिंह विश्वविद्यालय में इस रूप में जाने जाते थे कि जिसका कोई नहीं है उसके डॉ. सिंह है। उनके पास कोई भी जा सकता है, कोई भी कुछ कह सकता है और कोई भी मदद की पूरी उम्मीद कर सकता है। मैंने हिंदी में जब लिखना शुरू किया तो उनके पास गया था। और उन्हें उनकी साख के अनुरूप ही पाया था। दरअसल विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के वे एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उन्होंने ही मुझसे कहा कि हिंदी में एम.ए. करो।
लेने को तो मैंने हिंदी में दाखिला ले लिया था लेकिन एक बहुत बड़ी दिक्कत थी जो मुझे बाद में पता चली। वह यह कि जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ता था वहां हिंदी की स्थिति अन्य विषयों की तुलना में 'अछूत` जैसी थी। लोग मानते थे कि सबसे गए-गुजरे, सबसे बेकार या कहें कंडम या कहिए कूड़ा या कहिए बोगस या कहिए मूर्ख या कहिए घोंचू या कहिए बेवकूफ या कहिए मंदबुद्धि या कहिए गधे ही हिंदी पढ़ते और पढ़ाते हैं मतलब यह कि हिंदी की सामाजिक स्थिति बहुत ही खराब थी। जब मैं लोगों से कहता था कि मैंने हिंदी में दाखिला लिया है, तो मेरी तरफ इस तरह देखते थे जैसे मैं पागल हो गया हूं या अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। या लोग सिर्फ मुस्कराते थे या मेरे नाम के बाद 'दास` शब्द जोड़ मुझे कबीरदास और तुलसीदास जैस कहकर मजाक उड़ाते थे। मैं इससे काफी परेशान हो गया था।
हिंदी के बारे में लोगों के मन में न केवल बड़े पूर्वाग्रह थे बल्कि एक अजीब तरह की घृणा और उपेक्षा के भाव भरे हुए थे। मैं यह समझ पाने में असमर्थ था।
हिंदी विभाग में पढ़ाई शुरू हुई। पहले दिन एक प्राध्यापक के कमरे में गया। क्लास को देखा। दो लड़कियां थीं, यह देखकर जान में जान आ गई। एक बुर्का पहने थी। खैर कोई बात नहीं, थी तो लड़की ही। प्राध्यापक कुछ मजेदार, मसखरे, लेकिन बहुत सरल आदमी थे। उन्होंने हम सबसे कहा कि हम क ख ग घ लिख डालें। पहले तो हम समझे कि वे मजाक कर रहे हैं पर उन्होंने गंभीरता से कहा था। पूरी क्लास ने क ख ग घ लिखा तो पता चला कि नब्बे प्रतिशत लड़कों को क ख ग घ लिखना नहीं आता। प्राध्यापक महोदय ने कहा कि यह कोई अजीब बात नहीं है। हिंदी में जो एम.ए. कर चुके हैं उन्हें क ख ग घ लिखना नहीं आता। यह पहला पाठ था। हमें हमेशा याद रहा कि हमें कहां से शुरू करना है। लेकिन सारे प्राध्यापक ऐसे न थे जो जीवन-भर के लिए एक पाठ पढ़ा दें। एक वरिष्ठ प्रोफेसर हमें हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे। वे विभाग के सबसे बड़े और वरिष्ठ प्रोफेसर थे। उनकी कक्षा कभी-कभी ही होती थी क्योंकि अच्छी चीजें रोज नहीं मिलतीं। उन्होंने इतनी कुशलता और लगन से पढ़ाया कि यदि उनका अनुकरण कोई और हिंदी अध्यापक करे तो जरूर नौकरी से निकाल दिया जाए। उन्होंने हमें कुल जमा चालीस मिनट में हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ा दिया था। वरिष्ठ होने के कारण प्राध्यापक महोदय सदा व्यस्त रहते थे। व्यस्त रहने के कारण उनका क्लास नहीं हो पाता था। होते-हुआते परीक्षाएं निकट आ जाती थीं। तब वह सुनहरा अवसर आता था कि क्लास होती थी। दुबले-पतले, शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और खद्दर की टोपी धरण किए प्रोफेसर साहब अपने विशाल कमरे की विशाल मेज के पीछे विशाल कुर्सी में इस तरह लेट जाते थे कि कभी-कभी हमें केवल उनकी टोपी का ऊपरी भाग ही दिखाई देता था। वे रामचन्द्र शुक्ल का 'हिंदी साहित्य का इतिहास` खोल लेते थे। पढ़ाई इस तरह शुरू होती थी 'आदिकाल, इसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। वीरगाथा मतलब वीरों की गाथा। स्पष्ट है न?' हम सब एक स्वर में कहते थे, 'जी हां, स्पष्ट है।' अब भक्तिकाल। 'भक्ति तो तुम सब जानते ही हो. . .अरे वही राम-भक्ति, कृष्ण-भक्ति. . .समझे? सूर पढ़ा है तुम लोगों ने, तुलसीदास पढ़ा है। जायसी को पढ़ा है. . .वही भक्तिकाल है।' प्रोफेसर साहब इस विद्वत्तापूर्ण भाषण के दौरान किताब के पृष्ठ तेजी से पलटते जाते थे। 'अब आता है रीतिकाल।' रीतिकाल पर वे हंसते थे। उनके पीले बड़े-बड़े दांत बाहर निकल आते थे। क्लास के लड़के मुस्कराते थे। लड़कियां शरमाती थीं। 'तो रीतिकाल मैं तुम लोगों को पढ़ा देता पर नहीं पढ़ाउंगा क्योंकि तुम्हारी क्लास में कन्याएँ हैं।' दांतों से तरल पदार्थ बहने लगता था। दांत शांत हो जाते थे। 'चलो आगे बढ़ो, आधुनिक काल। आधुनिक का मतलब है मॉडर्न। तुम सभी मॉडर्न हो। जब तुम सब स्वयं मॉडर्न हो तो मैं तुम्हें मॉडर्न काल क्या पढ़ाउं? मैं तो तुम्हारी तुलना में मॉडर्न नहीं हूं।' दांत उनके मुंह में चले जाते थे। किताब बंद हो जाती थी। हिंदी साहित्य का इतिहास खत्म हो जाता था। तब प्रोफेसर कहते थे. . .'तुम लोग सौभाग्यशाली हो। आराम से हॉस्टल में रहते हो। पका-पकाया खाना मिल जाता है। टहलते हुए क्लास में चले आते हो। पुस्तकालय उपलब्ध हैं। बिजली की रोशनी है, नल का पानी है। तुम लोग क्या जानो कि मैंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट उठाए हैं। मेरा गांव बहुत छोटा था। वहां कोई स्कूल न था। आठ मील दूर, नदी के उस पर एक बड़ा गांव था जहां पाठशाला थी। हमारे गांव से दो-तीन लड़के पाठशाला जाते थे। हमें अंदर घुसकर नदी पार करनी पड़ती थी। कभी-कभी पानी ज्यादा होता था तो कपड़े और रोटी की पोटली सिर पर रख लेते थे। नदी के उस पार छ: मील चलना पड़ता था। तब पाठशाला पहुंचते थे। पंडित जी के चरण छूते थे। पंडित हमें जंगल से लकड़ी बीनने भेजते थे। किसी को कुएं से पानी भर लाने भेजते थे। मैं छोटा था तो मुझसे कपड़े धुलवाते थे। किसी से चूल्हा जलवाते थे। मतलब हम सब मिलकर पंडित जी का पूरा काम करते थे। वे भोजन करते थे। हम लोग भी इधर-उधर बैठकर रोटी खाते थे। उस गांव में बंदर बहुत थे। कभी-कभी बंदर हमारी रोटी ले जाते थे। तब हमें दिन-भर भूखा रहना पड़ता था। वापसी पर काफी देर हो जाती थी तो भेड़ियों का डर होता था, समझे?' हमें यह लगता था कि प्रोफेसर साहब हम लोगों से बदला ले रहे हैं या इस पर खिन्न हैं कि वो बदला नहीं ले सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि वे हमें इस योग्य ही नहीं समझते थे कि हमसे बदला लें। वे केवल शोध छात्रों को यह सम्मान देते थे। उनके शोध छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वे अपने विषय के पंडित होने के अतिरिक्त भैंसों की देखभाल करने की कला में भी निपुण हो जाते थे। कितना अच्छा था कि उनके सामने दो रास्ते खुल जाते थे। हिंदी के अध्यापक न बन पाते तो भैंस पालने का व्यवसाय शुरू कर सकते थे।
एम.ए. में हमारे साथ दो लड़कियां भी थीं। एक लड़की बुर्का वाली, दूसरी लड़की कई बुर्के उतारकर क्लास में आती थी। एक और लड़का भी क्लास में था जो साहित्यिक रुचि का था। हम तीनों की दोस्ती हो गई थी। मैं, आमोद और किरण बंसल साथ-साथ चाय पीने जाते थे। किसी लड़की के साथ कैंटीन जाना उन दिनों उस विश्वविद्यालय में इतनी बड़ी बात थी कि उसकी चर्चा हो जाया करती थी। सो विभाग में इस बात की चर्चा थी कि हम दो लड़के एक लड़की के साथ चाय पीने जाते हैं।
विभाग में एक और वरिष्ठ अध्यापक थे। उनका क्लास सुबह सवा आठ बजे होता था। वे हमेशा लेट आते थे। हम लोग भी हमेशा लेट जाते थे। जाड़े के दिनों में लेट आकर वे धूप खाने तथा दूसरे अध्यापकों से गप्प मारने लॉन के एक कोने में खड़े हो जाते थे। दूसरे कोने में क्लास के लड़के भी यही पवित्र काम करते थे। लड़कों को देखकर प्राध्यापक महोदय कहते थे, चलो क्लास में बैठो, मैं आता हूं। पर हमें मालूम था कि यदि हम ठंडी क्लास में जाकर बैठ भी गये तो वे घंटा बजने में पांच मिनट पहले ही क्लास में आयेंगे। हम न जाते थे। आखिरकार घंटा बजने में पांच मिनट पहले वे तेजी से क्लास की तरफ बढ़ते थे। हम उनसे पहले भागकर क्लास में चले जाते थे। वे हाजिरी लेने के बाद कहते थे हिंदी में एम.ए. पास करना संसार का सबसे सरल काम है। तुम लोग चिंता न करो। यह वाक्य वे अक्सर बोलते थे। हम से ही नहीं, जो लड़के पास हो चुके थे वे भी बताते थे कि उनको भी उन्होंने यही सूत्र दिया था। कभी-कभार जब उनका मन होता था तो पढ़ाते भी थे। मगर अनमने मन से।
तीसरे वरिष्ठ प्राध्यापक पी.पी.पी. शर्मा थे। शक्ल तो उनकी कुछ खास न थी, पर बने-ठने रहते थे। कभी सूट, कभी बंद गले का कोट पहनकर आते थे। बालों को बहुत जमाकर कंघी करते थे। उन्होंने हाल ही में किसी जवान औरत से दूसरी शादी की थी। वे क्लास में स्त्री-पुरुष संबंधों की चर्चा अक्सर छेड़ देते थे और उस पर बहुत गंभीर होकर अपने विद्वत्तापूर्ण विचार व्यक्त करते थे। लेकिन बीच-बीच में कुछ इस तरह हंसते थे कि विद्वता का आवरण छिन्न-छिन्न हो जाया करता था। लेकिन फिर वे तुरंत गंभीर हो जाया करते थे। उनका नाम हम लोगों ने थ्री पी रख लिया था। उन्होंने अक्सर ढके शब्दों में यह भी कहा कि वह हम दो लड़कों और एक लड़की का एक साथ कैंटीन जाना पसंद नहीं करते। लेकिन शुक्र है लड़की धाकड़ थी और उसने हम दोनों से साफ-साफ कहा था कि हमारी सिर्फ मित्रता है और मित्र के साथ चाय पीना अपराध नहीं है। लेकिन थ्री पी उसे भयंकर अपराध मानते थे। इस तरह वे मुझसे, आमोद और किरण से कुछ नाखुश रहा करते थे और मौका आने पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता का डंडा उठा लेते थे।
एक अत्यंत निरीह किस्म के प्राध्यापक थे जो हमें ब्रजभाषा की रीतिकालीन कविता पढ़ाते थे। पता नहीं क्या रहस्य था, क्या चमत्कार था, क्या अजीब बात थी, क्या न समझ में आने वाली गुत्थी थी कि उनकी क्लास में मुझे बहुत नींद आती थी। लगता था कि मैं वर्षों से सोया नहीं हूं और इससे अच्छी लोरी मैंने कभी सुनी ही नहीं है। मैं अपने चुटकी काट लेता था। आंखें फाड़ता था। क्लास शुरू हो जाने से पहले ठंडे पानी से मुंह धोता था। मुंह में कुछ रखकर बैठता था। लेकिन सब बेकार। अंत में मैंने यह तरकीब निकाली थी कि मैं बुर्केवाली लड़की के बराबर बैठता था और जब नींद आने लगती थी तो उसे छू लेता था। उसके छूने से नींद गायब हो जाती थी और कविता भी अच्छी तरह समझ में आती थी। लेकिन यह डर बना रहता था कि कहीं लड़की ने किसी से कुछ कह दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। पर उसने कभी किसी ने नहीं कहा। शायद उसकी भी वही समस्या रही होगी जो मेरी थी। दीगर बात यह है कि मैं बहुत शालीन ढंग से छूने के अतिरिक्त कभी और आगे नहीं बढ़ा। वह जान गई कि यह लड़का अपनी सीमाएं समझता है।
एक प्राध्यापक घोषित कवि थे। घोषित इसलिए की बाकी प्राध्यापक भी कविता करते थे, पर घोषित नहीं थे। मतलब स्वान्त:सुखाय वाला मामला था। पर 'मधु` जी अपने को स्थापित कवि समझते थे। मधुजी वैसे तो उपन्यास के विषय हैं। उन पर कुछ पंक्तियां या पृष्ठ लिखकर केवल उनका अपमान ही किया जा सकता है। लेकिन अपनी खोज में यह पाप भी करना पड़ेगा। पर आशा है कि 'मधु` जी की आत्मा मुझे क्षमा करेगी।
मधुजी का का पूरा नाम ऐसा था कि उन्होंने हाईस्कूल करने के बाद ही उसे बदलने की जरूरत महसूस कर ली थी और माता-पिता का दिया नाम बदलकर पेन नेम 'मधुकर मधु` रख लिया था। अब बहुत जरूरी कागजात के अलावा या उन्हें छेड़ने के प्रयासों के अतिरिक्त उसका इस्तेमाल कहीं नहीं होता था। अपना पुराना नाम लिखा देखकर मधुजी को सख्त चोट पहुंचती थी। क्रोध आ जाता था। उनके शत्रु ये जानते थे। शत्रुओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। इसलिए शत्रु कोशिश करते रहते थे कि वे मधुजी का पुराना नाम बराबर चलता रहे तो दूसरी ओर मधुजी अपना पुराना नाम जड़ से मिटा देने के प्रयासों में जुटे रहते थे। कभी-कभी उन्हें गुमनाम पत्र मिलते थे जिनके लिफाफों पर उनका पुराना नाम लिखा होता था। कभी-कभी स्थानीय समाचार-पत्रों में कविसम्मेलन की खबरों में उनका पुराना असली नाम तथा उपनाम 'मधु` छाप दिया जाता था। बहरहाल, नाम वाला कांटा 'मधु` जी की जिंदगी का एक नासूर बना हुआ था।
मधुजी रसिक थे। प्रमाण, आठ बच्चों के इकलौते पिता होने के दावेदार के अतिरिक्त उनके प्रेम-प्रसंग भी चर्चा में आते रहते थे। कुछ सामान्य थे, कुछ रोचक थे। एक रोचक प्रसंग कुछ इस प्रकार था- मधुजी की एक शोध छात्रा थी। जब उसका शोध प्रबंध पूरा हो गया तथा नौबत यहां तक पहुंची कि उसे मधुजी के हस्ताक्षरों की आवश्यकता पड़ी तो मधुजी को उसमें सैंकड़ों दोष दिखाई देने लगे। एक दिन एकांत में उन्होंने शोध प्रबंध के सबसे बड़े दोष की ओर इशारा किया। दोष यह था कि शोध छात्रा को ठीक से साड़ी बांधना न आता था। मधुजी ने उससे कहा कि शोध छात्रा एक दिन, जब उनकी पत्नी और बच्चे मंदिर गए हों तो, उनके घर आ जाए और उनसे साड़ी बांधना सीखकर दोषमुक्त हो जाए।
जैसा कि होता है, यह सुनकर लड़की सेमिनार रूम में बैठकर रोने लगी। कुछ लड़कों ने उसे सलाह दी कि वह विभागाध्यक्ष से यह सब कहे। विभागाध्यक्ष ने कहा, 'मधुजी पुरुष हैं और तुम नारी हो, मैं इसके बीच कहां आता हूं?' यह जवाब सुनकर लड़की और अधिक रोने लगी। अंतत: मामला पुरानी कहानियों जैसे सख्त आई.सी.एस. उपकुलपति के पास पहुंचा। ये उपकुलपति बदतमीज होने की सीमा तक सख्त थे। उन्होंने विभागाध्यक्ष तथा मधुजी से कहा कि यदि यह मामला न सुलझाया गया तो उन दोनों को 'सस्पेंड` कर दिया जाएगा। उनके बाद विभागाध्यक्ष के कमरे में एक नाटक हुआ जिसमें तीन पात्र थे। दर्शक कोई न था। लेकिन श्रोता केवल दीवारें न थीं। नाटक का अंत इस तरह हुआ कि मधु जी ने शोध छात्रा को बहन मान लिया। विभागाध्यक्ष ने उसे बेटी माना। शोध छात्रा ने उन दोनों का चरण स्पर्श किया और मधुजी को भाई विभागाध्यक्ष को ताऊ माना।
इस तरह के छोटे-बड़े प्रसंग मधुजी की कविता के लिए कच्चे माल का काम करते थे। ऐसे प्रसंग बहुत थे। लड़कों की एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अमूल्य विरासत के रूप में ये प्रसंग 'पासऑन` करती रहती थी।
विभाग के एक और वरिष्ठ प्राध्यापक कृष्ण-भक्त थे और वे केवल कृष्ण भक्ति काव्य पढ़ाते थे। उसके अतिरिक्त कोई और पेपर वे न पढ़ाते थे। क्लास में प्राय: मस्त हो जाया करते थे। कहते थे यह प्रभु की कितनी कृपा है कि मेरा पूरा जीवन भक्तिमय है। भक्ति की भक्ति होती रहती है और व्यवसाय का व्यवसाय है। यह भी कहते थे कि घर में भी कृष्ण-भक्ति में लीन रहता हूं। इनकी अध्यापन शैली बहुत सरल थी। केवल काव्य पाठ करते थे। उसमें स्वयं डूबे रहते थे। हमसे भी यह आशा करते थे कि हम भी डूब जाएं। उसके अतिरिक्त किसी अन्य पक्ष पर बात करना उन्हें पसंद न था।
जैसे-जैसे समय बीत रहा था, मेरी, आमोद और किरण की मित्रता बढ़ रही थी। आमोद कविताएं लिखता था। मस्त किस्म का लड़का था। कभी-कभी कई-कई दिन दाढ़ी न बनाता था। चप्पलें पहनना पसंद करता था और झूम-झूमकर चलता था। नई कविताएं सुनाया करता था। बोहेमियन जैसा लगने की कोशिश करता था। मैं यह प्रतीक्षा कर रहा था कि किरण उसकी कविताओं में कब आती है। लेकिन अब तक ऐसा न हुआ था।
एक दिन यह हुआ कि किरण और आमोद थ्री पी के कमरे में गए। थ्री पी दो अन्य अध्यापकों के साथ गप्प-शप्प मार रहे थे। इन दोनों को कमरे में आते देखकर थ्री पी ने हंसकर कहा तुम कनक किरण के अंतराल में लुक-छिपकर चलते हो क्यों? 'प्रसाद` की इस पंक्ति को सुनते ही अन्य प्राध्यापकों ने ठहाका लगाया। आमोद और किरण को काटो तो खून नहीं। दोनों उल्टे पैरों लौट गए। थ्री पी बुलाते रहे। सेमीनार रूम में जाकर किरण ने थ्री पी को हिंदी, उर्दू, पंजाबी में गालियां देनी शुरू कर दीं। आमोद भी बहुत नाराज था। दोनों शिकायत करना चाहते थे। पर केस नहीं बनता था। बनता था तो बहुत ही साधरण। अब क्या किया जाए? इसी नाजुक मोड़ पर कहानी में एक नया पात्र आया है किरण का भाई राकेश। खाते-पीते परिवार को होने के कारण उसके पास मोटरसाइकिल थी। वह अक्सर उस पर बैठकर आता था। इतिहास में एम.ए. कर रहा था और विश्वविद्यालय में रंगबाज टाइप के छात्रों में था। गुंडा या बदमाश नहीं था। लेकिन उसकी अच्छी धाक थी। छात्र संघ के चुनाव में उसका दबदबा रहता था और धाकड़ के रूप में उसकी ख्याति थी। किरण ने थ्री पी वाली बात उसे बताई।
थ्री पी साइकिल से घर लौट रहे थे। सड़क पर कुछ सन्नाटा था। सामने से एक तेज रफ़्तार मोटरसाइकिल आ रही थी। थ्री पी ने मोटरसाइकिल के लिए पूरा रास्ता छोड़ रखा था पर जैसे-जैसे वह पास आ रही थी उसकी रफ़्तार बढ़ रही थी और दिशा बिलकुल उनके सामने वे डर गए। लेकिन उससे पहले कि कुछ कर सकें, मोटरसाइकिल बिलकुल उसके सामने आ गई। फिर जोर को ब्रेक लगा। तेज आवाज आई। मोटरसाइकिल का अगला पहिया थ्री पी की साइकिल के अगले पहिए से एक-दो इंच के फासले पर ठहर गया। थ्री पी के दिल की धड़कने तेज थीं ही, लेकिन राकेश को देखते ही और बढ़ गयीं। वे सब कुछ एक झटके में समझ गये। राकेश ने बड़े क्रूर ढंग से मोटरसाइकिल खड़ी की और तेजी से उनकी ओर बढ़ा। वे कांप गये। राकेश ने अपने मजबूत हाथ से उनकी पुरानी साइकिल का हैंडिल पकड़ लिया।
'नमस्ते सर!' राकेश ने भारी-भरकम आवाज में कहा।
'नमस्ते. . .नमस्ते. . .' उनका गला सूख रहा था।
'कैसे हैं सर?'
'ठीक हूं भइया. . .ठीक हूं. . .तुम कैसे हो?'
'मुझे क्या होगा. . .आप बताइए. . .घर जा रहे हैं?' राकेश ने इस तरह कहा जैसे कह रहा हो, आप घर जा रहे हैं लेकिन मैं चाहूं तो आप अस्पताल पहुंच सकते हैं। 'और तो सब ठीक है न?'
'हां-हां, ठीक है. . .'
'अच्छा नमस्ते. . .' वह जाने के लिए मुड़ा लेकिन फिर थ्री पी की तरफ घूम गया और बोला, 'ठीक ही रहना चाहिए।' थ्री पी कांपने लगे। राकेश तेजी से मोटरसाइकिल पर बैठा और बड़े क्रूर ढंग से एक झटके के साथ आगे बढ़ गया।
थ्री पी ने अगले दिन क्लास में छायावाद नहीं पढ़ाया। छायावाद बहुत अमूर्तन हो गया है। उन्होंने अपने प्रिय विषय सेक्स पर भी बातचीत नहीं की। उन्होंने अपने पिताजी की महानता और विद्वता के किस्से भी नहीं सुनाए। वे केवल यह बताते रहे कि वे कितने अच्छे, सच्चे, सरल भले आदमी हैं। वे छात्रों और विशेष रूप से छात्राओं का बहुत सम्मान करते हैं। उन्हें भारतीय संस्कृति के अनुसार देवियां समझते हैं। जब उन्होंने देखा कि देवी कहने से भी बात नहीं बन रही है तो बोले, मैं तो क्लास की ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय की सभी लड़कियों को बहन समझता हूं। उनका इतना सम्मान करता हूं कि उनको अपमानित करने की बात सोच भी नहीं सकता। थ्री पी ने ऐसा शानदार अभिनय किया कि अभिनेताओं को वैसा करने के लिए काफी अभ्यास और दसियों टेक देने पड़े। उनकी उच्चकोटि की मार्मिक भावनाओं के प्रति अपनी पूरी सदाशयता दर्शाते हुए क्लास के सभी लड़कों ने थ्री पी को आदर्श भारतीय, आदर्श प्रोफेसर, आदर्श व्यक्ति, आदर्श पति, आदर्श पति मतलब यह कि आदर्श की साक्षात् मूर्ति स्वीकार किया। हम लोग भी भावुक हो गये। थ्री पी तो भावुक थे ही। माहौल कुछ विदाई समारोह जैसा हो गया अब स्थिति यह थी कि थ्री पी जो कहते थे हम उनकी 'हां` में 'हां` मिलाते थे। हम जो कुछ कहते थे थ्री पी उसकी 'हां` में 'हां` मिलाते थे। लगने लगा कि हम एक-दूसरे से इतना सहमत हैं जितना सहमत हो पाना असंभव है। यानी हमने असंभव को संभव कर दिखाया था। इस सबके बावजूद मजे की बात यह थी कि हम सब और शायद थ्री पी सभी जानते थे कि हम सब जो कुछ कर रहे हैं उसका मतलब वह नहीं है जो है, जो नहीं है वह है। यही एक सूत्र था जो मैंने पकड़ा था इसी सूत्र के आधार पर मैंने अपनी शिक्षा को जांचा तो पता चला कि जो दिखता है वैसा नहीं है। अपने आपको भी देखा तो यही पाया। अपने परिवेश को भी पाया, जो दिखता है वह नहीं है। यहीं से मेरी समस्याएं शुरू हो गईं। अब तो जैसी मेरी शिक्षा हुई थी वह आप जान ही गये हैं। उस पर सोने में सुहागा यह कि वह वैसी नहीं थी जैसी लगती थी। जब मुझे यह लगने लगा कि मैंने जो कुछ भी अब तक पढ़ा है वह 'ढोंग` था तो मुझे बहु खुशी भी हुई। अपने अध्यापकों के प्रति मेरे मन में सम्मान भी जागा। क्योंकि यदि वे वास्तव में गंभीरता से पढ़ा देते तो शायद मैं कहीं का न रहता।
14 विकसित देश की पहचान
(1)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश कपड़ा नहीं बनाते गुरुदेव।
गुरु : तब वे क्या बनाते हैं?
हरिराम : वे हथियार बनाते हैं।
गुरु : तब वे अपना नंगापन कैसे ढकते हैं?
हरिराम : हथियारों से उनकी नंगई ढक जाती है।
(2)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश में लोग खाना नहीं पकाते।
गुरु : तब वे क्या खाते हैं?
हरिराम : वे 'फास्ट फूड` खाते हैं।
गुरु : हमारे खाने और 'फास्ट फूड` में क्या अंतर है।
हरिराम : हम खाने के पास जाते हैं और 'फास्टर फूड` खाने वाले के पास दौड़ता हुआ आता है।
(3)
गुरु : हरिराम विकसित देश की पहचान बताओ।
हरिराम : विकसित देशों में बच्चे नहीं पैदा होते।
गुरु : तब कहां कौन पैदा होते हैं?
हरिराम : तब वहां कौन पैदा होते हैं?
गुरु : वहां जवान लोग पैदा होते हैं जो पैदा होते ही काम करना शुरू कर देते हैं।
(4)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में सच्चा लोकतंत्र है।
गुरु : कैसे हरिराम?
हरिराम : क्योंकि वहां केवल दो राजनैतिक दल होते हैं।
गुरु : तीसरा क्यों नहीं होता?
हरिराम : तीसरा होने से सच्चा लोकतंत्र समाप्त हो जाता है।
(5)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में आदमी जानवरों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि जानवर आदमियों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों नहीं वहां आदमी आदमियों से और जानवरों से प्यार करते हैं?
हरिराम : क्योंकि विकसित देशों में आदमियों को आदमी और जानवरों को जानवर नहीं मिलते।
(6)
गुरु : विकसित देश की कोई पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश विकासशील देशों को दान देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर ब्याज के साथ कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर ब्याज ही कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर विकसित देशों को विकसित मान लेते हैं।
(7)
गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में बूढ़े अलग रहते हैं।
गुरु : और जवान?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : और अधेड़?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : तब वहां साथ-साथ कौन रहता है?
हरिराम : सब अपने-अपने साथ रहते हैं।
(8)
गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में मानसिक रोगी अधकि होते हैं।
गुरु : क्यों? शारीरिक रोगी क्यों नहीं होते?
हरिराम : क्योंकि शरीर पर तो उन्होंने अधिकार कर लिया है मन पर कोई अधिकार नहीं हो पाया है।
(9)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में तलाक़ें बहुत होती हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि प्रेम बहुत होते हैं।
गुरु : प्रेम विवाह के बाद तलाक़ क्यों हो जाती है?
हरिराम : दूसरा प्रेम करने के लिए।
(10)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश मानव अधिकारों के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि उनके पास ही विश्व की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है।
गुरु : हरिराम सैन्य शक्ति और मानव अधिकारों का क्या संबंध?
हरिराम : गुरुदेव, विकसित देश सैन्य बल द्वारा ही मानव अधिकारों की रक्षा करते हैं।
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15 मुर्गाबियों के शिकारी
अधेड़ उम्र लोगों को आसानी से किसी बात पर हैरत नहीं होती। जीवन की पैंतालीस बहारें या पतझड़ इतने खट्टे-मीठे अनुभवों से उसका दामन भर देती हैं कि अच्छा और बुरा, सुंदर और कुरूप, त्याग और स्वार्थ वगैरा वगैरा के छोर और अतियां देखने के बाद अधेड़ उम्र आदमी बहुत कुछ पचा लेता है।
डॉ. रामबाबू सक्सेना यानी आर के सक्सेना पचास के होने वाले हैं। दिल्ली कॉलिज से रिटायरमेंट में अभी साल बचे हैं। डॉ. आर.के. सक्सेना को आज हैरत हो रही है। उन्हें लगता है, ऐसा तो उन्होंने सोचा भी न था! यह होगा, इसका अंश बराबर अनुमान भी न था और इस तरह अनजान पकड़े जाने पर अपमान का जो बोध होता है, वह भी डॉ. सक्सेना को हो रहा है। सामने क्लास में बैठे अध्यापक उनकी बातों पर हंस रहे हैं। चलिए छात्र हंस देते तो डॉ. सक्सेना सब्र कर लेते कि चलो नहीं जानते, इसलिए हंस रहे हैं। लेकिन ये स्कूल के अध्यापक, जिन्होंने कम से कम बी.ए. और उसके बाद बी.एड जरूर किया है, हंस रहे हैं तो डूब मरने की बात है।
किस्सा कुछ यों है कि डॉ. सक्सेना के पास सुबह-सुबह डॉ. पी.सी. पाण्डेय का फोन आया कि अगर आज कुछ विशेष न कर रहे हों तो स्कूल के अध्यापकों के ट्रेनिंग प्रोग्राम में आकर दो-ढाई घंटे का भाषण दे दें कि बच्चों को हिंदी कैसे पढ़ाई जानी चाहिए। जिस तरह कहा गया था उससे जाहिर था कि कुछ मिलेगा। डॉ. पांडेय ने अधकि स्पष्ट कर दिया, डॉक्टर साहब आप निश्चिंत रहो जैसा कि आप कहते हो मुर्गाबियों का शिकार है. . .हमने पूरी व्यवस्था करा रखी है। जाल-वाल लगवा दिये हैं। हांक-वाका लगवा दिया है. . .मचान-वचान बनवा दी है, अब आपकी कसर है कि आ जाओ और सोलह बोर की लिबलिबी दवा दो। डॉक्टर पांडेय ने विस्तार से बताया।
उम्र में कम होते हुए भी पांडेय और डॉ. सक्सेना में अंतरंगता है। मुर्गाबियों यानी पानी पर उतरने वाली चिड़ियों का शिकार डॉ. सक्सेना की ईजाद है। बचपन में चालीस-पैंतालीस साल पहले अपनी ननिहाल मिर्जापुर में अपने नाना दीवान रामबाबू राय के साथ मुर्गाबियों के शिकार पर जाया करते थे। मुर्गाबियों के शिकार पर जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, क्योंकि शिकार का मतलब था मुर्गाबियों में मुफ़्त का हिस्सा नौकरी करने के बाद इधर-उधर सेमीनारों, कार्यशालाओं, संगोष्ठियों वगैरा में जो मिल जाता है उसके लिए पता नहीं कैसे डॉ. सक्सेना ने मन में मुर्गाबियों के शिकार का बिंब बना लिया था। यह बात डॉ. सक्सेना के निकटतम लोग जानते हैं कि वे 'उपरी` नहीं 'भीतरी` आमदनी को मुर्गाबियों का शिकार कहते हैं।
हां वो तो है. . .अच्छा है लेकिन डॉ. पांडेय, ये बताओ कि आयोजन क्या है? हरियाणा के रहने वाले डॉ. शर्मा विस्तार से बात करते हैं, 'अजी डॉ. साहेब क्या बतावें. . .ये वर्ल्ड बैंक का प्रोजेक्ट है जी. . .एक महीने का ट्रेनिंग प्रोग्राम, इससे पहले 'टेक्स्ट बुक` बनवाने की 'वर्कशाप` करायी थी। आजकल ये चल रहा है। दिल्ली में दस सेंटर बनाये हैं. . .हमारे जी 'होयल` एक हजार से ज्यादा टीचर लैं. . .कुछ बड़े स्कूलों में तो हालात अच्छी है और कुछ में तो कूलर भी नहीं है डाक साब. . .अब तुम्मी बताओ जी. . .बिना कूलर विशेषज्ञ को बुलावे तो शरम नई आयेगी?. . .तो फिर इसी सकूल चुने हैं. . .कम से कम कूलर तो होवें न डाक साहब. . .विशेषज्ञ. . .`
विशेषज्ञ और 'कूलर` यानी गर्मी में ठंडा तापमान और सर्दियों में गर्म बहुत जरूरी है वर्ल्ड बैंक में रिपोर्ट हो जाए तो डॉ. पांडेय जैसे निदेशकों की नौकरी पर बन आयेगी। वैसे डॉ. पांडेय से उनका परिचय पुराना है। उन्हें पीएच.डी. में एडमीशन लेना था इन्होंने प्रपोजल बनवाया, जमा कराया, पास करवाया, थीसिस लिखवाई, टाइप करायी, जमा करायी, परीक्षकों को भिजवायी, रिपोर्ट मंगवाई, वायवा कराया. . .पांडेय जी को पीएचडी एवार्ड करायी और डिग्री घर भिजवायी थी। डॉ. सक्सेना ने यह सब किसी उंचे आदर्श या विचार के तहत नहीं किया था। एक मामला यह था कि फरीदाबाद की सरकारी कालोनी से मिले गांव में पांडेय जी की जमीन थी जिस पर प्लाटिंग की हुई थी। 'डील` यह थी कि इधर पीएचडी होगी, उधर जमीन का बैनामा होगा। यह आदान-प्रदान कार्यक्रम सुचारु रूप से चला।
डॉ. सक्सेना का 'सेशन` दस बजे से शुरू होना था। इस वक्त सवा दस हो रहा है। ट्रेनिंग सेंटर यानी स्कूल में प्रिंसिपल के कमरे में डॉ. पांडेय का व्याख्यान जारी है, 'डॉक्टर साहेब! गर्मियों में विशेषज्ञ मिलने मुश्किल हो जाते हैं. . .अरे शिमला या नैनीताल हो तो कहिए मैं सैकड़ों विशेषज्ञ जमा कर दूं लेकिन गर्मियों में दिल्ली. . .अरे भाईजी, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति वगैरा की बात तो छोड़ दो, छुटभइये नेता तक गर्मियों में राजधानी छोड़ देते हैं. . .अब जब पानी नहीं बरसेगा, यही समस्या रहेगी. . .अब देखोजी, हमें तो यही ओदश हैं कि विशेषज्ञों की मानो. . .तो हम पालन करते हैं. . .विश्व बैंक से हम लोगों ने दस करोड़ मांगा था नये स्कूल खोलने के लिए। उन्होंने कहा दस करोड़ से पहले 'ये` और 'ये` और 'ये` करायेंगे। इसके लिए पांच करोड़ देंगे. . .फिर पाठ्यक्रम बदलने को इतना, फिर इतना. . .होते-होते सौ करोड़ हो गया. . .चलो ठीक है, शिक्षा पर पैसा लग रहा है. . .पर समझ में कम ही आता है। अब देखोगे, इन्हीं विशेषज्ञों ने बच्चों के बस्तों का वजन बढ़ाया फिर येई बोले, बच्चों की तो कमर टूटी जा रही है. . अब सुनो जी विशेषज्ञ कये हैं हमारी शिक्षा चौहद्दी में कैद हो गयी है। देखो जी, पहले स्कूल की चारदीवारें. ..फिर कहवें है। क्लास रूप की चार दीवारों. . .पाठ्यक्रम की चार दीवारें, अध्यापक की चार दीवारें. . .परीक्षा की चार दीवारी. . .अब बोलो. . .आदेश हो जाए तो तोड़ दी जावे सब दीवालें. . .`
'साढे दस बज रहा है।` डॉ. सक्सेना बोले।
'अरे डाक साहेब क्यों जल्दिया रहे हो. . .अभी न आये होंगे।`
पैंतालीस अध्यापक, जिनमें आधी के करीब महिलाएं और लड़कियां। कुछ अध्यापक गंवार जैसे लग रहे थे और कुछ अध्यापिकाएं अच्छा-खासा फैशन किये हुए थीं। इन सबके चेहरों पर एक असहज भाव था। ऐसा लगता था कि वे इस सबसे सहमत नहीं हैं जो हो रहा है या होने जा रहा है। डॉ. सक्सेना ने सोचा, ऐसा तो अक्सर ही होता है। जब बातचीत शुरू होगी तो विश्वास का रिश्ता बनता चला जाएगा और असहजता दूर हो जाएगी। डॉ. सक्सेना ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी बात शुरू की और मुद्दे के विभिन्न पक्षों को रेखांकित किया ताकि उन पर विस्तार से चर्चा हो सके। इन सब प्रयासों के बाद भी डॉ. सक्सेना को लगा कि सामने बैठे अध्यापकों-अध्यापिकाओं के चेहरे पर मजाक उड़ाने, उपहास करने, बोलने वालों को जोकर समझने के भाव आ गये हैं। कुछ जेरे-लब मुस्कुराने भी लगे। तीस साल पढ़ाने और दुष्ट से दुष्ट छात्र को सीधा कर देने का दावा करने वाले डॉ. सक्सेना अपना चेहरा, कितना कठोर बन सकते थे, बना लिया। आवाज जितनी भारी कर सकते थे कर ली और बॉडी लैंग्वेज को जितना आक्रामक बना सकते थे बना लिया। लेकिन हैरत की बात यह कि सामने बैठे लोगों के चेहरों पर उपहास उड़ाने वाला भाव दिखाई देता रहा। एक अध्यापिका के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वह कुछ कहना चाहती हैं।
'सर आप जो कुछ बता रहे हैं बहुत अच्छा है। पर हमारे काम का नहीं है।` अध्यापिका बोली।
इस प्रतिक्रिया पर डॉ. सक्सेना को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन पी गये और बोले, 'क्या समझ नहीं आ रहा?`
'नो सर. . .समझ में तो सब आ रहा है।`
'तब यह उपयोगी क्यों नहीं लग रहा है?` डॉ. सक्सेना ने पूछा और अध्यापकों की पूरी क्लास खुल कर मुस्कुराने लगी। डॉ. सक्सेना ने सोचा, क्या वे 'थर्ड डिग्री` में चले जाएं? पर यह भी लगा कि ये लड़के नहीं हैं, अध्यापक हैं, कहीं गड़बड़ न हो जाए।
'सर, जहां बच्चे पढ़ना ही न चाहते हों वहां टीचर क्या कर सकता है?` एक प्रौढ़ अध्यापक ने गंभीरता से कहा और कुछ नौजवान अध्यापक हंस दिये। डॉ. सक्सेना का खून खौल गया। वे तुरंत समझ गये कि ये साले मुझे. . .यानी मुझे यानी डॉ. आर.बी. सक्सेना प्रोफेसर अध्यक्ष और पता नहीं कितनी राष्ट्रीय समितियों और दलों के सदस्य को उखाड़ना चाहते हैं, इनको शायद मालूम नहीं कि इनका सबसे बड़ा बॉस मुझे सर कहता है और पूरी बातचीत में सिर्फ 'सर` ही 'सर` करता रहता है।
'बच्चे पढ़ना नहीं चाहते या आप लोग पढ़ाना नहीं चाहते।` डॉ. सक्सेना ने पलटकर वार किया।
'सर, हम बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. . .ईमानदारी से पढ़ाना चाहते हैं. . .पर वे नहीं पढ़ते।` एक लेडी टीचर बोली। उसका बोलने का ढंग और चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह सच बोल रही है और मजाक नहीं उड़ा रही है।
'सर, आप ऐसे नहीं समझोगे. . .` एक ग्रामीण क्षेत्र का सा लगने वाला अध्यापक बोला, 'ऐसे है जी कि हमारे स्कूलों में सबसे कमजोर बरग के बच्चे आवे हैं।`
'बरग नहीं वर्ग. . .` किसी ने चुपके से कहा कि पूरी क्लास हंसने लगी।
'वही समझ लो जी. . .अपनी तो भाषा ऐसी है. . .तो जी. . .`
'ठीक है, ठीक है, बैठिए मैं समझ गया।` डॉ. सक्सेना ने अध्यापक को चुप करा दिया। एक फेशनेबुल अध्यापिका बोलने लगी, 'सर, हमारे स्कूलों में मजदूरों, रेड़ी वालों, ठेले वालों, कामगारों, सफाई करने वालों, माली-धोबी परिवारों के बच्चे आते हैं। सर, हम उन्हें वह सब सिखाते हैं जो आमतौर पर बच्चों को मां-बाप सिखा देते हैं। उन्हें बैठना तक नहीं आता। खाना नहीं आता। इन्हें हम सिखाते हैं कि देखो सबके सामने नाक में उंगली डालकर. . .।` पूरी क्लास हंसने लगी।
'तो फिर बताइये सर. . .?`
'तो पढ़ाने में क्या प्राब्लम है?`
'बच्चे रेगुलर स्कूल नहीं आते. . .लंच टाइम में आते हैं। स्कूल की तरफ से लंच मिलता है, वह खाते हैं और चले जाते हैं. . .कभी उनके परिवार वालों को इलाके में मजदूरी नहीं मिलती तो कहीं ओर चले जाते हैं. . .`
'अरे, ये सब बच्चों के साथ तो न होता होगा?` डॉ. सक्सेना ने उन्हें पकड़ा।
'सर, ये समझ लो. . .बच्चा स्कूल में पाँचवी तक पढ़ता है, पास होकर चला जाता है, पर वह क ख ग न तो पढ़ सकता है न लिख सकता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा, यह सफेद झूठ है और अगर कहीं ये सच है तो इससे बड़ा कोई सच नहीं हो सकता।
यह कैसे 'पॉसिबल` है, डॉ. सक्सेना की आवाज में विशेषज्ञों वाली ठनक आ गयी।
'सर, इस तरह के बच्चों को हम फेल नहीं कर सकते?`
डॉ. सक्सेना को धक्का और लगा। यह कैसे पढ़ाई है और कैसा स्कूल है?
'क्या आपको ऐसा आदेश दिया गया है कि. . .`
'सर, लिखकर तो नहीं. . .मौखिक रूप से दिया ही गया है। तर्क यह है कि फेल होने पर लड़के पढ़ाई छोड़ देते हैं और. . .`
'तो स्कूल में कोई फेल नहीं होता?`
'यस, सर . . .७५ प्रतिशत हाजिरी जिसकी भी होती है उसे पास करना पड़ता है।`
एक कठिनाई डॉ. सक्सेना को यह लग रही थी कि बातचीत स्कूल व्यवस्था पर केंद्रित हो गयी थी जबकि यहां उनका काम अच्छे शिक्षण पर भाषण देना था।
'देखिये, ऐसा है कि आप लोग बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी पैदा कराने के लिए कुछ तो कर ही सकते हैं।`
'क्यों नहीं. . .जरूर कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं पर जब वे जानते हैं कि पढ़ने वाले और न पढ़ने वाले दोनों पास हो जाएंगे तो बस. . .`
'देखिये, मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि आप लोग हर हालत में अपनी 'परफार्मेंस` इंप्रूव कर सकते हैं।`
'सर, कृपया मेरी एक छोटी और बुनियादी बात पर विश्वास करें कि अगर. . .उन्होंने दाढ़ी
वाले अध्यापक की बात काट दी क्योंकि उन्हें मालूम है कि छोटी बुनियादी बातों का वह जवाब न दे पायेंगे।
'देखिये समस्याएं तो होंगी ही. . . .पर . . .`
उनकी बात काटकर एक अध्यापिका बोली, 'सर, आपने वह किताब देखी है जो हम पहले दर्जे के बच्चे को पढ़ाते है।` उसने किताब बढ़ाते हुए कहा, 'पहला पाठ है रसोईघर. . .पहला वाक्य 'फल खा` जिन बच्चों को हम पढ़ाते हैं वे जानता ही नहीं कि फल क्या होता है?` अध्यापक ने कहा और बाकी सब हंसने लगे।
'देखिये सर, यह रसोईघर का चित्र बना है. . .हमारे बच्चों ने तो गैस सिलेंडर, फ्रिज, बर्तन रखने की अलमारियां देखी तक नहीं होतीं. . .उनकी समझ में यह सब क्या आयेगा. . .?
जब तक डॉ. सक्सेना जवाब देते, एक दूसरा सवाल उछला, 'सर, जिस बच्चे को 'क` 'ख` 'ग` न आता हो वह वाक्य कैसे पढ़ेगा या सीखेगा?`
'देखिये, इसे डायरेक्ट मैथेड कहते हैं।`
'वो 'क` 'ख` 'ग` वाले सिस्टम में क्या खराबी थी?`
'अब देखिये, विशेषज्ञों को लगा कि नये मैथड से. . .`
'सर मैथड छोड़िये. . .ये देखिये मां का चित्र सिलाई कर रही है। पिताजी ऑफिस जा रहे हैं। हाथ में छाता और पोर्ट फोलियो है. . हमारे स्कूल के बच्चे झुग्गी-झोपड़ी मजदूर. . .`
डॉ. सक्सेना उनकी बात काट कर बोले, 'क्या नयी किताब बनाते समय विशेषज्ञों ने आप लोगों से या स्कूल के बच्चों से कोई बातचीत की थी।`
'नहीं, चालीस आवाजें एक साथ आयी।
'अब बताइये सर. . .हम क्या करें. . .गाज हमारे ही उपर गिरती है. . .बच्चों को क्या 'इनकरेज` करे?`
'आप, लोग निजी तौर पर तो कुछ कर सकते हैं?`
'सर, हमारे स्कूल में सात सौ लड़के हैं। ग्यारह अध्यापक हैं। एक क्लास रूप में तीन क्लासें बैठती हैं। एक अध्यापक एक साथ तीन कक्षाओं को पढ़ाता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा जैसे वे आश्चर्य के समुद्र में डूबते चले जा रहे हैं. . .धीरे-धीरे अंधेरे में किसी बहुत बड़े समुद्री जहाज की तरह उनके अंदर पानी भर रहा है और आत्मा धीरे-धीरे निकल रही है. . .यह क्या हो रहा है? अध्यापक यह सिद्ध किये दे रहे हैं कि वह भी एक बड़े भारी षड्यंत्र का हिस्सा है।
'देखिये यह स्थिति हर स्कूल में तो नहीं होगी?` डॉ. सक्सेना ने कहा। 'हां सर, यह बात तो आपकी ठीक है. . .ग्रामीण क्षेत्रों में जो स्कूल हैं. . .वहां यह स्थिति है. . .शहरी क्षेत्रों में. . .`
'शहरी क्षेत्रों में बच्चे गैर-हाजिर बहुत रहते हैं. . .`
'सर, दरअसल इनको पढ़ाना है तो पहले इनके मां-बाप को पढ़ाओ।` किसी चंचल अध्यापिका ने कहा और सब हंस पड़े।
'हां जी, सौ की सीधी बात है।` किसी ने प्रतिक्रिया दी। डॉ. सक्सेना घबरा गये। फिर वही हो रहा है। ये लोग मुझे 'डुबो` रहे हैं उस पानी में जहां मुर्गाबियां नहीं हैं. . .जहां पानी ही पानी है।
'सर, बच्चों के मां-बाप को पढ़ाया जाए तो उन्हें खिलायेगा कौन?`
'सरकार खिलाये?` किसी अध्यापक ने कहा।
'सरकार के पास इतना है?` किसी दूसरे अध्यापक ने कहा।
'क्यों नहीं है?`
'अभी पढ़ा नहीं? उद्योगपतियों का ढाई हजार करोड़ कर्ज माफ कर दिया है सरकार ने. . .क्या कहते हैं अंग्रेजी में बड़ा अच्छा नाम दिया है- नॉन रिकवरिंग. . . .`
डॉ. सक्सेना ने घबराकर अध्यापक की बात काट दी, 'ठहरिये. . .ये यहां डिस्कस करने का मुद्दा नहीं है।` वे डर हरे थे कि डायरेक्टर साहब कहेंगे- क्यों जी आप के यहां मुर्गाबियों का शिकार करने के लिए बुलाया गया था और आप तो शिकारियों का शिकार करने वाली बातें करने लगे। 'अरे, ये राजनीति गंदी चीज हैं। छोड़िये इसको, केवल यह बताइए कि बच्चों की पढ़ाई को किस तरह से बेहतर बनाया जा सकता है।`
'सर अब बात निकल आयी है तो कहने दीजिए सर. . .हमारे स्कूलों में हमारे अधिकारियों के बच्चे क्यों नहीं पढ़ते? मंत्रियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं जाते।`
डॉ. सक्सेना फिर विवश हो गये, 'ठहरिये. . .ये बातें आप लोग अपने संगठनों में 'डिस्कस करें।`
'सर, हमारे संगठनों में यह कभी 'डिस्कस` नहीं होता।`
'देखिये अब मैं आप लोगों से मनोवैज्ञानिक पक्षों पर बात करना चाहता हूं। बच्चों के पढ़ाने के लिए आवश्यक है कि हम उनके मनोविज्ञान को समझें. . । हर बच्चे का अपन अलग मनोविज्ञान होता है. . .`
अध्यापक आपस में बातें कर रहे थे। महिला अध्यापिका बड़े सहज ढंग से खुसुर-पुसुर कर ही थी। ऐसा लगता था जैसे वे इतवार के दिन जाड़ों की रेशमी धूप में बैठी स्वेटर बुन रही हों और बातें कर रही हों। पुरुष अध्यापकों के भी कई गुट बन गये थे और सब बातों में लीन हो गये थे। एक दो अध्यापक बार-बार घड़ी देख रहे थे। डॉ. सक्सेना लगातार बिना रुके बोले जा रहा है। वह मुर्गाबियों का शिकार खेल रहे थे। वह चाहते भी नहीं थे कि अध्यापक ध्यान से उनके पास थे नहीं या वह दे नहीं सकते थे क्योंकि वह तो मुर्गाबियों के शिकारी हैं।
कुछ देर बात शोर का स्वरूप बदल गया। अब शोर ने छोटे-छोटे समूहों के आकार को तोड़ दिया और वह क्लासव्यापी हो गया और उन्हें लगा कि बोल भी नहीं पायेंगे।
'आप लोग क्या बातें कर रहे हैं?` उन्होंने पूछा।
'सर, हमारी क्लास एक बजे समाप्त होगी।`
'हां, मुझसे आपके डायरेक्टर ने यही कहा है कि एक बजे तक मैं आपको लेक्चर देता रहूं।`
'सर, उसके बाद हमारी हाजरी होगी।`
'ठीक है।`
'नहीं सर. . .ठीक कैसे है. . .एक बजे तो क्लास खत्म हो जाती है। हमें चले जाना है। एक बजे अगर हाजरी होगी तो पंद्रह मिनट तो हाजरी में लग जाएंगे।` एक महिला अध्यापिका बोली।
'तो फिर`
'हमारी हाजरी पौन बजे होना चाहिए ताकि हम ठीक एक बजे छुट्टी पा सकें।`
'दस-पन्द्रह मिनट से क्या फर्क पड़ता है।` डॉ. सक्सेना ने कहा।
'मेरी बस छुट जाएगी. . .फिर एक घंटे बाद बस है. . .घर पहुंचते-पहुंचते तीन बजे जाएंगे। उन्हें खाना देना है। बंटी को स्कूल बस से लेना है। रोटी डालना है. . .उन्हें गरम रोटी ही देती हूं। दाल में छोंक भी नहीं लगायी है. . .'महिला बोलती रही।. . .एक पुरुष अध्यापक ने कहा, 'वैसे भी सिद्धांत की बात है.... यदि एक बजे छुट्टी होनी है तो एक ही बजे होनी चाहिए।`
'मुझे तो नजफगढ़ जाना है. . .देर हो जाती है तो अंधेरा हो जाता है. . .क्रिमनल एरिया पड़ता है. . .कुछ हो गया तो. . .` लड़की चुप हो गयी।
'हाजरी पैन बजे ही होनी चाहिए।` एक दादा किस्म के अध्यापक ने धमकी भरे अंदाज में कहा।
'सर, लेडीज की प्रॉब्लम कोई नहीं समझता. . .मैं तो खैर मैरीड हूं. . .बच्चे बस्ते लिए घर के बाहर 'वेट` कर रहे होंगे. . .चाबी पड़ोस में देने के लिए 'वो` मना करते हैं. . .सर जो लेडी टीचर मैरीड नहीं हैं उनके घरों में भी कुछ तो है ही है सर. . .`
'सर, हम लड़कियां देर से घर पहुंचे तो हजार तरह की बातें होने लगती हैं।`
डॉ. सक्सेना को लगा कि इस समय संसार का सबसे बड़ा और जरूरी काम यही है कि इन लोगों की पंद्रह मिनट पहले हाजरी हो जाए ताकि ये ठीक एक बजे स्कूल से निकल सकें। उन्होंने डायरेक्टर पांडेय जी को बुलाया। वे रजिस्टर लेकर आये।
रजिस्टर जैसे ही मेज पर रखा गया, यह लगा गंदे चिपचिपे मैले मिठाई बांधने वाले कपड़े पर मक्खियों ने हमला बोल दिया हो। ऐसी कांय-कांय, भांय-भांय होने लगी कि कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
डॉ. सक्सेना थके हारे और कुछ अपमानित भी डायरेक्टर के कमरे में जहां कूलर चल रहा था, आ गये। डॉ. पांडेय को पता नहीं कैसे मालूम हो गया कि क्लास में मेरे साथ क्या हुआ। 'अब देखो जी, हम तो इन्हें 'बेस्ट ट्रेनर` देते हैं. . .अब इनकी जिम्मेदारी है कि ये कुछ सीखते हैं या नहीं।`
डॉ. सक्सेना डॉ. पांडेय से कहना चाहते थे कि यार पांडेय क्या तुम्हें हकीकत में कुछ नहीं मालूम? या तुम सब जानते हो? डॉ. पांडेय क्या तुम्हें नहीं मालूम कि एक सौ तक सब उलट-पुलट गया है।
वह यह सब सोच रहे थे और डॉ. पांडेय पता नहीं कैसे समझ गये कि उनके पास सीधे और छोटे सवाल हैं। डॉ. पांडेय वही करने लगे जो डॉ. सक्सेना क्लास रूम में कर रहे थे। यानी बिना रुके, लगातार बोलने लगे ताकि सवाल पूछने का मौका न मिले। डॉ. पांडेय लगातार बोल रहे हैं, वे सांस ही नहीं ले रहे, 'अब जी ये तो दूसरा दिन है. . .तीस दिन चलना है वर्कशाप. . .फिर रिपोर्ट बनेगी वर्ल्ड बैंक को जाएगी. . .बाइस सेंटर बनाये गये हैं। हर सेंटर में सौ के करीब टीचर हैं. . .` भाषण देते-देते ही उन्होंने डॉ. सक्सेना बढ़ाया। जाहिर है उसमें मुर्गाबी ही है। उन्होंने लिफाफा जेब में रख लिया। डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .।
डॉ. सक्सेना दरवाजे के बाहर देख रहे हैं, शिक्षक स्कूल के बाहर निकल रहे हैं. . .फिर लगा कि न तो ये शिक्षक हैं, न वह ट्रेनर हैं, न डॉ. पांडेय निदेशक हैं, न ये स्कूल है। डॉ. सक्सेना को हैरत हुई कि वह इतने रहस्यवादी कैसे बने गये। पर अच्छा लगा. . .डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .मुर्गाबियां पानी पर उतर रही है. . .डॉ. सक्सेना खामोश हैं क्योंकि शिकारी चुप रहते हैं, बोलते ही शिकार उड़ जाता है. . .लेकिन उन्हें यह यकीन क्यों है कि वह मुर्गाबियों का शिकारी है...हो सकता है वह या डॉ. त्रिपाठी मुर्गाबी हों और शिकारी. . .।
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16 लकड़ियां
(1)
श्यामा की जली हुई लाश जब उसके पिता के घर पहुंची तो बड़ी भीड़ लग गयी। इतनी भीड़ तो उसकी शादी में विदाई के समय भी नहीं लगी थी। श्याम की बहनों की हालत अजीब थी क्योंकि वे कुंवारी थीं। श्यामा की मां लगातार रोई जा रही थी। रिश्तेदार उसे दिलासा भी क्यों देते। श्यामा के पिता जली हुई श्यामा को देख रहे थे। उनकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे थे। श्यामा का पति और देवर पास खड़े थे। श्यामा के पति ने श्यामा के पिताजी से कहा 'पापा आप रोते क्यों हैं. . .श्यामा को बिदा करते समय आपने ही तो कहा था कि बेटी तुम्हारी डोली इस घर जा रही है अब तुम ससुराल से तुम्हारी अर्थी ही निकले।'
देवर बोला 'चाचा जी श्यामा ने आपकी इच्छा जल्दी ही पूरी कर दी।'
श्यामा के ससुर जी बोले 'बेकार समय न बर्बाद करो। अब यहां तमाशा न लगाओ। चलो जल्दी क्रिया-करम कर दिया जाये।'
(2)
श्यामा की जली हुई लाश थाने पहुंची तो वहां पहले से ही दो नवविवाहिता लड़कियों की जली हुई लाशें रखी थीं। थाने में शांति थी। पीपल के पत्ते हवा में खड़खड़ा रहे थे और जीप का इंजन लंबी-लंबी सांसें ले रहा था। दरोगा जी को खबर की गयी तो वे पूजा इत्यादि करके बाहर निकले और श्यामा की जली लाश को देखकर बोले, 'यार ये लोग एक दिन मं एक ही लड़की को जलाकर मारा करें। एक दिन में तीन-तीन लड़कियों की जली लाशें आती हैं। कानूनी कार्यवाही भी ठीक से नहीं हो पाती।'
सिपाही बोला, 'सरकार इससे तो अच्छा लोग हमारे गांव में करते हैं। लड़कियों को पैदा होते ही पानी में डुबोकर मार डालते हैं।'
दरोगा बोले, 'ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे।'
(3)
श्यामा की लाश अदालत पहुंची। जब सबके बयान हो गये तो श्यामा की जली लाश उठकर खड़ी हो गयी और बोली, 'जज साहब मेरा भी बयान दर्ज किया जाये।'
श्यामा के पति का वकील बोला, 'मीलार्ड ये हो ही नहीं सकता, जली हुई लड़की बयान कैसे दे सकती है।'
पेशकार बोला, 'सरकार यह तो गैरकानूनी होगा।'
क्लर्क बोला, 'हजूर ऐसा होने लगा तो कानून व्यवस्था का क्या होगा।'
श्यामा ने कहा, 'मेरा बयान दर्ज किया जाये।'
अदालत ने कहा, 'अदालत तुम्हारा दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि तुम जलकर मर चुकी हो।'
श्यामा ने कहा, 'दूसरी लड़कियां तो ज़िंदा हैं।'
अदालत ने कहा, 'ये तुम लड़कियों की बात कहां से निकल बैठी।'
(4)
श्यामा की जली लाश जब अखबार के दफ़्तर पहुंची तो नाइट शिफ़्ट का एक सब-एडीटर मेज़ पर सिर रखे सो रहा था। श्यामा ने उसका कंधा पकड़कर जगाया तो वह आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। उसने श्यामा की तरफ देखा और उसे 'आपका अपना शहर` पन्ने के कोने में डाल दिया।
श्यामा ने कहा, 'अभी तीन साल पहले ही मेरी शादी हुई थी मेरे पिता ने पूरा दहेज दिया था लेकिन लालची ससुराल वालों ने मुझे दहेज के लालच में अपने लड़के की दूसरी शादी की लालच में मुझे जलाकर मार डाला।'
सब-एडीटर बोला, 'जानता हूं, जानता हूं. . .वही लिखा है. . .हम अखबार वाले सब जानते हैं।'
'तो तुम पहले पन्ने पर क्यों नही डालते,' श्यामा ने कहा।
सब-एडीटर बोला, 'मैं तो बहुत चाहता हूं। तुम ही देख लो पहले पन्ने पर जगह कहां है। लीड न्यूज लगी है। देश ने सौ अरब रुपये के हथियार खरीदे हैं। सेकेण्ड लीड है मंत्रिमण्डल ने चांद पर राकेट भेजने का निर्णय लिया है। आठ आतंकवादी मार गिराये गये हैं और सुपर डुपर हुपर स्टार को हॉलीवुड की फिल्म में काम मिल गया है। बाकी पेज पर 'फिटमफिट अण्डर वियर` है।'
'कहीं कोने में मुझे भी लगा दो', श्यामा बोली।
'लगा देता. . .पर नौकरी चली जायेगी।'
(5)
श्यामा की जली हुई लाश जब प्रधनमंत्री सचिवालय पहुंची तो हड़कंप मच गया। सचिव-वचिव उठ-उठकर भागने लगे। संतरी पहरेदार डर गये। उन्हें श्यामा की शकल अपनी लड़कियों से मिलती जुलती लगी। इतने में विशेष सुरक्षा दस्ते वाले, छापामार युद्ध में दक्ष कमाण्डो आ गये और श्यामा की तरफ बंदूकें, संगीनें तानकर खड़े हो गये।
पुलिस अधिकारी ने कहा, 'एक कदम भी आगे बढ़ाया तो गोलियों से छलनी कर दी जाओगी।'
'मैं प्रधनमंत्री से मिलना चाहती हूं।'
'प्रधनमंत्री क्या करेंगे. . .यह पुलिस केस है।'
'पुलिस क्या करेगी?'
'अदालत में मामला ले जायेगी।'
'अदालत क्या करेगी. . . वही जो मुझसे पहले जलाई गयी लड़कियों के हत्यारों के साथ किया है। मैं तो प्रधानमंत्री से मिलकर रहूंगी,' श्यामा की जली लाश आगे बढ़ी।
और अधकि हड़कम्प मच गया। उच्च स्तरीय सचिवों की बैठक बुला ली गयी और तय पाया कि श्यामा को प्रधनमंत्री के सामने पेश करने से पहले गृहमंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, समाज कल्याण मंत्री आदि का बुला लिया जाये। नहीं तो न जाने श्यामा प्रधनमंत्री से क्या पूछ ले कि जिसका उत्तर उनके पास न हो।
(6)
श्यामा की जली लाश जब बाज़ार से गुज़र रही थी तो लोग अफसोस कर रहे थे।
'यार बेचारी को जलाकर मार डाला।'
'क्या करें यार. . .ये तो रोज़ का खेल हो गया।'
'पर यार इस तरह. . .नब्बे परसेंट जली है।'
'अरे यार इसके पापा को चाहिए था कि मारुति दे ही देता।'
'कहां से लाता, उसके पास तो स्कूटर भी नहीं है।'
'तो फिर लड़की पैदा ही क्यों की?'
'इससे अच्छा था, एक मारुति पैदा कर देता।'
(7)
श्यामा की जली लाश जब अपने स्कूल पहुंची तो लड़कियों ने उसे घेर लिया। न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, खामोशी बोलती रही।
कुछ देर के बाद एक टीचर ने कहा, 'आठवीं में कितने अच्छे नंबर आये थे इसके।'
दूसरी टीचर ने कहा, 'दसवीं में इसके नंबर अच्छे थे।'
तीसरी ने कहा 'आगे पढ़ती तो अच्छा कैरियर बनता।'
श्यामा की लाश होठों पर उंगलियां रखकर बोलीं, 'शी{शी{शी. . .आदमी भी सुन रहे हैं।'
(8)
श्यामा की जली हुई लाश उन पंडितजी के घर पहुंची जिन्होंने उसके फेरे लगवाये थे। पंडित जी श्यामा को पहचान गये। श्यामा ने कहा, 'पंडित जी मुझे फिर से फेरे लगवा दो।'
पंडित जी बोले, 'बेटी, अब तुम जल चुकी हो, तुमसे अब कौन शादी करेगा।'
श्यामा बोली, 'पंडित जी शादी वाले नहीं, उल्टे फेरे लगवा दो।'
पंडित जी बोले, 'बेटी तुम चाहती क्या हो?'
श्यामा बोली, 'तलाक'
पंडित जी ने कहा, 'अरे तुम जल चुकी हो, तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा तलाक से।'
श्यामा बोली, 'हां आप ठीक कहते हैं, उल्टे फेरों से न मुझ पर अंतर पड़ेगा. . .न आप पर अंतर पड़ेगा. . .न मेरे पति पर फर्क पड़ेगा. . .पर जिनके सीधे फेरे लगने वाले हैं उन तो अंतर पड़ेगा।'
(9)
श्यामा की जली लाश भगवान के घर पहुंची तो भगवान सृष्टि को चलाने का कठिन काम बड़ी सरलता से कर रहे थे। श्यामा ने भगवान से पूछा, 'सृष्टि के निर्माता आप ही हैं?'
भगवान छाती ठोंककर बोले, 'हां मैं ही हूं।'
'संसार के सारे काम आपकी इच्छा से होते हैं।'
'हां, मेरी इच्छा से होते हैं।'
'मुझे आपकी इच्छा से ही जलाकर मार डाला गया था।'
'हां, तुम्हें मेरी ही इच्छा से जलाकर मार डाला गया था।'
'मेरे पति के लिए आपने ऐसी इच्छा क्यों नहीं की थी?'
'पति परमेश्वर होते हैं। वे जलते नहीं, केवल जलाते हैं।'
(10)
श्यामा की जली लाश मानव अधिकार समिति वाले के पास पहुंची तो वे सब उठकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, 'यह जघन्य अपराध है। हमने इस तरह के बीस हज़ार मामलों का पता लगा कर मुक़दमे दायर कराये हैं लेकिन आमतौर पर अपराधी बच निकलते हैं। लोगों में लोभ और लालच बहुत बढ़ गया है, धन के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। ये सब जानते हैं।'
श्यामा बोली, 'इसीलिए मैं खामोश हूं।'
सदस्यों ने कहा, 'बोलो श्यामा बोलो. . .बोलो. . .जब तक तुम नहीं बोलोगी हमारी आवाज़ कोई नहीं सुनेगा।'
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17 मैं हिंदू हूं
ऐसी चीख कि मुर्दे भी कब्र में उठकर खड़े हो जाएं। लगा कि आवाज़ बिल्कुल कानों के पास से आई है। उन हालात में. . .मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे. . .शायद रात का तीन बजा होगा। अब्बाजान भी उठ बैठे। चीख फिर सुनाई दी। सैफ अपनी खुर्री चारपाई पर लेटा चीख रहा था। आंगन में एक सिरे से सबकी चारपाइयां बिछी थीं।
'लाहौलविलाकुव्वत. . .' अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी
'खुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीखने लगता है।' अम्मा बोलीं।
'अम्मा इसे रात भर लड़के डराते हैं. . .' मैंने बताया।
'उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता. . .लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारतें सूझती हैं', अम्मा बोलीं।
सफिया ने चादर में मुंह निकालकर कहां, 'इसे कहो छत पर सोया करे।'
सैफ अब तक नहीं जगा था। मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा तो उसके चेहरे पर पसीना था। साँस तेज़-तेज़ चल रही थी और जिस्म कांप रहा था। बाल पसीने में तर हो गए और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थी। मैं सैफ को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में गुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं।
तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिंद़ा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं। उस ज़माने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपन स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, ज़मीन पर कब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेत लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार का कब्ज़ा जमाने का साधन बन गए हैं। सांप्रदायिक दंगे। संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियां बहा सकता हो।
सैफ को जगाया गया। वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ इस तरह देख रहा था जैसे मां को तलाश कर रहा हो। अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफुद्दीन उर्फ़ सैफ ने जब अपने घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया।
सैफ के अब्बा कौसर चचा के मरने का आया कोना कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है। गांव वालों ने ख़त में कौसर चचा के मरने की ख़बर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा सैफ अब इस दुनिया में अकेला रह गया है। सैफ के बड़े भाई उसे अपने साथ बंबई नहीं ले गए। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि सैफ के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है। कोना कटा पोस्ट कार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक ख़मोश बैठे रहे थे। अम्मां से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गांव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची ज़मीन बेच, सैफ को साथ लेकर लौटे थे। सैफ को देखकर हम सबको हंसी आई थी। किसी गंवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़ने वाली सफिया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी, पहले दिन ही यह लग गया कि सैफ सिर्फ गंवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ़ है। हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ़ बनाया करते थे। इसका एक फायदा सैफ को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्मां का उसने दिल जीत लिया। सैफ मेहनत का पुतला था। काम करने से कभी न थकता था। अम्मां को उसकी ये 'अदा` बहुत पसंद थी। अगर दो रोटियां ज्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता है। सालों पर साल गुज़रते गए और सैफ हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। हम सब उसके साथ सहज होते चले गए। अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता तो तो मैं उसका मुंह नोंच लेता था। हमारा भाई है तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अंदर सैफ की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे।
शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था यानी मस्जिद से किसी को एक पोटला मिला था जिसमे में किसी किस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूंकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सुअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर का हो ही नहीं सकता। इसकी प्रतिक्रिया में मुगल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भड़क गया था। कुछ दुकानें जली थीं और ज्यादातर लूटी गई थीं। चाकू-छुरी की वारदातों में क़रीब सात-आठ लोग मरे थे लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ़्यू लगा दिया गया था। आजकल वाली बात न थी हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ।
दंगा चूंकि आसपास के गांवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था। मुगलपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहां कर्फ्यू का असर भी था और 'जिहाद` जैसा माहौल भी बन गया था। मोहल्ले की गलियां तो थी ही पर कई दंगों के तजुर्बों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अंदर से भी रास्ते होने चाहिए। यानी इमरजेंसी पैकेज। तो घरों के अंदर से, छतों के उपर से, दीवारें को फलांगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था। मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी। सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो ज़रूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएं।
दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह के उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिंदुओं को ज़मीन चटा देंगे.. समझ क्या रखा है धोती बांधनेवालों ने. . .अजी बुज़दिल होते है।. . .एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है. . .'हंस के लिया है पाकिस्तान लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी। पी.ए.सी. की चौकी दोनों मुहानों पर थी। पीएसी के बूटों और उनकी राइफलों के बटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था लेकिन उसके आगे. . .
संकट एकता सिखा देता है। एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता। हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा। हमारे घर में मेरे अलावा, उस ज़माने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था, लड़का सैफ ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना पड़ता था। रात का पहरा छतों पर हुआ करता था। मुगलपुरा चूंकि शहर के सबसे उपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था। मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफ पहरे पर जाया करता था। यह मेरे, अब्बाजान, अम्मां और सफिया-सभी के लिए बहुत अच्छा था। अगर हमारे घर में सैफ न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते। सैफ के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था। उससे झाडू नहीं दिलवाई जाती थी। यह काम सफिया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसंद करती थी।
कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुंच जाता था, लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे। दो-चार लड़कों के पास देसी कट्टे और ज्यादातर के पास चाकू थे। उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करने वाले कारीगर थे। ज्यादातर ताले के कारखानों के काम करते थे। कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगीरी जैसे काम करते थे। चूंकि इधर बाजार बंद था इसलिए उनके धंधे भी ठप्प थे। उनमें से ज्यादातर के घरों में कर्ज से चूल्हा जल रहा था। लेकिन वो खुश थे। छतों पर बैठकर वे दंगों की ताज़ा ख़बरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिंदुओं को गालियां दिया करते थे। हिंदुओं से ज्यादा गालियां वे पीएसी को देते थे। पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें जबानी याद था और कम आवाज़ में रेडियो लाहौर सुना करते थे। इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्जत हाजियों की तरह होती थी। वो पाकिस्तान की रेलगाड़ी 'तेज़गाम` और 'गुलशने इक़बाल कॉलोनी` के ऐसे किस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है। पाकिस्तान की तारीफ़ों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफ से छेड़छाड़ किया करते थे। सैफ ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वज़ीफ़ा सुनने के बाद एक दिन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहां? इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था। वह कुछ समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सकता था कि पाकिस्तान कहां है।
गश्ती लौंडे सैफ को मज़ाक़ में संजीदगी से डराया करते थे, 'देखो सैफ अगर तुम्हें हिंदू पा जाएंगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे।' लड़के जानते थे कि सैफ अधपागल होने के बावजूद नंगे होने को बहुत बुरी और ख़राब चीज़ समझता है, 'उसके बाद हिंदू तुम्हारे तेल मलेंगे।'
'क्यों, तेल क्यों मलेंगे?'
'ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए। उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे. . .'
'नहीं,' उसे विश्वास नहीं हुआ।
रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक किस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज्यादा डर गया था। कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था। मैं झुंझलाता था और उसे चुप करा देता था लेकिन उसकी जिज्ञासाएं शांत नहीं हो पाती थीं। एक दिन पूछने लगा, 'बड़े भाई पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?'
'क्यों, वहां मिट्टी क्यों न होगी।'
'सड़क ही सड़क नहीं है...वहां टेरीलीन मिलता है...वहां सस्ती है... र
'देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं....तुम अल्ताफ़ वग़ैरा की बातों पर कान न दिया करो।' मैंने उसे समझाया।
'बड़े भाई क्या हिंदू आंखें निकाल लेते हैं. . .'
'बकवास है. . .ये तुमसे किसने कहा?
'बच्छन ने।'
'गल़त है।'
'तो ख़ाल भी नहीं खींचते?'
'ओफ़्फोह. . .ये तुमने क्या लगा रखी है. . .'
वह चुप हो गया लेकिन उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे। मैं बाहर चला गया। वह सफिया से इसी तरह की बातें करने लगा।
कर्फ्यू लंबा होता चला गया। रात की गश्त जारी रही। हमारी घर से सैफ ही जाता रहा। कुछ दिनों बाद एक दिन अचानक सोते में सैफ चीखने लगा था। हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से है। अब्बाजान को लड़कों पर बहुत गुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लोगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्यों कर हाथ धी लेते?
बात कहां से कहां तक पहुंच चुकी है इसका अंदाज़ा मुझे उस वक़्त तक न था जब तक एक दिन सैफ ने बड़ी गंभीरता से मुझसे पूछा, 'बड़े भाई, मैं हिंदू हो जाउं?'
सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है। मुझे गुस्सा आ गया फिर सोचा पागल पर गुस्सा करने से अच्छा है गुस्सा पी जाउं और उसे समझाने की कोशिश करूं।
मैंने कहा, 'क्यों तुम हिंदू क्यों होना चाहते हो?'
'इसका मतलब है मैं न बच पाउंगा,' मैंने कहा।
'तो आप भी हो जाइए. . .', वह बोला।
'और तुम्हारे ताया अब्बार, मैंने अपने वालिद और उसके चचा की बात की।
'नहीं. ..उन्हें. . .' वह कुछ सोचने लगा। अब्बाजान की सफेद और लंबी दाढ़ी में वह कहीं फंस गया होगा।
'देखा ये सब लड़कों की खुराफ़ात है जो तुम्हें बहकाते हैं। ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है। अरे महेश को नहीं जानते?'
'वो जो स्कूटर पर आते हैं. . .' वह खुश हो गया।
'हां-हां वही।'
'वो हिंदू है?'
'हां हिंदू है।' मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराशा की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह ख़ामोश हो गया।
'ये सब गुंडे बदमाशों के काम हैं. . .न हिंदू लड़ते हैं और न मुसलमान. . .गुंडे लड़ते हैं, समझे?'
दंगा शैतान की आंत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे- यार शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी दिया जाए तो कितने होंगे. . . ज्यादा से ज्यादा एक हज़ार, चलो दो हज़ार मान लो तो भाई दो हज़ार आदमी लाखों लोगों की जिंद़गी को जहन्नुम बनाए हुए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं। ये तो वही हुआ कि दस हज़ार अंग्रेज़ करोड़ों हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निज़ाम उनके तहत चलता रहता था और फिर इन दंगों से फ़ायदा किसका है, फ़ायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिलेंगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे, अब तो हम क्या हैं? तुम वोटर हो, हिंदू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर, यही सब होता रहेगा इस देश में? हां क्यों नहीं? जहां लोग ज़ाहिल हैं, जहां किराये के हत्यारे मिल जाते हैं, जहां पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहां और क्या हो सकता है? यार क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा तुम कौन होते हो पढ़ाने वाले, सरकार पढ़ाएगी, अगर चाहेगी तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हां. . .अंग्रेजों ने हमें यही सिखाया है. . .हम इसके आदी हैं. . .चलो छोड़ो, तो दंगे होते रहेंगे? हां, होते रहेंगे? मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदु हो जाएं? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो। अच्छा मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? सुभान अल्लाह . . .वाह वाह क्या बात कही है. . .तो क्या दंगे रुक जाएंगे? ये तो सोचने की बात है. . .पाकिस्तान में शिआ सुन्नी एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं. . .बिहारी में ब्राह्मण हरिजन की छाया से बचते हैं. . .तो क्या यार आदमी या कहो इंसान साला है ही ऐसा कि जो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएं. . .वाह क्या बात कह दी, मलतब. . .मतलब. . .मतलब. . .
मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था सफिया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भाई अकरम भागता हुआ आया और फलती हुई सांस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला, 'सैफ को पी.ए.सी. वाले मार रहे हैं।'
'क्या? क्या कह रहे हो?'
'सैफ को पीएसी वाले मार रहे हैं', वह ठहरकर बोला।
'क्यों मार रहे हैं? क्या बात है?'
'पता नहीं. . .नुक्कड़ पर. . .'
'वहीं जहां पीएसी की चौकी है?'
'हां वहीं।'
'लेकिन क्यों. . .' मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफ को आठ बजे के करीब अम्मां ने दूध लेने भेजा था। सैफ जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब दो दस बजे गए थे।
'चलो मैं चलता हूं' रेडियो से आती बेढंगी आवाज़ की फिक्र किए बग़ैर मैं तेजी से बाहर निकला। पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले, उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना खौफज़दा रहता है उसे मारने की क्या ज़रूरत है. . .फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा, अरे उसे तो अम्मां ने दो रुपए दिए थे। दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?
नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा था। सामने सैफ पीएसी वालों के सामने खड़ा था। उसके सामने पीएसी के जवान थे। सैफ जोर-जोर से चीख़ रहा था, 'मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .हिंदू हूं. . .'
मैं आगे बढ़ा। मुझे देखने के बाद भी सैफ रुका नहीं वह कहता रहा, 'हां, हां मैं हिंदू हूं. . .' वह डगमगा रहा था। उसके होंठों के कोने से ख़ून की एक बूंद निकलकर ठोढ़ी पर ठहर गई थी।
'तुमने मुझे मारा कैसे. . .मैं हिंदू. . .'
'सैफ. . .ये क्या हो रहा है. . .घर चलो'
'मैं. . .मैं हिंदू हूं।'
मुझे बड़ी हैरत हुई. . .अरे क्या ये वही सैफ है जो था. . .इसकी तो काया पलट कई है। ये इसे हो क्या गया।
'सैफ होश में आओ' मैंने उसे ज़ोर से डांटा।
मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अंदर ही अंदर दूर से हंस रहे थे। मुझे गुस्सा आया। साले ये नहीं समझते कि वह पागल है।
'ये आपका कौन है?' एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा।
'मेरा भाई है. . . थोड़ी मेंटल प्राब्लम है इसे'
'तो इसे घर ले जाओ,' एक सिपाही बोला।
'हमें पागल बना दिया,' दूसरे ने कहा।
'चलो. . .सैफ घर चलो। कर्फ्यू लग गया है. . .कर्फ्यू. . .'
'नहीं जाउंगा. . .मैं हिंदू हूं. ..हिंदू. . .मुझे. . .मुझे. . .'
वह फट-फटकर रोने लगा. . .'मारा. . .मुझे मारा. . .मुझे मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .मैं' सैफ धड़ाम से ज़मीन पर गिरा. . .शायद बेहोश हो गया था. . .अब उसे उठाकर ले जाना आसान था।
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18 शाह आलम कैम्प की रूहें
(1)
शाह आम कैम्प में दिन तो किसी न किसी तरह गुज़र जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती है। ऐसी नफ़्स़ा नफ़्स़ी का अलम होता है कि अल्ला बचाये। इतनी आवाज़े होती हैं कि कानपड़ी आवाज़ नहीं सुनाई देती, चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना, चिल्लाना, आहें सिसकियां. . .
रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रूहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं, उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चों को सीने से लगा लेती हैं। ज़िंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीख़ों निकली थी वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं।
सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं, उन्हें इंतिजार रहता है अपनी मां को देखने का. . .अब्बा के साथ खाना खाने का।
कैसे हो सिराज, 'अम्मां की रूह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।'
'तुम कैसी हों अम्मां?'
मां खुश नज़र आ रही थी बोली सिराज. . .अब. . . मैं रूह हूं . . .अब मुझे कोई जला नहीं सकता।'
'अम्मां. . .क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?'
(2)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रूहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगी। उन सबने मिलकर कैम्प छान मारा. . .मोहल्ले गयीं. . .घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अंदर घुस गयीं. . .कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।
आख़िर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गयी। वे कल के लिए पेट्रौल बम बना रहे थे। बंदूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।
बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, 'अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।'
मां ने कहा, 'नहीं, नहीं मैंने हर जगह देख लिया है. . .कहीं नहीं मिला।'
तब किसी दंगाई ने कहा, 'अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आये हैं।'
(3)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती है।, पानी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।
दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गये तो बहुत खुश हो गये और बोले, 'ये तो बहुत बढ़िया जगह है. . .यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।'
(4)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रात भर बच्चों के साथ रहती हैं, उन्हें निहारती हैं. . .उनके भविष्य के बारे में सोचती हैं। उनसे बातचीत करती हैं।
सिराज अब तुम घर चले जाओ, 'मां की रूह ने सिराज से कहा।'
'घर?' सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां न
टीप –
1-संपूर्ण संग्रह की फ़ाइल बड़ी है, अतः पृष्ठ लोड होने में समय लग सकता है, अतः कृपया धैर्य बनाए रखें.
2-इस संग्रह के फ़ॉन्ट का रूपांतरण मशीनी रूप से किया गया है, अतः वर्तनी की अशुद्धियाँ हो सकती हैं. कृपया अशुद्धियों की खबर रचनाकार को दें ताकि उन्हें ठीक किया जा सके.
अनुक्रम
१ केक
२ सरगम-कोला
३ दिल्ली पहुंचना है
४ राजा
५ योद्धा
६ बंदर
७ चन्द्रमा के देश में
८ हरिराम गुरू संवाद
९ स्विमिंग पूल
१० ज़ख्म़
११ मुश्किल काम
१२ होज वाज पापा
१३ तख्त़ी
१४ विकसित देशों की पहचान
१५ मुर्गाबियों के शिकारी
१६ लकड़ियां
१७ मैं हिंदू हूं
१८ शाह आलम कैम्प की रूहें
कहानी लिखने का कारण
कहानी हम क्यों लिखते हैं? कुछ बताने के लिए? कुछ कहने के लिए? कह कर संतोष पाने के लिए? दूसरों या समाज के सुख-दुख में हिस्सेदारी करने के लिए? मजबूरी में कि और कुछ नहीं कर सकते? आदत पड़ गयी है इसलिए? कुछ यादें कुछ बातें छोड़ने के लिए? समाज को बदलने के लिए? अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए? अपनी विद्वता दिखाने के लिए? भाषा और शिल्प के चमत्कार दिखाने के लिए?
मेरे ख्य़ाल में कहानी लिखने से पहले अगर कहानीकार के मन में सवाल उठता है कि मैं कहानी क्यों लिखने जा रहा हूं तो शायद वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पायेगा और आख़िरकार कहानी भी नहीं लिख पायेगा। इसलिए कहानीकार को भी बहुत बाद में ही पता चलता है कि वह कहानी क्यों लिख रहा है।
इसी से जुड़ी हुई एक दूसरी रोचक बात यह है कि कहानीकार को अगर यह लग जाये कि उसे आज तक लिखी गयी कहानियों से अच्छी या कम से कम वैसी ही कहानी लिखनी चाहिए तो व शायद कहानी नहीं लिख पायेगा। अब चेख़व से अच्छी कहानी तो लिख नहीं पायेगा। इसलिए सोचेगा कि अगर चेख़व से अच्छी कहानी मैं नहीं लिख सकता तो क्यों लिखूं? मतलब यह कि सौ साल पहले जो कहानी लिखी गयी थी उससे मेरी कहानी अच्छी ही होना चाहिए, अगर नहीं तो क्या फ़ायदा?
जहां तक मेरा सवाल है मैंने आज से कोई तीस साल पहले एक कहानी लिख मारी थी जिसका नाम था 'वह बिक गयी` उस ज़माने में मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. कर रहा था। यह कहानी उर्दू लिपि में लिखी थी। वहां के विश्वविद्यालयी अख्ब़ार 'शहरे तमन्ना` में छपी थी जिसके सम्पादक जैद़ी साहब थे जिनके युवा चेहरे पर बड़ी काली और घनेरी दाढ़ी हुआ करती थी। कहानी लिखकर दोस्तों को सुनाई थी और सबकी यह राय बनी थी कि जैद़ी साहब का दे दो। जैद़ी साहब ने छाप दी थी और हॉस्टल के लड़कों में मैं थोड़ा जाना जाने लगा था। पता नहीं क्यों यह कहानी लिखने के बाद दिमाग में बैठ गया था कि अगली कहानी नहीं लिख सकता क्योंकि कहानी को किस शब्द से शुरू किया जाये या बहुत मुश्किल लगता था, 'वह बिक गयी` कहानी केवल संवादों पर आधारित नहीं हो सकती। इसलिए अगली कहानी का पहला शब्द कया होना चाहिए? शायद इस मुश्किल में ती-चार महीने फंसा रहा। फिर कोई कथानक मिल गया और पहले शब्द की समस्या दूर हो गयी। इस कहानी का नाम याद नहीं।
कहानियां लिखने के साथ-साथ कहानियां पढ़ने और चीज़ों को जानने समझने और लड़कियों से एकपक्षीय प्रेम करने के सिलसिले चल पड़े। चीज़ों को कार्यकलापों को, आदमियों को, समाज को, सरोकारों को, पड़ताल ने कहानी को बदलना शुरू कर दिया। और एक कहानी शायद नाम था 'उनके हिस्से का आकाश` यह सन् १९६८ के आसपास 'धर्मयुग` में छप गयी थी जो उस ज़माने में कहानीकारों के लिए मील का पत्थर माना जाता था। यह कहानी भावुक, संबंधों के तनाव पर केन्द्रित थी लेकिन कोई तिकोना प्रेम वगैरा नहीं था। बहरहाल जल्दी ही भावुकता के इस दौर से निकला क्योंकि कुछ मार्क्सवादी विचारों वगैरा की सुगंध मिलने लगी थी। समाजवादी राजनीति और उस पर बेलाग आलोचना- ये दोनों ही बातें एक साथ सामने आती चली गयीं। सोचा आंखें खुली रहे अंध भक्ति जब धार्मिक विश्वासों की नहीं की तो किसी भी 'वाद` की क्यों जी जाये? हालात उलटते-पलटते रहे। चीजें बनती बिगड़ती और बिगड़ कर बनती रहीं और कहानी भी उसी के साथ-साथ हिचकोले खाती रही।
आज तीस साल सोचता हूं कि कहानी क्यों लिखता हूं तो ईमानदारी से कई बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि अपने परिवेश की विसंगतियों पर गुस्सा बहुत आता है जिसे दबाया नहीं जा सकता। दूसरे यह इच्छा बनी रहती है कि 'शहर को यहां से देखो` तीसरा यह कि और ऐसा क्या कर सकता हूं जो कहानी का 'बदला हो? शायद कुछ नहीं? चौथा यह कि गवाही रहे कि मैंने या मेरी पीढ़ी ने क्या देखा और भोगा। पांचवां यह कि पढ़कर शायद किसी की संवेदना को हल्की सी चोट पहुंचे और छटवां यह कि दिल की भड़ास निकल जाये और रात कुछ चैन की नींद आये, सातवां यह कि यार लेखक हैं तो लिखें। न लिखने की कोई वजह भी तो नहीं है। हमारा माध्यम कितना प्यारा है कि क़लम है और कागज़ है और मानव सभ्यता की प्राचीनतम अभिव्यक्ति विध यानी शब्द है। कोई बीच में नहीं है, कोई मजबूरी नहीं है। बाहरी दबाव नहीं है। कहीं-न-कहीं छप तो जाता ही है। लोगों को रचना पसंद आती है, तारीफ करते हैं तो अच्छा लगता है।
प्रस्तुत चयन में कोई प्रांरभिक कहानी नहीं है। पर १९७१ से लेकर आज तक की कहानियां हैं पढ़ने वालों को सहज ही पता लग सकता है कि मैंने क्या खोया है, क्या पाया है? वैसे आलोचक क्या कहते हैं इस पर तो मुझे बहुत विश्वास है नहीं।
असग़र वज़ाहत
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1 केक
उन्होंने मेज़ पर एक ज़ोरदार घूंसा मारा और मेज़ बहुत देर तक हिलती रही। 'मैं कहता हूं जब तक ऐट ए टाइम पांच सौ लोगों को गोली से नहीं उड़ा दिया जायेगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।' अपनी खासी स्पीकिंगपावर नष्ट करके वह हांफने लगे। फिर उन्होंने अपना ऊपरी होंठ निचले होंठ से दबाकर मुझे घूरना शुरू किया। वह अवश्य समझ गये थे कि मैं मुस्करा रहा हूं। फिर उन्होंने घूरना बंद कर दिया और अपनी प्लेट पर पिल पड़े।
रोज़ ही रात को राजनीति पर बात होती है। दिन के दो बजे से रात आठ बजे तक प्रूफ़रीडिंग का घटिया काम करते-करते वह काफ़ी खिसिया उठते हैं।
मैंने कहा, 'उन पांच सौ लोगों में आप अपने को भी जोड़ रहे हैं?'
'अपने को क्यों जोडूं? क्या मैं क्रुक पॉलिटीशियन हूं या स्मगलर हूं या करोड़ों की चोरबाज़ारी करता हूं?' वह फिर मुझे घूरने लगे तो मैं हंस दिया। वह अपनी प्लेट की ओर देखने लगे।
'आप लोग तो किसी भी चीज़ को सीरियसली नहीं लेते हैं।'
खाने के बाद उन्होंने जूठी प्लेटें उठायीं और किचन में चले गये। कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे मिसेज़ डिसूजा ने कहा, 'डेविड, मेरे लिये पानी लेते आना।'
डेविड जग भरकर पानी ले आये। मिसेज़ डिसूजा को एक गिलास देने के बोले, 'पी लीजिए मिस्टर, पी लीजिए।'
मेरे इनकार करने पर जले-कटे तरीके से चमके, 'थैंक्स टू गॉड! यहां दिन-भर पानी तो मिल जाता है। अगर इंद्रपुरी में रहते तो पता चल जाता। ख़ैर, आप नहीं पीते तो मैं ही पिये लेता हूं,' कहकर वह तीन गिलास पानी पी गये।
खाने के बाद इसी मेज पर डेविड साहब काम शुरू कर देते हैं। आज भी वह प्रूफ़ का पुलिंदा खोलकर बैठ गये। उन्होंने मेज़ साफ की। मेज़ के पाये की जगह इसी ईंटों को हाथ से ठीक किया, ताकि मेज़ हिल न सके। फिर टूटी कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक अकड़ गये और नाक का चश्मा इस तरह फिट किया जैसे बंदूक में गोलियां भर ली हों। होंठ खास तरह से दबा लिये। प्रूफ़ पांडुलिपि से मिलाने लगे। गोलियां चलने लगीं। इसी तरह डेविड साहब रात बारह बजे तक प्रूफ़ देखते रहते हैं। इसी बीच से कम-से-कम पचास बार चश्मा उतारते और लगाते हैं। बंदूक में कुछ खराबी हैं। पांच साल पहले आंखें टैस्ट करवायी थीं और चश्मा खरीदा था। अब आंखें ज्यादा कमज़ोर हो चुकी हैं, परंतु चश्मे का नंबर नहीं बढ़ पाया है। हर महीने की पंद्रह तारीख को वह अगले महीने आंखें टैस्ट करवाकर नया चश्मा खरीदने की बात करते हैं। बंदूक की कीमत बहुत बढ़ चुकी है। प्रूफ़ देखने के बीच पानी पीयेंगे तो वह 'बासु की जय` का नारा लगायेंगे। 'बासु` उनका बॉस है जिससे उन्हें कई दर्जन शिकायतें मुझे भी हैं। ऐसी शिकायतें पेश्तर छोटा काम करने वालों को होती हैं।
'बड़ा जान लेवा काम है साहब।' वे दो-एक बार सिर उठाकर मुझसे कहते हैं। मैं 'हूं-हां` में जबाव देकर बात आगे बढ़ने नहीं देता। लेकिन वह चुप नहीं होते। चश्मा उतार कर आंखों की रगड़ाई करते हैं, 'बड़ी हाईलेविल बंगलिंग होती है। अब तो छोटे-मोटे करप्शन केस पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं कुत्ते. . .। मैं भी आजादी से पहले गांधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन-वाइलेंस इज द बेस्ट पॉलिसी। लटका दो पांच सौ आदमियों को सूली पर। अरे, इन सालों का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए, पब्लिक ट्रायल!'
'पब्लिक ट्रायल कौन करेगा, डेविड साहब,' मैं झल्ला जाता हूं। इतनी देर से लगातार बकवास कर रहे हैं।
वे दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर बैठ जाते हैं।
'मासेज में अगर लेफ़्ट फोर्सेज. . .', वे धीरे-धीरे बहुत देर तक बड़बड़ाते रहते हैं।
मैं जासूसी उपन्यास के नायक को एक बार फिर गोलियों की बौछार से बचा देता हूं।
वह कहते हैं, 'आप, भी क्या दो-ढाई सौ रुपये के लिए घटिया नॉवल खिला करते हैं!' मैं मुस्कराकर उनके प्रूफ़ के पुलिंदे की तरफ़ देखता हूं और वह चुप हो जाते हैं। गंभीर हो जाते हैं।
'मैं सोचता हूं ब्रदर, क्या हम-तुम इसी तरह प्रूफ़ पढ़ते और जासूसी नॉवल लिखते रहेंगे? सोचो तो यार! दुनिया कितनी बड़ी है। यह हमें मालूम है कि कितनी अच्छी तरह से जिंद़गी गुजारी जा सकती है। कितना आराम और सुख है, कितनी ब्यूटी है. . .।'
'परेशानी तो मेरे लिए है, डेविड साहब। आप तो बहुत से काम कर सकते हैं। मुर्गी-खाना खोल सकते हैं। बेकरी लगा सकते हैं. . .।'
वह आंखें बंद करके अविश्वास-मिश्रित हंसी हंसने लगते हैं। और कमरे की हर ठोस चीज़ से टकराकर उनकी हंसी उनके मुंह में वापस चली जाती है।
अक्सर खाने के बाद वे ऐसी ही बात छेड़ देते हैं। काम में मन नहीं लगता और वक्त बोझ लगने लगता है। जी में आता है कि लोहे की बड़ी-सी रॉड लेकर किसी फैशनेबुल कॉलोनी में निकल जाऊँ। डेविड साब तो साथ चलने पर तैयार हो जायेंगे। वह फिर बोलने लगते हैं और उनके प्रिय शब्द 'बिच`, 'क्रूक`, 'नॉनसेंस`, 'बंगलिंग`, 'पब्लिक ट्रायल`, 'एक्सप्लॉइटेशन`, 'क्लास स्ट्रगल` आदि बार-बार सुनायी पड़ते हैं। बीच-बीच में वह हिंदुस्तानी गालियां फर्राटे से बोलते हैं।
'अब क्या हो सकता है! पच्चीस साल तक प्रूफ़रीडरी के बाद अब और क्या कर सकता हूं। सन् १९४८ में दिल्ली आया था। अरे साब, डिफेंस कॉलोनी की ज़मीन तीन रुपये गज मेरे सामने बिकी है, जिसका दाम आज चार सौ रुपये है। निजामुद्दीन से ओखला तक जंगल था जंगल। कोई शरीफ़ आदमी रहने को तैयार ही नहीं होता था। अगर उस वक्त उतना पैसा नहीं था और आज. . .। सीनियर कैम्ब्रिज में तेरे साथ पॉटी पढ़ता था। अब अगर आप आज उसे देख लें तो मान ही नहीं सकते कि मैं उसका क्लासफेलो और दोस्त था। गोरा-चिट्टा रंग, ए-क्लास सेहत, एक जीप, एंबेसेडर और एक ट्रैक्टर है उसके पास। मिर्जापुर के पास फार्मिंग करवाता है। उस जमाने में दस रुपये बीघा ज़मीन खरीदी थी उसने। मुझसे बहुत कहा था कि तुम भी ले लो डेविड भाई, चार-पांच सौ बीघा। बिलकुल उसी के फार्म के सामने पांच सौ बीघे का प्लाट था। ए-क्लास फर्टाइल ज़मीन। लेकिन उस ज़माने में मैं कुछ और था।' वह खिसियानी हंसी हंसे, 'आज उसकी आमदनी तीन लाख रुपये साल है। अपनी डेयरी, अपना मुर्गीखाना-ठाठ हैं, सब ठाठ।' डेविड साहब खुश हो गये जैसे वह सब उन्हीं का हो। प्रूफ़ के पुलिंदे को उठाकर एक कोने में रखते हुए बोले, 'मेरी तो किस्मत में इन शानदार कमरे में मिसेज़ डिसूजा का किरायेदार होना लिखा था।'
मिसेज़ डिसूजा को पचास रुपये दो, कमरा मिल जायेगा। पच्चीस रुपये और दो तो सुबह नाश्ता मिल जायेगा और तीस रुपये दो रात का खाना, जिसे मिसेज़ डिसूजा अंग्रेज़ी खाना कहती हैं, मिल जायेगा। मिसेज़ डिसूजा के कमरे से लगी तस्वीरों को, जो प्राय: उनकी जवानी के दिनों की हैं, किरायेदार हटा नहीं सकता। किसी तस्वीर में वह मोमबत्ती के सामने बैठी किताब पढ़ रही हैं, तो किसी में अपन बाल गोद में रखे शून्य में देखने का प्रयत्न कर रही हैं। कुछ लोगों का परिचय अंग्रेज़ अफ़सर के रूप में करवाती हैं, पर देखने में वे सब हिन्दुस्तानी लगते हैं। एक चित्र मिसेज़ डिसूजा की लड़की का भी है, जो डेविड साहब की मेज़ पर रखा रहता है। लड़की वास्तव में कंटाप है। छिनालपना उसके चेहरे से ऐसा टपकता है कि अगर सामने कोई बर्तन रख दे तो दिन में दसियों बार खाली करना पड़े। उसे सिर्फ देखकर अच्छे-अच्छे दोनों हाथों से दबा लेते होंगे। कुछ पड़ोस वालों का यह भी कहना है कि इसी तस्वीर को देख-देखकर डेविड साहब ने शादी करने और बच्चा पैदा करने की क्षमता से हाथ धो लिये हैं। मिसेज़ डिसूजा देसी ईसाइयों की कई लड़कियां उनके लिए खोज चुकी हैं। परंतु सब बेकार। वह तो ढाई सौ वोल्टेज ही के करंट से जल-भुनकर राख हो चुके थे और एक दिन तंग आकर मिसेज़ डिसूजा ने मोहल्ले में उनको नामर्द घोषित कर दिया और उनके सामने कपड़े बदलने लगीं।
सुबह का दूसरा नाम होता है। जल्दी-जल्दी बिना दूध की चाय के कुछ कप। रात के धेये कपड़ों पर उलटा-सीधा प्रेस। जूते पर पॉलिश। और दिन-भर फ्रूफ़ करेक्ट करते रहने के लिए आंखों की मसाज। फ्रूफ़ के पुलिंदे। करेक्ट किये हुए और प्रेस से आये हुए। फिर करेक्ट किये हुए फिर आये हुए। धम्! साला ज़ोर से गाली दे मारता है, 'देख लो बाबू, जल्दी दे दो। बड़ा साहब कॉलम देखना मांगता है।' पूरी जिंद़गी घटिया किस्म के कागज पर छपा प्रूफ़ हो गयी है, जिसे हम लगातार करेक्ट कर रहे हैं।
घर से बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी बस स्टॉप की तरफ़ दौड़ना, जैसे किसी को पकड़ना हो, हम दोनों एक ही नंबर की बस पकड़ते हैं। रास्तें में डेविड साहब मुझसे रोज़ एक-सी बातें करते हैं, 'हरी सब्जियों से क्या फायदा है, किस सब्जी में कितना स्टार्च होता है। अंडे और मुर्गे खाते रहो तो अस्सी साल की उम्र में भी लड़का पैदा कर सकते हो।` बकरी और भैंस के गोश्त का सूक्ष्म अंतर उन्हें अच्छी तरह मालूम है। अंग्रेजी खाने के बारे में उनकी जानकारी अथाह है। केक में कितना मैदा होना चाहिए। कितने अंडे डाले जायें। मेवा और जेली को कैसे मिलाया जाये। दूध कितना फेंटा जाये। केक की सिकाई के बारे में उनकी अलग धरणाएं हैं। क्रीम लगाने और केक को सजाने के उनके पास सैकड़ों फार्मूले हैं जिन्हें अब हिंदुस्तान में कोई नहीं जानता। कभी-कभी कहते, 'ये साले धोती बांधने वाले, खाना खाना क्या जानें! ढेर सारी सब्जी ले ली, तेल में डाली और खा गये बस, खाना पकाना और खाना मुसलमान जानते हैं या अंग्रेज। अंग्रेज़ तो चले गये, साले मुसलमानों के पास अब भैंसे का गोश्त खा-खाकर अकल मोटी करने के सिवा कोई चारा नहीं है। भैंसे का गोश्त खाओ, भैंसे की तरह अकल मोटी हो जायेगी और फिर भैंसे की तरह ही कोल्हू में पिले रहो। रात घर आकर बीवी पर भैंसे की तरह पिल पड़ो।`
आज फिर घूम-फिर कर वह अपने विषय पर आ गये।
'नाश्ता तो हैवी होना ही चाहिए।'
मैंने हामी भरी। इस बात से कोई उल्लू का पट्ठा ही इनकार कर सकता है।
'हैवी और एनरजेटिक?' चलते-चलते वह अचानक रुक गये। एक नये बनते हुए मकान को देखकर बोले, 'किसी ब्लैक मार्किटियर का मालूम होता है। फिर उन्होंने अकड़कर जेब से चश्मा निकाला, आंखों पर फिट करके मकान की ओर देखा। फ़ायर हुआ ज़ोरदार धमाके के साथ, और सारा मकान अड़-अड़ धड़ाम करके गिर गया।'
'बस, एक गिलास दूध, चार-टोस्ट और मक्खन, पौरिज और दो अंडे।' उन्होंने एक लंबी सांस खींची, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गयी हो।
'नहीं, मैं आपसे एग्री नहीं करता, फ्रूट जूस बहुत ज़रूरी है। बिना. . .।'
'फ्रूट जूस?' वह बोले? 'नहीं अगर दूध हो तो उसकी ज़रूरत नहीं है।'
'पराठे और अंडे का नाश्ता कैसा रहेगा?'
'वैरी गुड, लेकिन परांठे हलके और नर्म हों।'
'और अगर नाश्ते में केक हो?' वह सपाट और फीकी हंसी हंसे।
कई साल हुए। मेरे दिल्ली आने के आसपास। डेविड साहब ने अपनी बर्थ डे पर केक बनवाया था। पहले पूरा बजट तैयार कर लिया गया था। सब खर्च जोड़कर कुल सत्तर रुपये होते थे। पहली तारीख को डेविड साहब मैदा, शक्कर और मेवा लेने खारीबावली गये थे। सारा सामान घर में फिर से तौला गया था। फिर अच्छे बेकर का पता लगाया गया था। डेविड साहब के कई दोस्तों ने दरियागंज के एक बेकर की तारीफ़ की तो वह उससे एक दिन बात करने गये बिलकुल उसी तरह जैसे दो देशों के प्रधनमंत्री गंभीर समस्याओं पर बातचीत करते हैं। डेविड साहब ने उसके सामने एक ऐसा प्रश्न रख दिया किया वह लाजवाब हो गया, 'अगर तुमने सारा सामान केक में न डाला और कुछ बचा लिया तो मुझे कैसे पता चलेगा?` इस समस्या का समाधान भी उन्होंने खुद खोज लिया। कोई ऐसा आदमी मिले जो बेकर के पास उस समय तक बैठा रहे, जब तक कि केक बनकर तैयार न हो जाये। डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा ने इस काम के लिए अपने-आपको कई बार 'ऑफ़र` किया। मगर वास्तव में डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा पर भी एतबार नहीं था। हो सकता है बेकर और मिसेज़ डिसूजा मिलकर डेविड साहब को चोट दे दें। जब पूरी दिल्ली में 'मोतबिर` आदमी नहीं मिला तो डेविड साहब ने एक दिन की छुट्टी ली। मैंने इस काम में कोई रुचि नहीं दिखायी थी, इसलिए उन दिनों मुझसे नाराज़ थे और पीठ पीछे उन्होंने मिसेज़ डिसूजा से कई बार कहा कि जानता ही नहीं 'केक` क्या होता है। मैं जानता था कि 'केक` बन जाने के बाद किसी भी रात को खाने के बाद मुर्गी खाना खोलने वाली बात करके डेविड साहब को खुश किया जा सकता है या उनके दोस्त के बारे में बात करके उन्हें उत्साहित किया जा सकता है, जिसका मिर्जापुर के पास बड़ा फार्म है और वह वहां कैसे रहता है।
केक बर्थ डे से एक दिन पहले आ गया था। अब उसे रखने की समस्या थी। मिसेज़ डिसूजा के घर में चूहे ज़रूरत से ज्यादा हैं। इस आड़े वक्त में मैंने उनकी मदद की। अपने टीन के बक्स में से कपड़े निकालकर तौलिये में लपेटकर मेज़ पर रख दिये और बक्स में केक रख दिया गया। मेरा बक्स पूरे एक महीने घिरा रहा।
हम सबको उस केक के बारे में बातचीत कर लेना बहुत अच्छा लगता है। डेविड साहब तो उसे अपना सबसे बड़ा 'एचीवमेंट` मानते हैं। और मैं अपने बक्स को खाली कर देना कोई छोटा कारनामा नहीं समझता। उसके बाद से लेकर अब तक केक बनवाने के कई प्रोग्राम बन चुके हैं। अब डेविड साहब की शर्त यह होती है कि सब 'शेयर` करें। ज्यादा मूड में आते हैं तो आध खर्च उठाने पर तैयार हो जाते हैं।
उन्हीं के अनुसार, बचपन से उन्हें दो चीज़ें पंसद रही हैं जॉली और केक। जॉली की शादी किसी कैप्टन से हो गयी, तो वह धीरे-धीरे उसे भूलते गये। पर केक अब भी पसंद है। केक के साथ कौन शादी कर सकता है? लेकिन खारी-बावली के कई चक्कर लगाने पर उन्होंने महसूस किया कि केक की भी शादी हो सकती है। फिर भी पसंद करना बंद न कर सके।
दफ़्त़र से लौटकर आया तो सारा बदन इस तरह दर्द कर रहा था, जैसे बुरी तरह से मारा गया हो। बाहरी दरवाज़ा खोलने के लए मिसेज़ डिसूजा आयीं। वह शायद किचन में अपने खटोले पर सो रही थीं। अंदर आंगन में उनके गुप्त वस्त्र सूख रहे थे। 'गुप्त वस्त्र` शब्द सोचकर हंसी आयी। कोई अंग गुप्त ही कहां रह गया है! डी.टी.सी. की बसों में चढ़ते-उतरते गुप्त अंगों के भूगोल का अच्छा-खासा ज्ञान हो गया है। उनकी गरमाहट, चिकनाई, खुदरेपन, गंदेपन और लुभावनेपन के बारे में अच्छी जानकारी है। 'आज जल्दी चले आये।` मिसेज़ डिसूजा 'गुप्त वस्त्र` उतारने लगीं, 'चाय पीयोगे?` मैंने अभी तक नहीं पी है।`
'हां, जरूर।' सोचा अगर साली ने पी ली होती तो कभी न पूछती।
कमरे के अंदर चला आया। पत्थर की छत के नीचे खाने की मेज़ है। जिसके एक पाये की जगह ईंटें लगी हैं। दूसरे पायों को टीन की पट्टियों से जकड़ कर कीलें ठोंक दी गयी हैं। रस्सी, टीन, लोहा, तार और ईंटों के सहारे खड़ी मेज़ पहली नज़र में आदिकालीन मशीन-सी लगती है। मेज़ के उपर मिसेज़ डिसूजा की सिलाई मशीन रखी है। खाना खाते समय मशीन को उठाकर मेज़ के नीचे रख दिया जाता है। खाने के बाद मशीन फिर मेज़ पर आ जाती है। रात में डेविड साहब इसी मेज पर बैठकर प्रूफ़ देखते हैं। कई गिलास पानी पीते हैं और एक बजते-बजते उठते हैं तो कमरा अकेला हो जाता है। मैं कमरे में रखी सिलाई मशीन या मेज़ की तरह कमरे का एक हिस्सा बन जाता हूं।
'ये लो टी, ग्रीनलेबुल है!' मिसेज़ डिसूजा ने चाय की प्याली थमा दी। वह खानों के नाम अंग्रेज़ी में लेती है। रोटी को ब्रेड कहती है, दाल को पता नहीं क्यों उन्होंने सूप कहना शुरू कर दिया है। तरकारी को 'बॉयल्ड वेजिटेबुल्स` कहती हैं। करेलों को 'हॉटडिश` कहती हैं। मिसेज़ डिसूजा थोड़ी बहुत गोराशाही अंग्रेज़ी भी बोल लेती हैं, जिससे मोहल्ले के लोग काफ़ी प्रभावित होते हैं। मैंने टी ताजमहल ले ली। मिसेज़ डिसूजा आज के जमाने की तुलना पहले जमाने से करने लगीं। उन्हें चालीस साल तक पुराने दाम याद हैं। इसके बाद अपने मकान की चर्चा उनका प्रिय विषय है, जिसका सीधा मतलब हम लोगों पर रोब डालना होता है। वैसे रोब, डालते वक्त यह भूल जाया करती हैं कि दोनों कमरे किराये पर उठा देने के बाद वह स्वयं किचन में सोती हैं। मैं उनकी बकवास से तंग आकर बाथरूम में चला गया। अगर डेविड साहब होते तो मजा आता। मिसेज़ डिसूजा मुंह खोलकर और आंखें फाड़कर मुर्गी-पालन की बारीकियों को समझने का प्रयत्न करतीं। ' याद नहीं, सिर्फ दो हज़ार रुपये से काम शुरू करे कोई। चार सौ मुर्गियों से शानदार काम चालू हो सकता है। चार सौ अंडे रोज़ का मतलब है कम-से-कम सौ रुपये रोज़। एक महीने में तीन हज़ार रुपये और एक साल में छत्तीस हज़ार रुपये। मैं तो आंटी, लाइफ में कभी-न-कभी ज़रूर करूंगा कारोबार। फायदा. . .? मैं कहता हूं चार साल में लखपति। फिर अंडे, मुर्गीखाने का आराम अलग। रोज़ एक मुर्गी काटिये साले को। बीस अंड़ों की पुडिंग बनाइए। तब यह मकान आप छोड़ दीजिएगा, आंटी। यह भी कोई आदमियों के रहने लायक मकान है। फिर तो महारानी बाग या बसंत विहार में कोठी बनवाइएगा। एक गाड़ी ले लीजिएगा।`
तब थोड़ी देर के लिए वे दोनों 'बसंत विहार` पहुंच जाया करते। बड़ी-सी कोठी के फाटक की दाहिनी तरफ़ पीतल की चमचमाती हुई प्लेट पर एरिक डेविड और मिसेज़ जे. डिसूजा के अक्षर इस तरह चमकते जैसे छोटा-मोटा सूरज।
मैं लौटकर आया तो डेविड साहब आ चुके थे। कपड़े बदलकर आंगन में बैठे वह बासु को थोक में गालियां दे रहे थे, 'यह साला बासु इस लायक है कि इसका 'पब्लिक ट्रायल` किया जाये।' उनकी आंखों में नफ़रत और उकताहट थी। चश्मा थोड़ा नीचे खिसक गया था। उन्होंने अपनी गर्दन अकड़ाकर चश्मा चेहरे पर फिट किया। मैंने तिलक ब्रिज के सामने एक पेड़ की बड़ी-सी डाल पर रस्से के सहारे बासु की लाश को झूलते हुए देखा। लहरें मारती भीड़-अथाह भीड़। और कुछ ही क्षण बाद डेविड साहब को एक नन्हें से मुर्गीखाने में बंद पाया। चारों ओर जालियां लगी हुई हैं। और उसके अंदर दो सौ मुर्गियों के साथ डेविड साहब दाना चुग रहे हैं। गर्दन डालकर पानी पी रहे हैं और अंडे दे रहे हैं। अंडों के एक ढेर पर बैठे हैं। मुर्गीखाने की जालियों से बाहर 'बसंत विहार` साफ दिखाई पड़ रहा है।
मैंने कहा, 'आप क्यों परेशान हैं डेविड साहब? छोड़िए साली नौकरी को। एक मुर्गीखाना खोल लीजिए। फिर बसंत विहार में मकान।'
'नहीं-नहीं, मैं बसंत विहार में मकान नहीं बनवा कसता। वहां तो बासु का मकान बन रहा है। भाई साहब, यह तो दावा है कि इस देश में बगैर चार सौ बीसी किये कोई आदमी की तरह नहीं रह सकता। आदमियों की तरह रहने के लिए आपको ब्लैक मार्केर्टिंग करनी पड़ेगी लोगों को एक्सप्लायट करना पड़ेगा. . .अब आप सोचिए, मैं किसी साले से कम काम करता हूं। रोज़ आठ घंटे ड्यूटी और दो घंटे बस के इंतजार में. . .।'
'तुम बहुत गाली बकते हो,' मिसेज़ डिसूजा बोलीं।
'फिर क्या करूं आंटी? गाली न बकूं तो क्या ईशू से प्रार्थना करूं, जिसने कम-से-कम मेरे साथ बड़ा 'जोक` किया है?'
'छोड़िए यार डेविड साहब। कुछ और बात कीजिए। कहीं प्रूफ़ का काम ज्यादा तो नहीं मिला।'
'ठीक है, छोड़िए। दिल्ली में अभी तीन साल हुए हैं न! कुछ जवानी भी है। अभी शायद आपने दिल्ली की चमक-दमक भी नहीं देखी? क्या हमारा कुछ भी हिस्सा नहीं है उसमें? कनाट प्लेस में बहते हुए पैसे को देखा है कभी?' वह हाथ चला-चलाकर पैसे के बहास के बारे में बताने लगे, 'लाखों-करोड़ों रुपये लोग उड़ा रहे हैं। औरतों के जिस्मों पर से बहता पैसा। कारों की शक्ल में तैरता हुआ।' वह उत्तेजित हो गये, और उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, गर्दन अकड़ायी और चश्मा आंखों पर फिट कर लिया।
मुझे उकताहट होने लगी। तबीयत घबराने लगी, जैसे उमस एकदम बैठ गयी हो। सांस लेने में तकलीफ होने लगी। लोहे का सलाखोंदार कमरा मुर्गीखाना लगने लगा जिसमें सख्त बदबूभर गयी हो। मिसेज़ डिसूजा कई बार भविष्यवाणी कर चुकी हैं कि डेविड साहब एक दिन हम लोगों को एरेस्ट करवायेंगे और डेविड साहब कहते हैं कि मैं उस दिन का 'वेलकम` करूंगा।
गुस्से में लगातार होंठ दबाये रहने के कारण उनका निचला होंठ काफी मोटा हो गया है। चेहरे पर तीन लकीरें पड़ जाती हैं। बचपन में सुना करते थे कि माथे पर तीन लकीरें पड़ने वाला राजा होता है।
कुछ ही देर में वह काफ़ी शांत हो चुके थे। खाने की मेज़ पर उन्होंने 'बासु की जय` पर नारा लगाया और दो गिलास पानी पी गये। मिसेज़ डिसूजा की 'हॉटडिश`, 'सूप` और 'ब्रेड` तैयार थी।
'करेले की सब्जी पकाना भी आर्ट है, साब!' डेविड साहब ने जोर-जोर से मुंह चलाया।
'तीन डिश के बराबर एक डिश है।' मिसेज़ डिसूजा ने एहसान लादा।
डेविड उनकी बात अनसुनी करते हुए बोले, 'करेले खाने का मज़ा तो सीतापुर में आता था आंटी। कोठी के पीछे किचन गार्डन में डैडी तरह-तरह की सब्जी बुआते थे। ढेर सारी प्याज के साथ इन केरेलों में अगर कीमा भरकर पकाया जाये तो क्या कहना!'
हम लोग समझ गये कि अब डेविड साहब बचपन के किस्से सुनायेंगे। इन किस्सों के बीच नसीबन गवर्नेस का ज़िक्र भी आयेगा जो केवल एक रुपया महीना तनख्व़ाह पाकर भी कितनी प्रसन्न रहा करती थी। और जिसका मुख्य काम डेविड बाबा की देखभाल को दीपक बाबा ही कहती रही। इसी सिलसिले में उस पिकनिक पार्टी का जिक्र आयेगा जिसमें डेविड बाबा ने जमुना के स्लोप पर गाड़ी चढ़ा दी थी। तजुर्बेकार ड्राइवर इस्माइल खां को पसीना छूट आया था। खां को डांटकर गाड़ी से उतार दिया था। सब लड़के और लड़कियां उतर गये। अंग्रेज़ लड़के की हिम्मत छूट गयी थी। परंतु जॉली ने उतरने से इंकार कर दिया था। डेविड बाबा ने गाड़ी स्टार्ट की। दो मिनट सोचा। गियर बदलकर एक्सीलेटर पर दबाव डाला और गाड़ी एक फर्राटे के साथ उपर चढ़ गयी। इस्माइल खां ने उपर आकर डेविड बाबा के हाथ चूम लिये थे। वह बड़े-बड़े अंग्रेज़ अफ़सरों को गाड़ी चलाते देख चुका था मगर डेविड बाबा ने कमाल ही कर दिया था। जॉली ने डेविड बाबा को उसी दिन 'किस` देने का प्रामिस किया था।
इन बातों को सुनाते समय डेविड साहब की बिटरनेस गायब हो जाती है। वह डेविड साहब नहीं, दीपक बाबा लगते हैं। हलकी-सी धूल उड़ती है और सीतापुर की सिविल लाइंस पर बनी बड़ी-सी कोठी के फाटक में १९३० की फोर्ड मुड़ जाती है। फाटक के एक खंभे पर साफ अक्षरों में लिखा हुआ है पीटर जे. डेविड, डिप्टी कलेक्टर। कोठी की छत खपरैलों की बनी हुई है। कोठी के चारों ओर कई बीघे का कंपाउंड। पीछे आम और संतरे का बाग। दाहिनी तरफ़ टेनिस कोर्ट की बायीं तऱफ बड़ा-सा किचन गार्डन, कोठी के उंचे बरामदे में बावर्दी चपरासी उंघता हुआ दिखाई पड़ेगा। अंदर हाल में विक्टोरियन फ़र्नीचर और छत पर लटकता हुआ हाथ से खींचने वाला पंखा। दोपहर में पंखा-कुली पंखा खींचते-खींचते उंघ जाता है तो मिस्टर पीटर जे.डेविड डिप्टी कलेक्टर अपने विलायती जूतों की ठोकरों से उसके काले बदन पर नीले रंग के फल उगा देते हैं। बाबा लोग टाई बांधकर खाने की मेज़ पर बैठकर चिकन सूप पीते हैं। खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते हैं और मम्मी-डैडी को गुडनाइट कहकर अपने कमरे में चले जाते हैं। साढ़े नौ बजे के आस-पास १९३० की फोर्ड गाड़ी फिर स्टार्ट होती है। अब वह या तो क्लब चली जाती है या किसी देशी रईस की कोठी के अंदर घुसकर आधी रात को डगमगाती हुई लौटती है।
मिसेज़ डिसूजा के मकान की छत के उपर से दिल्ली की रोशनियां दिखाई पड़ती हैं। सैकड़ों जंगली जानवरों की आंखें रात में चमक उठती है। पानी पीने के लिए नीचे आता हूं तो डेविड साहब प्रूफ़ पढ़ रहे हैं। मुझे देखकर मुस्कराते हैं, कलम बंद कर देते हैं और बैठने के लिए कहते हैं। आंखों में नींद भरी हुई है। वह मुझे धीरे-धीरे समझाते हैं। उनके इस समझाने से मैं तंग आ गया हूं। शुरू-शुरू में तो मैं उनको उल्लू का पट्ठा समझता था, परंतु बाद में पता नहीं क्यों उनकी बातें मेरे उपर असर करने लगीं। 'भाग जाओ इस शहर से। जितनी जल्दी हो सके, भाग जाओ। मैं भी तुम्हारी तरह कॉलेज से निकलकर सीधे इस शहर में आ गया था राजधनी जीतने। लेकिन देख रहे हो, कुछ नहीं है इस शहर में, कुछ नहीं। मेरी बात छोड़ दो। मैं कहां चला जाउं! गांड़ के रास्ते यह शहर मेरे अंदर घुस चुका है।'
'लेकिन कब तक कुछ नहीं होगा, डेविड साहब?'
'उस वक्त तक, जब तक तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। और मैं जानता हूं, तुम्हारे पास वह सब कुछ नहीं है जो लोगों को दिया जा सकता है।'
मैं लौटकर उपर आ जाता हूं। मेरे पास क्या है देने के लिए? उंची कुर्सियां, कॉकटेल पार्टियां, लंबे-चौड़े लान, अंग्रेज़ी में अभिवादन, सूट और टाइयां, लड़कियां, मोटरें, शॉपिंग! तब ये लोग, जो तंग गलियारों में मुझसे वायदे करते हैं, मुस्कुराते हैं, कौन हैं? इसके बारे में फिर सोचना पड़ेगा। और काफ़ी देर तक फिर मैं सोचने का साहस जुटाता हूं। परंतु वह पीछे हटता जाता है। मैं उसकी बांहें पकड़कर आगे घसीटता हूं। एक बिगड़े हुए खच्चर की तरह वह अपनी रस्सी तुड़ाकर भाग निकलता है।
मैं फिर पानी के लिए नीचे उतरता हूं। अपनी मेज़ पर सिर रखे वह सो रहे हैं। प्रूफ़ का पुलिंदा सामने पड़ा है। मैं उसका कंधा पकड़कर लगा देता हूं। 'अब सो जाइए। कल आपको साइट देखने जाना है।` उनके चेहरे पर मुस्कराहट आती है। कल वह मुर्गीखाना खोलने की साइट देखने जा रहे हैं। इससे पहले भी हम लोग कई साइट देख चुके हैं। डेविड साहब उठकर पानी पीते हैं। फिर अपने पलंग पर इस तरह गिर पड़ते हैं जैसे राजधनी के पैरों पर पड़ गये हों। मैं फिर उपर आकर लेट जाता हूं। 'मैंने कॉलेज में इतना पढ़ा ही क्यों? इतना और उतना की बात नहीं है, मुझे कॉलेज में पढ़ना ही नहीं चाहिए था और अब दो साल तक ढाई सौ रुपये की नौकरी करते हुए क्या किया जा सकता है? क्यों मुस्कराता और क्यों शांत रहा? दो साल से दोपहर का खाना गोल करते रहने के पीछे क्या था?` नीचे से भैंस के हगने की आवाज़ आती है। एक परिचित गंध फैल जाती है। उस अर्द्धपरिचित कस्बे की गंध, जिसे मैं अपना घर समझता हूं, जहां मुझे बहुत ही कम लोग जानते हैं। उस छोटे से स्टेशन पर यदि मैं उतरूं तो गाड़ी चली जाने के बाद कई लोग मुझे घूर कर देखेंगे। और इक्का-दुक्का इक्के वाले भी मुझसे बात करते डरेंगे। उनका डर दूर करने के लिए मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा। अर्थात अपने पिता का परिचय देना पड़ेगा। तब उनके चेहरे पर मुस्कराहट आयेगी और वे मुझे इक्के पर बैठने के लिए कहेंगे। इस मिनट इक्का चलता रहेगा तो सारी बस्ती समाप्त हो जायेगी। उस पार खेत हैं जिनका सीधा मतलब है उस पर गरीबी है। वे गरीबी के अभ्यस्त हैं। पुलिस उनके लिए सर्वशक्तिमान है और अपनी हर होशियारी में वे काफी मूर्ख हैं. . .उपर आसमान में पालम की ओर जाने वाले हवाई जहाज की संयत आवाज सुनाई पड़ती है। नीचे सड़क पार बालू वाले ट्रक गुजर रहे हैं। लदी हुई बालू के उपर मजदूर सो रहे हैं, जो कभी-कभी किसान बन जाने का स्वप्न देख लेते हैं, अपने गांव की बात करते हैं, अपने खेतों की बात करते हैं, जो कभी उनके थे। ट्रक तेजी से चलता हुआ ओखला मोड़ से मथुरा रोड पर मुड़ जायेगा। फ्रेंड्स कालोनी और आश्रम होता हुआ 'राजदूत` होटल के सामने से गुजरेगा जहां रात-भर कैबरे और रेस्तरां के विज्ञापन नियॉनलाइट में जलते बुझते रहते हैं। उसी के सामने फुटपाथ पर बहुत से दुबले-पतले, काले और सूखे आदमी सोते हुए मिलेंगे, जिनकी नींद ट्रक की कर्कश आवाज़ से भी नहीं खुलती। उपर तेज बल्ब की रोशनी में उनके अंग-प्रत्यंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। मैं अक्सर हैरान रहता हूं कि वे इस चौड़े फुटपाथ पर छत क्यों नहीं डाल लेते। उसके चारों ओर, कच्ची ही सही, दीवार तो उठाई जा सकती है। इन सब बातों पर सरसरी निगाह डाली जाये, जैसी कि हमारी आदत है, तो इनका कोई महत्व नहीं है। बेवकूफी और भावुकता से भरी बातें। परंतु यदि कोई उपर से कीड़े की तरह फुटपाथ पर टपक पड़े तो उसका समझ में सब कुछ आ जायेगा।
दिन इस तरह गुजरते हैं जैसे कोई लंगड़ा आदमी चलता है। अब इस महानगरी में अपने बहुत साधरण और असहाय होने का भाव सब कुछ करवा लेता है। और अपमान, जो इस महानगर में लोग तफरीहन कर देते हैं, अब उतने बुरे नहीं लगते, जितने पहले लगते थे। ऑफिस में अधिकारी की मेज़ पर तिवारी का सुअर की तरह गंदा मुंह, जो एक ही समय में पक्का समाजवादी भी है और प्रो-अमरीकन भी। उसकी तंग बुशर्ट में से झांकता हुआ हराम की कमाई का पला तंदुरुस्त जिस्म और उसकी समाजवादी लेखनी जो हर दूसरी पंक्ति केवल इसलिए काट देती है कि वह दूसरे की लिखी हुई है। उसका रोब-दाब, गंभीर हंसी, षड्यंत्र-भरी मुस्कान और उसकी मेज़ के सामने उसके साम्राज्य में बैठे हुए चार निरीह प्राणी, जो कलम घिसने के अलावा और कुछ नहीं जानते। उन लोगों के चेहरे के टाइपराइटरों की खड़खड़ाहट। इन सब चीज़ों को मुट्ठी में दबाकर 'क्रश` कर देने को जी चाहता है। भूख भी कमबख्त लगती है तो इस जैसे सोरे शहर का खाना खाकर ही खत्म होगी। शुरू में पेट गड़गड़ाता है। यदि डेविड साहब होते तो बात यहीं ये झटक लेते, 'जी, नहीं, भूख जब ज़ोर से लगती है तो ऐसा लगता है जैसे बिल्लियां लड़ रही हों। फिर पेट में हलका-सा दर्द शुरू होता है जो शुरू में मीठा लगता है। फिर दर्द तेज़ हो जाता है। उस समय यदि आप तीन-चार गिलास पानी पी लें तो पेट कुछ समय के लिए शांत हो जायेगा और आप दो-एक घंटा कोई भी काम कर सकते हैं। इतना सब कुछ कहने के बाद वह अवश्य सलाह देंगे कि इस महानगरी में भूखों मरने से अच्छा है कि मैं लौट जाउं। लेकिन यहां से निकलकर वहां जाने का मतलब है एक गरीबी और भुखमरी से निकलकर दूसरी भुखमरी में फंस जाना। इसी तरह की बहुत सारी बातें एक साथ दिमाग में कबड्डी खेलती रहती हैं। तंग आकर ऐसे मौके पर डेविड साहब से पूछता हूं, 'ग्रेटर कैलाश की मार्केट चल रहे हैं?' वह मुस्कराते हैं और कहते हैं, 'अच्छा, तैयार हो जाउं।' मैं जानता हूं उनके तैयार हाने में काफ़ी समय लगेगा। इसलिए मैं बड़े प्रेम से जूते पॉलिश करता हूं। एक मैला कपड़ा लेकर जूते की घिसाई करता हूं। जूते में अपनी शक्ल देख सकता हूं। टिपटाप होकर डेविड साहब से पूछता हूं, 'तैयार हैं?'
हम दोनों बस स्टाप की तरफ़ जाते हुए एक-दूसरे के जूते देखकर उत्साहित होते हैं। एक अजीब तरह का साहस आ जाता है।
ग्रेटर कैलाश की मार्किट की हर दूकान का नाम हमें जबानी याद है। बस से उतरकर हम पेशाबखाने में जाकर अपने बाल ठीक करते हैं। वह मेरी ओर देखते हैं। मैं फर्नीचर की ओर देखता हूं। दो जोड़ा चमचमाते जूते बरामदे में घूमते हैं। मैं फर्नीचर की दूकान के सामने रुक जाता हूं। थोड़ी देर तक देखता रहता हूं। डेविड साहब अंदर चलने के लिए कहते हैं और मैं सारा साहब बटोर कर अंदर घुस जाता हूं। यहां के लोग बड़े सभ्य हैं। एक वाक्य में दो बार 'सर` बोलते हैं। चमकदार जूते दूकान के अंदर टहलते हैं। डेविड साहब यहां कमाल की अंग्रेज़ी बोलते हैं कंधे उचकाकर और आंखें निकालकर। चीज़ों को इस प्रकार देखते हैं जैसे वे काफी घटिया हों। मैं ऐसे मौकों पर उनसे प्रभावित होकर उन्हीं की तरह बिहेव करने की कोशिश करता हूं।
कंफेक्शनरी की दूकान के सामने वह बहुत देर तक रुकते हैं। शो-विंडो में सब कुछ सजा हुआ है। पहली बार में भ्रम हो सकता है कि सारा सामान दिखावटी है, मिट्टी का, परंतु निश्चय ही ऐसा नहीं है।
'जल्दी चलिए। साला देखकर मुस्करा रहा है।'
'कौन?' डेविड साहब पूछते हैं, मैं आंख से दूकान के अंदर इशारा करता हूं और वह अचानक दूकान के अंदर घुस जाते हैं। मैं हिचकिचाहट बरामदे में आगे बढ़ जाता हूं। 'पकड़े गये बेटा! बड़े लाटसाहब की औलाद बने फिरते हैं। उनकी जेब में दस पैसे का बस का टिकट और कुल साठ पैसे निकलते हैं। सारे लोग हंस रहे हैं। डेविड साहब ने चमचमाता जूता उतारकर हाथ में पकड़ा और दूकान में भागे।` मैं साहस करके दूकान के अंदर जाता हूं। डेविड साहब दूकानदार से बहुत फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रहे हैं और वह बेचारा घबरा रहा है। मैं खुश होता हूं। 'ले साले, कर दिया न डेविड साहब ने डंडा! बड़ा मुस्करा रहे थे।` डेविड साहब अंग्रेजी में उससे ऐसा केक मांग रहे हैं जिसका नाम उसके बाप, दादा, परदादा ने भी कभी न सुना होगा।
बाहर निकलकर डेविड साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
रोज़ की तरह खाने की मेज़ पर यहां से वहां तक विलायती खाने सजे हुए हैं। मिसेज़ डिसूजा का मूड़ कुछ आफ है। कारण केवल इतना है कि मैं इस महीने की पहली तारीख को पैसा नहीं दे पाया हूं। एक-आध दिन मुंह फला रहेगा। फिर वे महंगाई के किस्से सुनाने लगेंगी। चीजों की बढ़ती कीमतें सुनते हम लोग तंग जा जायेंगे।
बात करने के लिए कुछ जरूरी था और चुप टूटती नहीं लग रही थी, तो मिसेज़ डिसूजा ने पूछा, 'आज तुम डिफेंस कॉलोनी जाने वाले थे?'
'नहीं जा सकता,' डेविड साहब ने मुंह उठाकर कहा।
'अब तुम्हारा सामान कैसे आयेगा?' मिसेज़ डिसूजा बड़बड़ायीं, 'बेचारी कैथी ने कितनी मुहब्बत से भेजा है।'
'मुहब्बत से भिजवाया है आंटी?' डेविड साहब चौंके, 'आंटी, उसका हस्बैंड दो हज़ार रुपये कमाता है। कैथी एक दिन बाज़ार गयी होगी। सवा सौ रुपये की एक घड़ी और दो कमीजें खरीद ली होंगी। और डीनू के हाथ दिल्ली भिजवा दीं। इसमें मुहब्बत कहां से आ गयी?'
'मगर तुम उन्हें जाकर ले तो जाओ।'
'डीनू उस सामान को यहां ला सकता है।'
डीनू का डिफेंस कालोनी में अपना मकान है। कार है। डेविड साहब का बचपन का दोस्त है। वह उस शिकार पार्टी में भी था, जिसमें हाथी पर बैठकर डेविड साहब ने प्लाइंग शॉट में चार गाजें गिरा दी थीं।
'डिफेंस कॉलोनी से यहां आना दूर पड़ेगा। और वह बिजी आदमी है।'
'मैं बिज़ी प्रूफ़रीडर नहीं हूं?' वह हंसे, 'और वह तो अपनी काम से आ सकता है, जबकि मुझे दो बसें बदलनी पड़ेंगी।' वह दाल-चावल इस तरह खा रहे थे, जैसे 'केक` की याद में हस्तमैथुन कर रहे हों।
'जैसी तुम्हारी मर्जी।'
खाना खत्म होने पर कुछ देर के लिए महफिल जम गयी। मिसेज़ डिसूजा पता नहीं कहां से उस बड़े जमींदार का जिक्र ले बैठीं जो जवानी के दिनों में उन पर दिलोजान से आशिक था, और उनके अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद भी एक दिन पता लगाता हुआ दिल्ली के उनके घर आया था। वह पहला दिन था जब इस मकान के सामने सेकेंड-हैंड एंबेसडर खड़ी हुई थी और डेविड साहब को किचन में सोना पड़ा था। उस जमींदार का जिक्र डेविड साहब को बड़ा भाता है। मैं तो फौरन उस जमींदार की जगह अपने-आपको 'फिट` करके स्थिति का पूरा मज़ा उठाने लगता हूं।
कुछ देर बाद इधर-उधर घूम-घामकर बात फिर खानों पर आ गयी। डेविड साहब सेंवई पकाने की तरकीब बताने लगे। फिर सबने अपने-अपने प्रिय खानों के बारे में बात की। सबसे ज्यादा डेविड साहब बोले।
खाने की बात समाप्त हुई तो मैंने धीरे से कहा, 'यार डेविड साहब, इस गांव में कोई लड़की ऐसी नज़र पड़ जाती है कि पांव कांपने लगते हैं।'
'कैसी थी, मुझे बताओ? छिद्दू की बहू होगी या. . .।'
'बस डेविड, तुम लड़कियों की बात न किया करो। मैंने कितनी खूबसूरत लड़की से तुम्हारा 'इंगेजमेंट` तय किया था।'
'क्या खूबसूरती की बात करती हैं आंटी! अगर जॉली को आपने देखा होता. . .।'
'जॉली? खैर, उसको तो मैंने नहीं देखा। तुमने अगर मेरी लड़की को देखा होता।' उनकी आंखें डबडबा आयीं, 'मगर वह हज. . .' कुछ देर बाद बोलीं, 'अगर अब वह होती तो यह दिन न देखना पड़ता। मैं उसकी शादी किसी मिलिटरी अफ़सर से कर देती। उससे तो कोई भी शादी कर सकता था।'
कुछ ठहर कर डेविड साहब से बोली, 'तुम शादी क्यों नहीं कर लेते डेविड?'
'मैं शादी कैसे कर लूं आंटी? दो सौ पचहत्तर रुपये इक्कीस पैसे से एक पेट नहीं भरता। एक और लड़की की जान लेने से क्या फायदा। मेरी जिंदगी तो गुजर ही जायेगी। मगर मैं यह नहीं चाहता कि अपने पीछे एक गरीब औरत और दो तीन प्रूफ़रीडर छोड़कर मर जाउं जो दिन-रात मशीनों की कान फाड़ देने वाली आवाज़ बैठकर आंखें फोड़ा करें।' वह कुछ रुके, 'यही बात मैं इनसे कहता हूं।' उन्होंने मेरी ओर संकेत किया, 'इस आदमी के पास गांव में थोड़ी-सी ज़मीन है जहां गेहूं और धन की फसल होती है। इसको चाहिए कि अपने खेत के पास एक कच्चा घर बना ले। उसके सामने एक छप्पर डाल ले, बस, उस पर लौकी की बेल चढ़ानी पडेग़ी। देहात में आराम से एक भैंस पाली जा सकती है। कुछ दिनों बाद मुर्गीखाना खोल सकते हैं। खाने और रहने की फिक्र नहीं रह जायेगी। ठाठ से काम करे और खायें।'
'उसके बाद आप वहां आइएगा तो 'केक` बनाया जायेगा। बहुत से अंडे मिलाकर'
मैंने मजाक किया।
दीपक बाबा हंसने लगे। बिलकुल बच्चों की-सी मासूम हंसी।
***-***
2 सरगम-कोला
जैसे कुत्तों के लिए कातिक का मौसम होता है वैसे ही कला और संस्कृति के लिए जोड़ का मौसम होता है दिल्ली में, गोरी चमड़ी वाले पर्यटक भरे रहते हैं खलखलाते, उबलते, चहकते, रिझाते, लबालब हमारी संस्कृति से सबसे बड़े खरीदार और इसीलिए पारखी। बड़े घरों की महिलाएं लिपी-पुती कलैंडर आर्ट जिससे घृणा करने का कोई कारण नहीं है, जाड़े की शामें किसी आर्ट गैलरी और नाटक देखने में गुजारना पसंद करती हैं। जाड़ा कला और संस्कृति का मौसम है।
सूरज जल्दी डूब जाता है और नर्म मुलायम गर्म कपड़ों से टकराती ताजगी देने वाली हवा आर्ट गैलरियों और आडीटोरियमों के आसपास महक जाती है? ऐसी सुगंध जो नामर्द को मर्द बना दे और मर्द को नामर्द। लोग कला और संस्कृति में डूब जाते हैं। कला और संस्कृति लोगों में डूब जाती है।
म्यूज़िक कांफ्रेंस के गेट पर चार सिपाही खड़े थे। ऊबे, उकताये डंडे लिये। उनके पीछे दो इंस्पेक्टर खड़े थे, गर्दन अकड़ाये क्योंकि उनके सामने चार सिपाही खड़े थे। फिर दो सूटधरी थे। सूटधरियों के सूट एक से थे। बनवाये गये होंगे। सूटधरी काफी मिलती-जुलती शक्ल के थे। काफी मुश्किल से खोजे गये होंगे।
गेट के सामने बजरी पड़ा रास्ता था। बजरी भी डाली गयी होगी। फलों के गमले जमीन के अंदर गाड़ दिये गये थे। न जानने वालों को अचंभा होता था कि ऊसर में फल उग आये हैं। उपर कागज के सफेद फलों की चादर-सी तानी गयी थी जो कुछ साल पहले तक-कागज के फलों की नहीं, असली फलों की, पीरों, फकीरों की मज़ारों पर तानी जाती थी। फिर शादी विवाह में लगायी जाने लगी। दोनों तरफ गिलाफ चढ़े बांस के खंभे थे। इन गिलाफ चढ़े बांसों पर ट्यूब लाइटें लगीं थीं। इसी रास्तें से अंदर जाने वाले जा रहे थे। दासगुप्ता को गेट के बिलकुल सामने खड़े होने पर केवल इतना ही दिखाई दे रहा था। जाने वाले दिखाई दे रहे थे, जो ऊंचे-ऊंचे जूतों पर अपने कद को और ऊंचा दिखाने की नाकाम कोशिश में इस तरह लापरवाही से टहलते अंदर जा रहे थे जैसे पूरा आयोजन उन्हीं के लिए किया गया हो। अधेड़ उम्र की औरतें थीं जिनकी शक्लें विलायती कास्मेटिक्स ने वीभत्स बना दी थीं। लाल साड़ी, लाल आई शैडो, नीली साड़ी, नीली आई शैडो, काली के साथ काला. . .पीली के साथ पीला। जापानी साड़ियों के पल्लू को लपेटने की कोशिश में और अपने अधखुले सीने दिखाती, कश्मीरी शालों को लटकने से बचाती या सिर्फ सामने देखती. . .या जीन्स और जैकेट में खट-खट खट-खट। सम्पन्नता की यही निशानियां हैं। दासगुप्ता ने मन-ही-मन सोचा। गंभीर, भयानक रूप से गंभीर चेहरे, आत्म संतोष से तमतमाये. . .गर्व से तेजवान्, धन, ख्याति, सम्मान से संतुष्ट. . .दुराश से मुक्त। 'साला कौन आदमी इस कंट्री में इतना कान्फीडेंस डिजर्व करता है?' दासगुप्ता अपनी डिजर्व करने वाली फिलासफी बुदबुदाने लगे। सामने से भीड़ गुजरती रही। हिप्पी लड़कियां. . .अजीब-अजीब तरह के बाल. . .घिसी हुई जीन्स. . .मर्दमार लड़कियां। उनको सूंघते हुए कुत्ते. . .कुत्ते-ही-कुत्ते. . .डागी. . .डागीज. . .स्वीट डागीज।
प्रोग्राम शुरू हो गया। भीमसेन जोशी का गायन शुरू हो चुका था, लेकिन दासगुप्ता का कोई जुगाड़ नहीं लग पाया था, बिना टिकट अंदर जाने का जुगाड़।
गेट, बजरी पड़े रास्ते, सूटधारी स्वागतकर्ताओं, पुलिस इंस्पेक्टरों और सिपाहियों से दूर बाहर सड़क पर दाहिनी तरफ़ एक घने पेड़ के नीचे अजब सिंह अपना पान-सिगरेट को खोखा रखे बैठा था। ताज्जुब की बात है, मगर सच है कि इतने बड़े शहर में दासगुप्ता और अजबसिंह एक-दूसरे को जानते हैं। दासगुप्ता गेट के सामने से हटकर अजबसिंह के खोखे के पास आकर खड़े हो गये। सर्दी बढ़ गयी थी और अजब सिंह ने तसले में आग सुलगा रखी थी।
'दस बीड़ी।'
'तीस हो गयीं दादा।'
'हां, तीस हो गया। हम कब बोला तीस नहीं हुआ।. . .हम तुमको पैसा देगा।' दासगुप्ता ने बीड़ी ले ली। ऐ बीड़ी तसले में जलती आग से सुलगायी। और खूब लंबा कश खींचा।
'जोगाड़ नहीं लगा दादा?'
'लगेगा, लगेगा।'
'अब घर जाओ। ग्यारा बजने का हैं।'
'क्यों शाला घर जाये। हमको भीमसेन जोशी को सुनने का है. . .।'
'दो सादे बनारसी।'
उस्ताद भीमसेन जोशी की आवाज़ का एक टुकड़ा बाहर आ गया।
'विल्स।'
'किंग साइज, ये नहीं।'
दासगुप्ता खोखे के पास से हट आये। अब आवाज़ साफ सुनायी देगी।. . लेकिन आवाज़ बंद हो गयी।. . .एक आइडिया आया। पंडाल के अंदर पीछे से घुसा जाये। बीड़ी के लंबे-लंबे कश लगाते वे घूमकर पंडाल के पीछे पहुंच गये। अंधेरा। पेड़। वे लपकते हुए आगे बढ़े। टॉर्च की रोशनी।
'कौन है बे?' पुलिस के सिपाही के अलावा ऐसे कौन बोलेगा।
दासगुप्ता जल्दी-जल्दी पैंट के बटन खोलने लगे 'पिशाब करना है जी पिशाब।' टॉर्च की रोशनी बुझ गयी। दासगुप्ता का जी चाहा इन सिपाहियों पर मूत दें। साले यहां भी डियूटी बजा रहे हैं।. . .पिशाब की धर सिपाहियों पर पड़ी। पंडाल पर गिरी। चूतिये निकल-निकलकर भागने लगे।. . .दासगुप्ता हंसने लगे।
वे लौटकर फिर खोखे के पास आ गये। पास ही में एक छोटे-से पंडाल के नीचे कैन्टीन बनायी गयी थी। दो मेज़ों का काउंटर। काफी प्लांट। उपर दो सौ वाट का बल्ब। हाट डॉग, हैम्बर्गर, पॉपकार्न, काफी की प्यालियां। दासगुप्ता ने कान फिर अंदर से आने वाली आवाज़ की तरफ़ लगा दिये. . .सब अंदर वालों के लिए है। जो साला म्यूजिक सुनने को बाहर खड़ा है, चूतिया है। लाउडस्पीकर भी साला ने ऐसा लगाया है कि बाहर तक आवाज़ नहीं आता। और अंदर चूतिये भरे पड़े हैं। भीमसेन जोशी को समझते हैं? उस्ताद की तानें इनज्वाय कर सकते हैं? इनसे अगर यह कह दो कि उस्ताद जोशी तानों में मंद सप्तक से मध्य और मध्यम सप्तक से तार सप्तक तक स्वरों का पुल-सा बना देते हैं, तो ये साले घबराकर भाग जायेंगे. . .ये बात भीमसेन जोशी को नहीं मालूम होगा? होगा, जरूर होगा। साले संगीत सुनने आते हैं। अभी दस मिनट में उठकर चले जायेंगे. . .डकार कर खायेंगे और गधे की तरह पकड़कर सो जायेंगे।
'दादा सर्दी है,' अजब सिंह की उंगलियां पान लगाते-लगाते ऐंठ रही थीं।
'शर्दी क्यों नहीं होगा। दिशम्बर है, दिशम्बर।'
'ईंटा ले लो दादा, ईंटा।' अजब सिंह ने दासगुप्ता के पीछे एक ईंटा रख दिया और वे उस पर बैठ गये।
जैसे-जैसे सन्नाटा बढ़ रहा था अंदर से आवाज़ कुछ साफ आ रही थी। उस्ताद बड़ा ख्याल शुरू कर रहे हैं। दासगुप्ता ईंटें पर संभलकर बैठ गये।. . .पग लगाने दे. . .घिं-घिं. . .धगे तिरकिट तू ना क त्ता धगे. . .तिरकिट धी ना. . .ये तबले पर संगत कर रहा है? दासगुप्ता ने अपने-आपसे पूछा। वाह क्या जोड़ हे।
'ये तबले पर कौन है?' उन्होंने अजब सिंह से पूछा।
'क्या मालूम कौन है दादा।'
कितनी गरिमा और गंभीरता है। अंदर तक आवाज़ उतरती चली जाती है।. . .तू ना क त्ता. . .।
'तुम्हारे पास कैम्पा हैय?' तीन लड़कियां थीं और चार लड़के। दो लड़कियों ने जींस पहन रखी थीं और उनके बाल इतने लंबे थे कि कमर पर लटक रहे थे। तीसरी के बाल इतने छोटे थे कि कानों तक से दूर थे। एक लड़के ने चमड़े का कोट पहन रखा था और बाकी दो असमी जैकेट पहने थे। तीसरे ने एक काला कम्बल लपेट रखा था। एक की पैंट इतनी तंग थी कि उसकी पतली-पतली टांगे फैली हुई और अजीब-सी लग रही थीं। लंबे बालों वाली लड़कियों में से एक लगातार अपने बाल पीछे किये जा रही थी, जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी। तीसरी लड़की ने अपनी नाक की कील पर हाथ फेरा।
'तुम्हारे पास कैम्पा हैय?' लंबी और पतली टांगों वाले लड़के ने कैंटीन के बैरे से पूछा। उसका ऐक्सेंट बिलकुल अंग्रेजी था। वह 'त` को 'ट` और 'ह` को 'य` के साथ मिलाकर बोल रहा था। 'ए` को कुछ यादा लंबा खींच रहा था।
'नहीं जी अभी खतम हो गया. . .'
'ओ हाऊ सिली,' छोटे बालों वाली लड़की ठुनकी।
'हाऊ स्टूपिड कैन्टीन दे हैव।'
'वी मस्ट कम्पलेन्ट।'
'लेट्स हैव काफी स्वीटीज,' लंबी टांगों वाले ने अदा से कहा।
'बट आइ कान्ट हैव काफी हियर,' जो लड़की अपनी नाक की कील छूए जा रही थी और शायद इन तीनों में सबसे ज्यादा खूबसूरत थी, बोली।
'वाये माई डियर,' लंबी टांगों वाला उसके सामने कुछ झुकता हुआ बोला और वह बात बाकी दो लड़कियों को कुछ बुरी लगी।
'आई आलवेज हैव काफी इन माई हाउस ऑर इन ओबरॉयज।'
'फाइन लेट्स गो टु द ओबरॉय देन,' लंबी टांगों वाला नारा लगाने के से अंदाज़ में चीखा।
'सर. . .सर कैम्पा आ गया,' कैन्टीन के बैरे ने सामने इशारा किया। एक मजदूर अपने सिर पर कैंपा का क्रेट रखे चला आ रहा था।
'ओ, कैम्पा हेज कम,' दूसरी दो लड़कियों ने कोरस जैसा गाया। अंदर से भीमसेनी जोशी की आवाज़ का टुकड़ा बाहर आ गया।
'ओ कैम्पा {{{{ हैज कम,' सब सुर में गाने लगे, 'के ए ए ए म पा {{{{. . . .पार करो अरज सुनो ओ. . .ओ. . .पा {{{{. . .कैम्पा {{{ पार करो. . .पा {{{{ र. . .कैम्पा {{{{. . .'
'बट नाउ आई वांट टु हैव काफी इन ओबरॉय,' खूबसूरत चेहरे वाली लड़की ठुनकी।
'बट वी केम हियर टु लिसन भीमसेनी जोशी।'
'ओ, डोन्ट बी सिली. . .ही विल सिंग फॉर द होल नाइट. . .हैव कॉफी इन ओबरॉय देन वी कैन कम बैक. . .इविन वी कैन हैव स्लीप एण्ड कम बैक. . .' लंबी टांगों वाला चाबियों का गुच्छा हिलाता आगे बढ़ा. . .भीमसेन जोशी की दर्दनाक आवाज़ बाहर तक आने लगी थी. . .आत्मनिवेदन की, दुखों और कष्टों से भरी स्तुति. . .अरज सुनो {{{{. . . .मो{{{{. . .खचाक. . .खचाक. . .कार के दरवाजे एक साथ बंद हुए और क्रिर्रर क्रिर्ररर क्रिर्र. . .भर्र{{{{ भर्र {{{{. . .।'
बारह बज चुका था। सड़क पर सन्नाटा था। सड़क के किनारों पर दूर-दर तक मोटरों की लाइनें थीं। लोग बाहर निकलने लगे थे। ज्यादातर अधेड़ उम्र और गंभीर चेहरे वाले- उकताये और आत्मलिप्त. . .मोटी औरतें. . .कमर पर लटकता हुआ गोश्त. . .जमहाइयां आ रही हैं। साले, नींद आने लगी. . .टिकट बर्बाद कर दिया। अरे उस्ताद तो दो बजे के बाद मूड़ में आयेंगे। बस टिकट लिया. . .मंगवा लिया ड्राइवर से। घंटे-दो घंटे बैठे। पब्लिक रिलेशन. . .ये टिकट ही नहीं डिजर्व करते. . .पैसा वेस्ट कर दिया. . .उस्ताद को भी वेस्ट कर दिया. . .ऐसी रद्दी आडियन्स। जो लोग जा रहे हैं उनकी जगह खाली. . .उसमें शाला हमको नहीं बैठा देता. . .बोलो, पैशा तो तुमको पूरा मिल गया है। अब क्यों नहीं बैठायेगा।
दासगुप्ता को सर्दी लगने लगी और उन्होंने एयरफोर्स के पुराने ओवरसाइज कोट की जेबों में हाथ डाल दिये। अजब सिंह कुछ सूखी पत्ती उठा लाया। तसले की आग दहक उठी।. . .ये साला निकल रहा है 'आर्ट सेंटर` का डायरेक्टर। पेंटिंग बेच-बेचकर कोठियां खड़ी कर लीं। अब सेनीटरी फिटिंग का कारोबार डाल रखा है। यही साले आर्ट कल्चर करते हैं। क्योंकि इनको पब्लिक रिलेशन का काम सबसे अच्छा आता है। पार्टियां देते हैं। एक हाथ से लगाते हैं, दूसरे से कमाते हैं। अपनी वाइफ के नाम पर इंटीरियर डेकोरेशन का ठेका लेता है। अमित से काम कराता है। उसे पकड़ा देता है हज़ार दो हज़ार. . .लड़की सप्लाई करने से वोट खरीदने तक के धंधे जानता है. . .देखो म्युजिक कान्फ्रेंस की आर्गनाइजर कैसे इसकी कार का दरवाजा खोल रही है. . .ब्रोशर में दिया होगा एक हजार का विज्ञापन। जैसे सुअर गू पर चलता है और उसे खा भी जाता है वही ये आर्ट-कल्चर के साथ करते हैं। फैक्ट्री न डाली 'कला केन्द्र` खोल लिया।. . .विदेशी कार का दरवाजा सभ्य आवाज़ के साथ बंद हो गया। कुसुम गुप्ता. . .साली न मिस है, न मिसेज़ है. . .दासगुप्ता सोचने लगे। क्यों न इससे बात की जाये। वह तेजी से गेट की तरफ बढ़ रही थी। इससे अंग्रेजी ही में बात की जाये।
'कैन यू प्लीज. . .'
उसने बात पूरी नहीं सुनी। मतलब समझ गयी। गंधे उचकाये।
'नो आइ एम सॉरी. . .वी हैव स्पेंट थर्टी थाउजेंड टू अरैंज दिस. . .' आगे बढ़ती चली गयी।
थर्टी थाउजेंड, फिफ्टी थाउजेंड, वन लैख. . .फायदे, मुनाफे के अलावा वह कुछ सोच ही नहीं सकती। वे आकर ईंट पर बैठ गये।
'विल्स।'
'मीठा पान।'
'नब्बे नंबर डाल, नब्बे. . .'
'ओ हाउ मीन यू आर।' औरतनुमा लड़की को कमसिन लड़का अपना हैम्बर्गर नहीं दे रहा था। औरतनुमा लड़की ने अपना हाथ फिर बढ़ाया और कमसिन लड़के ने अपना हाथ पीछे कर लिया। उनके साथ की दूसरी दो लड़कियां हंसे जा रही थीं।
'मीन,' लड़की अदा से बोली।
मीन? मीन का मतलब तो नीच होता है। लेकिन ये साले ऐसे बोलते हैं जैसे स्वीट। और स्वीट का मतलब मीन होगा।
कमसिन लड़का और औरतनुमा लड़की एक ही हैम्बर्गर खाने लगे। उनके साथ वाली लड़कियां ऐसे हंसने लगीं जैसे वे दोनों उनके सामने संभोग कर रहे हों।
'डिड यू अटेंड दैट चावलाज पार्टी?'
'ओ नो, आई वानटेड टु गो बट. . .'
'मेहराज गिव नाइस पार्टी।'
'हाय बॉबी!'
'हाय लिटी!'
'हाय जॉन!'
'हाय किटी!'
'यस मेहराज गिव नाइस पार्टीज. . .बिकाज दे हैव नाइस लॉन. . .लास्ट टाइम देयर पार्टी वाज टिर्रेफिक. . .देयर वाज टू मच टू ईट एंड ड्रिंक. . .वी केम बैक टू थर्टी इन द मॉर्निंग. . .यू नो वी हैड टू कम बैक सो सून? माई मदर इनला वाज देयर इन अवर हाउस. . . डिड यू मीट हर? सो चार्मिंग लेडी दैड द एज आफ सेवेन्टी थ्री. . .सो एट्ट्रेक्टिव आइ कांट टेल यू।'
'डिड यू लाइक द प्रोग्राम?'
'ओ ही इस सो हैंडसम।'
'डिड यू नोटिस द रिंग ही इज वियरिंग?'
'ओ यस, यस. . .ब्यूटीफुल।'
'मस्ट बी वेरी एक्सपेन्सिव।'
'ओ श्योर।'
'माइ मदर्स अंकल गाट द सेम रिंग।'
'दैट इज प्लैटिनम।'
'हैय वेटर, टू काफी।'
सुनने नहीं देते साले। अब अंदर से थोड़ी-बहुत आवाज़ आ रही थी। दासगुप्ता ने ईंट खिसका ली और अंगीठी के पास खिसक आये।
'ही हैज जस्ट कम बैक फ्राम योरोप।'
'ही हैज ए हाउस इन लण्डन।'
'मस्ट बी वेरी रिच।'
'नेचुरली ही टेस्ट टेन थाउजेंड फार ए नाइट।'
'देन आइ विल काल हिम टु सिंग इन अवर मैरिज।' कम उम्र लड़के ने औरतनुमा लड़की की कमर में हाथ डाल दिया।
साले के हाथ देखो। कलाइयां देखो। दासगुप्ता ने सोचा। अपने बल पर साला एक पैसा नहीं कमा सकता। बाप की दौलत के बलबूते पर उस्ताद को शादी में गाने बुलायेगा।
अजब सिंह ने फिर अंगीठी में सूखे पत्ते डाल दिये। बीड़ी पीता हुआ एक ड्राइवर आया और आग के पास बैठ गया। उसने खाकी वर्दी पहन रखी थी।
'सर्दी है जी, सर्दी।' उसने हाथ आग पर फैला दिये। कोई कुछ नहीं बोला।
'देखो जी कब तक चलता है ये चुतियापा। डेढ़ सौ किलोमीटर गाड़ी चलाते-चलाते हवा पतली हो गयी। अब साले को मुजरा सुनने की सूझी है। दो बजने. . .'
'सुबह छ: बजे तक चलेगा।'
'तब तो फंस गये जी।'
'प्राजी कोई पास तो नहीं है?' अजब सिंह ने ड्राइवर से पूछा।
'पास? अंदर जाना है?'
'हां जी अपने दादा को जाना है,' अजब सिंह ने दासगुप्ता की तरफ इशारा किया।
'देखो जी देखते हैं।'
ड्राइवर उठा तेजी से गेट की तरफ बढ़ा। लंबा तडंग़ा। हरियाणा का जाट। गेट पर खड़े सिपाहियों से उसने कुछ कहा और सिपाही स्वागतकर्ता को बुला लाया।
ड्राइवर जोर-जोर से बोल रहा था, 'पुलिस ले आया हूं जी। एस.पी. क्राइम ब्रांच, नार्थ डिस्ट्रिक्ट का ड्राइवर हूं जी। डी.वाई.एस.पी. क्राइम ब्रांच और डी.डी.एस.पी. ट्रैफिक की फैमिली ने पास मंगाया है जी,' वह लापरवाही से एक सांस में सब बोल गया।
सूटधारी स्वागतकर्ता ने सूट की जेब से पास निकालकर ड्राइवर की तरफ बढ़ा दिये। वह लंबे-लंबे डग भरता आ गया।
'सर्दी है जी, सदी है।' हाथ आगे बढ़ाया 'ये लो जी पास।'
'ये तो चार पास हैं।'
'ले लो जी अब, नहीं तो क्या इनका अचार डालना है।'
दासगुप्ता ने एक पास ले लिया, 'हम चार पास का क्या करेगा?'
हरियाणा का जाट को काफी ऊब चुका था, इस सवाल का कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहता था। उसने बचे हुए तीन पास तसले में जलती आग में डाल दिये। ड्राइवर और अजबसिंह ने तसले पर ठंडे हाथ फैला दिये। दासगुप्ता गेट की तरफ लपके। अंदर से साफ आवाज़ आ रही थी. . .जा{ गो{. . .उस्ताद अलाप लेकर भैरवी शुरू करने वाले हैं. . .जा{ गो{ मो{ ह न प्या{{{{रे {{. . .ध धिं धिं ध ध तिं तिं ता. . .जा{ गो{ मो{ ह{ न प्या{ {{ {{ {{ रे {{ {{{. . .
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3 दिल्ली पहुंचना है
रात के दो बजे थे और कायदे से इस वक्त स्टेशन पर सन्नाटा होना चाहिए था। इक्का-दुक्का चाय की ठेलियों को छोड़कर या दो-चार उंघते हुए कुलियों या सामान की गांठों और गट्ठरों या प्लेटफार्म पर सोये गरीब फटेहाल लोगों के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं था। पूरे स्टेशन पर ऐसी चहल-पहल थी, जैसे रात के दो नहीं, सात बे हों। आठ-आठ दस-दस की टुकड़ियों में लोग प्लेटफार्म पर इधर-उधर खड़े थे या किसी कोने में गोले बनाये बैठे थे या पानी के नल के पास बैठे चिउड़ा खा रहे थे।
ये सब एक ही तरह के लोग थे। मैली, फटी, उंची धोतियां या लुंगियां और उलटी, बेतुकी, सिलवटें पड़ी कमीजें या कपड़े की सिली बनियानें पहने। नंगे सिर, नंगे पैर, सिर पर छोटे-छोटे बाल। एक हाथ में पोटली और दूसरे हाथ में लाल झंडा।
बिपिन बिहारी शर्मा, मदनपुर गांव, कल्याणपुर ब्लाक, मोतिहारी, पूर्वी चंपारन आज सुबह गांव से उस समय निकले थे जब पूरब में आम के बड़े बाग के उपर सूरज का कोई अता-पता न था। सूरज की हलकी-हलकी लाली उन्हें खजुरिया चौक पहुंचने से कोई एक घंटा पहले दिखाई दी थी, जहां आकर सब जनों ने दातुन-कुल्ला किया था।
इमली, आम और नीम के बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे दुबका गांव सो रहा था। इन पेड़ों की अंधेरी परछाइयां इधर-उधर खपरैल के घरों, गलियारों, कच्ची दीवारों पर पड़ रही थीं। बड़े बरगद के पेड़ के पत्ते हवा में खड़खड़ाते तो सन्नाटा कुछ क्षण के लिए टूटता और फिर पूरे गांव को छाप कर बैठ जाता। उपर आसमान के सफेद रुई जैसे बादल उत्तर की ओर भागे चले जा रहे थे। चांद पीला पड़ चुका था और जैसे सहमकर एक कोने में चला गया था।
कुएं में किसी ने बाल्टी डाली और उसकी आवाज़ से कुएं के पास लगे नीम के पेड़ से तोतों का एक झुंड भर्रा मारकर उड़ा और गांव का चक्कर लगाता हुआ उत्तर की ओर चला गया। धीरे-धीरे इधर-उधर के बगानों से कुट्टी काटने की आवाजें आने लगीं। गंडासा चारा काटता हुआ लकड़ी से टकराता और आवाज़ दूर तक फैल जाती। कुट्टी काटने की दूर से आती आवाज़ के साघ्थ कुछ देर बाद घरों से जांता पीसने की आवाज़ भी आने लगी। कुछ देर तक यही दो आवाजें इधर-उधर मंडराती रहीं, फिर बलदेव के घर में आती बाबा बकी फटी और भारी आवाज़, 'भये प्रकट क्रिपाला दीनदयाला. . .' भी कुट्टी काटने और पीसने की आवाजों के साथ मिल गयी। अंधेरा ही था, पर कुछ परछाइयां इधर-उधर आती-जाती दिखायी पड़ने लगी थीं।
सुखवा काका की घर की ओर से एक परछाइयाँ भागी चली आ रही थी। पास आया तो दिखायी पड़ा दीनदयाला। उसने कमीज कंधे पर रखी हुई थी, एक हाथ में जूते, दूसरे में चिउड़ा की पोटली थी। माई के थान पर कई लोग लगा थे। दीनदयाला भी माई के थान पर खड़ी परछाइयों में मिल गया। नीचे टोली से 'ललकारता` रघुबीरा चला आ रहा था। अब इन लोगों की बातें करने की आवाज़ों में दूसरी आवाज़ें दब गयी थीं।
खजुरिया चौक से सिवान स्टेशन के लिए बस मिलती है, पर बस के पैसे किसके पास थे? दातुन-कुल्ला के बाद वे फिर चल पड़े थे। अब सिवार रह ही कितना गया है, बस बीस 'किलोमीटर`! बीस किलोमीटर कितना होता है। चलते-चलते रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी तो बिपिनजी कहते, 'लगाइए ललकारा।' ललकारा लगाया जाता और सुस्त पड़े पैर तेज जो जाते। ग्यारह बजते-बजते सिवान स्टेशन पहुंच गये तो गाड़ी मिलेगी। और फिर पटना।
ट्रेन दनदनाती हुई प्लेटफार्म के नजदीक आती जा रही थी। इंजन के उपर बड़ी बत्ती की तेज रोशनी में रेल की पटरियां चमक रही थी। ट्रेन पूरी गरिमा और गंभीरता के साथ नपे-तुले कदम भरती स्टेशन के अंदर घुसती चली आयी। रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी और दरवाजों पर लटके हुए आदमी प्लेटफार्म की सफेद रोशनी में नहा गये।
इंतजार करते लोगों में इधर-से-उधर तक बिजली-सी दौड़ गयी कि अगर यह ट्रेन निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली नहीं पहुंच पायेंगे। कल शाम तक उसको दिल्ली पहुंचना है, किसी भी हालत में। पोटली में बंधे मकई के सत्तू, चिउड़ा और भूजा इसी हिसाब से रखे गये हैं। ऐसा नहीं है कि दस-पन्द्रह दिन चलते रहेंगे और ऐसा भी नहीं कि गाड़ी नहीं पकड़ पाने का बहाना लेकर लौट जायेंगे। कल शाम दिल्ली जरूर पहुंचना है। सबको। हर हालत में।
ट्रेन खड़ी हो गयी। इस्पात, बिजली के तारों और लकड़ी के टुकड़ों से बनी ट्रेन एक चुनौती की तरह सामने खड़ी थी। यहां से वहां तक ट्रेन देख डाली गयी। पर बैठने क्या, खड़े होने क्या, सांस लेने तक की जगह नहीं है। सेकेंड क्लास के डिब्बे उसी तरह के लोगों से भरे हैं। उनको भी कल किसी भी हालत में दिल्ली पहुंचना है।
'अब क्या होगा बिपिनजी?' यह सवाल बिपिन बिहारी शर्मा से किसी ने पूछा नहीं, पर उन्हें लग रहा था कि हज़ारों बार पूछा जा चुका है।
'बैठना तो है ही। काहे नहीं प्रथम श्रेणी में जायें।'
प्रथम श्रेणी का लंबा-सा डिब्बा बहुत सुरक्षित है। इस्पात के दरवाजे पूरी तरह से बंद। अंदर अलग-अलग केबिनों के दरवाजे पूरी तरह से बंद।
'दरवाजा खुलवा बाबूजी!' धड़-धड़-धड़।
'बाबूजी दरवाजा खोलवा!' धड़-धड़-धड़।
'नीचे बैठ गइले बाबूजी!' धड़-धड़-धड़।
'बाबूजी दिल्ली बहुत जरूरी पहुंचना बा!' धड़-धड़-धड़।
तीन-सौ आदमी बाहर खड़े दरवाजा खोलने के लिए कह रहे थे और जवाब में इस्पात का डिब्बा हंस रहा था। समय तेजी से बीत रहा था। अगर यह गाड़ी भी निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली पहुंच सकेंगे।
'दरवाजे के पास वाली खिरकी तोरते हैं।' बिपिनजी खिड़की के पास आ गये और फिर पता नहीं कहां से आया, किसने दिया, उनके हाथ में एक लोहे का बड़ा सा टुकड़ा आ गया। पूरा स्टेशन खिड़की की सलाखें तोड़ने की आवाज़ से गूंजने लगा।
'कस के मार-मार दरवाजा तोड़े का पड़ी। हमनी बानी एक साथ मिलके चाइल जाई तो. . .' भरपूर हाथ मारने वालों में होड़ लग गयी। दो। सलाखें टूट गयीं तो उनसे भी हथौड़े का काम लिया जाने लगा।
'अरे, ये आप क्या करता हे, फर्स्ट क्लास का डिब्बा है,' काले कोट वाले बाबू ने बिपिन का हाथ पकड़ लिया। बिपिनजी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने पूरी ताकत से नारा लगाया।
'हर जोर जुल्म की टक्कर में'
तीन सौ आदमियों ने पूरी ताकत से जवाब दिया:
'संघर्ष हमारा नारा है।'
काले कोट वाले बाबू को जल्दी ही अपने दोनों कानों पर हाथ रखने पड़े।
'संघर्ष हमारा नारा है' प्रतिध्वनियां इन लोगों के चेहरों पर कांप रही थी।
काले कोट वाले बाबू को समझते देर न लगी कि स्थिति विस्फोटक है। वे लाल झंड़ों और अधनंगे शरीरों के बीच से मछली की तरह फिसलते निकल गये और सीधे स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गये।
कुछ देर बाद उधर से एक सिपाही डंडा हिलाता हुआ आया और सामने खड़ा हो गया।
'क्या तुम्हारे बाप की गाड़ी है?' सिपाही ने बिपिनजी से पूछा।
'नहीं, तुम्हारे बाप की है?' सिपाही ने बिपिन शर्मा को उपर से नीचे तक देखा। चमड़े की घिसी हुई चप्पल। नीचे से फटा पाजामा, उपर खादी का कुर्ता और कुर्ते की जेब में एक डायरी, एक कलम।
'तुम इनके नेता हो?'
'नहीं।'
'फिर कौन हो?'
'इन्हीं से पूछिए।'
सिपाही ने बिपिन बिहारी शर्मा को फिर ध्यान से देखा। उम्र यही कोई तेईस-चौबीस साल। अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं निकली है। आंखों में ठहराव और विश्वास।
'तुम्हारा नाम क्या है?'
'अपने काम से काम रखिए। हमारा नाम पूछकर क्या करेंगे?'
बातचीत सुनने के लिए भीड़ खिसक आयी थी। रामदीन हजरा ने चिउड़ा की पोटली बगल में दबाकर सोचा, यही साली पुलिस थी जिसने उसे झूठे डकैती के केस में फंसाकर पांच-सौ रुपये वसूल कर लिये थे। बलदेव तो पुलिस को मारने की बात बचपन से सोचता है। जबसे उसने अपने पिता के मुंह पर पुलिस की ठोकरें पड़ती देखी हैं, तबसे उसके मन में आता है, पुलिस को कहीं जमके मारा जाये। आज उसे मौका मिला है। उसने डंडे मे लगे झंडे को निकालकर जेब में रख लिया और अब उसके हाथ में डंडा-ही-डंडा रह गया।
'ठीक से जवाब नहीं देंगे तो तुम्हें बंद कर देंगे साले,' सिपाही ने डंडा हवा में लहराते हुए कहा।
'देखो भाई साहब, बंद तो हमें तुम कर नहीं सकते। और ये जो गाली दे रहे हैं, तो हम आपको मारे-पीटेंगे नहीं। आपको वर्दी-पेटी उतारकर वैसे ही छोड़ देंगे।'
सिपाही ने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। चारों तरफ काले, अधनंगे बदनों और लाल झंड़ों की अभेद्य दीवार थी। अब उसके सामने दो ही रास्ते थे, नरम पड़ जाता या गरम। नया-नया लगा था, गरम पड़ गया।
'मादर. . .कानून. . .' फिर पता नहीं चला कि उसकी टोपी, डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा छीनने के लिये बढ़े हों, दस हाथों ने टोपी उतारी हो, सात-आठ आदमी कमीज पर झपटे हों, तीन-चार लोगों ने जूते और मोजे उतारे हो, तो इस काम में कितना समय लगा होगा? अब सिपाही, सिपाही से आदमी बन चुका था। उसके चेहरे पर न रोब था, न दाब। सामने खड़ा था बिलकुल नंगा। इस छीना झपटी में उसकी शानदार मूंछ छोटी, बहुत अजीब लग रही थी। लोग हंस रहे थे।
पता नहीं कहा से विचार आया बहरहाल एक बड़ा-सा लाल झंडा सिपाही के मुंह और सिर पर कसकर लपेटा और फिर पतली रस्सी से पक्का करके बांध दिया गया। उसी रस्सी के दूसरे कोने से सिपाही के हाथ बांध दिये गये।
खोपड़ा और चेहरा लाल, शरीर नंगा। दु:ख, भुखमरी और जुल्म से मुरझाये चेहरों पर हंसी पहाड़ी झरनों की तरह फट पड़ी। उन चेहरों पर हंसी कितनी अच्छी लगती है, जिन पर शताब्दियों से भय, आतंक के कांटे लगे हों।
फिर सिपाही के नंगे चूतड़ पर उसी का डंडा पड़ा और वह प्लेटफार्म पर भागता चला गया।
इन मनोरंजन के बाद काम में तेजी आयी। बाकी बची दो सलाखें जल्दी ही टूट गयीं। शीशा टूटने में कितनी देर लगती है? अब रास्ता साफ था। एक लड़का बंदर की तरह खिड़की में से अंदर कूद गया। अंदर से उसने दरवाजे के बोल्ट खोल दिये।
सारे लोग जल्दी-जल्दी अंदर चढ़े। बत्ती हरी हो चुकी थी और ट्रेन रेंगने लगी थी। लंबे डिब्बे की पूरी गैलरी खचाखच भर गयी। और अब भी लोग दरवाजे के डंडे पकड़े लटक रहे थे। अब केबिन भी खुलना चाहिए। अंदर बैठने की ज्यादा जगह होगी।
बिपिनजी पहले केबिन के बंद दरवाजे के सामने आये।
'देखिए, हमने आपके डिब्बे का बड़ा लोहा वाला दरवाजा तोर दिया है, भीतर आ गइले। केबिन का दरवाजा खोल दीजिए। नहीं तो इसे तोड़ने में क्या टैम लगेगा।'
अंदर से कोई साहब नहीं आया।
'आप अपने से खोल देंगे तो हम केवल बैठभर जायेंगे। और जो हम तोर कर अंदर आयेंगे तो आप लोगों को मारेंगे भी।'
केबिन का दरवाजा खुला। धरीदार कमीज-पाजामा पहने-आदमी ने खोला था। अंदर मद्धिम नीली बत्ती जल रही थी, पर तीनों लोग जगे हुए थे और इस तरह सिमटे-सिकुड़े बैठे थे कि सीटों पर बैठने की काफी जगह हो गयी थी।
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4 राजा
उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता।
ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल। अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।
लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती 'अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!' शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।
एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, 'मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?' लोमड़ी ने उससे कहा, 'ठीक है, तुम परसों आना।' शेर चला गया।
लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।
दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।
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5 योद्धा
किसी देश में एक बहुत वीर योद्धा रहता था। वह कभी किसी से न हारा था। उसे घमंड हो गया था। वह किसी को कुछ न समझता था। एक दिन उसे एक दरवेश मिला। दरवेश ने उससे पूछा, 'तू इतना घमंड क्यों करता है?' योद्धा ने कहा, 'संसार में मुझ जैसा वीर कोई नहीं है।' दरवेश ने कहा, 'ऐसा तो नहीं है।'
योद्धा को क्रोध आ गया, 'तो बताओ पूरे संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैं हरा न सकता हूं।'
दरवेश ने कहा, 'चींटी है।'
यह सुनकर योद्धा क्रोध से पागल हो गया। वह चींटी की तलाश में निकलने ही वाला था कि उसे घोड़ी की गर्दन पर चींटी दिखाई दी। योद्धा ने चींटी पर तलवार का वार किया। घोड़े की गर्दन उड़ गई। चींटों को कुछ न हुआ। योद्धा को और क्रोध आया। उसने चींटी को ज़मीन पर चलते देखा। योद्धा ने चींटी पर फिर तलवार का वार किया। खूब धूल उड़ी। चींटी योद्धा के बाएं हाथ पर आ गई। योद्धा ने अपने बाएं हाथ पर तलवार का वार किया, उसका बायां हाथ उड़ गया। अब चींटी उसे सीने पर रेंगती दिखाई दी। वह वार करने ही वाला था कि अचानक दरवेश वहां आ गया। उसने योद्धा का हाथ पकड़ लिया।
योद्धा ने हांफते हुए कहा, 'अब मैं मान गया। बड़े से, छोटा ज्यादा बड़ा होता है।'
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6 बंदर
एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा, 'भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।'
यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला, 'चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूं।'
बंदर बोला, 'तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूं।'
इस पर आदमी तैयार हो गया।
आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला, 'भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।'
आदमी ने कहा, 'हज़ारों लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।'
बंदर रोने लगा, 'भाई, इतना अत्याचार न करो।' पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुंचा और नज़रों से ओझल हो गया।
विवश होकर बंदर लौट आया।
और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।
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7 चंद्रमा के देश में
हम दिल्ली के रहने वाले जब छोटे शहरों या कस्बों में पहुंचते हैं तो हमारे साथ कुछ इस तरह का बर्ताव किया जाता है जैसे पहले ज़माने में तीर्थयात्रा या हज से लौटकर आए लोगों के साथ होता था। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम हिंदुस्तान के दिल दिल्ली की रग-रग जानते हैं। प्रधानमंत्री से न सही तो मंत्रियों से तो मिलते होंगे। मंत्रियों से न सही तो उनके चमचों से तो टकराते ही होंगे। हमसे उम्मीद की जाती है हम अखबारों में छपी खबरों के पीछे छिपी असली खबरों को जानते होंगे। नई आने वाली विपदाओं और परिवर्तनों की जानकारी हमें होगी। हमसे लोग वह सब सुनना चाहते हैं जिसकी जानकारी हमें नहीं होगी। लेकिन मुफ़्त में मिले सम्मान से कौन मुंह मोड़ लेगा? और वह भी अगर दो-चार उल्टी-सीधी बातें बनाकर मिल सकता हो, तो फिर मैं विश्वसनीय गप्पें पूरे कस्बे में फैल जाती हैं। रात तक दूसरे शहर और अगले दिन तक राज्य में इस तरह फैलती हैं, जैसे वहीं की जमीन से निकली हों।
छुट्टियों के समय बर्बाद करने के लिए वहां कई जगहें हैं। उनमें से एक 'खादी आश्रम` भी है। चूंकि वहां के कर्मचारी फुर्सत में होते हैं। आसपास में लड़-लड़कर थक चुके होते हैं इसलिए ग्राहकों से दो-चार बातें कर लेने का मोह उन्हें बहुत शालीन बना देता है। अच्छी बात है कि गांधीजी ने खादी की तरह समय के सदुपयोग के बारे में जोर देकर कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिससे उनके अनुयायियों को समय बर्बाद करने में असुविधा महसूस हो। लेकिन समय के बारे में ऐसी कोई बात न कहकर गांधीजी ने संस्थाएं बनाने वालों के साथ जरूर अन्याय किया है, नहीं तो अब तक 'समय आश्रम` जैस कई संस्थाएं बन चुकी होतीं।
सफेद कुर्ता-पाजामाधरी युवक पान खाए था। मुझे अंदर आता देखकर उसने खादी प्रचारक से अपना वाकयुद्ध कर दिया और इत्मीनान से खादी के थान पर थान दिखाने लगा। मैं इस तरह जैसे गांधीजी के बाद दूसरा आदमी होऊँ जिसने खादी के महत्व का समझा हो, खादी देखता रहा। बीच-बीच में बातचीत होती रही। खादी आश्रम का विक्रेता कुछ देर बाद थोड़ा आत्मीय होकर बोला, 'श्रीमान, आप जैसी खादी-प्रेमी यहां कम आते हैं?'
मैं बात करने का मौका क्यों छोड़ देता। पूछा, 'कैसे?'
बोला, 'यहां तो टिंपरेरी खादी-प्रेमी आते हैं?'
'ये क्या होता है?'
'अरे मतलब यही श्रीमान कि लखनऊ वाली बस पकड़ने से पहले धड़धड़ाते हुए आए। पैंट, कमीज उतारी। सफेद कर्ता-पाजामा खरीदा। पहना। टोपी लगाई। सड़क पर आए। लखनऊ जाने वाली बस रुकवाई। चढ़ने से पहले बोले, 'शाम को पैंट-कमीज ले जाएंगे।` और सीधे लखनऊ।'
इस पर याद आया कि मरे भाई जो वकील हैं, एक बार बता रहे थे कि एक पेशेवर डाकू जो उनका मुवक्किल था, बहुत दिनों से कह रहा था कि वकील साहब हमें 'सहारा` दिला दो। खैर, तो एक दिन वह शुभ दिन आया। हमारे भाई साहब, उनके दो दोस्त और पेशेवर डाकू भाड़े की टैक्सी पर लखनऊ की तरफ रवाना हुए। जैसे ही टैक्सी लखनऊ में दाखिल होने लगी, डाकू ने टैक्सी वाले को रुकने का आदेश दिया। टैक्सी रुकी। वे लोग समझे, साले को टुट्टी-टट्टी लगी होगी। वह अपना थैला लेकर झाड़ियों के पीछे चला गया। कुछ मिनट बाद झाड़ियों के पीछ से मंत्री निकला। सिर खादी की टोपी में, पैर खादी के पाजामे में, बदन खादी के कुर्ते में। पैर गांधी चप्पल में।
इनमें से एम ने पूछा, 'ये क्या?'
'जरूरी हे। उकील साब, जरूरी है,' वह बोला।
'अमां तुम तो हमसे होशियार निकले।'
'सो तो हइये है उकील साब!'
अपना खादी-प्रेम प्रदर्शित करके और दो कुर्तों का कपड़ा बगल में इस तरह दबाए जैसे वही गांधीजी द्वारा देश के लिए छोड़ी संपूर्ण संपत्ति हो, मैं आगे बढ़ा। अब मेरा निशाना एक गृहस्थ आश्रम था।
अब छोटे शहरों में किसी भी चीज की कमी हो, वकीलों की कमी नहीं है। हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के वकील हैं। यही कारण है कि हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के लोगों के मुकदमेबाजियां हैं। कहने का मतलब यह कि वकीलों की कमी नहीं है।
इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? आप चाहें तो मोतीलाल नेहरू या जवाहरलाल नेहरू को दे सकते हैं, लेकिन मैं तो ऐसा नहीं करूंगा, क्योंकि ये हमारे वकीलों के पुरखे नहीं हो सकते। कहां तो उनके विलायत से धुलकर कपड़े आते थे और कहां ये विलायत से मंगवाकर कपड़े धोते हैं। इतने अंतर के कारण इन्हें किसी और का ही जांनशीन कहा जाना चाहिए। ये फैसला आप करें, क्योंकि वकीलों के लिए किसी पर मानहानि का मुकदमा दाग देना उतना ही आसान है, जितना हमारे आपके लिए एक सिगरेट सुलगा लेना।
वकील साहब का घर यानी 'गृहस्थ आश्रम` नजदीक था। छके हुए वकील हैं। छके हुए शब्दों के दो अर्थ हैं। पतला मतलब खूब खाए-पिए, मोटे-ताजे, तंदुरुस्त। दूसरा मतलब परेशान, सताए गए, थके हुए। कहते हैं कि यार यह काम करते-करते मैं छक गया। तो वकील साहब दूसरी तरह के छके हुए आदमी हैं। उर्दू के इम्तहानात यानी 'अदीब` वगैरा पास करके बी.ए. किया था। फिर अलीगढ़ से एल.एल.बी। उसके बाद की पढ़ाई यानी जो असली पढ़ाई थी, यानी मजिस्ट्रेटों और जजों को कैसे काबू किया जाए। ये न पढ़ सके थे। इसीलिए जीवन के इम्तहान में फेल हो गए थे।
मैं उनके घर पहुंचा तो खुश हो गए। मुझमें उम्र में आठ-दल साल बड़े हैं इसका हम दोनों को एहसास है। और इसका ख्याल करते हैं। फिर वकील साब को अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। अपनी जिंदगी में अब तक ये काम कर चुके हैं: खेती करवा चुके हैं, भट्टे लगवा चुके हैं, अनाज की मंडी लगवा चुके हैं, मोजे बुनवाने का काम किया है, पावरलूम लगवा चुके हैं, डेरी खोल चुके हैं और आपकी दुआ से इन सब कामों में इन्हें घाटा हो चुका है। सब काम बंद हो चुके हैं। कुछ कर्ज अब तक चुका रहे हैं। कुछ का चुक चुका है। अब आपको जिज्ञासा होगी कि ऐसे हालात में वकील साहब की गाड़ी कैसी चल रही है। वकील साहब के पिताश्री ने उनको किराए की तीन दुकानें और एक मकान एक तरह छोड़े हैं कि वकील साहब को ये लगता ही नहीं कि वालिद मरहूम हकीकत में मरहूम हो चुके हैं। इसके अलावा वकील साहब कचहरी रोज जाते हैं तो दस-बीस रुपया बन ही जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि खाली हाथ आए। अरे दो दरख्वास्तें ही लिख दीं तो दस रुपये हो गए।
'आओ. . .कब आए?'
'परसों। जी वो. . .'
'खैर छोड़ो. . .सुनाओ दिल्ली के क्या हाल हैं।'
फिर वही दिल्ली। अरे आप लोग दिल्ली को छोड़ क्यों नहीं देते। ये क्यों नहीं कहते कि दिल्ली जाए चूल्हे भाड़ में, यहां के हाल सुनो!
'कोई खास बात नहीं।'
'बिजली तो आती होगी?'
'हां, बिजली हो आती है।'
'यहां तो साली दिन-दिन-भर नहीं आती। सुनते हैं इधर की बिजली काटकर दिल्ली सप्लाई कर देते हैं।'
'हां जरूर होता होगा।'
'होगा नहीं, है। इधर के पढ़े-लिखे लोग नौकरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर के मजदूर मजदूरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर का माल बिकने दिल्ली जाता है।'
'दिल्ली से अधर कुछ नहीं आता?' मैंने हंसकर पूछा।
'हां आता है. . .आदेश. . .हुक्म. . .और तुम कह रहे हो दिल्ली में कोई खास बात नहीं है। अरे मैं तुम्हें गारंटी देता हूं कि दिल्ली में वक्त हर कहीं कोई-न-कोई खास बात होती रहती है।'
'और आप आजकल क्या कर रहे हैं?'
'मियां, सोचते है। एक इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल खोल दें। बताओ कैसा आइडिया है? दिल्ली में तो बड़े-बड़े इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।'
'लेकिन. . .'
उन्होंने मेरी बात काटी, 'लेकिन क्या,' वे शेर की तरह बमके। मैं समझ गया कि वे मन-ही-मन इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने की बात ठान चुके हैं।
'क्या कुछ इस्कोप है?'
'इस्कोप-ही-स्कोप है। आज शहर में आठ इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल हैं। सब खचाखच भरे रहते हैं। सौ रुपया महीने से कम कहीं फीस नहीं लगती। सौ बच्चे भी आ गए तो फीस-ही-फीस के दस हज़ार महीना हो गए। टीचरें रख लो आठ-दस। उनको थोड़ा बहुत दिया जाता है।. . .मकान-वकान का किराया निकालकर सात-आठ हज़ार रुपया महीना भी मुनाफा रख लो तो इतनी आमदनी और किस धंधे से होगी? और फिर दो टीचर तो हम घर ही के लोग हैं।'
'घर के, कौन-कौन?'
'अरे मैं और सईद।'
उनको चूंकि अपना बड़ा मानता हूं और चूंकि वे मेरा हमेशा खयाल करते हैं, इसलिए दिल खोलकर हंसने की ख्वाहिश दिल ही में रह गई। वकील साहब को अगर छोड़ भी दें तो उनके सुपुत्र सईद मियां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हुए मुझे कल्पना में ऐसे लगे जैसे भैंस उड़ रही हो। पेड़ की जड़ें उपर हों और डालियां जमीन के अंदर। मतलब ऐसा लगता है, जैसे उसे दुनिया का आठवां अजूबा मान लिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं, पूरे-के-पूरे बेल्ट में अंग्रेजी की जो हालत है, किसी से छिपी नहीं है। यह अच्छा है या बुरा, यह अपने-आप में डिबेटेबुल प्वाइंट हो सकता है। लेकिन 'एम` को 'यम`, 'एन` को 'यन` और 'वी` को 'भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।
यह तो हुई सबकी हालत। इसकी तुलना में सईद मियां की हालत सोने पर सुहागे जैसी है। जब पढ़ाते थे तब अंग्रेजी का नाम सुनते ही किसी नए नाथे गए बछड़े की तरह बिदकते थे और 'ग्रामर` का नाम सुनते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम नहीं नहीं हो जाया करती थी, खून खुश्क हो जाया करता था। कुछ शब्द तो उन पर गोली से ज्यादा असर करते थे, जैसे 'पंक्चुएशन`, 'डायरेक्ट इनडायरेक्ट टेंस`, 'फिल इन द ब्लैंक्स`। अंग्रेजी के अध्यापक को वे कसाई और आपको बकरा समझते थे।
सईद मियां को इंटर में अंग्रेजी के पर्चे में तीन सवाल नकल करते ही लगा था, जैसे एवरेस्ट फतह कर ली हो। उसके बाद कहां अंग्रेजी और कहां सईद मियां वे हथेली पर सरसों जमाना न जानते थे। होगी दुनिया में धूम-अपने ठेंगे पर।
वकील साहब ने फिर प्वाइंट क्लीयर किया, 'भई हमें इन इंग्लिस स्कूल वालों का सिस्टम अच्छा लगा। रटा दो लौंडों को। दे दो सालों को होम वर्क। मां-बाप कराएं, नहीं तो टीचर रखें। हमारे ठेंगे से। होम वर्क पूरा न करता हो तो मां-बाप को खींच बुलवाओ और समझाओ कि मियां बच्चे को अंग्रेजी मिडीयम में पढ़वा रहे हो, हंसी-मजाक नहीं है। फिर कसकर फीस लो। आज इस नाम से, तो कल उस नाम से। बिल्डिंग फंड, फर्नीचर फंड, पुअर फंड, टीचर फंड और स्कूल फंड. . .' वे हंसने लगे।
'हां, ये बात तो है।'
'अरे भइ भूल ही गया. . .चाय. . .लेकिन चाय तो तुम पीते ही रहते होंगे. . .बेल का शरबत पियोगे?'
जी में आया कि कहं, हुजूर, अब तो बियर पिलाइए। कहां इंग्लिश मीडियम, कहां बेल का शरबत।
बेल का शरबत आने से पहले आए सईद मिया। उन्हें देखते ही वकील साहब खुश हो गए, बोले, ' आओ आओ, बैठो। स्कूल के बारे में ही बात कर रहे हैं।'
मैंने सईद मियां के चेहरे पर वह सब कुछ देख लिया जो उनके बारे में लिखा जा चुका है।
'जी!' उन्होंने छोटा-सा जवाब दिया और बैठ गए। वकील साहब इस बात पर यकीन करने वाले आदमी हैं कि बच्चों को खिलाओ सोने का निवाला, पर देखो शेर की निगाह से। तो उन्होंने सईद मियां को हमेशा शेर की निगाह से देखा है और सईद मियां ने 'अकबर` इलाहाबादी के अनुसार 'अब काबिले जब्ती किताबें` पढ़ ली हैं और 'बाप को खब्ती` समझते हैं।
लेकिन सईद मिया खब्ती बाप से बेतहाशा डरते हैं। वकील साब इसे कहते हैं, लड़का सआदतमंद है। लेकिन इधर कुछ साल से इस सआदतमंदी में कुछ कमी आ रही है। दरअसल चक्कर यह है कि वकील साहब ने बेटों को चकरघिन्नी की तरह नचाया है। एक तो बेटे का पूरा कैरियर ही 'शानदार` था, दूसरे वकील साहब की रोज-रोज बनती-बिगड़ती योजनाओं ने सईद मियां को बुरी तरह कन्फ़्यूज़ कर रखा है। वकील साहब ने कभी उन्हें कम्प्यूटर साइंटिस्ट, कभी चार्टर्ड एकाउंटेंट, कभी एक्सपोर्टर वगैरा बनाने की ऐसी कोशिश की कि सईद मियां कुछ न बन सके।
'अब तुम कोई अच्छा-सा नाम बताओ स्कूल के लिए। यहां तो यही सिटी मांटेसरी, इंग्लिस मिडियम पब्लिक नाम चलते हैं। लेकिन नाम अंग्रेजी में होना चाहिए. . .वो मुझे पसंद नहीं कि स्कूल तो इंग्लिश मिडियम है लेकिन नाम पक्का हिंदी का है।' वे मेरी तरफ देखने लगे, 'अरे दिल्ली में तो बहुत इंग्लिस मीडियम स्कूल होंगे. . .उनमें से दो-चार के नाम बताओ।'
फिर आ गई दिल्ली। मैंने मन में दिल्ली को मोटी-सी गाली दी और दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के नाम सोचने लगा।
'ज़रा माडर्न फैशन के नाम होना चाहिए,' वे बोले।
मैंने सोचकर कहा, 'टाइनी टॉट।'
'टाइनी टॉट? ये क्या नाम हुआ? नहीं नहीं, ये तो बिलकुल नहीं चलेगा. . .अरे मियां, कोई समझेगा ही नहीं। अब तो कमस खुदा की, मैं भी नहीं समझा टाइनी क्या बला है। क्यों सईद मियां, क्या ख्य़ाल है?'
सईद मियां गर्दन इनकार में हिलाने लगे और और बोले, 'चचा, यहां तो सिटी मांटेसरी और इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल ही समझते हैं और वो. . .' उनकी बात काटकर वकील साहब बोले, 'वो भी हिंदी में लिखा होना चाहिए।'
'टोडलर्स डेन,' फिर मैंने मजाक में कहा, 'रख लीजिए।'
इस पर तो वकील साहब लोटने लगे। हंसते-हंसते उनके पेट में बल पड़ गए। बोले, 'वा भई वाह. . .क्या नाम है. . .जैसे मुर्गी का दड़बा।'
अब सईद मियां की तरफ मुड़े, 'तुम अंग्रेजी की प्रैक्टिस कर रहे हो?'
'जी हां।'
'क्या कर रहे हो?'
'प्रेजेंट, पास्ट और 'फ़्यूचर टेंस याद कर रहा हूं।'
'पिछले हफ़्ते भी तुमने यही कहा था। अच्छी तरह समझ लो कि मैं स्कूल में एक लफ़्ज़ भी हिंदी या उर्दू का नहीं बर्दाश्त करूंगा।'
'जी हां,' सईद मियां बोले।
'बच्चों से तो अंग्रेजी में बता कर सकते हो?'
'क्यों नहीं कर सकता. . .जैसे ये सिटी व इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल, जो शहर का टॉप इंग्लिस स्कूल है, की टीचरें बच्चों से अंग्रेजी में बात करती हैं, वैसे तो कर सकता हूं।'
'ये कैसे?' मैंने पूछा।
'अरे चचा, कापी में लिख लेती हैं। पहले सवाल लिखती हैं जो बच्चों को रटा देती हैं। जैसे बच्चों से कहती हैं अगर तुमको बाथरूम जाना है तो कहा, 'मैम में आई गो टु बाथरूम।` जब बच्चे उनसे पूछते हैं तो वे कापी में देखकर जवाब दे देती हैं।'
'लेकिन इस सवाल का जवाब देने के लिए तो कापी में देखने की जरूरत नहीं है।'
'चचा, यह तो एग्जांपल दी है। करती ऐसा ही हैं।'
'अच्छा जनाब, एडमीशन के लिए जो लोग आएंगे, उनसे भी आपको अंग्रेजी ही में बातचीत करनी पड़ेगी।' मुझे लगा वकील साहब और सईद मियां के बीच रस्साकशी हो रही है। इस सवाल पर सईद मियां थोड़ा कसमसाए, फिर बोले, 'हां अगर वो लोग अंग्रेजी में बोले तो मैं भी अंग्रेजी में बोलूंगा।' वकील साहब जवाब सुनकर सकते में आ गए। सब जानते हैं कि इस शहर में जो लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मिडियम स्कूल में दाखिल कराने आएंगे, वे अंग्रेजी नहीं बोल सकते।
'यही तो तुम्हारी गलती है. . .तुम अपना सब काम दूसरों के हिसाब से करते हो. . .अरे तुम्हें क्या. . .वे चाहे बोले, चाहे न बोलो. . .तुम अपना अंग्रेजी पेलते रहो. . .साले समझें तो कहां आ गए हैं।'
'यानी चाहे समझ में आए न आए?'
'बिलकुल।'
'तो ठीक है, यही सही,' सईद मियां का चेहरा खिंच गया।
कुछ देर बाद वकील नरम होकर बोले, 'अब ऐसा भी कर देना कि साले भाग ही जाएं।'
'नहीं-नहीं, भाग क्यों जाएंगे।'
वकील साहब ने बताया कि उनके जमाने में हिंदी-इंग्लिश ट्रांसलेशन में इस तरह के जुमले दिए जाते थे, जैसे आज बाजार में जूता चल गया, या वह चप्पल लेकर नौ-दो ग्यारह हो गया। फिर वकील साहब ने कहा, 'मैं यह भी सोचता हूं कि सईद मियां को टीचिंग में न डालूं. . .इन्हें वाइस प्रिंसिपल बना दूं।'
'क्यों?' मैंने पूछा।
'अरे भाई स्कूल में पांच-छ: लड़कियां पढ़ाएंगी. . .ये उनके बीच कहां घुसेंगे।' मैं पूरी बात समझ गया। सईद मियां भी समझ गए और झेंप गए।
शर्बत आने के बाद वकील साहब बातचीत को स्कूल के नाम की तरफ घसीट लाए। वे चाहते थे, ये मसला मेरे सामने ही तय हो जाए। सेंट पॉल, सेंट जांस, सेंट कोलंबस जैसे नाम उन्हें पसंद तो आए, पर डर यही था कि यहां उन नामों को कोई समझेगा नहीं। स्थानीय लोगों के अज्ञान पर रोते हुए वकील साहब बोले, 'अमां मिया धुर गंवार. . .साले गौखे . . .ये लोग क्या जानें सेंट क्या होता है. . .घुर गंवार. . .मैली-चिक्कट धोती और गंदा सलूका, पांव में चमरौधा जूता- मुंह उठाये चलते जाते हैं। हिंदी तक बोलनी नहीं आती, लेकिन कहते हैं, 'बबुआ का इंगरेजी इस्कूल में पढ़ावा चहत हन। टेंट में दो-तीन हज़ार के नोट दाबे रहता है. . .अब तुम ही बताओ, मुनाफे का धंधा हुआ कि न हुआ?'
'बिलकुल हुआ।'
रात उपर आसमान में तारे-ही-तारे थे। चांदनी फैली हुई थी। रात की रानी की महक बेरोक-टोक थी। अच्छी-खासी तेज़ हवा न चल रही होती तो मच्छर इस सुहावनी रात में फिल्मी खलनायकों जैसा आचरण करने लगते। बराबर में सबकी चारपाइयां बिछी थीं। सब सो रहे थे। रात का आखिरी पहर था। मैं वकील साहब से जिरह कर रहा था, 'आप ये क्यों नहीं समझते कि पूरी दुनिया में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है।'
'मुझे क्या मतलब लोगों से, क्या मतलब मातृभाषा से. . .ये तो धंधा है. . .धंधा। हर आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़वाना चाहता है।'
'लेकिन क्यों?'
'अंग्रेजी तो पानी है. . .जैसे बिन पानी सब सून है. . .वैसे ही बिन अंग्रेजी सब कुछ सूना है।'
'लेकिन ऐसा है क्यों?'
'अंग्रेज़ी हम लोगों के हुक्मरानों की जबान है।'
'क्या अब भी कोई हमारे उपर शासन करता है?'
वकील साहब जोर से हंसे, 'तुम यही नहीं जानते?'
मैंने दिल में कहा, 'जानता हूं पर मानता नहीं।`
वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ इस तरह बोलने लगे जैसे उनका एक-एक वाक्य पत्थर पर खिंची लकीर जैसा सच हो- 'अंग्रेजी से आदमी की इज्जत होती है. . .'रुतबा. . .पोजीशन. . .पावर. . .जो इज्जत तुम्हें अंग्रेजी बोलकर मिलेगी वह हिंदी या उर्दू या दीगर हिंदुस्तानी जुबानें बोलकर मिलेगी?' उन्होंने सवाल किया।
'हां मिलेगी. . .आज न सही तो कल मिलेगी।'
हवा के झोंकों ने मच्छरों को फिर तितर-बितर कर दिया। रात की रानी की महक दूर तक फैल गयी। पूरब में मीलों दूर 'सूर्य के देश में` सुबह हो चुकी होगी।
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8 हरिराम और गुरु-संवाद
(1)
गुरु : तुम्हारा जीवन बर्बाद हो गया हरिराम!
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : तुम जीभी चलाना न सीख सके!
हरिराम : पर मुझे तलवार चलाना आता है गुरुदेव!
गुरु : तलवार से गरदन कटती है, पर जीभ से पूरा मनुष्य कट जाता है।
(2)
गुरु : हरिराम, भीड़ में घुसकर तमाशा देखा करो।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए की भीड़ में घुसकर तमाशा न देख सके तो खुद तमाशा बन जाओगे!
(3)
हरिराम : क्रांति क्या है गुरुदेव?
गुरु : क्रांति एक चिड़िया है हरिराम!
हरिराम : वह कहां रहती है गुरुदेव!
गुरु : चतुर लोगों की ज़ुबान पर और सरल लोगों के दिलों में।
हरिराम : चतुर लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके गीत गाते हैं और समय आने पर उसे चबा जाते हैं।
हरिराम : और सरल लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : वह उनके हाथ कभी नहीं आती।
(4)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक हड्डी के लिए दो भूखे कुत्ते लड़ रहे हों तो उन्हें देखकर एक सरल आदमी क्या करेगा?
गुरु : बीच-बचाव कराएगा।
हरिराम : और चतुर आदमी क्या करेगा?
गुरु : हड्डी लेकर भाग जाएगा।
हरिराम : और राजनीतिज्ञ क्या करेगा?
गुरु : दो भूखे कुत्ते वहां और छोड़ देगा।
(5)
हरिराम : आदमी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक प्रकार का जानवर है हरिराम!
हरिराम : यह जानवर क्या करता है गुरुदेव?
गुरु : यह विचारों का निर्माण करता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों के महल बनाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर उनमें विचरता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों को खा जाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर नए विचारों का निर्माण करता है।
(6)
हरिराम : संसार क्या है गुरुदेव?
गुरु : एक चारागाह है हरिराम!
हरिराम : उसमें कौन चरता है?
गुरु : वही चरता है जिसके आंखें होती हैं।
हरिराम : आंखें किसके होती हैं गुरुदेव?
गुरु : जिसके जीभ होती है।
हरिराम : जीभ किसके होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास बुद्धि होती है।
हरिराम : बुद्धि किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास दुम होती है।
हरिराम : दुम किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसे दुम की इच्छा होती है।
(7)
गुरु : हरिराम, बताओ सफलता का क्या रहस्य है?
हरिराम : कड़ी मेहनत गुरुदेव!
गुरु : नहीं।
हरिराम : बुद्धिमानी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : ईमानदारी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : प्रेम?
गुरु : नहीं।
हरिराम : फिर सफलता का क्या रहस्य है गुरुदेव?
गुरु : असफलता।
(8)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक सुंदर स्त्री के पीछे दो प्रेमी लड़ रहे हों तो स्त्री को क्या करना चाहिए।
गुरु : तीसरे प्रेमी की तलाश।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए कि स्त्री के पीछे लड़ने वाले प्रेमी नहीं हो सकते।
(9)
हरिराम : सबसे बड़ा दर्शन क्या है गुरुदेव?
गुरु : हरिराम, सबसे बड़ा दर्शन चाटुकारिता है।
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : इस तरह कि चाटुकार बड़े-से-बड़े दर्शन को चाट जाता है।
(10)
हरिराम : ईमानदारी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक भयानक जानलेवा बीमारी का नाम है।
हरिराम : क्या ये बीमारी हमारे देश में भी होती है?
गुरु : हरिराम, बहुत पहले प्लेग, टी.बी. और हैजे की तरह इसका भी कोई इलाज न था। तब ये हमारे देश में फैलती थी और लाखों लोगों को चट कर जाती थी।
हरिराम : और अब गुरुदेव?
गुरु : अब उस दवा का पता चल गया है, जिसके कारण यह बीमारी रोकी जा सकती है।
हरिराम : उस दवा का क्या नाम है गुरुदेव?
गुरु : आज बच्चे-बच्चे की जुबान पर उस दवा का नाम है लालच।
***-***
9 स्विमिंग पूल
मुझे लग रहा था कि जिसका मुझे डर था, वही होने जा रहा है। और अफसोस यह कि मैं कोशिश भी करूं तो उसे रोक नहीं सकता। मैंने कई प्रयत्न किए कि पत्नी मेरी तरफ देख लें ताकि इशारे-ही-इशारे में उन्हें खामोश रहने का इशारा कर दूं, लेकिन वे लगातार वी.आई.पी. से बातें किए जा रही थीं! मेरे सामने कुछ दूसरे अतिथि खड़े थे, जिन्हें छोड़कर मैं एकदम से पत्नी और वी.आई.पी. की तरफ नहीं जा सकता था। प्रयास करता हुआ जब तक मैं वहां पहुंचा तो पत्नी वी.आई.पी. से 'उसी` के बारे में बात कर रही थीं। धाराप्रवाह बोल रही थीं। मैं शर्मिंदा हुआ जा रहा था। जब मुझसे खामोश न रहा गया तो बोला, 'अरे छोड़ो, ठीक हो जाएगा।'
पत्नी गुस्से में बोली, 'आपको क्या है, सुबह घर से निकल जाते हैं तो रात ही में वापस आते हैं। जो दिन-भर घर में रहता हो उससे पूछिए कि क्या गुज़रती है।'
यह कहकर पत्नी फिर 'उसके` बारे में शुरू हो गईं। मैं दिल-ही-दिल में सोचने लगा कि पत्नी पागल नहीं हो, हद दर्जे की बेवकूफ जरूर है जो इतने बड़े, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली वी.आई.पी. से शिकायत भी कर रही है तो ये कि देखिए हमारे घर के सामने नाला बहता है, उसमें से बदबू आती है, उसमें सुअर लौटते हैं, उसमें आसपास वाले भी निगाह बचाकर गंदगी फेंक जाते है।, नाले को कोई साफ नहीं करता। सैंकड़ों बार शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी हैं। एक बार तो किसी ने मरा हुआ इतना बड़ा चूहा फेंक दिया था। वह पानी में फूलकर आदमी के बच्चे जैसा लगने लगा था।
यह सच है कि हमने घर के सामने वाले नाले की शिकायतें सैकड़ों बार दर्ज कराई हैं। लेकिन नाला साफ कभी नहीं हुआ। उसमें से बदबू आना कम नहीं हुई। जब हम लोग शिकायतें करते-करते थक गए तो ऐसे परिचितों से मिले जो इस बारे में मदद कर सकते थे, यानी कुछ सरकारी कर्मचारी या नगरपालिका के सदस्य या और दूसरे किस्म के प्रभावशाली लोग। लेकिन नाला साफ नहीं हुआ। हमारे यहां जो मित्र लगातार आते हैं, वे नाला-सफाई कराने संबंधी पूरी कार्यवाही से परिचित हो गए हैं। सब जानते हैं कि इस बारे में उपराज्यपाल को दो रजिस्टर्ड पत्र जा चुके हैं। इसके बारे में एक स्थानीय अखबार में फोटो सहित विवरण छप चुका है। इसके बारे में महानगरपालिका के दफ़्तर में जो पत्र भेजे गए हैं उनकी फ़ाइल इतनी मोटी हो गई है कि आदमी के उठाए नहीं उठती, आदि-आदि।
वी.आई.पी. को घर बुलाने से पहले भी मुझे डर था कि पत्नी कहीं उनसे नाले का रोना न लेकर बैठ जाएं। क्योंकि मैं उनकी मानसिक हालत समझता था, इसलिए मैंने उन्हें समझाया था कि देखो नाला-वाला छोटी चीज़ें हैं, वह वी.आई.पी. के बाएं हाथ का भी नहीं, आंख के इशारे का काम है। ये काम तो उनके यहां आने की खबर फैलते ही, अपने-आप हो जाएगा। लेकिन इस वक्त पत्नी सब कुछ भूल चुकी थीं। मजबूरन मुझे भी वी.आई.पी. के सामने 'हां` 'हूं` करनी पड़ रही थी। आखिरकार वी.आई.पी. ने कहा कि यह चिंता करने की कोई बात नहीं है।
वी.आई.पी. के आश्वासन के बाद ही पत्नी कई साल के बाद ठीक से सो पाईं। उन्हें दोस्तों और मोहल्ले वालों ने बधाई दी कि आखिर काम हो ही गया।
वी.आई.पी. के आश्वासन से हम लोग इतने आश्वस्त थे कि एक-दो महीने तो हमने नाले के बारे में सोचा ही नहीं, उधर देखा ही नहीं। नाला हम सबको कैंसर के उस रोगी जैसा लगता था जो आज न मरा तो कल मर जाएगा।. . .कल न सही तो परसों. . .पर मरना निश्चित है। धीरे-धीरे नाला हमारी बातचीत से बाहर हो गया।
जब कुछ महीने गुज़र गए तो पत्नी ने महानगर पालिका को फोन किया। वहां से उत्तर मिला कि नाला साफ किया जाएगा। फिर कुछ महीने गुज़रे, नाला वैसे का वैसा ही रहा। पत्नी ने वी.आई.पी. के ऑफिस फोन किए। वे इतने व्यस्त थे, दौरों पर थे, विदेशों में थे कि संपर्क हो ही नहीं सका।
महीनों बाद जब वी.आई.पी. से संपर्क हुआ तो उन्हें बहुत आत्मविश्वास से कहा कि काम हो जाएगा। चिंता मत कीजिए। लेकिन यह उत्तर मिले छ: महीने बीत गए तो पत्नी के धैर्य का बांध टूटने लगा। वे मंत्रालय से लेकर दीगर दफ़्तरों के चक्कर काटने लगीं। इस मेज से उस मेज तक। उस कमरे से इस कमरे तक। सिर्फ 'हां` 'हां` 'हां` 'हां` जैसे आश्वासन मिलते रहे, लेकिन हुआ कुछ नहीं।
एक दिन जब मैं ऑफिस से लौटकर आया तो पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में बहुत-से फल बहते देखे हैं। मैंने कहा, 'किसी ने फेंके होंगे।'
इस घटना के दो-चार दिन बाद पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में किताबें बहती देखी हैं। यह सुनकर मैं डर गया। लगा शायद पत्नी का दिमाग हिल गया है, लेकिन पत्नी नार्मल थीं।
फिर तो पत्नी ही नहीं, मोहल्ले के और लोग भी नाले में तरह-तरह की चीजें बहती देखने लगे। किसी दिन जड़ से उखड़े पेड़, किस दिन चिड़ियों के घोंसले, किसी दिन टूटी हुई शहनाई।
एक दिन देर से रात गए घर आया तो पत्नी बहुत घबराई हुई लग रही थीं। बोली, 'आज मैंने वी.आई.पी. को नालें में तैरते देखा था। वे बहुत खुश लग रहे थे। नाले में डुबकियां लगा रहे थे। हंस रहे थे। किलकारियां मार रहे थे। उछल-कूद रहे थे, जैसा लोग स्विमिंग पूल में करते हैं!'
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10 ज़ख्म़
बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे 'गर्मी बहुत बढ़ गयी है` या 'अबकी पानी बहुत बरसा` जैसी खबरें सुनी जाती हैं। दंगों की खबर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा 'कर्फ़्यूग्रस्त` हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम-काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर आते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्राय: हाशिए पर ही छाप देते हैं। हां, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती है, नहीं तो सामान्य।
यह भी एक स्वस्थ परंपरा-सी बन गयी है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा होने के तुरंत बात न करके सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातांत्रिक तरीके से काम करने में समय लगता है क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी का प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी एक तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नया कमेटी बनायी जाती है जिसका काम सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है। अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतांत्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाये, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतांत्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिंदी, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतांत्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिंदी, मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकाशप्राप्त एक लेफ़्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अल्पसंख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुसलमान हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिंदू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में उनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे और बड़े-बड़े पदों पर आसीन या अवकाशप्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।
एक दिन सो कर उठा और हस्बे-दस्तूर आंखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी 'पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गये। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।` पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्माबपुरे में भी हुआ है। कस्माबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने ही शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की एक दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे 'कान्टैक्ट` हो। कोई रास्ता नहीं था, न फोन, न कर्फ़्यूपास और न कुछ और।
मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूं, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा था और फिर अपने पुश्तैनी सिलाई के धंधे में लग गया था। मैं उससे बहुत बाद में मिला था। उस वक्त जब मैं हिंदी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहां मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हैदर हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब ये कि बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर का मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शाम को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते ही दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोला कि मुख्तार भी 'बिरादर` है। 'बिरादर` का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में 'बिरादर` का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।
शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार बराबर पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो शेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गयी होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और और वहां 'स्टूडेंट्स फेडरेशन` की राजनीति करने के कारण थोड़ा पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें 'कायदे आजम` कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह पाकिस्तान के बनने और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर वह गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।
मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गयी थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रहा था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद 'चुस्की` लगाई जायेगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और चार 'चार की प्यालियां` लेकर हम बैठ गये। बातचीत घूम-फिर कर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। 'कायदे आजम` की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, 'ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया?'
'इसलिए कि मुसलमान वहां रहेंगे,' वह बोला।
'मुसलमान तो यहां भी रहते हैं।'
'लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।'
'तुम पाकिस्तान तो गये हो?'
'हां, गया हूं।'
'वहां और यहां क्या फर्क है?'
'बहुत बड़ा फर्क है।'
'क्या फर्क है?'
'वो इस्लामी मुल्क है।'
'ठीक है, लेकिन ये बताओ कि वहां गरीबों-अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहां है? क्या वहां रिश्वत नहीं चलती? क्या वहां भाई-भतीजावाद नहीं है? क्या वहां पंजाबी-सिंधी और मोहाजिर 'लीजिंग` नहीं है? क्या पुलिस लोगों को फंसाकर पैसा नहीं वसूलती?' मुख्तार चुप हो गया। उमांशकर बोले, 'हां, बताओ. . .अब चुप काहे हो गये?' मुख्तार ने कहा, 'हां, ये सब तो वहां भी है लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।'
'यार, वहां डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ?'
'अमें छोड़ो. . .क्या औरतें वहां पर्दा करती हैं? बैंक तो वहां भी ब्याज लेते-देते होंगे. . .फिर काहे की इस्लामी मुल्क।' उमाशंकर ने कहा।
'भइया, इस्लाम 'मसावात` सिखाता है. . .मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी?'
मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, 'और वहां क्या है मुसलमानों के लिए? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली, भिवण्डी- कितने नाम गिनाऊँ. . .मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोड़े हों।'
'हां, तुम ठीक कहते हो।'
'मैं कहता हूं ये फसाद क्यों होते हैं?'
'भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराये जाते हैं।'
'कराये जाते हैं?'
'हां भाई, अब तो बात जग जाहिर है।'
'कौन कराते हैं?'
'जिन्हें उससे फायदा होता है।'
'किन्हें उससे फायदा होता है?'
'वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट मांगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।
'कैसे?'
'देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिंदुस्तान में हिंदुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम-जन्मभूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसा हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जायेगा? उनका तो वजूद ही खत्म हो जायेगा। इस तरह समझ लो कि किसी शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान की कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर को अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।'
वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, 'और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।'
'कैसे?'
'अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता. . .उसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहे तो सरकार से क्या लड़ेंगे? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है तो तीसरा फायदा उन लोगों को पहुंचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी में फसाद इसकी मिसालें हैं।'
ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय का होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई वीरान-सी पुलिया- बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है। अगर सामने वाले को बीच बहस में लग गया कि आप उसे जाहिल समझते हैं, उसका मजाक उड़ा रहे हैं, उसे कम पढ़ा-लिखा मान रहे हैं, तो बहस कका कभी कोई अंत नहीं होता।
उस जमाने में मुख्तार उर्दू के अखबारों और रिसालों का बड़ा भयंकर पाठक था। शहर में आने वाला शायद ही ऐसा कोई उर्दू अखबार, रिसाला, डाइजेस्ट हो जो वह न पढ़ता हो। इतना ज्यादा पढ़ने की वजह से उसे घटनायें, तिथियां और बयान इस कदर याद हो जाते थे कि बहस में उन्हें बड़े आत्मविश्वास के साथ 'कोट` करता रहता था। एक दिन उसने मुझे उर्दू के कुछ रिसालों और अखबारों का एक पुलिंदा दिया और कहा कि इन्हें पढ़कर आओ तो बहस हो। उर्दू में सामान्यत: जो राजनीतिक पर्चे छपते हैं, उनके बारे में मुझे हल्का-सा इल्म था। लेकिन मुख्तार के दिये रिसाले जब ध्यान से पढ़े तो भौंचक्का रह गया। इन परचों में मुसलमानों के साथ होने वाली ज्यादतियों को इतने भयावह और करुण ढंग से पेश किया गया था कि साधारण पाठक पर उनका क्या असर होगा, यह सोचकर डर गया। मिसाल के तौर पर इस तरह के शीर्षक थे 'मुसलमानों के खून से होली खेली गयी` या 'भारत में मुसलमान होना गुनाह है` या 'क्या भारत के सभी मुसलमानों को हिंदू बनाया जायेगा` या 'तीन हजार मस्जिदें, मन्दिरबना ली गयी हैं।` उत्तेजित करने वाले शीर्षकों के नीचे खबरें लिखने का जो ढंग था वह भी बड़ा भावुक और लोगों को मरने-मारने या सिर फोड़ लेने पर मजबूर करने वाला था।
वह दो-चार दिन बाद मिला तो बड़ा उतावला हो रहा था। बातचीत करने के लिए बोला, 'तुमने पढ़ लिये सब अखबार?'
'हां, पढ़ लिये।'
'क्या राय है. . .अब तो पता चला कि भारत में मुसलमानों के साथ क्या होता है। हमारी जान-माल, इज्जत-आबरू कुछ भी महफूज़ नहीं है।'
'हां, वो तो तुम ठीक कहते हो. . .लेकिन एक बात ये बताओ कि तुमने जो रिसाले दिये हैं वो फिरकापरस्ती को दूर करने, उसे खत्म करने के बारे में कभी कुछ नहीं लिखते?'
'क्या मतलब?' वह चौंक गया।
'देखो, मैं मानता हूं मुसलमानों के साथ ज्यादती होती है, दंगों में सबसे ज्यादा वही मारे जाते हैं। पी.ए.सी. भी उन्हें मारती है और हिंदू भी मारते हैं। मुसलमान भी मारते हैं हिंदुओं को। ऐसा नहीं है कि वे चुप बैठे रहते हों. . .।'
'हां, तो कब तक बैठे रहे? क्यों न मारें?' वह तड़पकर बोला।
'ठीक है तो वो तुम्हें मारें तुम उनको मारो. . .फिर ये रोना-धोना कैसा?'
'क्या मतलब है तुम्हारा?'
'मेरा मतलब है इसी तरह मारकाट होती रही तो क्या फिरकापरस्ती खत्म हो जायेगी?'
'नहीं, नहीं खत्म होगी।'
'और तुम चाहते हो, फिरकापरस्ती खत्म हो जाये?'
'हां।'
'तो ये अखबार, जो तुमने दिये, क्यों नहीं लिखते कि फिरकापरस्ती कैसे खत्म की जा सकती है?'
'ये अखबार क्यों नहीं चाहते होंगे कि फिरकापरस्ती खत्म हो?'
'ये तो वही अखबार वाले बता सकते हैं। जहां तक मैं समझता हूं ये अखबार बिकते ही इसलिए हैं कि इनमें दंगों की भयानक दर्दनाक और बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गयी तस्वीरें होती हैं। अगर दंगे न होंगे तो ये अखबार कितने बिकेंगे।'
मेरी इस बात पर वह बिगड़ गया। उसका कहना था कि ये कैसे हो सकता है कि मुसलमानों के इतने हमदर्द अखबार ये नहीं चाहते कि दंगे रुकें, मुसलमान चैन से रहें, हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद बने।
कुछ महीनों की लगातार बातचीत के बाद हम लोगों के बीच कुछ बुनियादी बातें साफ हो चुकी थीं। उसे सबसे बड़ी दिलचस्पी इस बात में पैदा हो गयी थी कि दंगे कैसे रोके जा सकते हैं। हम दोनों ये जानते थे कि दंगे पुलिस, पी.ए.सी. प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो सिर्फ लोग रोक सकते हैं।
'लेकिन लोग तो दंगे के जमाने में घरों में छिपकर बैठ जाते हैं।' उसने कहा।
'हां, लोग इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं क्योंकि दंगा करने वालों के मुकाबले वो मुत्तहिद नहीं हैं. . .अकेला महसूस करते हैं अपने को. . .और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। जबकि दंगा करने वो 'आरगेनाइज` होते हैं. . .लेकिन जरूरी ये है कि दंगों के खिलाफ जिन लोगों को संगठित किया जाये उनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हों. . .और उनके ख्यालात इस बारे में साफ हों।'
'लेकिन ये काम करेगा कौन?'
'हम ही लोग, और कौन?'
'लेकिन कैसे?'
'अरे भाई, लोगों से बातचीत करके. . .मीटिंगें करके. . .उनको बता-समझाकर . . .मैं कहता हूं शहर में हिंदू-मुसलमानों का अगर दो सौ ऐसे लोगों का ग्रुप बन जाये जो जान पर खेलकर भी दंगा रोकने की हिम्मत रखते हों तो दंगा करने वालों की हिम्मत परस्त हो जायेगी। तुम्हें मालूम होगा कि दंगा करने वाले बुजदिल होते हैं। वो किसी 'ताकत` से नहीं लड़ सकते। अकेले-दुकेले को मार सकते हैं, आग लगा सकते हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि सामने ऐसे लोग है। जो बराबर की ताकत रखते हैं, उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, तो दंगाई सिर पर पैर रखकर भाग जायेंगे।'
वह मेरी बात से सहमत था और हम अगले कदम पर गौर करने की स्थिति में आ गये थे। मुख्तार इस सिलसिले में कुछ नौजवानों से मिला भी था।
कुछ साल के बाद हम दिल्ली में फिर साथ हो गये। मैं दिल्ली में धंधा कर रहा था और वह कनाट प्लेस की एक दुकान में काम करने लगा था और जब दिल्ली में दंगा हुआ और ये पता चला कि कस्साबपुरा भी बुरी तरह प्रभाव में है तो मुझे मुख्तार की फिक्र हो गयी। दूसरी तरफ मुख्तार के साथ जो कुछ घटा वह कुछ इस तरह था।. . .शाम का छ: बजा था। वह मशीन पर झुका काम कर रहा था। दुकान मालिक सरदारजी ने उसे खबर दी कि दंगा हो गया है और उसे जल्दी-से-जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए।
पहाड़गंज में बस रोक दी गयी थी। क्योंकि आगे दंगा हो रहा था। पुलिस किसी को आगे जाने भी नहीं दे रही थी। मुख्तार ने मुख्य सड़क छोड़ दी और गलियों और पिछले रास्तों से आगे बढ़ने लगा। गलियां तक सुनसान थीं। पानी के नलों पर जहां इस वक्त चांव-चांव हुआ करती थी, सिर्फ पानी गिरने की आवाज आ रही थी। जब गलियों में लोग नहीं होते तो कुत्ते ही दिखाई देते हैं। कुत्ते ही थे। वह बचता-बचाता इस तरह आगे बढ़ता रहा कि अपने मोहल्ले तक पहुंच जाये। कभी-कभार और कोई घबराया परेशान-सा आदमी लंबे-लंबे कदम उठाता इधर से उधर जाता दिखाई पड़ जाता। एक अजीब भयानक तनाव था जैसे ये इमारतें बारूद की बनी हुई हों और ये सब अचानक एक साथ फट जायेंगे। दूर से पुलिस गाड़ियों से सायरन की आवाजें भी आ रही थीं। कस्साबपुरे की तरफ से हल्का-हल्का धुआं आसमान में फैल रहा था। न जाने कौन जल रहा होगा, न जाने कितने लोगों के लिए संसार खत्म हो गया होगा। न जाने जलने वालों में कितने बच्चे, कितनी औरतें होंगी। उनकी क्या गलती होगी? उसने सोचा अचानक एक बंद दरवाजे के पीछे से किसी औरत की पंजाबी में कांपती हुई आवाज गली तक आ गयी। वह पंजाबी बोल नहीं पाता था लेकिन समझ लेता था। और कह रही थी, बबलू अभी तक नहीं लौटा। मुख्तार ने सोचा, उसके बच्चे भी घर के दरवाजे पर खड़े झिर्रियों से बाहर झांक रहे होंगे। शाहिदा उसकी सलामती के लिए नमाज पढ़ रही होगी। भइया छत पर खड़े गली में दूर तक देखने की कोशिश कर रहे होंगे। छत पर खड़े एक-दो और लोगों से पूछ लेते होंगे कि मुख्तार तो नहीं दिखाई दे रहा है। उसके दिमाग में जितनी तेजी से ये ख्याल आ रहे थे उतनी तेज उसकी रफ़्तार होती जाती थी। सामने पीपल के पेड़ से कस्साबपुरा शुरू होता है और पीपल का पेड़ सामने ही है। अचानक भागता हुआ कोई आदमी हाथ में कनस्तर लिये गली में आया और मुख्तार को देखकर एक पतली गली में घुस गया। अब मुख्तार को हल्का-हल्का शोर भी सुनाई पड़ रहा था। पीपल के पेड़ के बाद खतरा न होगा, क्योंकि यहां से मुसलमानों की आबादी शुरू होती थी। ये सोचकर मुख्तार ने दौड़ना शुरू कर दिया। पीपल के पेड़ के पास पहुंचकर मुड़ा और उसी वक्त हवा में उड़ती कोई चीज उसके सिर से टकराई और उसे लगा कि सिर आग हो गया है। दहकता हुआ अंगारा। उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और भागता रहा। उसे ये समझने में देर नहीं लगी कि एसिड का बल्ब उसके सिर पर मारा गया है। सर की आग लगातार बढ़ती जा रही थी और वह भागता जा रहा था। उसे लगा कि वह जल्दी ही घर न पहुंच गया तो गली में गिरकर बेहोश हो जायेगा और वहां गिरने का नतीजा उसकी लाश पुलिस ही उठाएगी। दोनों बच्चों के चेहरे उसकी नजरों में घूम गये।
दंगा खत्म होने के बाद मैं मुख्तार को देखने गया। उसके बाल भूरे जैसे हो गये थे और लगातार गिरते थे। सिर की खाल बुरी तरह जल गयी थी और ज़ख्म़ हो गये थे। एसिड का बल्ब लगने के बराबर ही भयानक दुर्घटना ये हुई थी कि जब वह घर पहुंचा था तो उसे पानी से सिर नहीं धोने दिया गया था। सबने कहा था कि पानी मत डालो। पानी डालने से बहुत गड़बड़ हो जायेगी। और वह खुद ऐसी हालत में नहीं था कि कोई फैसला कर सकता। आठ दिन कर्फ्यू चला था और जब वह डॉक्टर के पास गया था तो डॉक्टर ने उसे बताया था कि अगर वह फौरन सिर धी लेता तो इतने गहरे ज़ख्म़ न होते।
दंगे के बाद साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए सम्मेलन किये जाने की कड़ी में इन दंगों में तीन महीने बाद सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में मैंने सोचा मुख्तार को ले चलना चाहिए। उसे एक दिन की छुट्टी करनी पड़ी और हम दोनों राजधानी की वास्तविक राजधानी- यानी राजधानी का वह हिस्सा जहां चौड़ी साफ सड़कें, सायादार पेड़, चमचमाते हुए फुटपाथ, उंचे-उंचे बिजली के खम्बे और चिकनी-चिकनी इमारते हैं और वैसे ही चिकने-चिकने लोग हैं। मुख्तार भव्य इमारत में घुसने से पहले कुछ हिचकिचाया, लेकिन मेरे बहादुरी से आगे बढ़ते रहने की वजह से उसमें कुछ हिम्मत आ गयी और हम अंदर आ गये। अंदर काफी चहल-पहल थी। विश्वविद्यालयों के छात्र, अध्यापक, संस्थानों के विद्वान, बड़े सरकारी अधिकारी, दफ़्तरों में काम करने वाले लोग, सभी थे। उनमें से अधिकतर चेहरे देखे हुए थे। वे सब वामपंथी राजनीति या उसके जन-संगठनों में काम करने वाले लोग थे। कहां कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, रंगकर्मी और संगीतज्ञ भी थे। पूरी भीड़ में मुख्तार जैसे शायद ही चन्द रहे हों या न रहे हों, कहा नहीं जा सकता।
अंदर मंच पर बड़ा-सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` लिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किये गये सम्मेलन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफेद कागज चिपकाकर नयी तारीखें लिख दी गयी थीं। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया। पिछले सम्मेलन के एक आयोजक से सम्मेलन के बाद मेरी कुछ बातचीत हुई थी और मैंने कहा था कि दिल्ली के सर्वथा भद्र इलाके में सम्मेलन करने तथा ऐसे लोगों को ही सम्मेलन में बुलाने का क्या फायदा है जो शत-प्रतिशत हमारे विचारों से सहमत हैं। इस पर आयोजक ने कहा था कि सम्मेलन मजदूर बस्तियों, घनी आबादियों तथा उपनगरीय बस्तियों में भी होंगे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उसके बाद ऐसा हुआ हो।
हाल में सीट पर बैठकर मुख्तार ने मुझसे यही बात कही। वह बोला 'इनमें तो हिंदु भी हैं और मुसलमान भी।'
मैंने कहा, 'हां!'
वह बोला, 'अगर ये सम्मेलन कस्साबपुरा में करते तो अच्छा था। वहां के मुसलमान ये मानते ही नहीं कि कोई हिंदू उनसे हमदर्दी रख सकता है।'
'वहां भी करेंगे. . .लेकिन अभी नहीं।' तभी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। संयोजक ने बात शुरू करते हुए साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती हुई ताकत तथा उसके खतरों की ओर संकेत किया। यह भी कहा कि जब तक साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक जनवारी शक्तियां मजबूत नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि अब सब संगठित होकर साम्प्रदायिक रूपी दैत्य से लडेंगे। इस पर लोगों ने जोर की तालियां बजायीं और सबसे पहले अल्पसंख्यकों के विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को बोलने के लिए आमंत्रित किया। उप-कुलपति आई.ए.एस. सर्विसेज में थे। भारत सरकार के उंचे ओहदों पर रहे थे। लंबा प्रशासनिक अनुभव था। उनकी पत्नी हिंदू थी। उनकी एक लड़की ने हिंदू लड़के से विवाह किया था। लड़के की पत्नी अमरीकन थी। उप-कुलपति के प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष होने में कोई संदेह न था। वे एक ईमानदार और प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने अपने भाषण में बहुत विद्वत्तापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिकता की समस्या का विश्लेषण किया। उसके खतरनाक परिणामों की ओर संकेत किये और लोगों को इस चुनौती से निपटने को कहा। कोई बीस मिनट तक बोलकर वे बैठ गये। तालियां बजीं।
मुख्तार ने मुझसे कहा, 'प्रोफेसर साहब की समझ तो बहुत सही है।'
'हां, समझ तो उन सब लोगों की बिलकुल सही है जो यहां मौजूद हैं।'
'तो फिर?'
तब तक दूसरे वक्ता बोलने लगे थे। ये एक सरदार जी थे। उनकी उम्र अच्छी-खासी थी। स्वतंत्रता सेनानी थे और दसियों साल पहले पंजाब सरकार में मंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने बचपन, अपने गांव और अपने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख दोस्तों के संस्मरण सुनाये। उनके भाषण के दौरान लगभग लगातार तालियां बजती रहीं। फिर उन्होंने दिल्ली के हालिया दंगों पर बोलना शुरू किया।
मुख्तार ने मेरे कान में कहा, 'सरदार जी दंगा कराने वालों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? बच्चा-बच्चा जानता है दंगा किसने कराया था।'
मैंने कहा, 'बचपने वाली बातें न करो। दंगा कराने वालों के नाम ले दिये तो वे लोग इन पर मुकदमा ठोक देंगे।'
'तो मुकदमे के डर से सच बात न कही जाये?'
'तुम आदर्शवादी हो। आइडियलिस्ट. . .।'
'ये क्या होता है?' मुख्तार बोला।
'अरे यार, इसका मकसद दंगा कराने वालों के नाम गिनाना तो है नहीं।'
'फिर क्या मकसद है इनका?'
'बताना कि फिरकापरस्ती कितनी खराब चीज है और उसके कितने बुरे नतीजे होते हैं।'
'ये बात तो यहां बैठे सभी लोग मानते हैं। जब ही तो तालियां बजा रहे हैं।'
'तो तुम क्या चाहते हो?'
'ये दंगा करने वालों के नाम बतायें।' मुख्तार की आवाज तेज हो गई। वह अपना सिर खुजलाने लगा।
'नाम बताने से क्या फायदा होगा?'
'न बताने से क्या फायदा होगा?'
स्वतंत्रता सेनानी का भाषण जारी था। वे कुछ किये जाने पर बोल रहे थे। इस पर जोर दे रहे थे कि इस लड़ाई को गलियों और खेतों में लड़ने की जरूरत है। स्वतंत्रता सेनानी के बाद एक लेखक को बोलने के लिए बुलाया गया। लेखक ने साम्प्रदायिकता के विरोध में लेखकों को एकजुट होकर संघर्ष करने की बात उठाई।
'तुम मुझ एक बात बताओ,' मुख्तार ने पूछा।
'क्या?'
'जब दंगा होता है तो ये सब लोग क्या करते हैं?'
मैं जलकर बोला, 'अखबार पढ़ते हैं, घर में रहते हैं और क्या करेंगे?'
'तब तो इस जुबानी जमा-खर्च का फायदा क्या है?'
'बहुत फायदा है, बताओ?'
'भाई, एक माहौल बनता है, फिरकापरस्ती के खिलाफ।'
'किन लोगों में? इन्हीं में जो पहले से ही फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं? तुम्हें मालूम है दंगों के बाद सबसे पहले हमारे मोहल्ले में कौन आये थे?'
'कौन?'
'तबलीगी जमात और जमाते-इस्लामी के लोग. . .उन्होंने लोगों को आटा-दाल, चावल बांटा था, उन्होंने दवाएं भी दी थीं। उन्होंने कर्फ्यू पास भी बनवाये थे।'
'तो उनके इस काम से तुम समझते हो कि वे फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं।'
'हों या न हों, दिल कौन जीतेगा. . .वही जो मुसीबत के वक्त हमारे काम आये या जो. . .'
मैं उसकी बात काटकर बोला, 'खैर बाद में बात करेंगे, अभी सुनने दो।'
कुछ देर बाद मैंने उससे कहा, 'बात ये है यार कि इन लोगों के पास इतनी ताकत नहीं है कि दंगों के वक्त बस्तियों में जायें।'
'इनके पास उतनी ताकत नहीं है और जमाते इस्लामी के पास है?'
मैं उस वक्त उसके इस सवाल का जवाब न दे पाया। मैंने अपनी पहली ही बात जारी रखी, 'जब इनके पास ज्यादा ताकत आ जायेगी तब ये दंगाग्रस्त इलाकों में जा सकेंगे, काम कर सकेंगे।'
'उतनी ताकत कैसे आयेगी?'
'जब ये वहां काम करेंगे।'
'पर अभी तुमने कहा कि इनके पास उतनी ताकत ही नहीं है कि वहां जा सकें. . .फिर काम कैसे करेंगे?'
'तुम कहना क्या चाहते हो?'
'मतलब यह है कि इनके पास इतनी ताकत नहीं है कि ये दंगे क बाद या दंगे के वक्त उन बस्तियों में जा सकें जहां दंगा होता है, और ताकत इनके पास उसी वक्त आयेगी जब ये वहां जाकर काम करेंगे. . .और जा सकते नहीं।'
'यार, हर वक्त दंगा थोड़ी होता रहता है, जब दंगा नहीं होता तब जायेंगे।'
'अच्छा ये बताओ, जमाते इस्लामी के मुकाबले इन लोगों को कमजोर कैसे मान रहे हो. . .इनके तो एम.पी. हैं, दो तीन सूबों में इनकी सरकारें हैं, जबकि जमाते इस्लामी का तो एक एम.पी. भी नहीं।'
मैं बिगड़कर बोला, 'तो तुम ये साबित करना चाहते हो कि ये झूठे, पाखंडी, कामचोर और बेईमान लोग हैं?'
'नहीं, नहीं, ये तो मैंने बिलकुल नहीं कहा!' वह बोला।
'तुम्हारी बात से मतलब तो यही निकलता है।'
'नही, मेरा ये मानना नहीं है।'
मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगा, 'यार, बात दरअसल ये है कि हम लोग खुद मानते हैं कि काम जितनी तेजी से होना चाहिए, नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन पक्के तरीके से हो रहा है। उसमें टाइम तो लगता ही है।'
'तुम ये मानते होगे कि फिरकापरस्ती बढ़ रही है।'
'हां।'
'तो ये धीरे-धीरे जो काम हो रहा है उनका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है, हां फिरकापरस्ती जरूरी दिन दूनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रही है।'
'अभी बाहर निकलकर बात करते हैं।' मैंने उसे चुप करा दिया।
इस बीच चाय सर्व की गयी। आखिरी वक्ता ने समय बहुत जो जाने और सारी बातें कह दी गयी हैं, आदि-आदि कहकर अपना भाषण समाप्त कर दिया। हम दोनों थोड़ा पहले ही बाहर निकल आये। सड़क पर साथ-साथ चलते हुए वह बोला, 'कोई ऐलान तो किसी को करना चाहिए था।'
'कैसा ऐलान?'
'मतलब ये है कि अब ये किया जायेगा, ये होगा।'
'अरे भाई, कहा तो गया कि जनता के पास जायेंगे, उसे संगठित और शिक्षित किया जायेगा।'
'कोई और ऐलान भी कर सकते थे।'
'क्या ऐलान?'
'प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।' उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, 'ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?'
वह मेरे आगे झुका। कुछ बोला नहीं। उसने अपने सिर के बाल हटाये। मेरे सामने लाल-लाल जख्म थे जिसे ताजा खून रिस रहा था।
***-***
11 मुश्किल काम
जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई। मीटिंग की जगह आदर्श थी यानी शराब का ठेका- जिसे सिर्फ चंद साल पहले से ही 'मदिरालय` कहा जाने लगा था, वहां दोनों गिरोह जमा थे, पीने-पिलाने के दौरान किसी भी विषय पर बात हो सकती है, तो बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि।
मदिरालय में कभी कोई झूठ नहीं बोलता यानी वहां कही गयी बात अदालत में गीता या कुरान पर हाथ रखकर खायी गयी कसम के बराबर होती है, इसलिए यहां जो कुछ लिखा जा रहा है, सच है और सच के सिवा कुछ नहीं है। खैरियत खैरसल्ला पूछने के बाद बातचीत इस तरह शुरू हुई। पहले गिरोह के नेता ने कहा 'तुम लोग तो जन्खे हो, जन्खे. . .हमने सौ दुकानें फूंकी हैं।' दूसरे ने कहा, 'उसमें तुम्हारा कोई कमाल नहीं है। जिस दिन तुमने आग लगाई, उस दिन तेज हवा चल रही थी. . .आग तो हमने लगाई थी जिसमें तेरह आदमी जल मेरे थे।'
बात चूंकि आग में आदमियों पर आयी थी, इसलिए पहले ने कहा, 'तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं।' दूसरा बोला, 'छब्बीस मत कहो।'
'क्यों?'
'तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं।'
यह सुनकर पहला हंसा। उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, 'गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?'
'हां।'
'नहीं, ये गलत है।' पहला गरजा।
'कैसे?'
'औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है।'
'लेकिन वे होती कमजोर हैं।'
'तुम नहीं जानते औरतें कितनी जोर से चीखती हैं. . .और किस तरह हाथ-पैर चलाती हैं. . .उस वक्त उनके शरीर में पता नहीं कहां से ताकत आ जाती है. . .'
'खैर छोड़ो, हमने कुल बाइस मारे हैं. . .आग में जलाये इसके अलावा हैं।' दूसरा बोला।
पहले ने पूछा, 'बाईस में बूढे कितने थे?'
'झूठ नहीं बोलता. . .सिर्फ आठ थे।'
'बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?'
'तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?'
'चलो, चार बूढ़ों को एक जवान के बराबर गिन लूंगा।'
'ये तो अंधेर कर रहे हो।'
'अबे अंधेर तू कर रहा है. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तू हमारी बराबरी कर रहा है।'
दूसरा चिढ़ गया, बोला, 'तो अब तू जबान ही खुलवाना चाहता है क्या?'
'हां-हां, बोल बे. . .तुझे किसने रोका है।'
'तो कह दूं सबके सामने साफ-साफ?'
'हां. . .हां, कह दो।'
'तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?'
'तूने कभी रिक्शेवालों, मजदूरों को मारा है?'
'नहीं. . .मैंने कभी नहीं मारा।' वह झूठ बोला।
'अबे, तूने रिक्शे वालों, झल्ली वालों और मजदूरों को मारा होता तो ऐसा कभी न कहता।'
'क्यों?'
'पहले वे हाथ-पैर जोड़ते हैं. . .कहते हैं, बाबूजी, हमें क्यों मारते हो. . हम तो हिंदू हैं न मुसलमान. . .न हम वोट देंगे. . .न चुनाव में खड़े होंगे. . .न हम गद्दी पर बैठेंगे. . .न हम राज करेंगे. . .लेकिन बाद में जब उन्हें लग जाता है कि वो बच नहीं पायेंगे तो एक-आध को ज़ख्म़ी करके ही मरते हैं।'
दूसरे ने कहा, 'अरे, ये सब छोड़ो. . .हमने जो बाईस आदमी मारे हैं. . .उनमें दस जवान थे. . कड़ियल जवान. . . '
'जवानों को मारना सबसे आसान है।'
'कैसे? ये तुम कमाल की बात कर रहे हो!'
'सुनो. . .जवान जोश में आकर बाहर निकल आते हैं उनके सामने एक-दो नहीं पचासों आदमी होते हैं. . .हथियारों से लैस. . .एक आदमी पचास से कैसे लड़ सकता है?. . .आसानी से मारा जाता है।'
इसके बाद 'मदिरालय` में सन्नाटा छा गया, दोनों चुप हो गये। उन्होंने कुछ और पी, कुछ और खाया, कुछ बहके, फिर उन्हें धयान आया कि उनका तो आपस में कम्पटीशन चल रहा था।
पहले ने कहा, 'तुम चाहो जो कहो. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तुमने बाईस. . .'
'नहीं, यह गलत है. . .तुमने हमसे ज्यादा नहीं मारे।' दूसरा बोला।
'क्या उल्टी-सीधी बातें कर रहे हो. . .हम चार नंबरों से तुमसे आगे हैं।'
दूसरे ने ट्रम्प का पत्ता चला, 'तुम्हारे छब्बीस में बच्चे कितने थे?'
'आठ थे।'
'बस, हो गयी बात बराबर।'
'कैसे?'
'अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना।'
'नहीं बेटा, नहीं. . .ये बात नहीं है. . . तुम अनाड़ी हो।'
दूसरा ठहाका लगाकर बोला, 'अच्छा तो बच्चों को मारना बहुत कठिन है?'
'हां।'
'कैसे?'
'बस, है।'
'बताओ न . . '
'बताया तो. . .'
'क्या बताया?'
'यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल।'
'लेकिन क्यों?'
'इसलिए कि बच्चों को मारते वक्त. . .'
'हां. . .हां, बोलो रुक क्यों गये?'
'बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं।'
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12 होज वाज पापा
अस्पताल की यह उंची छत, सफेद दीवारों और लंबी खिड़कियों वाला कमरा कभी-कभी 'किचन` बन जाता है। 'आधे मरीज` यानी पीटर 'चीफ कुक` बन जाते हैं और विस्तार से यह दिखाया और बताया जाता है कि प्रसिद्ध हंगेरियन खाना 'पलचिंता` कैसे पकाया जाता है। पीटर अंग्रेजी के चंद शब्द जानते हैं। मैं हंगेरियन के चंद शब्द जानता हूं। लेकिन हम दोनों के हाथ, पैर, आंखें, नाक, कान हैं जिनसे इशारों की तरह भाषा 'ईजाद` होती है और संवाद स्थापित ही नहीं होता दौड़ने लगता है। पीटर मुझे यह बताते हैं कि अण्डे लिये, तोड़े, फेंटे, उसमें शकर मिलाई, मैदा मिलाया, एक घोल तैयार किया। 'फ्राईपैन` लिया, आग पर रखा, उसमें तेल डाला। तेल के गर्म हो जाने के बाद उसमें एक चमचे से घोल डाला। उसे फैलाया और पराठे जैसा कुछ तैयार किया। फिर उसे बिना चमचे की सहायता से 'फ्राइपैन` पर उछाला, पलटा, दूसरी तरफ से तला और निकाल लिया। पीटर ने मजाक में यह भी बताया था कि उनकी पत्नी जब 'पलचिंता` बनाने के लिए मैदे का 'पराठा` 'फ्राइपैन` को उछालकर पलटती हैं तो 'पराठा` अक्सर छत में जाकर चिपक जाता है। लेकिन पीटर 'एक्सपर्ट` हैं, उनसे ऐसी गलती नहीं होती।
पीटर का पूरा नाम पीटर मतोक है। उनकी उम्र करीब छियालीस-सैंतालीस साल है। लेकिन देखने में कम ही लगते हैं। वे बुदापैश्त में नहीं रहते। हंगेरी में एक अन्य शहर पॉपा में रहते हैं और वहां के डॉक्टरों ने इन्हें पेट की किसी बीमारी के कारण राजधानी के अस्पताल में भेजा है। यहां के डॉक्टर यह तय नहीं कर पाये हैं कि पीटर का वास्तव में ऑपरेशन किया जाना चाहिए या वे दवाओं से ही ठीक हो सकते हैं। यानी पीटर के टेस्ट चल रहे हैं। कभी-कभी डॉक्टर उनके चेहरे और शरीर पर तोरों का ऐसा जंगल उगा देते हैं कि पीटर बीमार लगने लगते हैं। लेकिन कभी-कभी तार हटा दिये जाते हैं तो पीटर मरीज ही नहीं लगते। यही वजह है कि मैं उन्हें आधे मरीज के नाम से याद रखता हूं। पीटर 'सर्वे` करने वाले किसी विभाग में काम करते हैं। उनकी एक लड़की है जिसकी शादी होने वाली है। एक लड़का है जो बारहवीं क्लास पास करने वाला है। पीटर की पत्नी एक दफ़तर में काम करती हैं। पीटर कुछ साल पहले किसी अरब देश में काम करते थे। ये सब जानकारियां पीटर ने मुझे खुद ही दी थीं। यानी अस्पताल में दाखिल होते ही उनकी मुझसे दोस्ती हो गयी थी। पीटर मुझे सीधे-सादे, दिलचस्प, बातूनी और 'प्रेमी` किस्म के जीव लगे थे। पीटर का नर्सों से अच्छा संवाद था। मेरे ख्याल से कमउम्र नर्सों को वे अच्छी तरह प्रभावित कर दिया करते थे। उन्हें मालूम था कि नर्सों के पास कब थोड़ा-बहुत समय होता है जैसे ग्यारह बजे के बाद और खाने से पहले या दो बजे के बाद और फिर शाम सात बजे के बाद वे किसी-न-किसी बहाने से किसी सुंदर नर्स को कमरे में बुला लेते थे और गप्पशप्प होने लगती थी। जाहिर है वे हंगेरियन में बातचीत करते थे। मैं इस बातचीत में अजीब विचित्र ढंग से भाग लेता था। यानी बात को समझे बिना पीटर और नर्सों की भाव-भंगिमाएं देखकर मुझे यह तय करना पड़ता था कि अब मैं हंसूं या मुस्कराऊँ या अफसोस जाहिर करूंगा 'हद हो गयी साहब` जैसा भाव चेहरे पर लाऊँ या 'ये तो कमाल हो गया` वाली शक्ल बनाऊँ? इस कोशिश में कभी-कभी नहीं अक्सर मुझसे गलती हो जाया करती थी और मैं खिसिया जाया करता था। लेकिन ऑपरेशन, तकलीफ, उदासी और एकांत के उस माहौल में नर्सों से बातचीत अच्छी लगती थी या उसकी मौजूदगी ही मजा देती थी। पीटर ने मरे पास भारतीय संगीत के कैसेट देख लिये थे। अब वे कभी-कभी शाम सात-आठ बजे के बाद किसी नर्स को सितार, शहनाई या सरोद सुनाने बुला लाते थे। बाहर हल्की-हल्की बर्फ गिरती होती थी। कमरे के अंदर संगीत गूंजता था और कुछ समय के लिए पूरी दुनिया सुंदर हो जाया करती थी।
पीटर के अलावा कमरे में एक मरीज और थे। जो स्वयं डॉक्टर थे और 'एपेण्डिसाइटिस` का ऑपरेशन कराने आये थे। पीटर को जितना बोलने का शौक था इन्हें उतना ही खामोश रहने का शौक था। वे यानी इमैर अंग्रेजी अधिक जानते थे। मेरे और पीटर के बीच जब कभी संवाद फंस या अड़ जाता था तो वे खींचकर गाड़ी बाहर निकालते थे। लेकिन आमतौर पर वे खामोश रहना पसंद करते थे।
मैं कोई दस दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुआ था। मेरा ऑपरेशन होना था। लेकिन एक जगह एक, एक ही किस्म का ऑपरेशन अगर बार-बार किया जाये तो ऑपरेशन पर से विश्वास उठ जाता है। मेरी यही स्थिति थी। मैं सोचता था, दुनिया में सभी डॉक्टर 'ऑपरेशन` प्रेमी होते हैं और खासतौर पर मुझे देखते ही उनके हाथ 'मचलने` लगता है। लेकिन बहुत से काम 'आस्थाहीनता` की स्थिति में भी किए जाते हैं। कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। तो मैं भर्ती हुआ था। तीसरे दिन ऑपरेशन हुआ था। पर सच बताऊँ आपरेशन में उम्मीद के खिलाफ काफी मजा आया था। ये डॉक्टरों, 'टेक्नोलॉजी` का कमाल था या इसका कारण पिछले अनुभव थे, कुछ कह नहीं सकता। लेकिन पूरा ऑपरेशन ख्वाब और हकीकत का एक दिलचस्प टकराव जैसा लगा था। पूरे ऑपरेशन के दौरान मैं होश में था। लेकिन वह होश कभी-कभी बेहोशी या गहरी नींद में बदल जाता था। उपर लगी रोशनियां कभी-कभी तारों जैसी लगने लगती थीं। डॉक्टर परछाइयों जैसे लगते थे। आवाजें बहुत दूर से आती सरगोशियों जैसी लगती थीं। औजारों की आवाजें कभी 'खट` के साथ कानों से टकराती थीं। और कभी संगीत की लय जैसी तैरती हुई आती थीं। कभी लगता था कि यह आपरेशन बहुत लंबे समय से हो रहा है और फिर लगता कि नहीं, अभी शुरू ही नहीं हुआ। कुछ सेकेण्ड के लिए पूरी चेतना एक गोता लगा लेती थी और फिर आवाजें और चेहरे धुंधले होकर सामने आते थे। जैसी पानी पर तेज हवा ने लहरें पैदा कर दी हों। एक बहुत सुंदर महिला डॉक्टर मेरे सिरहाने खड़ी थीं। उसका चेहरा कभी-कभी लगता था पूरे दृश्य में 'डिज़ाल्व` हो रहा है और सिर्फ उसका चेहरा-ही-चेहरा है चारों तरफ बाकी कुछ नहीं है। इसी तरह उसकी आंखें भी विराट रूप धरण कर लेती थीं। कभी यह भी लगता था कि यहां जो कुछ हो रहा है उसका मैं दर्शक मात्र हूं।
जिस तरह तूफान गुजर जाने के बाद ही पता चलता है कि कितने मकान ढहे, कितने पेड़ गिरे, उसी तरह ऑपरेशन के बाद मैंने अपने शरीर को 'टटोला` तो पाया कि इतना दर्द है कि बस दर्द-ही-दर्द हे। यह हालत धीरे-धीरे कम होती गयी लेकिन ऑपरेशन के बाद मैंने 'रोटी सुगंध` का जो मजा लिया वह जीवन में पहले कभी न लिया था। चार दिन तक मेरा खाना बंद था। गैलरी में जब खाना लाया जाता था तो 'जिम्ले` ;एक तरह की पाव रोटी की खुशबू मेरी नाक में इस तरह बस जाती थी कि निकाले न निकलती थी। चार दिन के बाद वही रोटी जब खाने को मिली तब कहीं जाकर उस सुगंध से पीछा छूटा।
जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, एक ही जगह पर एक ऑपरेशन बार-बार किये जाने के क्रम में यह दूसरा ऑपरेशन था। डॉक्टरों ने कहा था कि इसकी प्रगति देखकर वे अगला ऑपरेशन करेंगे। फिर अगला और फिर अगला और फिर . . .तंग आकर मैंने उसके बारे में सोचना तक छोड़ दिया था।
पीटर मेरे ऑपरेशन के बाद दाखिल हुए थे या कहना चाहिए जब मैं दूसरे ऑपरेशन की प्रतीक्षा कर रहा था तब पीटर आये थे और उनके टेस्ट वगैरा हो रहे थे। आखिरकार उनसे कह दिया गया कि वे दवाओं से ठीक हो सकते हैं। पीटर बहुत खुश हो गये थे। उन्होंने जल्दी-जल्दी सामान बांध था और बाकायदा मुझसे गले-वले मिल गये थे। इमरे तो उससे पहले ही जा चुके थे। इन दोनों के चले जाने के बाद मैं कमरे में अकेला हो गया था, लेकिन अकेले होने का सुख बड़े भयंकर ढंग से टूटा। यानी मुझे सरकारी अस्पताल के कमरे में दो दिन तक अकेले रहने की सजा मिली। यानी तीसरे दिन मेरे कमरे में एक बूढ़ा मरीज आ गया था। देखने में करीब सत्तर के आसपास का लगता था। लेकिन हो सकता है ज्यादा उम्र रही हों। वह दोहरे बदन का था। उसके बाल बर्फ जैसे सफेद थे। चेहरे का रंग कुछ सुर्ख था। आंखें धुंधली और अंदर को धंसी हुई थीं। जाहिर है कि वह अंग्रेजी नहीं जानता था। वह देखने में खाता-पीता या सम्पन्न भी नहीं लग रहा था। लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि उसके आते ही एक अजीब अजीब किस्त की तेज बदबू ने कमरे में मुस्तकिल डेरा जैसा जैसा जमा लिया था। मैं बूढ़े के आने से परेशान हो गया था। लगा कि शायद मैं नापसंद करता हूं, यह नहीं चाहता कि वह इस कमरे में रहे। लेकिन जाहिर है कि मैं इस बारे में कुछ न कर सकता था। सिर्फ उसे नापसंद कर सकता था और दिल-ही-दिल में उससे नफरत कर सकता था। उसकी अपेक्षा कर सकता था या उसके वहां रहने से लगातार बोर होता रह सकता था। फिर यह भी तय था कि अभी मुझे अस्पताल कम-से-कम बीस दिन और रहना है। यह बूढ़ा भी ऑपरेशन के लिए आया होगा और उसे भी लंबे समय तक रहना होगा। मतलब उसके साथ मुझे बीस दिन गुजारने थे। अगर मैं उससे घृणा करने लगता तो बीस दिन तक घृणित व्यक्ति के साथ रहना बहुत मुश्किल हो जाता। इसलिए मैंने सोचा कम-से-कम उससे घृणा तो नहीं करनी चाहिए। आदमी है बूढ़ा है, बीमार है, गरीब है, उसे ऐसी बीमारी है कि उसके पास से बदबू आती है तो उसमें उस बेचारे की क्या गलती? तो बहुत सोच-समझकर मैंने तय किया कि बूढ़े के बारे में मेरे विचार खराब नहीं होने चाहिए। जहां तक बदबू का सवाल है उसकी आदत पड़ जायेगी या खिड़की खोली जा सकती है, हालांकि बाहर का तापमान शून्य से चार-पांच डिग्री नीचे ही रहता था।
उसी दिन शाम को मुझसे मिलने डॉ. मारिया आयीं। वे भी बूढ़े को देख कर बहुत खुश नहीं हुईं। लेकिन जाहिर है वे भी कुछ नहीं कर सकती थीं। उन्होंने इतना जरूर किया कि एक खिड़की थोड़ी-सी खोल दी।
'ये कब आये?' उन्होंने पूछा।
'आज ही।' मैंने बताया।
'क्या तकलीफ है इन्हें?' उन्होंने कहा।
'मैं नहीं जानता। आप पूछिए। मेरे ख्याल से ये अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं।'
डॉ. मारिया ने बूढ़े सज्जन से हंगेरियन में बातचीत शुरू कर दी। मारिया बुदापैश्त में हिंदी पढ़ाती हैं और हम दोनों 'क्लीग` हैं। एक ही विभाग में पढ़ाते हैं।
कुछ देर बूढ़े से बातचीत करने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि बूढ़े को टट्टी करने की जगह पर कैंसर है और ऑपरेशन के लिए आया है। काफी बड़ा ऑपरेशन होगा। बूढ़ा काफी डरा हुआ है क्योंकि वह चौरासी साल का है और इस उम्र में इतना बड़ा आपरेशन खतरनाक हो सकता है। यह सुनकर मुझे बूढ़े से हमदर्दी पैदा हो गयी। बेचारा! पता नहीं क्या होगा!
अचानक कमरे में एक पचास साल की औरत आयी। वह कुछ अजीब घबराई और डरी-डरी-सी लग रही थी। उसके कपड़े और रखरखाव वगैरा देखकर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि वह बहुत साधरण परिवार की है। वह दरअसल इस बूढ़े की बेटी थी। उससे भी मारिया ने बातचीत की। वह अपने पिता के बारे में बहुत चिंतित लग रही थी। बूढ़े की लड़की से बातचीत करने के बाद मारिया ने मुझे फिर सब कुछ विस्तार से बताया। हम बातें कर ही रहे थे कि कमरे में हॉयनिका आ गयी। यहां कि नर्सों में वह एक खुशमिजाज नर्स है। खूबसूरत तो नहीं बस अच्छी है और युवा है। उसके हाथों में दवाओं की ट्रे थी। आते ही उसने हंगेरियन में एक हांक लगायी। मैं दस-बारह दिन अस्पताल में रहने के कारण यह समझ गया हूं कि यह हांक क्या होती है। सात बजे के करीब रात की ड्यूटी वाली नर्स हम कमरे में जाती है और मरीजों से पूछती है कि क्या उन्हें 'स्लीपिंग पिल` या 'पेन किलर` चाहिए? आज उसने जब यह हांक लगायी तो मैं समझ गया। लेकिन मारिया ने उसका अनुवाद करना जरूरी समझा और कहा, 'पूछ रही हैं पेन किलर या सोने के लिए नींद की गोली चाहिए तो बताइए।' मैंने कहा, 'हां दो, 'पेन किलर` और एक 'स्लीपिंग पिल`।'
मारिया अच्छी बेतकल्लुफ दोस्त हैं। वे मजाक करने का कोई मौका नहीं चूकतीं। पता नहीं उनके मन में क्या आयी कि मुस्कुराकर बोलीं, 'क्या मैं नर्स से यह भी कहूं कि इन दवाओं के अलावा, रात में ठीक से सोने के लिए आपको एक 'पप्पी` भी दे?'
मैं बहुत खुश हो गया 'क्या ये कहा जा सकता है? बुरा तो नहीं मानेगी? अपने महान देश में यह कहने का प्रयास वही करेगा जो लात-जूते से अपना इलाज कराना चाहता हो।'
'नहीं, यहां कहा जा सकता है।' वे हंसकर बोलीं।
'तो कहिए।'
उन्होंने नर्स से कहा। वह हंसी, कुछ बोली और इठलाती हुई चली गयी।
'कह रही है मैं पत्नियों केसामने पति को 'पप्पी` नहीं देती। जब मैंने उससे बताया कि मैं पत्नी नहीं हूं तो बोली कि ठीक है, वह लौटकर आयेगी।'
मैंने मारिया से कहा, 'उर्दू के एक प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि अकबर इलाहाबादी का शेर है
'तहज़ीबे गऱिबी में बोसे तलक है माफ
आगे अगर बढ़े तो शरारत की बात है।'
शेर सुनकर वे दिल खोलकर हंसी और बोलीं, 'हां, ये सच है कि भारत और यूरोप की नैतिकता में बड़ा फर्क है। लेकिन उसी के साथ-साथ यह भी तय है कि भारतीय इस संबंध मैं प्राय: बहुत कम जानते हैं। जैसे अकबर इलाहाबादी शायद यह न जानते होंगे कि यूरोप में कुछ 'बोसे` बिलकुल औपचारिक होते हैं। जिन्हें हम हाथ मिलाने जैसा मानते हैं।
अब मेरी बारी थी। मैंने कहा, 'लेकिन हमारे यहां तो औरत से हाथ मिलाना तक एक 'छोटा-मोटा` 'बोसा` समझा जाता है।' इस पर वे खूब हंसीं।
कमरे के दूसरी तरफ बूढ़े के पास उसकी लड़की बैठी थी। दोनों बातें कर रहे थे। हल्की-हल्की आवाजें हम लोगों तक आ रही थीं। मैंने मारिया से पूछा, 'वे उधर क्या बातें कर रहे हैं?'
'वह अपनी लड़की से कह रहा है कि मेरी प्यारी बेटी, तुम सिगरेट पीना छोड़ दो। पिछली बीमारी के बाद तुम्हें डॉक्टर ने मना किया था कि सिगरेट न पिया करो. . .लड़की कह रही है कि उसने कम कर दी है. . .अब कुत्ते के बारे में बात हो रही है। बूढ़ा कह रहा है कि उसके अस्पताल में रहते कुत्ते का पूरा ख्याल रखना। अगर कुत्ते का ध्यान नहीं रखा गया तो वह नाराज हो जायेगा. . .अब वह कह रहा है कि दोपहर के खाने में और सुबह के नाश्ते में भी गोश्त था। कम था, लेकिन था. . .अब बाजार में गोश्त की बढ़ती कीमतों पर बात हो रही है. . .बूढ़ा बहुत नाराज है. . .अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा. . .' मारिया कुर्सी की पीट से टिक गयीं।
'बेचारे गरीब लोग मालूम होते हैं।'
'गरीब?'
'हां, हमारे यहां की गरीबी रेखा के नीचे के लोग।'
कुछ देर बाद 'विजिटर्स` के जाने का वक्त हो गया। बूढ़े की लड़की चली गयी। मारिया भी उठ गयीं। गर्म कपड़ों और लोमड़ी के बालों वाली टोपी से अपने को लादकर बोलीं
'आपकी नर्स तो नहीं आयी?'
'अच्छा ही है जो नहीं आयी।'
'क्यों?'
'इसलिए कि औपचारिक बोसे से काम नहीं चलेगा और अनौपचारिक बोसे के बाद नींद नहीं आयेगी।'
उन्होंने कहा, 'कोई-न-कोई समस्या तो रहनी ही चाहिए।'
अस्पताल की रातें बड़ी उबाऊ, नीरस, उकताहट-भरी और बेचैन करने वाली होती हैं। नींद क्यों आये जब जनाब दिन-भर बिस्तर पर पड़े रहे हों। नींद की गोली खा लें तो उसकी आदत-सी पड़ने लगती है। पढ़ने लगें तो कहां तक पढ़ें? सोचने लगें तो कहां तक सोचें? लगता है अगर अनंत समय हो तो कोई काम ही नहीं हो सकता। रात में सो पाने, सोचने, पढ़ने आदि-आदि की कोशिश करने के बाद मैं अपने कमरे में आये नये बूढ़े मरीज की तरफ देखने लगा। वह अखबार पढ़ते-पढ़ते सो गया था। जागते हुए भी उसका चेहरा काफी भोला और मासूम लगता है कि लेकिन सोते में तो बिलकुल बच्चा लग रहा था। उसके बड़े-बड़े कान हाथी के कान जैसे लग रहे थे। धंसे हुए गालों के उपर हड्डियां उभर आयी थीं। शायद उसने नकली दांतों का चौखटा निकाल दिया था। उसकी ओर देखकर मेरे मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। सबसे प्रबल था कैंसर का बढ़ा हुआ मर्ज, चौरासी साल की उम्र में जिंद़गी का एक ऐसा मोड़ जो अंधेरी गली में जाकर गायब हो जाता है। लगता था बचेगा नहीं. . .जो कुछ मुझे बताया गया था उससे यही लगता था कि ऑपरेशन के बाद बूढ़ा सीधा 'इन्टेन्सिव केयर यूनिट` में ही जायेगा। और फिर कहां? मुझे लगने लगा कि उसकी मृत्यु बिलकुल तय है। उसी तरह जैसे सूरज निकलना तय है। लगा कहीं ऑपरेशन टेबुल पर ही न चल बसे बेचारा . . .पता नहीं क्यों अचानक वह मुझे हंगरी के अतीत-सा लगा।
रात ही थी या पता नहीं दिन हो गया था। अचानक कमरे की सभी बत्तियां जल गयीं और हॉयनिका के अंदर आने की आवाज से मैं उठ गया। उसने मुस्कराकर 'थरमामीटर` हाथ में दे दिया। इसका मतलब है सुबह का छ: बजा है। उसकी मुस्कराहट बड़ी कातिल थी। शायद कल वाली बात उसे याद होगी। मैंने दिल-ही-दिल में कहा, इस तरह मुस्कराने से क्या होगा, वायदा निभाओ तो जानें। उसने बूढ़े आदमी को 'पापा` कहकर जगाया और उन्हें भी 'थरमामीटर` पकड़ा दिया।
संसार के सभी अस्पतालों की तरह इस अस्पताल में भी आप समय का अंदाजा नर्सों की विजिट, डॉक्टरों के आने, नाश्ता दिये जाने, गैलरी की बत्तियां बंद किये जाने वगैरा से लगा सकते हैं।
सुबह के काम धीरे-धीरे होने लगे। 'पापा` उठे। उन्होंने अपनी छड़ी उठायी। छड़ी बहुत पुरानी लगती है। उतनी तो नहीं जितने पापा हैं लेकिन फिर भी पुरानी है। छड़ी के हत्थे पर प्लास्टिक की डोरी का एक छल्ला-सा बंध हुआ था। उन्होंने छल्ले में हाथ डालकर छड़ी पकड़ ली और बाहर निकल गये। शायद बाथरूम गये होंगे। छड़ी के हत्थे से प्लास्टिक की डोरी बांधने वाला आइडिया मुझे अच्छा लगा। इसका मतलब यह है कि पापा के हाथ में छड़ी कभी गिरी होगी। बस में कभी चढ़ते हुए या ट्राम से उतरते हुए या मैट्रो से निकलते हुए। छड़ी गिरी होगी तो पापा भी गिरे होंगे। पापा गिरे होंगे तो उनके पास जो सामान रहा होगा वह भी गिरा होगा। लोगों ने फौरन उनकी मदद की होगी। सामान समेटकर उन्हें दिया होगा। उनकी छड़ी उन्हें पकड़ाई होगी। इस तरह के बूढ़ों को मैंने अक्सर बसों, ट्रामों से उतरते-चढ़ते समय गिरते देखा है। पूरा दृश्य आंखों के सामने कौंध गया। इसी तरह की घटना के बाद पापा ने प्लास्टिक की डोरी का छल्ला छड़ी के मुट्ठे से बांध लिया होगा।
इस शहर में मैंने अक्सर इतने बूढ़े लोगों को आते-जाते देखा है जो ठीक से चल भी नहीं पाते। फिर भी वे थैले लिये हुए बाजारों, बसों में नजर आ जाते हैं। शुरू-शुरू में मैं यह समझ नहीं पाता था कि यदि ये लोग इतने बूढ़े हैं कि चल नहीं सकते तो घरों से बाहर ही क्यों निकलते हैं। बाद में मेरी इस जिज्ञासा का सामाधान हो गया था। मुझे बताया गया था कि प्राय: बूढ़े अकेले रहते हैं। पेट की आग उन्हें कम-से-कम हफ़्ते में एक बार घर से निकलने पर मजबूर कर देती हैं।
यह आदमी, बूढ़ा आदमी, जिससे मैं कल नफरत करते-करते बचा, दरअसल बहुत अच्छा है। जैसे-जैसे दिन गुजर रहे हैं, मुझे उनके बारे में अधकि बातें पता चल रही हैं। भाषा के सभी बंधनों के होते हमारे जो रिश्ते बन रहे हैं उनके आधार पर उसे पसंद करने लगा हूं। हालांकि हम दोनों आमतौर पर चुप रहने के सिवाय इसके कि हर सुबह एक-दूसरे को 'यो रैग्गैल्स` मतलब 'गुड मार्निंग` कहते हैं। दिन में 'यो नपोत किवानोक` यानी 'विश यू गुड डे` कहते हैं। छोटी-मोटी मदद के बाद 'कोसोनोम`, धन्यवाद कहते हैं। या धन्यवाद कहे जाने का जवाब 'सीवैशैन` कहकर देते हैं।
मुझे याद है दो दिन पहले जब मैं अपने दूसरे ऑपरेशन के बाद कमरे में जाया गया था और दर्द-निवारक दवाओं का असर खत्म हो गया था तो दर्द इतना हो रहा था कि बकौल फैज अहमद 'फैज` हर रगे जां से उलझ रहा था। डॉक्टर कह रहे थे जितनी स्ट्रांग दर्द-निवारक दवाएं वे दे चुके हैं उससे अधकि और कुछ नहीं दे सकते। अब तो बस झेलना ही है। मैं झेल रहा था। बिस्तर पर तड़प रहा था। कराह रहा था। आंखें कभी बंद करता था, कभी खोलता था। उसी वक्त एक बार आंखें खुलीं तो मैंने देखा कि पापा हाथ में छड़ी लिये मेरे बेड के पास खड़े हैं। मुझे यह उम्मीद न थी। वे कह कुछ न रहे थे। क्योंकि भाषा की रुकावट थी। लेकिन जाहिर था कि क्यों खड़े हैं। दर्द की वजह से उनका चेहरा धुंधला लग रहा था। उनकी धंसी हुई आंखें बिलकुल ओझल थीं। लंबे-लंबे कान लटके हुए थे। गर्दन झुकी हुई थी। सिर पर सफेद बाल बेतरतीबी से फैले थे। वे चुपचाप खड़े थे पर मुझे लगा जैसे कह रहे हों, देखो दर्द भी क्या चीज है कोई बांट नहीं सकता। उसे सब अकेला ही झेलते हैं। पापा को देखते ही मैं अपने दर्द से उनके दर्द की तुलना करने लगा। लगा इस विचार ने दर्द-निवारक गोली का काम कर दिया। मैंने सोचा, पापा, तुम्हारे ऑपरेशन के बाद मैं शायद तुम्हें देख भी न पाउंगा जिस तरह तुम मुझे देख रहे हो क्योंकि तुम शायद आई.सी.यू में होगे या किसी ऐसी जगह जहां मैं पहुंच न सकूंगा। तुम्हारे इस तरह मुझे देखने का एहसान मेरे उपर हमेशा के लिए बाकी रह जायेगा।
ऑपरेशन के बाद मैं ठीक होने लगा। दूसरे दिन टहलने लगा। इस दौरान पापा के टेस्ट वगैरा चल रहे थे। हंगेरियन अस्पतालों में कोई हबड़-तबड़ नहीं होती क्योंकि नफा-नुकसान, लेन-देन आदि का कोई चक्कर नहीं है। इसलिए पापा के 'टेस्ट` काफी विस्तार से हो रहे थे। मैं दिन में घबराकर कमरे के चक्कर लगता था और उकताहट दूर करने के लिए या पता नहीं किसलिए दिन में दसियों बार पापा से पूछता था, होज वाज पापा? यानी कैसे हो पापा? पापा मेरे सवाल का हर बार एक ही जवाब देते थे, 'कोसोनोम योल` धन्यवाद, ठीक हूं।` मैं समझता था कि शायद मेरे बार-बार एक सवाल पूछने से वे चिढ़ जायेंगे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। शायद वे जानते थे कि मैं पता नहीं उनसे क्या-क्या कहना चाहता हूं लेकिन नहीं कह पाता।
पापा लगभग पूरे दिन बड़े ध्यान से अखबार पढ़ा करते थे। वे हंगेरी का वह अखबार पढ़ते थे जो पहले कम्युनिस्टों का था और अब समाजवादियों का अखबार है। पापा की अखबार में गहरी रुचि मुझे चमत्कृत कर देती थी। ऐसी उम्र में, इतनी खतरनाक बीमारी से जूझते हुए दुनिया में कितने लोगों की रुचि बचती है। या तो लोग चुप हो जाते हैं या रोते रहते हैं। लेकिन पापा के साथ ऐसा न था। एक रात अखबार पढ़ने के बाद वे हाथ बचाकर मेज पर चश्मा रखने लगे तो चश्मा फर्श पर गिर पड़ा था। तब मैंने पापा के मुंह से ऐसी आवाज सुनी जो दु:ख व्यक्त करने वाली आवाज थी। मैं तत्काल उठा और पापा का चश्मा उठाया। मैंने देखा, न केवल चश्मा बेहद गंदा था बल्कि उसे धागों से इस तरह बांध गया था कि कई जगहों से टूटा लगता था। जैसा भी रहा हो, उसका पापा के लिए बहुत ज्यादा महत्व था। मैंने चश्मा उनकी तरफ बढ़ाया। उनकी आंखों में कृतज्ञता का स्पष्ट भाव था। चश्मा टूटा नहीं था। अगर टूट जाता तो? बहुत बुरा होता, बहुत ही बुरा।
दो-चार दिन बाद मेरी हालत ये हो गयी थी, अपने बेड पर लेटा-लेटा मैं यह इंतजार किया करता था कि पापा की मदद करने का अवसर मिले। वे रात में सोने से पहले लैम्प बंद करने के लिए उठते थे। उठने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। पहले छड़ी टटोलते थे। फिर छल्ले में हाथ डालते थे। तब खड़े होते थे। बेड का पूरा चक्कर लगाकर दूसरी तरफ आते थे और तब लैम्प का 'स्विच` 'आफ` करते थे। मैं इंतजार करता रहता था। जैसे ही लैम्प बंद करने की जरूरत होती थी मैं जल्दी से उठकर लैम्प 'ऑफ` कर देता था। पापा 'कोसोनोम` कहते थे। इसी तरह दोपहर के खाने के बाद जैसे ही उनके बर्तन खाली होते थे मैं उठाकर बाहर रख आता था। पढ़ते-पढ़ते कभी उनका अखबार नीचे गिर जाता था तो झपटकर उठा देता था। कभी-कभी ये भी सोचता था कि यार मैं इस अजनबी बूढ़े के लिए यह सब क्यों करता हूं? मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता था।
तीन दिन बाद आज हॉयनिका फिर रात की ड्यूटी पर है। पिछली बार जब वह रात की ड्यूटी पर थी तो उसके केबिन में जाकर मैंने उसे अमजद अली खां का सरोद सुनाया था। उसे पसंद आया था। उसने मुझे कॉफी पिलायी थी। इशारों, दो-चार शब्दों, हंगेरियन-अंग्रेजी शब्दकोश की मदद से कुछ बातचीत हुई थी। पता चला कि वह विवाहित है। लेकिन उसके विवाहित होने ने मुझे हतोत्साहित नहीं किया था। क्या विवाह कर लेना किसी लड़की की इतनी बड़ी गलती करार दी जा सकती है कि उससे प्रेम न किया जाये? नहीं, नहीं, कदापि नहीं। शादी कर लेने का मतलब है कि उससे गलती हो गयी है। और हर तरह की गलती, भूल को माफ किया जाना चाहिए।
आज जब मुझे पता चला कि उसकी ड्यूटी है तो रात के दस बज जाने का इंतजार करने लगा। क्योंकि उसके बाद ही उसे कुछ फुर्सत होती थी। इस दौरान मुझसे मिलने एक-दो लोग आये। उनसे बातें होती रहीं। पापा की लड़की आयी तो मैं अपने 'विजिटर्स` को लेकर बाहर आ गया। दरअसल अब मैं पापा और उनकी लड़की को बातचीत करने के लिए एकांत देने के पक्ष में हो गया था। कारण यह है कि एक दिन मैंने कनखियों से देखा कि पापा अपनी लड़की को चुपचाप अस्पताल का खाना दे रहे हैं। लड़की इधर-उधर देखकर खाना अपने बैग में रख रही है। अस्पताल में रोटी, 'चीज` और दीगर चीजें खूब मिलती थीं। उन्हीं में से पापा कुछ बचाकर रख लेते थे और शाम को अपनी लड़की को दे देते थे। इसलिए अब जब उनकी लड़की आती थी तो मैं कमरे से बाहर आ जाता था।
आठ बजे के करीब सल चले गये। मैं कमरे में आकर लेट गया। हॉयनिका के बारे में सोचने लगा। मेरे और उसके संबंध मधुर होते जा रहे थे। न केवल उसकी मुस्कराहट में दोस्ती और अपनापन बढ़ रहा था बल्कि कभी-कभी बहुत प्यारसे मेरा कंधा भी दबा देती थी। मैं भी अपनी तरफ से यही दिखाता था कि उसे पसंद करता हूं। एक बार उसे छोटा-मोटा भारतीय उपहार भी दिया था। बहरहाल प्रगति थी और अच्छी प्रगति थी। चूंकि अस्पताल में कोरी कल्पनाएं करने के लिए काफी समय रहता था इसलिए मैं हॉयनिका के बारे में मधुर, कोमल, छायावादी किस्म की कल्पनाएं भी करने लगा थ। वह वैसे बहुत सुंदर तो न थी। क्योंकि हंगेरी में महिलाओं की सुंदरता के मानदण्ड बहुत उंचे हैं। अक्सर सड़क पर टहलते हुए ऐसी लड़कियां दिख जाती हैं कि लगता है कि आप स्वर्ग की किसी सड़क पर टहल रहे हैं। पर वह सुंदर न होते हुए भी अच्छी है। या शायद मुझे लगती हो। शायद इसलिए लगती हो कि मुझे थोड़ी-बहुत घास डाल देती है। बहरहाल कारण चाहे जो भी हो मैं ठीक दस बजे कमरे से बाहर आया। गैलरी की बत्तियां बंद हो चुकी थीं। चारों तरफ सन्नाटा था। डॉक्टर अपने कमरों में थके-मारे सो रहे होंगे। हॉयनिका अपने केबिन में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी। मुझे देखते ही उसने पत्रिका रख दी। मुझे बैठने के लिए कहा। वह कॉफी पी रही थी। छोटे-से कप में काली कॉफी। मुझे भी दी। मैं अमृत समझकर पीने लगा। इधर-उधर की टूटी-फटी बातों के बाद मैंने उसे 'वाकमैन` पर सितार सुनाया। मैं खुद हंगेरियन महिलाओं की पत्रिका के पन्ने पलटता रहा। कॉफी ने मुंह का मजा चौपट कर दिया था लेकिन क्या कर सकता था। सितार सुनने के बाद उसने 'वाकमैन` मुझे वापस कर दिया। मैंने मुस्कराकर उसकी तरफ देखा। वह सुंदर लग रही थी। वही नींद में डूबी आंखें, बिखरे हुए बाल, लाल और कुछ मोटे होंठ, शरारत से भरी आंखें। मैंने धीरे से एक हाथ उसके कंधे पर रखा और कुछ आगे बढ़ा। उसकी आंखों में मुस्कराहट नाच उठी। वह कुछ नहीं बोली। बल्कि शायद मौन स्वीकृति। गैलरी का अंधेरा, बाहर लैम्प पोस्टों से आती पीली रोशनी, पेड़ों पर चमकती सफेद बर्फ, दूर से आती स्पष्ट आवाजें। मैंने अपना चेहरा और आगे बढ़ाया। इतना आगे कि उसका चेहरा 'आउट ऑफ फोकस` हो गया। उसकी सांसें मुझसे टकराने लगीं। होंठों पर कॉफी, सिगरेट और 'लिपिस्टिक` का मिला-जुला स्वाद था। होंठों के अंदर एक दूसरा स्वाद था जिसमें न तो मिठास थी और न कड़वाहट। उसका चेहरा एक ओर झुकता चला गया। मेरे हाथ कंधे से हटकर उसकी पीठ पर आ गये थे। उसके हाथ भी निश्चल नहीं थे। जब मैं उसे देखा पाया तो उसके चेहरे पर बड़ा दोस्ताना भाव था। उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था। उसकी प्याली में कॉफी बच गयी थी। वह उसने मुंह में उड़ेल ली। मैं उठ गया। 'विसोन्तलात आशरा` का एक्सचेंज हुआ। कल मैंने उसे कुछ और नया संगीत सुनाने का वायदा किया। उसने हंसकर स्वीकार किया।
ये कुछ औपचारिक और अनौपचारिक के बीच वाली बात हो गयी थी। मैं कमरे में आया तो इतना खुश था कि यह सोचा ही नहीं कि वहां पापा लेटे होंगे। पापा बिलकुल सीधे लेटे थे। उनके सफेद बाल बिखरे हुए थे। उन पर खिड़की से आती चांदनी पड़ रही थी। पापा का चेहरा फरिश्तों जैसा शांत लग रहा था। बिलकुल काम, क्रोध, माया, मोह से अछूता। एक अजीब तरह की आध्यात्मिकता छायी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे वे अस्पताल के बेड पर नहीं अपने ताबूत में कब्र के अंदर लेटे हों। उनके चेहरे से दैवी ज्योति फट रही थी। मैं एकटक उन्हें देख रहा था। इससे पहले के दृश्य के बीच मैं कोई तारतम्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। पर मुझे सफलता नहीं मिल रही थी। मुझे लगने लगा था कि कमरे में नहीं ठहरा जा सकता। मैं बाहर आ गया। हॉयनिका अपने केबिन में थी पर मैं उधर नहीं गया। दूसरी तरफ मुड़ गया और एक लंबी, विशाल खिड़की से बाहर देखने लगा। पत्तीविहीन लंबे-लंबे पेड़ों की हवा में हिलती शाखाएं, जमीन पर चमकती बर्फ, लोहे की रेलिंग से आगे फुटपाथ पर दूधिया रोशनी और उसके भी आगे मुख्य सड़कपर पर उंचे-उंचे पीली रोशनी फैलाते लैम्प पोस्ट खड़े थे। नीचे से कारों की हेडलाइटें गुजर रही थीं। खिड़की के बाहर का पूरा दृश्य प्रकाश, अंधकार, गति और स्थिरता का एक कलात्मक कम्पोजीशन-सा लग रहा था। तेजी से गुजरती कारें देखकर यह अजीब बेवकूफी का ख्याल आया कि इनमें कौन बैठा होगा? आदमी या औरत? व्यापारी, अपराधी, कर्मचारी, किसान, नेता, अध्यापक, पत्रकार, छात्र, प्रेमी युगल? कौन होगा? क्या सोच रहा होगा? उबाऊ और नीरस जीवन के बारे में या चुटकियों में उड़ा देने वाली जिंदगी के बारे में? फिर अपने पर हंसी आयी। सोचा कोई भी हो सकता है, कुछ भी सोच रहा होगा, तुमसे क्या मतलब, जाओ सो जाओ। लेकिन फिर पापा की याद आ गयी। अंदर जाने में एक अजीब तरह की झिझक पैदा हो गयी।
मुझे अस्पताल में इतने दिन हो गये थे कि और मैं उस जीवन में इतना रम गया था कि लगा अब घर वापस गया तो अस्पताल 'मिस` करूंगा या शाम घर वापस लौटने के बजाय अस्पताल आ जाया करूंगा। क्योंकि अब मैं वार्ड में शायद सबसे सीनियर मरीज था इसलिए झिझक मिट गयी थी। मैं वार्ड के 'किचन` तक में चला जाता था। अपने लिए चाय बना लेता था। गैलरी में खूब टहलता था। नये मरीजों से बात करने की कोशिश करता था। पुराने मरीजों को जान-पहचान वाली 'हेलो` करता था। ये देखना भी मजेदार लगता था कि मरीज आते हैं तो उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। ऑपरेशन के बाद कैसे लगते हैं और ठीक होकर वापस जाते समय उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। और कुछ नहीं तो सुंदर नर्सों और लेडी डॉक्टरों की चाल देखता था। देखने वाली चीजों में पापा की मेज पर रखा जूस का डिब्बा भी था जिसे मैं कई दिन से उसी तरह देख रहा था जैसा वह था। पापा ने उसे नहीं खोला था। वह जैसे का तैसा कई दिन से वैसा ही रखा था।
हंगेरियन मैं नहीं जानता लेकिन इतना मालूम है कि संसार में किसी भाषा के समाचारपत्र में कई दिन तक 'प्रमुख शीर्षक` एक नहीं हो सकता। पापा जो अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे उसमें मुझे ऐसा लगा। यानी वे तीन दिन पुराना अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे। मुझे अखबार पर गुस्सा आया। यह ताजा अखबार की बदनसीबी थी कि वह पापा तक नहीं पहुंचता। दोपहर को अखबार बेचने वाला आया और पापा सो रहे थे तो मैंने उससे नया अखबार लेकर पापा की मेज पर रख दिया और पुराना बाहर रख आया। पापा जब उठे तो उन्हें नया अखबार मिला। वे समझ नहीं पाये कि यह कैसे हो गया। मैं बताना भी नहीं चाहता था।
हॉयनिका दो-तीन दिन के 'गैप` के बाद रात की ड्यूटी पर ही आती थी। मैं बराबर उससे मिलता था। लेकिन एक आध बार भाषा की बाध के कारण काफी खीज गया और सोचा किसी हंगेरियन मित्र के माध्यम से कभी हॉयनिका से लंबी बातचीत करूंगा। हमारी मित्रता में शब्दों का अभाव अब बुरी तरह खटकने लगा था और लगता था इस सीमा को तोड़ना जरूरी है। एक दिन शाम को जब मारिया आयीं तो मैंने उनसे अपनी समस्या बतायी। उन्होंने कहा, 'ठीक है, आप दुभाषिए के माध्यम से प्रेम करना चाहते हैं।'
मैंने कहा, 'नहीं, ये बात नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि अब मुझे उसके बारे में कुछ अधकि जानना चाहिए। हो सकता है उसके मन में भी यह हो।'
खैर तय पाया कि शाम के जरूरी काम जब वह निपटा लेगी तो हम उसके केबिन में जायेंगे और मारिया जी के माध्यम से बातचीत होगी। मैं खुश हो गया कि मेरी अमूर्त कल्पनाओं को कुछ ठोस सहारा मिल सकेगा।
हम जा हॉयनिका के केबिन में गये तो वह पत्रिका पढ़ रही थी और कॉफी पी रही थी। मारिया ने उसे जब मेरे और अपने आने का कारण बताया तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलती चली गयी।
मैंने मारिया से कहा, पहले तो इसे बताइये कि मुझे इस बात का कितना दु:ख है कि हंगेरियन नहीं बोल सकता और उससे बातचीत नहीं कर सकता। यही वजह है कि मैं न उससे वह सब पूछ सका या कह सका जो चाहता था। मेरी बातों पर वह लगातार मुस्कराये जा रही थी।
'ये कहां रहती है?'
'बुदापैश्त से दूर एक छोटा-सा शहर है वहां रहती है।'
'वहां से आने में कितना समय लगता है?'
'तीन घंटे।'
'तीन घंटे आने में और तीन ही जाने में?'
'जी हां।'
'यहां क्यों नहीं रहती है?'
'यहां फ़्लैटों के किराये इतने ज्यादा हैं कि वह 'एफोर्ड` नहीं कर सकती . . .और वहां इसने किश्तों पर एक मकान खरीद लिया है।'
'कितनी किश्त देनी पड़ती है?'
'पन्द्रह हजार फोरेन्त महीना।'
'और इसे तनख्वाह कितनी मिलती है?'
'सत्रह हजार फोरेन्त. . .'
'तो कहां से खाती-पीती है?'
'इसका पति भी काम करता है।'
'क्या काम करता है?'
'चौकीदार है. . .किसी फैक्ट्री में।' सुनकर मुझे लगा कि यह नितांत अन्याय है। सुंदर महिलाओं के पतियों को उनकी पत्नियों की सुंदरता के आधार पर नौकरी मिलनी चाहिए।
'इसकी एक दो साल की बच्ची भी है।'
'उसे कौन देखता-भालता है?'
'दिन में ये देखती है. . .कभी-कभी इसकी मां और रात में इसका पति. . .यह कह रही है कि उसकी जिंदगी काफी मुश्किल है। लेकिन घर-परिवार की या निजी समस्याएं यह अपने साथ अस्पताल में नहीं लाती। यहां तो हर मरीज के साथ हंसकर बात करनी पड़ती है।'
यह सुनकर मैं चौंक गया। 'हर मरीज` में तो मैं भी आ गया और 'करनी पड़ती है` का मतलब विवशता है। कुछ क्षण मैं खामोश रहा।
पता नहीं क्यों मैंने मारिया से कहा, 'इससे पूछिए कि इसकी सबसे बड़ी इच्छा क्या है? यह क्या चाहती है कि क्या हो? बड़ी ख्वाहिश, अभिलाषा?'
'ये कह रही है कि इसकी सबसे बड़ी कामना यही है कि हर महीने मकान की किश्तें अदा होती रहें और मकान अपना हो जाये. . .और यह भी चाहती है कि उसे एक बेटा भी हो। यानी एक बेटी, एक बेटा और अपना मकान।'
'ठीक है, ठीक है. . .बहुत अच्छा. . .अब चलें।' मैं थोड़ा घबराकर बोला। मारिया मुस्कराने लगीं बहुत अर्थपूर्ण और कुछ-कुछ व्यंग्यात्मक।
कल पापा का ऑपरेशन है। आज वे अच्छी तरह नहाये हैं। अच्छी तरह कंघी की है। मैं आज उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता। उनकी धुंधली आंखों में देखना आज मुश्किल काम है।
शाम के वक्त कुछ जल्दी ही उनकी लड़की आ गयी। आज वह बहुत ज्यादा उदास लग रही है। दोनों धीमे-धीमे बातें करने लगे। पापा की आवाज में सपाटपन है। वे बोलते-बोलते रुक जाते हैं। कुछ अंतराल पर थोड़ी बातचीत होती है। फिर दोनों सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं। पापा की आंखें गहरी सोच में डूबी हुई हैं। वे छत की तरफ देख रहे हैं। लड़की खिड़की के बाहर देख रही है। बाहर से आवाजें आ रही हैं। पापा ने कुछ कहना शुरू किया। लड़की शायद सुन नहीं पा रही थी। वह और अधकि पास खिसक आयी। उसी वक्त मारिया कमरे में आयीं। उनका आना दैवी कृपा जैसा लगा। अभी वे अपना ओवरकोट, भारी-भरकम टोपी उतारकर बैठने भी न पायी थीं कि मैंने फरमाइश कर दी
'जरा बताइये. . .क्या बातचीत हो रही है?'
'आप भी कुछ अजीब आदमी हैं!' वे हंसकर बोलीं।
'कैसे?'
'पूरे अस्पताल में आपको दो ही लोग पसंद आये हैं। एक पापा और दूसरी हॉयनिका। है ना?'
'हां है।'?
'और दोनों में अद्भुत साम्य है।' वे हंसीं।
'देखिए, बात मत टालिए. . .पापा कुछ कह रहे हैं. . .जरा सुनिए क्या कह रहे हैं।' कुछ सुनने के बाद मारिया बोलीं, 'पापा कह रहे हैं अब मैं किसी से नहीं डरता। अब मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है। मैं सच बोलूंगा. . .' मारिया जी चुप हो गयीं। पापा भी चुप हो गये थे। बातचीत का चूंकि ओई ओर-छोर न था इसलिए मैं सोचने लगा ये पापा क्या कह रहे हैं? अब किसी से नहीं डरते. . .मतलब पहले किसी से डरते थे। किससे डरते थे? बूढ़ा आदमी, जो हर तरह से अच्छा नागरिक मालूम होता है, किसी से क्यों डरेगा? और अब वह डर नहीं रहा। यह कैसा डर है जो पहले था अब खत्म हो गया? इस पहले को सुलझाना मेरे बस की बात न थी। मैं पूछ भी नहीं सकता था। किसी के डरने का कारण पूछना वैसे भी असभ्यता है और निश्चित रूप से अगर डर किसी बूढ़े आदमी का हो तो और भी। पापा की दूसरी बात समझ में आती है, अब उनका कोई क्या बिगाड़ सकता, क्योंकि यह स्पष्ट है कि अब उसका सामना सीधे मृत्यु से है। और जो कब्र में पैर लटकाये बैठा हो उसे क्या सजा दी जा सकती है? सबसे बड़ी सजा तो मृत्युदण्ड ही है न। सबसे बड़ी इच्छा जीवित रहने की ही है न। तो जो इनसे उपर उठ गया हो उसका कोई कानून, कोई समाज, कोई व्यवस्था क्या बिगाड़ सकती है? और जब उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता तो वे 'सब कुछ` कह सकते हैं। जो महसूस करते हैं बता सकते हैं। हद यह है कि 'सच` तक बोल सकते हैं। सच-एक ऐसा शब्द तो घिसते-पिटते बिलकुल विपरीत अर्थ देने देने लगा है। लेकिन चौरासी वर्षीय कैंसर-पीड़ित पापा, आठ घंटे का ऑपरेशन होने से पहले अगर 'सच` क्यों नहीं कह दिया? फैज की पंक्तियां याद आ गयीं 'हफे हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह। आज इजहार करें और खलिश मिट जाये।` तो पापा आज वह सत्य कहना चाहते हैं जो उनके दिल के बोझ को हल्का कर देगा। ठीक है पापा, कहो, जरूर कहो। कभी, कहीं, कोई, किसी तरह ये कहे तो कि 'हक` क्या है?
अगले दिन लंबे इंतजार के बाद शाम होते-होते पापा ऑपरेशन थियेटर से वापस लाये गये तो लगा जैसे तारों, नलकियों, बोतलों, बैगों का एक तिलिस्म है जो उनके चारों ओर लिपट गया है। पता नहीं कितनी तरह की दवाएं, कितनी जगहों से पापा के शरीर के अंदर जा रही थीं और शरीर से क्या-क्या निकल रहा था जो बेड के नीचे चटकते बैगों में जमा हो रहा था। इन सबमें जकड़े पापा को देखने की हिम्मत नहीं थी। वे बिलकुल शांत थे, आंखें बंद थीं। शायद बेहोश थे। वे सब बातें, वे सब डर, जो मेरे अंदर छिपे बैठे थे, सामने आ गये। पापा. . .बेचारे पापा. . .नर्सें थोड़ी-थोड़ी देर के बाद आ रही थीं और आवश्यक कार्यवाही कर रही थीं। कुछ देर बाद उनकी लड़की आयी। नर्स से बातचीत करके चली गयी। रात में मैं कई बार उठा लेकिन पापा की हालत में कोई बदलाव नहीं देखा। न हिल रहे थे, न डुल रहे थे, न खर्राटे ले रहे थे। बस ग्लूकोस की टपकती बूंदें ही बताती थीं कि सब कुछ ठीक है। रात में कई बार नर्स आयी, उसने बोतलें बदलीं, थैलियां बदलीं और पापा को टेम्प्रेचर वगैरा लिया और चली गयी।
रात में मुझ तरह-तरह से ख्याल आते रहे। कुछ बड़े भयानक ख्याल थे। जैसे अचानक नर्स घबराकर खट-खट करती हुई बाहर जायेगी। दूसरी ही क्षण कई डॉक्टर आ जायेंगे। पापा को बाहर निकाला जायेगा और फिर कुछ देर बाद दो-तीन लोगों के साथ पापा की लड़की आयेगी। वह सिसक रही होगी। उसकी आंखें लाल होंगी। वह धीरे-धीरे पापा का सामान समेटेगी। पापा का चश्मा, उनकी डायरी, उनका कलम, उनके कपड़े, जूते, तौलिया, साबुन और वह छोटी-सी गठरी जिसमें से सख्त बदबू आती है। मेज पर रखा जूस का वह डिब्बा उठायेगी जो अब तक बंद है। दराज खोलेगी तो उसमें से कुछ खाने का सामान, छुरी-कांटा और चम्मच निकलेगा। इस सबके दौरान वह रोती रहेगी। साथ वाले लोग सान्त्वना के एक-आध शब्द कहेंगे। फिर सामान समेटकर वह पापा के बेड पर एक नजर डालेगी और चीखकर रो पड़ेगी। उसी समय बड़ी नर्स जायेगी तो ताजी हवा अंदर आयेगी। छोटी नर्सें खटाखट बेड कवर, तकिये गिलाफ और चादरें बदल देंगी। लोहे के सफेद बेड को साफ कर देंगी और बाहर निकल जायेंगी। अब वहां सिर्फ मैं बचूंगा। और अगर मैं किसी को बताना भी चाहूंगा कि बेड पर पापा ने अपनी जिंदगी से सबसे सच्चे क्षण गुजारे हैं तो किसी को यकीन नहीं आयेगा।
दो दिन तक पापा की हालत बिल्कुल एक-सी रही। उसके बाद मेरा अपना छोटा वाला ऑपरेशन हुआ और मैं पड़ गया। एक-आध दिन के बाद करीब शाम के वक्त जब मेरे पास मारिया और पापा के पास उनकी लड़की बैठे थे तो सीनियर नर्स आयी और बोली कि पापा को बैठाया जायेगा। उसने पापा का बेड ऊँचा किया। पापा दर्द से चिल्लाने लगे। फिर बेड नीचा कर दिया गया। लेकिन नर्स ने कहा कि इस तरह काम नहीं चलेगा। आखिर दोनों के बीच फैसला हुआ कि जितना उंचा पहल किया गया था उसका आध उंचा कर दिया जाये। उस दिन मारिया ने बताया कि पापा कह रहे हैं कि 'भगवान की कृपा से अब मैं डेढ़-दो साल और जी जाऊँगा।' मारियाजी को इस वाक्य पर बड़ी हंसी आयी थी। उन्होंने कहा था कि भगवान पर ऐसा विश्वास हो तो फिर क्या समस्या है। पापा अपनी लड़की को यह भी बता रहे थे, उनका खाना बंद है और वे सूखकर कांटा हो गये है। पापा सिर्फ 'लिक्विड डाइट` पर थे। जूस का सौभाग्यशाली डिब्बा खुल गया था। उसके अलावा पापा को कॉफी और सूप मिलता था।
एक-आध दिन बाद मैं बाथरूम से कमर में आया तो एक अद्भुत दृश्य देखा। बेड का सहारा लिये पापा खड़े थे। उनके सफेद बाल बिखरे थे। सफेद लंबा-सा अस्पताल का चोगा लटक रहा था। हाथ और पैर बिलकुल काले गये थे। शरीर के चारों ओर कुछ नलकियां और बैग झूल रहे थे। उनके चेहरे पर कोई भाव न थे। अपने खड़े रहने पर वे इतना ध्यान दे रहे थे कि और कुछ व्यक्त करने का उनके पास समय ही न था। मैंने सोचा कि उनके खड़ा होने पर बधाई दूं या कम-से-कम हंगेरियन शब्द 'यो` 'यो` कहूं जिसका मतलब 'अच्छा` 'सुंदर` आदि है। लेकिन फिर लगा कि कहीं मैं पापा को 'डिस्टर्ब` न कर दूं। उसी तरह, जैसे बच्चे जब पहली-पहली बार खड़े होते हैं और उन्हें देखकर माता-पिता हंस देते हैं तो वे धप्प से बैठ जाते हैं। पापा खड़े रहे। उन्होंने एक बार गर्दन उठाकर सामने देखा। एक बार गर्दन झुकाकर नीचे देखा। बेड को पकड़े-पकड़े एक कदम आगे बढ़ाया, उसके बाद वे रुक गये। पापा को खड़े देखकर यह लगा कि केवल पापा ही नहीं खड़े हैं। उनके साथ न जाने क्या-क्या खड़ा हो गया है। मैं एकटक भी नहीं देख सकता था। डर था कहीं पापा मुझे देखता हुआ न देख लें।
मेरे अस्पताल से निकाल दिये जाने के दिन करीब आ रहे थे। मैं जानता था कि जितना यहां आराम है, उतना कहीं और न मिलेगा। जितनी यहां शांति है उतनी शायद शांति निकेतन में भी न होगी। यहां समय अपने वश में लगता है लेकिन बाहर मैं समय के वश में रहता हूं। बहरहाल अस्पताल से बाहर जाने का विचार इस माने में तो अच्छा था कि ठीक हो गया हूं लेकिन इस अर्थ में अच्छा नहीं था कि बाहर अधकि खुश रहूंगा। अस्पताल के जीवन का मैं इतना अभ्यस्त हो गया था या वह मुझे इतना पसंद आया था कि बाहर निकाल दिये जाने का विचार एक साथ खुशी और अफसोस की भावनाओं का संचार कर रहा था। हॉयनिका ने भी एक बार मजाक में कहा था कि मेरे अस्पताल से चले जाने के बाद मैं उसे बहुत याद आउंगा। मैंने कहा कि अस्पताल के बाहर भी कहीं मिला जा सकता है। लेकिन फिर खुद अपने प्रस्ताव पर शर्मिंदा हो गया था दो-तीन घंटे की यात्रा और पूरी रात अस्पताल में ड्यूटी के बाद सुबह सात बजे तीन घंटे की यात्रा करने के लिए निकलने वाले से 'कहीं बाहर` मिलने की बात करना अपराध लगा।
पापा को खाना दिया जाने लगा था। अब वे अपनी लड़की से यह शिकायत करते थे कि खाना कम दिया जाता है। कई दिन भूखे रहने के बाद उनकी खुराक शायद बढ़ गयी थी। लेकिन इस संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता था। अस्पताल वाले नियमित मात्रा में ही खाना देते थे। पापा अब चूंकि थैलियां लटकाये चलने फिरने लगे थे इसलिए भी भूख खुल गयी होगी। ऑपरेशन के बाद पापा के पास से वह दुर्गंध आना बंद हो गयी थी, लेकिन कभी-कभी वह 'ट्यूब` या थैली खुल जाती थी जिसमें टट्टी आती थी। उसके खुलते ही भयानक दुर्गंध कमरे में भर जाती थी और बाहर निकलने के अलावा कोई रास्ता न बचता था। एक दिन यह हुआ कि पापा की टट्टी वाली थैली खुल गयी। उन्होंने स्वयं बंद करने की कोशिश की तो वह और ज्यादा खुल गयी। मैं कमरे से बाहर चला गया। कुछ देर बाद कमरे में आया तो देखा पापा खड़े हुए थैलियों से जूझ रहे हैं। टट्टी की थैली गंदगी निकलकर बिस्तर पर, फर्श पर फैल गयी है। पापा का चोगा उतर गया है। वे बिलकुल नंगे खड़े हैं। सफेद बाल बिखरे हुए हैं। पापा थैलियों को लगाने की कोशिश कर रहे थे। नर्स को नहीं बुला रहे। यह देखकर अच्छा लगा। पापा अब ये काम अपने आप कर सकते हैं। लेकिन मैंने नर्सों से जाकर कहा। वे आयीं। पापा और कमरे की पूरी सफाई हो गयी। पापा नये चोगे में लेट गये। चश्मा लगाकर अखबार ले लिया। खिड़की खोल दी थी। मैं भी लेट गया, अमजद अली खां को सुनने लगा।
पापा कुर्सी पर भी अक्सर बैठ जाते थे। एक दिन मैंने देखा कि पापा चश्मा लगाये, गंभीर मुद्रा में, हाथ में कलम लिये कुर्सी पर बैठे हैं। सामने मेज पर कुछ कागज रखे थे। मैं समझा शायद कुछ हिसाब लिख रहे हैं, लेकिन कलम चलने की रफ़्तार से कुछ समझ में नहीं आया। न तो वे पत्र लिख रहे थे, न शायरी लिख रहे थे, न हिसाब कर रहे थे। वे कलम को हाथ में पकड़े गंभीरता से कागज की तरफ देखकर देर तक कुछ सोचते थे और फिर झिझकते हुए कलम उठाते थे। एक-आध शब्द लिखते थे और फिर कलम रुक जाता था। एकाग्रता बहुत गहरी थी। माथे पर लकीरें पड़ी हुई थीं। चिंता में डूबे थे जैसे कोई ऐसा काम कर रहे हों जो उनके लिए जरूरी से भी ज्यादा जरूरी हो। यह जानने के लिए, ऐसा क्या हो सकता है, मैं उठा और टहलने के बहाने पापा के पीछे पहुंच गया। अब मैं देख सकता था कि वे क्या कर रहे हैं। वाह पापा वाह! तो ये ठाठ हैं। इसका मतलब हैं अब तुम बिलकुल 'चंगे` हो गये हो। लाटरी वह भी यूरोप की सबसे बड़ी लाटरी. . .सौ मिलियन फोरेन्त। भई वाह. . .क्या करोगे इतना पैसा पापा? चर्च बनवाओगे? उस भगवान का घर जिसकी कृपा से तुम साल-डेढ़ साल और जीओगे या अपने लिए शानदार कोठी बनवाओगे? या हर साल जाड़ों में फ्रांस के समुद्र तट पर जाया करोगे? समुद्र में नहाओगे? ख़ूबसूरत फ्रांसीसी लड़कियों के साथ 'बीच` पर लेटकर अपना रंग सुनहरा करोगे? या ये सौ मिलियन डालर तुम अपनी लड़की को दे दोगे? या महंगी-महंगी गाड़ियां खरीदोगे। जायदाद बनाओगे या कोई सरकारी फैक्टरी खरीद लोगे जो आजकल धड़ाधड़ बिक रही हैं? क्या करोगे पापा? क्या करोगे सौ मिलियन फोरेन्त? ये बताओ कि अगर ये लाटरी तुम्हारी नाम निकल आयी तो तुम्हें ये सूचना देने का जोखिम कौन उठायेगा? यह सुनकर तुम्हें क्या लगेगा कि मरने से डेढ़-दो साल पहले तुम करोड़पति हो गये हो? फिर तुम्हारे लिए एक मिनट एक महीने जैसा कीमती होगा। तब तुम अपना एक मिनट कितनी होशियारी, चतुराई, सतर्कता, समझदारी से गुजारोगे? कुछ भी कहो पापा, सौ मिलियन मिलने के बाद तुम्हारी परेशानियां बढ़ ही जायेंगी। लेकिन यह बड़ी बात है। कितने ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारी उम्र तक पहुंचते-पहुंचते इच्छाओं से खाली हो जाते हैं। तुम्हारे पास सौ मिलियन फोरेन्त खर्च करने की योजना भी होगी। क्योंकि हर लाटरी खेलने वाले के पास इस प्रकार की एक योजना होती है। तुम्हारे पास योजना है तो तुम सोचते हो अपने बारे में, परिवार के बारे में, लोगों के बारे में। यह बहुत है पापा, बहुत है। अच्छा पापा, एक बात पूछूं? कान में, ताकि कोई ओर सुन न लें। ये बताओ कि यह इच्छा- मतलब लाटरी निकल आने की इच्छा कब से है तुम्हारे मन में? क्या मंदी के दिनों से है जब तुम जवान और बेरोजगार थे? या उस समय से हैं जब जर्मन और रूसी गोलियों से बचने तुम किसी अंधेरे तहखाने में छिपे हुए थे? क्या यह इच्छा उस समय भी भी तुम्हारे मन में जब तुम विजयी लाल सेना का स्वागत कर रहे थे? बाद के दिनों में क्रांति के बीत गाते हुए या सहकारी आंदोलन में रात-दिन भिड़े रहने के बाद भी तुम यह सपना देखने के लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेते थे? माफ करना पापा, मैं ये सब इसलिए पूछ रहा हूं कि ऐसे सपने देखना कोई बुढ़ापे में शुरू नहीं करता। है न?
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13 तख्ती
लोग अक्सर मुझसे कहते या पूछते हैं या सिर्फ इस हकीकत की तरफ इशारा करते हैं कि मुझे बहुत-सी आवश्यक जानकारियां नहीं हैं। गणित, व्याकरण खगोलशास्त्र, पुरातत्व जैसे बहुत से विषयों के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। यही नहीं, सामान्य जानकारियां भी नहीं। उदाहरण के लिए आप कहें कि मैं दस चिड़ियों, फलों, मछलियों या पत्थरों के नाम बता दूं तो नहीं बता सकता। यदि आप पूछें कि विश्व की दूसरी प्राचीनतम सभ्यता कौन-सी थी या भूमध्य रेखा कहां से गुजरती है तो मैं मुंह खोल दूंगा। शायद यही वजह है कि कहा जाता है, मेरी शिक्षा कुछ ठीक-ठाक नहीं हुई। लोग उन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में नाम जानना चाहते हैं जहां मैं पढ़ा हूं। कुछ लोग मेरे गुरुजनों के नाम पता लगाने की धृष्टता करते हैं। अब मैं क्या कहूं, कमीनेपन की भी हद होती है।
बहरहाल, इन सवालों से घबराकर मैंने एक यात्रा शुरू की है, जिसमें चाहता हूं आप मेरे साथ चलें। लेकिन कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन आप इनकार करें तो कोई खूबसूरत-सा बहाना जरूर तलाश करें। यह मुझे पंसद है। समझ जाउंगा कि बाहना बना रहे हैं लेकिन दिन नहीं दुखना चाहते। आज के जमाने में यह भी बड़ी बात है। मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा। लेकिन अगर आप मेरे साथ चलेंगे तो उसमें कम-से-कम आपको कोई नुकसान न होगा। हां, अगर आप मेरी धारणा के विपरीत समय को मूल्यवान समझते हो तो बात दूसरी है। अगर आप ऐसा नहीं समझते तो मेरे साथ चलें। बकौल नासिर काजमी 'सब मेरे दौर में मुंहबोलती तस्वीरें हैं। कोई देखे मेरे दीवान के किरदारों को।`
कहां जाता है कि जब मैं सात-आठ साल का था तो मेरी पढ़ाई का सवाल उठा। इतनी देर से इसलिए कि परिवार में कई पीढ़ियों ने पढ़ने-लिखने की कोई जरूरत न महसूस की थी। सगड़ दादा को तो कलम-कागज से ऐसी नफरत थी कि वे अपनी जमींदारी का हिसाब-किताब करने वाले मुंशियों तक को लिखते-पढ़ते देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लेकिन सगड़ दादा बहुत समय तक परिवार के आदर्श न बने रह सके। हां, यह धारणा जरूर बची रही कि लोग नौकरी करने के लिए पढ़ते हैं और चूंकि हमारे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है, हम किसी की नौकरी नहीं करेंगे तो क्यों पढ़ें। घर की पढ़ाई बहुत है। थोड़ी फारसी, थोड़ा हिसाब, थोड़ी अरबी आ जाए तो बहुत है। हमारे परदादा ने अपने दोनों लड़कों को घर की पढ़ाई के बाद पहली बार स्कूल भेजा था। इस वक्त बड़े लड़के की उम्र सोलह सात की छोटे की चौदह साल थी। यह उन्नीसवीं सदी के चलचलाव का जमाना था। बड़े लड़के की स्कूल तालीम इस तरह अंजाम तक पहुंची कि उसकी किसी टीचर से कहा-सुनी हो गई । टीचर ने गाली दे दी। उसने टीचर को उठाकर पटक दिया, हाथ-पैर तोड़ दिए और घर आ गया। परदादा ने इस मामले को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। सोचा, जहां बारह मुकदमे चले रहे हैं वहां तेरहवां भी चलेगा। बस छोटे बेटे की तालीम बड़े सुखद कारणों से अंजाम तक पहुंची। यानी उनकी शादी हो गई। चौथी के बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया।
जिंद़गी के आखिरी दौर में तो नहीं बल्कि उससे पहले ही हमारे दादाजान की समझ में यह बात आ गई थी कि स्कूली शिक्षा जरूरी है। इसकी वजह यह थी कि वे शहर के रईस होने के नाते अंग्रेज अफसरों से उनकी कोठियों, दफ़्तरों, क्लबों में मिलते थे और देखते थे कि उनके दरबारों में आमतौर उन काले लोगों को सम्मान मिलता है जो टूटी-फटी ही सही, गोराशाही ही सही, लेकिन अंग्रेजी बोलते हैं। पर चिड़िया खेत चुग चुकी थी। यानी दादाजान अपने पढ़ने को सुहाना समय गंवा चुके थे इसलिए उन्होंने हमारे पिताजी की पढ़ाई का पक्का धयान रखा। पिताजी छोटे ही थे कि उनको पढ़ाने के लिए सुबह मौलवी, दोपहर के वक्त एक मास्टर अंग्रेजी पढ़ाने और शाम के वक्त एक मास्टर हिसाब पढ़ाने आने लगा। इस तरह दादाजान का इरादा था कि पिताजी की जड़ें मजबूत कर दी जाएं ताकि आगे कोई दिक्कत न हो। नतीजा यह हुआ कि अब्बा गणित से इतना डरने लगे जितना लोग अल्लाह से भी नहीं डरते। अंकगणित और बीजगणित उन्हें दो ऐसे जिन्न लगते थे जो उन्हें दबाकर बैठ गए हों और लगातार मार रहे हों। नतीजा यही निकला कि आठवीं में दो बार लुढ़क गए। दसवीं में थे कि आजादी मिल गई उनको ही,देश को। दसवीं ही में थे कि गांधीजी की हत्या हो गई। फिर दसवीं ही में थे कि जमींदारी खत्म हो गई। पर कुछ ऐसे जरूरी काम थे जो उनके दसवीं में लगातार वक़्त पास की जब दो बच्चों के बाप बन चुके थे।
अब्बा ने मेरी पढ़ाई की तरफ समय से ध्यान दिया। अब चूंकि जमींदारी नहीं थी। किसी-न-किसी को नौकरी करनी थी। इसलिए पढ़ाई जरूरी हो गई थी। मेरी जड़ें मजबूत करने का काम उतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ जितना अब्बा का हुआ था। मुझे पढ़ाने एक मास्टर आते थे। उनका नाम शराफत हुसैन था। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। पान के रसिया। जब पढ़ाते तो पान मुंह में इस कदर भरा रहता था कि मुंह से आवाज के बजाय पान की छींटें निकलती थीं। पढ़ाई के दौरान कई बार वे मुझे घर के अंदर पान लेने भेजते थे, 'जाओ पान लगवा लाओ।' मैं खुशी-खुशी उठकर भागने वाला होता तो कहते, 'इससे पहले जो पान लाए थे वो किससे लगवाया था?'
'अम्मा से।'
'अबकी बड़ी बिटिया से लगवाना।' बाकी डिटेल मुझे याद थी माट साब के पान में कत्था कम चूना ज्यादा, डली कम किमाम ज्यादा. . .
मास्टर साहब अच्छे आदमी थे। मुझे पर विश्वास करते थे। एक बार पढ़ाने के बाद पूछते थे, 'क्यों, समझ गए?' मैं कहता था, 'हां समझ गया।' और वे विश्वास कर लेते थे। कहते थे 'लड़का जहीन है, जल्दी समझ जाता है। तरक्की करेगा।' मैं यह जानता था कि यह पूछने के बाद कि समझ गये वे और कुछ नहीं पूछेंगे इसलिए हां कर दिया करता था। मुझे लगता था जैसे 'हां समझ गया` कहकर मैंने अपनी जिंदगी को आसान बना लिया है वैसे ही दूसरे लोग क्यों नहीं करते। मुझे बचपन में कुएँ से पानी भरकर लाने वाले भिश्ती से बड़ी हमदर्दी थी। मैं यह चाहता कि मेरे काम की तरह उसका काम भी हल्का हो जाए। लड़कपन में कुएँ के पास जाने मनाही थी। एक दिन चला गया था। कुआं घर के बाहर कोने में था। वह मुख्य घर से करीब हजार-डेढ़ हजार फीट दूर था। वहां भिश्ती करीमउद्दीन पानी भर रहा था। मैंने उससे गिड़गिड़ाकर दरखास्त की थी कि क्या एक बाल्टी मैं भी खींच सकता हूं? उसने मुझे ऐसा करने दिया था कि तब से मैं सोचा करता था कि अल्लाह मियां, तू करीमउद्दीन का काम हल्का क्यों नहीं कर देता। बहरहाल, बात हो रही थी कि मास्टर साहब की तो माट साब मुझ पर विश्वास करते थे। मैं माट साहब पर विश्वास करता था। अब्बा जब भी पूछते थे कि माट साब जो पढ़ाते हैं वो समझ में आता है तो मैं कहता था हां आता है जबकि हकीकत यह थी कि जब माट साब पढ़ाते थे तो मैं करीमउद्दीन के बारे में सोचा करता था यह सोचा करता था कि फलों को अगर बहुत जोर से मसला जाए तो रंग निकाला जा सकता है। और रंग से बड़ी अच्छी तस्वीर बन सकती है। या सोचा करता था कि अबकी कमल तोड़ने के लिए किस तालाब में जाना चाहिए। या तैरना सीख लूं तो कितना अच्छा हो। वगैरह-वगैरह।
लड़कपन में माट साब के अलावा कभी-कभी जब जी चाहता था तो अब्बा भी पढ़ाते थे। वह वक्त मेरी उपर बहुत ही सख्त गुजरता था जब अब्बा कहते थे कि अपनी किताबें-कापियां लेकर आओ। अब्बा हिसाब नहीं पढ़ाते थे। हालांकि वे हाईस्कूल थे, मैं पाँचवी में पढ़ता थ। अब्बा का ख्याल था कि अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। अब्बा साल-छह महीने में एकाध बार यह ऐलान करते थे कि वे मुझे पढ़ाने जा रहे हैं तो उसका असर घर में कुछ उसी तरह होता था जैसे हवाई हमले के सूचक सायरन का असर किसी सैनिक अड्डे पर होता है। मतलब अम्मा जानमाज बिछाकर बैठ जाती थी और दुआ मांगती थी कि आज की पढ़ाई के परिणामस्वरूप भंयकर हिंसा न हो। घर में खाना पकाने वाली औरत मेरी पसंद का खाना चढ़ा देती थी कि पिटने के बाद मुझे वह खाना खिलाया जा सके। एक नौकर अर्रे की पतली छड़ी ले आता था क्योंकि अब्बा छड़ी सामने रखकर ही पढ़ाते थे। मेरे साथ गेंद खेलने वाले नौकरों के लड़के भाग जाते थे। कोई जोर-जोर से बात नहीं करता था। बहुत साफ करके एक लालटेन पास रख दी जाती थी कि अंधेरा होने पर फौरन जलाई जा सके। एक नौकरानी हल्दी पीसने लगती थी कि पढ़ाई के बाद मेरी चोट पर लगाई जाएगी. . .जनाबेवाला, हो सकता है कि यह विवरण देने में कुछ अतिशयोक्ति से काम ले रहा हूं लेकिन यह सच है कि अब्बा ने मुझे किस तरह पढ़ाया था आज तक याद है। क्या पढ़ाया था वह भूल चुका हूं।
जब पांचवीं पास करने के बाद मैं छठी में आया तो पुराने माट साब को निकाल दिया गया और उनकी जगह नए माट साब, जो सरकारी स्कूल में अध्यापक भी थे, घर पढ़ाने आने लगे। उनका वेतन उस जमाने के हिसाब से बहुत ही ज्यादा था, जिसका उलाहना मुझे दिया जाता था कि तुम्हारी पढ़ाई पर इतना खर्च किया जा रहा है, तुम ठीक से पढ़ा करो। नए माट साब का नाम शुक्ला माट साब था लेकिन लड़के इन्हें पीछे बग्गड़ माट साब कहा करते थे। माफ कीजिएगा, मैं अपने गुरु का नाम बिगाड़कर उनका अपमान नहीं कर रहा हूं। न तो मैंने उन्हें यह नाम दिया था और न मैं इसे अच्छा समझता था। मैं तो केवल बताने के लिए बता रहा हूं। पाप अन पर पड़ेगा या पड़ा होगा जिन्होंने यह नाम रखा था। तो साहब, बग्गड़ माट साब की उम्र चालीस-पैंतालीस के बीच रही होगी। कद औसत था। जिस्म गठीला था। आंखें छोटी और अंदर को धंसी हुई थीं। होंठ पतले थे। क्लीन शेव रहते थे। गालों के उपर वाली हड्डियों कुछ अधकि उभरी हुई थीं। माथा छोटा था। सिर के बाल बड़े अजीबोग़रीब थे। यानी बिलकुल खड़े रहते थे। काले और बेहद मजबूत थे। रोज ही उनसे सरसों के असली तेल की सुगंध आती थी। उनकी गरदन छोटी थी। शायद उनके बालों के कारण ही लोग उन्हें बग्गड़ कहते थे। बहरहाल, खुदा जाने क्या वजह थी।
जैसा कि उपर बताया गया, बग्गड़ माट साब के बाल बहुत खास थे। उन्हें अपने बालों पर गर्व था। अक्सर उसका प्रदर्शन भी करते रहते थे जिसका तरीका बड़ा रोचक होता था। पढ़ाते-पढ़ाते कभी बालों की चर्चा छिड़ जाती तो पूरे एक घंटे का भाषण और प्रैक्टिकल हमेशा तैयार रहता था। विषय की थ्योरी में मेरी अधकि रुचि नहीं थी। प्रैक्टिकल में मजा आता था यानी बग्गड़ मास्टर अपना सिर झुका लेत थे और मुझसे कहते थे कि मैं उनके बाल पूरी ताकत से खींचूं। कभी-कभी मैं इतनी जोर से उनके बाल खींचता था कि मेरा चेहरा लाल हो जाया करता था, लेकिन बग्गड़ माट साब का एक बाल भी न टूटता था। वे मुस्कराते रहते थे। उसका रहस्य छिपा था थ्योरी में। बग्गड़ माट साहब कहते थे कि वे साबुन से नहीं नहाते। सिर में हमेशा शुद्ध - अपने सामने पिराया - सरसों का तेल लगाते हैं। तेल रोज सुबह लगाते हैं। कंघा कभी नहीं करते आदि-आदि। बग्गड़ माट साब रोज शाम पांच बजे आते थे। घर के बाहर अहाते में कच्ची कोठरी को लीप-पोतकर 'स्टडी रूम` बनाया गया था। उसमें लकड़ी की मेज-कुर्सियां और एक अच्छा-सा मिट्टी के तेल का लैम्प रखा रहता था। बग्गड़ माट साह रोज एक घंटे के लिए आते थे। इतवार छुट्टी होती थी। कभी-कभी उनसे नागा भी हो जाता था। वह सबसे सुहावनी शाम होती थी।
बग्गड़ माट साब में और चाहे जितने दोष रहे हों वे हिंसक नहीं थे, जबकि स्कूल के दूसरे अध्यापक जैसे त्रिपाठी माट साब, खरे माट साब, संस्कृत के पंडित जी, आर्ट के माट साब वगैरह खाल उधेड़ने के लिए मशहूर थे। लेकिन इन सबसे हिंसक होने के अलग-अलग कारण हुआ करते थे और हिंसा व्यक्त करने के तरीके भी जुदा-जुदा थे। जैसे किसी को छड़ी चलाने का अच्छा अभ्यास था। कोई कुर्सी के पाए के नीचे हाथ रखवाकर उस पर बैठ जाता था। कोई तमाचे लगाने और कान खींचने में निपुण था। कोई मुर्गा बनाकर उपर बोझ रखा दिया करता था। कोई उंगलियों के बीच में पेंसिल रखकर उंगलियों को दबाकर असह्य पीड़ा पैदा करने का हुनर जानता था। बहरहाल, एक ऐसा बाग था जिसमें तरह-तरह के फल खिले थे। हां, त्रिपाठी माट साब का तरीका बड़ा मौलिक और रोचक था। वे कुर्सी पर बैठकर लड़के का सिर अपने दोनों घुटनों के बीच दबा लेते थे और उसकी पीट पर अपने दोनों हाथों से दोहत्थड़ मारते थे। यह करते समय वे 'बोतल-बोतल` कहा करते थे। पता नहीं बोतल क्यों कहते थे। लड़कों ने इस सजा का नाम 'बोतल बनाया` रखा था।
एक दिन का किस्सा है, त्रिपाठी माट साब ने बैजू हलवाई के लड़के को बोतल बनाने के लिए उसका सिर घुटने में दबाया और दोहत्थड़ मारा। पता नहीं लड़के को चोट बहुत ज्यादा लगी या वह तड़पा ज्यादा या त्रिपाठी माट साब ने उसे ठीक से पकड़ नहीं रखा था, वह छूट गया। उठकर भागा। माट साब उसके पीछे दौड़े। वह खिड़की से बाहर कूद गया। माट साब भी कूद गये। वह भागकर स्कूल के गेट से बाहर निकल गया। माट साब भी निकल गये। उन्हीं के पीछे पूरी क्लास 'पकड़ो-पकडो` का शोर मचाती निकल गई। भागदौड़ में माट साब की धोती आधी खुल गई और उनकी चोटी भी खुल गई। पर वे सड़क पर उसका पीछा करते रहे। स्कूल के सामने तहसील थी। उसके बराबर में कुछ हलवाइयों की दुकानें थीं। बैजू हलवाई की दुकान और उसके पीछे घर था। लड़का दुकान में घुसा और घर के अंदर चला गया। पीछे-पीछे माट साब पहुँचे। माट साब कहने लगे, 'निकालो ससुरउ को बाहर. . .अब तो जब तक हम दिल भर के मार न लेब, हमें खाया पिया हराम है।'
'पर बात का भई माट साहिब?' बैजू ने पूछा।
'हमारा अपमान किहिस ही. . .और का बात है।'
बैजू समझ गया। उसकी पत्नी भी समझ गई। लोग भी समझ गए। तहसील के सामने वकीलों के बस्तों पर बैठे मुंशी भी उठकर आ गए। थोड़ी ही दे में मजमा लग गया। माट साब जिद ठाने थे कि लड़के को बाहर निकालकर उन्हें सौंप दिया जाये। बैजू बहाने बना रहा था। अत में उसने कहा कि लड़के ने घर के अंदर से जंजीर लगा ली है और खोल नहीं रहा है। यह जानकर त्रिपाठी माट साब और गरम हो गये। इस नाजुक मौके पर मुंशी अब्दुल वहीद काम आये, जो त्रिपाठी के साथ उठते-बैठते थे। मुंशीजी ने कहा, 'ठीक है, त्रिपाठी जी, लड़का तुम्हें दे दिया जाएगा। जितना मारना चाहो मार लेना, पर यह तमाशा तो न करो। तुम अध्यापक हो, यहां इस तरह भीड़ तो न लगाओ।' फिर उन्होंने सब लड़कों को डांटकर भगा दिया। और बैजू से कहा, 'माट साब के हाथ-मुंह धोने को पानी दे।' इशारा काफी था। बैजू ने एक बड़ा लोटा ठंडा पानी दिया। माट साब ने हाथ-मुंह धोया। फिर बैठ गये। बैजू ने करीब डेढ़ पाव ताजा बर्फ़ी सामने रख दी। एक लोटा पानी और रख दिया। त्रिपाठी जी का गुस्सा कुछ तो पानी ने ठंडा कर दिया था। कुछ बर्फ़ी ने कर दिया।
बैजू हलवाई ने कहा, 'आप चिंता न करो। साला जायेगा कहां समझा-बुझा के आपके पास ले आएंगे। दंड तो ओका मिला चाही।' उसी वक्त स्कूल का चपरासी आया और कहा कि त्रिपाठी माट साब को हेड मास्टर साहब याद करते हैं।
कुछ दिनों बाद यह पूरा किस्सा एक बड़े रोचक मोड़ पर आकर धीरे-धीरे खत्म हो गया। बैजू हलवाई के लड़के को एम.ए. की डिग्री मिल गई। यानी उसका शिक्षाकाल समाप्त हो गया। त्रिपाठी माट साब महीने में दो-तीन बार स्कूल आते वक्त जब जी चाहता था बैजू हलवाई की दुकान की तरफ मुड़ जाते थे। उन्हें देखते ही बैजू का लड़का घर के अंदर चला जाता था। बैजू से माट साब पूछते थे, 'कहां गवा ससुरा?' बैजू बहाना बना देता था। माट साब भी समझते थे कि टाल रहा है। तब बैजू उन्हें एक दोना जलेबी या बेसन के लड्डू या कलाकंद पकड़ा देता था। माट साब बेंच पर बैठकर खाते और पानी पीते थे। बैजू और उनके बीच कुछ गहरे आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत होती थी कि यदि हम राम, रामहु, राम: वगैरह-वगैरह सीख भी लेंगे तो क्या होगा! कुछ दिनों बाद यह विश्वास हो गया था कि कभी न सीख सकेंगे और कुछ दिनों बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे कि व्याकरण पैदा ही इसलिए हुई है कि हमें पिटने के अवसर मिलते रहें।
अगर मैं सभी अध्यापकों के सजा देने के तरीक़ों का पूरा विवरण दूं तो बहुत से पन्ने काले हो जाएंगे। आप ऊब जाएंगे। लगेगा मैं स्कूल का नहीं पुलिस थाने का विवरण दे रहा हूं। इसलिए मुख़तसर लिखे को बहुत जानो।
हमारे स्कूल का नाम गवर्नमैंट नार्मल स्कूल था। नाम शायद स्कूल खोले जाने के बाद रखा गया था क्योंकि वहां हर चीज 'एबनार्मल` थी। लेकिन शहर के अन्य स्कूलों की तुलना में यह बहुत आदर्श स्कूल माना जाता था क्योंकि यहां कमरे, कुर्सियां, ब्लैकबोर्ड आदि थे। अध्यापक भी दूसरे स्कूलों की तुलना में पढ़े-लिखे तथा प्रशिक्षित थे। हम अक्सर गर्व भी किया करते थे कि हम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। बग्गड़ माट साब गर्व करते थे कि वे सरकारी नौकर हैं। रिटायर होने के बाद उन्हें बाकायदा पेंशन मिलेगी।
मेरा विषय चूंकि गुरुजनों पर केंद्रित है इसलिए लौटकर फिर बग्गड़ माट साब पर आता हूं जिनका प्रभाव आज तक मुझ पर है यानी उन्होंने मुझे जो सिखाया या नहीं सिखाया, जो बनाया या बिगाड़ा वह आज तक मरे अंदर झलकता है। मैं उनका आभारी हूं। बग्गड़ माट साब अनौपचारिक शिक्षा के महत्व को उस जमाने में भी बहुत गहराई से समझते थे। यही कारण था कि अक्सर गणित पढ़ाते-पढ़ाते वे अपनी घरेलू समस्याओं तक पहुंच जाते थे। उनकी एक समस्या, छोटी-सी उलझन यह थी कि उन्हें दूध बाजार में पीना पड़ता था। कारण यह था कि उनके बच्चे अधकि थे। घर में यदि दूध मंगाते तो सभी को थोड़ा-थोड़ा देना पड़ता। और इस तरह बग्गड़ माट साब के हिस्से में छटांक भर ही आता। यह सब सोच-समझकर वे बाजार में दूध पीते थे। किसी हलवाई की दुकान के सामने खड़े होकर डेढ़ पाव दूध गरमागरम पीने के बाद ही वे घर लौटते थे। लेकिन इसमें एक दिक्कत थी हलवाई की दुकान का दूध पीते उन्हें यदि कोई देख लेता था तो बग्गड़ माट साब को बड़ी शर्म आती थी। फिर उसे आमंत्रित करना पड़ता था। फिर शकर में खूब चर्चा होती थी कि बग्गड़ माट साब रात में ट्यूशन पढ़ाने के बाद जब घर लौटते हैं तो हलवाई के यहां खड़े होकर दूध पीते हैं। यह बात उड़ते-उड़ते घर भी पहुंच जाती थी जिससे बग्गड़ माट साब की उनकी पत्नी से लड़ाई तक जो जाया करती थी। इस लड़ाई में लड़के, जिनमें जवान लड़के से लेकर दो साल की उम्र तक के शामिल थे, अम्मा का पक्ष लेते थे।
बग्गड़ माट साब बी.ए., बी.टी. थे। पता नहीं उनके मन में क्या आई कि हिंदी में प्राइवेट एम.ए. करने के लिए फार्म भर दिया। वे स्कूल में लड़कों से तथा घर में मुझसे कहते थे कि यह हम लोगों के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे अध्यापक एम.ए. पास हैं। कुछ दिनों के बाद यह होने लगा कि बग्गड़ माट साब अपने साथ एक मोटी-सी किताब लाने लगे। जब पढ़ाने बैठते तो कहीं-न-कहीं से अपनी एम.ए. की पढ़ाई का जिक्र छेड़ देते और फिर एक मोटी-सी पुस्तक निकालकर जोर-जोर से पढ़ने लगते। मेरी समझ में वह बिलकुल न आयी थी, लेकिन खुश होता था कि चलो मैं खुद पढ़ाई से बच रहा हूं। एक पुस्तक का नाम अभी तक याद है जो बग्गड़ माट साब लाया करते थे 'पद्मावत`। वे जो पंक्तियां पढ़ते थे उसकी व्याख्या भी करते जाते थे। जब तक उन्होंने एम.ए. पास नहीं कर लिया तब तक उनकी पढ़ाई और मेरी पढ़ाई साथ-साथ होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि वे एक घंटे के बजाय दो घंटे बैठते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि वे एम.ए. पास हो गये हैं। डिवीजन पूछने पर बोले, 'मैंने डिवीजन के लिए एम.ए. थोड़ी ही किया है। मेरा ध्येय है कि कभी जब मैं प्रिंसिपल बनूं तब तख़्ती पर मरे नाम के साथ जो डिग्रियां हों उनमें बी.ए., बी.टी., एम.ए. होना चाहिए।' इस तरह वे अपने मकसद में कामयाब हो गये थे। स्कूल में अन्य अध्यापक कहते थे कि बग्गड़ माट साब की थर्ड डिवीजन आई है।
बग्गड़ माट साब ने मुझे कक्षा छ: से लेकर दस तक पढ़ाया था। नवीं तक मैं बराबर पास होता रहा। इसमें उनकी पढ़ाई का योगदान था या मेरी बुद्धि का चमत्कार, कह नहीं सकता। लेकिन नवीं तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। दसवीं में जब पहुंचा तो बग्गड़ माट साब ने घोषणा कर दी कि मैं दूसरी सभी विषयों में पास हो जाउंगा लेकिन वे गणित में पास होने की गारंटी नहीं लेते। अब्बा को जब यह पता चला तो उन्होंने इस सहज ही लिया। वे जानते थे कि मैं गणित में बहुत कमजोर हूं। मैंने यह लाइन ले ली थी कि गणित की जो कमजोरी मुझे 'विरसे` में मिली है उसके जिम्मेदार अब्बा हैं। मतलब यह कि बग्गड़ माट साब की तरफ से मेरी तरफ से, अब्बा की तरफ से यह तैयारी पूरी थी कि मैं गणित में फेल हो गया तो अचंभा किसी को नहीं होगा।
गणित से मेरी कभी नहीं पटी। गणित के अपने कृपा के द्वार मेरे लिए सदा बंद रखे हैं। और इसका आरोप बिना वजह मेरे उपर लगाया जाता था। सब, सबसे ज्यादा अब्बा कहा करते थे कि मैं 'कूढ़मगज` हूं। मैं इस शब्द का मतलब यह समझता था कि मेरे दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है। गणित पढ़ते समय यह संदेह विश्वास में बदल जाता था। मैं अपने गणित न सीख पाने का रहस्य समझ चुका था। लगता था कि अब प्रयास करना भी बेकार है। जब दिमाग में साला कूड़ा भरा हुआ है तो हम क्या कर सकते हैं। फिर खुशी भी होती थी कि चलो इसकी जिम्मेदारी हम पर नहीं आती, क्योंकि कोई अपने आप तो अपने दिमाग में कूड़ा नहीं भर सकता। अकल कम है वाली धारणा मेरे अंदर बहुत गहराई में जाकर बैठ गई थी।
जिस मेरे गणित का पेपर था, उस दिन अब्बा ने कहा कि वे नमाज पढ़ेंगे। मैंने कहा मैं भी पढ़ूंगा। तब अब्बा ने कहा, नहीं तुम अपना हिसाब पढ़ो। वे चाहते थे कि काट बंट जाये। बहरहाल, दोनों तरफ से तैयारियां पूरी थीं। मैं सुबह साढ़े छह बजे शहीदों वाली मुद्रा में घर से निकला। इतना ज्यादा पढ़ लिया था कि कुछ भी याद न था। सेंटर दूसरी जगह था। वहां गया। बरामदे में सीट लगी थी। पीछे की सीट पर एक दादा किस्म का लड़का बैठा था। उसने इम्तिहान शुरू होने से पहले मुझसे कहा कि ठीक एक घंटे के बाद मैं पेशाब करने के लिए जाउं और पेशाबखाने की खिड़की के पीछे नकल कराने आये लोगों में से कोई करीम मुझे हल किया पर्चा दे देगा। मैंने कहा, पर मैं करीम को पहचानूंगा कैसे. . .? उसने कहा, तुम आवाज देना करीम। वह रोशनदान से पर्चा दे देगा। कहना, सल्लू दादा ने भेजा है। पर्चा ले आना।
खैर साहब, घंटा बजा। पर्चा बांटा गया। देखा तो मामला पूरा गोल यानी कोई सवाल नहीं आता था। सल्लू दादा ने पर्चा बनाने वाले की मां-बहन को याद किया और पंद्रह मिनट बाद पर्चा जेब में ठूंसकर पेशाबखाने की तरफ दौड़े। उन्होंने इसकी इजाजत भी नहीं ली, जो जरूरी थी। बहरहाल, उनके हाव-भाव से सब समझ चुके थे कि वे दादा हैं और कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए बेचारे सूखे मरियल अध्यापक उन्हें बड़ी-से-बड़ी सीमा तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार थे। वे पर्चा दे आये और कापी पर इस तरह झुककर लिखने लगे जैसे सारी जान उसी में लगा देंगे। मैंने भी यही किया। जब पूरा एक घंटा हो गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जाउं। मैं बाकायदा इजाजत लेकर गया तो मेरे पीछे-पीछे एक अध्यापक भी गये। और नतीजे में काम नहीं हो पाया। सल्लू दादा से मैंने बता दिया कि ऐसा हुआ। उन्होंने चुनिंदा गालियों का पिटारा खोल दिया। उठे और पेशाबखाने की तरफ बढ़ गये। अध्यापक उनके पास तक आया, कुछ बात हुई और फिर लौट गया। मतलब सल्लू दादा की विजय। वे आये। नजरों में विजय का हर्षोल्लास था। बिलकुल नेपोलियन की तरह। इसके बाद उन्होंने काम शुरू कर दिया। करीब एक घंटे इंतजार के बाद फिर मेरी बारी आई। जिंदगी में पहली बार यह पवित्र काम कर रहा था। हाथ कांप रहे थे। होंठ सूख रहे थे। लिखा कुछ था दिखाई कुछ दे रहा था। और एक ही घंटा रह गया था। निगरानी बढ़ गई थी। पकड़े जाने पर तीन साल के लिए निकाले जाने का डर था। बहरहाल, तनाव इतना था कि कह नहीं सकता। पर मरता क्या न करता!
गर्मियों की छुट्टियों के सुखद दिनों में एक तनावपूर्ण सप्ताह आया जब बताया गया कि 'रिजल्ट` आने वाला है। साइकिलों पर बैठकर लड़के स्टेशन जाते थे, जहां सबसे पहले अखबार पहुंचता था। एक दिन गये, नहीं आया। बताया गया दो दिन बाद आयेगा। फिर गये, नहीं आया। फिर एक दिन आया। खुद देखने की हिम्मत न थी। किसी ने बताया, साले तुम पास हो गये हो। अपनी खुशी का हाल मैं क्या बताऊँ। लेकिन श्रेय सल्लू दादा को जाता है।
हाईस्कूल करने से पहले ही मेरे भविष्य के बारे में बड़ी-बड़ी योजनाएं बननी शुरू हो गई थीं। योजनाएं बनाने वालों के कई गुट हो गये थे। अब्बा मुझे एयरफोर्स में भेजना चाहते थे। हाईस्कूल के बाद ही कोई ट्रेनिंग होती थी जो मुझे करनी थी। अम्मा इसकी सख्त विरोधी थी। उसका मानना था कि मुझे डॉक्टर बनना चाहिए। अब्बा मान गये कि चलो ठीक है, मैं डॉक्टर बन जाउं। एक छोटा-सा गुट यह भी कहता था कि कृषि-विज्ञान में कुछ करना चाहिए ताकि घर की खेती-बाड़ी संभाल सकूं। तीसरे गुट की राय यह थी कि वकालत पढ़ लूं क्योंकि हम लोगों में बहुत से मुकदमे चला करते थे। बहरहाल जितने मुंह उतनी बातें। आखिरकार राय यह बनी कि मुझे डॉक्टर ही बनना चाहिए और घर पर रहकर प्रैक्टिस करनी चाहिए। इस तरह मैं घर की खेती भी देख सकूंगा, मुक़दमेबाज़ी भी कर सकूंगा वगैरह-वगैरह। मजेदार बात यह है कि मुझसे कभी कोई नहीं पूछता था कि तुम क्या बनना चाहते हो। मुझे मालूम था कि अगर मुझसे पूछा जाता और मैं अपनी मर्जी का पेशा बता भी देता तो मुझे वह न बनने दिया जाता। मैं दरअसल आर्टिस्ट बनना चाहता था- कलाकार, पेंटर। लेकिन चित्रकारों, या कहें हर तरह के कलाकर्मियों के बारे में अब्बा की राय बहुत ज्यादा खराब थी। वे लेखकों, शायरों, चित्रकारों आदि को बहुत ही घटिया और निम्नकोटि के लोग मानते थे। ऐसे लोग जो अनैतिक होते हैं, भ्रष्ट होते हैं, शराब पीते हैं, कई-कई औरतों से संबंध रखते हैं, खुदा को नहीं मानते वगैरह-वगैरह। मतलब, अगर मैं मुंह से यह बात निकाल भी देता तो डांट पड़ती। अब मैं आपको लगे हाथों एक मजेदार बात बता दूं। स्कूल में मुझे केवल कक्षा पांच तक आर्ट पढ़ाई गई थी। लेकिन मैं आगे भी पढ़ना चाहता था। पर थी ही नहीं तब मैं चाहता था कि रंग का एक डिब्बा खरीद लूं। लेकिन यह भी जानता था कि रंग का डिब्बा इतना बड़ा अपराध होगा कि उसकी माफी न मिलेगी, क्योंकि मुझे पेंसिल से तस्वीरें बनाते देखकर ही अब्बा को बेहद गुस्सा आ जाता था। करीब-करीब मारते-मारते छोड़ते थे। शायद यही वजह है कि आज सफेद कागज और रंग मेरी कमजोरी हैं। सफेद कागज मुझे ऐसी अद्वितीय सुंदरी जैसा लगता है जिसका अलौकिक सौंदर्य विवश कर देता है। कलम या रंग देखकर मेरी पहली तीव्र इच्छा उसे ले लेने की ही होती है। मैंने कागज की जितनी चोरी की है उतना शायद कुछ और नहीं चुराया। कागज में मेरा प्रेम बढ़ती हुई उम्र में साथ बढ़ता ही गया। करीब दस साल पहले अमेरिका में एक धनाढ्य महिला ने मुझसे पूछा कि मैं न्यूयार्क में क्या देखना या करना चाहता हूं। वह महिला मेरी मदद या खातिर वगैरह करना चाहती थी। वह समझ रही थी कि कम पैसा और कम साधन होने के कारण जो कुछ मैं अपने आप देख या खरीद नहीं सकता, उसमें वह मेरी मदद करेगी। मैंने उसे बताया कि मैं न्यूयॉर्क में कागज, कलम, रंग वगैरह, मतलब स्टेशनरी की दुकानें देखना चाहता हूं। वह प्रसन्न हो गई और मुझे कई दुकानें दिखाईं।
देखिए, बात कहां से कहां जा पहुंची। इसी तरह बग्गड़ माट साब भी बात को कहीं पहुंचाकर कहीं से कहीं ले आते थे। हाईस्कूल में मेरे पास होने के बाद बग्गड़ माट साहब मुझसे बिछुड़ गये। उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि विदाई 'समारोह` में उन्हें एक घड़ी उपहारस्वरूप दी जाये जिस पर खुदा हो कि क्यों, कब, कैसे, कहां किसने दी है। मैंने उनकी यह इच्छा अब्बा के सामने रख दी थी। उन्होंने कहा था, घड़ी बहुत महंगी आती है। बग्गड़ माट साब को कुछ और दिया गया था।
विश्वविद्यालय में जब दाखिल हुआ तो डॉक्टर बनने की योजना के अंतर्गत सांइस के विषय ही दिलाए गये। हॉस्टल में रहने की जगह मिली। पहली बार आजादी मिली। हाथ में पैसा आया। डर खत्म हो गया। जल्दी ही 'हाबीज वर्कशॉप` में पेंटिंग सीखने का कोर्स ज्वाइन कर लिया। यहां कलीम साहब नामक अध्यापक थे। काफी दोस्ताना माहौल में काम करते थे। हम तीन लड़कों से, जो आपस में दोस्त और क्लासफैलो थे, हमारी अच्छी-खासी दोस्ती हो गई थी। हद यह है कि थोड़ा उधर-व्यवहार तक चलने लगा था। कलीम साहब ने लखनऊ आर्ट कालिज से पढ़ाई की थी और 'जुलाजी डिपार्टमैंट` में आर्टिस्ट के पद पर काम करते थे। शाम को 'हाबीज वर्कशॉप` में क्लास लेते थे। कुछ ही महीनों में हमें पता लगा कि कलीम साब आदमी अच्छे हैं लेकिन आर्ट-वार्ट से उनका रिश्ता वाजबी-वाजबी-सा ही है। खैर, क्या किया जा सकता था। वैसे भी उनको जितना आता था उतना हम सीख लेते तो बड़ी बात थी, लेकिन धीरे-धीरे यह भी पता चला कि कलीम साब चतुर भी हैं। जैसे एक बार हमारे एक दोस्त को एक विशेष साइज के चित्र बनाना था। कलीम साब ने उसका खरीदा कैनवास इस तरह काट किया कि उस उसके लिए बेकार हो गया, लेकिन कलीम साब के काम आ गया। हमें यह बुरा लगा। पर कलीम साब हमें कभी-कभी अपने घर खाने के लिए भी बुलाते थे। और यह हमारे उपर इतना बड़ा उपकार होता था कि हमेशा उसके बोझ से दबा महसूस करते थे।
एक दिन मैं कलीम साब के घर पहुँचा तो देखा कि बड़ी मोटी-सी डिक्शनरी लिये बैठे हैं। पूछने पर कि क्या कर हैं, बोले कि 'कंटम्पलेशन` का मतलब देख रहा हूं. . .
'क्या कुछ पढ़ रहे थे?'
'नहीं भाई,' उन्होंने एक ठंडी सांस लेकर कहा, 'ये लफ़्ज कहीं देखा था पंसद आया। सोचा कि इस पर एक पेंटिंग बनाऊँ।'
कलीम साहब ने हम लोगों को दो-तीन साल ही सिखाया। उसके बाद विश्वविद्यालय में 'आर्ट क्लब` नामक संस्था खुल गई थी जिसके हम सब सदस्य हो गये थे।
कोर्स में दूसरे विषयों, जैसे केमिस्ट्री, बॉटनी आदि के अध्यापक बहुत साहब किस्म के लोग थे। पूरा सूट-टाई वगैरह पहनकर आते थे। लेक्चर थिएटर में टहल-टहलकर लेक्चर देते थे। कभी-कभी चाक से कुछ लिखते भी थे। फिर चले जाते थे। यानी उन्हें न हमसे कोई ताल्लुक था और न हमें उनसे कोई मतलब था। हम समझ रहे हैं या नहीं, इसकी वे चिंता नहीं करते थे। बस हमसे अपेक्षा की जाती थी कि हम चुपचाप क्लास में आकर बैठ जाएंगे। रोल नंबर पुकारने पर 'यस सर` बोलेंगे। पैंतालीस मिनट खामोश बैठेंगे और घंटा बजने पर चले जायेंगे। इस व्यवस्था से हम लोग भी खुश रहते थे और अध्यापक भी।
अन्य विषयों के अतिरिक्त हम लोगों को धर्मशास्त्र भी शिक्षा भी दी जाती थी। हमें धर्मशास्त्र मौलाना घोड़ा पढ़ाते थे। मौलाना का असली नाम क्या था यह शायद कागजात को ही मालूम था। सारी यूनिवर्सिटी में वे मौलाना घोड़ा कहे, पुकारे जाते थे। इस नाम के पीछे शायद उनकी शक्ल का हाथ था। बहरहाल, मौलाना लड़कों के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करते थे। मौलाना को पान खाने की लत थी और अक्सर वे पानों की डिबिया-बटुआ भूल आते थे। उनकी क्लास अक्सर इस तरह शुरू होती थी- भई, आज सुबह से मैं बड़ी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। हुआ यह कि रोज बेगम मेरी शेरवानी की जेब में पानों की डिबिया और बटुआ रख देती हैं, आज पता नहीं क्या हुआ कि भूल गईं। मैं जब यहां पहुंचा तो देखा दोनों चीजें नहीं है।। खैर, फर्स्टइयर की क्लास आ गई। उनको पढ़ाया। फिर तुम लोग आ गये। अब मैं तुम लोगों से भी पान नहीं मंगा सकता क्योंकि तुम लोग जूनियर हो। थर्डइयर के तालिबेइलम जब आएंगे तो उनसे कहूंगा। मौलाना घोड़ा के इस वक्तव्य पर शोर मच जाता था। लड़के कहते थे कि ये नहीं हो सकता, वे अभी जाकर पान ले आएंगे। मौलाना 'ना-ना` करते थे, लड़के 'हां-हां` करते थे। काफी खींचातानी, बहस-मुबाहिसों के बाद आखिरकार बहुत कलात्मक ढंग से मौलाना घोड़ा हथियार डाल देते थे। एक लड़का उठता था। मौलाना उसे बाजार जाकर पान लाने की इजाजत देते थे। वह अनुरोध करता था कि वह अकेला नहीं जा सकता, कम-से-कम एक लड़के को उसके साथ जाने दिया जाये। ऐसा हो जाता था। फिर कुछ लड़के कहते थे कि उन्हें भी पान की तलब महसूस हो रही है। जाहिर है, तलब तो तलब है। उसके महत्व से कौन इनकार कर सकता है। मौलाना उन लड़कों को भी जाने की इजाजत देते थे। तब कुछ और लड़के खड़े हो जाते थे कि उन्हें सिगरेट की तलब लगी है। इस तरह होता यह था कि पूरी क्लास अपनी 'तलब` पूरी करने चली जाती थी और दो लड़के साइकिल पर जाकर मौलाना घोड़ा के लिए दो पान ले आते थे।
साइंस की पढ़ाई में मेरा ही नहीं, हम तीनों दोस्तों का दिल न लगता था। हम सब अपने आपको आर्टिस्ट समझने लगे थे। क्लास में न जाना, प्रॉक्सी हाजिरी लगवाना, आवारागर्दी करना, चाय पना, रातों में टहलना, सिगरेट पीना, शेरो-शायरी में दिलचस्पी लेना, लड़कियों को देखने के लिए मीलों चले जाना, कलाकारों जैसे कपड़े पहनना, किराये की साइकिल पर शहर की वर्जित सड़कों के चक्कर काटना, साहित्यिक-सांस्कृतिक कामों में जान लड़ा देना, अपने से बड़ी उम्र के लोगों से दोस्ती करना, धर्म में अरुचि, ईश्वर है या नहीं, विषय पर विवाद करना आदि-आदि हम करते थे। इसलिए जाहिर है साइंस की पढ़ाई के लिए वक्त न मिलता था।
अध्यापकों से हमारा रिश्ता भी दिलचस्प था। जो हमें नहीं पढ़ाते थे, उनसे हमारे बड़े अच्छे संबंध थे। मतलब, विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों को हम जानते भी न थे, पर साहित्य और कला के अध्यापकों से हमारी मित्रता थी। केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम कभी न जाते थे लेकिन कला-प्रदर्शनी में जाना अपना पहला कर्तव्य समझते थे। नतीजा जो निकलना था वही निकला। पहले साल में फेल। दूसरे साल में सोचा सिफारिश कराई जाये। यह पूरा प्रसंग कुछ इस तरह मुड़ गया कि सिफारिश करने वाला ही असुविधा में पड़ गया। हमें मालूम था कि केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम फेल हो ही जाएंगे। पढ़ाने और परीक्षा लेने वाले अध्यापक के पास हम तीनों मित्र सिफारिश करने वाले सज्जन के साथ पहुँचे। सिफारिश करने वाले सज्जन ने बातचीत शुरू की, 'ये तीनों आपके स्टूडेंट मुझे यहां लाये हैं..' अध्यापक बात काटकर बोले, 'ये तीनों? नहीं, ये तो मेरी क्लास में नहीं हैं।' सिफारिश करने वाले अध्यापक सटपटाए। जल्दी ही समझ गये कि मामला क्या है। उन्होंने हम लोगों की तरफ अजीब नजरों से देखा। उन्हें लगा कि हमने उन्हें बहुत गलत काम के लिए राजी कर लिया था और धोखा दिया था। हमने नजरें झुकाकर भरी आवाज में कहा, 'जी, हम आपकी क्लास में ही हैं।'
अध्यापक ने फिर ध्यान से देखकर बड़ी उपेक्षा-भरी आवाज में कहा, 'नहीं, ये लोग मेरी क्लास में नहीं है। इन्हें क्लास में कभी नहीं देखा।'
अब काटो तो खून नहीं। बेशर्मों की तरह सिर झुकाए खड़े रहे। ये सच है कि हम तीनों दोस्त क्लास में न जाते थे। उसके अलावा हमें कहीं भी देखा जा सकता था। बी.एस.सी. के दूसरे साल में थे। सेशन समाप्त हो गया था। हाजिरी निकली तो हम सबकी हाजिरियां कम थीं और इम्तिहान में नहीं बैठ सकते थे। पढ़ाई या इम्तिहान की तैयारी नहीं थी। हॉस्टल तथा फीस आदि का जो पैसा चुकाना था वह बहुत ज्यादा था, क्योंकि हम उसे उड़ा गये थे। हम तीनों हॉस्टल के कमरे में बैठे सोच रहे थे कि इस मुसीबत से कैसे निबटा जाए। कोई रास्ता न नजर आता था। फिर एक ने सलाह दी कि यार ऐसा किया जाये कि किताबें बेल डाली जाएं। तीनों अपनी-अपनी किताबें बेचेंगे तो इतने पैसे आ जाएंगे कि एक रम की बोतल खरीदी जा सके। एक फिल्म देखी जा सके और घर वापस जाने का टिकट आ जाये। यह राय सबको पसंद आई। वैसा ही किया गया।
नशे की आदत हम सबको यानी तीनों दोस्तों को थी। तीनों सिगरेट पीते थे। कभी-कभी जब पैसा ज्यादा होते थे या घर से मनीआर्डर आता था तो 'ब्लैक फॉक्स` की तंबाकू खरीदते थे और पाइप पिया करते थे। शराब की आदत तो न थी पर पीना पंसद करते थे और जब पैसे होते थे तो शहर जाते थे जहां एक 'भगवान रेस्टोरेंट` नाम का होटल था। उसके पिछले केबिनों में बैठकर शराब पी जा सकती थी। वही हमारा अड्डा होता था।
मैंने जिंदगी में जब पहली बार पी तो मुझे बहुत मजा आया। जिस मित्र ने पिलाई थी उससे मैंने बहुत शिकायत की कि उसने पहले क्यों नहीं पिलाई। शहर से शराब पीकर रात में दस-ग्यारह बजे सुनसान सड़क पर टहलते हुए हम लोग हॉस्टल वापस आते थे। लगता था कि पूरा 'इंडिया अपने बाप` का है। यानी ऐसा मौज-मस्ती की हालत होती थी कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस तरह सड़कों पर शराब के नशे में टहलते हुए हम लोग 'मजाज़` की नज़्म 'अवारा` गाया करते थे।
एक बार पैसे कम थे हम शराब पीना चाहते थे। उतने पैसे में क्वार्टर भी न आता था। इसलिए सोचा कि चलो भांग खाकर देखते हैं। हो सकता है मजा आ जाए। पानवाले की दुकान पर भांग मिला करती थी। हमने उससे पूछा कि कितनी-कितनी गोलियां खानी चाहिए कि मजा आ जाए। उसने कहा कि चार-चार गोलियां खा लो। मैं समझ गया कि साला अपनी भांग बेचने के लिए हमें चूतिया बना रहा है। लेकिन मेरे दोस्तों ने कहा कि नहीं यार, जब वह चार-चार कह रहा है तो चार-चार ही खानी चाहिए। गोलियां काफी बड़ी, यानी कंचे की बड़ी गोलियों जैसी थीं। बहरहाल, हमने चार-चार खा लीं। पानी के साथ सटक गये और सिनेमा में जाकर बैठ गये। थोड़ी देर के बाद मुझे लगा कि मेरे पैर नहीं है और जब इंटरवल होगा तो मैं कैसे उठूंगा? मैंने दूसरे दोस्तों से पूछा कि क्या उनके पैर हैं? उन दोनो ने भी बताया कि उनके पैर नहीं है। अब बड़ी समस्या खड़ी हो गई। खैर, फिल्म खत्म होने के बाद हम किसी तरह बाहर आ गये। और फिर हम तीनों का बुरा हाल हो गया। उल्टियां करते-करते पस्त पड़ गये। कान पकड़ने और तौबा करने लगे कि कभी भांग नहीं खाएंगे। भांग खाने के प्रयोग के बाद एक बार कम पैसे में नशा करने की गरज से हम ताड़ी पीने भी गये थे।
हम तीनों दोस्तों में एक बड़ा पुराना पापी था। हम सब उसे इसी वजह से पापी कहकर पुकारते थे। पापी का असली नाम नामदार हुसैन रिजवी था। लेकिन दोस्त उसे पापी कहते थे। पापी शायरी भी करता था। उसका तखल्लुस 'वफा` या 'वफा साब` कहकर पुकारा जाता था। दूसरों के सामने हम लोग भी उसे 'वफा` कहते थे। 'वफा` भी एक तरह से हमारा अध्यापक था उसने हमें सिगरेट पीना, शराब पीना और रंडियों के कोठों पर जाना सिखाया था। 'वफा` एक पुराने ताल्लुकेदार का इकलौता लड़का था। वह ग्यारह-बारह साल का ही था कि उसके अब्बाजान का इंतकाल हो गया था। मां उसे बहुत चाहती थी। पैसा भी अच्छा-खासा था। यही वजह थी कि 'वफा` उन सब कामों में माहिर हो गया जो हमें नहीं आते थे।
मेरा एक और शिक्षक मेरा तीसरा दोस्त था। उसका नाम वाहिद था। वह चित्रकार था। अच्छे चित्र बनाने, लड़कियों को फंसाने और अपना काम निकाल लेने की कला में वह माहिर था। इन तीनों कलाओं में उसका जवाब नहीं था। एक बार उसका एक पेपर खराब हो गया। हम सब सोच रहे थे कि किस तरह उसे पास कराया जाये। उसने कहा कि किसी सिफारिश की जरूरत नहीं है। वह खुद परीक्षक के पास जाएगा और अपनी सिफारिश करेगा। हम लोगों ने सोचा कि साला पागल हो गया है। जरूर बुरी तरह अपमानित होकर वापस आएगा। लेकिन वह गया और आकर बोला कि पास हो जाएगा। हमें यकीन नहीं आया, लेकिन जब रिजल्ट निकला तो वह पास था। फिर उसने हमें विस्तार से बताया कि उसने परीक्षक से क्या बात की थी और कैसे उसे इस बात पर तैयार कर लिया था कि उसे पास कर दिया जाए। लड़कियों को फंसाने की कला में भी वह माहिर और शातिर था। लड़कियों और औरतों के बारे में उसकी राय अंतिम और प्रामाणिक सिद्ध हुआ करती थी। जैसे लड़कियों को देखकर ही बता देता था कि वह कैसी है? क्या पंसद करती है, उसके कमजोर पक्ष क्या है? अच्छाई क्या है? उस पर किस तरह 'अटैक` लेना चाहिए। लड़कियों से संबंध बनाने की प्रक्रिया को वह 'अटैक` लेना कहा करता था। उसका यह मानना था कि संसार में किसी भी आदमी को पटाया जा सकता है। उससे काम निकाला जा सकता है। लेकिन सबको पटाने का रास्ता एक नहीं है। हर आदमी के अंदर तक पहुंचने के लिए एक नये रास्ते की खोज करनी पड़ती है। वह केवल ऐसी बातें ही नहीं करता था, बल्कि प्रयोग करके भी दिखाता था। एक बार एक लड़की को हम तीनों ने किसी कला प्रदर्शनी में देखा। लड़की पसंद आई। हमने चुनौती दी। उससे कहा कि वह लड़की को हमारे साथ चाय पीने के लिए तैयार करके दिखा दे तो हम जानें कि वह बड़ा लड़कीमार है। उसने कहा कि चाय पिलाने के पैसे उसके पास नहीं है। अगर हम दोनों उसे पैसे दे दें तो वह लड़की को चाय पीने के लिए आमंत्रित कर सकता है। हम तैयार हो गए। वाहिद गया और आया बोला चलो तैयार है।
वाहिद की दसियों लड़कियों से दोस्ती थी और वे सब समझती थीं कि वह बहुत सीधा-सादा, सम्मानित और कलाकार किस्म का आदमी है। वह कभी-कभी झोंक में आकर लड़कियों के बारे में अपने मौलिक विचार बताया करता था। कहता था हर औरत प्रशंसा पसंद करती है पर यह प्रशंसा कैसी हो, किस गुण की हो और कितनी हो यह बहुत गंभीर बात है। दूसरी बात यह बताता था कि हर औरत एक बंद चारदीवारी की तरह होती है। लेकिन आप जिधर से चाहें रास्ता खोल सकते हैं। यदि चारदीवारी को वास्तव में चारदीवारी समझा तो कभी सफल नहीं हो सकते। इसी तरह की न जाने कितनी बातें वह किया करता था। कभी-कभी उसकी बातें 'वेग` भी हुआ करती थीं। जैसे कहता था, औरतें जिसे सबसे ज्यादा चाहती हैं उससे सबसे ज्यादा डरती हैं। औरतों से 'एप्रोच` करने की पहली शर्त वह मासूमियत मानता था। वह कहता था कि कहीं धोखे से भी आपने अपने को घाघ सिद्ध कर दिया तो औरत पास नहीं आएगी।
आमतौर पर महीने के पहले हफ़्ते में घर से मनीआर्डर आता था और दूसरे हफ़्ते तक हम लोग खलास हो जाते थे। उसके बाद शाम को चाय के पैसे न होते थे। मुफ़्त चाय पीने के चक्कर में हम लोग परिचित लोगों के घरों के चक्कर काटते थे। अक्सर तो ये भी होता था कि कई घरों के चक्कर काटने और कई मील का पैदल सफर करने के बाद भी चाय न मिल पाती थी। वैसे, हमारे चाय पीने के इतने अधकि अड्डे थे कि कहीं-न-कहीं कामयाबी हो ही जाती थी। जब हर तरफ से थक-हार जाते थे तो युनिवर्सिटी कैंटीन आ जाते थे। कैंटीन के ठेकेदार खां साहब से हमारे संबंध थे। वे न सिर्फ चाय, बल्कि विल्स फिल्टर की सिगरेट और शानदार पान तक खिलाया करते थे। खां साहब शायर थे। अच्छे शायर थे। 'कमाल` तखल्लुस रखते थे। रामपुर के रहने वाले थे। 'खां साहबियत` और 'शेरिअत` उनके व्यक्तित्व के बड़े कलात्मक ढंग से घुल-मिल गई थी। वे उर्दू में एम.ए. थे। वैसे भी अनुभवी आदती थे। बातचीत करने के बेहद शौकीन थे। पैसे को हाथ का मैल समझते थे। उन्होंने दरअसल क्लासिकी शायरी की तरफ हम लोगों को खींचा था। कभी-कभी मीर तकी 'मीर` के शेर सुनाने से पहले कहते थे कि यह शेर किसी लोकप्रिय गजल का नहीं है। उन्होंने 'कुल्लियात` से खुद ढूंढकर निकाला है। शायरी पर उनकी बातें बहुत दिलचस्प और मौलिक हुआ करती थीं। उनकी कैंटीन में विश्वविद्यालय के दूसरे शायर भी आते थे और देर रात तक महफिल जमी रहती थी। खां साहब अपने आप में एक संस्था थे। एक शेर पर चर्चा करते-करते कभी रात के बारह बजे जाया करते थे। शायरी के अलावा खां साहब अपने जीवन के लंबे अनुभवों का निचोड़ बताया करते थे। हमें लगता था कि जीवन अपनी परतें खोल रहा है।
खां साहब फिल्मों के भी रसिया थे। खासतौर पर अच्छी कलात्मक फिल्में दिखाने हम सबको ले जाते थे। तरीका काफी शाही किस्म का होता था। रिक्शे बुलवाए जाते थे। हम सब सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पूरा खर्चा खां साहब करते थे हद यह है कि इंटरवल में चाय के पैसे भी किसी को न देने देते थे। फिल्म के बाद उस पर विस्तार से बातचीत होती थी। विश्वविद्यालय के सभी नामी-गिरामी शायरों से उनकी दोस्ती थी जो अक्सर शामें उनकी कैंटीन में गुजारते थे। खां साहब को हर चीज या काम उसकी चरम सीमा तक कर में मजा आता था। कहते थे, तुम लोग क्या पीते हो, मैंने एक जमाने में इतनी पी है कि छ: महीने तक नशा ही नहीं उरतने दिया।
खां साहब की कैंटीन के अलावा हमारे मुफ़्त चाय पीने के अड्डे प्राध्यापकों के घर थे। मजेदार बात यह कि वे सब प्राध्यापक वे न थे जो हमें साइंस के विषय पढ़ाते थे। साइंस पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के बारे में हमारे अच्छे विचार न थे। हम उन्हें बिलकुल खुरा, नीरस और शुष्क समझते थे। साहित्य पढ़ाने वाले लोगों के घरों में दिलचस्प साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। चाय पीने का मजा आता था। इन घरों के अलावा हमारा चाय पीने का अड्डा एक और भी था। शहर से कुछ दूर एक पुराने किस्म की कोठी में एक पुराने जमाने के रईस- जिनका नाम राजा मोहसिन अली खां उर्फ मीर साहब रंगेड़ा और राजा साहब छदामा था, रहते थे। उनकी उम्र पचास के आसपास थी। उनसे हम लोगों की दोस्ती हो गयी थी। राजा साहब सनकी और औबाश किस्म के आदमी थे। हमेशा अतीत के नशे में चूर रहा करते थे। लेकिन बीते जमाने के किस्से सुनाने की कला में बड़े माहिर थे। उनका बयान बहुत रोचक और छोटी-छोटी 'डिटेल्स` से भरा होता था। उनकी स्मरण शक्ति भी जबरदस्त थी। मिसाल के तौर पर वे यह बताते थे कि तीस साल पहले जब वे किसी आदमी से मिलने गये थे तो उन्होंने किस रंग का सूट पहना था और कफ में जो बटन लगाए गए थे वे कैसे थे। राजा साहब की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी थी। अब वे सिर्फ बातों के धनी थे। उनके मनपसंद किस्से उनकी अय्याशियों की लंबी दास्तानें थीं। वे अनगिनत थीं। दास्तानें बताते हुए वे पूरा मजा लेते थे। औरतों के नख-शिख-वर्णन में उन्हें महारत हासिल थी। उसके साथ-ही-साथ संभोग का वर्णन काफी मनोयोग से करते थे।
कभी-कभी राजा साहब के यहां एक प्याली चाय और दालमोठ बहुत महंगी पड़ जाया करती थी। जैसे एक दिन चाय के लालच में हम थके-हारे उनके घर पहुंचे तो पता नहीं उनका क्या मूड था, बिना कुछ कहे-सुने एक अंग्रेजी की किताब के बीस पन्ने पढ़कर सुना दिए। फिर बताया, यह १८९१ का पटियाला गजेटियर है। इसमें मेरे खानदान का जिक्र है।
उनकी कई सनकें थीं। उनमें से एक यह थी कि अब तक अपने आपको बहुत बड़ा सामंत समझते थे। उन्होंने काले मखमल पर सुनहरे बेलबूटों वाला एक कोट सिलवाया था जिसे वे 'चीफ कोट` कहा करते थे। उस 'चीफ कोट` को पहन वे रिक्शे में बैठकर पूरे शहर का एक चक्कर लगाते। ऐसे मौकों पर उनके साथ होने में हम लोगों को बड़ी शर्म आती थी, लेकिन एक प्याली चाय की खातिर सब कुछ करना पड़ता था।
चाय पीने का एक और अड्डा गर्ल्स कॉलेज की एक सुंदर प्राध्यापिका का घर भी था। प्राध्यापिका बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि उन्हें पहली बार देखकर ही हम तीनों दोस्त उन पर आशिक हो गये थे। और तय किया था कि वे इतनी सुंदर हैं कि उन पर कोई अपना अकेला अधिकार नहीं जमाएगा। जब भी कोई उनके पास जाएगा, अकेला नहीं जाएगा। इस समझौते पर हम कायम रहे। सुंदर प्राध्यापिका गर्ल्स हॉस्टल के अंदर रहती थीं। वे वार्डेन थीं। अकेली रहती थीं। उनके घर में शामें गुजारना इतना सुखद होता था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हम इतना तो सीख ही गये थे कि तांत को इतना नहीं तानते कि वह टूट जाए। इसलिए महीने में दो-तीन ही बार उनके पास जाते थे। उनकी हंसी ऐसी थी कि हम सिर्फ उसी पर फिदा थे।
किसी भी विश्वविद्यालय की यह विशेषता होती है कि जो उससे चिमटे रहते हैं वे उपकृत होते हैं। हम फेल होते थे। हाजिरी कम होती थी। इम्तिहान में नहीं बैठाए जाते थे, लेकिन विश्वविद्यालय से चिमटे हुए थे। इस तरह रगड़ते-रगड़ते बी.एस.सी. पास हो गये। हम तीन दोस्त थे और तीनों को तीन-तीन डंडे मिले थे। यानी तीन नंबर हमारी किस्मत में लिख गया था। लेकिन हम खुश थे। मेरा दो अन्य मित्रों को जैसे ही डिग्री मिली उन्हें अपने राष्ट्रपति तक हो जाने के रास्ते साफ नजर आने लगे और उन्होंने पढ़ाई को धता बताई।
मैंने सोचा कि मैं विश्वविद्यालय में कुछ और पढूं। क्या पढूं इसका पता न था। इतना तो तय थ कि साइंस के किसी विषय में एम.एस.सी करने से अच्छा था कि कहीं डाका मारता और जेल चला जाता। इसलिए साहित्य ही बचता था। किसी ने कहा उर्दू में एम.ए. कर डालो। लेकिन समस्या यह थी कि उस समय मैं हिंदी में लिखने लगा था। हाईस्कूल तक की पढ़ाई हिंदी में हुई थी। उर्दू बहुत कम, और लिखना तो बिलकुल नाम बराबर ही, जानता था। इसलिए सोचा उर्दू से अच्छा है हिंदी में एम.ए. किया जाए। किसी ने कहा साहित्य में ही एम.ए. करना है तो अंग्रेजी में करो। लेकिन उस समय तक अंग्रेज-विरोधी बन गया था इसलिए कि अंग्रेजी बिलकुल न आती थी। या इतनी कम आती थी कि मुझे उससे शर्म आती थी। बहरहाल, हिंदी के पक्ष में अधकि मत पड़े।
जब बी.एस.सी. में पढ़ता था उस जमाने में हिंदी विभाग से कोई विशेष लेना-देना न था। हां, मुझे साहित्य लिखने की प्रेरणा देने वाले और विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण व्यक्ति रामपाल सिंह हिंदी में पी-एच.डी. कर रहे थे। दरअसल उन्होंने ही मुझे हिंदी में लिखने और छपने आदि की प्रेरणा दी थी। डॉ. सिंह के बयान के बगैर यह पूरा विवरण अधूरा है। इसलिए मैं उनका बयान सामने रखना चाहूंगा। डॉ. सिंह विश्वविद्यालय में इस रूप में जाने जाते थे कि जिसका कोई नहीं है उसके डॉ. सिंह है। उनके पास कोई भी जा सकता है, कोई भी कुछ कह सकता है और कोई भी मदद की पूरी उम्मीद कर सकता है। मैंने हिंदी में जब लिखना शुरू किया तो उनके पास गया था। और उन्हें उनकी साख के अनुरूप ही पाया था। दरअसल विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के वे एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उन्होंने ही मुझसे कहा कि हिंदी में एम.ए. करो।
लेने को तो मैंने हिंदी में दाखिला ले लिया था लेकिन एक बहुत बड़ी दिक्कत थी जो मुझे बाद में पता चली। वह यह कि जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ता था वहां हिंदी की स्थिति अन्य विषयों की तुलना में 'अछूत` जैसी थी। लोग मानते थे कि सबसे गए-गुजरे, सबसे बेकार या कहें कंडम या कहिए कूड़ा या कहिए बोगस या कहिए मूर्ख या कहिए घोंचू या कहिए बेवकूफ या कहिए मंदबुद्धि या कहिए गधे ही हिंदी पढ़ते और पढ़ाते हैं मतलब यह कि हिंदी की सामाजिक स्थिति बहुत ही खराब थी। जब मैं लोगों से कहता था कि मैंने हिंदी में दाखिला लिया है, तो मेरी तरफ इस तरह देखते थे जैसे मैं पागल हो गया हूं या अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। या लोग सिर्फ मुस्कराते थे या मेरे नाम के बाद 'दास` शब्द जोड़ मुझे कबीरदास और तुलसीदास जैस कहकर मजाक उड़ाते थे। मैं इससे काफी परेशान हो गया था।
हिंदी के बारे में लोगों के मन में न केवल बड़े पूर्वाग्रह थे बल्कि एक अजीब तरह की घृणा और उपेक्षा के भाव भरे हुए थे। मैं यह समझ पाने में असमर्थ था।
हिंदी विभाग में पढ़ाई शुरू हुई। पहले दिन एक प्राध्यापक के कमरे में गया। क्लास को देखा। दो लड़कियां थीं, यह देखकर जान में जान आ गई। एक बुर्का पहने थी। खैर कोई बात नहीं, थी तो लड़की ही। प्राध्यापक कुछ मजेदार, मसखरे, लेकिन बहुत सरल आदमी थे। उन्होंने हम सबसे कहा कि हम क ख ग घ लिख डालें। पहले तो हम समझे कि वे मजाक कर रहे हैं पर उन्होंने गंभीरता से कहा था। पूरी क्लास ने क ख ग घ लिखा तो पता चला कि नब्बे प्रतिशत लड़कों को क ख ग घ लिखना नहीं आता। प्राध्यापक महोदय ने कहा कि यह कोई अजीब बात नहीं है। हिंदी में जो एम.ए. कर चुके हैं उन्हें क ख ग घ लिखना नहीं आता। यह पहला पाठ था। हमें हमेशा याद रहा कि हमें कहां से शुरू करना है। लेकिन सारे प्राध्यापक ऐसे न थे जो जीवन-भर के लिए एक पाठ पढ़ा दें। एक वरिष्ठ प्रोफेसर हमें हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे। वे विभाग के सबसे बड़े और वरिष्ठ प्रोफेसर थे। उनकी कक्षा कभी-कभी ही होती थी क्योंकि अच्छी चीजें रोज नहीं मिलतीं। उन्होंने इतनी कुशलता और लगन से पढ़ाया कि यदि उनका अनुकरण कोई और हिंदी अध्यापक करे तो जरूर नौकरी से निकाल दिया जाए। उन्होंने हमें कुल जमा चालीस मिनट में हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ा दिया था। वरिष्ठ होने के कारण प्राध्यापक महोदय सदा व्यस्त रहते थे। व्यस्त रहने के कारण उनका क्लास नहीं हो पाता था। होते-हुआते परीक्षाएं निकट आ जाती थीं। तब वह सुनहरा अवसर आता था कि क्लास होती थी। दुबले-पतले, शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और खद्दर की टोपी धरण किए प्रोफेसर साहब अपने विशाल कमरे की विशाल मेज के पीछे विशाल कुर्सी में इस तरह लेट जाते थे कि कभी-कभी हमें केवल उनकी टोपी का ऊपरी भाग ही दिखाई देता था। वे रामचन्द्र शुक्ल का 'हिंदी साहित्य का इतिहास` खोल लेते थे। पढ़ाई इस तरह शुरू होती थी 'आदिकाल, इसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। वीरगाथा मतलब वीरों की गाथा। स्पष्ट है न?' हम सब एक स्वर में कहते थे, 'जी हां, स्पष्ट है।' अब भक्तिकाल। 'भक्ति तो तुम सब जानते ही हो. . .अरे वही राम-भक्ति, कृष्ण-भक्ति. . .समझे? सूर पढ़ा है तुम लोगों ने, तुलसीदास पढ़ा है। जायसी को पढ़ा है. . .वही भक्तिकाल है।' प्रोफेसर साहब इस विद्वत्तापूर्ण भाषण के दौरान किताब के पृष्ठ तेजी से पलटते जाते थे। 'अब आता है रीतिकाल।' रीतिकाल पर वे हंसते थे। उनके पीले बड़े-बड़े दांत बाहर निकल आते थे। क्लास के लड़के मुस्कराते थे। लड़कियां शरमाती थीं। 'तो रीतिकाल मैं तुम लोगों को पढ़ा देता पर नहीं पढ़ाउंगा क्योंकि तुम्हारी क्लास में कन्याएँ हैं।' दांतों से तरल पदार्थ बहने लगता था। दांत शांत हो जाते थे। 'चलो आगे बढ़ो, आधुनिक काल। आधुनिक का मतलब है मॉडर्न। तुम सभी मॉडर्न हो। जब तुम सब स्वयं मॉडर्न हो तो मैं तुम्हें मॉडर्न काल क्या पढ़ाउं? मैं तो तुम्हारी तुलना में मॉडर्न नहीं हूं।' दांत उनके मुंह में चले जाते थे। किताब बंद हो जाती थी। हिंदी साहित्य का इतिहास खत्म हो जाता था। तब प्रोफेसर कहते थे. . .'तुम लोग सौभाग्यशाली हो। आराम से हॉस्टल में रहते हो। पका-पकाया खाना मिल जाता है। टहलते हुए क्लास में चले आते हो। पुस्तकालय उपलब्ध हैं। बिजली की रोशनी है, नल का पानी है। तुम लोग क्या जानो कि मैंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट उठाए हैं। मेरा गांव बहुत छोटा था। वहां कोई स्कूल न था। आठ मील दूर, नदी के उस पर एक बड़ा गांव था जहां पाठशाला थी। हमारे गांव से दो-तीन लड़के पाठशाला जाते थे। हमें अंदर घुसकर नदी पार करनी पड़ती थी। कभी-कभी पानी ज्यादा होता था तो कपड़े और रोटी की पोटली सिर पर रख लेते थे। नदी के उस पार छ: मील चलना पड़ता था। तब पाठशाला पहुंचते थे। पंडित जी के चरण छूते थे। पंडित हमें जंगल से लकड़ी बीनने भेजते थे। किसी को कुएं से पानी भर लाने भेजते थे। मैं छोटा था तो मुझसे कपड़े धुलवाते थे। किसी से चूल्हा जलवाते थे। मतलब हम सब मिलकर पंडित जी का पूरा काम करते थे। वे भोजन करते थे। हम लोग भी इधर-उधर बैठकर रोटी खाते थे। उस गांव में बंदर बहुत थे। कभी-कभी बंदर हमारी रोटी ले जाते थे। तब हमें दिन-भर भूखा रहना पड़ता था। वापसी पर काफी देर हो जाती थी तो भेड़ियों का डर होता था, समझे?' हमें यह लगता था कि प्रोफेसर साहब हम लोगों से बदला ले रहे हैं या इस पर खिन्न हैं कि वो बदला नहीं ले सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि वे हमें इस योग्य ही नहीं समझते थे कि हमसे बदला लें। वे केवल शोध छात्रों को यह सम्मान देते थे। उनके शोध छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वे अपने विषय के पंडित होने के अतिरिक्त भैंसों की देखभाल करने की कला में भी निपुण हो जाते थे। कितना अच्छा था कि उनके सामने दो रास्ते खुल जाते थे। हिंदी के अध्यापक न बन पाते तो भैंस पालने का व्यवसाय शुरू कर सकते थे।
एम.ए. में हमारे साथ दो लड़कियां भी थीं। एक लड़की बुर्का वाली, दूसरी लड़की कई बुर्के उतारकर क्लास में आती थी। एक और लड़का भी क्लास में था जो साहित्यिक रुचि का था। हम तीनों की दोस्ती हो गई थी। मैं, आमोद और किरण बंसल साथ-साथ चाय पीने जाते थे। किसी लड़की के साथ कैंटीन जाना उन दिनों उस विश्वविद्यालय में इतनी बड़ी बात थी कि उसकी चर्चा हो जाया करती थी। सो विभाग में इस बात की चर्चा थी कि हम दो लड़के एक लड़की के साथ चाय पीने जाते हैं।
विभाग में एक और वरिष्ठ अध्यापक थे। उनका क्लास सुबह सवा आठ बजे होता था। वे हमेशा लेट आते थे। हम लोग भी हमेशा लेट जाते थे। जाड़े के दिनों में लेट आकर वे धूप खाने तथा दूसरे अध्यापकों से गप्प मारने लॉन के एक कोने में खड़े हो जाते थे। दूसरे कोने में क्लास के लड़के भी यही पवित्र काम करते थे। लड़कों को देखकर प्राध्यापक महोदय कहते थे, चलो क्लास में बैठो, मैं आता हूं। पर हमें मालूम था कि यदि हम ठंडी क्लास में जाकर बैठ भी गये तो वे घंटा बजने में पांच मिनट पहले ही क्लास में आयेंगे। हम न जाते थे। आखिरकार घंटा बजने में पांच मिनट पहले वे तेजी से क्लास की तरफ बढ़ते थे। हम उनसे पहले भागकर क्लास में चले जाते थे। वे हाजिरी लेने के बाद कहते थे हिंदी में एम.ए. पास करना संसार का सबसे सरल काम है। तुम लोग चिंता न करो। यह वाक्य वे अक्सर बोलते थे। हम से ही नहीं, जो लड़के पास हो चुके थे वे भी बताते थे कि उनको भी उन्होंने यही सूत्र दिया था। कभी-कभार जब उनका मन होता था तो पढ़ाते भी थे। मगर अनमने मन से।
तीसरे वरिष्ठ प्राध्यापक पी.पी.पी. शर्मा थे। शक्ल तो उनकी कुछ खास न थी, पर बने-ठने रहते थे। कभी सूट, कभी बंद गले का कोट पहनकर आते थे। बालों को बहुत जमाकर कंघी करते थे। उन्होंने हाल ही में किसी जवान औरत से दूसरी शादी की थी। वे क्लास में स्त्री-पुरुष संबंधों की चर्चा अक्सर छेड़ देते थे और उस पर बहुत गंभीर होकर अपने विद्वत्तापूर्ण विचार व्यक्त करते थे। लेकिन बीच-बीच में कुछ इस तरह हंसते थे कि विद्वता का आवरण छिन्न-छिन्न हो जाया करता था। लेकिन फिर वे तुरंत गंभीर हो जाया करते थे। उनका नाम हम लोगों ने थ्री पी रख लिया था। उन्होंने अक्सर ढके शब्दों में यह भी कहा कि वह हम दो लड़कों और एक लड़की का एक साथ कैंटीन जाना पसंद नहीं करते। लेकिन शुक्र है लड़की धाकड़ थी और उसने हम दोनों से साफ-साफ कहा था कि हमारी सिर्फ मित्रता है और मित्र के साथ चाय पीना अपराध नहीं है। लेकिन थ्री पी उसे भयंकर अपराध मानते थे। इस तरह वे मुझसे, आमोद और किरण से कुछ नाखुश रहा करते थे और मौका आने पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता का डंडा उठा लेते थे।
एक अत्यंत निरीह किस्म के प्राध्यापक थे जो हमें ब्रजभाषा की रीतिकालीन कविता पढ़ाते थे। पता नहीं क्या रहस्य था, क्या चमत्कार था, क्या अजीब बात थी, क्या न समझ में आने वाली गुत्थी थी कि उनकी क्लास में मुझे बहुत नींद आती थी। लगता था कि मैं वर्षों से सोया नहीं हूं और इससे अच्छी लोरी मैंने कभी सुनी ही नहीं है। मैं अपने चुटकी काट लेता था। आंखें फाड़ता था। क्लास शुरू हो जाने से पहले ठंडे पानी से मुंह धोता था। मुंह में कुछ रखकर बैठता था। लेकिन सब बेकार। अंत में मैंने यह तरकीब निकाली थी कि मैं बुर्केवाली लड़की के बराबर बैठता था और जब नींद आने लगती थी तो उसे छू लेता था। उसके छूने से नींद गायब हो जाती थी और कविता भी अच्छी तरह समझ में आती थी। लेकिन यह डर बना रहता था कि कहीं लड़की ने किसी से कुछ कह दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। पर उसने कभी किसी ने नहीं कहा। शायद उसकी भी वही समस्या रही होगी जो मेरी थी। दीगर बात यह है कि मैं बहुत शालीन ढंग से छूने के अतिरिक्त कभी और आगे नहीं बढ़ा। वह जान गई कि यह लड़का अपनी सीमाएं समझता है।
एक प्राध्यापक घोषित कवि थे। घोषित इसलिए की बाकी प्राध्यापक भी कविता करते थे, पर घोषित नहीं थे। मतलब स्वान्त:सुखाय वाला मामला था। पर 'मधु` जी अपने को स्थापित कवि समझते थे। मधुजी वैसे तो उपन्यास के विषय हैं। उन पर कुछ पंक्तियां या पृष्ठ लिखकर केवल उनका अपमान ही किया जा सकता है। लेकिन अपनी खोज में यह पाप भी करना पड़ेगा। पर आशा है कि 'मधु` जी की आत्मा मुझे क्षमा करेगी।
मधुजी का का पूरा नाम ऐसा था कि उन्होंने हाईस्कूल करने के बाद ही उसे बदलने की जरूरत महसूस कर ली थी और माता-पिता का दिया नाम बदलकर पेन नेम 'मधुकर मधु` रख लिया था। अब बहुत जरूरी कागजात के अलावा या उन्हें छेड़ने के प्रयासों के अतिरिक्त उसका इस्तेमाल कहीं नहीं होता था। अपना पुराना नाम लिखा देखकर मधुजी को सख्त चोट पहुंचती थी। क्रोध आ जाता था। उनके शत्रु ये जानते थे। शत्रुओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। इसलिए शत्रु कोशिश करते रहते थे कि वे मधुजी का पुराना नाम बराबर चलता रहे तो दूसरी ओर मधुजी अपना पुराना नाम जड़ से मिटा देने के प्रयासों में जुटे रहते थे। कभी-कभी उन्हें गुमनाम पत्र मिलते थे जिनके लिफाफों पर उनका पुराना नाम लिखा होता था। कभी-कभी स्थानीय समाचार-पत्रों में कविसम्मेलन की खबरों में उनका पुराना असली नाम तथा उपनाम 'मधु` छाप दिया जाता था। बहरहाल, नाम वाला कांटा 'मधु` जी की जिंदगी का एक नासूर बना हुआ था।
मधुजी रसिक थे। प्रमाण, आठ बच्चों के इकलौते पिता होने के दावेदार के अतिरिक्त उनके प्रेम-प्रसंग भी चर्चा में आते रहते थे। कुछ सामान्य थे, कुछ रोचक थे। एक रोचक प्रसंग कुछ इस प्रकार था- मधुजी की एक शोध छात्रा थी। जब उसका शोध प्रबंध पूरा हो गया तथा नौबत यहां तक पहुंची कि उसे मधुजी के हस्ताक्षरों की आवश्यकता पड़ी तो मधुजी को उसमें सैंकड़ों दोष दिखाई देने लगे। एक दिन एकांत में उन्होंने शोध प्रबंध के सबसे बड़े दोष की ओर इशारा किया। दोष यह था कि शोध छात्रा को ठीक से साड़ी बांधना न आता था। मधुजी ने उससे कहा कि शोध छात्रा एक दिन, जब उनकी पत्नी और बच्चे मंदिर गए हों तो, उनके घर आ जाए और उनसे साड़ी बांधना सीखकर दोषमुक्त हो जाए।
जैसा कि होता है, यह सुनकर लड़की सेमिनार रूम में बैठकर रोने लगी। कुछ लड़कों ने उसे सलाह दी कि वह विभागाध्यक्ष से यह सब कहे। विभागाध्यक्ष ने कहा, 'मधुजी पुरुष हैं और तुम नारी हो, मैं इसके बीच कहां आता हूं?' यह जवाब सुनकर लड़की और अधिक रोने लगी। अंतत: मामला पुरानी कहानियों जैसे सख्त आई.सी.एस. उपकुलपति के पास पहुंचा। ये उपकुलपति बदतमीज होने की सीमा तक सख्त थे। उन्होंने विभागाध्यक्ष तथा मधुजी से कहा कि यदि यह मामला न सुलझाया गया तो उन दोनों को 'सस्पेंड` कर दिया जाएगा। उनके बाद विभागाध्यक्ष के कमरे में एक नाटक हुआ जिसमें तीन पात्र थे। दर्शक कोई न था। लेकिन श्रोता केवल दीवारें न थीं। नाटक का अंत इस तरह हुआ कि मधु जी ने शोध छात्रा को बहन मान लिया। विभागाध्यक्ष ने उसे बेटी माना। शोध छात्रा ने उन दोनों का चरण स्पर्श किया और मधुजी को भाई विभागाध्यक्ष को ताऊ माना।
इस तरह के छोटे-बड़े प्रसंग मधुजी की कविता के लिए कच्चे माल का काम करते थे। ऐसे प्रसंग बहुत थे। लड़कों की एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अमूल्य विरासत के रूप में ये प्रसंग 'पासऑन` करती रहती थी।
विभाग के एक और वरिष्ठ प्राध्यापक कृष्ण-भक्त थे और वे केवल कृष्ण भक्ति काव्य पढ़ाते थे। उसके अतिरिक्त कोई और पेपर वे न पढ़ाते थे। क्लास में प्राय: मस्त हो जाया करते थे। कहते थे यह प्रभु की कितनी कृपा है कि मेरा पूरा जीवन भक्तिमय है। भक्ति की भक्ति होती रहती है और व्यवसाय का व्यवसाय है। यह भी कहते थे कि घर में भी कृष्ण-भक्ति में लीन रहता हूं। इनकी अध्यापन शैली बहुत सरल थी। केवल काव्य पाठ करते थे। उसमें स्वयं डूबे रहते थे। हमसे भी यह आशा करते थे कि हम भी डूब जाएं। उसके अतिरिक्त किसी अन्य पक्ष पर बात करना उन्हें पसंद न था।
जैसे-जैसे समय बीत रहा था, मेरी, आमोद और किरण की मित्रता बढ़ रही थी। आमोद कविताएं लिखता था। मस्त किस्म का लड़का था। कभी-कभी कई-कई दिन दाढ़ी न बनाता था। चप्पलें पहनना पसंद करता था और झूम-झूमकर चलता था। नई कविताएं सुनाया करता था। बोहेमियन जैसा लगने की कोशिश करता था। मैं यह प्रतीक्षा कर रहा था कि किरण उसकी कविताओं में कब आती है। लेकिन अब तक ऐसा न हुआ था।
एक दिन यह हुआ कि किरण और आमोद थ्री पी के कमरे में गए। थ्री पी दो अन्य अध्यापकों के साथ गप्प-शप्प मार रहे थे। इन दोनों को कमरे में आते देखकर थ्री पी ने हंसकर कहा तुम कनक किरण के अंतराल में लुक-छिपकर चलते हो क्यों? 'प्रसाद` की इस पंक्ति को सुनते ही अन्य प्राध्यापकों ने ठहाका लगाया। आमोद और किरण को काटो तो खून नहीं। दोनों उल्टे पैरों लौट गए। थ्री पी बुलाते रहे। सेमीनार रूम में जाकर किरण ने थ्री पी को हिंदी, उर्दू, पंजाबी में गालियां देनी शुरू कर दीं। आमोद भी बहुत नाराज था। दोनों शिकायत करना चाहते थे। पर केस नहीं बनता था। बनता था तो बहुत ही साधरण। अब क्या किया जाए? इसी नाजुक मोड़ पर कहानी में एक नया पात्र आया है किरण का भाई राकेश। खाते-पीते परिवार को होने के कारण उसके पास मोटरसाइकिल थी। वह अक्सर उस पर बैठकर आता था। इतिहास में एम.ए. कर रहा था और विश्वविद्यालय में रंगबाज टाइप के छात्रों में था। गुंडा या बदमाश नहीं था। लेकिन उसकी अच्छी धाक थी। छात्र संघ के चुनाव में उसका दबदबा रहता था और धाकड़ के रूप में उसकी ख्याति थी। किरण ने थ्री पी वाली बात उसे बताई।
थ्री पी साइकिल से घर लौट रहे थे। सड़क पर कुछ सन्नाटा था। सामने से एक तेज रफ़्तार मोटरसाइकिल आ रही थी। थ्री पी ने मोटरसाइकिल के लिए पूरा रास्ता छोड़ रखा था पर जैसे-जैसे वह पास आ रही थी उसकी रफ़्तार बढ़ रही थी और दिशा बिलकुल उनके सामने वे डर गए। लेकिन उससे पहले कि कुछ कर सकें, मोटरसाइकिल बिलकुल उसके सामने आ गई। फिर जोर को ब्रेक लगा। तेज आवाज आई। मोटरसाइकिल का अगला पहिया थ्री पी की साइकिल के अगले पहिए से एक-दो इंच के फासले पर ठहर गया। थ्री पी के दिल की धड़कने तेज थीं ही, लेकिन राकेश को देखते ही और बढ़ गयीं। वे सब कुछ एक झटके में समझ गये। राकेश ने बड़े क्रूर ढंग से मोटरसाइकिल खड़ी की और तेजी से उनकी ओर बढ़ा। वे कांप गये। राकेश ने अपने मजबूत हाथ से उनकी पुरानी साइकिल का हैंडिल पकड़ लिया।
'नमस्ते सर!' राकेश ने भारी-भरकम आवाज में कहा।
'नमस्ते. . .नमस्ते. . .' उनका गला सूख रहा था।
'कैसे हैं सर?'
'ठीक हूं भइया. . .ठीक हूं. . .तुम कैसे हो?'
'मुझे क्या होगा. . .आप बताइए. . .घर जा रहे हैं?' राकेश ने इस तरह कहा जैसे कह रहा हो, आप घर जा रहे हैं लेकिन मैं चाहूं तो आप अस्पताल पहुंच सकते हैं। 'और तो सब ठीक है न?'
'हां-हां, ठीक है. . .'
'अच्छा नमस्ते. . .' वह जाने के लिए मुड़ा लेकिन फिर थ्री पी की तरफ घूम गया और बोला, 'ठीक ही रहना चाहिए।' थ्री पी कांपने लगे। राकेश तेजी से मोटरसाइकिल पर बैठा और बड़े क्रूर ढंग से एक झटके के साथ आगे बढ़ गया।
थ्री पी ने अगले दिन क्लास में छायावाद नहीं पढ़ाया। छायावाद बहुत अमूर्तन हो गया है। उन्होंने अपने प्रिय विषय सेक्स पर भी बातचीत नहीं की। उन्होंने अपने पिताजी की महानता और विद्वता के किस्से भी नहीं सुनाए। वे केवल यह बताते रहे कि वे कितने अच्छे, सच्चे, सरल भले आदमी हैं। वे छात्रों और विशेष रूप से छात्राओं का बहुत सम्मान करते हैं। उन्हें भारतीय संस्कृति के अनुसार देवियां समझते हैं। जब उन्होंने देखा कि देवी कहने से भी बात नहीं बन रही है तो बोले, मैं तो क्लास की ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय की सभी लड़कियों को बहन समझता हूं। उनका इतना सम्मान करता हूं कि उनको अपमानित करने की बात सोच भी नहीं सकता। थ्री पी ने ऐसा शानदार अभिनय किया कि अभिनेताओं को वैसा करने के लिए काफी अभ्यास और दसियों टेक देने पड़े। उनकी उच्चकोटि की मार्मिक भावनाओं के प्रति अपनी पूरी सदाशयता दर्शाते हुए क्लास के सभी लड़कों ने थ्री पी को आदर्श भारतीय, आदर्श प्रोफेसर, आदर्श व्यक्ति, आदर्श पति, आदर्श पति मतलब यह कि आदर्श की साक्षात् मूर्ति स्वीकार किया। हम लोग भी भावुक हो गये। थ्री पी तो भावुक थे ही। माहौल कुछ विदाई समारोह जैसा हो गया अब स्थिति यह थी कि थ्री पी जो कहते थे हम उनकी 'हां` में 'हां` मिलाते थे। हम जो कुछ कहते थे थ्री पी उसकी 'हां` में 'हां` मिलाते थे। लगने लगा कि हम एक-दूसरे से इतना सहमत हैं जितना सहमत हो पाना असंभव है। यानी हमने असंभव को संभव कर दिखाया था। इस सबके बावजूद मजे की बात यह थी कि हम सब और शायद थ्री पी सभी जानते थे कि हम सब जो कुछ कर रहे हैं उसका मतलब वह नहीं है जो है, जो नहीं है वह है। यही एक सूत्र था जो मैंने पकड़ा था इसी सूत्र के आधार पर मैंने अपनी शिक्षा को जांचा तो पता चला कि जो दिखता है वैसा नहीं है। अपने आपको भी देखा तो यही पाया। अपने परिवेश को भी पाया, जो दिखता है वह नहीं है। यहीं से मेरी समस्याएं शुरू हो गईं। अब तो जैसी मेरी शिक्षा हुई थी वह आप जान ही गये हैं। उस पर सोने में सुहागा यह कि वह वैसी नहीं थी जैसी लगती थी। जब मुझे यह लगने लगा कि मैंने जो कुछ भी अब तक पढ़ा है वह 'ढोंग` था तो मुझे बहु खुशी भी हुई। अपने अध्यापकों के प्रति मेरे मन में सम्मान भी जागा। क्योंकि यदि वे वास्तव में गंभीरता से पढ़ा देते तो शायद मैं कहीं का न रहता।
14 विकसित देश की पहचान
(1)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश कपड़ा नहीं बनाते गुरुदेव।
गुरु : तब वे क्या बनाते हैं?
हरिराम : वे हथियार बनाते हैं।
गुरु : तब वे अपना नंगापन कैसे ढकते हैं?
हरिराम : हथियारों से उनकी नंगई ढक जाती है।
(2)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश में लोग खाना नहीं पकाते।
गुरु : तब वे क्या खाते हैं?
हरिराम : वे 'फास्ट फूड` खाते हैं।
गुरु : हमारे खाने और 'फास्ट फूड` में क्या अंतर है।
हरिराम : हम खाने के पास जाते हैं और 'फास्टर फूड` खाने वाले के पास दौड़ता हुआ आता है।
(3)
गुरु : हरिराम विकसित देश की पहचान बताओ।
हरिराम : विकसित देशों में बच्चे नहीं पैदा होते।
गुरु : तब कहां कौन पैदा होते हैं?
हरिराम : तब वहां कौन पैदा होते हैं?
गुरु : वहां जवान लोग पैदा होते हैं जो पैदा होते ही काम करना शुरू कर देते हैं।
(4)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में सच्चा लोकतंत्र है।
गुरु : कैसे हरिराम?
हरिराम : क्योंकि वहां केवल दो राजनैतिक दल होते हैं।
गुरु : तीसरा क्यों नहीं होता?
हरिराम : तीसरा होने से सच्चा लोकतंत्र समाप्त हो जाता है।
(5)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में आदमी जानवरों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि जानवर आदमियों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों नहीं वहां आदमी आदमियों से और जानवरों से प्यार करते हैं?
हरिराम : क्योंकि विकसित देशों में आदमियों को आदमी और जानवरों को जानवर नहीं मिलते।
(6)
गुरु : विकसित देश की कोई पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश विकासशील देशों को दान देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर ब्याज के साथ कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर ब्याज ही कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर विकसित देशों को विकसित मान लेते हैं।
(7)
गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में बूढ़े अलग रहते हैं।
गुरु : और जवान?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : और अधेड़?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : तब वहां साथ-साथ कौन रहता है?
हरिराम : सब अपने-अपने साथ रहते हैं।
(8)
गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में मानसिक रोगी अधकि होते हैं।
गुरु : क्यों? शारीरिक रोगी क्यों नहीं होते?
हरिराम : क्योंकि शरीर पर तो उन्होंने अधिकार कर लिया है मन पर कोई अधिकार नहीं हो पाया है।
(9)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में तलाक़ें बहुत होती हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि प्रेम बहुत होते हैं।
गुरु : प्रेम विवाह के बाद तलाक़ क्यों हो जाती है?
हरिराम : दूसरा प्रेम करने के लिए।
(10)
गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश मानव अधिकारों के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि उनके पास ही विश्व की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है।
गुरु : हरिराम सैन्य शक्ति और मानव अधिकारों का क्या संबंध?
हरिराम : गुरुदेव, विकसित देश सैन्य बल द्वारा ही मानव अधिकारों की रक्षा करते हैं।
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15 मुर्गाबियों के शिकारी
अधेड़ उम्र लोगों को आसानी से किसी बात पर हैरत नहीं होती। जीवन की पैंतालीस बहारें या पतझड़ इतने खट्टे-मीठे अनुभवों से उसका दामन भर देती हैं कि अच्छा और बुरा, सुंदर और कुरूप, त्याग और स्वार्थ वगैरा वगैरा के छोर और अतियां देखने के बाद अधेड़ उम्र आदमी बहुत कुछ पचा लेता है।
डॉ. रामबाबू सक्सेना यानी आर के सक्सेना पचास के होने वाले हैं। दिल्ली कॉलिज से रिटायरमेंट में अभी साल बचे हैं। डॉ. आर.के. सक्सेना को आज हैरत हो रही है। उन्हें लगता है, ऐसा तो उन्होंने सोचा भी न था! यह होगा, इसका अंश बराबर अनुमान भी न था और इस तरह अनजान पकड़े जाने पर अपमान का जो बोध होता है, वह भी डॉ. सक्सेना को हो रहा है। सामने क्लास में बैठे अध्यापक उनकी बातों पर हंस रहे हैं। चलिए छात्र हंस देते तो डॉ. सक्सेना सब्र कर लेते कि चलो नहीं जानते, इसलिए हंस रहे हैं। लेकिन ये स्कूल के अध्यापक, जिन्होंने कम से कम बी.ए. और उसके बाद बी.एड जरूर किया है, हंस रहे हैं तो डूब मरने की बात है।
किस्सा कुछ यों है कि डॉ. सक्सेना के पास सुबह-सुबह डॉ. पी.सी. पाण्डेय का फोन आया कि अगर आज कुछ विशेष न कर रहे हों तो स्कूल के अध्यापकों के ट्रेनिंग प्रोग्राम में आकर दो-ढाई घंटे का भाषण दे दें कि बच्चों को हिंदी कैसे पढ़ाई जानी चाहिए। जिस तरह कहा गया था उससे जाहिर था कि कुछ मिलेगा। डॉ. पांडेय ने अधकि स्पष्ट कर दिया, डॉक्टर साहब आप निश्चिंत रहो जैसा कि आप कहते हो मुर्गाबियों का शिकार है. . .हमने पूरी व्यवस्था करा रखी है। जाल-वाल लगवा दिये हैं। हांक-वाका लगवा दिया है. . .मचान-वचान बनवा दी है, अब आपकी कसर है कि आ जाओ और सोलह बोर की लिबलिबी दवा दो। डॉक्टर पांडेय ने विस्तार से बताया।
उम्र में कम होते हुए भी पांडेय और डॉ. सक्सेना में अंतरंगता है। मुर्गाबियों यानी पानी पर उतरने वाली चिड़ियों का शिकार डॉ. सक्सेना की ईजाद है। बचपन में चालीस-पैंतालीस साल पहले अपनी ननिहाल मिर्जापुर में अपने नाना दीवान रामबाबू राय के साथ मुर्गाबियों के शिकार पर जाया करते थे। मुर्गाबियों के शिकार पर जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, क्योंकि शिकार का मतलब था मुर्गाबियों में मुफ़्त का हिस्सा नौकरी करने के बाद इधर-उधर सेमीनारों, कार्यशालाओं, संगोष्ठियों वगैरा में जो मिल जाता है उसके लिए पता नहीं कैसे डॉ. सक्सेना ने मन में मुर्गाबियों के शिकार का बिंब बना लिया था। यह बात डॉ. सक्सेना के निकटतम लोग जानते हैं कि वे 'उपरी` नहीं 'भीतरी` आमदनी को मुर्गाबियों का शिकार कहते हैं।
हां वो तो है. . .अच्छा है लेकिन डॉ. पांडेय, ये बताओ कि आयोजन क्या है? हरियाणा के रहने वाले डॉ. शर्मा विस्तार से बात करते हैं, 'अजी डॉ. साहेब क्या बतावें. . .ये वर्ल्ड बैंक का प्रोजेक्ट है जी. . .एक महीने का ट्रेनिंग प्रोग्राम, इससे पहले 'टेक्स्ट बुक` बनवाने की 'वर्कशाप` करायी थी। आजकल ये चल रहा है। दिल्ली में दस सेंटर बनाये हैं. . .हमारे जी 'होयल` एक हजार से ज्यादा टीचर लैं. . .कुछ बड़े स्कूलों में तो हालात अच्छी है और कुछ में तो कूलर भी नहीं है डाक साब. . .अब तुम्मी बताओ जी. . .बिना कूलर विशेषज्ञ को बुलावे तो शरम नई आयेगी?. . .तो फिर इसी सकूल चुने हैं. . .कम से कम कूलर तो होवें न डाक साहब. . .विशेषज्ञ. . .`
विशेषज्ञ और 'कूलर` यानी गर्मी में ठंडा तापमान और सर्दियों में गर्म बहुत जरूरी है वर्ल्ड बैंक में रिपोर्ट हो जाए तो डॉ. पांडेय जैसे निदेशकों की नौकरी पर बन आयेगी। वैसे डॉ. पांडेय से उनका परिचय पुराना है। उन्हें पीएच.डी. में एडमीशन लेना था इन्होंने प्रपोजल बनवाया, जमा कराया, पास करवाया, थीसिस लिखवाई, टाइप करायी, जमा करायी, परीक्षकों को भिजवायी, रिपोर्ट मंगवाई, वायवा कराया. . .पांडेय जी को पीएचडी एवार्ड करायी और डिग्री घर भिजवायी थी। डॉ. सक्सेना ने यह सब किसी उंचे आदर्श या विचार के तहत नहीं किया था। एक मामला यह था कि फरीदाबाद की सरकारी कालोनी से मिले गांव में पांडेय जी की जमीन थी जिस पर प्लाटिंग की हुई थी। 'डील` यह थी कि इधर पीएचडी होगी, उधर जमीन का बैनामा होगा। यह आदान-प्रदान कार्यक्रम सुचारु रूप से चला।
डॉ. सक्सेना का 'सेशन` दस बजे से शुरू होना था। इस वक्त सवा दस हो रहा है। ट्रेनिंग सेंटर यानी स्कूल में प्रिंसिपल के कमरे में डॉ. पांडेय का व्याख्यान जारी है, 'डॉक्टर साहेब! गर्मियों में विशेषज्ञ मिलने मुश्किल हो जाते हैं. . .अरे शिमला या नैनीताल हो तो कहिए मैं सैकड़ों विशेषज्ञ जमा कर दूं लेकिन गर्मियों में दिल्ली. . .अरे भाईजी, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति वगैरा की बात तो छोड़ दो, छुटभइये नेता तक गर्मियों में राजधानी छोड़ देते हैं. . .अब जब पानी नहीं बरसेगा, यही समस्या रहेगी. . .अब देखोजी, हमें तो यही ओदश हैं कि विशेषज्ञों की मानो. . .तो हम पालन करते हैं. . .विश्व बैंक से हम लोगों ने दस करोड़ मांगा था नये स्कूल खोलने के लिए। उन्होंने कहा दस करोड़ से पहले 'ये` और 'ये` और 'ये` करायेंगे। इसके लिए पांच करोड़ देंगे. . .फिर पाठ्यक्रम बदलने को इतना, फिर इतना. . .होते-होते सौ करोड़ हो गया. . .चलो ठीक है, शिक्षा पर पैसा लग रहा है. . .पर समझ में कम ही आता है। अब देखोगे, इन्हीं विशेषज्ञों ने बच्चों के बस्तों का वजन बढ़ाया फिर येई बोले, बच्चों की तो कमर टूटी जा रही है. . अब सुनो जी विशेषज्ञ कये हैं हमारी शिक्षा चौहद्दी में कैद हो गयी है। देखो जी, पहले स्कूल की चारदीवारें. ..फिर कहवें है। क्लास रूप की चार दीवारों. . .पाठ्यक्रम की चार दीवारें, अध्यापक की चार दीवारें. . .परीक्षा की चार दीवारी. . .अब बोलो. . .आदेश हो जाए तो तोड़ दी जावे सब दीवालें. . .`
'साढे दस बज रहा है।` डॉ. सक्सेना बोले।
'अरे डाक साहेब क्यों जल्दिया रहे हो. . .अभी न आये होंगे।`
पैंतालीस अध्यापक, जिनमें आधी के करीब महिलाएं और लड़कियां। कुछ अध्यापक गंवार जैसे लग रहे थे और कुछ अध्यापिकाएं अच्छा-खासा फैशन किये हुए थीं। इन सबके चेहरों पर एक असहज भाव था। ऐसा लगता था कि वे इस सबसे सहमत नहीं हैं जो हो रहा है या होने जा रहा है। डॉ. सक्सेना ने सोचा, ऐसा तो अक्सर ही होता है। जब बातचीत शुरू होगी तो विश्वास का रिश्ता बनता चला जाएगा और असहजता दूर हो जाएगी। डॉ. सक्सेना ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी बात शुरू की और मुद्दे के विभिन्न पक्षों को रेखांकित किया ताकि उन पर विस्तार से चर्चा हो सके। इन सब प्रयासों के बाद भी डॉ. सक्सेना को लगा कि सामने बैठे अध्यापकों-अध्यापिकाओं के चेहरे पर मजाक उड़ाने, उपहास करने, बोलने वालों को जोकर समझने के भाव आ गये हैं। कुछ जेरे-लब मुस्कुराने भी लगे। तीस साल पढ़ाने और दुष्ट से दुष्ट छात्र को सीधा कर देने का दावा करने वाले डॉ. सक्सेना अपना चेहरा, कितना कठोर बन सकते थे, बना लिया। आवाज जितनी भारी कर सकते थे कर ली और बॉडी लैंग्वेज को जितना आक्रामक बना सकते थे बना लिया। लेकिन हैरत की बात यह कि सामने बैठे लोगों के चेहरों पर उपहास उड़ाने वाला भाव दिखाई देता रहा। एक अध्यापिका के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वह कुछ कहना चाहती हैं।
'सर आप जो कुछ बता रहे हैं बहुत अच्छा है। पर हमारे काम का नहीं है।` अध्यापिका बोली।
इस प्रतिक्रिया पर डॉ. सक्सेना को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन पी गये और बोले, 'क्या समझ नहीं आ रहा?`
'नो सर. . .समझ में तो सब आ रहा है।`
'तब यह उपयोगी क्यों नहीं लग रहा है?` डॉ. सक्सेना ने पूछा और अध्यापकों की पूरी क्लास खुल कर मुस्कुराने लगी। डॉ. सक्सेना ने सोचा, क्या वे 'थर्ड डिग्री` में चले जाएं? पर यह भी लगा कि ये लड़के नहीं हैं, अध्यापक हैं, कहीं गड़बड़ न हो जाए।
'सर, जहां बच्चे पढ़ना ही न चाहते हों वहां टीचर क्या कर सकता है?` एक प्रौढ़ अध्यापक ने गंभीरता से कहा और कुछ नौजवान अध्यापक हंस दिये। डॉ. सक्सेना का खून खौल गया। वे तुरंत समझ गये कि ये साले मुझे. . .यानी मुझे यानी डॉ. आर.बी. सक्सेना प्रोफेसर अध्यक्ष और पता नहीं कितनी राष्ट्रीय समितियों और दलों के सदस्य को उखाड़ना चाहते हैं, इनको शायद मालूम नहीं कि इनका सबसे बड़ा बॉस मुझे सर कहता है और पूरी बातचीत में सिर्फ 'सर` ही 'सर` करता रहता है।
'बच्चे पढ़ना नहीं चाहते या आप लोग पढ़ाना नहीं चाहते।` डॉ. सक्सेना ने पलटकर वार किया।
'सर, हम बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. . .ईमानदारी से पढ़ाना चाहते हैं. . .पर वे नहीं पढ़ते।` एक लेडी टीचर बोली। उसका बोलने का ढंग और चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह सच बोल रही है और मजाक नहीं उड़ा रही है।
'सर, आप ऐसे नहीं समझोगे. . .` एक ग्रामीण क्षेत्र का सा लगने वाला अध्यापक बोला, 'ऐसे है जी कि हमारे स्कूलों में सबसे कमजोर बरग के बच्चे आवे हैं।`
'बरग नहीं वर्ग. . .` किसी ने चुपके से कहा कि पूरी क्लास हंसने लगी।
'वही समझ लो जी. . .अपनी तो भाषा ऐसी है. . .तो जी. . .`
'ठीक है, ठीक है, बैठिए मैं समझ गया।` डॉ. सक्सेना ने अध्यापक को चुप करा दिया। एक फेशनेबुल अध्यापिका बोलने लगी, 'सर, हमारे स्कूलों में मजदूरों, रेड़ी वालों, ठेले वालों, कामगारों, सफाई करने वालों, माली-धोबी परिवारों के बच्चे आते हैं। सर, हम उन्हें वह सब सिखाते हैं जो आमतौर पर बच्चों को मां-बाप सिखा देते हैं। उन्हें बैठना तक नहीं आता। खाना नहीं आता। इन्हें हम सिखाते हैं कि देखो सबके सामने नाक में उंगली डालकर. . .।` पूरी क्लास हंसने लगी।
'तो फिर बताइये सर. . .?`
'तो पढ़ाने में क्या प्राब्लम है?`
'बच्चे रेगुलर स्कूल नहीं आते. . .लंच टाइम में आते हैं। स्कूल की तरफ से लंच मिलता है, वह खाते हैं और चले जाते हैं. . .कभी उनके परिवार वालों को इलाके में मजदूरी नहीं मिलती तो कहीं ओर चले जाते हैं. . .`
'अरे, ये सब बच्चों के साथ तो न होता होगा?` डॉ. सक्सेना ने उन्हें पकड़ा।
'सर, ये समझ लो. . .बच्चा स्कूल में पाँचवी तक पढ़ता है, पास होकर चला जाता है, पर वह क ख ग न तो पढ़ सकता है न लिख सकता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा, यह सफेद झूठ है और अगर कहीं ये सच है तो इससे बड़ा कोई सच नहीं हो सकता।
यह कैसे 'पॉसिबल` है, डॉ. सक्सेना की आवाज में विशेषज्ञों वाली ठनक आ गयी।
'सर, इस तरह के बच्चों को हम फेल नहीं कर सकते?`
डॉ. सक्सेना को धक्का और लगा। यह कैसे पढ़ाई है और कैसा स्कूल है?
'क्या आपको ऐसा आदेश दिया गया है कि. . .`
'सर, लिखकर तो नहीं. . .मौखिक रूप से दिया ही गया है। तर्क यह है कि फेल होने पर लड़के पढ़ाई छोड़ देते हैं और. . .`
'तो स्कूल में कोई फेल नहीं होता?`
'यस, सर . . .७५ प्रतिशत हाजिरी जिसकी भी होती है उसे पास करना पड़ता है।`
एक कठिनाई डॉ. सक्सेना को यह लग रही थी कि बातचीत स्कूल व्यवस्था पर केंद्रित हो गयी थी जबकि यहां उनका काम अच्छे शिक्षण पर भाषण देना था।
'देखिये, ऐसा है कि आप लोग बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी पैदा कराने के लिए कुछ तो कर ही सकते हैं।`
'क्यों नहीं. . .जरूर कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं पर जब वे जानते हैं कि पढ़ने वाले और न पढ़ने वाले दोनों पास हो जाएंगे तो बस. . .`
'देखिये, मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि आप लोग हर हालत में अपनी 'परफार्मेंस` इंप्रूव कर सकते हैं।`
'सर, कृपया मेरी एक छोटी और बुनियादी बात पर विश्वास करें कि अगर. . .उन्होंने दाढ़ी
वाले अध्यापक की बात काट दी क्योंकि उन्हें मालूम है कि छोटी बुनियादी बातों का वह जवाब न दे पायेंगे।
'देखिये समस्याएं तो होंगी ही. . . .पर . . .`
उनकी बात काटकर एक अध्यापिका बोली, 'सर, आपने वह किताब देखी है जो हम पहले दर्जे के बच्चे को पढ़ाते है।` उसने किताब बढ़ाते हुए कहा, 'पहला पाठ है रसोईघर. . .पहला वाक्य 'फल खा` जिन बच्चों को हम पढ़ाते हैं वे जानता ही नहीं कि फल क्या होता है?` अध्यापक ने कहा और बाकी सब हंसने लगे।
'देखिये सर, यह रसोईघर का चित्र बना है. . .हमारे बच्चों ने तो गैस सिलेंडर, फ्रिज, बर्तन रखने की अलमारियां देखी तक नहीं होतीं. . .उनकी समझ में यह सब क्या आयेगा. . .?
जब तक डॉ. सक्सेना जवाब देते, एक दूसरा सवाल उछला, 'सर, जिस बच्चे को 'क` 'ख` 'ग` न आता हो वह वाक्य कैसे पढ़ेगा या सीखेगा?`
'देखिये, इसे डायरेक्ट मैथेड कहते हैं।`
'वो 'क` 'ख` 'ग` वाले सिस्टम में क्या खराबी थी?`
'अब देखिये, विशेषज्ञों को लगा कि नये मैथड से. . .`
'सर मैथड छोड़िये. . .ये देखिये मां का चित्र सिलाई कर रही है। पिताजी ऑफिस जा रहे हैं। हाथ में छाता और पोर्ट फोलियो है. . हमारे स्कूल के बच्चे झुग्गी-झोपड़ी मजदूर. . .`
डॉ. सक्सेना उनकी बात काट कर बोले, 'क्या नयी किताब बनाते समय विशेषज्ञों ने आप लोगों से या स्कूल के बच्चों से कोई बातचीत की थी।`
'नहीं, चालीस आवाजें एक साथ आयी।
'अब बताइये सर. . .हम क्या करें. . .गाज हमारे ही उपर गिरती है. . .बच्चों को क्या 'इनकरेज` करे?`
'आप, लोग निजी तौर पर तो कुछ कर सकते हैं?`
'सर, हमारे स्कूल में सात सौ लड़के हैं। ग्यारह अध्यापक हैं। एक क्लास रूप में तीन क्लासें बैठती हैं। एक अध्यापक एक साथ तीन कक्षाओं को पढ़ाता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा जैसे वे आश्चर्य के समुद्र में डूबते चले जा रहे हैं. . .धीरे-धीरे अंधेरे में किसी बहुत बड़े समुद्री जहाज की तरह उनके अंदर पानी भर रहा है और आत्मा धीरे-धीरे निकल रही है. . .यह क्या हो रहा है? अध्यापक यह सिद्ध किये दे रहे हैं कि वह भी एक बड़े भारी षड्यंत्र का हिस्सा है।
'देखिये यह स्थिति हर स्कूल में तो नहीं होगी?` डॉ. सक्सेना ने कहा। 'हां सर, यह बात तो आपकी ठीक है. . .ग्रामीण क्षेत्रों में जो स्कूल हैं. . .वहां यह स्थिति है. . .शहरी क्षेत्रों में. . .`
'शहरी क्षेत्रों में बच्चे गैर-हाजिर बहुत रहते हैं. . .`
'सर, दरअसल इनको पढ़ाना है तो पहले इनके मां-बाप को पढ़ाओ।` किसी चंचल अध्यापिका ने कहा और सब हंस पड़े।
'हां जी, सौ की सीधी बात है।` किसी ने प्रतिक्रिया दी। डॉ. सक्सेना घबरा गये। फिर वही हो रहा है। ये लोग मुझे 'डुबो` रहे हैं उस पानी में जहां मुर्गाबियां नहीं हैं. . .जहां पानी ही पानी है।
'सर, बच्चों के मां-बाप को पढ़ाया जाए तो उन्हें खिलायेगा कौन?`
'सरकार खिलाये?` किसी अध्यापक ने कहा।
'सरकार के पास इतना है?` किसी दूसरे अध्यापक ने कहा।
'क्यों नहीं है?`
'अभी पढ़ा नहीं? उद्योगपतियों का ढाई हजार करोड़ कर्ज माफ कर दिया है सरकार ने. . .क्या कहते हैं अंग्रेजी में बड़ा अच्छा नाम दिया है- नॉन रिकवरिंग. . . .`
डॉ. सक्सेना ने घबराकर अध्यापक की बात काट दी, 'ठहरिये. . .ये यहां डिस्कस करने का मुद्दा नहीं है।` वे डर हरे थे कि डायरेक्टर साहब कहेंगे- क्यों जी आप के यहां मुर्गाबियों का शिकार करने के लिए बुलाया गया था और आप तो शिकारियों का शिकार करने वाली बातें करने लगे। 'अरे, ये राजनीति गंदी चीज हैं। छोड़िये इसको, केवल यह बताइए कि बच्चों की पढ़ाई को किस तरह से बेहतर बनाया जा सकता है।`
'सर अब बात निकल आयी है तो कहने दीजिए सर. . .हमारे स्कूलों में हमारे अधिकारियों के बच्चे क्यों नहीं पढ़ते? मंत्रियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं जाते।`
डॉ. सक्सेना फिर विवश हो गये, 'ठहरिये. . .ये बातें आप लोग अपने संगठनों में 'डिस्कस करें।`
'सर, हमारे संगठनों में यह कभी 'डिस्कस` नहीं होता।`
'देखिये अब मैं आप लोगों से मनोवैज्ञानिक पक्षों पर बात करना चाहता हूं। बच्चों के पढ़ाने के लिए आवश्यक है कि हम उनके मनोविज्ञान को समझें. . । हर बच्चे का अपन अलग मनोविज्ञान होता है. . .`
अध्यापक आपस में बातें कर रहे थे। महिला अध्यापिका बड़े सहज ढंग से खुसुर-पुसुर कर ही थी। ऐसा लगता था जैसे वे इतवार के दिन जाड़ों की रेशमी धूप में बैठी स्वेटर बुन रही हों और बातें कर रही हों। पुरुष अध्यापकों के भी कई गुट बन गये थे और सब बातों में लीन हो गये थे। एक दो अध्यापक बार-बार घड़ी देख रहे थे। डॉ. सक्सेना लगातार बिना रुके बोले जा रहा है। वह मुर्गाबियों का शिकार खेल रहे थे। वह चाहते भी नहीं थे कि अध्यापक ध्यान से उनके पास थे नहीं या वह दे नहीं सकते थे क्योंकि वह तो मुर्गाबियों के शिकारी हैं।
कुछ देर बात शोर का स्वरूप बदल गया। अब शोर ने छोटे-छोटे समूहों के आकार को तोड़ दिया और वह क्लासव्यापी हो गया और उन्हें लगा कि बोल भी नहीं पायेंगे।
'आप लोग क्या बातें कर रहे हैं?` उन्होंने पूछा।
'सर, हमारी क्लास एक बजे समाप्त होगी।`
'हां, मुझसे आपके डायरेक्टर ने यही कहा है कि एक बजे तक मैं आपको लेक्चर देता रहूं।`
'सर, उसके बाद हमारी हाजरी होगी।`
'ठीक है।`
'नहीं सर. . .ठीक कैसे है. . .एक बजे तो क्लास खत्म हो जाती है। हमें चले जाना है। एक बजे अगर हाजरी होगी तो पंद्रह मिनट तो हाजरी में लग जाएंगे।` एक महिला अध्यापिका बोली।
'तो फिर`
'हमारी हाजरी पौन बजे होना चाहिए ताकि हम ठीक एक बजे छुट्टी पा सकें।`
'दस-पन्द्रह मिनट से क्या फर्क पड़ता है।` डॉ. सक्सेना ने कहा।
'मेरी बस छुट जाएगी. . .फिर एक घंटे बाद बस है. . .घर पहुंचते-पहुंचते तीन बजे जाएंगे। उन्हें खाना देना है। बंटी को स्कूल बस से लेना है। रोटी डालना है. . .उन्हें गरम रोटी ही देती हूं। दाल में छोंक भी नहीं लगायी है. . .'महिला बोलती रही।. . .एक पुरुष अध्यापक ने कहा, 'वैसे भी सिद्धांत की बात है.... यदि एक बजे छुट्टी होनी है तो एक ही बजे होनी चाहिए।`
'मुझे तो नजफगढ़ जाना है. . .देर हो जाती है तो अंधेरा हो जाता है. . .क्रिमनल एरिया पड़ता है. . .कुछ हो गया तो. . .` लड़की चुप हो गयी।
'हाजरी पैन बजे ही होनी चाहिए।` एक दादा किस्म के अध्यापक ने धमकी भरे अंदाज में कहा।
'सर, लेडीज की प्रॉब्लम कोई नहीं समझता. . .मैं तो खैर मैरीड हूं. . .बच्चे बस्ते लिए घर के बाहर 'वेट` कर रहे होंगे. . .चाबी पड़ोस में देने के लिए 'वो` मना करते हैं. . .सर जो लेडी टीचर मैरीड नहीं हैं उनके घरों में भी कुछ तो है ही है सर. . .`
'सर, हम लड़कियां देर से घर पहुंचे तो हजार तरह की बातें होने लगती हैं।`
डॉ. सक्सेना को लगा कि इस समय संसार का सबसे बड़ा और जरूरी काम यही है कि इन लोगों की पंद्रह मिनट पहले हाजरी हो जाए ताकि ये ठीक एक बजे स्कूल से निकल सकें। उन्होंने डायरेक्टर पांडेय जी को बुलाया। वे रजिस्टर लेकर आये।
रजिस्टर जैसे ही मेज पर रखा गया, यह लगा गंदे चिपचिपे मैले मिठाई बांधने वाले कपड़े पर मक्खियों ने हमला बोल दिया हो। ऐसी कांय-कांय, भांय-भांय होने लगी कि कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
डॉ. सक्सेना थके हारे और कुछ अपमानित भी डायरेक्टर के कमरे में जहां कूलर चल रहा था, आ गये। डॉ. पांडेय को पता नहीं कैसे मालूम हो गया कि क्लास में मेरे साथ क्या हुआ। 'अब देखो जी, हम तो इन्हें 'बेस्ट ट्रेनर` देते हैं. . .अब इनकी जिम्मेदारी है कि ये कुछ सीखते हैं या नहीं।`
डॉ. सक्सेना डॉ. पांडेय से कहना चाहते थे कि यार पांडेय क्या तुम्हें हकीकत में कुछ नहीं मालूम? या तुम सब जानते हो? डॉ. पांडेय क्या तुम्हें नहीं मालूम कि एक सौ तक सब उलट-पुलट गया है।
वह यह सब सोच रहे थे और डॉ. पांडेय पता नहीं कैसे समझ गये कि उनके पास सीधे और छोटे सवाल हैं। डॉ. पांडेय वही करने लगे जो डॉ. सक्सेना क्लास रूम में कर रहे थे। यानी बिना रुके, लगातार बोलने लगे ताकि सवाल पूछने का मौका न मिले। डॉ. पांडेय लगातार बोल रहे हैं, वे सांस ही नहीं ले रहे, 'अब जी ये तो दूसरा दिन है. . .तीस दिन चलना है वर्कशाप. . .फिर रिपोर्ट बनेगी वर्ल्ड बैंक को जाएगी. . .बाइस सेंटर बनाये गये हैं। हर सेंटर में सौ के करीब टीचर हैं. . .` भाषण देते-देते ही उन्होंने डॉ. सक्सेना बढ़ाया। जाहिर है उसमें मुर्गाबी ही है। उन्होंने लिफाफा जेब में रख लिया। डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .।
डॉ. सक्सेना दरवाजे के बाहर देख रहे हैं, शिक्षक स्कूल के बाहर निकल रहे हैं. . .फिर लगा कि न तो ये शिक्षक हैं, न वह ट्रेनर हैं, न डॉ. पांडेय निदेशक हैं, न ये स्कूल है। डॉ. सक्सेना को हैरत हुई कि वह इतने रहस्यवादी कैसे बने गये। पर अच्छा लगा. . .डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .मुर्गाबियां पानी पर उतर रही है. . .डॉ. सक्सेना खामोश हैं क्योंकि शिकारी चुप रहते हैं, बोलते ही शिकार उड़ जाता है. . .लेकिन उन्हें यह यकीन क्यों है कि वह मुर्गाबियों का शिकारी है...हो सकता है वह या डॉ. त्रिपाठी मुर्गाबी हों और शिकारी. . .।
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16 लकड़ियां
(1)
श्यामा की जली हुई लाश जब उसके पिता के घर पहुंची तो बड़ी भीड़ लग गयी। इतनी भीड़ तो उसकी शादी में विदाई के समय भी नहीं लगी थी। श्याम की बहनों की हालत अजीब थी क्योंकि वे कुंवारी थीं। श्यामा की मां लगातार रोई जा रही थी। रिश्तेदार उसे दिलासा भी क्यों देते। श्यामा के पिता जली हुई श्यामा को देख रहे थे। उनकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे थे। श्यामा का पति और देवर पास खड़े थे। श्यामा के पति ने श्यामा के पिताजी से कहा 'पापा आप रोते क्यों हैं. . .श्यामा को बिदा करते समय आपने ही तो कहा था कि बेटी तुम्हारी डोली इस घर जा रही है अब तुम ससुराल से तुम्हारी अर्थी ही निकले।'
देवर बोला 'चाचा जी श्यामा ने आपकी इच्छा जल्दी ही पूरी कर दी।'
श्यामा के ससुर जी बोले 'बेकार समय न बर्बाद करो। अब यहां तमाशा न लगाओ। चलो जल्दी क्रिया-करम कर दिया जाये।'
(2)
श्यामा की जली हुई लाश थाने पहुंची तो वहां पहले से ही दो नवविवाहिता लड़कियों की जली हुई लाशें रखी थीं। थाने में शांति थी। पीपल के पत्ते हवा में खड़खड़ा रहे थे और जीप का इंजन लंबी-लंबी सांसें ले रहा था। दरोगा जी को खबर की गयी तो वे पूजा इत्यादि करके बाहर निकले और श्यामा की जली लाश को देखकर बोले, 'यार ये लोग एक दिन मं एक ही लड़की को जलाकर मारा करें। एक दिन में तीन-तीन लड़कियों की जली लाशें आती हैं। कानूनी कार्यवाही भी ठीक से नहीं हो पाती।'
सिपाही बोला, 'सरकार इससे तो अच्छा लोग हमारे गांव में करते हैं। लड़कियों को पैदा होते ही पानी में डुबोकर मार डालते हैं।'
दरोगा बोले, 'ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे।'
(3)
श्यामा की लाश अदालत पहुंची। जब सबके बयान हो गये तो श्यामा की जली लाश उठकर खड़ी हो गयी और बोली, 'जज साहब मेरा भी बयान दर्ज किया जाये।'
श्यामा के पति का वकील बोला, 'मीलार्ड ये हो ही नहीं सकता, जली हुई लड़की बयान कैसे दे सकती है।'
पेशकार बोला, 'सरकार यह तो गैरकानूनी होगा।'
क्लर्क बोला, 'हजूर ऐसा होने लगा तो कानून व्यवस्था का क्या होगा।'
श्यामा ने कहा, 'मेरा बयान दर्ज किया जाये।'
अदालत ने कहा, 'अदालत तुम्हारा दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि तुम जलकर मर चुकी हो।'
श्यामा ने कहा, 'दूसरी लड़कियां तो ज़िंदा हैं।'
अदालत ने कहा, 'ये तुम लड़कियों की बात कहां से निकल बैठी।'
(4)
श्यामा की जली लाश जब अखबार के दफ़्तर पहुंची तो नाइट शिफ़्ट का एक सब-एडीटर मेज़ पर सिर रखे सो रहा था। श्यामा ने उसका कंधा पकड़कर जगाया तो वह आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। उसने श्यामा की तरफ देखा और उसे 'आपका अपना शहर` पन्ने के कोने में डाल दिया।
श्यामा ने कहा, 'अभी तीन साल पहले ही मेरी शादी हुई थी मेरे पिता ने पूरा दहेज दिया था लेकिन लालची ससुराल वालों ने मुझे दहेज के लालच में अपने लड़के की दूसरी शादी की लालच में मुझे जलाकर मार डाला।'
सब-एडीटर बोला, 'जानता हूं, जानता हूं. . .वही लिखा है. . .हम अखबार वाले सब जानते हैं।'
'तो तुम पहले पन्ने पर क्यों नही डालते,' श्यामा ने कहा।
सब-एडीटर बोला, 'मैं तो बहुत चाहता हूं। तुम ही देख लो पहले पन्ने पर जगह कहां है। लीड न्यूज लगी है। देश ने सौ अरब रुपये के हथियार खरीदे हैं। सेकेण्ड लीड है मंत्रिमण्डल ने चांद पर राकेट भेजने का निर्णय लिया है। आठ आतंकवादी मार गिराये गये हैं और सुपर डुपर हुपर स्टार को हॉलीवुड की फिल्म में काम मिल गया है। बाकी पेज पर 'फिटमफिट अण्डर वियर` है।'
'कहीं कोने में मुझे भी लगा दो', श्यामा बोली।
'लगा देता. . .पर नौकरी चली जायेगी।'
(5)
श्यामा की जली हुई लाश जब प्रधनमंत्री सचिवालय पहुंची तो हड़कंप मच गया। सचिव-वचिव उठ-उठकर भागने लगे। संतरी पहरेदार डर गये। उन्हें श्यामा की शकल अपनी लड़कियों से मिलती जुलती लगी। इतने में विशेष सुरक्षा दस्ते वाले, छापामार युद्ध में दक्ष कमाण्डो आ गये और श्यामा की तरफ बंदूकें, संगीनें तानकर खड़े हो गये।
पुलिस अधिकारी ने कहा, 'एक कदम भी आगे बढ़ाया तो गोलियों से छलनी कर दी जाओगी।'
'मैं प्रधनमंत्री से मिलना चाहती हूं।'
'प्रधनमंत्री क्या करेंगे. . .यह पुलिस केस है।'
'पुलिस क्या करेगी?'
'अदालत में मामला ले जायेगी।'
'अदालत क्या करेगी. . . वही जो मुझसे पहले जलाई गयी लड़कियों के हत्यारों के साथ किया है। मैं तो प्रधानमंत्री से मिलकर रहूंगी,' श्यामा की जली लाश आगे बढ़ी।
और अधकि हड़कम्प मच गया। उच्च स्तरीय सचिवों की बैठक बुला ली गयी और तय पाया कि श्यामा को प्रधनमंत्री के सामने पेश करने से पहले गृहमंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, समाज कल्याण मंत्री आदि का बुला लिया जाये। नहीं तो न जाने श्यामा प्रधनमंत्री से क्या पूछ ले कि जिसका उत्तर उनके पास न हो।
(6)
श्यामा की जली लाश जब बाज़ार से गुज़र रही थी तो लोग अफसोस कर रहे थे।
'यार बेचारी को जलाकर मार डाला।'
'क्या करें यार. . .ये तो रोज़ का खेल हो गया।'
'पर यार इस तरह. . .नब्बे परसेंट जली है।'
'अरे यार इसके पापा को चाहिए था कि मारुति दे ही देता।'
'कहां से लाता, उसके पास तो स्कूटर भी नहीं है।'
'तो फिर लड़की पैदा ही क्यों की?'
'इससे अच्छा था, एक मारुति पैदा कर देता।'
(7)
श्यामा की जली लाश जब अपने स्कूल पहुंची तो लड़कियों ने उसे घेर लिया। न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, खामोशी बोलती रही।
कुछ देर के बाद एक टीचर ने कहा, 'आठवीं में कितने अच्छे नंबर आये थे इसके।'
दूसरी टीचर ने कहा, 'दसवीं में इसके नंबर अच्छे थे।'
तीसरी ने कहा 'आगे पढ़ती तो अच्छा कैरियर बनता।'
श्यामा की लाश होठों पर उंगलियां रखकर बोलीं, 'शी{शी{शी. . .आदमी भी सुन रहे हैं।'
(8)
श्यामा की जली हुई लाश उन पंडितजी के घर पहुंची जिन्होंने उसके फेरे लगवाये थे। पंडित जी श्यामा को पहचान गये। श्यामा ने कहा, 'पंडित जी मुझे फिर से फेरे लगवा दो।'
पंडित जी बोले, 'बेटी, अब तुम जल चुकी हो, तुमसे अब कौन शादी करेगा।'
श्यामा बोली, 'पंडित जी शादी वाले नहीं, उल्टे फेरे लगवा दो।'
पंडित जी बोले, 'बेटी तुम चाहती क्या हो?'
श्यामा बोली, 'तलाक'
पंडित जी ने कहा, 'अरे तुम जल चुकी हो, तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा तलाक से।'
श्यामा बोली, 'हां आप ठीक कहते हैं, उल्टे फेरों से न मुझ पर अंतर पड़ेगा. . .न आप पर अंतर पड़ेगा. . .न मेरे पति पर फर्क पड़ेगा. . .पर जिनके सीधे फेरे लगने वाले हैं उन तो अंतर पड़ेगा।'
(9)
श्यामा की जली लाश भगवान के घर पहुंची तो भगवान सृष्टि को चलाने का कठिन काम बड़ी सरलता से कर रहे थे। श्यामा ने भगवान से पूछा, 'सृष्टि के निर्माता आप ही हैं?'
भगवान छाती ठोंककर बोले, 'हां मैं ही हूं।'
'संसार के सारे काम आपकी इच्छा से होते हैं।'
'हां, मेरी इच्छा से होते हैं।'
'मुझे आपकी इच्छा से ही जलाकर मार डाला गया था।'
'हां, तुम्हें मेरी ही इच्छा से जलाकर मार डाला गया था।'
'मेरे पति के लिए आपने ऐसी इच्छा क्यों नहीं की थी?'
'पति परमेश्वर होते हैं। वे जलते नहीं, केवल जलाते हैं।'
(10)
श्यामा की जली लाश मानव अधिकार समिति वाले के पास पहुंची तो वे सब उठकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, 'यह जघन्य अपराध है। हमने इस तरह के बीस हज़ार मामलों का पता लगा कर मुक़दमे दायर कराये हैं लेकिन आमतौर पर अपराधी बच निकलते हैं। लोगों में लोभ और लालच बहुत बढ़ गया है, धन के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। ये सब जानते हैं।'
श्यामा बोली, 'इसीलिए मैं खामोश हूं।'
सदस्यों ने कहा, 'बोलो श्यामा बोलो. . .बोलो. . .जब तक तुम नहीं बोलोगी हमारी आवाज़ कोई नहीं सुनेगा।'
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17 मैं हिंदू हूं
ऐसी चीख कि मुर्दे भी कब्र में उठकर खड़े हो जाएं। लगा कि आवाज़ बिल्कुल कानों के पास से आई है। उन हालात में. . .मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे. . .शायद रात का तीन बजा होगा। अब्बाजान भी उठ बैठे। चीख फिर सुनाई दी। सैफ अपनी खुर्री चारपाई पर लेटा चीख रहा था। आंगन में एक सिरे से सबकी चारपाइयां बिछी थीं।
'लाहौलविलाकुव्वत. . .' अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी
'खुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीखने लगता है।' अम्मा बोलीं।
'अम्मा इसे रात भर लड़के डराते हैं. . .' मैंने बताया।
'उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता. . .लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारतें सूझती हैं', अम्मा बोलीं।
सफिया ने चादर में मुंह निकालकर कहां, 'इसे कहो छत पर सोया करे।'
सैफ अब तक नहीं जगा था। मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा तो उसके चेहरे पर पसीना था। साँस तेज़-तेज़ चल रही थी और जिस्म कांप रहा था। बाल पसीने में तर हो गए और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थी। मैं सैफ को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में गुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं।
तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिंद़ा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं। उस ज़माने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपन स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, ज़मीन पर कब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेत लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार का कब्ज़ा जमाने का साधन बन गए हैं। सांप्रदायिक दंगे। संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियां बहा सकता हो।
सैफ को जगाया गया। वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ इस तरह देख रहा था जैसे मां को तलाश कर रहा हो। अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफुद्दीन उर्फ़ सैफ ने जब अपने घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया।
सैफ के अब्बा कौसर चचा के मरने का आया कोना कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है। गांव वालों ने ख़त में कौसर चचा के मरने की ख़बर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा सैफ अब इस दुनिया में अकेला रह गया है। सैफ के बड़े भाई उसे अपने साथ बंबई नहीं ले गए। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि सैफ के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है। कोना कटा पोस्ट कार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक ख़मोश बैठे रहे थे। अम्मां से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गांव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची ज़मीन बेच, सैफ को साथ लेकर लौटे थे। सैफ को देखकर हम सबको हंसी आई थी। किसी गंवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़ने वाली सफिया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी, पहले दिन ही यह लग गया कि सैफ सिर्फ गंवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ़ है। हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ़ बनाया करते थे। इसका एक फायदा सैफ को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्मां का उसने दिल जीत लिया। सैफ मेहनत का पुतला था। काम करने से कभी न थकता था। अम्मां को उसकी ये 'अदा` बहुत पसंद थी। अगर दो रोटियां ज्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता है। सालों पर साल गुज़रते गए और सैफ हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। हम सब उसके साथ सहज होते चले गए। अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता तो तो मैं उसका मुंह नोंच लेता था। हमारा भाई है तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अंदर सैफ की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे।
शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था यानी मस्जिद से किसी को एक पोटला मिला था जिसमे में किसी किस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूंकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सुअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर का हो ही नहीं सकता। इसकी प्रतिक्रिया में मुगल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भड़क गया था। कुछ दुकानें जली थीं और ज्यादातर लूटी गई थीं। चाकू-छुरी की वारदातों में क़रीब सात-आठ लोग मरे थे लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ़्यू लगा दिया गया था। आजकल वाली बात न थी हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ।
दंगा चूंकि आसपास के गांवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था। मुगलपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहां कर्फ्यू का असर भी था और 'जिहाद` जैसा माहौल भी बन गया था। मोहल्ले की गलियां तो थी ही पर कई दंगों के तजुर्बों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अंदर से भी रास्ते होने चाहिए। यानी इमरजेंसी पैकेज। तो घरों के अंदर से, छतों के उपर से, दीवारें को फलांगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था। मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी। सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो ज़रूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएं।
दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह के उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिंदुओं को ज़मीन चटा देंगे.. समझ क्या रखा है धोती बांधनेवालों ने. . .अजी बुज़दिल होते है।. . .एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है. . .'हंस के लिया है पाकिस्तान लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी। पी.ए.सी. की चौकी दोनों मुहानों पर थी। पीएसी के बूटों और उनकी राइफलों के बटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था लेकिन उसके आगे. . .
संकट एकता सिखा देता है। एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता। हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा। हमारे घर में मेरे अलावा, उस ज़माने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था, लड़का सैफ ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना पड़ता था। रात का पहरा छतों पर हुआ करता था। मुगलपुरा चूंकि शहर के सबसे उपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था। मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफ पहरे पर जाया करता था। यह मेरे, अब्बाजान, अम्मां और सफिया-सभी के लिए बहुत अच्छा था। अगर हमारे घर में सैफ न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते। सैफ के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था। उससे झाडू नहीं दिलवाई जाती थी। यह काम सफिया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसंद करती थी।
कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुंच जाता था, लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे। दो-चार लड़कों के पास देसी कट्टे और ज्यादातर के पास चाकू थे। उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करने वाले कारीगर थे। ज्यादातर ताले के कारखानों के काम करते थे। कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगीरी जैसे काम करते थे। चूंकि इधर बाजार बंद था इसलिए उनके धंधे भी ठप्प थे। उनमें से ज्यादातर के घरों में कर्ज से चूल्हा जल रहा था। लेकिन वो खुश थे। छतों पर बैठकर वे दंगों की ताज़ा ख़बरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिंदुओं को गालियां दिया करते थे। हिंदुओं से ज्यादा गालियां वे पीएसी को देते थे। पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें जबानी याद था और कम आवाज़ में रेडियो लाहौर सुना करते थे। इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्जत हाजियों की तरह होती थी। वो पाकिस्तान की रेलगाड़ी 'तेज़गाम` और 'गुलशने इक़बाल कॉलोनी` के ऐसे किस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है। पाकिस्तान की तारीफ़ों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफ से छेड़छाड़ किया करते थे। सैफ ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वज़ीफ़ा सुनने के बाद एक दिन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहां? इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था। वह कुछ समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सकता था कि पाकिस्तान कहां है।
गश्ती लौंडे सैफ को मज़ाक़ में संजीदगी से डराया करते थे, 'देखो सैफ अगर तुम्हें हिंदू पा जाएंगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे।' लड़के जानते थे कि सैफ अधपागल होने के बावजूद नंगे होने को बहुत बुरी और ख़राब चीज़ समझता है, 'उसके बाद हिंदू तुम्हारे तेल मलेंगे।'
'क्यों, तेल क्यों मलेंगे?'
'ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए। उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे. . .'
'नहीं,' उसे विश्वास नहीं हुआ।
रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक किस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज्यादा डर गया था। कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था। मैं झुंझलाता था और उसे चुप करा देता था लेकिन उसकी जिज्ञासाएं शांत नहीं हो पाती थीं। एक दिन पूछने लगा, 'बड़े भाई पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?'
'क्यों, वहां मिट्टी क्यों न होगी।'
'सड़क ही सड़क नहीं है...वहां टेरीलीन मिलता है...वहां सस्ती है... र
'देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं....तुम अल्ताफ़ वग़ैरा की बातों पर कान न दिया करो।' मैंने उसे समझाया।
'बड़े भाई क्या हिंदू आंखें निकाल लेते हैं. . .'
'बकवास है. . .ये तुमसे किसने कहा?
'बच्छन ने।'
'गल़त है।'
'तो ख़ाल भी नहीं खींचते?'
'ओफ़्फोह. . .ये तुमने क्या लगा रखी है. . .'
वह चुप हो गया लेकिन उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे। मैं बाहर चला गया। वह सफिया से इसी तरह की बातें करने लगा।
कर्फ्यू लंबा होता चला गया। रात की गश्त जारी रही। हमारी घर से सैफ ही जाता रहा। कुछ दिनों बाद एक दिन अचानक सोते में सैफ चीखने लगा था। हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से है। अब्बाजान को लड़कों पर बहुत गुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लोगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्यों कर हाथ धी लेते?
बात कहां से कहां तक पहुंच चुकी है इसका अंदाज़ा मुझे उस वक़्त तक न था जब तक एक दिन सैफ ने बड़ी गंभीरता से मुझसे पूछा, 'बड़े भाई, मैं हिंदू हो जाउं?'
सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है। मुझे गुस्सा आ गया फिर सोचा पागल पर गुस्सा करने से अच्छा है गुस्सा पी जाउं और उसे समझाने की कोशिश करूं।
मैंने कहा, 'क्यों तुम हिंदू क्यों होना चाहते हो?'
'इसका मतलब है मैं न बच पाउंगा,' मैंने कहा।
'तो आप भी हो जाइए. . .', वह बोला।
'और तुम्हारे ताया अब्बार, मैंने अपने वालिद और उसके चचा की बात की।
'नहीं. ..उन्हें. . .' वह कुछ सोचने लगा। अब्बाजान की सफेद और लंबी दाढ़ी में वह कहीं फंस गया होगा।
'देखा ये सब लड़कों की खुराफ़ात है जो तुम्हें बहकाते हैं। ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है। अरे महेश को नहीं जानते?'
'वो जो स्कूटर पर आते हैं. . .' वह खुश हो गया।
'हां-हां वही।'
'वो हिंदू है?'
'हां हिंदू है।' मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराशा की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह ख़ामोश हो गया।
'ये सब गुंडे बदमाशों के काम हैं. . .न हिंदू लड़ते हैं और न मुसलमान. . .गुंडे लड़ते हैं, समझे?'
दंगा शैतान की आंत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे- यार शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी दिया जाए तो कितने होंगे. . . ज्यादा से ज्यादा एक हज़ार, चलो दो हज़ार मान लो तो भाई दो हज़ार आदमी लाखों लोगों की जिंद़गी को जहन्नुम बनाए हुए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं। ये तो वही हुआ कि दस हज़ार अंग्रेज़ करोड़ों हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निज़ाम उनके तहत चलता रहता था और फिर इन दंगों से फ़ायदा किसका है, फ़ायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिलेंगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे, अब तो हम क्या हैं? तुम वोटर हो, हिंदू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर, यही सब होता रहेगा इस देश में? हां क्यों नहीं? जहां लोग ज़ाहिल हैं, जहां किराये के हत्यारे मिल जाते हैं, जहां पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहां और क्या हो सकता है? यार क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा तुम कौन होते हो पढ़ाने वाले, सरकार पढ़ाएगी, अगर चाहेगी तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हां. . .अंग्रेजों ने हमें यही सिखाया है. . .हम इसके आदी हैं. . .चलो छोड़ो, तो दंगे होते रहेंगे? हां, होते रहेंगे? मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदु हो जाएं? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो। अच्छा मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? सुभान अल्लाह . . .वाह वाह क्या बात कही है. . .तो क्या दंगे रुक जाएंगे? ये तो सोचने की बात है. . .पाकिस्तान में शिआ सुन्नी एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं. . .बिहारी में ब्राह्मण हरिजन की छाया से बचते हैं. . .तो क्या यार आदमी या कहो इंसान साला है ही ऐसा कि जो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएं. . .वाह क्या बात कह दी, मलतब. . .मतलब. . .मतलब. . .
मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था सफिया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भाई अकरम भागता हुआ आया और फलती हुई सांस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला, 'सैफ को पी.ए.सी. वाले मार रहे हैं।'
'क्या? क्या कह रहे हो?'
'सैफ को पीएसी वाले मार रहे हैं', वह ठहरकर बोला।
'क्यों मार रहे हैं? क्या बात है?'
'पता नहीं. . .नुक्कड़ पर. . .'
'वहीं जहां पीएसी की चौकी है?'
'हां वहीं।'
'लेकिन क्यों. . .' मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफ को आठ बजे के करीब अम्मां ने दूध लेने भेजा था। सैफ जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब दो दस बजे गए थे।
'चलो मैं चलता हूं' रेडियो से आती बेढंगी आवाज़ की फिक्र किए बग़ैर मैं तेजी से बाहर निकला। पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले, उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना खौफज़दा रहता है उसे मारने की क्या ज़रूरत है. . .फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा, अरे उसे तो अम्मां ने दो रुपए दिए थे। दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?
नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा था। सामने सैफ पीएसी वालों के सामने खड़ा था। उसके सामने पीएसी के जवान थे। सैफ जोर-जोर से चीख़ रहा था, 'मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .हिंदू हूं. . .'
मैं आगे बढ़ा। मुझे देखने के बाद भी सैफ रुका नहीं वह कहता रहा, 'हां, हां मैं हिंदू हूं. . .' वह डगमगा रहा था। उसके होंठों के कोने से ख़ून की एक बूंद निकलकर ठोढ़ी पर ठहर गई थी।
'तुमने मुझे मारा कैसे. . .मैं हिंदू. . .'
'सैफ. . .ये क्या हो रहा है. . .घर चलो'
'मैं. . .मैं हिंदू हूं।'
मुझे बड़ी हैरत हुई. . .अरे क्या ये वही सैफ है जो था. . .इसकी तो काया पलट कई है। ये इसे हो क्या गया।
'सैफ होश में आओ' मैंने उसे ज़ोर से डांटा।
मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अंदर ही अंदर दूर से हंस रहे थे। मुझे गुस्सा आया। साले ये नहीं समझते कि वह पागल है।
'ये आपका कौन है?' एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा।
'मेरा भाई है. . . थोड़ी मेंटल प्राब्लम है इसे'
'तो इसे घर ले जाओ,' एक सिपाही बोला।
'हमें पागल बना दिया,' दूसरे ने कहा।
'चलो. . .सैफ घर चलो। कर्फ्यू लग गया है. . .कर्फ्यू. . .'
'नहीं जाउंगा. . .मैं हिंदू हूं. ..हिंदू. . .मुझे. . .मुझे. . .'
वह फट-फटकर रोने लगा. . .'मारा. . .मुझे मारा. . .मुझे मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .मैं' सैफ धड़ाम से ज़मीन पर गिरा. . .शायद बेहोश हो गया था. . .अब उसे उठाकर ले जाना आसान था।
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18 शाह आलम कैम्प की रूहें
(1)
शाह आम कैम्प में दिन तो किसी न किसी तरह गुज़र जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती है। ऐसी नफ़्स़ा नफ़्स़ी का अलम होता है कि अल्ला बचाये। इतनी आवाज़े होती हैं कि कानपड़ी आवाज़ नहीं सुनाई देती, चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना, चिल्लाना, आहें सिसकियां. . .
रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रूहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं, उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चों को सीने से लगा लेती हैं। ज़िंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीख़ों निकली थी वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं।
सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं, उन्हें इंतिजार रहता है अपनी मां को देखने का. . .अब्बा के साथ खाना खाने का।
कैसे हो सिराज, 'अम्मां की रूह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।'
'तुम कैसी हों अम्मां?'
मां खुश नज़र आ रही थी बोली सिराज. . .अब. . . मैं रूह हूं . . .अब मुझे कोई जला नहीं सकता।'
'अम्मां. . .क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?'
(2)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रूहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगी। उन सबने मिलकर कैम्प छान मारा. . .मोहल्ले गयीं. . .घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अंदर घुस गयीं. . .कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।
आख़िर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गयी। वे कल के लिए पेट्रौल बम बना रहे थे। बंदूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।
बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, 'अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।'
मां ने कहा, 'नहीं, नहीं मैंने हर जगह देख लिया है. . .कहीं नहीं मिला।'
तब किसी दंगाई ने कहा, 'अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आये हैं।'
(3)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती है।, पानी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।
दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गये तो बहुत खुश हो गये और बोले, 'ये तो बहुत बढ़िया जगह है. . .यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।'
(4)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रात भर बच्चों के साथ रहती हैं, उन्हें निहारती हैं. . .उनके भविष्य के बारे में सोचती हैं। उनसे बातचीत करती हैं।
सिराज अब तुम घर चले जाओ, 'मां की रूह ने सिराज से कहा।'
'घर?' सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां न