सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' की लंबी कविता

SHARE:

पूरे तीस पृष्ठों की इस पूरी कविता का टंकण अनूप शुक्ल ने किया है तथा उनके चिट्ठा स्थल फ़ुरसतिया पर यह पूर्व प्रकाशित है. इसे साभार यहाँ पुनर्...


पूरे तीस पृष्ठों की इस पूरी कविता का टंकण अनूप शुक्ल ने किया है तथा उनके चिट्ठा स्थल फ़ुरसतिया पर यह पूर्व प्रकाशित है. इसे साभार यहाँ पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है. कविता लंबी है। आराम से आनन्द उठायें, बिना हड़बड़ाये हुये। देखें तमाम जगह आप महसूस
करेंगे कि बात आपको ही संबोधित करके कही गयी है।


पटकथा


जब मैं बाहर आया

मेरे हाथों में

एक कविता थी और दिमाग में

आँतों का एक्स-रे।

वह काला धब्बा

कल तक एक शब्द था;

खून के अँधेर में

दवा का ट्रेडमार्क

बन गया था।

औरतों के लिये ग़ैर-ज़रूरी होने के बाद

अपनी ऊब का

दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।

मैंने सोचा !



क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच/अपनी भूख को ज़िन्दा रखना/जीभ और जाँघ के

स्थानिक भूगोल की/वाजिब मजबूरी है।

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच

अपनी भूख को ज़िन्दा रखना

जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की

वाजिब मजबूरी है।

मैंने सोचा और संस्कार के

वर्जित इलाकों में

अपनी आदतों का शिकार

होने के पहले ही बाहर चला आया।

बाहर हवा थी

धूप थी

घास थी

मैंने कहा आजादी…

मुझे अच्छी तरह याद है-

मैंने यही कहा था

मेरी नस-नस में बिजली

दौड़ रही थी

उत्साह में

खुद मेरा स्वर

मुझे अजनबी लग रहा था

मैंने कहा-आ-जा-दी

और दौड़ता हुआ खेतों की ओर

गया। वहाँ कतार के कतार

अनाज के अँकुए फूट रहे थे

मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये

बच्चे। तारों पर

चिड़ियाँ चहचहा रही थीं

मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…

खेत की मेड़ पार करते हुये

मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी

सड़क पर जाते हुये आदमी से

उसका नाम पूछा

और कहा- बधाई…


घर लौटकर

मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं

पुरानी तस्वीरों को दीवार से

उतारकर

उन्हें साफ किया

और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)

पोंछकर टाँग दिया।

मैंने दरवाजे के बाहर

एक पौधा लगाया और कहा–

वन महोत्सव…

और देर तक

हवा में गरदन उचका-उचकाकर

लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा

देर तक महसूस करता रहा–

कि मेरे भीतर

वक्त का सामना करने के लिये

औसतन ,जवान खून है

मगर ,मुझे शान्ति चाहिये

इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया

‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’

और चहकते हुये कहा

यही मेरी आस्था है

यही मेरा कानून है।


इस तरह जो था उसे मैंने

जी भरकर प्यार किया

और जो नहीं था

उसका इंतज़ार किया।

मैंने इंतज़ार किया–

अब कोई बच्चा

भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा

अब कोई छत बारिश में

नहीं टपकेगी।

अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में

अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा

अब कोई दवा के अभाव में

घुट-घुटकर नहीं मरेगा

अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा

कोई किसी को नंगा नहीं करेगा

अब यह ज़मीन अपनी है

आसमान अपना है

जैसा पहले हुआ करता था…

सूर्य,हमारा सपना है

मैं इन्तज़ार करता रहा..

इन्तज़ार करता रहा…

इन्तज़ार करता रहा…

जनतन्त्र, त्याग, स्वतन्त्रता…

संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता…

ये सारे शब्द थे

सुनहरे वादे थे

खुशफ़हम इरादे थे


सुन्दर थे

मौलिक थे

मुखर थे

मैं सुनता रहा…

सुनता रहा…

सुनता रहा…

मतदान होते रहे

मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे

उसी लोकनायक को

बार-बार चुनता रहा

जिसके पास हर शंका और

हर सवाल का

एक ही जवाब था

यानी कि कोट के बटन-होल में

महकता हुआ एक फूल

गुलाब का।

वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र

समझाता रहा। मैं खुद को

समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-

वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल

मगर सब कुछ सही होगा।



मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे/उसी लोकनायक को/बार-बार चुनता रहा/जिसके पास

हर शंका और/हर सवाल का/एक ही जवाब था/यानी कि कोट के बटन-होल में /महकता

हुआ एक फूल/गुलाब का

भीड़ बढ़ती रही।

चौराहे चौड़े होते रहे।

लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज

खाकर-निरापद भाव से

बच्चे जनते रहे।

योजनायेँ चलती रहीं

बन्दूकों के कारखानों में

जूते बनते रहे।

और जब कभी मौसम उतार पर

होता था। हमारा संशय

हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर

पूछते थे -यह क्या है?

ऐसा क्यों है?

फिर बहसें होतीं थीं

शब्दों के जंगल में

हम एक-दूसरे को काटते थे

भाषा की खाई को

जुबान से कम जूतों से

ज्यादा पाटते थे


फिर बहसें

होतीं थीं/

शब्दों के जंगल में/हम एक-दूसरे को काटते थे/भाषा की खाई को/जुबान से कम जूतों

से/ज्यादा पाटते थे

कभी वह हारता रहा…

कभी हम जीतते रहे…

इसी तरह नोक-झोंक चलती रही

दिन बीतते रहे…

मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।

मेरा सारा धीरज

युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में

बह गया।

मैंने देखा कि मैदानों में

नदियों की जगह

मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं

पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं

दूर-दूर तक

कोई मौसम नहीं है

लोग-

घरों के भीतर नंगे हो गये हैं

और बाहर मुर्दे पड़े हैं

विधवायें तमगा लूट रहीं हैं

सधवायें मंगल गा रहीं हैं

वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ

अकाल का लंगर चला रही हैं

जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-

‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना

सख्त मना है।’



क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच/अपनी भूख को ज़िन्दा रखना/जीभ और जाँघ के

स्थानिक भूगोल की/वाजिब मजबूरी है।

फिर भी उस उजाड़ में

कहीं-कहीं घास का हरा कोना

कितना डरावना है

मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का

सबसे बड़ा बौद्ध- मठ

बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है

अखबार के मटमैले हासिये पर

लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का

शांतिवाद ,नाम है

यह मेरा देश है…

यह मेरा देश है…

हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक

फैला हुआ

जली हुई मिट्टी का ढेर है

जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-

नफ़रत है।

साज़िश है।

अन्धेर है।

यह मेरा देश है

और यह मेरे देश की जनता है

जनता क्या है?

एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:

कुहरा,कीचड़ और कांच से

बना हुआ…

एक भेड़ है

जो दूसरों की ठण्ड के लिये

अपनी पीठ पर

ऊन की फसल ढो रही है।


जनता

क्या है?

एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:/कुहरा,कीचड़ और कांच से/ बना

हुआ…/एक भेड़ है/जो दूसरों की ठण्ड के लिये/अपनी पीठ पर/ऊन की फसल ढो

रही है

एक पेड़ है

जो ढलान पर

हर आती-जाती हवा की जुबान में

हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है

क्योंकि अपनी हरियाली से

डरता है।

गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर

शहर के शिवालों तक फैली हुई

‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है

यह जनता…

उसकी श्रद्धा अटूट है

उसको समझा दिया गया है कि यहाँ

ऐसा जनतन्त्र है जिसमें

घोड़े और घास को

एक-जैसी छूट है

कैसी विडम्बना है

कैसा झूठ है

दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है।



दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र/एक ऐसा तमाशा है/जिसकी जान/मदारी की भाषा है।

हर तरफ धुआँ है

हर तरफ कुहासा है

जो दाँतों और दलदलों का दलाल है

वही देशभक्त है

अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-

तटस्थता। यहाँ

कायरता के चेहरे पर

सबसे ज्यादा रक्त है।

जिसके पास थाली है

हर भूखा आदमी

उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है


हर तरफ कुआँ है

हर तरफ खाई है

यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है

जो या तो मूर्ख है

या फिर गरीब है


यहाँ,सिर्फ

,वह आदमी,देश के करीब है/जो या तो मूर्ख है/या फिर गरीब है

मैं सोचता रहा

और घूमता रहा-

टूटे हुये पुलों के नीचे

वीरान सड़कों पर आँखों के

अंधे रेगिस्तानों में

फटे हुये पालों की

अधूरी जल-यात्राओं में

टूटी हुई चीज़ों के ढेर में

मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ

ढूँढता रहा।

अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के

बिस्तरों में/ नुमाइशों में

बाजारों में /गाँवों में

जंगलों में /पहाडों पर

देश के इस छोर से उस छोर तक

उसी लोक-चेतना को

बार-बार टेरता रहा

जो मुझे दोबारा जी सके

जो मुझे शान्ति दे और

मेरे भीतर-बाहर का ज़हर

खुद पी सके।

–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त

…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…

मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया

जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में

कन्धों पर लुढ़क रहा था,

किसी झनझनाते चाकू की तरह

खुलकर,कड़ा हो गया…

अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की

यह घटना

इस देश की परम्परा की -

एक बेमिशाल कड़ी थी

लेकिन इसे साहस मत कहो

दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई

गाय की घृणा थी

(जिंदा रहने की पुरज़ोर कोशिश)

जो उस आदमखोर की हवस से

बड़ी थी।


मगर उसके तुरन्त बाद

मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी

अपने इतिहास की

जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने

विस्मय से देखा कि ताशकन्द में

समझौते की सफेद चादर के नीचे

एक शान्तियात्री की लाश थी

और अब यह किसी पौराणिक कथा के

उपसंहार की तरह है कि इसे देश में

रोशनी उन पहाड़ों से आई थी

जहाँ मेरे पड़ोसी ने

मात खायी थी।

मगर मैं फिर वहीं चला गया

अपने जुनून के अँधेरे में

फूहड़ इरादों के हाथों

छला गया।

वहाँ बंजर मैदान

कंकालों की नुमाइश कर रहे थे

गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग

भूखों मर रहे थे

मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के

एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ

अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई

किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है

अब न तो कोई किसी का खाली पेट

देखता है, न थरथराती हुई टाँगें

और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है

हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है

सबने भाईचारा भुला दिया है

आत्मा की सरलता को भुलाकर

मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में)

सुला दिया है।

सहानुभूति और प्यार

अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये

एक आदमी दूसरे को,अकेले –

अँधेरे में ले जाता है और

उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है

ठीक उस मोची की तरह जो चौक से

गुजरते हुये देहाती को

प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर

रबर के तल्ले में

लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ

ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद

डपटकर पैसा वसूलता है

गरज़ यह है कि अपराध

अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है

जो आत्मीयता की खाद पर

लाल-भड़क फूलता है


अपराध/अपने यहाँ

एक ऐसा सदाबहार फूल है/जो आत्मीयता की खाद पर/लाल-भड़क फूलता है

मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में

हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है

हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर

पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं

वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर

नागरिकता की गोधूलि में

घर लौटते मुशाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।


उन्होंने किसी चीज को

सही जगह नहीं रहने दिया

न संज्ञा

न विशेषण

न सर्वनाम

एक समूचा और सही वाक्य

टूटकर

‘बि ख र’ गया है

उनका व्याकरण इस देश की

शिराओं में छिपे हुये कारकों का

हत्यारा है

उनकी सख्त पकड़ के नीचे

भूख से मरा हुआ आदमी

इस मौसम का

सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय

सबसे सटीक नारा है

वे खेतों मेंभूख और शहरों में

अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं


भूख से

मरा हुआ आदमी/

इस मौसम का /सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय/सबसे सटीक नारा है

देश और धर्म और नैतिकता की

दुहाई देकर

कुछ लोगों की सुविधा

दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं

वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं

उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है

वे मुस्कराते हैं और

दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा

करवट बदलकर सो जाती है

मैं देखता रहा…

देखता रहा…

हर तरफ ऊब थी

संशय था

नफरत थी

मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे

असहाय था। उसमें

सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की

बेचैनी थी ,रोष था

लेकिन उसका गुस्सा

एक तथ्यहीन मिश्रण था:

आग और आँसू और हाय का।

इस तरह एक दिन-

जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था

मेरे खून में एक काली आँधी-

दौड़ लगा रही थी

मेरी असफलताओं में सोये हुये

वहसी इरादों को

झकझोरकर जगा रही थी

अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में

डूबते हुये मैंने देखा

मेरी उलझनों के अँधेरे में

एक हमशक्ल खड़ा है

मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?

यहाँ क्यों आये हो?

तुम्हें क्या हुआ है?’

‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ

हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,

वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल

दहल जाता है

कलेजा मुँह को आता है

और मैं हैरान हूँ

‘यहाँ आओ

मेरे पास आओ

मुझे छुओ।

मुझे जियो। मेरे साथ चलो

मेरा यकीन करो। इस दलदल से

बाहर निकलो!

सुनो!

तुम चाहे जिसे चुनो

मगर इसे नहीं। इसे बदलो।

मुझे लगा-आवाज़

जैसे किसी जलते हुये कुएँ से

आ रही है।

एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट

जैसे कोई मादा भेड़िया

अपने छौने को दूध पिला रही है

साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है


एक

अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट /जैसे कोई मादा भेड़िया/अपने छौने को दूध पिला रही

है/साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है

मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था

उसकी आवाज में

असंख्य नरकों की घृणा भरी थी

वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर

बोल रहा था। मगर उसकी आँख

गुस्से में भी हरी थी

वह कह रहा था-

‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में

वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं

और तुम पेड़ों की छाल गिनकर

भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो

तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो

जिसमें न कोई तुक है

न सुख है

तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर

रास्ते में रुक गये हो

तुम जो हर चीज़

अपने दाँतों के नीचे

खाने के आदी हो

चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो

अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो

वह क्या है जिसने तुम्हें

बर्बरों के सामने अदब से

रहना सिखलाया है?

क्या यह विश्वास की कमी है

जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है

या कि शर्म

अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है

नहीं-सरलता की तरह इस तरह

मत दौड़ो

उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का

रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का

आधार है

मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई

दुनिया में

आसानी से समझ में आने वाली चीज़

सिर्फ दीवार है।

और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का

हिस्सा बन गयी है

इसे झटककर अलग करो

अपनी आदतों में

फूलों की जगह पत्थर भरो

मासूमियत के हर तकाज़े को

ठोकर मार दो

अब वक्त आ गया है तुम उठो

और अपनी ऊब को आकार दो।


क्या यह

विश्वास की कमी है/जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है/या कि शर्म /अब तुम्हारी

सहूलियत बन गयी है

‘सुनो !

आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ

जिसके आगे हर सचाई

छोटी है। इस दुनिया में

भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क

रोटी है।


मगर तुम्हारी भूख और भाषा में

यदि सही दूरी नहीं है

तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो

क्योंकि पशुता -

सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है

वह आदमी को वहीं ले जाती है

जहाँ भूख

सबसे पहले भाषा को खाती है

वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है

जो अपने चेहरे की राख

दूसरों की रूमाल से झाड़ता है

जो अपना हाथ

मैला होने से डरता है

वह एक नहीं ग्यारह कायरों की

मौत मरता है


जो अपना

हाथ/मैला होने से डरता है/वह एक नहीं ग्यारह कायरों की /मौत मरता है

और सुनो! नफ़रत और रोशनी

सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं

जिसे जंगल के हाशिये पर

जीने की तमीज है

इसलिये उठो और अपने भीतर

सोये हुए जंगल को

आवाज़ दो

उसे जगाओ और देखो-

कि तुम अकेले नहीं हो

और न किसी के मुहताज हो

लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खड़े हैं

वहाँ चलो।उनका साथ दो

और इस तिलस्म का जादू उतारने में

उनकी मदद करो और साबित करो

कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं

जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’


तुम अकेले

नहीं हो/और न किसी के मुहताज हो/लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खड़े हैं/वहाँ

चलो।उनका साथ दो

मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था

एक के बाद दूसरा

दूसरे के बाद तीसरा

तीसरे के बाद चौथा

चौथे के बाद पाँचवाँ…

यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प

चुन रहा था

मगर मैं हिचक रहा था

क्योंकि मेरे पास

कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं

जो मेरी सीमाएँ थीं

यद्यपि यह सही है कि मैं

कोई ठण्डा आदमी नहीं है

मुझमें भी आग है-

मगर वह

भभककर बाहर नहीं आती

क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ

एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है

जो परिवर्तन तो चाहता है

मगर आहिस्ता-आहिस्ता

कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता

बनी रहे।

कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे

और विरोध में उठे हुये हाथ की

मुट्ठी भी तनी रहे…
और यही है कि बात

फैलने की हद तक

आते-आते रुक जाती है

क्योंकि हर बार

चन्द सुविधाओं के लालच के सामने

अभियोग की भाषा चुक जाती है।

मैं खुद को कुरेद रहा था


हर

बार/चन्द सुविधाओं के लालच के सामने/अभियोग की भाषा चुक जाती है।

अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को

सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।

इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर

जमी हुई काई और उगी हुई घास को

खरोंच रहा था,नोंच रहा था

पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये

मैंने आदमी के भीतर की मैल

देख ली थी। मेरा सिर

भिन्ना रहा था

मेरा हृदय भारी था

मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं

अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से

थोड़ी देर के लिये

बचना चाह रहा था

जो अपनी पैनी आँखों से

मेरी बेबसी और मेरा उथलापन

थाह रहा था

प्रस्तावित भीड़ में

शरीक होने के लिये

अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था

अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर

खींच लिया और मैं

जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में

ताज़े अखबार की कतरन लिये हुये

धड़ाम से-

चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर

मत-पेटियों के

गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा

नींद के भीतर यह दूसरी नींद है

और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है

सिर्फ एक शोर है

जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं

शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …

राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…

सैन्यशक्ति देशभक्ति आज़ादी वीसा…

वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…

शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…

एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…

झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…

मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ

और अँधेरे में गाड़ दी है

आंखों की रोशनी।

सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है

मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में

मैंने देखा हर तरफ

रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं

गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये

गुट से गुट टकरा रहे हैं

वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं

एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं

हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं

श्रीमान्‌ किन्तु हैं

मिस्टर परन्तु हैं

कुछ रोगी हैं

कुछ भोगी हैं

कुछ हिंजड़े हैं

कुछ रोगी हैं

तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं

आँखों के अन्धे हैं

घर के कंगाल हैं

गूँगे हैं

बहरे हैं

उथले हैं,गहरे हैं।

गिरते हुये लोग हैं

अकड़ते हुये लोग हैं

भागते हुये लोग हैं

पकड़ते हुये लोग हैं

गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं

एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे

इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में

असंख्य रोग हैं

और उनका एकमात्र इलाज-

चुनाव है।


हर तरह

के लोग हैं/एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे/इस बात पर सहमत हैं कि इस देश

में/असंख्य रोग हैं/और उनका एकमात्र इलाज-/ चुनाव है।

लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे

बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है

उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है

जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद

बह रहा है

उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और

पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े

किलबिला रहे हैं और अन्धकार में

डूबी हुई पृथ्वी

(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)

इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है

मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग

इस बात पर सहमत हैं कि

‘चुनाव’ ही सही इलाज है

क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से

किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये

न उन्हें मलाल है,न भय है

न लाज है

दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है

और इसी बहाने

वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं

मैंने देखा कि हर तरफ

मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है

जिसे कुछ जंगली पशु

खूँद रहे हैं

लीद रहे हैं

चर रहे है

मैंने ऊब और गुस्से को

गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा

मैंने अहिंसा को

एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा

मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें

भरते हुये देखा

मैंने विवेक को

चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…


मैंने

अहिंसा को/एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा/मैंने ईमानदारी को अपनी

चोरजेबें/भरते हुये देखा/मैंने विवेक को/चापलूसों के तलवे चाटते हुये

देखा…

मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया

उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को

हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे

उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।

चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।

गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत

गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।

उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द

थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!

यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने

उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?

मैं हतप्रभ सा खड़ा था

और मेरा हमशक्ल

मेरे पैरों के पास

मूर्च्छित- सा

पड़ा था-

दुख और भय से झुरझुरी लेकर

मैं उस पर झुक गया

किन्तु बीच में ही रुक गया

उसका हाथ ऊपर उठा था

खून और आँसू से तर चेहरा

मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन

उसकी आवाज में उतर आया था-

‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।

मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने

उन्हें उजाले से जोड़ा है

उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है

इसी तरह तोड़ा है

मगर समय गवाह है

कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’


‘दुखी मत

हो/ यह मेरी नियति है/मैं हिन्दुस्तान हूँ/ जब भी मैंने उन्हें उजाले से जोड़ा है/उन्होंने

मुझे इसी तरह अपमानित किया है/इसी तरह तोड़ा है/मगर समय गवाह है/कि मेरी

बेचैनी के आगे भी राह है।’

मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है

जैसे किसी जले हुये जंगल में

पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है

घास की की ताजगी- भरी

ऐसी आवाज़ है

जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।

‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है

संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है

फिर भी वे अपने हैं…

अपने हैं…

अपने हैं…

जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं

नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय

नहीं है।अपने लोगों की घृणा के

इस महोत्सव में

मैं शापित निश्चय हूँ


‘भूख ने

उन्हें जानवर कर दिया है/संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है/फिर भी वे अपने

हैं…/जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं’

मुझे किसी का भय नहीं है।

‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ

चलो। इससे पहले कि वे

गलत हाथों के हथियार हों

इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से

काले बाज़ार हों

उनसे मिलो।उन्हें बदलो।

नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना

एक खूनी विचार है

क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी

इस हिंसक भीड़ का

अन्धा शिकार है।

तुम मेरी चिन्ता मत करो।

मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ

जहाँ वर्तमान

अपने शिकारी कुत्ते उतारता है

अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ

वह टुकड़ा हूँ

जो आदमी की शिराओं में

बहते हुये ख़ून को

उसके सही नाम से पुकारता हूँ

इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और

देखो कि लोग…


भीड़ के

खिलाफ रुकना/

एक खूनी विचार है/क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी/इस हिंसक भीड़ का /अन्धा शिकार

है।

मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने

मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता

किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।

अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल

मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में

एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर

पर्दे के पीछे ढकेल दिया।

भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में

पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–

कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को

काटते हुये मैं चीख पड़ा-

‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’

मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह

किसको कहा था। शायद अपने-आपको

शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को

हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को

मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है


मेरी नींद टूट चुकी थी

मेरा पूरा जिस्म पसीने में

सराबोर था। मेरे आसपास से

तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।

हर तरफ हलचल थी,शोर था।

और मैं चुपचाप सुनता हूँ

हाँ शायद -

मैंने भी अपने भीतर

(कहीं बहुत गहरे)

‘कुछ जलता हुआ सा ‘ छुआ है

लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है

नींद में हुआ है

और तब से आजतक

नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये

मैंने कई रातें जागकर गुज़ार दीं हैं

हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं

अपनी परेशानी के

निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण

जिये हैं।

और हर बार मुझे लगा है कि कहीं

कोई खास फ़र्क़ नहीं है

ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है

जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है


हाँ ,यह सही है कि इन दिनों

कुछ अर्जियाँ मँजूर हुई हैं

कुछ तबादले हुये हैं

कल तक जो थे नहले

आज

दहले हुये हैं


हाँ यह सही है कि

मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है

तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है

नये-नये वादे करता है

और यह सिर्फ़ घास के

सामने होने की मजबूरी है

वर्ना उस भले मानुस को

यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन

और अपने निजी बिस्तर के बीच

कितने जूतों की दूरी है।


मन्त्री जब

प्रजा के सामने आता है/तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है/नये-नये वादे करता है/और यह

सिर्फ़ घास के/सामने होने की मजबूरी है

वर्ना उस भले मानुस को /यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन/और अपने निजी

बिस्तर के बीच /कितने जूतों की दूरी है।

हाँ यह सही है कि इन दिनों -चीजों के

भाव कुछ चढ़ गये हैं।अखबारों के

शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।

मन्दी की मार से

पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में

सहसा उछल गयीं हैं

हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं

सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-

सच्चे मतभेद के अभाव में

लोग उछल-उछलकर

अपनी जगहें बदल रहे हैं

चढ़ी हुई नदी में

भरी हुई नाव में

हर तरफ ,विरोधी विचारों का

दलदल है

सतहों पर हलचल है

नये-नये नारे हैं

भाषण में जोश है

पानी ही पानी है

पर

कीचड़ खामोश है


मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का

एक पुर्ज़ा गरम होकर

अलग छिटक गया है और

ठण्डा होते ही

फिर कुर्सी से चिपक गया है

उसमें न हया है

न दया है


मैं रोज

देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का/एक पुर्ज़ा गरम होकर/अलग छिटक गया है

और/ठण्डा होते ही/फिर कुर्सी से चिपक गया है

नहीं-अपना कोई हमदर्द

यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को

परख लिया है।

मैंने हरेक को आवाज़ दी है

हरेक का दरवाजा खटखटाया है

मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ

उठायी है उसको मादा

पाया है।

वे सब के सब तिजोरियों के

दुभाषिये हैं।

वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।

अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक

हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।

यानी कि-

कानून की भाषा बोलता हुआ

अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।


मैंने

एक-एक को परख लिया है/मैंने हरेक को आवाज़ दी है/हरेक का दरवाजा खटखटाया

है/मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ उठायी है /उसको मादा

पाया है।

भूख और भूख की आड़ में

चबायी गयी चीजों का अक्स

उनके दाँतों पर ढूँढना

बेकार है। समाजवाद

उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का

एक आधुनिक मुहावरा है।

मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद

मालगोदाम में लटकती हुई

उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है

और उनमें बालू और पानी भरा है।


मेरे देश

का समाजवाद/

मालगोदाम में लटकती हुई /उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’

लिखा है/और उनमें बालू और पानी भरा है।

यहाँ जनता एक गाड़ी है


एक ही संविधान के नीचे

भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम

‘दया’ है

और भूख में

तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।


मुझसे कहा गया कि संसद

देश की धड़कन को

प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है

जनता को

जनता के विचारों का

नैतिक समर्पण है

लेकिन क्या यह सच है?

या यह सच है कि

अपने यहां संसद -

तेली की वह घानी है

जिसमें आधा तेल है

और आधा पानी है

और यदि यह सच नहीं है

तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को

अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?

जिसने सत्य कह दिया है

उसका बुरा हाल क्यों है?


अपने यहां

संसद -

तेली की वह घानी है/जिसमें आधा तेल है/और आधा पानी है/

मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल

करता हूँ जिसका मेरे पास

कोई उत्तर नहीं है

और आज तक –

नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये

मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं

हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के

निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण

जिये हैं।

मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है

संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं

हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।

दरिद्र की व्यथा की तरह

उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में

डूबा हुआ सारा का सारा देश

पहले की तरह आज भी

मेरा कारागार है।


-धूमिल



चित्र:- रितु चौधरी की कलाकृति

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी5:15 pm

    धूमिल की ये बेहद ही खुबसूरत कविता है. पोस्ट करने के लिए धन्यवाद..
    लेकिन आप ने धूमिल का नाम गलत लिखा है, उनका पूरा नाम सुदामा पाण्डेय "धूमिल" है न की सुदामा प्रसाद पाण्डेय.
    कृपया सही करें.....
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. धूमिल मकी ये बेहद ही खुबसूरत कविता है. पोस्ट करने के लिए धन्यवाद..
    लेकिन आप ने धूमिल का नाम गलत लिखा है, उनका पूरा नाम सुदामा पाण्डेय "धूमिल" है न की सुदामा प्रसाद पाण्डेय.
    कृपया सही करें.....
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' की लंबी कविता
सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' की लंबी कविता
http://photos1.blogger.com/blogger/4284/450/320/painting%20by%20ritu.jpg
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2006/05/blog-post_15.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2006/05/blog-post_15.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content