**-**-** - हनुमंत मनगटे लँगड़ा तैमूर आया, मंगोल चंगेज आया, डाकू हलाकू भी आया और न जाने कौन-कौन इकन्दर-सिकन्दर, अँग्रेज़-रंगरेज ...
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- हनुमंत मनगटे
लँगड़ा तैमूर आया, मंगोल चंगेज आया, डाकू हलाकू भी आया और न जाने कौन-कौन इकन्दर-सिकन्दर, अँग्रेज़-रंगरेज भी आए. हमारे यहाँ से हीरे जवाहरात, स्वर्णरजत, मान सम्मान, दिल दिमाग सब ले गए किन्तु न ले जा सके तो सिंहासन. सिंहासन के भौतिक रूप से मेरा तात्पर्य नहीं है, वरन् परम्परा से है. सिंहासन के प्रति हमारा विशेष रूप से रुझान रहा हो, शायद इस कारण. इसीलिए तो सिंहासन की परम्परा में बन्दरिया की भांति कुर्सी से हम पुट्ठे चिपकाए हुए हैं.
सम्बोधन में क्या रखा है. पहले सिंहासन कहते थे, अब कुर्सी कहते हैं. सिंहासन की सभी विशेषताएँ कुर्सी में हैं. सिंहासन पर बैठते ही व्यक्ति उर्फ राजा या महाराज अपने को सिंह रुप में महसूस करने लगता था. आज भी कुर्सी पर बैठते ही व्यक्ति का अहम जागृत हो सिंह की तरह दहाड़ने लगता है. चेयर शब्द अंगरेजों की देन है. (वैसे अंगरेजों ने हमें इस अर्थ में रंगरेज बनाकर छोड़ा है.) सिंहासन नुमा कुर्सी पर किसी हिन्दुस्तानी को बैठने का सबसे पहला अवसर मिला होगा तब उसके दोस्तों और चमचों ने ‘चीयर’ किया होगा. ‘चीयर’ का अपभ्रंश ‘चेयर’ हो गया. अंगरेजियत के अपभ्रंश हिन्दुस्तान की गली-गली में मिल जाएंगे.
मैं ‘सिंहासन से कुर्सी तक एक सिंहावलोकन’ विषय पर शोध प्रबन्ध लिख रहा था, जिसके लिए गाइड के रूप में किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को अपना गाइड न बना एक मंत्री महोदय को बनाया था. इस मंत्री महोदय की एक खूबी थी. जब तक ये मंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे, तब तक हमेशा उनका मुँह टेढ़ा रहा, इसलिए उन्होंने सीधे मुँह कभी बातें ही नहीं की थीं. उनके टेढ़े मुँह से निकलने वाले सीधे शब्द भी टेढ़े हो जाया करते थे. बिहारी का दोहा कृष्ण कन्हैया के संदर्भ में यहाँ दृष्टव्य है. जब वे कुर्सी से उखाड़ फेंके गए तो उनका मुँह खटाक से सीधा हो गया. अब उनके मुँह से टेढ़े निकलने वाले शब्द भी सीधे नजर आते हैं. मुझे लगा, दोष उनका नहीं, कुर्सी का रहा होगा. इसलिए एक दिन मेगनीफ़ाइड ग्लास लेकर उनकी कुर्सी का सिंहावलोकन करने पहुँच गया था, जिसमें खटमल जैसे जीव मुझे किलबिलाते नजर आए थे. उस जीव के सम्बन्ध में कुछ शोधक (शोध किए गए) तथ्यों के जरिए अपना आई.क्यू. बढ़ाइए.
यह जीव सिर्फ मंत्रियों और वी.आई.पीज़. की कुर्सियों में ही पाया जाता है. जो व्यक्ति इन कुर्सियों पर अधिक समय तक बैठने का आदी होता है, उसके साथ चिपककर ये जीव बंगले में भी पहुँच जाया करते हैं और अपनी जनसंख्या वहाँ तेजी से बढ़ाते हैं. यह जीव परिवार नियोजन का सख्त विरोधी है. जिस व्यक्ति का ऑफ़िस के साथ ही साथ घर पर भी मुँह टेढ़ा रहता हो, समझ लीजिए कि कुर्सी से चिपके रहने की उसमें आदत जरा ज्यादा है. व्यक्ति का मुंह टेढ़ा हो जाने का कारण इस जीव का काटना है. अन्य जीव सिर्फ चूसने या ग्रहण करने का कार्य करते हैं किन्तु इस जीव में एक विशेषता यह है कि कुर्सीधारी के रक्त में से यह जनसेवा, कर्तव्य परायणता, ईमानदारी, कार्य के प्रति निष्ठा के ‘जर्म्स’ चूस लेता है. और अपने भीतर पलते हुए कुटिलता, अभिमान, वाक् पटुता, और अहं के ‘जर्म्स’ कुर्सीधारी के रक्त में छोड़ देता है. इसलिए कुछ दिन के भीतर ही आपको नए-नए कुर्सीधारी में अन्तर आया नजर आता है. मार्फिया के इंजेक्शन की तरह इन जीवों से स्वयं को कटवाने का नशा कुर्सीधारी को हो जाता है. अगर भूल से भी एकाध दिन इन जीवों से स्वयं को बिना कटवाए कोई कुर्सीधारी रह जाए तो उसकी हालत मुर्दे से भी बदतर हो जाती है. कुर्सी के प्रति मोह का असल कारण ये जीव हैं. नासमझ लोग अपना वहम दूर कर लें.
हमारे शहर में एक जनसेवक हैं. सोते जागते जनसेवा करना उनकी ‘हॉबी’ है. कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में जमाने भर का अटरम शटरम चिंदी पत्तर ठूंसे, बिना किसी रुपए पैसे या नाम की आशा किए हर मुसीबत जदा की मुसीबत दूर किया करते हैं. उनकी निःस्वार्थ सेवा को मद्देनजर रखते हुए शहर के कुछ गणमान्य पिछले दो वर्षों से यह महसूस करते आ रहे थे कि जनसेवक विधानसभा में पहुँच जाएँ तो अधिक और अच्छी तरह से शहर की सेवा कर सकेंगे. हुआ यह कि 67 में उन्हें जबरदस्ती विधानसभा का सदस्य बनवा दिया गया. विधानसभा में कुछ दिनों तक कुर्सी पर बैठने के कारण वे भी उस जीव की टुच्चाई का शिकार हो गए. अब हाल यह है कि उस कुर्सी के जीवों के ‘डोज’ से उनका नशा पूरा नहीं हो पाता है. इसलिए न सिर्फ वे तीन-तीन कुर्सियों (पदों) पर विराजमान रहते हैं, बल्कि हमेशा वे ऐसी पॉवरफुल कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें जीवों की संख्या अधिक हो. उन्होंने सुन रखा है कि अमुक विभाग की अमुक मलाईदार मंत्रीपद की कुर्सी में जीव अधिक स्वस्थ, मोटे और हजारों लाखों की संख्या में होते हैं. आजकल वे उस कुर्सी को पाने के लिए दल बदलते हुए पागल की तरह बौराए राजधानी में घूमते नजर आते हैं.
इस दृष्टि से हमारे देश के सेठ, व्यापारी काफी चालाक और समझदार हैं. वे जानते हैं कि नशा-पानी किसी भी प्रकार हो, हानिकारक होता है. व्यापार पेशा में टेढ़े मुँह बातें भी नहीं की जा सकती हैं. इसी लिए उनकी दूकानों पर कुर्सी के स्थान पर तख्त होते हैं और उन पर मोटे-मोटे गद्दे और तकिए होते हैं.
कुर्सीधारी व्यक्ति और गद्दाधारी सेठ में अन्तर साफ झलकता है. कुर्सीधारी टेढ़े मुँह बातें करेगा, दाँतों के बदले आँखें दिखाएगा, अभिमान से गर्दन हमेशा ताने रहेगा, किन्तु सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करेगा, दाँत निपोरेगा, और दीनता से गर्दन इतनी झुका लेगा कि तोंद की वृष्टि-छाया में सिर कछुवे की तरह नहीं दिखेगा.
सिंहासन की परम्परा को जीवित रखने वाली कुर्सी का अस्तित्व सर्व-प्रभुत्व सम्पन्न है. कुर्सी धर्म निरपेक्ष भी है. अपने आगोश में किसी भी धर्मावलम्बी को सहर्ष स्थान देती है, क्योंकि उसके जोड़ों में बसने वाले जीव जानते हैं कि जिस प्रकार काले या गोरे के खून में कोई फर्क नहीं होता है, उसी प्रकार किसी भी काले या गोरे धर्मावलम्बी की जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी के जरासीमों में कोई फर्क नहीं होता है, जो उनकी खुराक हैं.
(व्यंग्य संग्रह : शोक चिह्न – लेखक - हनुमंत मनगटे, प्रकाशक – प्रारुप प्रकाशन, 64 चौक, गंगादास, इलाहाबाद-211003 से साभार)
इस जीव के सम्बध में दुर्लभ शोध पत्र को प्रकाशित करने के लिये धन्यवाद । लेख वास्तव में सर्वकालिक है ।
जवाब देंहटाएंकाफ़ी पुराना लेख लगता है। सत्तर के दशक का? पर प्रासङ्गिक है।
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