कहानी : एक पल ठहरा हुआ

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एक पल ठहरा हुआ -महावीर 'राजी' जनसंख्या के तेज़ बहाव से प्रायोजित- प्रोत्साहित होकर कुकुरमुत्तों की तरह उग आई घनी आबादी वाली उपनगरीय ब...




एक पल ठहरा हुआ


-महावीर 'राजी'

जनसंख्या के तेज़ बहाव से प्रायोजित- प्रोत्साहित होकर कुकुरमुत्तों की तरह उग आई घनी आबादी वाली उपनगरीय बस्तियों को शहर से जोड़ने वाली असंख्य इएमयू ट्रेनों में से एक_बर्दवान लोकल. आमतौर पर इस तरह की लोकल गाड़ियों की सवारियों को दूर से ही पहचाना जा सकता है. रोज़ अप-डाउन करके शहर के लेबर चौराहों को गुलज़ार करने वाले ग्रामीण मज़दूर...सरकारी व निजी संस्थानों में लगे चतुर्थ श्रेणी के बाबू एवं किरानी... छोटी-छोटी गुमटी वाले व्यवसायी, घूम-घूम करके बेचने वाले हॉकर्स एवं छात्र-छात्राओं का हुजूम! दोपहर का वक्त था. ट्रेन में भीड़ बिल्कुल भी नहीं थी. यात्रियों की भनभनाहट, इंजिनों की फुफकारों एवं वेंडरों की चीख़-पुकार का लयबध्द संगीत पूरे वातावरण में तेज़ रसायन की तरह फैला हुआ था.

ट्रेन के एक डिब्बे के अंदरूनी हिस्से में खिड़की से लंब बनाती आमने-सामने वाली बर्थों पर बैठे थे वे लोग. सबसे पहले नेताजी की नज़रें उस ओर उठीं और उठीं ही थी कि सनाका खा गईं.

एक लड़की सीट तलाशती उसी ओर बढ़ी आ रही थी. कसा-कसा बदन, धूसर गेहुआं रंग, तनिक चपटी नाक, स्थूल अधर और हाथ में पतली सी फाईल! उसकी चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी, पर शहरी लड़कियों सा बिंदासपन नहीं था. एक क़िस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से और यही बात उसके आकर्षण को बढ़ा रही थी.

नेताजी हुलस कर तुरत एक्शन में आ गए और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिना दिए, 'अरे यहां आओ न बेटी, खिड़की के पास हवा मिलेगी.' लड़की एक क्षण को ठिठकी, फिर नेताजी के बगल वाली सीट पर बैठ गई. सामने की बर्थ पर बैठे प्रोफ़ेसर के मन में अनजाने ही ईर्षा का स्फुलिंग सुलग उठा. थोड़ी देर तक वे चोर नज़रों से लड़की के मासूम सौन्दर्य को निहारते रहे. फिर वे भी लड़की से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत बैठाने लगे.

'कॉलेज से आ रही हैं आप?'
'जी हां, नया एडमिशन लिया है
बीए.' लड़की हौले से मुस्कराई तो प्रोफ़ेसर के संग-संग नेताजी भी निहाल ही हो गए. उफ, मुंह में दांत हैं या मोतियों के दाने!

'मुझे पहचान रही हैं? मैं प्रोफ़ेसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तिकरण व नारी स्वतंत्रता पर मेरे आलेख ने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी है. आपने देखा है आलेख?'
'न...', लड़की के इनकार में सिर हलाते ही प्रोफ़ेसर को कसक का एहसास हुआ. शिक्षा जगत की इतनी महत्त्वपूर्ण घटना से यह लड़की वाकिफ़ नहीं!

'आराम से बैठिए. कोई तकलीफ़ नहीं न हो रहा है?' नेताजी ने देखा कि लड़की प्रोफ़ेसर की ओर ही उन्मुख बनी हुई है तो उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए बोल पड़े फिर जेब से कार्ड निकालकर लड़की को देते हुए उसकी उंगलियों को थाम लिया, 'हमारा कर्डवा रख लीजिए. इस एरिया के भावी विधायक हैं हम. बर्दमान से लेकर ससुर धनबाद तक का हर थाना में हमारा रुतबा चलता है. कभी कोई कठिनाई आए तो याद कर लीजिएगा.'
लड़की के चेहरे पर एक क्षण को असमंजस के भाव कौंधे और उसने झट से उंगलियां नीचे कर लीं. प्रोफ़ेसर के नज़रों से नेताजी की चालाकी छुपी न रह सकी. उन्होंने आनन-फानन अटैची खोली और आलेख की जेरोक्स प्रति लड़की को थमाते हुए उसकी हथेली को अपनी हथेलियों में दबा लिया, 'इस आलेख में आप जैसी युवतियों की समस्याओं का ही तो जिक्र किया है मैंने. नारी स्वावलम्बी बने, घर की चहारदीवारी से मुक्त होकर खुले में सांस ले, समाज के रचनात्मक कार्यों से जुड़े... जोखिम तो पग-पग पर आएंगी. जोख़िम से इनकी रक्षा समाज करेगा, समाज यानी हम सब. यानी मैं, नेताजी, ये भाई साहब, ये और ये...'

प्रोफ़ेसर अपनी रौ में पास बैठे यात्रियों की ओर बारी-बारी से संकेत कर ही रहे थे कि नज़रें घोर आश्चर्य से तर-बतर होकर पास बैठी शकीला पर जा टिकीं. सांवला रंग, आंखों में काजल की गहरी रेखा, लगातार पान चबाते रहने से कत्थई हुए होंठ, चेहरे पर पाउडर की अलसायी परत और कंधे से झूलता पुराना झोला
'हिजड़े न तीन में होते हैं, न तेरह में.' पास बैठे पंडितजी ने टिप्पणी की तो ज़ोर का ठहाका फूट पड़ा.
'ऐ जी,' शकीला विचलित हुए बिना चिरपरिचित अदा से ताली ठोंकते हुए हँसी, 'अब हम हिजड़ा नहीं, किन्नर कहे जाते हैं, हां.'

'किन्नर कहने से जात बदल जाएगी?' नेताजी हथेली पर खैनी मसल रहे थे.
'जात न सही, रुतबा तो बदला है.' शकीला का चेहरा एक ठसक से चमक उठा.
'असल में जब से तू लोग की मौसी सब विधायक बनी है, दिमाग़ सांतवें आसमान पर चढ़कर नाचने लगा है. क्यों प्रोफ़ेसर साहब?' नेताजी व्यंग्य तो कस गए, पर मन के भीतर तीव्र कचोट भी फुफकारने लगी. उन्हें राजनीति के अखाड़े में कूदे पच्चीस साल हो गए. क्या-क्या सपने देखे थे! सांसद का 'गुलीवर' कद...लाल बत्ती वाली कार...एसपीजी का अभेद्य दुर्ग...' पर हाय, तीन-तीन बार प्रयास के बावजूद स्थानीय नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीत पाए थे. ये नचनिया सब विधायक बनने लगे, हंह! 'बिल्कुल ठीक कह रहे हैं.' प्रोफ़ेसर के लहजे में क्षोभ घुला हुआ था, 'क्या होता जा रहा है इस देश की जनता को? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का क्या गौरवपूर्ण समरसत्ताा का इतिहास रहा है हमारा! पहले राणा प्रताप, शिवाजी, भामाशाह, कौटिल्य आदि, उसके बाद गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, शास्त्री वगैरह. देश पूरी तरह सुरक्षित था इनके हाथों में. पर जनता की सनक तो देखिए! अब हिजड़ों के हाथों में शासन की लगाम देने लगी है.'

शकीला के वक्ष से छींटदार नायलोन की पारदर्शी साड़ी का आंचल ढरक गया.
एक क्षण के लिए सभी को जैसे सांप सूंघ गया हो. इस देश की रामायण भी तो अलग-अलग भाषा में अलग-अलग क़िस्म की है भाई!

'अब छोड़िए न ये सब फिजूल की बात...' शकीला खी-खी करके हँसी, 'एगो फड़कता हुआ ठुमरी का तोड़ा सुना रही एकदम फ्री में, सुनिए, मोरे पिया गए रंगून, उहां से किया है टेलिफून...'
शकीला ने घरघराती मर्दाना आवाज़ में अभी 'टेलिफ़ोन' पर आलाप लेना चाहा ही था कि ट्रेन की सीटी की कर्कश आवाज़ फिजां में गूंज गई, ट्रेन के चक्कों ने गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिया और ठीक उसी समय एक झपाके से तीन युवक भी डिब्बे में चढ़ आए. कसी-कसी जीन्स... अजीबोगरीब स्लोगन अंकित टी-शर्ट...हाथों में एकाध कॉपी- किताब! एक-दूसरे को धकियाते, हल्ला मचाते तीनों उसी हिस्से में आ गए जहां वे लोग बैठे हुए थे. लड़की पर नज़र जाते ही उनके आगे बढ़ते पांव थमक गए और बाछें खिल गईं.
'अतुल, क्यों न यहीं बैठा जाए?' पिंटु चहक उठा, फिर लड़की से मुखातिब होकर पूछ बैठा, 'आप स्टुडेंट हैं न? किस कॉलेज में हैं?'

सवाल इतने आकस्मिक रूप से आया था कि लड़की को सोचने का तनिक भी मौक़ा नहीं मिला और वह हड़बड़ाकर बोल बैठी, 'जी हां, बीसी कॉलेज के फस्ट इयर की स्टुडेंट हूं.'
'पर बैठे कहां यार...?' यादव ने उड़ती नज़रों से बैठे हुए लोगों का सिंहावलोकन किया, 'इ बुढ़वन सब देश का कबाड़ा करके छोड़ेंगे. हर महत्त्वपूर्ण जगह पर, चाहे सत्ता हो या साहित्य, इ लोग काबिज होकर बैठ गए हैं और हिलने का नाम ही नहीं ले रहे, ऐं?'

'भाई साहब...,' अतुल ने प्रोफ़ेसर को संबोधित किया. अतुल के बदन पर कपड़े अपेक्षाकृत नए स्टाइल के थे. चेहरा संपन्नता एवं अमीरी के रोब से दपदपा रहा था. नीचले होंठ के नीचे बिंदु के शक्ल में दाढ़ी बनी हुई थी. देखने से ही वह इन लोगों का नायक लगता था. उसका संबोधन-शब्द सुनकर प्रोफ़ेसर भड़क ही तो उठे, 'भाई साहब? आप छात्र हैं न? मुझे नहीं पहचान रहे? मैं प्रोफ़ेसर शुभंकर सान्याल! नारी सशक्तिकरण पर उसी पर्चे का लेखक जिसकी चर्चा आज हर बुध्दिजीवी और हर छात्र की जुबान पर है.'
'प्रोफ़ेसर हैं तो चलिए एगो पहेली बूझिए तो...' पिंटु बोली बदल-बदल कर बोलने में माहिर था. खालिस बिहारी लहजे में प्रोफ़ेसर की ओर मुंह करके हुंकारा भरा, 'एगो है जो रोटी बेलता है, दूसरा एगो है जो रोटी खाता है, एगो तीसरा अऊर है जो न बेलता है, न खाता है, बल्कि रोटी से कबड्डी खेलता है. इ तीसरका को कोय नहीं जानता. संसद भी नहीं. आप जानते हैं?'

प्रोफेसर चुप! अन्य यात्रीगण भी चुप! लड़की मन ही मन खुश हुई. अगर यह प्रश्न क्लासरूम में किया गया होता तो वह हाथ अवश्य उठा देती. यादव दोनों ओर की बर्थ के भीतर तक चला आया और खिड़की की तरफ़ इशारा करके प्रोफ़ेसर से बोला, 'यहां बैठने दीजिए तो.' प्रोफ़ेसर इन लोगों के व्यंग्य से खिन्न तो थे ही, चीख़ते हुए फट पड़े, 'कपार पर बैठोगे? जगह दिख रही है कहीं? और ये बोली कैसी है? पढ़-लिखकर भी शिष्टाचार नहीं आया?' पर यादव ने लेक्चर ख़त्म होने का इंतज़ार नहीं किया. वह प्रोफ़ेसर को ठेल-ठालकर ऐन लड़की के सामने बैठ ही गया.
पिंटु बोली में 'खंडाला' स्टाइल का बघार डालते हुए नेताजी की ओर मुड़ा, 'ऐ क्या बोलता तू? थोड़ा इधर सरकने का. बड़े भाई यहां बैठने को मांगता.'

पिंटु की आवाज़ में कड़क ही ऐसी थी कि नेताजी अंदर ही अंदर सकपका गए. न...इस तरह भय खाने से काम नहीं चलेगा. यही तो मौक़ा है इन पर रौब गांठ कर लड़की की नज़र में हीरो साबित होने का.
'तुम लोग स्टुडेंट हो या मवाली? जानते हो हम कौन हैं? इस एरिया के भावी विधायक! विधायक से इसी तरह बतियाया जाता है ससुर?'
'विधायक हो या एमपी, स्टुडेंट फस्ट...' अतुल ने आगे बढ़कर नेताजी के बगल में हाथ डाला और उन्हें खींचकर खड़ा ही तो कर दिया. फिर खाली जगह पर धम्म से बैठ गया. नेताजी अरे-अरे करते ही रह गए. प्रगट में सभी लोग सामान्य दिख रहे थे, पर अंदर ही अंदर हर कोई आतंकित हो उठा था. ये लड़के !
'आपका नाम जान सकते हैं? कहां रहती हैं आप?' कुछ देर बाद लड़की के चेहरे पर नज़रें गड़ाते हुए अतुल ने पूछा तो उसका लहजा शालीनता की चाशनी से सराबोर था.

'जी शीला मुर्मू...काशीपुर डंगाल में रहती हूं.'
'क्या...?' तीनों ही लड़के चौंक पड़े, 'काशीपुर डंगाल तो काफ़ी दूर है...लगभग पचास-साठ किलोमीटर दूर...!'
'ठीक कह रहे हैं आप...' शीला मुस्कराई, 'लेकिन कोई उपाय भी तो नहीं था. हमारे क़स्बे में इंटर तक ही पढ़ाई है.'
'बहुत ख़ूब..मोगाम्बो खुश हुआ...!' पिंटु ने नई बोली का नमूना पेश किया, 'पढ़ाई के प्रति आपके आग्रह की सचमुच तारीफ़ करनी ही होगी.'
'ज़ाहिर है, कोई पसंदीदा सपना भी ज़रूर होगा आपका,' अतुल उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा, 'ऐसा सपना जो अक्सर रात की नींदों में हांट करता रहता हो...?'
'बेशक, है न...' शीला ने मज़ाक़ में पूछे प्रश्न का सीधा और सच्चा जवाब दे दिया, 'अगर परिस्थितियों ने साथ दिया तो डॉक्टर बनूं...'

'वन्डरफुल...!' तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा. इस देखने की शैली में व्यंग्य घुला हुआ था, मानो कह रहे हों, हंह...यह मुंह और मसूर की दाल. फिर तीनों का अट्टाहास गूंज उठा.
'देखा आप लोगों ने...?' प्रोफ़ेसर लड़की की निर्दोष मादकता के सम्मोहन से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे थे, 'आदिवासियों में भी शिक्षा के प्रति जागरूकता किस क़दर बढ़ रही है? महिला सशक्तिकरण पर लिखा मेरा आलेख सार्थक हो गया.'

लड़कों को प्रोफ़ेसर का इस तरह हस्तक्षेप पसंद नहीं आया. यादव को उन्हें टोकना ही पड़ा, 'एक काम करें. अपने आलेख का जेरोक्स करवाकर पूरे शहर में और सभी कॉलेजों में बंटवा दें. साहित्य अकादमी तो आपकी जेब में आ ही गिरेगा.'

प्रोफ़ेसर ही नहीं, नेताजी एवं अन्य यात्रियों का मुंह भी लटक गया. कितने उद्दंड हैं ये लड़के.
काशीपुर डंगाल का अंदरूनी ग्रामांचल! आदिवासियों एवं पिछड़ी जातियों की इस बस्ती में उंगलियों पर गिने जा सके, इतने ही लोगों के पास अपनी चास थी. अन्यथा अधिकांश लोग मज़दूर थे. पार्श्ववर्ती इलाक़े में ईंट-भट्टों एवं हार्ड कोक चिमनियों का संजाल फैला हुआ था. कुछ और आगे बढ़ जाएं तो इसीएल एवं बीसीसीएल की खदानें बिखरी मिलेंगी. इन्हीं संस्थानों में मजूरी से लगे हुए थे अधिकांश लोग. जो शेष बचे थे, भाग्यहीन, सुबह की 6.40 की लोकल से शहर चले जाते और वहां के लेबर चौराहों को गुलजार किया करते. कैसा भी काम मिल जाए...किसी भी मेहनताने पर! बढ़ईगीरी, राजमिस्त्री के हेल्पर, कुलीगीरी, ईंट-पत्थर तोड़ने का – कोई भी काम.

इसी बस्ती में रहते थे नारायण मुर्मू. दो संतानें थीं, बड़ा नकुल, छोटी शीला. नकुल पढ़ने में फिसड्डी था. आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ बैठा और मुर्गियों-बकरियों की देखभाल के साथ छिटपुट मजूरी करने लगा. नारायण कुमार
मैट्रिक की परीक्षा में शीला के पूरे क़स्बे में सर्वाधिक अंक थे. इसके बाद इंटर में भी जब शीला को अच्छे अंक मिले तो उसकी महत्वाकांक्षा को जैसे पर लग गए. लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना पड़ता जो वहां से साठ किलोमीटर दूर था. वैसे ट्रेन की मुकम्मिल सुविधा थी. पर एक अकेली लड़की जिसने क़स्बे से कभी बाहर पांव भी नहीं रखा था किस तरह ट्रेन में सफ़र कर सकेगी? फिर आदिवासी लड़की का कॉलेज के संभ्रांत छात्रों के संग तालमेल भी किस तरह बैठेगा? इन सब असुविधाओं के मद्देनज़र नारायण ने शीला को आगे पढ़ने से मना कर दिया. 'कुछ नहीं होगा बाबा. ट्रेन में मैं अकेली तो नहीं होऊंगी. ?' शीला ने मचलते हुए तर्क दिया.

इंटर कॉलेज के प्रोफ़ेसर भी आदिवासी थे. उन्होंने भी शीला का पक्ष लिया, 'ठीक कह रही है शीला. घर से बाहर क़दम रखेगी तभी तो झिझक और संकोच कटेगा. जीवन के संघर्षों एवं कठिनाइयों से रू-ब-रू हो सकेगी. उसके भीतर आत्मविश्वास एवं अनुभव पकेंगे...नहीं? वैसे भी यह साल महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है. लड़कियों को घर से बाहर निकल कर आत्मनिर्भर बनने को प्रोत्साहित करना ज़रूरी है.'
'पर...अकेली लड़की ट्रेन में...' नारायण ने शंका ज़ाहिर की.

'ऊफ, क्यों नहीं समझ रहे कि अब लड़कियां कमजोर नही रहीं. यदि कोई विपत्ति आई भी तो, विश्वास करें, तात्कालिक निदान वे स्वयमेव ही निकाल लेंगी.'
फिर भी कई दिनों तक घर में द्वंद्व की स्थिति बनी रही. शीला ने भूख हड़ताल कर दिया तो नारायण को हथियार डालने पड़े, 'ठीक है, तेरी बात मान लेता हूं. पर एक शर्त रहेगी. नकुल तुम्हारे संग ट्रेन में कॉलेज तक जाएगा और छुट्टी होने के बाद साथ ही लौटेगा, ठीक?''

क्या खाक ठीक? नकुल जिसकी मसें अभी-अभी भिंगनी शुरू हुई हैं, उसके बाडीगार्ड के रोल में रहेगा? क्यों भला? ज़ाहिर है, इसलिए कि वह पुरुष है. पुरुष यानी मर्दानगी का प्रतीक, भले ही वह प्रतीक अल्पवयस्क ही क्यों न हो? इस पुरुष सत्तात्मक सिस्टम में एक नारी को हर वक्त पुरुष के संरक्षण में रहना ज़रूरी है? नारी की अपनी अस्मिता का कोई मूल्य नहीं? शीला के स्वाभिमान को यह क़तई स्वीकार नहीं हुआ और वह हत्थे से ही उखड़ गई, 'ये क्या बाबा? नकुल भैया बाडीगार्ड के रूप में? न, न. मैं नहीं मान सकती. लड़कियों को भी भगवान ने दो हाथ दिए हैं. बुध्दि दी है. संकट आने पर उनकी तथाकथित कोमलता खुद ही लुप्त हो जाती है और उन्हें चंडी बनते एक पल भी नहीं लगता.'

नारायण निरुत्तार हो गए और शीला के लिए चिरआकांक्षित सपने को पूरा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया.
तीनों ने देखा, शीला स्मृतियों के धुंध में खोई हुई है. तीनों की नज़रें परस्पर गुंथ गईं. आंखों ही आंखों में मौन संकेत हुए और फिर आनन-फानन एक मादक योजना की रूपरेखा जेहन में आकृति लेने लगी.
'कहां खो गईं आप?' यादव ने चहककर शीला की आंखों के आगे हथेली नचाई तो वह यादों की केंचुल को काटकर यथार्थ के धरातल पर उतर आई.

'आज पहला दिन था, रैगिंग तो हुई होगी?' पिंटु ने प्रश्न किया तो 'रैगिंग' शब्द सुनते ही शीला का चेहरा भीतर ही भीतर पीला पड़ने लगा. जेहन के स्याह स्क्रीन पर आज हुई कॉलेज में रैगिंग का एक-एक कोलाज मेढ़क की तरह फुदकने लगा. कॉलेज में प्रवेश किया ही था कि न जाने किस ओर से चार लड़के जिन्न की तरह सामने प्रकट हो गए और उसे तीसरे माले के अंतिम रूम में ले आए. फिर शुरू हुआ था उल-जलूल यक्ष प्रश्नों का लंबा सिलसिला! अधिकांश प्रश्न द्विअर्थी भावों से संश्लिष्ट, जिनमें से अश्लीलता की बू टपक रही थी. शीला पूरी चौकन्नी एवं संयत होकर जवाब दिए गई थी. अभी उसे तीन साल यहां गुज़ारना है. छोटी-छोटी बातों पर इनसे बैर मोल लेना ठीक नहीं होगा. इन लोगों के मन में आदिवासियों को लेकर अजीब दुराग्रह भरा हुआ है. इस दुराग्रह के कचरे को वह तभी साफ़ कर पाएगी जब इन लोगों से मित्रवत् संबंध गढ़ने में कामयाब हो जाएगी. हुआ भी वही. चारों लड़के उसकी वाकपटुता एवं शैली से इतने प्रभावित हुए कि रैगिंग के प्रकरण को समाप्त करते हुए अच्छे मित्र बन गए.
'न भी बताएंगी तो भी अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि बेहद घटिया हरकत की गई होगी आपके साथ रैगिंग के नाम पर.' शीला को चुप देखकर अतुल फुफकार उठा, 'बीसी कॉलेज के स्टुडेंट्स को हम अच्छी तरह जानते हैं. द वर्स्ट स्टुपिड स्टुडेंट्स ऑफ द टाऊन...'

शीला फिर भी मौन रही. क्या कहती भला?
'एकदम ठीक बोल रहा दादा...' पिंटु इस बार लहजे में बंगाली टोन का छौंक डालते हुए हिनहिनाया, 'माइरी, अइसा अभद्र व्यवहार से ही हमारा स्टुडेंट कम्यूनिटी बदनाम हो रहा...'
'इस बदनामी को साफ़ करने का एक उपाय है, फ्रेंड्स,' इसी बीच मादक योजना की रूपरेखा एक मुकम्मिल आकृति ले चुकी थी, 'क्यों न हम साथी को नए एडमिशन का कम्प्लीमेंट देने के लिए छोटी सी पार्टी कर दें?'
'वाव...क्या लाजवाब आइडिया है!' यादव चहककर समर्थन में हाथ उठा बैठा, 'कम्प्लीमेंट का कम्प्लीमेंट, और बदनामी का परिमार्जन भी! पर बड़े भाई, पार्टी होगी कहां...और कब?'

'पार्टी आज ही होगी और अभी...' योजना मादक ही इतनी बनी थी कि भीतर का उतावलापन लहजे के संग बहकर बाहर आना चाह रहा था, 'अगले स्टेशन पर हम साथी को लेकर उतर जाएंगे. स्टेशन के पास ही बढ़िया होटल है, होटल सेनाय. वहीं पार्टी कर देंगे, ओ.के.?' अंतिम वाक्य अतुल ने शीला की ओर मुंह करके कहा.
शीला अतुल के अजूबे और अप्रासंगिक प्रस्ताव पर मन ही मन चकित हो गई. इन लड़कों से उसका दूर-दूर का कोई परिचय नहीं. ये किसी और ही कॉलेज के छात्र हैं. उसके जैसी अनजान छात्रा के प्रति इतना मोह! जेहन में मुक्तिबोध की पंक्ति कुलबुला उठी, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर? पर प्रगट में प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए सिर हिला दिया, 'नो...नो...थैंक्स. पार्टी की क्या ज़रूरत है भला? और बता दूं कि जैसा आप सोच रहे हैं, कॉलेज के सीनियर्स ने मेरे साथ वैसा कुछ भी अभद्र नहीं किया है.'

'ठीक है, मान लेते हैं कि वहां के छात्र बहुत अच्छे, बहुत शरीफ हैं. यह पार्टी तो कम्प्लीमेंटरी तोहफा होगी. परिचय और पहचान इसी तरह तो बनते हैं. आफ्टर ऑल, स्टुडेंट्स किसी भी कॉलेज के हों, हैं तो एक ही बिरादरी के.'
'मैं इनकार नहीं कर रही,' शीला प्रस्ताव को दृढ़ता से नकारती रही, 'मुझे क्षमा करें, घर जल्दी लौटना है. मां-बाप चिंता करेंगे.' अभी तो बारह बजे हैं लोकल पकड़वा देंगे, ठीक? अब आप कॉलेज स्टुडेंट हैं. छोटी-छोटी बातों के लिए मां-बाबा का पल्लू थामकर परमीशन लेना पड़ेगा?'

'जो हो, सॉरी. मैं पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती.' यह तो वही मसल हुई कि मान न मान, तू मेरी मेहमान. उसने चेहरा खिड़की की ओर फेर लिया और उन लोगों से असम्पृक्त होकर बाहर के तेजी से छूटते जा रहे दृश्यों पर नज़रें टिका दीं.
'इधर देखिए साथी...' यादव की तर्जनी शीला की ठोढ़ी तक जा पहुंची, 'बड़े भाई ने जो कह दिया, सो फाइनल. पार्टी होगी और हम अगले स्टेशन पर उतर रहे हैं, डन?'

उसके लहजे में छुपी धमकी की तासीर से शीला भीतर तक सिहर गई. अंदर गहरे में भय का नाग फुंफकारने लगा. पर चेहरे पर दृढ़ता का पुट बनाए रखकर वह तमतमा ही तो उठी, 'ज़बरदस्ती है?'
'सीनीयर्स की इज्ज़त का जो सवाल है', अतुल बेवजह हँस पड़ा, 'प्यार की भाषा न समझी तो ज़बरदस्ती ही सही.'
अतुल के निर्णायक एलान पर पिंटु और यादव हो-हो करते बंदरों की मानिंद पूरे बदन को हिलाते हुए हँस पड़े. इस हँसी में अतुल की खिलखिलाहट भी शामिल हो गई. तीनों के सम्मिलित अट्टाहास से एक कामुक क़िस्म की लिजलिजी लार टपकने लगी थी, टप...टप...! शीला ने डिब्बे में बैठे यात्रिायों का सिंहावलोकन किया. नेताजी समेत सभी लोग अभी तक इनकी नोक-झोंक का लुत्फ उठा रहे थे. किसी ने सोचा भी न था कि मामले का ऊंट इस तरह करवट ले बैठेगा.

'अरे भैया, लड़की का मन नहीं है तो ज़बरदस्ती क्यों कर रहे हो?' नेताजी ने बीच-बचाव करने की पहल की तो पिंटु तुनककर खड़ा हो गया, 'ओ बाश्शाहो...की गल है? तुहाड़े हृदय बीच इस कुड़ी नाल एन्नी हमदर्दी क्यूं फड़फड़ा रही हैंगी?'
नेताजी की ओर कड़ी दृष्टि से देखता हुआ अतुल शीला से मुखातिब होकर बोला, 'आइए साथी, गेट के पास चलते हैं.'
'नहीं...नहीं, मैं नहीं जा सकूंगी.' शीला की आंखों में सचमुच ही भय उतर आया. ये लोग तो वाकई प्रस्ताव को क्रियान्वित करने पर उतारू हो गए.

'अब नखरे मत दिखाइए, फ्रेंड,' यादव और अतुल भी खड़े हो गए. यादव ने शीला की कलाई थाम ली तो शीला ने झटके से छुड़ाते हुए विनम्र भाव से कहा, 'प्लीज, क्षमा करें मुझे.' शीला ने घबड़ाकर सहायता के लिए यात्रियों की ओर देखना चाहा तो सबसे पहले नज़रें प्रोफ़ेसर पर चली गईं, 'देखिए न सर, किस तरह छेड़ रहे हैं ये लोग.'
'आप लोग स्टुडेंट्स हैं या टेररिस्ट? इस तरह ज़बरदस्ती नहीं कर सकते.' प्रतिरोध करने की उत्तोजना में प्रोफ़ेसर भी सीट से खड़े हो गए.
'आइ से...शटअप...' यादव चीख़ता हुआ प्रोफ़ेसर को इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि वे लड़खड़ाते हुए धप्प से सीट पर लुढ़क गए. इस छोटी-सी हाथापाई से वातावरण तनावपूर्ण हो उठा.

तभी जीआरपी के दो जवान गश्त लगाते हुए डिब्बे के उस हिस्से से गुजरे. बंदुक़धारी पुलिस...शीला को जैसे नई जान मिल गई हो, वह चीख़ ही तो पड़ी, 'जीआरपी अंकल...!'
'अयं, इ तो जनाना आवाज़ है नत्थूराम...' शिवानंद को लगा जैसे कान के पास कोई महीन स्वर में किंकियाया हो, आगे बढ़ते क़दम ठिठक गए. पीछे मुड़कर झांका तो दृष्टि सबसे पहले अतुल से टकराई और वे खिल उठे, 'अरे अतुल बाबू, आप? नत्थूराम, इ अतुल बाबू हैं, आईजी (रेल) दास साहब के सुपुत्र !'
'आप इस ट्रेन में...?' अतुल शिवानंद से हाथ मिलाते हुए मुस्कराया.

'जनता को भी सरकार और पुलिस को बदनाम करने में मज़ा मिलता है, एकरा माय के. कमप्लेन किहीस है जे ट्रेन में लूट-डकैती- किडनेपिंग बढ़ रहा है. बस्स...आ गया ऊपर से ऑर्डर लोकलवा सब में गश्त लगाने का, हंह! अभी तक तो एक्को केस ऐसा नय पा सका हूं हम.'
'जनता की बात छोड़िए...' अतुल ने लापरवाही से कंधे झटके. शिवानंद ने आंखों से लड़की की ओर संकेत करते हुए फुसफुसाकर पूछा, 'इ आपके साथ हैं?'
'जी हां, क्लास फ्रेंड है हमारी.' अतुल ने उत्तार दिया तो शीला का मन हुआ, प्रतिवाद करके सही बात बता दे. पर जुबान से बोल नहीं फूटे.

'मैडम, अतुल बाबू बहुत सज्जन नौजवान हैं. इनकी दोस्ती फायदेमंद ही रहेगी.
अच्छा अतुल बाबू, सर को हमारा परनाम कहिएगा.'
शीला की आंखों के आगे सारी स्थिति आईने की तरह साफ़ हो गई. अतुल आईजी (रेल) का लड़का है. पावर और पैसा दोनों ही हों जेब में तो यादव और पिंटु जैसे वफादार चमचे वैसे ही दौड़े आएंगे जैसे गुड़ को देखकर चीटियां. जीआरपी के जाते ही तीनों एक बार फिर जोरों से हँस पड़े. पिंटु ने आगे बढ़कर श्ीाला की कलाई थाम ली और खींचकर उसे उठाने का प्रयास करने लगा. शीला की इच्छा हुई, हवा में लहराते हुए एक झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर जड़ दे. बड़ी मुश्किल से ही उसने क्रोध को जज्ब किया. इस तरह रिएक्ट करने से बहुत संभव है बात ज्यादा बिगड़ जाए और ये लोग हिंसक हो जाए. उसने दूसरे हाथ से खिड़की के रॉड को कस कर पकड़ लिया. 'क्यों टेंशन ले रही हैं आप?' यादव ने मर्दाना ताक़त लगाकर शीला का हाथ रॉड से छुड़ा लिया और दोनों खिड़कियों के पल्ले गिरा दिए. शीला ने कातर नज़रों से यात्रियों की ओर ताका. तभी न जाने किस जेब से निकलकर अतुल की हथेली में छोटा-सा रिवाल्वर चमक उठा. रिवाल्वर को यात्रियों की ओर तानते हुए वह गुर्राया, 'किसी ने भी चूं-चपड़ करने की चेष्टा की तो...! मनीष मिश्रा केस के बारे में सुना ही होगा आप लोगों ने?'

मनीष मिश्रा...? वही मनीष मिश्रा जिसके तार पीएमओ ऑफिस से ही नहीं, बल्कि स्वयं प्राइम मिनिस्टर से जुड़े हुए थे, उसे इन जैसे बदमाशों ने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. अपराध क्या था? सफ़र कर रही एक लड़की से छेड़खानी करने का मुखर विरोध! सारे यात्रियों ने अकबका कर दूसरी ओर खिड़की से बाहर झांका. तेजी से पीछे छूटते जा रहे दृश्यबंदों को देखने से ट्रेन की रफ्तार का अंदाज़ सहज ही लगाया जा सकता था. सभी के रोंगटे खूंटे से खड़े हो गए. धड़कनें शताब्दी एक्सप्रेस की गति से बढ़ गई. बदन एक अजीब-सी झुरझुरी से कंपकंपा उठे. थोड़ी देर पहले तक जिस लड़की का सान्निध्य एक मादक सम्मोहन की तरह तारी रहा था जेहन में, वह अब आफत की परकाला लगने लगी थी.

सबसे पहले नेताजी उठे और डिब्बे के दूसरे हिस्से की ओर बढ़ते हुए हिनहिनाए, 'क्या है कि थाना-पुलिस में तो एतना पहचान है कि का कहें ससुर! पर मजबूर हैं. इ आप लोग का आपसी मामला ठहरा. पुलिस भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती...'
नेताजी के जाते ही प्रोफ़ेसर साहब को पता नहीं, दीर्घ या लघु कौन सी शंका की तलब हुई कि वे भी अटैची संभालते हुए खड़े हो गए, 'आप खुद समझदार हैं, जब इतने प्यार से पार्टी दे रहे हैं ये लोग, तो स्वीकार कर लेना उचित नहीं होगा क्या? और एक बात...घर लौटकर आलेख पढ़िएगा ज़रूर. तभी पता चलेगा, नारी उत्थान व नारी सशक्तिकरण के लिए कितनी मेहनत की है मैंने.'

शनै:-शनै: शकीला के अलावा अन्य यात्रीगण भी डिब्बे के दूसरे हिस्सों में चले गए. शीला ने विस्फारित दृष्टि से लक्ष्य किया, इसी दरम्यान न जाने कब और किस जादुई चमत्कार से नेताजी व प्रोफ़ेसर समेत सभी जाने वाले यात्रियों को पूंछें उग आईं थीं और हर कोई अपनी पूंछ को 'पाछा' की खोह में सलीके से दबाए हुए था. दोपहर का वक्त होने की वजह से दूसरे हिस्सों में भी यात्री नगण्य ही थे. डिब्बे के इस हिस्से में क्या कुछ घट रहा है, इसकी भनक उन्हें बखूबी लग चुकी थी. पर हर कोई निर्लिप्त एवं तटस्थ सा शांत बैठा रहा. गुंडे-मवालियों के पचड़े में कौन पड़े भला? हाथ में तमंचा भी है. अभी तो सिर्फ़ लड़की के पीछे ही पड़े हुए हैं. अगर कहीं मूड बदल गया और लूट-पाट पर उतारू हो गए तो...?

हिजड़ा होते हुए भी शकीला को अब तक के घटनाक्रम से यह तो समझ में आ ही गया था कि लड़की अकेली है और मुसीबत में पड़ गई है. लड़कों की नीयत में खोट आ गया है और ये लोग उसे ज़बरदस्ती अगुआ करने पर उतारू हैं. कैसी तो सहमी हुई कबूतरी सी दिख रही हैं...हलाल होने के लिए जा रहे बकरे की तरह! उसे पच्चीस साल पहले का वह दिन याद आ गया जब इस लड़की की तरह मासूम कली थी वह और हिजड़ों की जमात में दीक्षित करने के लिए उसे ज़बरदस्ती लिए जा रहा था. नुचे पंखों की तरह छितराई, सन्नाटे के खोल में लिपटी इसी तरह की बेआवाज़ चीख़ें उसके कंठ से भी निकली थीं तब. लेकिन इस हालत में वह करे भी तो क्या?
'अरे...तेरे यार सब तो भाग लिए,' पिंटु चुटकी बजाते हुए व्यंग्य से बोला, 'इब तैं किस मां रांड का स्यापा करन लाग रया स?'

'हाय दैया...', लड़की को अकेली छोड़कर चले जाना शकीला के दिल को गंवारा नहीं हुआ. उसकी छोटी-सी बुध्दि ने तय किया, और कुछ भी नहीं तो कम से कम बातचीत में उलझा कर इन लोगों को गेट की ओर बढ़ने से तो रोका ही जा सकता है, 'इसको छोड़ दे ना...!'
'तेरे को किसने कहा बीच में बोलने को?' यादव फनफना उठा.
'अरे बरमाजी ने ही मेरे को बीच का बना दिया, मैं क्या करती? पार्टी मेरे को दे ना, मैं चलती.'
'अपना थोबड़ा देख्या भी स शीशा में कभी...?'
'तेरे को थोबड़े से क्या करना? तेरे को काम से मतलब न. इस चिड़िया को छोड़ दे, नहीं तो ठीक नहीं होगा, हां.' शकीला ताली ठोंकते हुए खिलखिलाई.

'तू रोकेगी हमें? तू...हिजड़ा?' अतुल उपेक्षा से हँसा.
'किन्नरों को मामूली ना समझियो तुम. हमारे दो किन्नरों ने तो मिल कर महाभारत का क़िस्सा ही बदल दिया मुन्ना.'
'ले हलुवा...मनीष मिश्रा तो सिर्फ़ पीएम तक ही पहुंच सका था. इ साली तो एक ही छलांग में पौराणिक महाभारत में जा पहुंची!' तीनों को शकीला की बातों में मज़ा आने लगा था.
'मैं झूठ नहीं बोलती मुन्ना...सुन ना.' शकीला ने आंखें मटकाते हुए तुक गड़ा, 'एक थे शिखंडी महाराज, दूसरा थे बिरहनला (वृहन्नला)! शिखंडी के कारण भीष्म मरे, बिरहनला के कारण अर्जुन बचे. कहने का मतलब, हर बिरहनला के भीतर एक अर्जुन लुका रहता.'

ये नोंक-झोंक चल ही रही थी कि तभी उस हिस्से में बूट पालिश करने वाले एक लड़के का तीर की तरह आगमन हुआ. काला-स्याह बदन, सींकिया काया, दसेक साल की उम्र, साफ पैंट व चिकट गंजी!...बाईं कलाई में पालिश वाला बक्स झुलाए और दाएं हाथ के ठोस ब्रश से बक्से पर ठक-ठक करता, 'पालिश साब...' की गुहार लगाता झोंक में आ तो गया वहां, पर भीतर के नज़ारे पर नज़र जाते ही ठिठक गया. ट्रेन की यायावरी ने उस नन्हें लड़के को इतना चंट और चतुर तो बना ही दिया था कि पूरा माजरा भांपते उसे एक क्षण भी नहीं लगा. शीला की कातर दृष्टि में न जाने कैसी जादुई तासीर थी कि लड़के के भीतर एक अजीब सी झुरझुरी भरती चली गई.
'तू कहां से आ टपका रे? चल फूट यहां से.' अतुल ने रिवाल्वर उसकी ओर तान दिया. लड़का तनिक भी नहीं घबड़ाया. इसी बीच मन ही मन उसने खूबसूरत बहाना गढ़ भी लिया था. खी-खी करता खींसें निपोरा तो स्याह चेहरे से कंट्रास्ट करते मोतियों से दांत चिलक उठे, 'समझा साब, कोई शुटिंग चल रहेला इधर. आप एकदम आमिर खान के माफिक दिखता. अपुन डिस्टप नहीं करेगा साब. थोड़ा-सा शूटिंग देखने को मांगता.'
'बड़े भाई, तुम लगते ही हीरो जैसे हो. कोई भी देखेगा तो शूटिंग ही समझेगा.' पिंटु ने मस्का लगाया तो तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े.

शकीला के रसीले संस्मरण और इसी बीच पालिश वाले लड़के के आ जाने से तीनों का ध्यान कुछ देर के लिए शीला की ओर से हट गया था. शीला के भीतर एक भयानक बवंडर जन्म लेने लगा...! विचारों का अन्तहीन झंझावात...
कैसा हादसा होने जा रहा है यह? सुबह रैगिंग करने वाले छात्रों को उसने बड़ी चतुराई से काबू में कर लिया था. पर इन लोगों से किस तरह बचे...? इनका इरादा गंदा है, यह तो धुले आसमान की तरह साफ़ हो गया है. पार्टी के नाम पर उसे अगुवा करके किसी होटल में ले जाएंगे और फिर बारी-बारी से...! उफ, आगे की कल्पना भी कर पाना मुश्किल था. ये लोग छात्र हैं? कतई नहीं. अभी तक यही पढ़ा-सुना था कि विद्या ददाति विनयं...! विद्यार्थी कितने भी उद्दंड क्यों न हो जाएं, इस हद तक संवेदनहीन और क्रूर नहीं हो सकते!

बड़ी बहादुर बनती थी न वह? नकुल भैया के साथ को नकार कर चली थी अकेली ही ट्रेन में सफर करने! निकल गई न सारी हवा नारी-मुक्ति की? अगर ये लड़के दुर्व्यवहार करने में सचमुच ही सफल हो जाएं, तो मां-बाबा और क़स्बे के लोगों का सामना कैसे कर सकेगी?
इन लोगों के दिमाग़ में इस कुत्सित योजना की बात आई कैसे? शीला एकदम शुरुआत से पूरे एपिसोड का विश्लेषण करने लगी. परिचय और दुआ-सलाम तो अच्छे माहौल में ही हुआ था. फिर पसंदीदा सपने की बात उठी थी. अचानक उसे याद आया, जब से उसने सपने की बात बताई थी, उन लोगों के तेवर बदलने लगे थे. निश्चय ही, एक आदिवासी लड़की के मुंह से ऐसे 'संभ्रांत' सपने को सुनने की उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी और उनके एलिट सोच को अपमान बोध हुआ होगा. इस 'आग' में उसके निरीह आदिवासी होने की बात ने घी का काम किया. एक ऐसी निपट अकेली लड़की जो न केवल आदिवासी है, बल्कि शहर से बहुत दूर एक अनजान बस्ती की निवासी है. आदिवासी तो इन जैसों के लिए हमेशा ही कमजोर, दलित, निरीह और अस्पृश्य ही रहे हैं. उन्हें उन्मुक्त होकर मुख्य धारा में शामिल होते कैसे देख सकते हैं ये लोग!

जो हो, इस तरह आपा खो देने से काम नहीं चलने वाला. क्या सचमुच उसका आत्मविश्वास बिला गया है? न...नहीं...वह कायर और डरपोक नहीं है. स्कूल के दिनों में ग्राम में लड़कियों का एक कबड्डी दल हुआ करता था और वह उस दल की मुखिया थी. उसकी चपलता एवं फुर्ती की सभी प्रशंसा किया करते थे. आम, जामुन और अमरुद के पेड़ों पर जब मंजरियां आनी शुरू हो जातीं तो सहेलियों के आग्रह पर वह गुलेल से उन पर निशाना साधा करती. एक भी निशाना ग़लत नहीं जाता था. ग्राम से क़स्बे में आई तो कॉलेज के सालाना खेलों में हाई जम्प और दौड़ में हमेशा प्रथम आती रही थी. सहेलियां उसे लंबी रेस की घोड़ी कहकर चिढ़ातीं. कराटे सीखने की भी उसकी बहुत इच्छा थी, पर क़स्बे में वैसी सुविधा नहीं थी. फिर भी इतनी सारी उपलब्धियों के बावजूद आत्मविश्वास हार बैठेगी?

इस तरह की विषम परिस्थितियों में एक अकेली लड़की के लिए बचाव के क्या विकल्प हो सकते हैं भला? सहायता के लिए 'बचाओ...बचाओ...' की गुहार मचा दे...? पुकार सुनकर सचमुच की कोई कृष्ण-कन्हैया दौड़ा चला आएगा द्रौपदी को बचाने? इस हिस्से में बैठे यात्रियों की मानसिकता की मिसाल अभी-अभी देखी ही. कहां गई नेताजी की, जो बार-बार स्वयं को भावी विधायक घोषित कर रहे थे, हर थाना-पुलिस में रुतबा रखने की बात? प्रोफ़ेसर साहब तो अपने विलक्षण आलेख पर विक्षिप्तावस्था की हद तक ही आत्ममुग्ध बने हुए थे.

अच्छा...नारी को 'मस्त-मस्त' चीज की तरह निरूपित करने वाली पुरुषों की सामंती मानसिकता कब तक जारी रहेगी आज के प्रोग्रेसिव युग में? क्या वाकई नारी रसगुल्ला का टुकड़ा भर है कि देखते ही पुरुष संयम और मर्यादा खो बैठे और उच्छृंखल बनकर उसे लपकने के लिए आक्रामक हो जाए? नारी की स्वयं की स्मिता को मान्यता नहीं मिलेगी? उसे हर वक्त पुरुष के संरक्षण की मुखापेक्षी बनकर रहना होगा? इस विषम परिस्थिति में वह किस तरह रक्षा करे अपनी...किस तरह?

सतर्क नज़रों से मुआयना करती है वह स्थिति की. सिर्फ़ शकीला और पालिश वाला लड़का ही रह गए थे इस हिस्से में. ये लोग क्यों न भागे अन्य यात्रियों की तरह?
भावावेश में शकीला की ओर देखती है वह. आंखों के सामने धुंध छाने लगती है. अरे...! शकीला के भीतर से यह किसकी आकृति फूट रही है? अर्जुन की? बेशक गांडीव संभालते अर्जुन ही हैं पर बृहन्नला के भेष में, 'नारी सशक्तिकरण एवं नारी उत्थान की सारी बातें ती हो, पुरुषवादी समाज नारियों को कभी सशक्त होने देगा भी? न... सशक्त होना है तो नारियों को बिना किसी की अंगुलियां थामे स्वयं ही पहल करनी होगी. पहल...हां, पहल ही एकमात्र उपाय है. एक बार...सिर्फ़ एक बार पहल करके देखो तो, किस तरह हवा तुम्हारे पक्ष में बंधने लगती है.'
शीला अजीब से रोमांच से सिहर उठती है और नज़रें वहां से हटाकर पालिश वाले लड़के पर टिका देती है. पालिश वाले लड़के का चेहरा भी एक नई आकृति में दिखता है.
शीला असाधारण रूप से शांत हो जाती है. झंझावात थम गया है. इस तरह से हार नहीं मानेगी वह. बाबा के सामने उसने गर्व से कहा था, 'लड़कियों को भी भगवान ने दो हाथ दिए हैं, बुध्दि दी है. संकट आने पर कोमलता त्याग कर चंडी बनते देर नहीं लगेगी उन्हें.'

मन ही मन एक निर्णय लेती है और सामने देखती है लड़कों की ओर. तीनों ही युवक शकीला के किसी मादक चुटकुले पर मशखरे की नाईं हो-हो करके हँस रहे थे. फिर जैसे...वह पल ठहर गया हो. एकदम स्थिर...तली जा चुकी मछली की तरह स्पंदनहीन! उस ठहरे हुए पल के सौवें हिस्से में...शीला ने दाहिनी हथेली को एक मजबूत मुट्ठी की शक्ल में बांधा और भीतर की सारी ताक़त लगाकर उस मुट्ठी को पास खड़े यादव की कमर के उस हिस्से पर पर दे मारा जहां दोनों जांघों के संधि-स्थल पर प्राकृतिक 'कील' ठुकी हुई थी.


और उसी ठहरे हुए स्थिर और स्पंदनहीन पल के लगभग संतानबेवें हिस्से में...डिब्बे के अन्य हिस्सों से यात्रीगण भागते हुए यहां आ गए. इनमें वे लोग भी थे जो थोड़ी देर पहले तक इसी हिस्से में बैठे हुए थे. सबकी पूंछें सीधी तनकर फड़फड़ा रही थीं और वे लोग गामा पहलवान की तर्ज़ पर लात-घूसों के साथ उन युवकों पर पिल पड़े थे, 'साले, हम लोगों के रहते अकेली लड़की से बदतमीजी करने चले थे...'

**--**
रचनाकार – महावीर राज़ी सुपरिचित कथाकार हैं. प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित. कुछ कहानियां आकाशवाणी से भी प्रसारित.

चित्र –रेखा की कलाकृति.

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी7:10 pm

    पूरी कहानी पढ़ी. बहुत सहज तरीके से महिलाओं के उत्थान पर समाज के जवाबदेह लोगों की दोगली भूमिका को रेखांकित किया गया है. बिगड़े लड़के, बूट पालिश वाला लड़का और शकीला रोज दिखते हैं. कहानीकार को साधुवाद.
    राजेश अग्रवाल, बिलासपुर
    छत्तीसगढ़

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