ग़ालिब के पत्र ***-*** (मिर्ज़ा असदुल्ला बेग ‘ग़ालिब' का अन्दाज़े बयां और था. चाहे उनके लिखे पत्र ही क्यों न हों. उनके लिखे चंद ...
ग़ालिब के पत्र
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(मिर्ज़ा असदुल्ला बेग ‘ग़ालिब' का अन्दाज़े बयां और था. चाहे उनके लिखे पत्र ही क्यों न हों. उनके लिखे चंद ख़त धरोहर रूप में प्रस्तुत हैं.)
पत्र 1
(जुलाई 1854, मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम)
साहब,
दीबाचा व तक़रीज़ का लिखना ऐसा असान नहीं है के जैसा तुमको दीवान का लिख देना. क्यों रुपया खराब करते हो और क्यों छपवाते हो? और अगर यों ही जी चाहता है, तो अभी कहे जाओ, आगे चल कर देख लेना. अब ये दीवान छपवाकर और तीसरे दीवान की फ़िकर में पड़ोगे. तुम तो दो चार बरस में एक दीवान कह लोगे, मैं कहाँ तक दीबाचा लिखा करूंगा? मुद्दआ ये है इस दीवान को उस दीवान के बराबर हो लेने दो. अब कुछ क़सीदा व रूबाई कि फ़िकर किया करो. दो चार बरस में इस क़िस्म से जो कुछ फ़रहाम हो जाए, दूसरे दीवान में उसको भी दर्ज करो.
साहब, जहाँ तक्ती में अलिफ़ न समाए वहां क्यों लिखो?
-असद
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पत्र 2
(3 फ़रवरी 1858, मुंशी हरगोपाल तफ़्ता के नाम)
अज़ उम्रो दौलत बरखुरदार बाशिन्द,
बुध का दिन, तीसरी तारीख़ फरवरी की, डेढ़ पहर दिन बाकी रहे, डाक का हरकारा आया और ख़त मय रजिस्ट्री लाया. खत खोल, सौ रुपए की हुण्डवी, बिल जो कुछ कहिए वो मिला. एक आदमी रसीदे मुहरी लेकर ‘नील के कटरे' चला गया. सौ रुपए चेहर-ए शाही ले आया. आने जाने की देर हुई और बस. चौबीस रुपए दारोगा की मारफ़त उठे थे, वो दिए गए, पचास रुपए महल में भेज दिए गए. 26 रुपए बाकी रहे, वो बक्स में रख लिए. रुपए के रखने के वास्ते बक्स खोला था सो ये रुक़्का भी लिख लिया. कल्यान सौदा लेने बाज़ार गया हुआ है. अगर जल्द आ गया तो आज, वरना कल ये ख़त डाक में भेज दूंगा. खुदा तुमको जीता रखे और अजर दे. भाई, बुरी आ बनी है. अंजाम अच्छा नजर नहीं आता. क़िस्सा मुख़्तसर ये के क़िस्सा तमाम हुआ.
चार शंबा, 3 फ़रवरी सन् 1858 ई. वक़्त दोपहर
-ग़ालिब
अज़ उम्रो दौलत=दूधों नहाओ पूतों फलो, अजर=पुण्य
पत्र 3
(22 अगस्त 1863 ई., सैयद गुलाम हुसनेन ‘क़द्र' विलगिरामी के नाम)
साहब,
मैं बरस दिन से बीमार था. एक फोड़ा अच्छा हुआ दूसरा पैदा हुआ. अब फ़िलहाल दोनों पावों-हातों में नौ फोड़े हैं. दोनों पावों पर दो फोड़े, पिंडली की हड्डी पर ऐसे हैं के जिनका उमुक़ हड्डी तक है. उन्होंने मुझको बिठा दिया. उठ नहीं सकता, हाजती धरी रहती है, पलंग पर से खिसल पड़ा, फिर पड़ रहा. रोटी भी इसी तरह खाता हूँ. पाख़ाने क्या कहूँ, क्योंकर जाता हूँ. सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक पड़ा रहता हूँ. ये सुतूर लेटे लेटे लिखे हैं. नीम मुर्दा हूँ, क़रीब बमर्ग हूँ, इफ़ादा व इस्तफ़ादा व इस्लाह के हवास नहीं. ग़ज़ल रहने दी. ये हाल तुमको लिख भेजा.
शंबा, 22 अगस्त सन् 1863 ई.
नजात का तालिब - ग़ालिब
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उमुक़=गहराई
पत्र 4
(1861ई, मीर मेहँदी हुसेन ‘मजरूह' के नाम)
जाने ग़ालिब,
तुम्हारा ख़त पहुँचा. ग़ज़ल इस्लाह के बाद पहुँचती है-
‘हरेक से पूछता हूं- वो कहां है ?'
मिसरा बदल देने से ये शेर किस रुतबे का हो गया !
ऐ मीर मेहँदी तुझे शर्म नहीं आती-
‘मियाँ, ये अहले देहली की ज़बां है.'
अरे !अब अहले देहली या हिन्दू हैं या अहले हुर्फ़ा हैं या ख़ाकी हैं या पंजाबी हैं या गोरे हैं. इनमें से तू किसकी ज़बान की तारीफ़ करता है. लखनऊ की आबादी में कुछ फ़र्क़ नहीं आया. रियासत तो जाती रही बाक़ी हर फ़न के कामिल लोग मौजूद हैं.
खस की टट्टी, पुरवा हवा, अब कहाँ ? लुत्फ़, वो तो उसी मकान में था. अब मीर खैराती की हवेली में वो जहत और सिम्त बदली हुई है. बहरहाल मी गुज़रद. मुसीबते अजीम ये है के क़ारी का कुआँ बन्द हो गया. लालडिग्गी के कुएँ यकक़लम खारी हो गए. ख़ैर, खारी ही पानी पीते. गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुओं का हाल दरयाफ़्त करने गया था. मस्जिदे जामा होता हुआ राजघाट दरवाजे को चला. मस्जिदे जामा से राजघाट दरवाजे तक बेमुबालग़ा एक सेहरा लक़ व दक़ है. ईंटों के ढेर जो पड़े हैं वो अगर उठ जाएँ तो हू का मकान हो जाए. याद करो, मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के इस ज़ानिब को कई बांस नशेब था, अब वो बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया, यहाँ तक के राजघाट का दरवाजा बन्द हो गया. फ़सील के कंगूरे खुल रहे हैं, बाक़ी सब अट गया. कश्मीरी दरवाज़े का हाल तुम देख गए हो. अब आहनी सड़क के वास्ते कलकत्ता दरवाजे से काबली दरवाजे तक मैदान हो गया. पंजाबी कटरा, धोबी वाड़ा, रामजी गंज, सआदतखां का कटरा, जरनेल की बीबी की हवेली, रामजीदास गोदाम वाले के मकानात, साहबराम का बाग़-हवेली इनमें से किसी का पता नहीं मिलता. क़िस्सा मुख़्तसर, शहर सहरा हो गया था, अब जो कुएँ जाते रहे और पानी गौहरे नायाब हो गया, तो यह सहरा सेहरा-ए-कर्बला हो जाएगा.
अल्लाह !अल्लाह ! दिल्ली न रही और दिल्ली वाले अब तक यहाँ की जबान को अच्छा कहे जाते हैं. वाह रे हुस्न ऐतक़ाद ! अरे, बन्दे खुदा उर्दू बाज़ार न रहा उर्दू कहाँ ? दिल्ली, वल्लाह, अब शहर नहीं है, कैंप है, छावनी है, न क़िला न शहर, न बाज़ार न नहर.
अलवर का हाल कुछ और है. मुझे और इन्क़लाब से क्या काम. अलेक्जेंडर हैडरले का कोई ख़त नहीं आया. जाहिरा उनकी मुसाहिबत नहीं, वरना मुझको जरूर ख़त लिखता रहता.
मीर सरफ़राज़ हुसैन और मीरन साहब और नसीरुद्दीन को दुआ.
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जहत=दिशा, मी गुज़रद=किसी तरह गुज़रती है, सहरा=उजाड़ बियाबान, हू का=सन्नाटा, नशेब=ढाल, गौहरे=दुर्लभ मोती, सहरा=रेगिस्तान.
(ग़ालिब के पत्र, संस्करण - 1958, हिन्दुस्तानी एकेडमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद से साभार. )
जनाब रवि भाई,
जवाब देंहटाएंवाक़ई मज़ा आ गया । ग़ालिब के ख़त का अन्दाज़ भी अपने आप में बे-मिसाल है। बहुत - बहुत शुक्रिया।