अन्तरा करवड़े की लघुकथाएँ - देन : भाग एक

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लघु कथाएँ -अन्तरा करवड़े देन उसकी ! हमारे लिये कुछ मुस्कानें¸ आँसू और ढ़ेर सी विडंबनाओं की साक्षी समर्पण...


लघु कथाएँ

-अन्तरा करवड़े

देन

उसकी ! हमारे लिये

कुछ मुस्कानें¸ आँसू और ढ़ेर सी विडंबनाओं की साक्षी


समर्पण

मेरे सद्‌गुरू पूज्य अण्णा महाराज¸ इन्दौर को जिन्होंने गुरू के रूप में शब्द¸ सृजन और सोच की महती देन दी है

भूमिका

इन्सानों के लिये एक आम इन्सान ने लिखे हुए चंद जिंदगी के लम्हें है यहाँ। पता नहीं क्या अपेक्षाएँ हर एक को होती है खुद से। अपने आप में ही एक विश्व सा लिये चलते है हम सभी और फिर कटते जाते है सभी से। यहाँ तक कि अपने आप से भी। इन शब्दों में हो सकता है कि किसी एक को आईना मिल जाए। हो सकता है कि कुछ पन्नों में से कुछ अपने झाँकते हुए दिखाई दे जाए।

कुछ चुभन और कुछ अच्छाई के खारे और मीठे आँसू मिलकर चंद बिडंबनाओं के नाम पर बहते जाते है। शायद कोई इस प्रवाह को मोड़ते हुए अपने आप तक पहुँच पाए। ऊँची दार्शनिक बातों के अलावा कुछ सच और कुछ जरूरी बदलाव भी मिल सकते है इस दौरान।

आसमान को तकते हुए उसकी ऊँचाई से दोस्ती करना और जमीन पर अपने पैर भी जमाए रखना। शायद यही है वो चीज जिसे हम जीते है।

यही कुछ सोच इन कहानियों के लेखन के समय मन में रही। यदि अच्छी हो तो चलती रहे और जमीन पर आसमान मिलते रहे¸ यही कामना।

अन्तरा करवड़े

देन : उसकी हमारे लिये

अनुक्रमणिका

समर्पण

भूमिका

कहानियाँ

1। चैन

2। किशोरी हो गई बिटिया

3। पीढ़ियाँ

4। नशा

5। कमाई

6। ट्रेड़िशनल पेरेन्टिंग

7। सिंदूरी

8। बुढ़ापा

9। प्रेम

10। कुपोषण

11। गाँव की लड़की

12। एक जात है सभी

13। भड़भूँजिया

14। सेटिंग

15। महानगर ड़ायरी

16। गंदा कुत्ता

17। पोटेंशियल कस्टमर

18। सपने

19। मिट्टी लौट आई

20। चिड़ियाघर

21। अधर

22। डिस्चार्ज सेटिस्फेक्शन

23। जुगत

24। सूट

25। इन्स्टॉलमेंट

26। हक

27। देशभक्ति

28। आरोप

29। पता नहीं

30। घर

31। फर्क

32। स्त्री

33। एकांत वास

34। मानसिक व्यभिचार

35। बार कोडिंग

36। निर्गुण फ्यूजन

37। बेटा बिगड़ रहा है!

38। मन की शांति

39। ओपन लाईफ स्टाईल

40। अंतरयामी

41। बोझ

42। ममता

43। टेस्ट

44। ज्यादा जानकारी

45। भेदभाव

46। वंशावली

47। रफ्तार

48। जीनियस बालक

49। गहरी जड़ों के नाम पर

50। बेटी

51। जिंदगी भर का साथ

52। चुप होती आवाजें

53। जात

चैन

आज कितने दिनों के बाद इस घर में खुशियाँ आ पाई है।

बाबू के नैन सजल हो उठते थे बार - बार। काश कि ऐसा ही भरा पूरा घर हमेशा रहा करता। और इसे देखने के लिये कमला भी आज होती। कितना चाहती थी वो ¸ कि इस घर का और खुशियों का जो विरह है वह समाप्त हो जाए। सारा परिवार एक साथ रहे¸ वे और कमला अपने पोते - पोतियों की जिद पूरी करने¸ उन्हें खिलाने में अपना बुढ़ापा धन्य करें।

लेकिन सब कुछ धरा का धरा ही रह गया था। एक एक कर सभी अपना भविष्य सँवारने के लिये माँ बाप का वर्तमान बिगाड़ निकल गये थे। अब तो शायद ये एक साथ रहने लगे है¸ ये देखकर ही कमला की आत्मा को चैन मिलेगा। वे पत्नी के चित्र के समक्ष उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति की भाँति बातें करने लगे थे।

उन्हें लगा जैसे कमला मुस्कुराकर यह कह रही थी¸ "सुनो! आज कितना अच्छा लग रहा है भरा पूरा घर हमारा । मेरे अंतिम समय भले ही इनमें से कोई भी नहीं था लेकिन आपके जीते जी तो एक हुए है सभी। जाईये ! कह दीजीये इन सभी से¸ कि आपने उन्हें माफ कर दिया है।"

बाबू को याद आया । अपनी माँ के अंतिम समय में भी कोई बेटा साथ नहीं रह पाया¸ मुझसे मिलने भी नहीं आया। इस बात को याद कर वे काफी कठोर हो चले थे। पिछले साल भर में तो व्यवहार में कटुता बढ़ने लगी थी। ये बात बेटों को समझ में आई थी¸ उन्होने पिछली बीमारी में आकर माफी भी माँगी थी। उनके बचने की उम्मीद कम थी लेकिन ऊपरवाले की मर्जी कुछ और थी¸ बच गये।

तभी बाबू के कमरे का दरवाजा खुला। अजय विजय दोनों आए थे। बिना औपचारिकता के बातें शुरू हुई।

"बाबू ! आप तो जानते ही है कि मेरी नौकरी और अजय के व्यापार में से समय निकालकर आपसे मिलने आना कितना मुश्किल हो चला है इन दिनों।"

"......"

"और भैया के या मेरे घर आकर रहने में भी अपकी तैयारी नहीं है। हमारे घरों में आप एडजेस्ट नहीं हो पाते।"

"......"

"इसलिये हम लोगों ने इसका एक हल सोचा है। कहिये ना भैया।"

"बाबू अब ये मकान किराये पर चढ़ा देंगे। और आपकी व्यवस्था पास के ही आश्रम में कर दी है।"

"......"

"आपकी दवाईयों का खर्च इस किराये से निकलता रहेगा और... आपकी देखभाल भी हो जाएगी।"

"और सच कहें तो हम दोनों को भी आपकी चिंता लगी रहती है। सो इस तरह से हम भी चैन से रह पाएँगे।"

बाबू ने देखा¸ कमला का चेहरा कठोर हो चला था। आखिर वे किसी एक को ही तो यह चैन दे सकते थे।

किशोरी हो गई बिटिया

जानती हूँ शोना! अब तुम अपनी गुड़िया को देख थोड़ी परेशान हो जाती हो । तुम्हारे बचपन की वो तस्वीर जिसमें तुम्हारे पहले पहले टूटे दांत की प्यारी सी मुस्कान है¸ उसे अब तुमने तकिये के नीचे दबा दिया है। तुम्हारी पलकें लंबी और रेशमी होकर सपनों के शहर में पहुंचने लगी है। और हाँ ! तुम्हें अब "शोना बेटा" कहना भी उलझन में डाल देता है ।

ये सब कुछ मुझे तो तुम्हारे लिए बड़ा स्वाभाविक लग रहा है लेकिन क्या तुम ये जानती हो कि अब तुम अपने जीवन के नए अध्याय को पढ़ने जा रही हो । कई बार तुम्हें माँ¸ पिताजी और ये सारी दुनिया ही क्यों न कहूँ¸ दुश्मन सी प्रतीत होगी । कोई तुम्हारे मन को पढ़ ले या तुम्हारे दिन में देखे जा रहे सपनों में दखल दे इसे तुम कभी पसंद नहीं करोगी । और हो भी क्यों नहीं अब तुम बच्ची थोड़े ही रह गई हो जो फ्रॉक का हुक लगवाने मेरे पास आओगी ।

पता है¸ आज मैंने दुआ माँगी है¸ तुम्हारे लिए¸ कि तुम इस खुले आसमान में अपनी कल्पनाओं के सतरंगे पंख लेकर अनंतकाल तक इस सपनीले प्रदेश में विचरण करो । मैं तुम्हारी भावनाओं की ढाल बनने का प्रयत्न करूंगी जिससे कोई भी तुम्हारे पक्के होते मन की मिट्टी पर वक्त से पहले किसी भी अनचाही याद की छाप न छोड़ सके ।

तुम स्वतंत्र हो बिटिया¸ अपने संसार में । तुम मुक्त हो अपने निर्णय लेने के लिए । मुझे विश्वास है अपने पालन पोषण पर और तुम्हारे व्यक्तित्व पर कि तुम कभी भी अपने आप को और अपने परिवार को कष्ट में नहीं डालोगी ।

अब तुम फूलों को देखकर नई कल्पनाएं करो बेटी । पढ़ाई में से कुछ समय बचाकर अपने आप से भी बातें किया करो । अपने बचपन के किसी वस्त्र को देखकर विस्मित होकर मुझसे पूछो कि मम्मी क्या मैं कभी इतनी छोटी भी थी।

और हाँ! कभी कभी ही सही लेकिन तुम्हारा सिर अपनी गोद में लेकर सहलाना मुझे ताउम्र अच्छा लगेगा चाहे कल तुम मेरी उम्र की ही क्यों न हो जाओ ।

तुम्हें कुछ और भी कहना था । अपने दोस्तों और सहेलियों की पहचान कैसे करना चाहिये यह अब तुम्हें सिखाने की आवश्यकता नहीं है लेकिन भावनाएँ तुमसे है तुम भावनाओं से नहीं इस अंतर को कभी मत भूलना।

तुम्हारे लिए मैंने अपने कैशोर्य के कुछ लम्हें चुराकर रखे थे। लेकिन अब वे वक्त का जंग खाकर पुराने पड़ चुके है।

और वैसे भी तुम्हें विरासत में सारा संसार मिला है। तुम उन्मुक्त हो परंतु इसे उन्माद से पहले रोकना जानती हो। तुम स्वतंत्र हो और उच्छृंखलता का अर्थ बड़ी अच्छी तरह से समझती हो । तुम सुन्दर हो और जीवन की क्षणभंगुरता से भी परिचित हो ।

कितनी अजीब सी बात है ना बिटिया¸ मैं तो तुम्हें तुम्हारे किशोर जीवन की शुरूआत पर कुछ समझाईश देने का विचार रखती थी लेकिन तुम अब बड़ी हो गई हो बिटिया । खुशहाल बचपन की यादों के साथ एक स्वप्निल कैशोर्य तुम्हारी बाट जोह रहा है ।

अब सोचो नहीं । बस भर लो एक ऊंची उड़ान ¸ भविष्य के लिए ।

तुम्हारी माँ !

पीढ़ियाँ

"मैंनाबाई! आज यहीं खा लो! प्रसाद तो जितनों के मुँह लगे उतना अच्छा।"

"जी बाई!"

कविता की त्यौरियाँ चढ़ गई थी। पहले ही इनसे सस्ते में मिल रही बाई को हटवाकर मैंनाबाई से आज की पूजा का खाना बनवाया था। अब माँ-जी न सिर्फ इन्हें खाना खिलाएँगी¸ साथ ही घर भर का टिफिन भी बाँध देंगी। तभी तो ये सभी काम के वक्त नखरे दिखाते है। कम काम में इतना सब कुछ जो मिल जाता है।

सब कुछ निपटाकर¸ ब्राह्मणों को दान दक्षिणा के साथ विदा कर¸ सास बहू भोजन करने बैठी। माँ-जी ने कविता का मन जान लिया था। वे जान बूझकर मैंनाबाई का विषय निकाल बैठी। उसका पति अपाहिज है। तीन बच्चे पढ़ रहे है आदी।

असल में माँ-जी स्वयं भी परिस्थिति की मार के चलते¸ अपने प्रारंभिक दिनों में कुछ घरों में जाकर पूजा का खाना बनाया करती थी। घरवालों से झूठ कहती कि आज फलां के यहाँ सुहागिन जीमने जाना है। और उस घर जाकर पूरा खाना बनाने का काम किया करती। उनकी यजमान सरस्वतीबाई को यह बात मालूम थी। वे आग्रह कर उन्हें खाना खिलाती¸ साथ बाँध देती और खान बनवाई के जो पैसे मिलते सो अलग। तीन चार सालों तक ऐसे ही झूठ से माँ-जी ने अपनी गृहस्थी खींची थी। उसी के बल पर आज घर में सुख¸ वैभव¸ शांति है।

"कविता! मैंनाबाई के घरवालों को भी आज यही भ्रम है कि वे आज हमारे यहाँ सुहागिन जीमने आई है।" माँ-जी ने मुस्कुराकर कहा।

कविता के सारे अनपूछे प्रश्न अपना उत्तर पा गये थे।

नशा

खड़ाक्‌ से दरवाजा खुला। इतनी रात गये पिछले दरवाजे से कोई आ रहा है! सुनंदा ने डरते हुए अपने पति को जगाया। "अरे चिंता मत करो। ये जगदीश भाई होंगे। हर छुट्टी पर ऐसे ही पीकर आते है।"

"लेकिन अब वो क्या करेंगे!" सुनंदा अब भी भयभीत ही थी।

"कुछ नहीं। खाना खाकर सो रहेंगे। घर में कोई है नहीं¸ खाना साथ ही लाए होंगे। तुम सो भी जाओ अब।"

सोते हुए भी सुनंदा के मन में असंख्य प्रश्न आ जा रहे थे। इस तरह से पीने का क्या अर्थ हो सकता है? सिर्फ छुट्टी पर! उसके मायके में भी तो घर के सामने तिवारी काका ऐसे ही पीकर आया करते थे। घर में कितना कोहराम मचा करता था। तभी तो उसे मालूम पड़ा था कि पीने की आदत पड़ जाने पर आदमी का कोई भरोसा नहीं रह जाता। रोज चाहिये मतलब चाहिये ही। आज तक कई फिल्मों में भी देखा था उसने कि लोग गम भुलाने के लिये शराब का सहारा लेते है। अभिजात्य वर्ग का यह प्रिय शगल है आदी।

जगदीश भाई के बारे में बस इतना ही मालूम था कि वे अस्पताल में काम करते है। छुट्टी कभी नहीं करते। इसके पीछे भी कारण यह है कि वहीं पर दोनों वक्त का खाना मिल जाता है। उनकी पत्नी और पुत्र सालों पहले एक दुर्घटना में मारे गये थे।

तब से छुट्टी के दिन ही इस तरह से दिखाई देते है। अन्यथा कब आते है कब जाते है¸ किसी को भी पता नहीं चलता। इसीलिये उन्हें पिछवाड़े का कमरा सालों से दिया हुआ है। किराया देते समय ही उससे जो संवाद होता है बस उतना ही।

लेकिन जगदीश भाई के संबंध में मोहल्ले में हवा अच्छी नहीं थी। सभी का एक मत था कि वे चरित्र के अच्छे नहीं है। उनका शराब पीना इस मत के पुख्ता होने में आग में घी का काम करता हालाँकि आज तक किसी ने भी उन्हें शराब खरीदते¸ बोतल हाथ में लिये हुए आदी नहीं देखा था। सुनंदा की शादी से पहले सामने की पंडिताइन बोली भी थी कि अब जगदीश भाई को यहाँ से निकाल देना चाहिये। खैर! वे जो टिके है सो टिके है वहीं।

उस दिन सुनंदा की सास की तबीयत अचानक खराब हो गई थी। शायद दिल का दौरा पड़ा था। सुनंदा

के पति को भी ऑफिस में फोन नहीं लग पा रहा था। किसी तरह से उन्हें ऑटो में डालकर¸ रास्ता पूछते ताछते नजदीकी अस्पताल ले गई। समय पर पहुंचने के कारण जल्दी से भर्ती मिली। वहीं पर जगदीश भाई भी थे। उन्होने बिना किसी बातचीत या औपचारिकता के¸ बिल्कुल अपनी माँ के लिये करते वैसी ही सारी व्यवस्था कर दी।

अस्पताल से लौटकर जब सब कुछ सामान्य हो गया¸ एक दिन सुनंदा ने पकवानों की थाली परोसी और जगदीश भाई को देने पहुँची। उन्होने बड़े आदर से उसे बैठाया। उम्र में वे उसके पिता समान थे। उसे व्यवहार में देवता समान लगे। थोड़ी बातचीत बढ़ने पर सुनंदा ने उनसे पूछ ही लिया। यही कि वे हर छुट्टी पर पीते क्यों है¸ क्या उन्हें कोई दुख है?

वे गंभीर हो उठे। सुनंदा को एक क्षण के लिये लगा कि उसने ये प्रश्न पूछकर कहीं कोई गलती तो नहीं की है? शायद अब वे खाना भी न खाएँ। लेकिन आशंका के विपरीत¸ वे स्वाद लेकर भोजन करते रहे। उठकर हाथ धोए और पालथी लगाकर बैठ गये।

"बेटी! क्या तुम जानती हो कि मैं अस्पताल में क्या काम करता हूँ?"

"जी! नहीं तो।"

जगदीश भाई गंभीर हो उठे।

"मैं एक जल्लाद हूँ बेटी। अस्पताल में होने वाली प्रत्येक मौत के बाद उस शरीर को चीर फाड़ कर पोस्ट मार्टम के लिये तैयार रखना मेरा काम है।"

सुनंदा सन्न रह गई। जगदीश भाई कहते चले।

"रोज देखता हूँ अभागी जवान लड़कियों को जो मार डाली जाती है। दुर्घटना में मरे पाए गए किसी माँ के नन्हे मुन्ने लाड़ले को। नई नवेली दुल्हन को विधवा कर इस जग से जाते उसके पति को। किसी बुढ़िया के अकेले सहारे को। रंजिश में मारे गये बुढ़ापे के सहारे होते है वहाँ तो खुद से नाराज होकर आत्महत्या करते स्वार्थी बंदे भी। अब क्या क्या गिनाऊँ तुम्हें।" जगदीश भाई का चेहरा काठ के जैसा हो चला था और सुनंदा का चोरी करते पकड़ी गई बिल्ली के जैसा।

"इस दुनिया के नए निराले सभी खेल इस मौत के आगे फीके है बेटी और उसी मौत से जाने कितने तरीक़ों से मैं रोज मिलता हूँ। दिन भर के काम में सोचने को समय तो मिलता नहीं।"

वे कहते चले "छुट्टी पर अपने पाप याद आते है। जिस शरीर को माँ कितने जतन से अपने खून से शरीर पर पालती है¸ जन्म के बाद उसकी सालों देखभाल करती है खिलाती पिलाती है¸ उसके लाड़ करती है। ऐसे ही जाने कितने लाड़ले शरीरों को मैं अब तक चीर चुका हूँ। ऐसा लगता है जैसे हज़ारों माताओं का कलेजा चीरा है मैंने। नौकरी ही ऐसी है। क्या करुँ!"

जगदीश भाई ने उठकर पानी पिया। सुनंदा के आँसुओं से भीगे मुख की ओर प्रेम से देखते हुए उसे भी दिया।

"छुट्टी के दिन मैं प्रायश्चित्त करता हूँ बेटी। शहर से बाहर के उस उजाड़ मंदिर में जाकर वहाँ के बूढ़े पुजारी के साथ दिन भर रहता हूँ। उनकी सेवा करता हूँ¸ मंदिर में झाडू देता हूँ¸ आँगन की धुलाई करता हूँ। जो भी काम बन पड़े बस दिन भर भूखे पेट करता रहता हूँ। फिर वहाँ जो भी प्रसाद मिले उसी को लेकर घर आ जाता हूँ। मंदिर शहर से दूर है¸ आठ किलोमीटर चलना पड़ता है इसीलिये देर हो जाती है। फिर थकान और दूसरे दिन के काम का सोचकर कदम लड़खड़ाने भी लगते है। मेरा यही नशा है बस।"

सुनंदा मूक हो सोचती रही¸ "काश ऐसा नशा इस दुनिया के सभी लोग कर सकते हो।"

कमाई

पिछले दो सालों से गुरु महाराज के मठ में आना जाना शुरू हुआ है मेरा। वहाँ बड़े मधुर भजन होते¸ परोपकार के कार्य किये जाते¸ भावुकों के प्रश्नों का समाधान मिलता। भजन में बाकी कोई हो न हो¸ एक सोलह सत्रह वर्ष का फुर्तीला लड़का बंसी हमेशा दिखाई देता था। वह भजन में सुंदर ढपली बजाता था। भावुक¸ सेवाभावी और सारी ऊँच नीच से दूर ईमानदारी से काम करने में विश्वास रखता था। गुरुदेव के चरणों में सेवा करने को मिलती है इसी में वह अपना जीवन धन्य माना करता। नियमित आने जाने से उससे भी पहचान हो गई थी और उसे हम चिढ़ाया भी करते थे कि उसका नाम बंसी है और बजाता है ढपली। वह बस शरमाकर रह जाता।

एक दिन बातचीत में मैंने उससे पूछ ही लिया। वह दिन भर यहीं रहकर सेवा किया करता था। बदले में उसे थोड़े बहुत पैसे¸ खाना¸ कपड़ा आदी मिलता था। घर की परिस्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी।

"तुम इतने दिनों तक यहाँ सेवा करते रहे बंसी!" मैंने पूछा¸ "आखिर तुमने क्या कमाया?"

बंसी कुछ उत्तर दे इससे पहले ही उसे किसी ने काम के लिये बुला लिया। बात आई गई हो गई।

उस दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव था मठ में। हज़ारों लाखों भक्तजन उपस्थित थे। प्रसाद¸ हार फूल¸ दक्षिणा तो जैसे उफन रही थी। तभी मैंने देखा¸ किसी अनाम भक्त ने गुरु महाराज के चरण कमलों पर एक लाखों की कीमत का जड़ाऊ हीरे का हार रख दिया था। गुरूजी के आस पास अभिजात वर्ग के दिखावटी भक्तों की भीड़ थी जो अपने सामर्थ्य का परिचय देते हुए गुरूजी से सामीप्य का प्रदर्शन करने में मग्न थे।

हार को हाथ में लिये हुए गुरूजी असमंजस में थे। तभी लालची दृष्टि के वशीभूत ढेरों हाथ आगे बढ़े¸ "दीजीये गुरूजी मैं रख देता हूँ।" "यहाँ दीजीये गुरूजी मैं अपने पास सुरक्षित रखूँगा।" आदी के स्वर गूँजने लगे।

उसी समय गुरूजी ने सामान्य तरीके से आवाज लगाई "अरे बंसी! ओ बंसी। कहाँ रह गया?"

काम काज में उलझा बंसी पसीना पोंछता गुरूजी के समक्ष हाजिर हुआ।

"ये रख तो जरा सम्हालकर।" और वह हार बंसी की कृतज्ञ हथेली पर आ गिरा। कितनी ही वक्र दृष्टियाँ बंसी पर पड़ी। गुरु का उसपर विश्वास देख कितने ही हृदय भावुक भी हुए।

परंतु बंसी की दृष्टि मुझे खोज रही थी। और उसने आँखों की खुशी से ही मुझे जता दिया कि इतने दिनों में उसने यहाँ रहकर क्या कमाया है।

ट्रेडिशनल पेरेन्टिंग

"विकास का बेटा कैसा हो गया हो इन दिनों!" शकुनजी ने भारी मन से कहा।

"क्यों ! कोई बुरी आदत है क्या!" बाबूजी ने चिंतित स्वर में कहा।

"बुरी आदत जरूर है लेकिन उसके माँ बाप में ।" शकुनजी धीरे धीरे गुस्सा होती जा रही थी।

"क्या मतलब?"

"किसी से बात नहीं करना¸ सभी को खुद से कम क्वालिटेटिव समझना¸ मौज मस्ती करने¸ खाने पीने के नाम पर पसीने छूटते है उसके। सब कुछ पढ़ाई¸ सारी जिंदगी नॉलेज के पीछे लगानी है उसने। खेलने खाने के दिन है उसके। मैं कहती हूँ आखिर ऐसा करके विकास और वीणा क्या कर लेंगे?" शकुनजी अब फूट ही पड़ी थी।

छुट्टियों में दो महीने बेटे के पास रह आई थी वे। बहू की दूसरी डिलेवरी थी। बेटा बहू दोनों नौकरी करते है। लेकिन उनका बड़ा पोता¸ जिसकी वे बातें कर रही थी¸ उसका व्यवहार उन्हें चिंता में डाल गया था।

"शकुनजी!" बाबूजी उन्हें समझाने लगे।

"देखिये मुझे तो ऐसा लगता है कि घर में एक नया मेहमान आ जाने से ही उसके व्यवहार में फर्क आ गया होगा। थोड़े दिनों में हो सकता है कि वह संभल जाए!" उन्होने आशा बँधाई।

"नहीं जी! वो ऐसा पिछले दो सालों से कर रहा है।"

"विकास ने बताया ना मुझे। बस दिन भर पढ़ाई¸ कॉम्पिटिशन¸ नॉलेज बैंक¸ रेडी रेकनर ऐसी बातें ही करता रहता है। उसे डॉक्टर को भी दिखाया था। उन्होने कहा कि वह इसी तरह से दबाव में रहा तो दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है।" शकुनजी सचमुच चिंतित थी।

फिर कुछ दिनों के बाद विकास का फोन आया था। जिस प्रकार की तकलीफ उसके बेटे को थी¸ उससे बाहर निकालने के लिये एक स्वयं सेवी संस्था आगे आई थी। शकुनजी के घर के पास ही एक गाँव में उनका एक माह का शिविर लगना था। वहाँ करीब तीस बच्चे पेड़ पौधों¸ खेतों के साथ रहते हुए लकड़ी काटना¸ चूल्हे पर खाना बनाना¸ खेती करना¸ मिट्टी के बर्तन बनाना आदी सीखेंगे। उसका बेटा भी वहाँ आ रहा था। इस सारे प्रकल्प का मुख्य उद्‌देश बच्चों को महानगर के अति सुविधायुक्त व दमघोटू वातावरण से दूर रखकर उनके व्यक्तित्व में जरूरी जमीनी जानकारी भरना था। विकास का इतना ही कहना था कि वे बीच बीच में जाकर उससे मिल आएँ।

सब कुछ सुनकर जब शकुनजी ने ये सब बाबूजी को सुनाया तब वे ठठाकर हँसने लगे।

"शकुनजी! एक बात बताईये!"

"कहिये।"

"मुझे लगता है इस नये जमाने में¸ छुट्टियों में दादा - नाना के गाँव में जाकर रहने का मजा लेने के लिये इन बच्चों को पैसे देकर शिविर में रहना होता है क्यों?"

उनके अर्थपूर्ण वाक्य का मर्म शकुनजी एक हूक दाबे समझ पाई और बाट जोहने लगी¸ अपने प्रॉब्लम पोते की।

सिंदूरी

"सिंड़ी ऽऽ..."

"जस्ट कमिंग!"

"सिंदूरी! उस लड़की ने किसी सिंड़ी को आवाज लगाई है । तुम क्यों इतनी फुर्ती दिखा रही हो?" मीता ने मुस्कुराते हुए पूछा।

"मम्मी! मेरा नाम वैसे भी आऊट ऑफ डेट है और तुम्हें क्या लगता है? "द" कहकर मेरे फ्रेंड़स अपनी एक्सेंट नहीं खराब कर सकते।"

और फिर वह अजीब सी तंग और छोटी पोषाख पहने बाहर आई और अपना ऑक्टोपॅड उठाकर चल दी। मीता उससे कहते कहते रह गई कि कहीं वह कुछ पहनना भूल तो नहीं गई है लेकिन बेकार। अपनी स्पोर्टस बाईक पर टाँग ड़ाले वह चौदह वर्ष की किशोरी स्वयं को बीस की दिखाती हुई अपनी ऐसी ही तीन सहेलियों के साथ चल दी।

मीता को एकदम से स्वयं के आऊट डेटेड हो जाने का एहसास होने लगा था। कितनी उमंगों के साथ उसने और शेखर ने उसके जन्म पर¸ सूरज की लालिमा से दमकते मुखमंड़ल को देख इसका नाम सिंदूरी रखना तय किया था। बड़ी प्रशंसा मिली थी दोनों को उसके नामकरण पर।

वही बेटी आज अपने नाम पर ही खुश नहीं है। उसने पिछले दिनों फोन पर होती उसकी बातचीत से यह अंदाजा लगाया था कि उनके स्कूल के क्लब में कोई पॉप कन्सर्ट होनी है जिसके लिये इसे ऑक्टोपॅड बजाना है। शायद आज वही कन्सर्ट होगा। यह कुछ भी तो बताती नहीं है आजकल।

मीता का सिर दर्द करने लगा । हमेशा की तरह अपनी पसंदीदा शास्त्रीय गायन की सीडी लगाकर वह बालकनी में कॉफी पीती खड़ी रही। वैसे भी सिंदूरी को ये सब कभी समझ में नहीं आता। कार्टून देखकर बचपन बिताया उसने और अब ब्रिटनी स्पीयर्स के साथ बड़ी हो रही है। काश कि उसे भारतीय संगीत की शिक्षा दी होती । कम से कम उसका व्यवहार तो सुधर जाता! लेकिन उसपर कोई दबाव नहीं डाला था मीता ने। अपनी रूचि के अनुसार ही स्वयं के निर्णय लेने दिये थे।

इस सोच में जाने कब दो घण्टे बीत गए मालूम ही नहीं पड़ा। सिंदूरी वापिस आ गई थी। शायद शास्त्रीय संगीत का ही असर था कि घर पर आते ही खाने और टीवी के लिये तूफान मचाने वाली लड़की आज शांति से अपने कमरे में चली गई।

थक गई होगी। मीता ने सोचा। फिर वह कपड़े बदलकर बाहर आई। मीता के पास शांत बैठ गई। धीरे धीरे उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मीता ने आश्चर्य के साथ उसका सिर गोदी में लिया। उसे सहलाते हुए प्यार से पीठ पर हाथ फेरा।

"मम्मी! इसे कोई हक नहीं है मेरा आईडियल बनने का।" कहकर उसने अपने गले में पहना हुआ अपने पसंदीदा पॉप स्टार का लॉकेट तोड़ फेंका।

"ये लोग हम इण्डियन्स को समझते क्या है मम्मी?" हम लोगों ने कितनी मेहनत के साथ अपने बैंड का परफॉर्मंस वहाँ भेजा था लेकिन उनका जवाब आया है कि वे इण्डियन्स को कितनी भी अच्छी टैलेंट के बावजूद मौका नहीं देंगे। ऐसा क्यों मम्मी!" सिंदूरी रूआँसी हो गई थी।

"तुम लोग जब उन्हीं की नकल करते हुए इस संगीत की कला को सीखते हो तब यह व्यवहार भी क्यों नहीं सीख लेते उनसे?" मीता का आवाज कड़वा हो चला था। तिहाई के साथ शास्त्रीय गायन का राग समाप्त हो चुका था।

मीता ने सिंदूरी को गुस्से से देखा।

"जब वे लोग ये देखते है कि तुम अपने देश की कला को हिकारत से देखते हो¸ तब विदेशी संगीत को क्या अपनाओगे? जिस ने अपने माँ बाप की कद्र नहीं की¸ उसकी पूजा कौन से देव स्वीकारेंगे?" मीता ने सिंदूरी को देखा¸ वह स्वयं को कटघरे में जरूर पा रही थी।

"मेरे ख्याल से उन्होने कोई गलती नहीं की है।" मीता ने अपने हाथ में एक चाबी ली और उसे सिंदूरी के हाथ में रखते हुए बोली¸ "और यदि तुम अपनी गलती सुधारना चाहती हो तो ये लो।"

उसने सामने के एक बड़े से खड़े बक्से की ओर इशारा किया। सिंदूरी ने उसे खोला और हठात्‌ उसके हाथ जुड़ गए। उस बक्से में था¸ उसकी दादी की संगीत साधना का जीवंत प्रतीक और साक्षी¸ एक तानपूरा।

और हाँ आजकल उसे स्वयं को सिंदूरी बुलाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है।

बुढ़ापा

"अरे सुनती हो सुधा!" श्रीवास्तवजी अपनी लाठी टेकते बरामदे में पहुँचे।

"कहिये! अब क्या हुआ।" सुधाजी धैर्य के साथ बोली।

"भैया तुम रह सकती हो इस नई पीढ़ी के साथ सुर मिलाकर। हमसे तो नहीं होने का। चलो हम कल ही विनय के घर चलते है।" श्रीवास्तवजी आपा खोने लगे थे।

"कुछ कहेंगे भी कि हुआ क्या है¸ सीधे चलने चलाने की बातें करने लगे आप तो।" सुधाजी कुछ परेशान हो उठी थी।

"अरे मैं जरा मुन्ने को खिला रहा था। उसे बी फॉर बाबू सिखाने लगा तो तुम्हारी बहूजी कहने लगी कि बाबूजी प्लीज उसे बी फॉर बॉल ही सिखाईये। स्कूल में ऑब्जर्वेशन होता है। अरे उसके पति को हमने ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया है और वह हमें सिखाने चली है। हमसे और नहीं सहन होने का यह सब कुछ।" वे तमककर बोले।

सुधाजी वैसी ही शांत बैठी हुई मेथी तोड़ रही थी। बाहर बारिश होने लगी थी इसलिये हवा खाने वे अक्सर यहीं बैठा करती थी। फिर उन्होने लहसुन की कुछ कलियाँ छीली। आँगन के बाहर रखी कचरा पेटी में जाकर वे कचरा फेंक आई और साफ की हुई सब्जी बहू को देने रसोई में चली गई।

वे बाहर आई तब तक श्रीवास्तवजी का गुस्सा थोड़ा कम जरूर हो गया था पर वे भूले नहीं थे उस वाकये को। बूँदाबाँदी हो रही थी।

"आ गई आप! उसी बहू की मदद करके जिसने थोड़े समय पहले आपके पति का अपमान किया था?" श्रीवास्तवजी ने फिर वही बात छेड़ी।

"क्या है जी! जब देखो तब बैठे ठाले मीन मेख निकालते रहते हो। जरा सी बात क्या कह दी बहू ने तो जैसे मिर्ची लग गई है आपको। जमाना बदल गया है¸ अब भी आप यही सोचेंगे कि वही पुराना रिवाज चला करे तो वह नहीं हो सकता।" सुधाजी ने कह ही दिया।

"अच्छा! तो अब वह कल की आई हुई लड़की कुछ भी कहा करे हमें। आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आपको ड़र लगा करता होगा इस नई पीढ़ी से¸ मैं आज ही सुरेश से इसकी शिकायत करने वाला हूँ। " बाबूजी निर्णायक स्वर में बोले।

"क्या शिकायत करेंगे जी आप? यही कि मैं गलत सिखा रहा था और बहू ने मुझे सुधारा इसलिये उसकी गलती हो गई?" सुधाजी ने भी पारा चढ़ाते हुए कहा।

"यहीं तो गलती करते है आप लोग। और अच्छी भली नई पीढ़ी के सामने बुढ़ापे का नाम बदनाम करते है। यदि वह नई लड़की आपको कुछ अच्छा बता रही है¸ तो क्या वह आपसे छोटी है इसलिये हमेशा गलत ही रहेगी? आप सिर्फ उम्र को ही बड़प्पन का तकाजा मान बैठे है। क्या आपको स्वयं यह मालूम है कि वह ऐसा क्या करे जिससे आपको उससे कोई भी शिकायत न रहे?" सुधाजी ने मन की भड़ास निकाल दी। श्रीवास्तवजी पकड़े हुए चोर की भाँति चुपचाप बैठे रहे।

"देखिये जी! मैं ये नहीं कहती कि आप चुप बैठे रहें या किसी भी काम में दखल न दे। आज यदि सुरेश और बहू हमारी अच्छी देखभाल कर रहे है¸ समय पर खाना¸ दवाई सब कुछ मिल रहा है तब व्यर्थ ही इस शांत पानी में कंकड़ क्यों फेंकना चाहते है आप?" वहाँ चाय लेकर बहू के आ जाने से सुधाजी थोड़ी शांत और सामान्य हो गई। काम में व्यस्त बहू को कुछ समझ में नहीं आया कि वहाँ क्या पक रहा है। वह रोते मुन्ने की आवाज पर अंदर चली गई।

"देखिये जी! आपको तो याद ही होगा कि हमारे सुरेश की बचपन में सर्द प्रकृति थी। मेरे लाख मना करने के बावजूद भी कि डॉक्टर ने मना किया है¸ आपकी माँ उसे चावल का मांड़ खिलाती ही थी ना? उस समय कितने असहाय हो जाते थे हम दोनों। आज भी सुरेश को थोड़ी सी हवा लगते ही सर्दी हो जाती है। क्या आप हमारे बेटे और बहू को भी वैसा ही असहाय बना देना चाहते है?" सुधाजी किसी उत्तर की अपेक्षा से बोली।

उनकी आशा के विपरीत श्रीवास्तवजी चाय वैसी ही छोडकर तेज कदमों से बाहर चले गये। सुधाजी सिर हाथ धरे बैठी रही। पता नहीं इस गीले में कहाँ चल दिये होंगे। कहीं मैंने कुछ ज्यादा ही तो नहीं कह दिया। इस तरह के विचार उनके मन में आते जाते रहे।

कुछ ही समय बाद श्रीवास्तवजी हाथ में एक बड़ी सी कागज की थैली लाए। बाहर से ही बहू को आवाज देने लगे "अरे रीना बिटिया जरा बाहर आओ। मैं सबके लिये भजिये ले आया हूँ चलो बाहर बैठकर खाएँगे।" उन्होने सुधाजी को शरारतपूर्ण दृष्टि से देखा। वे हँसती हुई चाय गरम करने अंदर चली गई।

प्रेम

वह प्रेम दिवस का आयोजन था। लाल रंग के गुलाबों¸ दिल के आकारों की विभिन्न वस्तुएँ। रंग बिरंगे और अपेक्षाकृत स्मार्ट परिधानों में युवक युवतियाँ अपने तईं इकरार - इजहार आदी कर रहे थे। कोई झगड़ रहा था तो किसी का दिल टूट रहा था। कोई बदले की भावना से गुस्सा हुआ जा रहा था तो किसी के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

मोनिका भी एक प्लांड़ इवेंट प्लेस पर अपने परफॉर्मंस की बारी का इंतजार कर रही थी। उन्हीं के फ्रेंड्‌स क्लब ने ये आयोजन किया था। इसमें थी मौज मस्ती और नाच गाना। फूल¸ कार्ड¸ गिफ्ट्‌स¸ चॉकलेट सभी कुछ उपलब्ध था। उसे इंतजार था देव का। जिसने पिछले वैलेंटाईन पर ही उससे अपने प्रेम का इजहार किया था। उसके बाद से साल भर दोनों यूँ ही मिलते आ रहे थे। उसे विश्वास था कि उसकी परफॉर्मंस तक देव जरूर आ जाएगा।

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। सभी ने बाहर जाकर देखा। दो गुटों में झगड़ा हो रहा था। कारण जो भी कुछ रहा हो लेकिन पुलिस पहुँच चुकी थी। आतंक और तनाव का माहौल था। समझदार लड़कियों ने घर की राह पकड़ने में ही खैर समझी। लेकिन मोनिका वहाँ पहुँचती तब तक देर हो चुकी थी। वह रास्ता बंद कर दिया गया था। सारा यातायात दूसरी ओर मोड़ दिया गया था।

मोनिका जहाँ देव का इंतजार कर रही थी वहीं एक पकी उम्र की माँ-जी भी खड़ी थी। उसे देखते ही हठात्‌ बोल पड़ी। "इतनी गड़बड़ में क्यों रात गये घर से निकली हो बेटी?" मोनिका ने उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उन्हें देखा। उसे लगा कि इन माँ-जी को वह क्या समझाए कि आज प्रेम दिवस है। आज नहीं तो कब बाहर निकलना चाहिये। आपके जमाने में नहीं थे ये वैलेंटाईन डे वगैरह। आप तो अपने पति की चाकरी करते हुए ही जिंदगी गुजारिये। उसे वैसे भी इस दादी टाईप की औरत की बातों में कोई रूचि नहीं थी।

लेकिन वह स्वयं इस हादसे के कारण घबराई हुई सी सब दूर बस देव को ही ढूँढ़ रही थी। उसे विश्वास था कि वह उसे इस मुसीबत से निकालने के लिये जरूर आएगा। सारे वाहन वहाँ से हटवा दिये गये थे। काफी देर तक जोर जोर से आवाजें आती रही। लाठी चार्ज होने लगा था।

पुलिस किसी को भी उस घेरे के अंदर से जाने देने को तैयार नहीं थी। तभी मोनिका ने देखा¸ देव किसी पुलिसकर्मी से उलझ पड़ा था। वह उसे अंदर नहीं आने दे रहा था। "ओह देव प्लीज मुझे निकालो यहाँ से।" मोनिका चीख पड़ी थी। लेकिन देव कुछ भी नहीं कर पा रहा था। बार बार अपने मोबाईल से किसी को फोन करता जा रहा था। शायद उसने मोनिका के भाई को फोन कर सारी स्थिती बता दी थी और स्वयं वहाँ से निकल गया था। मोनिका अविश्वास से उसे जाते हुए देखती रही। क्या यही उसका विश्वास था?

तभी पास खड़ी माँ-जी खुशी से बोल पड़ी¸ "आ गये आप!" मोनिका ने उनकी दृष्टि का पीछा किया। एक बूढ़े से सत्तर के लगभग के बुजुर्ग¸ काफी ऊँची रेलिंग को बड़ी मुश्किल से पार करते हुए माँ-जी तक पहुँचे।

दोनों घबराए हुए से पहले तो एक दूसरे का हाथ पकड़े हाल चाल पूछते रहे।

"मुझे तो सामने के वर्माजी ने खबर की। उन्होने कहा कि जल्दी से तुम्हें घर ले आऊँ। यहाँ कोई फसाद हो गया है। तुम्हें अकेले नहीं आने देंगे।" वे काफी घबराए हुए थे।

"लेकिन अब घबराने की जरूरत नहीं है। मैं आ गया हूँ ना। वो पुलिसवाले को देखा¸ किसी को भी अंदर आने नहीं दे रहा था। सबसे झगडने पर ही तुला हुआ है। इसीलिये मैं उस रेलिंग को पार कर आ गया। यहाँ से बाहर जाने के लिये कोई पाबंदी नहीं है। चलो अब जल्दी से निकालते है।" उनकी साँस फूलने लगी थी।

मोनिका कुछ कहती इससे पहले ही माँ-जी ने उसे भी अपने साथ लिया और बाहर निकलकर उसके भाई के हाथों में सुरक्षित सौंप दिया। मोनिका को लगा कि देव खुद भी तो यही कर सकता था!

वह सोचती रही। उन दोनों का वैलेंटाईन डे के बगैर का¸ पका हुआ प्रेम विश्वास और आपसी समझ। ये सब उन थके चेहरों की आँखों में चमक रहा थी जिसके आगे सारे युवा जोड़े फीके नजर आ रहे थे।

उसे समझ आ गया था। यही सच्चा प्रेम था।

कुपोषण

महिलाओं में कुपोषण और उसके प्रभावों पर आधारित एक क्लब महिला गोष्ठी उस तारांकित होटल के टॉप फ्लोर पर चल रही थी। खाने और उसकी गुणवत्ता की कमी के कारण पैदा होते रोग व उससे हर साल होती महिलाओं की मृत्यु जैसे तथ्य मय आँकड़ों के प्रस्तुत हुए और एक मधुर घोषणा के साथ गोष्ठी समाप्त हुई।

"आप सभी भोजन के लिये आमंत्रित है।"

प्लेट में पनीर दो प्याजा लेती हुई मिसेस माहेश्वरी¸ "आपका प्रेजेन्टेशन तो बड़ा अच्छा हुआ मिसेस गुप्ता! काँग्रेट्‌स।"

"ओह थैंक्स!" चूंकि मिसेस गुप्ता अभी स्टार्टर पर थी इसलिये उन्हें वहीं छोड़ आपने मिसेस प्रसाद को पकड़ा। जिनके साथ अगले हफ्ते उन्हें इसी विषय पर प्रेजेन्टेशन देना था।

"मैं सोचती हूँ मिसेस प्रसाद¸ कि हमारी कामवाली बाईयाँ ही है जिनसे हम ये सारे सवाल पूछ सकते है।" मिसेस माहेश्वरी ने बेक्ड वेज का कुरकुरा चीज़ मुँह में रखते हुए कहा।

"हाँ! उन्हीं से हमें उनकी खान - पान की आदतों और उनमें सुधार की गुंजाइश की जानकारी मिलेगी। इस तरीके से हमारे प्रेजेन्टेशन में थोड़ी लाईवलीनेस आ जाएगी यू नो!" और उन्होने मन्चूरियन पर धावा बोला।

फिर कश्मीरी पुलाव और मखनी दाल के साथ यह तय हुआ कि मिसेस माहेश्वरी अगले प्रेजेन्टेशन के लिये बाईयों से आँकड़ें जमा करेंगी और मिसेस प्रसाद उसका स्पीच बनाएँगी। अंत में आईस्क्रीम विथ फ्रेश फ्रूट एण्ड़ जैली के साथ ही इस प्रेजेन्टेशन के लिये घर पर रिहर्सल का समय तय हुआ।

तभी एक हल्का सा शोर सुनाई दिया। "लाईव रोटी" के स्टॉल पर गर्मी सहन न होने के कारण गर्भवती रमाबाई की तबियत खराब हो रही थी। मैंनेजर पैसे काटने की धमकी दे रहा था। रमाबाई आधे घण्टे की छुट्टी लेकर नींबूपानी पी लेने के बाद काम निपटाए देने के लिये चिरौरी कर रही थी।

मिसेस माहेश्वरी और मिसेस प्रसाद एक दूसरे से बिदा लेकर¸ अपने भीमकाय जबड़ों में पान की गिलौरियाँ दबाए¸ एअर कण्डीशन्ड गाड़ियों के बंद दरवाजों के भीतर एक ही विषय पर सोच रही थी¸ "आखिर महिलाओं में कुपोषण के क्या कारण है?"

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चित्र - साभार डॉ. आलोक भावसार

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रचनाकार: अन्तरा करवड़े की लघुकथाएँ - देन : भाग एक
अन्तरा करवड़े की लघुकथाएँ - देन : भाग एक
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