मैं एक जिंदा शहर हूं

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आलेख - मनोज सिंह प्रकृति में हर एक का सुनिश्चित जीवन काल है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, आकाशगंगा यहां तक कि हमारी पृथ्वी और उसका चा...



आलेख

- मनोज सिंह

प्रकृति में हर एक का सुनिश्चित जीवन काल है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, आकाशगंगा यहां तक कि हमारी पृथ्वी और उसका चांद भी इस शाश्वत नियम से बंधे हैं। सभी का बीते समय में पीछे कभी जन्म हुआ होगा और सभी धीरे-धीरे अपने अंतिम दिन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में पुराने का जाना और नये का आगमन एक निरंतर प्रक्रिया है। जो आदि से अनंत तक जारी है। पृथ्वी लोक में भी पेड़-पौधे, नदी, पहाड़, सब कुछ अन्य जीवित प्राणियों की तरह जीवनचक्र से बंधे हुए हैं। बस जीवन की डोर की लंबाई में भिन्नता और मरने की प्रक्रिया का स्वरूप अलग-अलग हो सकता है। पर यह हकीकत है कि पहले बाल्यकाल फिर युवावस्था, और अंत में मृत्यु से पूर्व ये बूढ़े की तरह कमजोर व जर्जर हो जाते हैं।

अमूमन यही हाल मनुष्य निर्मित वस्तुओं का भी है। भाषा, संस्कृति, सभ्यताएं भी समय के साथ-साथ पैदा और खत्म होती रहती हैं। नयी-नयी कार, स्कूटर, टीवी, फ्रिज बड़े आकर्षक और सही चलते हैं मजबूत प्रतीत होते हैं। फिर धीरे-धीरे उनमें खराबी आने लगती है। और फिर हर दूसरे दिन सुधार, मरम्मत व रखरखाव की आवश्यकता पड़ती रहती है। सब कुछ इंसान के जीवन की तरह है। बचपन में पत्थर भी पच जाता है तो जवानी में जोश भरा होता है और फिर उम्र के साथ शरीर जवाब देने लगता है। बुढ़ापे में दांत टूटने लगते हैं। आंखों से कम दिखता है। चेहरे की आभा खत्म हो जाती है। शरीर झुक जाता है, ज्यादा दौड़ नहीं सकते, कूद नहीं सकते। हड्डी टूटने पर जुड़ने में मुश्किल होती है।

गांव, कस्बों व शहरों का भी हाल कुछ ऐसा ही है। आवश्यकतानुसार स्वाभाविक रूप से इनका जन्म होता रहा है। जिसमें नदी और समुद्र किनारे बसे नगरों के विकास की संभावना अधिक होती है। फिर शुरू होती है समय की मार। धीरे-धीरे इनकी परेशानियां उभरने और बढ़ने लगती हैं। घर, दुकान, इमारत, मोहल्ले पुराने होने लगते हैं। और बस्ती एक बूढ़े की तरह हांफती नजर आती है। सीवरेज पाइप लाइन, पीने के पानी की व्यवस्था, सड़क, संचार और बिजली के खंभे शहर की धमनियां हैं, जो पुरानी, कमजोर और अपर्याप्त होने लगती हैं। और फिर जिस तरह से एक बुजुर्ग को दवाइयों के सहारे काम चलाना पड़ता है उसी तरह इनकी भी सांसे चलती हैं। बड़ी हुई आबादी का दबाव बढ़ता है तो शहर की कमजोर अस्थियां इस अतिरिक्त बोझ को सहने में अक्षम होती चली जाती हैं। कई शहर चतुर, चालाक व समझदार बूढ़े की तरह अपना स्वास्थ्य ठीक तो रखते हैं मगर पक्का इंतजाम फिर भी नहीं हो पाता। नये के सामने पुराना, पुराना ही होता है। मरम्मत से चीजें चलती तो हैं मगर व्यवस्था कामचलाऊ रहती है। पुराने शहर के बीच या किनारे, नये जमाने की नयी इमारतें, मॉल व मार्केट एक पैबंद की तरह दिखाई देते हैं। जैसे कि मानों किसी बूढ़े का नकली दांत चमचमा रहा हो, कान में सुनने की मशीन लगी हो या फिर आंख पर चश्मा टंगा हो।

ख्याल करें, कहा जाता है कि कोलकाता किसी समय में एक अति आधुनिक, आकर्षक व व्यवस्थित शहर हुआ करता था। आज यह व्यस्ततम महानगर तो है, अनुभवी और महत्वपूर्ण भी, मगर बूढ़ा प्रतीत होता है। नित नयी जटिलता उभरती है, जिनमें से कई का कोई समाधान नहीं, कुछ समस्याएं दीर्घकालिक बीमारी की तरह इतनी विकराल है कि जिनका इलाज संभव नहीं। फिर भी अंग्रेजों के जमाने की राजधानी, एक समझदार बुजुर्ग की तरह जीने के प्रयास में छटपटाती प्रतीत होती है। यही हाल कुछ-कुछ मुंबई का भी है। नयी दिल्ली और पुरानी दिल्ली को देखकर नये व पुराने शहर के फर्क को ज्यादा अच्छी तरह से समझा जा सकता है। यहां पुराने के साथ नये का उभरना कुछ-कुछ संयुक्त परिवार जैसा महसूस होता है। लगता है मानों वर्तमान पीढ़ी ने पुरानी हवेली के बगल में अपनी नयी कोठी खड़ी कर ली है। जिसकी फिर अपनी समस्याएं हैं। जवान बेटे-बहू के साथ बूढ़े मां-बाप की खटपट चलती रहती है। समाज में पहचान तो पुराने की होती है मगर लोगों का आना-जाना, चहल-पहल, रौनक, यहां तक कि द्वार पर नाम की पट्टिका भी नये की प्रमुखता से लगी होती है। अन्य अधिकांश बड़े शहर अपनी प्रौढ़ अवस्था में हैं।

बंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद अपने विकास के अंतिम मोड़ पर हैं। जिसके आगे मुश्किलों का अम्बार है, वृद्धावस्था का प्रवेश द्वार। वैसे भी सेवानिवृत्त होने वाले से अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती। अपवाद स्वरूप एक-दो शीर्ष पद पर पहुंचते हैं और इसलिए उनका महत्व तो होता है लेकिन फिर कालांतर में रिटायर होते ही सब खत्म। दूसरे बड़े शहर जबलपुर, इलाहाबाद, कानपुर, पूना, लखनऊ, जयपुर, पटना का लंबा और सुनहरा इतिहास है। ऊंचे खानदान की तरह नाम है मगर इनकी भी अपनी मौलिक समस्याएं हैं। संस्कार, संस्कृति, सभ्यता, वंश से जुड़ी होती हैं। जिन्हें एक तरफ तो समय के साथ बनाये रखने की कोशिश की जाती है दूसरी तरफ आधुनिक बनने की कोशिश में अपना मेकअप किया जाता है। मगर फल अधिक नहीं मिलता और असली चेहरा ही उभरता है। एक जिद्दी बूढ़े की तरह ये शहर अपनी आदत से मजबूर हैं अपनी पहचान खुद नहीं छोड़ना चाहते। और फिर पकी उम्र में क्या यह संभव है? नहीं। पुरानी आदतों को असाध्य रोगों की तरह जड़ से मिटाना असंभव है। अमूमन ये आधुनिक जीवन पद्धति को बड़ी मुश्किल से अपना पाते हैं।

सभी शहरों का अपना मिजाज होता है। कोई अपनी कला के कारण जाना जाता है तो कोई साहित्य में दखल रखता है। कोई संस्कारधानी, कोई राजनैतिक राजधानी तो कोई व्यावसायिक केंद्र। कोई नवाबों का शहर है तो कोई इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों से दर्ज। कुछ अपनी ऐतिहासिक इमारतों के कारण चर्चा में रहते हैं तोर् कई अपने उत्पादन से, कोई रंग से तो कोई धर्म से। सबकी अपनी पहचान और कहानी है। सबकी अपनी पीड़ा। अपने-अपने हिस्से के दु:ख-दर्द के साथ, यकीन मानिए ये भी सिसकते हैं और रात को सोते हैं। इनकी भी मृत्यु सुनिश्चित है, जहां एक सभ्यता दफन होती है।

वैज्ञानिक युग में शहर भी कृत्रिम रूप से पैदा किए जाते हैं। जिनका योजनाबद्ध तरीके से विकास किया जाता है। अच्छी देखभाल की जाती है। उत्तम परवरिश। उत्तर भारत के तीन शहर गुड़गांव, नोएडा और चंडीगढ़ इस वर्ग के बेहतरीन उदाहरण हैं। ये अपने यौवन काल में हैं। अपनी जवानी पर इतराते हैं। सुंदर, विकासशील और महत्वाकांक्षी हैं। तेज रफ्तार से आगे बढ़ना चाहते हैं। बूढ़े शहरों पर हंसते हैं। इन जवान नगरों को देख लोग आकर्षित होते हैं। इनके साथ जीवनभर के लिए बसना चाहते हैं। ये शहर एक ऐसे दौर में हैं, जहां जोश है, सपने हैं, विकास है, जीवन का सौंदर्य है, यौवन है। वही सब कुछ तो है जो एक जवान के पास होता है वही सब तो यह करते हैं जो एक नवयुवक करता है। नया अभिमान, नई अभिलाषा, नये ख्वाब, नई मंजिलें और रोज नया प्रेम। मगर फिर गरूर में जवान के भटक जाने का खतरा मंडराता रहता है। ये पुरानी पीढ़ी से सबक नहीं लेते। बड़ों की बात नहीं मानते और इसीलिए इतिहास दोहराते हैं। घर का माहौल, समाज की हवा प्रभावित करती है। संगत का असर तो होता ही है। और ठीक इसी तरह गुड़गांव व नोएडा दोनों दिल्ली के अच्छे-बुरे के भागीदार हैं। नोएडा की अपनी राजनैतिक जटिलता से उत्पन्न परेशानियां हैं तो गुड़गांव की अति व्यावसायिक सोच। और फिर वट वृक्ष दिल्ली का असर, ठीक उसी तरह से पड़ता है जिस तरह किसी परिवार के महान चर्चित बुजुर्ग का आने वाली पीढ़ियों पर पड़ता है। चंडीगढ़ इस मामले में थोड़ा भिन्न है। फिर हिमाचल के नजदीक होने से ठंडी हवा के झोंके आते रहते हैं। दो राज्य का मुख्यालय होने के अपने फायदे हैं तो नुकसान भी। शहर जवान है तो आधुनिक होगा ही। तीव्रता से फैल भी रहा है। गति तेज है तो दुर्घटना की संभावनाओं से इंकार कैसे किया जा सकता है। चोट लगने का भय है, टांग टूटने का डर है मगर उसे होश कहां। जवान शहरो, सावधान! कहीं तुम्हारा भी वही हश्र न हो जो किसी रईस के बिगड़े हुए बेटे का होता है। समय का चक्र किसी को नहीं छोड़ता।

रचनाकार संपर्क - मनोज सिंह

425/3, सेक्टर 30-ए, चंडीगढ़

http://www.manojsingh.com

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रचनाकार: मैं एक जिंदा शहर हूं
मैं एक जिंदा शहर हूं
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2007/05/living-city.html
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