धोडिया जाति, बोली और संस्कृति

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- डॉ.उत्तम पटेल दक्षिणी गुजरात के वलसाड जिले के वलसाड, धरमपुर एवम् पारडी तालुकाओं में धोडिया जाति की आबादी विपुल मात्रा में है। जबकि कप...


- डॉ.उत्तम पटेल

दक्षिणी गुजरात के वलसाड जिले के वलसाड, धरमपुर एवम् पारडी तालुकाओं में धोडिया जाति की आबादी विपुल मात्रा में है। जबकि कपराडा तहसील में कम एवम् उंमरगाँव तहसील में बहुत कम है। नवसारी जिले के चीखली तालुका में सबसे अधिक जबकि वांसदा में मध्यम मात्रा में , तो नवसारी एवम् गणदेवी में कम मात्रा में हैं। सूरत जिले के महुवा तालुका में सबसे अधिक, चोर्यासी में मध्यम तथा बारडोली, कामरेज, व्यारा, वालोड में कम तो ओलपाड, पलसाणा, मांडवी, उच्छल, मांगरोळ एवम् सोनगढ़ में कम है। जबकि निझर में सबसे कम आबादी है। इन के अतिरिक्त डांग, अहमदाबाद, वडोदरा, भरुच, पंचमहाल, मेहसाणा, कच्छ एवम् खेडा जिलों में इस जाति के लोग रहते हैं। गुजरात के खेडा जिले में इनकी संख्या सबसे कम है। गुजरात के अतिरिक्त दादरा नगरहवेली, सेलवास केन्द्र शासित प्रदेशों में तथा महाराष्ट्र में भी इस जाति के लोंगो की संख्या विपुल मात्रा में है। आदिवासियों में शिक्षा का सबसे अधिक फैलाव इस जाति में हुआ है। इस जाति के लोग अच्छे किसान हैं तथा आर्थिक दृष्टि से अन्य जातियों से अधिक विकसित हैं।

धोडिया जाति की उत्पत्ति को लेकर मतभेद हैं। कुछ इन्हें यदु कुल के तो कुछ द्रविड़ जाति के मानते हैं। तो कुछ इन्हें दक्षिण से आये हुए कहते हैं।

एक मान्यतानुसार लगभग डेढ़ हजार सालों पहले धनसिंह एवम् रूपसिंह नाम के राजपूत राजकुमार सौराष्ट्र, मेवाड़ या मालवा से धूळिया की ओर आये थे। वहाँ धनसिंह ने झीणी नामक नायका जाति की एक सुंदर युवती के साथ और रूपसिंह ने उसकी सखी छनी के साथ शादी की थी। बाद में ये दक्षिणी गुजरात में आकर बसे थे। इस प्रकार इस जाति के लोग धूळिया से आये होने के कारण इन्हें धोडिया कहते हैं।

एक मान्यता ऐसी भी है कि धंधुका या धोळका के दो राजपूत सरदार- धनसिंह और रूपसिंह एक बड़े समूह के साथ सालों पूर्व महा अकाल के समय घर छोड़कर आजीविका एवम् खुराक की खोज में नर्मदा नदी के दक्षिण से होकर तापी नदी (सुरत जिला) की ओर मैदानी प्रदेश में आकर रहे। उस वक्त उनके सात दुबला, नायका आदि जाति के लोग भी साथ में आये थे। धनसिंह-रूपसिंह की पहचान राजपूत गरासिया के रूप में होती थी। उन राजपूत सरदारों ने शादी के समय नायका लोगों की काली गांठी (काले मनकों की माला) के बीच में सफेद गरासला (एक प्रकार का मनका) पिरोकर काली गांठी (अर्थात् मंगलसूत्र) बाँधकर नायका जाति की सुंदरियों के साथ शादी करके संबंध स्थापित किए थे। उनके जो वंशज हुए उन्हें धनसिंह के नाम पर से या धनसिंह के नाम के पहले वर्ण पर से धोडिया कहा गया।

यहाँ एक बात विशेष रूप से बताना जरूरी लगता है कि संपूर्ण धोडिया समाज में मरणोत्तर क्रियाओं की हरेक विधियों में खत्राओं (मृत व्यक्तियों कों लकड़ी की मूर्ति बनाकर स्थापित करना) के रूप में, पूर्वजों की याद में दूध, ताड़ी या दारू की बूंदें गिरायी जाती हैं। तब प्रथम यही धना खतरी - रूपा खतरी के बाद अन्य पूर्वजों की मृत्यु हुई हो, उनका उल्लेख करने के बाद ही जिसकी मरणोत्तर क्रिया हो रही हो उसका स्मरण करके दूध, ताड़ी या दारू की बूँदें उनकी मूर्ति के सामने गिरायी जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि धनसिंह और रूपसिंह ही इस समाज के पूर्वज थे, जिनसे धोडिया समाज की उत्पत्ति हुई , ऐसा माना जाता है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार इस समाज का अनादि काल से धान एवम् रूपा अर्थात् लक्ष्मी के साथ संबंध था। काल के प्रवाह के साथ धान-रूपा शब्द धना-रूपा हो गए। धना शब्द के वर्ण से ये ढोडिया या धोडिया कहलाये।

धोडिया जाति के लोग क्षत्रिय राजपूत गरासिया के वंशज होने के कारण अपने को भील, चौधरी, नायका, कुकणा, वारली आदि अन्य आदिवासियों से उच्च मानते हैं और उनके साथ रोटी और बेटी का व्यवहार नहीं करते थे। चौधरी के अतिरिक्त सभी जाति के लोग इनके हाथों पकाया गया खाना खाते थे। वैसे आज-कल तो इन आदिवासियों के बीच शादी-विवाह के संबंध भी हो रहे हैं। इस जाति की कोई भी उपजाति नहीं है, किन्तु कुल हैं। एक ही कुल में शादी का निषेध है। इस जाति के ब्राह्मणिया, ब्राह्मणकाछ, जोषी, प्रभु, देसाई, वाणिया, दळवी, गरासिया, कणबी, भोय, बारभाई, डेलकर, नायक, धनुरधारी, हाथिया, प्रधान, मेहता, पंडया आदि कुल-नामों से प्रतीत होता है कि उच्च जाति के लोगों के साथ इनका रोटी-बेटी का संबंध अवश्य रहा होगा।

इनकी बोली को धोडिया बोली कहते हैं। इस बोली का प्रयोग गुजरात में मुख्य रूप से तापी (सुरत) से वापी (वलसाड) के विस्तार में कम घने जंगल, पहाड़ एवम् समतल विस्तार में रहनेवाले धोडिया जाति के लोंगो के अतिरिक्त नायका नामक आदिवासी भी करते थे और कर रहे हैं। आजकल तो आजीविका के लिए शहर में बसे इस जाति के लोंगों के कारण वहाँ भी इसका प्रयोग सुनने को मिलता है। डॉ. ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टीक सर्वे ऑफ इंडिया -9 (खंड-4, पृ.178) में इसे भीली बोली की अनेक शाखाओं में से एक शाखा की बोली कहा है।

धोडिया बोली का वर्तमान स्वरूप गुजराती -मराठी का मिश्रित रूप है। इसमें कुछ शब्द अनार्य भी हैं। इसके आधार पर इसका मूल रूप मुण्डा भाषा के अंतर्गत का प्रतीत होता है। जबकि इसका वर्तमान रूप आर्य भाषा का है। इस दृष्टि से यह बोली आर्य शाखा की ही एक बोली है। इसकी अपनी लिपि नहीं है। यह कैथी से मिलती-जुलती लिपि में लिखी जाती है। जिसका प्रयोग गुजराती के लिए होता है। यह देवनागरी के अत्यधिक समीप है। इसमें शिरोरेखा नहीं लगती। इस बोली का प्रयोग मात्र मौखिक रूप में होता है। प्रस्तुत है इस बोली का एक लोक गीत:

आयका आयका माणा भाह खंधाडीया रखे जा जा रा...

अरे पैणु लाग न पोही मेळे ते कुंवारा मरी जा जा रा...

वाटे घाटे जो भी मीळे ते बधा खंधाडीया आखे रा...

त्यारे ते माणो जीव अहो ते ईमींज मारी लाखे रा...

आबरू पाणीमां रोळाय, खंधाडीया रखे जा जा रा...

आयते मोटें कांय नाय एरे ने बधे खंधाडीया आखे रा...

पे ले कूकडे वाहे उठाडे लाज सरम नाय मीळे रा...

हो आखा जीवतर धूळ वी जाय, खंधाडीया रखे जा जा रा...

आजकालनो ओहो जमानो कूणी नाय काणा जाणे रा...

काम करी पैहा में लावे ने बधेंज आखे माणे रा...

पेटभर खाम्ना जडे नाय, खंधाडीया रखे जा जा रा...

आजकालनी ओही डोहाडी नाय आयके काणां रा...

तबीयत हाजी माठी वीते मुई भी नाय एरे ताणां रा...

डोहाडी करीने पस्ताय खंधाडीयो रखे जा जा रा...

आयका ....

अनुवाद-सुनो, सुनो मेरे भाई, घरजमाई मत बनना रे। यदि शादी के लिए लड़की न मिले तो कँवारे मर जाना किन्तु घरजमाई मत बनना रे। (क्योंकि) आते-जाते जो भी मिलता है वह (मुझे ) घरजमाई कहता है। तब तो मेरा जी यों ही मर जाता है। इज्जत-आबरू पानी में मिल जाती है (इस लिए हे भाई ,) घरजमाई मत बनना रे। छोटे-बड़े ओर कुछ (भी) नहीं देखते (और) सभी ( मुझे ) घरजमाई कहते हैं। (ससुरालवाले ) मूर्गे की पहली बाँग पर ही मुझे जगाते हैं। किसीको ऐसा करते लाज-शरम नहीं आती। सारा जीवन निकम्मा हो जाता है ( इसलिए हे भाई ) घरजमाई मत बनना रे। आज-कल का जमाना ऐसा है कि कोई किसीका नहीं देखते। मजदूरी करके पैसे मैं कमाता हूँ फिर भी (ससुरालवाले ) मुझे ही ताना मारते हैं। भर पेट खाना ( भी ) नहीं मिलता रे। (इसलिए हे भाई ) घरजमाई मत बनना रे। आज-कल की स्त्रियाँ आपका कुछ भी नहीं सुनतीं ( कहे में नहीं रहतीं ) रे। सेहत अच्छी नहीं होने पर भी वह ध्यान नहीं देती। पत्नी लाने पर पछताना पड़ता है ( इसलिए हे भाई ) घरजमाई मत बनना रे।

विशेषताएँ- 1. आदिवासियों में एक परंपरा है कि संतान के रूप में जिनके यहाँ सिर्फ बेटियाँ हो, वे अपनी वंश-परंपरा आगे बढाने, खेती-बाड़ी को संभालने एवम् उन्हें बुढापे में कोई सहारा मिला रहे, हेतु अपनी बेटियों में से किसी एक या अधिकतर छोटी बेटी के लिए घरजमाई लाते हैं। अर्थात् किसी ऐसे लड़के का चुनाव बेटी के पति के रूप में करते हैं जो ससुराल में रहने को तैयार हो। उसे खंधाडीयो कहा जाता है। तिरस्कार में उसे खंधाड भी कहते हैं।

2. प्रस्तुत गीत में ऐसे ही एक नवयुवा की व्यथा-कथा वर्णित है जो अभी-अभी घरजमाई बना है। घरजमाई के रूप में उसके अनुभव दुखद व अपमानजनक रहे हैं, अत: वह अपने घर (पीहर) आता है तब मुहल्ले के अपने नवयुवाओं के द्वारा यह पूछे जाने पर कि ससुराल में दिन कैसे बीत रहे हैं। तब वह अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए कहता है- हे मेरे भाई, चाहे लड़की न मिले तो कँवारे मर जाना किन्तु कभी भी घरजमाई मत बनना। क्योंकि घरजमाई का कोई भी मान नहीं होता। लोग उसे हमेशा तिरस्कार की नजरों से देखते हैं। छोटे-बड़े कोई भी उसका सम्मान नहीं करते। सास-ससुर उसे गुलाम समझते हैं। उसकी पत्नी भी उसे मान की नज़र से नहीं देखती। उसकी दशा तो ससुराल जानेवाली लड़की से भी खराब होती है। ससुराल में वह चाहे कितने ही अच्छे काम क्यों न करे, उसे ताने ही सुनने को मिलेंगे। घरजमाई होने का मतलब है शादी करके बरबाद होना। इसलिए वह कहता है कि किसी भी हाल में घरजमाई मत बनना...

3. यहाँ के आदिवासियों में यह परंपरा आज भी जीवित है। आज भी कुछ लड़के घरजमाई के रूप में जाना पसंद करते हैं। कुछ समझदार माँ-बाप बेटे न होने पर भी बेटियों की शादी कर देते हैं। और बेटियाँ मृत्यु तक उनकी तीमारदारी ससुराल में रहकर भी करती रहती हैं।

4. घर जमाई न लाना पड़े इसलिए ही पति-पत्नी की एक महती इच्छा होती है कि उनका भी कम से कम एक बेटा हो। इसलिए बेटे की आशा में संतानों की संख्या भी बढ़ती ही जाती है। जहाँ तक बेटा नहीं होगा, वे बच्चे पैदा करते रहेंगे। अगर पत्नी बेटियाँ ही जनती रहेगी तो पुरुष दूसरी शादी करेगा। ताकि पुत्र-प्राप्ति की उसकी कामना पूर्ण हो। बहु-पत्नीत्व के मूल में पुत्र-प्राप्ति मुख्य कारण होता है। जिसके कारण परिवार टूटते हैं।

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रचनाकार संपर्क : डॉ.उत्तम पटेल, 14-बी, अवधूतनगर, नगारिया, धरमपुर, जि.वलसाड-396 050 (गुजरात)

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चिट्ठाजगत् चिप्पियाँ: आलेख , धोडिया जाति , उत्तम पटेल , hindi article , Dhodia

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. पूरे देश से विविधता की ऐसी जानकारी आनी चाहिए.

    अतुल

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  2. बेनामी9:50 pm

    bahot sundar lekh h

    जवाब देंहटाएं
  3. बेनामी10:14 pm

    Dodia also know as Dhodi
    Dodia rajputs in M.p and Rajsthan are migrate from Sourastra Doudzai A Pashutn tribe Live in Multan Pakistan their Decedwnts know as Dhodia Dodia Dhodi in South Gujarat
    Some Dodia Rajputs are Rulers Like Piploda Dyansty
    Dodia also know as Patels Dhodia mix with Other Tribals however Dodia look like as Rajputs

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रचनाकार: धोडिया जाति, बोली और संस्कृति
धोडिया जाति, बोली और संस्कृति
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