संप्रति अपौरुषेय

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कहानी -शैलेन्द्र चौहान विधुरचंद का बड़ा भयंकर दबदबा था । क्या किसी सामंत या आला हाकिम का खौफ होगा इतना उन दिनों, जब देश को आजाद हुए दशको...

कहानी

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-शैलेन्द्र चौहान

विधुरचंद का बड़ा भयंकर दबदबा था । क्या किसी सामंत या आला हाकिम का खौफ होगा इतना उन दिनों, जब देश को आजाद हुए दशकों बीत गए हों और सरकारी नौकरियों में कर्मचारी पेंशन भोगी हो चुके हों काम के बदले चाटुकारिता और सुविधा शुल्क, जब देश का चरित्र बन चुका हो और भ्रष्टाचार सहज कर्तव्य राजनीतिक भ्रष्टाचार का तो कोई ओर छोर ही न रहा हो और जनता मजबूरन उसे एक रूटीन मान्यता भी दे चुकी हो तब आप कल्पना कीजिए कि राष्ट्र के बेहतरीन युवा इंजीनियर विधुरचंद के आतंक के कारण, बगैर कोई आवाज किए दबे पाँव ऑफिस में घुसते हों और बेवजह घंटों डांट खाते हों, भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हों और सर झुकाए खड़े रहते हों विधुरचंद भारत सरकार के एक ऊर्जा उपक्रम के प्रबंधक थे। नया-नया पी एस यू था तब तक वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की हवा बहने का कोई अंदेशा तक नहीं था ।

आपात्काल हाल ही में खत्म हुआ था । रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में विधुरचंद ने डिग्री हासिल की थी द्वितीय श्रेणी में पास हुए थे। नौकरी मिलना आसान नहीं था । इधर उधर भटकने के बाद एक प्रायवेट फर्म में जो बिल्डिंग कंन्सट्रक्शन का काम करती थी वे बहुत कम तनख्वाह पर लगे थे। फिर दो तीन और प्राइवेट कंपनियों में ठिब्बे खाने के बाद लीबिया के लिए वान्ट्स निकली जिसमें उन्हें मौका मिल गया सो वे चले गए उनका दो वर्ष का कान्ट्रेक्ट था ।लौटकर आए तो बिल्ली के भाग से छींका टूटा वह एसू में सहायक अभियंता (सिविल) नियुक्त हो गए …।

विधुरचंद की यहाँ पौ बारह थी सिविल इंजीनियर थे ही, प्राइवेट कंपनियों में काम भी करा चुके थे, सो ईंट, रेत, सीमेंट, लोहे का अनुपात अच्छी तरह समझते थे। ऊपर से लीबिया में रहकर कमाई कर आए थे तो पैसा बनाने की उनमें खासी ललक थी फिर यहाँ अच्छा मौका भी मिल गया था । जब पैसा बन रहा हो तो और भी शौक अनायास ही रास आने लगते हैं । गुणी ठेकेदारों की आनांददायी सोहबत और दिल्ली की चमक-दमक, विधुरचंद अब आसमान में कुलाचें भरने लगे पश्चिमप्रेरित आधुनिकता, विचारों की स्वतंत्रता, अराजकता और यौवन की मदहोशी, विधुरचंद के जीवन मूल्य बन चुके थे। उनमें एक अनचाहा दर्प प्रवेश कर गया था । दिन में दफ्तर और साइट पर वह लोगों को उपकृत करते, उन्हें डांटते फटकारते इस सब से विधुरचंद को बड़ी तुष्टि मिलती वह सोचते कि वे लोगों से अलग हैं, उनसे ऊपर हैं शाम को वह कनाट प्लेस की रंगीनियों में खो जाते रात होते न होते ठेकेदारों के सौजन्य से मदिरा पान की व्यवस्था होती उन्हें लगने लगा जीवन जीने की यह बेहतरीन शैली है । जीवन का भरपूर आनंद अब ले लेना चाहिए। उनके कदम यौवन की रंगीनियों की तलाश में मुड़ चले यूँ इस मामले में वह बचपन से ही उस्ताद थे। विवाहित महिलाओं से मित्रता रखना उनका विशेष शौक था । एक बार एक क्लर्क के घर पकड़े जाने पर पिटे भी मगर यह सब करने के लिए इतनी रिस्क तो लेनी ही पड़ती है, ऐसी उनकी मान्यता थी।

विधुरचंद को नौकरी करते हुए करीबन सात वर्ष हो चुके थे। तीन वर्ष देश की प्राइवेट कंपनियों में, दो लीबिया में और अब दो वर्ष यहाँ भी हो चुके थे । उम्र तीस के पास पहुँचने को थी एक दिन पिता ने अचानक उन्हें घर बुला भेजा पिता से विधुरचंद बहुत डरते थे, तत्काल छुट्टी लेकर घर पहुँचे पिता बहुत क्रोधी स्वभाव के थे। पिता के क्रोधी होने के कारण ही प्रतिक्रिया स्वरूप विधुरचंद के जीवन में अराजकता भी पनपी थी फिर भी वह पिता की बात मानते थे। पिता ने घर बुलाने का कारण बताते हुए कहा, मैंने तुम्हारे लिए एक लड़की देख ली है, इसी वर्ष विवाह होना है विधुरचंद एकाएक इस स्थिति से दो चार होने को तैयार नहीं थे। उनकी अपनी कल्पनाएं थीं, सुंदर पढ़ी-लिखी उच्च अधिकारी की लड़की, दहेज में स्कूटर, मोटर-गाड़ी और भी बहुत कुछ उन्हें पिता का निर्णय बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, यह बात माँ भी जानती थीं माँ ने पिता को समझाने की कोशिश की, नोंकझोंक भी हुई, पर पिता जिद के पक्के थे। उन्होंने किसी की कोई बात नहीं सुनी और एक व्यवसायी की कन्या से विधुरचंद का विवाह तय हो गया विधुरचंद पिता की बात नहीं टाल सकते थे, उन्होंने परिस्थितियों से समझौता कर लिया विवाह खूब धूमधाम से हुआ पत्नी देखने में सामान्य मगर पढ़ी-लिखी थी समय बीतने लगा उनकी साइट का काम भी खत्म होने को था । इधर पुराने बॉस का तबादला हो गया और नए एक्स ई एन उनके बॉस हो गए।

मैटेरियल रिकौंसिलेशन शुरू हो गया था । फरवरी का महीना था । विधुरचंद को अजीब सी बेचैनी महसूस होती अक्सर वह मित्रों के साथ बैठकर मदिरा पान करते रहते शाम को अकेले ही कनाट प्लेस घूमने चल देते, मिन्टो ब्रिज होकर रात देर से घर लौटते उनका यह नित्य का रूटीन बन गया किसी भी भारतीय भावुक पत्नी को यह सब अच्छा नहीं लग सकता उनकी पत्नी भी परेशान रहतीं, अन्दर ही अन्दर घुटतीं, रोतीं विधुरचंद से शिकायत करतीं, समझाने की कोशिश करती विधुरचंद पर कोई फर्क नहीं पड़ता, उनका एक ही जवाब रहता, तुम व्यर्थ ही परेशान होती हो, जमाना बदल रहा है, अपने को हर हाल में खुश रखना सीखो जब कोई अपनी मनमानी पर उतर आए तो दूसरे व्यक्ति से उसके मतभेद बढ़ने लगते हैं पति-पत्नी में नोंकझोंक, कहा सुनी की नौबत आ जाती है। विधुरचंद के साथ भी यही हुआ, लड़ाई-झगड़ा उनके पारिवारिक जीवन का नियमित अंग बनने लगा इधर विधुरचंद द्वारा कराए गए काम को लेकर नए एक्स.इएन. असंतुष्ट थे। मैटेरियल रिकौंसिलेशन की गति से वह प्रसन्न नहीं थे। ठेकेदारों से विधुरचंद के गहरे संबंधों की सूचनाएँ भी एक्स ईएन को अपने अन्य मातहतों से मिल चुकी थीं इसी के चलते विधुरचंद को उन्होंने टाईट करना शुरू किया बात-बात पर दफ्तर में बुलाकर फटकारते, चाहते कि विधुरचंद टूट जाएँ और अपनी तमाम गलतियाँ स्वीकार कर लें विधुरचंद को यह मंजूर नहीं था । उन्होंने परोक्ष रूप से एक्स ईएन पर आक्षेप लगाए कि वह अपनी जेब गरम करना चाहते हैं अब घर और दफ्तर दोनों मोर्चों पर विधुरचंद ने जंग छेड़ दी थी वह और अधिक शराब पीते, अधिक देर से घर पहुँचते आवारागर्दी करते अपने किसी काम में रुचि न लेते इसका अपेक्षित परिणाम हुआ उन्हें मेमो इश्यू हुए, उनके काम पर इन्क्वायरी बैठ गई, उन्हें और आगे काम नहीं दिया गया उनके मातहतों को अधिक तवज्जो दी जाने लगी उनका बकाया काम, दूसरे सबडिवीजन के सहायक अभियंता को दे दिया गया स्टोर्स और मैटेरियल को लेकर दिनभर वह परेशान रहते, रात को गृहयुद्ध होता इस तरह पूरा एक वर्ष बीत गया अन्तत: उनकी सर्विस बुक में उनके खिलाफ गंभीर एंट्रीज हुई कांफिडेन्शियल रिपोर्ट भी खराब हो गई उन्हें दूसरे सब डिवीजन में अटैच कर दिया गया लेकिन सुधरने के बजाय बिगड़ना ही विधुरचंद को अधिक रास आया पत्नी की परवाह किए बगैर वह रंगरेलियों में पूरी तरह मस्त हो गए।

झगड़ा दिनोंदिन बढ़ता गया पत्नी उन्हें रोकती, वह नहीं मानते मारपीट होती, गाली गलौच, पत्नी को नीचा दिखाने का वह हर संभव प्रयास करते आखिर बात ससुराल तक पहुँच गई समझाने के सारे प्रयास व्यर्थ गए। ससुराल वाले बहुत दुखी थे, पत्नी अब महीनों वहीं पड़ी रहतीं कभी-कभार ससुराल जातीं तो वहाँ दूसरी परेशानियाँ होती उनके विवाह को दो वर्ष से अधिक बीत गए थे। विधुरचंद के घरवालों की अपेक्षा थी कि घर में कोई नन्हा मुन्ना आए। लेकिन यह भी नहीं हो पा रहा था, कारण घरवाले नहीं समझ पा रहे थे। उधर विधुरचंद नौकरी से असंतुष्ट हो गए थे। वह वहाँ ठीक से चल नहीं पा रहे थे। जहाँ भी रिक्तियाँ देखते, प्रार्थना पत्र भेज देते, पर कहीं से कोई बुलावा नहीं आता कभी एक आध बार बुलावा आया तो इन्टरव्यू में अटक गए। तकनीकी पक्ष में तो पहले से ही कमजोर थे, फिर पारिवारिक क्लेश और नौकरी के दबाव ने उन्हें बिल्कुल तोड़ के रख दिया था । संयोग से उन्हीं दिनों विद्युत ऊर्जा का नया निगम बना था । वहाँ सिविल इंजीनियर की रिक्तियाँ निकलीं, यहाँ उन्हें कुछ उम्मीद बँधी क्योंकि जगहें बहुत थीं इन्टरव्यू हुआ, अच्छा नहीं रहा, वह पूर्ववत निराश हो गए। कुछ समय बाद अचानक जब ऑफर मिला तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ परन्तु यह उतना आश्चर्यजनक नहीं था ।क्योंकि नये निगम को अनुभवी व्यक्तियों की आवश्यकता थी इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड,प्रायवेट कंपनियों के अनुभवी तथा अन्य निगमों के इंजीनियर उनकी आवश्यकता के अनुरूप थे। उनके अपने नए शिक्षणार्थियों की जेनरेशन अभी वहाँ तैयार होने को थी।

विधुरचंद दिल्ली में ही रहना चाहते थे, उन्हें दिल्ली में ही पोस्टिंग मिल भी गई शुरू शुरू में तो नई नौकरी, नया ढ़ंग, नया माहौल उन्हें अच्छा लगा पर यह नौकरी अजीब थी सुबह ठीक साढ़े आठ बजे दफ्तर पहुँचना, शाम साढ़े पाँच बजे छूटना, लेकिन अधिकांश लोग उसके बाद भी सीट से चिपके होते लगता अभी न जाने कितना और काम बाकी है जो पूरा किए बिना वे नहीं उठेंगे छ: साढ़े छ: से पहले वे नहीं उठते विधुरचंद तो एसू में जब चाहे कहीं भी जा सकते थे कोई ओवरटाइम थॊड़े करना था जो देर तक रुके रहते यह तो बाबुओं और लाइनमैनों का कां था । यहाँ सभी इंजीनियर थे, न बाबू, न चपरासी, न ओवरसियर, फिर भी बैठे रहते थे कोई साहब कहने वाला नहीं, एक ही कमरे में कई-कई टेबिलें, विधुरचंद को बहुत अजीब लगता, कभी-कभी वह रुआँसे हो उठते अपनी पुरानी नौकरी से तुलना करते, कहाँ ऐसू का असिस्टेन्ट इंजीनियर, कहाँ ये फटीचर वरिष्ठ अभियंता, गजब का फर्क था दोनों में यहाँ न कोई पावर, न स्टेटस इंजीनियर्स की इतनी मिट्टी तो प्राइवेट कंपनियों में भी खराब नहीं होती विधुरचंद जरा सी जगह में गोदरेज की रिवाल्विंग चेयर पर बैठते, क्लर्क वाला काम करते हाँ यह गोदरेज वाली कुर्सी जरूर नहीं थी एसू में फिर भी वहाँ अच्छा खासा रुतबा रहता था । बैठे रहने की इतनी आदत उन्हें थी नहीं, चैन नहीं पड़ता, पर नौकरी तो करनी थी।

पत्नी को मायके वाले ले गए थे सारे सुलह समझौते के प्रयत्न विफल हो जाने पर ऐसा करना उनकी मजबूरी थी विधुरचंद अब अकेले थे, उन्हें अकेले ही रहने में मजा भी आता था । वह प्रसन्न थे, एक भारी आफत से पीछा छूट गया था । धीरे-धीरे ससुराल पक्ष और घर वालों को भी यह पता चल गया कि विधुरचंद अपना वंश चला पाने में अक्षम थे, इसमें उनकी पत्नी का कोई दोष नहीं था ।इसके लिए तमाम डाक्टरी टेस्ट कराए जा चुके थे समय बीतते देर नहीं लगती, नई नौकरी में तीन वर्ष बीत गए। अब प्रमोशन की बात थी, यहाँ हर तीन वर्षों में प्रमोशन होता था । प्रमोशन पाने के लिए सब जी जान से मेहनत करते बॉस की जबान से निकली हर बात का पालन करना, यस सर-यस सर की रट लगाना, बुलावा आने पर दौड़ कर जाना विधुरचंद सोचते, इस नौकरी से तो पान की दुकान लगाना कहीं अच्छा है लेकिन धीरे-धीरे वह भी इस दौड़ में शामिल होते गए। वह देखते, यहाँ बड़े अधिकारी एकाएक दबाव सृजित करते हैं, बेमतलब उस बात के पीछे आठ-दस इंजीनियर दौड़ पड़ते हैं एक छोटा सा काम, जिसे बहुत आसानी से भी किया जा सकता था, उसके पीछे अच्छी खासी घुड़-दौड़ होती बेचारे इंजीनियर ! हर कोई अपने साथी से आगे निकलना चाहता है, ऊपर वाले इस घुड़-दौड़ का मजे से आनंद लेते यहाँ के आला अफसरान अच्छे नौटंकिया हैं, घर पर आराम और चमक-दमक का जीवन जीते हैं पर ऑफिस में बैठते ही उनमें चाबी भर जाती है। बीच के अफसर, प्रबंधक उनके पक्के चमचे बने रहते हैं लगता है इनसे ज्यादा मेहनती, गंभीर, और निगम का भला चाहने वाला और कोई नहीं है।, हर जगह दौहरे मानदण्ड विधुरचंद की भी कोशिश इस घुड़-दौड़ में शामिल होने की थी, उन्हें भी प्रमोशन की चिन्ता सताने लगी पुरानी नौकरी में तो सीनियरिटी के आधार पर तरक्की होती थी, समय भी काफी लगता था । वहाँ के स्टेटस की याद करने पर विधुरचंद के मन में एक कसक उठती ।

सी पी सी का समय भी आया सबको अपने-अपने प्रमोशन का इंतजार था । विधुरचंद अब काफी गंभीर हो गए थे सोच रहे थे कि अब उप प्रबंधक हो जाएँगे, शायद कुछ पावर भी बढ़े सी पी सी का रिजल्ट आने में देर हो रही थी, अटकलें लगाई जा रही थीं, किसका प्रमोशन होगा, किसका नहीं ऐसे में शुक्रवार की शाम छ: बजे लिस्ट निकली पर्सनल डिपार्टमेन्ट के अलावा बाकी लोगों को भनक भी नहीं लग पाई इक्का-दुक्का जो लोग वहाँ बचे, उन्होंने लिस्ट देखी विधुरचंद उस दिन संयोग से देर तक कुर्सी पर बैठे थे वह कुर्सी से उठने के बाद जाने क्यों पर्सनल डिपार्टमेन्ट की तरफ से गुजरे वहाँ कुछ लोग इकट्ठा थे, लिस्ट देख रहे थे उनकी भी उत्सुकता जागी, नोटिस बोर्ड की तरफ बढ़े, वह कुछ नर्वस थे उन्होंने लिस्ट पर जल्दी से नजर घुमाई पूरी लिस्ट एक बार देखने के बाद उन्होंने दुबारा फिर ध्यान से देखा वहाँ खड़े लोगों से एक बार पूछ भी लिया अपना नाम न पाकर वह विव्हल हो उठे अब वहाँ और ठहर पाना उनके वश में नहीं था । वह एकांत में बैठकर रो लेना चाहते थे सीधे घर पहुँचे बोतल में थोड़ी व्हिस्की बची पड़ी थी, वह हलक से नीचे उतारी, फिर आंय-बांय बकने लगे टेबिल पर पड़ा अखबार जमीन पर फेंका और बिस्तर पर गिर पड़े उन्हें बहुत बुरा लग रहा था, जीवन के सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर वह असफल महसूस कर रहे थे उन्होंने तकिया उठाकर सीने से भींच लिया, सिसकने लगे और अन्तत: सो गए।

सुबह आँख खुलने पर विधुरचंद को बहुत खाली-खाली और लुटा-पिटा सा महसूस हो रहा था । ऐसे में पहली बार उन्हें अपनी पत्नी की याद आई सोचा छुट्टी लेकर पहले घर चले जाएँगे, उसके बाद ससुराल जाकर पत्नी को ले आने की कोशिश करेंगे अगले रोज ऑफिस पहुँच कर उन्होंने देखा, जो पदोन्नत हो गए थे, लोग उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे उन्हें देखकर लोगों ने औपचारिकतावश हार्ड लक कहा वह चुपचाप बॉस के केबिन की तरफ बढ़ गए। वह किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए इस माहौल से दूर जाना चाहते थे वह छुट्टी का कार्ड लेकर बॉस के केबिन में घुसे उनकी बात सुनकर बॉस बोले, आय कैन अन्डरस्टैंड योर कंडीशन, बट ऐसे निराश होने से काम नहीं चलेगा अभी यहाँ बहुत काम बाकी है, अभी छुट्टी मत लो ।

विधुरचंद अपनी बात पर डटे रहे बोले, मेरा लीव पर जाना जरूरी है सर, प्लीज आप एक सप्ताह की छुट्टी सेंक्शन कर दीजिए ।

बॉस ने कहा, अच्छा देखेंगें, अभी रुको अपना कार्ड ले जाओ ।

विधुरचंद वहाँ से उठ आए, आकर अपनी सीट पर बैठ गए। ड्राअर से कागज निकालते, देखते, रख देते काम करने में उनका जरा भी मन नहीं लग रहा था । ऐसे ही एक हफ्ता गुजर गया लेकिन उन्हें छट्टी नहीं मिल पाई अब उनका धैर्य चुक गया था । सोचा, सीधी तरह काम नहीं चलेगा, अब बॉस को हिन्दी में समझाना होगा आज वह यह तय करके ऑफिस आए थे कि छुट्टी सेंक्शन करा कर ही रहेंगे आते ही लीव कार्ड निकाल कर वह बॉस के केबिन में घुसे, पता चला कि बॉस टूर पर चले गए हैं महीने में बीस दिन बॉस टूर पर ही रहते थे बॉस ही क्या, इस निगम के अधिकांश अफसर अक्सर टूर पर ही रहते थे वह झुंझला गए, उन्हें एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा था । दफ्तर से निकल सीधे कनाट प्लेस जाते, वहाँ बेमतलब टहलते रहते देर रात लौटते, खूब शराब पीते और लुढ़क जाते । बॉस ने टूर से लौट कर उनकी छुट्टी सेंक्शन कर दी कमरे पर आते ही उन्होंने सामान पैक किया और उसी रात घर रवाना हो गए।

चार-पाँच दिन घर पर रहे, फिर ससुराल चल दिए। हाँलाकि बाप ने बहुत मना किया, इतने दिनों बाद जाकर क्या करोगे, चार वर्ष हो रहे हैं, अब तक उस लड़की की दूसरी शादी हो गई होगी पर विधुरचंद का मन इस बात को नहीं मान रहा था । वह एक बार जाकर देख लेना चहते थे अत: वह ससुराल पहुँच गए। उन्हें देखकर ससुराल में सब चकित हुए पर साफ नजर आ रहा था कि उनका आना किसी को अच्छा नहीं लगा । सभी उनसे कन्नी काट रहे थे उन्होंने पत्नी से मिलने की इच्छा जाहिर की, लेकिन पत्नी ने मिलने से इन्कार कर दिया वह अपमानित हुए, खिसिया कर तलाक की धमकी दी ससुराल वालों ने कहा, यही ठीक होगा । अपना सा मुँह लेकर वह वापस घर लौट आए माँ ने कहा, वह औरत बड़ी दुष्ट है, तू लेने गया फिर भी वह नहीं आई आखिर विधुरचंद अकेले वापस दिल्ली लौट आए समय गुजरने लगा अपनी रफ्तार से, विधुरचंद पुन: आवारागर्दी में रंग गए। एक वर्ष बाद वह पदोन्नत भी हो गए। बाप, बहन, बहनोई अभी भी विधुरचंद के गृहस्थ जीवन के लिए चिन्तित थे उन्होंने एक युक्ति सोची एक और लड़की का जीवन बरबाद करने से अच्छा यह रहेगा कि विधुरचंद का विवाह किसी परित्यक्ता या विधवा से करा दिया जाए। अगर उसकी अपने पूर्व पति से संतान हो तो और भी अच्छा रहेगा पत्नी और बच्चे, दोनों के साथ विधुरचंद का मन भी लगेगा और उनके रंग-ढ़ंग भी सुधर जाएँ शायद बहनोई की रिश्तेदारी में एक विधवा लड़की थी जिसका एक पुत्र भी था । विवाह के दो वर्ष बाद ही उसके पति की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी बात उस लड़की और उसके घरवालों को तैयार करने की थी जो अधिक मुश्किल नहीं लग रही थी लड़की के ससुराल वालों का रवैया जानना भी जरूरी था । जैसे-तैसे दौड़-भाग कर बहनोई ने सम्बन्ध तय करवा ही दिया एक बार फिर विधुरचंद दूल्हा बने और दुल्हन ले आए। बच्चा कुछ दिनों तक नाना नानी के पास रहा दो चार माह बाद विधुरचंद ने जब अपनी दूसरी पत्नी को आश्वस्त कर दिया कि वह बच्चे की परवरिश असली पिता की तरह करेंगे तब वह बच्चे के साथ ले आई यूँ तो उन्होंने पत्नी को आश्वस्त कर दिया था ।परन्तु बच्चे के आने के बाद वह मन ही मन सोचते कि यह एक जबर्दस्ती की लायबिलिटी ले ली जब व्यक्ति ह्रदय से कोई चीज स्वीकार नहीं कर पाता तो उसकी यह अस्वीकृति लाख नाटक करने के बाद भी झलकने लगती हैं दूसरी बात यह थी कि विधुरचंद ने अपनी जिन्दगी का जो ढ़र्रा बना लिया था, उससे दूर हटना भी मुश्किल ही था । शराब पीना, देर से घर लौटना, आवारागर्दी की बातें करना, उनके नित्य और पसंदीदा शगल थे आठ-नौ घंटे ऑफिस और चार घंटे तफरी के, इस तरह पूरे बारह-तेरह घंटे वह् घर से बाहर रहते घर पर रहने के लिए बस रात बचती थी यहाँ तक कि संडे या कोई अन्य छुट्टी का दिन भी वह बाहर अकेले मौज मस्ती में गुजारते ।

हाँलाकि उनकी दूसरी पत्नी पहली पत्नी से अधिक समझदार, सहनशील और समझौतावादी थीं लेकिन विधुरचंद की न थमने वाली हरकतों ने उनमें भी आक्रोश, असंतोष और विद्रोह पैदा करना शुरू कर दिया था । नतीजा यह रहा कि उनके जीवन में गड़बड़ी फिर शुरू हो गई । दूसरी पत्नी पहली की अपेक्षा तेज और साहसी भी अधिक थीं । उन्होंने विधुरचंद को जवाब उन्हीं की शैली में देना प्रारंभ कर दिया । विधुरचंद तो अक्सर बाहर ही रहते थे उनकी पत्नी को अकेलापन अखरता, वह घर के बाहर खड़ी हो जातीं, अड़ोस पड़ोस से संबंध बनाने की कोशिश करतीं । इसी कोशिश में पड़ोस के एक युवक से मित्रता हो गई । मित्रता अंतरंगता में बदल गई । विधुरचंद को बहुत दिनों तक कुछ पता नहीं चला, और जब चला तो उनके क्रोध की सीमा न रही । उन्हें इस सब की अपनी पत्नी से कतई उम्मीद नहीं थी उन्होंने पत्नी को जबर्दस्ती उसके मायके भेज दिया अब वह दूसरी पत्नी से पीछा छुड़ाना चाहते थे, लेकिन पत्नी उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी । ससुराल पक्ष ने हर्जे का दावा ठोंका बीस-पच्चीस हजार की एकमुश्त माँग की गई पत्नी को मारने-पीटने और तंग करने का आरोप लगाया गया । विधुरचंद को अपना पीछा छुड़ाना बहुत महँगा पड़ रहा था । जैसे- तैसे नगद देकर और हर माह हर्जा खर्चा देने के इकरार के बाद मामला निपटा ।

विधुरचंद पुन: अकेले हो गए थे । दिल्ली में भी उनका मन नहीं लग पा रहा था । प्रमोशन हुए तीन वर्ष हो चुके थे अब अगले प्रमोशन की प्रतीक्षा थी । अब विधुरचंद नौकरी के उस गुरूमंत्र को प्राप्त कर चुके थे जिसका प्रयोग अँग्रेज अफसरों के जमाने से भारतीय कारकून और कारिन्दे करते चले आ रहे थे । सर-सर कहते उनकी जबान नहीं रुकती थी, बॉस की हर बात का उत्तर यस सर ही होता ऑफिस के बाहर बॉस के व्यक्तिगत काम विधुरचंद की डायरी में नोट होते । अच्छे नौकर की यही पहचान है कि वह अपना अहम्, पहचान और विवेक सब छोड़ दे । विधुरचंद ने यह जान लिया था । अब वह इंजीनियर से नौकर में परिवर्तित हो गए थे । उनका परिवर्तन रंग लाया, वह समय से प्रमोशन पा गए, पोस्टिंग भी दिल्ली से बाहर हो गई । दिल्ली में रहते-रहते वह वैसे भी बुरी तरह ऊब चुके थे।

विधुरचंद प्रसन्न भाव से उत्तरी क्षेत्र के एक शहर इलाहाबाद पहुँच गए। सब कुछ नया-नया, वह बहुत उत्साहित थे यह शहर दिल्ली की तरह बड़ा और चकाचौध वाला नहीं था । इस शहर की प्रकृति शांत और डल थी । इस शहर के बारे में कहा जाता था कि यह आगंतुक को अपनाने में जल्दी नहीं दिखाता । थोड़े दिनों तक तो विधुरचंद का उत्साह कायम रहा लेकिन जल्दी ही उन्हें दिल्ली की रंगीनियाँ और तड़क भड़क की कमी यहाँ अखरने लगी यहाँ वह किसी को जानते भी नहीं थे । ऐसे शांत शहर में घूमने में भी उन्हें मजा नहीं आता था । दफ्तर में भी कोई बहुत महत्वपूर्ण काम उनके पास नहीं था कि वह खुद को व्यस्त रख सकें ऑफिस के अन्य लोगों के मिलने जुलने वाले आते, हाय हैलो, हँसी ठट्ठा करते विधुरचंद अकेले बैठे बोर होते वह परेशान रहने लगे, उन्हें लगता उन्होंने यहाँ आकर गलती की है, उन्हें दिल्ली में ही बने रहने की कोशिश करनी चाहिए थी । पर अब क्या किया जा सकता था, अब तो दिल्ली उनके लिए दूर थी । दफ्तर से लौटकर अक्सर कमरे पर ही पड़े रहते संडे का दिन तो पहाड़ बन जाता, काटे नहीं कटता । लेकिन आखिर ऐसा कब तक चलता, कुछ न कुछ तो समस्या का हल निकालना ही था । उन्हॊने सोचा, क्यों न शनिवार को दिल्ली के लिए रवाना हो लें, संडे का दिन मजे से दोस्तों के साथ गुजारें, सोमवार को फिर ऑफिस में हाजिर हो जाएँ । इससे उनकी बोरियत तो दूर होगी ही, साथ ही बाकी दिन ऑफिस का काम करने का उत्साह भी बना रहेगा । उन्हें यह तरकीब जँच गई, आर्थिक समस्या तो थी नहीं, ले देकर अकेली जान अब वह शनिवार को दिल्ली भाग लेते ।

इसी भाग-दौड़ में दिल्ली में रह रही अपनी एक विधवा रिश्तेदार से उनकी मित्रता हो गई धीरे-धीरे मित्रता गहरी होने लगी अब दिल्ली प्रवास के दौरान उस विशेष मित्र से मिलना उनकी आवश्यकता बन गई, वह वहीं अपने को हल्का और ताजा करते । कभी कभी उसे इलाहाबाद घुमाने भी ले आते । नौकरी में भी वह निपुण और पारंगत हो चुके थे उधर कई साइट्स पर कान्स्ट्रक्शन का काम बड़ी तादाद में आ रहा था । उन्होंने अपनी गोटी फिट कर ली जयपुर के पास वह एक सब स्टेशन और कुछ ट्रांसमीशन लाइनों के इन्चार्ज बना दिए गए।

विधुरचंद की जिन्दगी का यह स्वर्णकाल था । उन्होंने यहाँ अपनी सारी कुण्ठाएँ, विकृतियाँ पूरी तरह निकालीं अतीत में वह जिस-जिस क्षेत्र में असफल रहे, जो जो खरी-खोटी बातें सुनी, जब जब अपमानित हुए उन सबका बदला उन्होंने यहाँ अपने मातहतों पर जुल्म करके लिया । वह निरंकुश, तानाशाह हो गए, किसी का मानसिक चैन उन्हें गवारा नहीं था, जो अच्छा था उसका भी, और जो खराब था उसका भी सुबह नौ बजे से वह गला फाड़ कर चिल्लाना शुरू करते तो शाम छ: बजे ही रुकते । उनके कुछ शिकार स्थायी थे तो कुछ अस्थायी । किसी को समय पर छुट्टी नहीं देते थे । ऑफिस के काम के अलावा किसी को उनके राज में व्यक्तिगत जिन्दगी जीने का अधिकार नहीं था दूर छोटी साइट पर जो इंजीनियर पोस्टेड थे, उन्हें भी भाँति-भाँति से प्रताड़ित करते जनवरी-फरवरी की कड़कड़ाती सर्दियों में उन्हें रातोंरात सफर करके ऑफिस पहुँचने का निर्देश देते दिन भर उनकी रेगिंग करते और रात को फिर वापस खदेड़ देते । ठेकेदारों के सामने इंजीनियरों की माँ-बहन तमाम कर देते इंजीनियरों को अकेले में अपमानित करके उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती, हमेशा चार छ: लोगों की मौजूदगी में पुलिसिया अंदाज में आतंकित करते । वह किसी ग्रामीण थाने के दरोगा लगते, दूसरे शब्दों में कहें तो, साक्षात यमराज।

देश के श्रेष्ठ इंजीनियर आजादी के इतने दशकों बाद भी गुलामों की तरह अपमानित और शोषित होते यह उनकी नियति बन गई थी । अनुभव यही सिद्ध करता है कि जो स्वयं शोषित और दमित होते हैं, अवसर मिलने पर अपने से कमजोर लोगों का शोषण और दमन उसका स्वभाव बन जाता है । विधुरचंद के साथ यही हुआ, और अब भविष्य के लिए वह अन्य विधुरचंदों का निर्माण कर रहे थे । कैरियर के लालच ने प्रतिभा सम्पन्न इंजीनियरों को अस्मिताहीन, कायर और पंगु बना दिया था । विद्युत ऊर्जा निगम का यह ऑफिस हिटलर की फासीवादी मनोवृति का नाजी कैम्प बन गया था ।यहाँ के इंजीनियर कायर, सामर्थ्यहीन और आत्माहीन हो चुके थे, विरोध दर्ज करना उनकी डिक्शनरी में नहीं रह गया था । वहाँ हर व्यक्ति विधुरचंद का सेवक, गुलाम और दलाल था और विद्युत निगम का वह ऑफिस विधुरचंद की बपौती था ।

जिस तरह हर वस्तु की निश्चित जीवन अवधि होती है, कोई भी चीज हमेशा कायम नहीं रह सकती उसी तरह व्यक्ति विशेष के आतंक की भी एक अवधि होती है । कुछ दस-बीस वर्षों तक आतंक फैला सकते हैं तो कुछ दस- बीस दिन । आतंक का अन्त होना निश्चित होता है, लेकिन यह होगा कब ? किसी को भी इसकी पूर्व जानकारी नहीं होती। विधुरचंद के खौफ का साया करीब तीन वर्षों तक लोगों के सर पर मँडराता रहा ।

एक इंजीनियर बाहर से उनके पास ट्राँसफर होकर आया । वह विनम्र, अनुभवी और अच्छे संस्कारों वाला कर्मठ व्यक्ति था । विधुरचंद ने उसे दूर वाली साइट पर पोस्ट कर दिया । धीरे-धीरे उन्होंने अपना शिकंजा कसना शुरू किया ।पहले उसे ईमानदारी और गुणवत्ता बनाए रखने का आदेश दिया । ठेकेदारों को परेशान करने का यह कारगर अस्त्र था । ठेकेदार इस ईमानदारी और गुणवत्ता मुहिम से परेशान हो विधुरचंद के पास पहुँचा विधुरचंद की घाघ दृष्टि ठेकेदार का मंतव्य ताड़ गई पहले तो उन्होंने उसे बुरी तरह डाँटा, फिर प्यार से समझाया ठेकेदार सब समझ गया । शीघ्र ही वह ब्रीफकेस में फल-फूल भर लाया अगले हफ्ते जब इंजीनियर की पेशी हुई तो ठेकेदार सामने कुर्सी पर आराम से विराजमान था । उसी के सामने इंजीनियर की लानत मलानत हुई फिर तो यह सिलसिला चल निकला । इंजीनियर ने अपनी सहिष्णुता का पूरा परिचय दिया। समय के साथ विधुरचंद अपनी सारी सीमाएँ पार करने लगे। अब इंजीनियर का धैर्य भी साथ छोड़ने लगा क्योंकि शोषण और दमन सहन करना उसका स्वभाव नहीं था । फिर एक दिन वह हुआ जिसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था । मार्च का अंतिम सप्ताह था, ठेकेदारों के पेमेन्ट प्राथमिकता के आधार पर होने थे। बजट का पूरा उपयोग करना था ।परंतु उस कान्स्ट्रक्शन कंपनी का पेमेन्ट विधुरचंद के कारण ही पिछले तीन महीनों से रुका पड़ा था । इंजीनियर ने एम बी कर रखी थी पर विधुरचंद उसे रोके हुए थे ।

महाप्रबंधक से बजट उपयोग करने का फैक्स आया। कंपनी ने ऊपर शिकायत कर दी थी। अब विधुरचंद इंजीनियर पर फट पड़े। इंजीनियर ने कहा उसने एम बी कर रखी है, पेमेन्ट तो आपके कार्यालय से ही होना था । तीन बार एम.बी. बिना किसी कारण के लौटा दी गई। मूवमेंट सीट मेरे पास है। विधुरचंद गरजे, जबान लड़ाते हो तुम झूठ बोल रहे हो, तुम्हारी नीयत ठीक नहीं हैं मैं तुम्हें नंगा कर दूँगा ।

इंजीनियर ने हिम्मत करके जवाब दिया, आप गलत भाषा का उपयोग कर रहे हैं, गलत इल्जाम लगा रहे हैं, आपको ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए।

विधुरचंद का पारा और चढ़ गया, मुझे समझाने चला है। वह आंय-बांय बकने लगे इंजीनियर भी तैश में आ गया था । वह भी ऊँची आवाज में बोलने लगा। विधुरचंद को यह नागवार गुजरा। अचानक उनके मुँह से हल्की सी गाली निकल गई। दूसरे ही क्षण बिजली की तेजी से उनके गाल पर एक झापड़ पड़ा। उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, उनके गुब्बारे की सारी हवा निकल गई। अभी तक ऑफिस के दूसरे इंजीनियर जो कमरे के बाहर कान लगाए सुन रहे थे, वहाँ आए और इंजीनियर को खींच कर बाहर ले गए। विधुरचंद अपनी जिन्दगी में पहले भी एक दो बार मार खा चुके थे, पर वह और बात थी। यह थप्पड़ तो उन्हें अपने साम्राज्य के ढ़हने की पूर्व सूचना दे रहा था "मैं तुम्हें देख लूँगा", धमकी देते हुए वह तुरत ऑफिस से खिसक लिए।

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संपर्क : शैलेन्द्र चौहान, ए-२, कंचनगीत, ५७ शिवाजीनगर, नागपुर - ४४१ (महाराष्ट्र)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी12:30 pm

    kahani bahut hi sundar Aur yatharthvadi hai,unche padon par karya karne vale engineers ki zindigi ko ujagar karti hai ,
    kahanikar aur rachanakar ko badhai .

    rajendra aviral

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: संप्रति अपौरुषेय
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