सीमा सचदेव की कविता : कृष्ण सुदामा

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कविताएँ -सीमा सचदेव 1. कृष्ण - सुदामा हरे कृष्ण - हरे श्यामा हर पल जाप करे सुदामा थी मन में उसके खुशी अनंत जीवन में आ रहा था बसंत पत्नी का ...



कविताएँ



-सीमा सचदेव



1.कृष्ण - सुदामा



हरे कृष्ण - हरे श्यामा

हर पल जाप करे सुदामा


थी मन में उसके खुशी अनंत


जीवन में आ रहा था बसंत



पत्नी का शुक्र करे हर पल

मिल जाएगी उसको मंज़िल


सोच के मन हर्षित है उसका


इंतज़ार वर्षों से जिसका



पूरा होगा अब वो सपना

मिलेगा उसको दोस्त अपना


आज जब उससे बोली सुशीला


क्यों है ऐसे सुदामा ढीला?



जाओ तुम कृष्ण से मिलकर आओ

और थोड़े दिन मन बहलाओ


सुन के खुश हो गया था मन में


हुआ रोमांच पूरे ही तन में



याद कर रहा दिन बचपन के

बिताए इकट्ठे जो थे वन में


गुरुकुल में वे साथ थे रहते


सुख-दुख इक दूजे से कहते



जंगल से वो लकड़ी लाते

आकर गुरु माता को बताते


गुरु माता खाना थी बनाती


और प्यार से उन्हें खिलाती



आज सुदामा हो रहा भावुक

बता रहा था बात वो हर इक


कैसे वे इकट्ठे थे पढ़ते


और दोनों ही खेल थे करते



कभी-कभी था कृष्ण छुप जाता

और फिर उसको बड़ा सताता


ढूँढने से भी हाथ न आता


देख सुदामा को छुप जाता



ढूँढ-ढूँढ जब वह थक जाता

तब ही कान्हा पास आ जाता


सुदामा जब था रूठ ही जाता


तो बड़े प्यार से उसे मनाता



बीत गये वो दिन थे सुहाने

खाते थे छुप-छुप कर दाने


जो गुरु माता हमें थी देती


दोनों को ताकीद थी करती



मिलकर दोनों ये खा लेना

आधे-आधे बाँट ही लेना


कभी कृष्ण तो कभी मैं खाता


जिसका भी था दाँव लग जाता



कैसे दोनों लकड़ी चुनते

और फिर उसको इकट्ठा करते


लकड़ी सदा कृष्ण ही उठाता


कितना उसका ध्यान था रखता



इक दिन दोनों गये जंगल में

दाने थे कुछ ही पोटली में


वर्षा और आँधी थी काली


चढ़ गये दोनों वृक्ष की डाली



अलग-अलग बैठे थे दोनों

वर्षा में थे घिर गये थे दोनों


ठंडी से दोनों ठिठुर रहे थे


दाँत पे दाँत भी बज रहे थे



सुदामा के पास थी दानों की पोटली

हुई उसके मन में कुछ हलचल


दोनों ही को भूख लगी थी


पर तब कहाँ वर्षा ही रुकी थी



दामा को जो भूख सताए

तो थोड़े से दाने खाए


थोड़े से उसने रख छोड़े थे


जो थे कान्हा के हिस्से के



पर वो भूख को कब तक जरता

भूखा मरता क्या न करता?
खा गया दामा वो भी दाने


जो बाकी थे कृष्ण ने खाने



वर्षा थी जब ख़त्म हो गई

और धरती पानी को पी गई


वृक्ष से उतरे थे फिर दोनों


और किया दोनों ने आलिंगन



कृष्ण ने पूछा भूख के मारे

कहाँ गये वो दाने सारे ?
दामा अपने सिर को झुका कर


खा लिए ! बोला था लज्जा कर



तो क्या हुआ? कृष्ण बोला था

हंस कर उसने टाल दिया था


मैंने जो गुरु माता को बताया


कृष्ण ने सबको खूब हँसाया



इसी तरह से हँसते- गाते

खेलते,पढ़ते,खुशी मनाते


बीत गये वो दिन जीवन के


शिष्य थे जब गुरु संदीपन के



कृष्ण की करते-करते बात

बीत गई यूँ सारी रात


तैयार हुआ अब दामा अकेला


कृष्ण से मिलने जाएगा द्वारिका



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2.कृष्ण-सुदामा



हर्षित है उसका मन ऐसे

मिल गया हो नया जीवन जैसे


जैसे ही दामा ने कदम बढ़ाया


कृष्ण को भी वो याद था आया



बोले रुकमणी से तब कृष्णा

याद आ रहा मुझे सुदामा


गुरुकुल के हम ऐसे बिछुड़े


और फिर अब हम कभी न मिले



कृष्ण ऐसे बतियाते जाते

दामा की बात बताते जाते


हंस देते कभी अनायास ही


और कभी भावुक हो जाते



रुकमणी भी सुनकर हुई मग्न

भावुक हो गया उसका भी मन


क्या दोनों ही दोस्त सच्चे


पर तब थे दोनों ही बच्चे



इधर रास्ते पे चलते-चलते

याद कृष्ण को करते-करते


चल रहा था दामा मस्त हुए


लिए चने जो पत्नी ने थे दिए



जाकर के कृष्ण को दे देना

और सीधे-सीधे कह देना


मजबूर है आज उसकी भाभी


कुछ और नहीं वो दे सकती



सुदामा मन में विचार करे

श्री कृष्ण की ही पुकार करे


वह बन गया है द्वारिकाधीश


क्या मुझे पहचानेगा जगदीश



बस सोच-सोच चलता जाता

और आगे ही बढ़ता जाता


वह है राजा और मैं हूँ दीन


वो दिन नहीं जब खाते थे छीन



मेरे पास तो ऐसे वस्त्र नहीं

और ऐसा भी कोई अस्त्र नहीं


जिससे मैं राजा से मिल पाऊँ


मैं कौन हूँ ऐसा बतलाऊँ ?



क्यों कृष्ण उसे पहचानेगा?
क्यों दोस्त उसको मानेगा?
वह तो अब भूल गया होगा


गुरुकुल उसे याद कहाँ होगा?



वह बहुत बड़ा मैं बहुत छोटा

वह हीरा है मैं सिक्का खोटा


मैं पापी हूँ वह है जागपालक


वह सारे जाग का है मालिक



वह नहीं मुझे दोस्त मानेगा

और नहीं मुझे पहचानेगा


जब वह उसे दोस्त बताएगा


तो कृष्ण का सिर झुक जाएगा



वह दोस्त को नहीं झुका सकता

नहीं शर्मिंदा उसे कर सकता


जो कृष्ण का सिर झुक जाएगा


सुदामा नहीं वह सह पाएगा



दूजे ही पल सोचे दामा

नहीं ऐसा दोस्त है कृष्णा


वह तो इक सच्चा दोस्त है


बस मेरा ही मन विचलित है



मुझे याद है उसकी वो हर बात

हर पल दिया उसने मेरा साथ


वह खुद तकलीफ़ उठाता था


पर हर पल मुझे बचाता था



मेरी हर ग़लती को माफ़ किया

और हर पल दिल को साफ किया


ऐसा प्यारा वह दोस्त कृष्ण


फिर भी विचलित है मेरा मन?



वह कितना बड़ा बन गया राजा

झुकती है उसके सम्मुख परजा


उसमें तो अहम् आ गया होगा


सब कुछ ही भूल गया होगा



दामा के मन में है दुविधा

कान्हा को नहीं होगी सुविधा


उसे देख के होगा शर्मिंदा


और उसका तो कपड़ा भी है गंदा



अब दामा ने मन में विचार किया

और मन ही मन ये धार लिया


अब नहीं द्वारिका जाएगा


और नहीं कृष्ण को झुकाएगा



यह सोच के वापिस कदम किया

और ठोकर खा के गिर ही गया


गिरते ही उसने खोया होश


और खो दी सारी समझ-सोच



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3.कृष्ण-सुदामा



जब जागा तो द्वारिका में था

कैसे पहुँचा ? यह समझा न था


अब दामा ने सोचा मन में


आ पहुँचा ! तो क्यों न मिले उससे



मन पक्का करके जाएगा

और जाते ही उसे बताएगा


मुझे कुछ भी नहीं चाहिए उससे


बस मिलने की इच्छा है मन में



वो नहीं मिलेगा ! तो भी क्या?
वह दूर से उसको देखेगा


उसे देख के खुश हो जाएगा


यहाँ आना सफल हो जाएगा



यह सोच के पहुँच गया वह द्वार

और करेगा वहाँ बैठ इंतज़ार


कभी तो कृष्ण वहाँ आएगा


और वह दर्शन कर पाएगा



पर द्वारिका नगरी में कोई जन

इस तरह तो नहीं रह सकता


खाने को चाहे कुछ न हो


पर भूखे नहीं कोई सो सकता



वह नगरी समृद्धि से सम्पन्न

जहाँ रहती है लक्ष्मी ही स्वयं


वहाँ पर दिख गया कोई ऐसा जन


जिसका आधा नंगा है तन



वह द्वारिका का नहीं हो सकता

यूँ बाहर ही नहीं सो सकता


यह देखा तो आया द्वारपाल


दामा से करने लगा सवाल



तुम कौन हो ?कहाँ से आए हो?
और कैसे कपड़े पाए हो?
हाथ जोड़ बोला ब्राह्मण


श्री कृष्ण से मिलने का है मन



हम दोस्त हैं बचपन के सच्चे

हम दोनों ही थे तब बच्चे


किरपा होगी जो मिलवा दो


सुदामा हूँ मैं उसको बतला दो



सुन द्वारपाल यूँ हँसने लगे

और बातें बहुत ही करने लगे


पर एक था उनमें समझदार


और उसने मन में किया विचार



फटे वस्त्र हैं और जर्जर है तन

क्यों झूठ बोलेगा वह बाह्मण


क्यों न हम दूर करें यह भ्रम


शायद इसका दोस्त हो कृष्ण



क्यों न हम जाकर बतला दे

श्री कृष्ण से इसको मिलवा दें


इसका दरिद्र दूर हो जाएगा


और ढंग से यह जी पाएगा



यह सोच के आया वहाँ राजमहल

श्री कृष्ण जहाँ पे रहे टहल


जा कर यूँ बोला द्वारपाल


मुझे क्षमा करो हे क्षमानाथ



पर द्वार पे खड़ा है इक ब्राह्मण

आपसे मिलने का है उसका मन


बचपन की कथा सुनाता है


और नाम सुदामा बताता है



क्या..........?कहते कृष्ण यूँ भाग पड़े

जैसे खुल गये हों भाग्य बड़े


वह नंगे पाँव ही भाग रहे


भाग्य सुदामा के जाग रहे



क्यों भागे कृष्ण ? कोई न समझा

इसका क्या है कोई राज गहरा?
रुकमणी भी पीछे भागने लगी


यह देख के सारी सेना जगी



दामा को सम्मुख देख लिया

और जा के गोद भर ही लिया


बहे दोनों की आँखों से अश्रुजल


बनकर धारा बिना कोई हलचल



बस दोनों ही हैं आज मूक

आँखों से भी नहीं हो रही चूक


इक टेक हैं दोनों देख रहे


कोई क्या कहे? और कैसे कहे?



भरे हुए दोनों के दिल

और बार-बार वो रहे मिल


नहीं रुक रहे उनके अश्रुजल


क्या भावुक हो गये थे वो पल



आँखों से बातें करते हैं

और मन की बात समझते हैं


मूक थी आँखों की भाषा


और कह गई सारी अभिलाषा



दोनों ही हैं आलिंगन बद्ध

प्रकृति भी हो गई स्तब्ध


थम गई सारी ही चंचलता


रुक गया सूर्य का रथ चलता



श्री कृष्ण तो वहाँ पे गिर ही गये

दामा के चरणों में बैठ गये


धुल रहे चरण अश्रुजल से


क्या भावुक ही वो पल थे



पैरों में लगे कितने काँटे

पर दामा ने नहीं दुख बाँटे


पैरों में पड़ गये थे छाले


कोई लाल तो कोई थे काले



कान्हा उनको यूँ छूते हैं

और आँसुओं से ही धोते हैं


दामा के पैरों की सूजन


जो देख के रोया कान्हा का मन



फटे वस्त्र और जर्जर था तन

पर मिलने की थी इतनी लगन


कितने ही दिन से भूखा था


पर इसका उसको सुध कहाँ था



कान्हा तो बैठा रो ही रहा

आँसू से चरण था धो ही रहा


देख के यूँ दामा का प्यार


मिल गई दोनों को खुशी अपार



सब देख रहे दर्शक बन के

क्या दोनों ही हैं सच्चे मन के


क्या यही द्वारिका का है भूप?
कान्हा के न जाने कितने रूप?



दोनों ही रो रहे बिन बोले

दोनों ने नहीं हैं मुँह खोले


वाणी बंद है भावुक ह्रदय


कोई नहीं , जो उनसे कुछ कह दे



अब रुकमणी ने कुछ किया विचार

दोनों का ही है प्यार अपार


दोनों ही हो रहे हैं भावुक


दोनों के लिए यह पल नाज़ुक



यह खामोशी नहीं जाएगी

जब तक बाधा नहीं आएगी


कुछ सोच के पास उनके आई


और देख के उनको मुस्काई



बोली वह यूँ मुस्काते हुए

कान्हा को थोड़ा हिलाते हुए


क्या ऐसे ही उसे रुलाओगे?


और हम से नहीं मिलवाओगे



अब कान्हा को आया विचार

वो खड़ा है महलों के बाहर


अंदर आने को कहा ही नहीं


तब बोलने को कुछ रहा ही नहीं



दामा के अश्रु पोंछ दिए

और फिर कान्हा ने वचन कहे


तुम झेलते रहे केवल दुख को


और मैं यहाँ भोग रहा सुख को



कैसे दोस्त हो तुम दामा?

क्या भूल गया तुम्हें ये श्यामा?


क्यों पास मेरे तुम नहीं आए


बस तुमने दुख ही दुख पाए



दामा के पास तो शब्द नहीं

वाणी का भी तो साथ नहीं


बस हाथ जोड़ कर रो ही रहा


मुख को आँसुओं से धो ही रहा



वो नहीं काबिल कुछ कह ही सके

पर कान्हा अब नहीं रह ही सके


सूझी मन में फिर से शरारत


देखी जो दामा के हाथ पोटली



दामा भी उसको समझ गया

और पीछे ही पीछे छुपा रहा


पर कान्हा कहाँ मानने वाला


वह सब कुछ ही जानने वाला



दामा से पोटली छीन ही ली

और बड़े प्यार से खोल ही ली


यह भाभी ने भेजे हैं चने


कितने ही प्यार से हैं ये बने



खाने लगे वो चने ऐसे

भूखे हों सदियों से जैसे


एक ,दो और तीन मुट्ठी


वो खा ही गये जल्दी-जल्दी



जब चौथी मुट्ठी लगे खाने

रुकमणी ने पकड़ लिए दाने


क्या सारे ही तुम खाओगे


या मेरे लिए भी बचाओगे



यह देख के सारे हंस ही दिए

वो दोनों सब में बस ही गये


क्या दोस्ती का प्रमाण दिया


और दोस्ती को सच्चा नाम दिया



दोस्ती में दोनों का नाम हुआ

और सबने ही यह मान लिया


दोनों ही सच्चे दोस्त हैं


न इसमें कोई भी शक है



उनकी दोस्ती हो गई अमर

यह देख आँखें जाती है भर


दोनों का साथ प्यारा है


सारी दुनिया से न्यारा है |



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Poem 2. KRISHAN- GOPI PREM



1.ब्रज की याद



आज याद कर रहे कृष्ण राधे

तुमने ही सब कारज साधे


बन कर मेरी अद्भुत शक्ति


भर दी मेरे मन में भक्ति



हर स्वास में नाम ही तेरा है

इसमें न कोई बस मेरा है


बस सोच रहे कान्हा मन में


जब रहते थे वृंदावन में



क्या करते थे माखन चोरी

और ग्वालों संग जोरा-ज़ोरी


क्या अद्भुत ही था वह स्वाद


मुझे आता है बार-बार वह याद



अब हूँ मैं मथुरा का नरेश

पर मन में तो इच्छा अब भी शेष


वह दही छाछ माखन चोरी


और माँ जसुदा की वो लोरी



वो गोपियों का माँ को उलाहना

और नंद- बाबा का संभालना


वो खेल जो यमुना के तीरे


करते थे हम धीरे- धीरे



वो मधुवन और वो कुंज गली

जहाँ गोपियाँ थी दही ले के चलीं


वो मटकी उनसे छीन लेना


और सारा दही गिरा देना



वो गोपियों का माँ से लड़ना

माँ का मुझ पर गुस्सा करना


तोड़ के मटकी भाग जाना


और इधर-उधर ही छुप जाना



कभी पेड़ों पे चढ़ना वन में

कभी जल-क्रीड़ा यमुना जल में


कभी हँसना तो कभी हंसाना


कभी रूठना, कभी मनाना



चुपके से निधिवन में जाना

गोपियों के संग रास रचाना


गाय चराने वन को जाना


और मीठी सी मुरली बजाना



मुरली बजा गायों को बुलाना

और उनका झट से आ जाना


बल भैया का माँ को बताना


और माँ का प्यार से गले लगाना



कभी कभी ऐसे छुप जाना

और फिर माँ को बड़ा सताना


दाऊ भैया का ढूँढ के लाना


और मैया का सज़ा सुनाना



वो मुझको रस्सी से बाँधना

और फिर अपने आप ही रोना


रो-रो कर अपना मुख धोना


और फिर देना मुझको खिलौना



वो चोरी से माखन खाते

जो ऊँचे छींके पे रखते


चढ़ते इक दूजे पे ऐसे


बनी हो कोई सीढ़ी जैसे



मधुवन में जा मुरली बजाना

मुरली सुन गोपियों का आना


गोपियों के संग रास रचाना


और फिर इधर-उधर हो जाना



ग्वालों के संग खेलते वन में

कभी नहाते यमुना जल में


कभी छुपते तो कभी छुपाते


इक दूजे को ढूँढ के लाते



झूलते वृक्ष के नीचे झूला

मैं अब तक वो नहीं हूँ भूला


वो ऊँचे झूला ले जाना


वहाँ से कभी-कभी गिर जाना



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2.उद्धो - कृष्ण संवाद



गुम थे कृष्ण मीठी यादों में

उन कसमों और उन वादों में


जो वह गोपियों के संग करते


कभी-कभी उनसे थे डरते



यह सब उद्धो देख रहा था

और मन ही मन सोच रहा था


कृष्ण तो इतने बड़े हैं राजा


झुकती उनके सम्मुख परजा



फिर क्यों नहीं वो खुश रहते हैं

कुछ न कुछ सोचते रहते हैं


क्या कमी है राज-महल में?


फिर क्यों रहते हैं अपने में?



सोचा उद्धो ने वह पूछे

शायद कृष्ण उससे कुछ कह दे


जाकर उसने कृष्ण को बुलाया


और प्यार से गले लगाया



बैठ के बोला उद्धो ,कान्हा

मेरा तुमसे एक उलाहना


क्यों नहीं तुम मिलकर रहते हो?


अपने ही में खोए रहते हो



माता-पिता हैं तुम्हें मिल गये

और सारे कार्य सिद्ध हो गये


कंस का भय भी ख़तम हो गया


तेरे ही हाथों भस्म हो गया



मधुपुरी के तुम बन गये राजा

और सारी खुश भी है परजा


फिर मुझको यह समझ न आता


क्यों तुमको यह सब नहीं भाता?



खोए रहते हो अपने में

ऐसे ही किसी न किसी सपने में


ब्रज में थे तुम केवल ग्वाले


बस गायों को चराने वाले


मिला क्या बोलो तुम्हें वहाँ पे?


जो सारा मिल गया यहाँ पे


तब तुम थे बुद्धि के कच्चे


पर अब नहीं रहे तुम बच्चे



बस,बस भैया अब न बोलो

उस प्रेम को इससे न तोलो


जो ब्रज में था वो कहीं नहीं


पर वो बातें अब रही नहीं



यूँ कृष्ण उद्धो से कहने लगे

आँखों से अश्रु बहने लगे


मैं ब्रज को नहीं भुला सकता


उस प्रेम को नहीं बता सकता



कान्हा तुम बनो कुछ ज्ञानवान

ऐसे नहीं बनाते हैं अनजान


तुम्हें प्रेम नहीं शोभा देता


कोई राजा नहीं यह कर सकता



यह प्रेम तो झूठा है जग में

पर तुम इसको क्यों नहीं समझे?


ज्ञानी बन ज्ञान की बातें करो


इस प्रेम के पीछे न ही पड़ो



तुम राज्य का सुख भोगते हुए

और ध्यान ब्रह्म का करते हुए


खोलो अपने तुम दशों द्वार


और देखो वह ब्रह्म निराकार



अब ध्यान समाधि में मोहन

लगा दो तुम अपना यह मन


मिलेगा तुमको परम ज्ञान


फिर बनोगे मुझ जैसे विद्वान



कान्हा ने जो उद्धो का अहम देखा

तब मन ही मन में यह सोचा


उद्धो में अहम समाया है


इस लिए तो वह भरमाया है



इस अहम को दूर करें कैसे?

और प्रेम को समझे यह जैसे


ज्ञानी उद्धो ! यह बड़ी बात


पर उस पे अहम, यह काली रात



यह मुझसे नहीं यूँ मानेगा

मूरख ही मुझको जानेगा


नहीं प्रेम है इसके जीवन में


बस अहम ही भर गया है मन में



क्यों न मैं अब ऐसा कर दूँ?

इसके जीवन में प्रेम भर दूँ


मैं खुद नहीं यह कर पाऊँगा


हाँ ! ब्रज इसको पहुंचाउंगा



पर यह क्यों ब्रज जाएगा?

कैसे प्रेम समझ यह पाएगा?


कुछ सोच के कान्हा यूँ बोले


उद्धो ! हम तो हैं बहुत भोले



तुम ज्ञानी हो गुणवान हो

और तुम तो बहुत महान हो


तुमने हमको समझा ही दिया


और ज्ञान का पाठ पढ़ा ही दिया



हम समझ गये तेरा कहना

अब प्रेम में जी के क्या लेना?


अब हम यह सब कुछ छोड़ेंगे


और ज्ञान से नाता जोड़ेंगे



पर गोपियों को अब भी दुविधा

नहीं उनको हो रही है सुविधा


वह तो बस प्रेम दीवानी हैं


और कहाँ किसी की मानी हैं?



उनको मैं यह समझाऊं कैसे?

कुछ नहीं प्रेम ! यह बताऊं कैसे?


उनको तो कुछ भी ज्ञान नहीं


सिवाय प्रेम के कुछ परवान नहीं



बस प्रेम में रोती रहती हैं

हर पल मुझे देखती रहती हैं


मेरे आने की चाहत में


राहों में बैठी रहती हैं



कभी मेरा रूप बनाती हैं

और मुरली मधुर बजाती हैं


मैं आऊंगा माखन खाने


यह सोच के माखन बनाती हैं



वह नहीं बेचती दधि अपनी

बस मेरे ही लिए जो है रखनी


हर पल उम्मीद लगाती हैं


और आँखों को तरसाती हैं



अभी आएगा, अभी आएगा

आ करके मुरली बजाएगा


मटके वह भर कर रखती हैं


कान्हा यह माखन खाएगा



इक टक मार्ग वह तकती हैं

नहीं उनकी आँखें थकती हैं


न बोलती न ही हँसती हैं


मन ही मन जलती रहती हैं



कोई उलाहना भी नहीं देतीं

मेरी निंदा भी नहीं करतीं


मैं निकल न जाऊं उनके दिल से


इस डर से आह नहीं भरतीं



उनको अपनी परवाह नहीं

और प्रेम के उनके थाह नहीं


हर सुख-दुख उनका मर ही गया


जीने की भी उनको चाह नहीं



उनको कुछ भी नहीं चाहिए अभी

बस चाहती हैं मुझको सभी की सभी


मैं कैसे उन्हें यह समझा दूँ


और ज्ञान से परिचय करवा दूँ



तुम ज्ञानी हो समझा सकते

उन्हें ज्ञान का मार्ग बता सकते


जाओ तुम ब्रज ,यह उचित होगा


कुछ गोपियों का भी हित होगा



प्रेम छोड़ कर यानी बनें

लगा के समाधि कुछ ध्यानी बनें


तेरा तो कुछ नहीं जाएगा


पर उनका भला हो जाएगा



कान्हा ने कहे जो ऐसे शब्द

उद्धो को हुआ अपने पे गर्व


खुश हो गया वह मन ही मन में


मानो सब मिल गया जीवन में



बोला ! कान्हा नहीं फ़िक्र करो

लिखो पाती औ मेरा ज़िक्र करो


मैं कल ही ब्रज को जाऊँगा


ब्रजवासियों को समझाऊँगा



कान्हा भी मन में हंस ही दिए

उद्धो बातों में फँस ही गये


वह समझेगा, या समझाएगा


जानेगा , जब ब्रज जाएगा



पकड़े हुए कान्हा के खत को

उद्धो अब जा रहा था ब्रज को



मार्ग में सोचता ही जाता

यह ज्ञान तो सबको नहीं आता



मैंने कान्हा को समझाया

तभी जाके समझ उसको आया


अब ब्रज जाकर समझाऊँगा


और एक इतिहास बनाऊंगा



********************************

3.गोपी -उद्धो संवाद



दूर से देखा रथ आता

ब्रज वालों का ठनाका माथा


लगा कान्हा आ रहा आज वहाँ


हो गये इकट्ठे थे जहाँ तहाँ



रथ देख के आगे भाग पड़े

लगा भाग्य हैं उनके जाग पड़े


कान्हा से मिलने की इतनी लगन


उस तरफ था भगा हर इक जन



पास से देखा तो चकित हुए

यह तो अपना कान्हा है नहीं


यह तो कोई और ही है रथ पर


क्यों आया है वो इस पथ पर?



उद्धो , रुका पास में आकर

बुलाया नंद बाबा को जाकर


उनको अपना परिचय करवाते


कान्हा का संदेस सुनाते



वो चुपचाप ही सुन रहे थे

सुन कर कुछ भी न बोले थे


न खुशी न गम ही जतलाया


थोड़ा उद्धो का मन भर आया



देखी जो उसने माँ जसुदा

उद्धो का मन भी भर गया था


देखी जो राधा की सूरत


वो लगी थी पत्थर की मूरत



साहस नहीं वह कुछ जाके कहे

वह क्या कहे? और कैसे कहे?


देखी थी पास खड़ी सखियाँ


पत्थर थी उनकी भी अखियाँ



जाकर के पास कुछ न बोला

बस कान्हा का पत्तर खोला


कान्हा ने दिया ,बस यही कहा


फिर होश किसी को नहीं रहा



कान्हा ने भेजी यह पाती

छीना और लगा लिया छाती


सब उस पाती को खोने लगी


और आंसुओं से उसे ढोने लगी



उस कागद पर आँसू जो पड़े

पाती के अक्षर सभी धूल गये


श्याम स्याही में अश्रु मिलकर


हो गई पाती भी श्याम धुलकर



उस कागद को ही चूम रहीं

धन्य स्वयं को जान रहीं


बिन बोले सब कुछ कह ही दिया


उद्धो का अहम तो गिर ही गया



बस देख के ही हो गया आधा

और ज्ञान में आने लगी बाधा


खुद को पाया था बहुत छोटा


उनके सम्मुख सिक्का खोटा



यह प्रेम तो था स्व- पर से परे

वह धन्य जो ऐसा प्रेम करे


इस प्रेम की न कोई है सीमा


सच्च ही कहता था मुझे कृष्णा



अब इनके पास जाऊं कैसे?

और इनको मैं समझाऊं कैसे?


नहीं शब्द हैं कोई मेरे पास


यह सोच के थोड़ा हुआ उदास



पर इनको तो समझाना है

मुझे कान्हा को भी तो बताना है


इस प्रेम को छोड़ के अब इनको


ज्ञान के मार्ग पे जाना है



अभी तक उद्धो ने न जाना

क्या प्रेम है? यह न पहिचाना


अभी भी तो अहम है समाया


और पास गोपियों के है आया



कहा, ध्यान से मेरा सुनो कहना

अब पीड़ा में नहीं तुम रहना


अब प्रेम न तुमको सताएगा


इस तरह से नहीं रुलाएगा



ध्यान धरो ब्रह्म का ऐसे

वन में कोई योगी हो जैसे


उस निराकार का ध्यान धरो


और बैठी समाधि में ही रहो



फिर दशों-द्वार खुल जाएँगे

तुम्हें पूरण ब्रह्म मिल जाएँगे


उस का कोई रूप न रंग ऐसा


तुम्हारे कान्हा के प्रेम जैसा



कान्हा तो है सामान्य जन

जिसमें डूबा है तुम्हारा मन


वह मन जो ब्रह्मा को देदो


बदले में अमूल्य ज्ञान ले लो



जो ज्ञान तुम्हें आ जाएगा

फिर नहीं प्रेम रह जाएगा


फिर तुम जीवन जी पाओगी


जो कान्हा को तुम भुलाओगी



कान्हा ने भेजा है मुझको

और कहला भेजा है तुमको


उसे भूल जाओ अच्छा होगा


और ज्ञान में ही फ़ायदा होगा



अब तक गोपियाँ जो सुन थी रहीं

अब बोले बिना वो नहीं रहीं


कान्हा ने भेजा है तुमको....?


ब्रह्म ज्ञान देने हमको.............



न न तुमसे है भूल हुई

अवश्य तुमसे कोई चूक हुई


उसको तो तुम नहीं जानते हो


ज्ञानी हो ! नहीं पहिचानते हो



तुमको ही सिखाने भेजा है

कान्हा ने यह तुमसे छल किया है


बोलो जब तुमको भेजा था


क्या कान्हा तनिक मुस्काया था?



तुम कहाँ के ऐसे हो ज्ञानी?

कान्हा की शरारत न जानी


और कौन सा तेरा यह ब्रह्म है?


जो केवल मन का ही भ्रम है



क्या देखा है तुमने ब्रह्म को?

जो दूर करे तेरे तम को


क्या वह कान्हा सा प्यारा है?


क्या उसने कंस को मारा है?



क्या उसने देखा है वृंदावन?

क्या कभी उठाया गोवर्धन?


क्या वह भी माखन खाता है?


कान्हा सी मुरली बजाता है



क्या रहता है यमुना तीरे

और खेल करे धीरे-धीरे


उसकी मुरली की मधुर धुन


क्या ज्ञान से तुम सकते हो सुन?



वह ब्रह्म दिखने में कैसा है?

क्या वो कान्हा के जैसा है?


क्या पहनता है वह पीत वस्त्र?


क्या मुरली है उसका अस्त्र?



उद्धो तो बस चुप हो ही गया

और ज्ञान कहीं पर खो ही गया


नहीं रहे उसके पास कोई शब्द


हो गई उद्धो की ज़ुबान बंद



गोपियाँ तो बस अब बोल रहीं

और भेद प्रेम के खोल रहीं


उद्धो उस प्रेम में डूब रहा


कान्हा का विचार क्या खूब रहा



अब गोपियाँ कहाँ मानने वाली

वह तो बस प्रेम जानने वाली


बोलो तुम भी क्या चाहोगे?


कड़वा रस या मधु खाओगे?



कड़वा रस ब्रह्म, मधु है कृष्ण

बोलो कहाँ मानेगा तेरा मन


जो ध्यान समाधि लगाओगे


क्या संभव ब्रह्म को पाओगे?



कान्हा से प्रेम करोगे तो

उसे हरदम साथ ही पाओगे


वह साथ ही रहता है अपने


नहीं देखते हम झूठे सपने



तुम्हें पता है ब्रह्म कहाँ रहता है?

और क्या-क्या काम वो करता है?


बोलो वो ब्रह्म क्या खाता है?


क्या वह भी रास रचाता है?



कान्हा तो दिल में रहता है

सारे ही काम वो करता है


वह माखन मिस्री खाता है


हमारे संग रास रचाता है



वह गायों को भी चराता है

और सबको संग में नचाता है


यमुना किनारा जाकर वह


फिर मुरली मधुर बजाता है


और तुमने यह क्या कहा उद्धो


इक मन है वह ब्रह्म को दे दो


उद्धो, यहाँ केवल नहीं मन है


यहां रोम रोम में मोहन है



अब तो केवल एक ही मन है

उसमें बस गया मन मोहन है


हमारे जो अनेक मन भी होते


तो भी उस ब्रह्म को न देते



हम गाँव वाले भोले-भाले

हम नहीं समझें तेरे चालें


व्यापारी बन कर आए हो


और आकर हमें बताए हो



यह योग व्यापार करो हमसे

कान्हा को डोर करो मन से


न , न ऐसा नहीं हो सकता


यहाँ यह व्यापार न फल सकता



जाओ तुम और जहाँ चाहो

यह योग ज्ञान तुम ही पाओ


हम को तो इससे मुक्त रखो


यह योग- ज्ञान तुम ही परखो



हमारे तो गिरधर केवल

वो ही देता है हमको बल


जाओ तुम फिर यहाँ न आना


यह ज्ञान कान्हा को सुना देना



यहाँ नहीं हम कोई चेरी

जो मान जाए बातें तेरी


किसी और को जाके सुना देना


अपना व्यापार बढ़ा लेना



अब तो उद्धो बस टूट गया

और उसका ज्ञान भी फूट गया


समझा वह कृष्ण की अब लीला


वह प्रेम के आगे पड़ा ढीला


चरणों में उनके गिर ही गया


बोला मुझसे अपराध हुआ


क्षमा करो मुझको तुम सब


आ गया है मेरी समझ में अब



प्रेम से उत्तम कुछ भी नहीं

क्यों कान्हा ने मुझसे नहीं कही?


हाँ! मैंने ही नहीं सुना उसको


इस लिए भेजा है ब्रज मुझको



निर्गुन का ज्ञान तो मिट ही गया

और प्रेम के हाथों लुट ही गया


अब वह हुआ प्रेम का दीवाना


प्रेम उत्तम है उसने माना



जाके वह कृष्ण को बता रहा

गोपियों की बात सुना ही रहा


तुम बड़े निष्ठुर हो कान्हा


इतना है तुमसे उलाहना



क्यों छोड़ दिया तुमने ब्रज को?

है नमस्कार जिसकी रज को


जहाँ पर तुमने है पैर धरा


वह हर पग तो तीरथ है बना



क्या ब्रज गोपियों का प्रेम अमर?

क्या तुम पर ज़रा भी नहीं असर?


न तड़पायो तुम उनको ऐसे


उन बिन रहते हो तुम कैसे?



तुम क्या जानो? कान्हा बोले

अच्छा भाग्य, जो ब्रज का हो ले


वह भिन्न नहीं मुझसे कोई


मेरी खुशी तो ब्रज में खोई



मैं ब्रज को नहीं भुला सकता

मजबूरी वहाँ नहीं जा सकता


उस प्रेम को मैं भूल जाऊं कैसे?


क्या मन में है? तुमको बताऊं कैसे?



कान्हा गोपियाँ, गोपियाँ कान्हा

फिर कैसा हमारा उलाहना


दिल से कभी दूर नहीं होंगे


चाहे दुनिया में कहीं भी रहेंगे



यह गोपी कृष्ण का प्रेम अमर

बस समझे इसको मन मंदिर


हर बात में लीला दिखाता है


जाने क्या-क्या करवाता है?



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संपर्क:



सीमा सचदेव



7 ए, 3 रा क्रास



रामनजन्य लेआउट



मरथल्ली, बैंगलोर – 560037 (भारत)

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रचनाकार: सीमा सचदेव की कविता : कृष्ण सुदामा
सीमा सचदेव की कविता : कृष्ण सुदामा
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