कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 13. मिथिलेश की पीड़ा जनक दुलारी ...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग13. मिथिलेश की पीड़ा
फिरे वनों में मारी मारी
नहीं रहे है राजा दशरथ
लिया क्या रानी ने यह व्रत
क्या हो गया है यह रघुकुल में
उस जैसा न कोई कुल भूतल पे
केवल माँ का ही रखने को मन
गए वन को सिया राम औ लखन
सुन कर जनक अवध में आए
सीता की माँ को साथ में लाए
कैसे सहे बेटी का दुख
जिसने पाए ही थे अनुपम सुख
कितने ही चाव से ब्याहा उसे
डोली में विदा किया था जिसे
जिसको नाज़ों से है पाला
उसके भाग्य यह दिन काला
क्यों मुझे यह दिन दिखलाया प्रभु
क्यों वाम हुआ हे शिव - शम्भु
जानता हूँ सीता स्वयं शक्ति
करती है शक्ति की भक्ति
है धरती सी विशाल हृदया
मन में केवल है उसके दया
हर पल मुझे उसने दी खुशी
उसे पाकर मैं था कितना सुखी
जिस दिन से मिली थी मुझे सिया
तब से लगा मैंने भी जीवन जिया
खेलती थी मेरे आँगन में
और बसती है सबके मन में
माँ की सयानी बेटी सीता
उसको बस राम ने ही जीता
वही तो शिव धनुष उठा सकती
जो बनी अब रघुवर की शक्ति
जब मिली थी मुझको धरती में
सो रही थी पड़ी थी मटकी में
पाकर ऐसा उपहार अनुपम
खिल गया था मेरा रोम रोम
नहीं प्यार में कोई कमी छोड़ी
उसकी हर खुशी लगी थोड़ी
सीता तो धरती की बेटी
अब माँ की बाँहों में लेटी
खेलती इकट्ठी चारों बहने
सुन्दर से पहनती थी गहने
कभी गुडिया और खिलौनों के संग
कभी तस्वीरों में भरती रँग
कभी बजाती थी सितार
हँसी में वीणा सी झँकार
इन चारों का होता था अरमान
बनाएँ वे अच्छे से पकवान
कागज़ के कभी फूल बनाती
और रंगों से उन्हें सजाती
कभी बनाती वँदनवार
मँगल करती घर का द्वार
कभी पुष्पवाटिका में जाती
पूजा के लिए फूल ले आती
मन्दिर को तो स्वयं सजाती
और पूजा की थाली लाती
पर अब कैसा भाग्य हो गया
क्यों सिया का सब सुख खो गया
वह मेरे ही पास आ जाती
पर यूँ नहीं वो वन को जाती
दुखी हो रहे सिया के पिता
और समझाती सिया की माता
वन भाग्य सिया का , यही दुख है
फिर भी सिया को अनुपम सुख है
नारी हर दुख सह जाती है
जो पति का साथ वह पाती है
बेशक नारी में शक्ति है
पर पति ही असली भक्ति है
पति बिना न अच्छा लगे कोई सुख
पति वियोग ही सबसे बड़ा दुख
सीता तो फिर भी खुश वन में
पति संग है तसल्ली है मन में
पर सोचो वह बेटी ऊर्मिला
उसको कैसा भाग्य है मिला
विरह अग्नि जलती रहती
दुख भी तो किसी से नहीं कहती
धन्य है मेरी बेटी सीता
जिसने है सबका दिल जीता
ऊर्मिला का कितना बड़ा बलिदान
दोनों कुल का है रखा मान
विरह का इक - इक पल भारी
तज दी उसने खुशियाँ सारी
मुझे गर्व है प्यारी सी बच्ची
कितनी संस्कारों की सच्ची
नहीं भूली वह कोई मर्यादा
पूरा कर रही है वो वादा
जो उसने लक्ष्मण से किया
और साथ देने का वचन दिया
यूँ कह तो रही थी सीता की माँ
पर भर गई थी उसकी अंखियाँ
आँखों से अश्रु लगे बहने
और लगी थी फूट-फूट रोने
कौन यहाँ किसे समझाए?
यही बात समझ में नहीं आए
नहीं मन से मिटता सन्ताप
जाने किया है कौन सा पाप
बेशक नहीं सिया के जन्मदाता
वह तो है स्वयं शक्ति माता
जिस दिन आई अपनी गोदी
झोली ही खुशियों से भर दी
क्या पावन ही वह पल था
जब मैंने पकड़ा हल था
पड़ा था मिथिला में अकाल
भूख से सबका बुरा हाल
तब मैंने मन में सोचा था
खेतों में हल को जोता था
निकला था भूमि से मटका
मेरा हल वहाँ पे था अटका
देखी उसमें प्यारी कन्या
यही थी वह धरती की तन्या
ऐसी प्यारी सी सुता पाकर
खुश कितना था महलों में आकर
धन -धान्य की ऐसी वर्षा हुई
नहीं किसी को कोई कमी रही
हुआ था अपना राज्य खुशहाल
जहां था भूख से बुरा हाल
पड़े सिया के चरण पावन
पावन हो गया राजा का भवन
सुनते सिया की तुतली बातें
उसे देखते ही कटती रातें
वह समय बीता कितनी जल्दी
इक दिन सिया पिया के घर चल दी
अब वह प्यारी सी जनक नन्दिनी
रघुकुल की थी बहु बनी
याद करे सिया का बचपन
खो गया राजा रानी का मन
शिव धनुष सिया ने उठाया था
तब मेरे मन में आया था
सिया का उसी से ब्याह होगा
जो इतना शक्तिशाली होगा
इस धनुष को तोड़ सकेगा जो
सिया को भी तो वरेगा वो
यह भी सीता की शक्ति थी
मन में श्री राम की भक्ति थी
जब धनुष यज्ञ था करवाया
यह उस शक्ति की थी माया
राम ही तोड़े शिव धनुष
इसी में सीता भी थी हर्ष
नहीं सिया को और कोई भाया
तभी तो कोई धनुष न छू पाया
सिया राम का जन्मों का नाता
वह जगत पिता , वह जग माता
यह उन दोनों की थी लीला
था परशुराम भी पड़ा ढीला
मुझे गर्व है मेरी सुता जानकी
रखी है लाज कुल के मान की
पर कैसे रहेगी वह वन में
यह सोच के चैन नहीं मन में
कैसे सह जाऊँ बेटी का दुख
माना उसको पिया के संग सुख
पर मैं भी यह कैसे भूलूँ
और इतना सब्र कैसे कर लूँ
मेरी वह बेटी वन में फिरती
जो ऊँची आवाज़ से भी डरती
और वह जंगल कितना भयानक
पर क्या करे अब यह राजा जनक
चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता
न जीता हूँ न ही मर सकता
माना शक्ति बेटी सीता
पर मेरे लिए वह मेरी सुता
कोई इच्छा नहीं अब जीवन में
बस एक सोच है इस मन में
इक बार सिया हमें मिल जाए
तो जीवन सफल ही हो जाए
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(क्रमश: अगले अंक में जारी...)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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