कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी....) मानस की पीड़ा भाग 15. श्री राम वैदेही व्यथा वन में काट रहे वनवास ...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी....)
मानस की पीड़ा
भाग15. श्री राम वैदेही व्यथा
वन में काट रहे वनवास
नहीं हुए थे कभी उदास
लगता उनको वन भी प्यारा
यही पे था कुदरत का नज़ारा
पशु पक्षी जी जन्तु सारे
लगने लगे थे प्यारे-प्यारे
क्या तरु लता औ क्या जल झरने
लगने लगे थे सारे ही अपने
राम लखन सिया रहे जहाँ पर
वन भी स्वर्ग था हुआ वहाँ पर
घर सा प्यारा लगता था वन
खुश था उन तीनों ही का मन
पर होनी कुछ और लिखी थी
अनहोनी कोई कहाँ दिखी थी
भाग्य में तो कष्ट लिखा था
विधाता ने जो लिख रखा था
देखा था सोन मृग सिया ने
चाहा उसके भोले जिया ने
कितना प्यारा मृग यह सुन्दर
ला दो रखूंगी कुटिया के अन्दर
सुनी राम ने सिया की बात
मिली हो जैसे कोई सौगात
पूरी करेगा सिया की चाह
धनुष उठा के चला उस राह
भाग रहा था मृग जिस राह पर
लखन सिया बैठे थे घर पर
मृग नहीं,वह तो स्वयं काल था
लंकेश्वर का बिछा जाल था
मृग भागा जहां वन था सघन
मरते हुए बोला ! हे लखन
समझा लखन यह भाई चिल्लाया
उस पर है कोई संकट आया
लगाई लखन ने लक्ष्मण रेखा
सिया ने उस रेखा को देखा
इस रेखा को पार न करना
और किसी से न तुम डरना
रावण साधु वेष बना कर
आया सिया बैठी थी जहां पर
बोला! कुछ खाने को दे दो
भूखे साधु का पेट तो भर दो
द्वार से खाली कोई जाए
जानकी यह कैसे सह पाए
लक्ष्मण रेखा को जब तोड़ा
भाग्य ने भी साथ था छोड़ा
हर लिया सिया को अब धोखे से
राम लखन थे नहीं मौके पे
सीता को जब गायब पाया
राम लखन का मन घबराया
हे खग मृग हे भँवरे बोलो
कहाँ है सीता भेद तो खोलो
रो रो कर यूँ राम पुकारे
फिरे वनों में मारे मारे
आया सिया पे कैसा संकट
बहे अश्रु ज्यों कोई पनघट
क्यों छोड़ी मैंने सिया अकेली
अब जो बन गई एक पहेली
रक्षा उसकी न कर पाया
क्यों महलों से वन में लाया?
भटकी मेरे साथ वो वन में
इक विश्वास लिए थी मन में
पति के होते कैसा डर
जहां पति वहां वन भी घर
कितना उसका अटल विश्वास
इसी पे काट लिया वनवास
किया था मैंने सिया से वादा
अपना दुख सुख आधा आधा
सारे ही बंधन तोड़ेगे
पर न कभी साथ छोड़ेगे
क्यों नहीं आया मुझे ख्याल
मृग नहीं , वह स्वयं है काल
छूट गया सीता का साथ
हुई क्यों यह अनहोनी बात
किस मुँह से मैं घर जाऊंगा
और कैसे यह बतलाऊंगा
खो दी मैंने अपनी पत्नी
जो बनी थी मेरी अर्धांगिनी
रही सिया बस मेरी हर पल
मेरे ही लिए छोड़ा था महल
बस इक मेरे साथ की चाह
चुनी सिया ने काँटों की राह
उसका कितना सच्चा प्यार
तज दिया था सारा घर बार
वन में भी तो खुश रहती थी
कभी शिकायत न करती थी
मार लिया उसने अपना मन
पति प्रेम अनमोल रत्न धन
सहती रही उफ् तक भी न की
प्यार की खातिर सब सुख तज दी
पर मैं क्यों बन गया अनजान
क्यों नहीं सिया का रखा ध्यान
न करता मैं कोई भूल
न चुभते यह विरह के शूल
राम मन में पछताते रहते
भाई से अश्रु छुपाते रहते
आँखें बस राहों पे रहती
नैनों से जल धारा बहती
दिल में उठते दर्द अपार
दुखों का भरा हुआ भण्डार
नहीं जाती वो मन से यादें
किए थे इक दूजे से वादे
बेशक उनके भाग्य में जंगल
पर रहते थे खुशी से हर पल
रहा सिया का मुख मुस्काता
अब यह वियोग नहीं सहा जाता
खान पान न मन में भाता
दुख इक पल भी दूर न जाता
हर धड़कन में सिया का नाम
नहीं है मन में तनिक विश्राम
कहाँ से सिया को ढूँढ के लाए
है कोई , जो उसका पता बताए
विरह दर्द हर पल तड़पाता
मन इक पल भी चैन न पाता
पश्चाताप और विरह ज्वाला
कहाँ था कोई समझने वाला
मन में राम घुलते ही रहते
विरह ज्वाला में जलते ही रहते
ढूँढे सारे जंगल जंगल
जहां लगे कोई भी हलचल
पूछे हे पशु पक्षी बोलो
कहाँ सिया कुछ तो मुँह खोलो
इक दिन राम भी सफल हो गया
प्रिय जानकी का पता चल गया
बताया जब हनुमान ने आकर
देखी सिया लंका में जाकर
विरह ज्वाला जलती रहती
राम राम ही जपती रहती
न बोलती वो न खाती है
सारा दिन रोती रहती है
राम ही हर धड़कन में उसके
पर अब है रावण के बस में
सिन्धु पार सोने की लंका
बजता वहाँ रावण का डंका
भूखी प्यासी सिया रहती है
अकेले ही दुख को सहती है
राक्षसी वहाँ पे देती पहरा
सीता माता का दुख गहरा
करती रहती है पश्चाताप
मन से नहीं जाता विलाप
क्यों तोड़ी थी लक्ष्मण रेखा
क्यों मैंने ही सोन मृग देखा
क्यों नहीं रावण को पहिचाना
क्यों न लखन का कहना माना
क्यों इच्छा की मैंने मन में
क्यों भूली , कि हम है वन में
न खाती न कुछ पीती है
इक विश्वास पे ही जीती है
राम वहाँ पर आएगा
उसको वापिस ले जाएगा
जब मैं जा के माता से मिला
तभी जाके उसका हृदय खिला
बोली! अब मुझको दृढ़ विश्वास
श्री राम है मेरे आस पास
नहीं हुए कभी वो दिल से दूर
हुआ क्या जो आज भाग्य क्रूर
एक दिन तो होगा उजियाला
मिट जाएगा यह तूफां काला
श्री राम से जाकर कह देना
मेरा सन्देशा दे देना
जो मुझ पर उनको विश्वास
तो बैठी है सिया लगा के आस
जो मुझ पर जरा सा भी सन्देह
तो अभी त्याग दूँगी यह देह
सिया राम की है,राम की रहेगी
पति के लिए हर दुख को सहेगी
जो उनको मुझपे दया आए
तो जल्दी लंका आ जाएँ
मैं राम के साथ ही जाऊंगी
नहीं तो अब जी न पाऊंगी
असह्य है सिया राम की व्यथा
नहीं कही जाती है उसकी कथा
पर दोनों का विश्वास अटल
विरह में काट रहे हर पल
होगा कभी उन दोनों का मेल
यह भी तो सिया राम का खेल
उनकी लीला तो वही जाने
पर अपना नहीं जिया माने
बेबस हो भाव भी बहते है
और लिख देने को कहते है
बस दी है भावों को वाणी
नहीं कही कोई कहानी
न कहने का कोई प्रयोजन
बिन कहे भी नहीं मानता मन
मानस में भरा हुआ अमृत
स्वयं काव्य श्री राम वृत
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी....)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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