असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 6)

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उपन्यास   गरजत बरसत ----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- - -असग़र वजाहत दूसरा खण्ड ( पिछली किश्त   से आगे पढ़ें...)   .. ...

उपन्यास

 

गरजत बरसत

----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- -

-असग़र वजाहत

दूसरा खण्ड

(पिछली किश्त  से आगे पढ़ें...)

 

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----२०----

जगमग जगमग किसी चीज़ पर आंख ही नहीं टिकती। मौर्या शेरेटन के मुग़ल हाल में सब कुछ चमचमा और जगमगा रहा है। झाड़-फानूस इतने रौशन है कि उससे ज्यादा रौशनी की कल्पना नहीं की जा सकती। चार सौ लोगों को समेटे लेकिन मुगलहाल फिर भी छोटा नहीं लग रहा है। नीचे ईरानी कालीन है जिसमें पैर धंसे जा रहे हैं। दीवारों पर ब्रिटिश पीरियड की बड़ी-बड़ी ओरिजनल पेन्टिंग है। चारों कोने में बार है और सफेद ड्रेस पहने वेटर इधर से उधर डोल रहे हैं। हाल में बीचों-बीच शकील खड़ा है. . .बल्कि मुहम्मद शकील अंसारी, यूनियन कैबनेट मिनिस्टर, सिविल एवीएशन. . .उसने बंद गले का सफेद सूट पहन रखा है जो तेज़ रोशनी में नुमायां लग रहा है। सफेद फ्रेंच कट दाढ़ी, आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा और होंठों पर विजय के गौरव में डूबी मुस्कुराहट. . .

“आज साला रगड़ रगड़ कर नहाया होगा. . .फेशल करायी होगी।” अहमद ने मेरे कान में कहा।

“वैसे जमता है साला।”

“नेता ऐसे ही होते हैं।”

“यहां तो पूरी भारत सरकार मौजूद है।”

शकील को उसके मंत्रालय के ऊंचे अफसर घेरे खड़े हैं। वे यह जानना चाहते हैं कि मंत्री महोदय किस आदमी से कैसे मिलते हैं। मिनिस्ट्री का सेक्रेटरी टेढ़ी-टेढ़ी आंखों से हर उस आदमी को देखता है जो शकील को बधाई देने जाता है। एक अलग कोने में एम.ई.ए. के सेक्रेटरी और दो ज्वाइंट सेक्रेटरी खड़े हैं उनके साथ कैबनेट सेक्रेटरी और शूजा दीवान खड़ी हैं। होम मनिस्टरी के भी लोग मौजूद हैं. . .कारपोरेशन्स के चेयरमैन, सुप्रीम कोर्ट के जज, जाने-माने एडवोकेट, यूनीवर्सिटियों के वायस चांसलर, बड़े उद्योगपति, कला, संस्कृति, फिल्म और एन.जी.ओ. क्षेत्र के नामी गिरामी लोग, सब देखे जा सकते हैं।

शकील के कान में किसी ने कुछ कहा और वह तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा।

“लगता है पी.एम. आ रहे हैं”, अहमद बोला।

“पी.एम. का आना तो बड़ी बात है। आमतौर पर यह प्रोटोकाल के खिलाफ भी है।”

'प्रोटोकाल` धरा रह जाता है जब पावर ही पावर नज़र आती है।

“वो बायीं तरफ देख रहे हैं सोफे पर बैठे दाढ़ी वाले।”

“हां यार।”

“शकील ने पूरे मुल्क के प्रभावशाली मौलवियों को बुला रखा है। इनके हाथ में है मुस्लिम वोट. . .यही वजह है जो प्रधानमंत्री आ रहे हैं।

कुछ देर बाद सिक्युरिटी के घेरे में पी.एम. के साथ-साथ शकील अंदर आया। दो भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी.एम. की तरफ बढ़े, दो चार पुराने समाजसेवी भी आगे बढ़ने लगे। कैमरा मैन धड़ाधड़ फ्लैश चमकाने लगे। वेटर ट्रे लेकर पी.एम के पास गया पर उन्होंने हाथ उठाकर इंकार कर दिया। भरतनाट्यम नर्तकी प्रधानमंत्री के पास पहुंच गयी और उनसे गले मिल ही ली। प्रधानमंत्री के बूढ़े और जर्जर चेहरे पर संतोष और खुशी की छाया तेज़ी से आई और चली गयी। चार-पांच मिनट के बाद प्रधानमंत्री चले गये।

“चलो अब साले के पास चलते हैं।”

“क्या करोगे यार. . .दूसरों को मौका दो. . .हम तो मिलते ही रहते हैं”, मैंने कहा।

“हाय अहमद. . .” मैंने देखा कि शूजा दीवान ने अहमद की गर्दन झुकाकर उसके गाल पर प्यार जड़ दिया। अहमद ने भी शिष्टतावश उसका गाल चूम लिया।

मैंने अहमद की तरह देखा। पचपन साल की उम्र में भी वह उतना ही बड़ा 'किलर` लगता है जितना पच्चीस साल की उम्र में लगता था। उसके घुँघराले बाल, चेहरे पर झलकता गुलाबी रंग, क्लीन शेव, बहुत कायदे से पहने गये शानदार विदेशी कपड़े और जानलेवा मुस्कुराहट कम से कम चालीस पार कर चुकी शूजा दीवान को दीवाना बना देने के लिए काफी है।

मैं धीरे से खिसक गया। लगता था शूजा उसके साथ कुछ बात करना चाहती है। मैंने देखा अहमद ने शूजा की कमर के गिर्द हाथ डाल दिया है और वह बहुत प्रसन्न है। दोनों पता नहीं किससे मिलने जा रहे हैं। मैं अखबार वालों की टोली में आ गया। अचानक सरयू दिखाई दिया।

“ओहो. . .चलो तुमसे मुलाकात तो हुई।”

“यार. . .क्या बताऊं. . .” वह शर्मिन्दा सा होकर बोला “हमारे सम्पादक महोदय की “लाइट लेट हो गयी है. . .उन्होंने मुंबई से फोन करके कहा कि तुम वहां चले जाओ और अखबार की तरफ से 'बुके` दे दो. . .ये भी कहा कि यह बहुत ज़रूरी है।”

“ज़रूरी तो है ही है यार. . .जहां पी.एम. आये हों. . .वह जगह।”

वह मेरी बात काटकर बोला “साजिद मुझे इस सबसे घृणा है”, मैंने देखा उसे कुछ चढ़ चुकी थी।

“छोड़ो यार इन सबको यहां बैठो” मैं उसे कोने में सोफे पर घसीट लाया।

“बहुत दिनों के बाद मिले हो. . .क्या ज़माना था यार काफी हाउस वाला. . .रोज़ शाम हम लोग मिला करते थे।”

“हां. . .वो हमारी ज़िंदगी का सबसे शानदार दौर था। हालांकि पैसे नहीं होते थे। पेट खाली रहता था, महीने में एक चप्पल घिस जाती थी लेकिन फिर भी. . .”

“और आजकल क्या हो रहा है? कोई कह रहा था तुम्हारा पांचवां संग्रह आ रहा है?”

“हां. . .लेकिन तीन-चार महीने लग जायेंगे।”

“नाम क्या रखा है।”

“कुछ बताओ यार. . .अभी तक फाइनल नहीं किया है।”

“इन्हीं दिनों कविता छपी है 'चुप की आवाज़` यही रख दो संग्रह का नाम।”

नीले सूट में एक अधिकारी आया बोला, “सर आपको साहब के साथ ही जाना है।” उसने कहा और तेज़ी से चला गया। मेरे जवाब का इंतिज़ार भी नहीं किया।

“अब देखो. . . ये बदतमीजी है या नहीं?” सरयू बोला।

“छोड़ो यार. . .ये लोग हमें हमारी जिंदगी जीने ही नहीं देते। टालो. . .कविता संग्रह के नाम की बात हो रही थी।”

“हां, 'चुप की आवाज` पर सोच भी रहा हूं. . .अच्छा यार बढ़िया खबर यह है कि मेरी कविताओं का फ्रेंच अनुवाद पेरिस से छप गया है।” सरयू ने बताया।

“अरे वाह. . .अनुवाद किसने किया है?”

“लातरे वाज़ीना. . .वहां हिंदी पढ़ाती है।”

पार्टी अपने ज़ोर पर आ गयी थी लेकिन शकील को छोड़कर सभी महत्वपूर्ण लोग जा चुके थे। शकील अपने मंत्रालय के अधिकारियों के सुरक्षा घेरे में अब भी लोगों से मिल रहा था।

“रावत का क्या है?”

“यार उसका मामला बड़ा अजीब हो गया है?”

“कौन? उसके बॉस?”

“हां यही समझ लो. . .चार पांच बड़े खूसट, चंट और चालाक . . .बल्कि जातिवादी किस्म के ब्राह्मणों ने उसे घेर रखा है. . .मैं भी यार ब्राह्मण हूं. . .लेकिन उस तरह के ब्राह्मणों से भगवान बचाये।”

“क्या हुआ?”

“यार सब मिलकर उसके साथ खतरनाक किस्म का खेल खेल रहे हैं . . .उस पर इतना काम लाद दिया है जिसे चार आदमी भी नहीं कर सकते हैं. . .जब काम पूरा नहीं हो पाता तो उस पर लिखित आरोप

लगाते हैं कि आप 'अयोग्य` हैं. . .जबकि वह नौ नौ बजे रात तक दफ्तर में बैठा रहता है. . ..जल्दी में वह कोई काम कर देता है तो उसकी गल़ती पकड़ते हैं और उसके लिए दफ़्तरी डांट-फटकार वगै़रा होने लगती है. . .

“यार रावत को चाहिए था कि इन सालों को पटा लेता।”

“उसे तुम जानते हो. . .वह दो ही शब्द जानता है अच्छा और बुरा. . .उसकी नज़र में जो बुरा है उसके साथ वह प्यार, मुहब्बत, सम्मान का ढोंग नहीं रचा सकता. . .।”

“नवीन का क्या हाल है?”

“सरकारी नौकरी में रावत जितना 'अनफिट` है, नवीन उतना ही 'फिट` है।” सरयू हंसकर बोला।

“तुमसे मुलाकात होती है?”

“हां कभी-कभी आफिस चला आता है. . .घण्टों बैठा गप्प मारता रहता है।”

“कुछ लिख रहा है।”

“पन्द्रह साल से उसने कुछ नहीं लिखा. . .अब तो सिर्फ जीभ के बल पर दनदनाता है। कितनी बार कहा, यार नवीन कुछ लिखो। तुम इतनी अच्छी फिल्म समीक्षाएँ करते थे, कविताएं लिखो. . .बस हां-हां करके टाल देता है. . .ऑफिस के कायदे कानून का जानकार बन गया है, कहां से कितना पैसा मिल सकता है, यह उसकी उंगलियों पर रहता है।”

किसी दिन आ जाओ तुम लोग तो टेरिस पार्टी रहे।”

“तुम बताओ. . .तुम्हारा क्या हाल है?”

“अखबार का तुम जानते ही हो. . .यहां मेरा होना न होना बराबर है. . .न तो वे लोग मुझसे काम लेते हैं न मैं करता हूं. . .बस यही सोचता रहता हूं कि काम क्या किया, जीवन क्या जिया. . .बर्बाद किया. . .”

“नहीं यार तुम. . .” वह रुक गया। अहमद हमारी तरफ आ रहा है।

“यार अब तो यहां से खिसकना चाहिए।”

“शकील के साथ चलना है। कह रहा था तुम दोनों धोखे से भी यहां खाना न खाना। मैंने लखनऊ से काकोरी कबाबची बुलवाया है।”

“वाह साले की ठसकों में तरक्की हो रही हैं”, अहमद बोला।

“अब तो दुनिया के किसी भी कोने से सीधे माल मसाला आया करेगा. . .एयर इंडिया अपने मिनिस्टर्स की अच्छी देखभाल करता है। योरोप से चेरी आयेंगी. . .पेरिस से 'चीज़` आयेगी. . .मास्को से बोद्का. . .

“यही नहीं . . .ये तो सब हाथी के दांत हैं. . .तुम तो जानते ही होंगे. . .नये एयर क्राफ्ट खरीदे जाने हैं।”

बेडरूम में अखबारों का ढ़ेर पलटने लगा। मंत्री मण्डल की हेडलाइन है, दूसरी सेकेण्ड लीड क्रिकेट मैच में हमारी जीत की है, उसके बाद योरोपियन यूनियन ने सौ मिलियन यूरो पावर जनरेशन के लिए आफर किया है. . .सब अच्छी खबरें हैं। आजकल हम लोगों को मैनेजमेण्ट की हिदायत है कि कम से कम पहले पेज पर अच्छी खबरें छापें। एडीटर और न्यूज़ एडीटर इसका पूरा ध्यान रखते हैं। कहीं धोखे से यह न छान देना कि सात प्रांतों में अकाल की स्थिति है। कहीं भ्रष्टाचार की खबरें न छप जायें पहले पृष्ठ पर. . .हां तीसरे पेज पर अपराध की बहार है. . .लौट फेर का सब अख़बार यही कर रहे हैं . . .ये क्यों निकल रहे हैं? इसका उद्देश्य क्या है? ये अपने को नेशनल डेली कहते हैं। 'नेशन` इन खबरों में कहां है? अख़बार के दफ्तर में मैं ऐसी बहसें बहुत कर चुका हूं पर कोई नतीजा नहीं निकला। अगर ज्यादा कुछ करूं तो नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। यही अच्छा है कि उस ज़माने की नौकरी है जब परमानेंट नौकरी दी जाती थी। आजकल की तरह 'काण्ट्रेक्ट` वाली नौकरी होती तो कब का निकाल बाहर किया जाता। मैनेजमेण्ट जानता है कि कुछ साल की बात है। साला रिटायर होकर घर बैठ जायेगा। इससे पंगा क्यों किया जाये। तीस साल की नौकरी में इसके भी सम्पर्क बन गये हैं। मंत्रियों के फोन आयेंगे। पचड़ा होगा।

इससे अच्छा है पड़ा रहने दो। सनकी है। सनक में निकल जाता है ऐसे इलाकों में जहां साधारण रिपोर्टर तक जाना न पसंद करेगा। ठीक है थोड़ा खिसका हुआ है। पर कभी-कभी ऐसे लोगों की भी ज़रूरत पड़ जाती है।

सुप्रिया की याद आ गयी। उस प्रसंग को निपटे भी कम से कम पांच साल हो गये हैं। लगता है संबंधों के बनने के पीछे न कोई कारण होता है। और न बिगड़ने की कोई वजह होती है। सुप्रिया से मेरे संबंध बिगड़े भी तो नहीं। बस ठण्डे पड़ते गये। हो सकता है उसका दुख भारी हो गया हो। हो सकता है मुझे ऊब गयी हो, हो सकता है इसकी निरर्थकता का एहसास हो गया हो या हो सकता है सेक्स की ख्वाहिश ही कम होती चली गयी हो. . .लेकिन अब भी मैं उसे फोन कर लेता हूं। वह भी कभी काल करती है। बहुत सालों से हम मिले नहीं हैं लेकिन अगर मिलेंगे तो हो सकता है हमारी बीच शारीरिक संबंध भी बन जाये। मेरे ख्याल से सुप्रिया अब पैंतालीस की होगी और मैं पचास पार कर गया। पहले जैसा जोश और वलवला तो नहीं है लेकिन फिर भी मैं सुप्रिया की प्रतीक्षा करता हूं. . .सोचता हूं जब तक कर सकूँ अच्छा ही है।

सुबोध कुमार चट्टोपाध्याय यानी अपने पिता के स्वर्गवास के बाद सुप्रिया की मां अकेली हो गयी थीं और किसी भी कीमत पर अलीमउद्दीन स्ट्रीट वाले फ्लैट न छोड़ना चाहती थी। इसलिए सुप्रिया को कलकत्ता जाना पड़ा था। वहां उसे एक वीकली में नौकरी मिल गयी थी।

आज इस वक्त उसकी याद आई तो आती चली गयी। दस-बारह साल बहुत होते हैं। एक बज चुका है। सुप्रिया को कलकत्ता फोन नहीं किया जा सकता वह आफिस में होगी लेकिन हीरा को लंदन फोन किया जा सकता है। अभी लंदन में सुबह होगी।

----२१----

इतने सालों में मेरा शहर बहुत नहीं बदला है। हां, पुरानी मण्डली बिखर गयी है। कलूट नहीं रहे। मुख्त़ार 'एलकोहलिक` हो गया। सुबह डेढ़ पाव दारु पीकर चचा के होटल आ जाता है और दोपहर तक अखबार पढ़ा करता है, दोपहर को खाना खाकर सो जाता है। शाम फिर शराब शुरु हो जाती है। अब उसका पार्टी से कोई ताल्लुक नहीं है। यूनियनें सब ठप्प हो गयी हैं। अतहर की लखनऊ में नौकरी लग गयी है। वह यहां कम भी आता है। उमाशंकर ने आटा चक्की खोल ली है। पार्टी में अब भी हैं और जितना हो सकता है सक्रिय रहते हैं। कामरेड आर.के. मिश्रा अब भी पार्टी सेक्रेटरी हैं। बूढ़े हो गये हैं। दांतों में बड़ी तकलीफ रहती है। पंडित दीनानाथ गांव जाकर रहने लगे हैं। शहर बहुत कम आते हैं। सूरज चौहान ने पार्टी छोड़ दी थी। कामरेड बली सिंह का स्वास्थ्य बहुत गिर गया है। दिल के दो आपरेशन हो चुके हैं। 'आबरु` बरेलवी केवल प्रैक्टिस करते हैं। साम्प्रदायिक पार्टी ने हिन्दू के नाम पर जातिवादी दलों ने जातियों के नाम पर अपने वोट बैंक बना लिए हैं।

मैं मकान की मरम्मत, देखभाल, टैक्स के नाम पर इतना पैसा भेज देता हूँ। घर में खाना पकाने वाला बुआ का लड़का भी मल्लू मंजिल में आ गया था। मजीद अपनी पत्नी अमीना और आधा दर्जन बच्चों के साथ रहता है।

केसरियापुर वाले चौरे में रहमत का छोटा बेटा अशरफ रहता है। रहमत को गुजरे एक ज़माना हुआ। वहां खेती बटाई पर ही होती है। पहले सारा अनाज घर आ जाया करता था और खाला वगै़रा के काम आता था। अब बेच दिया जाता है और अशरफ उसे पैसे से मल्लू मंजिल की

मरम्मत वगै़रा करा देता है। गुलशन अक्सर बड़बड़ाता रहता 'अरे एक बोरा लाही तो आ ही सकती है. . . दो मन अरहर आ जाये तो यहां साल भर चले।` मैं उसे कभी-कभी उसे केसरियापुर भेज भी देता हूं और वह अपने हिसाब से ग़ल्ला ले आता है।

ऐसा नहीं है कि अपने वतन में अब मैं बिल्कुल अजनबी हो गया हूं। जब जाता हूं पुराने परिचित और नये लड़के मिलने आ जाते हैं। मैं भी कलक्ट्रेट का एक चक्कर मार लेता हूं। पुराने लोग मिल जाते हैं। ताज़ा हालात की जानकारी हो जाती है। चूंकि शहर में सभी जानते हैं कि मैं 'द नेशन` में हूं इसलिए कभी-कभी छोटे-मोटे काम भी बता देते हैं जिन्हें मैं कर देता हूं।

अगर मैं चाहूं तो वहां बराबर जा सकता हूं लेकिन हर बार वहां जाकर तकलीफ होती है। गुस्सा आता है। दुख होता है। निराशा होती है। ऐसा नहीं है कि इस तरह के छोटे शहर या कस्बे मैंने देखे नहीं हैं। उम्र ही गुज़री रुरल रिर्पोटिंग करते करते। देश का शायद ही कोई ऐसा ग्रामीण क्षेत्र हो जो न देखा हो। लेकिन इस शहर में आकर दुख इसलिए होता है कि मैंने चालीस साल पहले एक छोटा, गरीब पर साफ-सुथरा शहर देखा है जहां सिविल सोसाइटी अपनी पूरी भूमिका निभाया करती थी। आज यह एक गंदा, ऊबड़ खाबड़, सड़कों पर कूड़े के ढ़ेर और गड्ढ़ों वाला एक ऐसा शहर बन गया है जहां सिर्फ पस्ती दिखाई देती है। जो नयी इमारतें बनी हैं वे भी दस-पन्द्रह साल में बूढ़ी और बेढंगी लगने लगी हैं। क्योंकि ठेकेदारों और सरकारी कर्मचारियों ने इतना पैसा खाया है कि जिसकी कोई मिसाल नहीं दी जा सकती। नगरपालिका की खूबसूरत इमारत के अहाते में सड़क की तरफ दुकानें बना दी गयी हैं जिसके कारण सौ साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत छिप गयी है। इस इमारत की भी हालत खराब है। कहा जा रहा है इसे गिराने की बात चल रही है। जिला अस्पताल साफ-सुथरा हुआ करता था अब वह गंदगी का अड्डा है और मरीज़ों की भीड़ लगातार डाक्टरों की प्रतीक्षा करती रहती है जो प्राइवेट क्लीनिकों के काम करते हैं। सरकार स्कूलों की अंग्रेज़ों के ज़माने में बनी इमारतों का हाल बेहद खराब है। रख रखाव की बात छोड़

दें, फुलवारी और लान को जाने भी दें तो इमारत का प्लास्टर गिर रहा है। दसियों साल से पुताई नहीं हुई है। यह देखकर विश्वास नहीं होता कि चालीस साल पहले यह एक 'वेलमेनटेण्ड` और खूबसूरत स्कूल हुआ करता था। सड़कों पर कूड़े के बड़े-बड़े ढेऱ लगे रहते हैं और नालियां नाले कीचड़, गंदगी, मच्छरों से बजबजाते रहते हैं। कहते हैं नगरपालिका में जब भी 'ड्रेनेज सिस्टम` बनाने की बात होती है दो गुटों में लड़ाई हो जाती है और उसे मंज़ूरी नहीं मिल पाती।

आबादी बेहिसाब बढ़ी है। गांवों में अपराध और जतीय तनाव इतना ज्यादा हो गया है कि बड़ी संख्या में लोग शहर आ गये हैं। इसके साथ रिक्शों की संख्या बढ़ती चली गयी है। शहर के किनारों पर जो नयी बस्तियाँ बनी हैं उनमें कलेक्ट्रेट के पास बनी धनवान वकीलों और व्यापारियों की कोठियों के अलावा दसियों 'सल्म एरिया` बन गये हैं। बच्चे-पक्के मकान, अधूरे मकान, गड्डमड्ड मकान, पतली-पतली गलियां, नालियां, कूड़े के ढेऱ और गलियों में बेहिसाब गऱीब बच्चे नज़र आते हैं। मोहल्ले की गलियां कुछ पक्की हो गयी हैं जिन्हें विधायकों ने अपनी निधि से इन्हें पक्का कराया है। पता नहीं विधायकों और सांसदों की निधि सड़कों पर क्यों नहीं लग सकती?

पुराने प्राइवेट कालिजों की मैनेजिंग कमेटियों पर उन लोगों ने कब्ज़ा जमा लिया है जिन्होंने अपराध के माध्यम से व्यापार में मुनाफा कमाया था और अब अपनी सामाजिक हैसियत बना रहे हैं। ग्राम पंचायतों और जिला पंचायत पर दंबगों का कब्ज़ा है। राजनीति अपराधियों के हाथ में खिलौना बन गयी है। हर जाति के अपने-अपने गुण्डे, अपराधी और बदमाश हैं जिनका जाति विशेष में बड़ा सम्मान होता है। जिसने जितनी हत्याएं की हैं उसका पद उतना ऊंचा समझा जाता है। 'आबरु` बरेली ने एक बार बताया कि उनके पास कत्ल का एक केस आया। कातिल पुराना हत्यारा और अपराधी था। उससे वकील साहब ने पूछा 'तुमने क्यों गोली चलाकर किसी अजनबी को मार डाला`। उसने जवाब दिया वकील साब देखना चाहता था कि दोनाली चलती भी है या नहीं।` मतलब यह कि अपराध करना अपराध नहीं है। हर चीज़ का पैसा तय

है। एफ.आई.आर. बदलना है, गवाह तोड़ने हैं, फाइल में कागज़ लगवाना है, तारीख बढ़वानी है, सम्मन तामील कराना है या नहीं कराना, बड़े साहब को पैसा पहुंचाना है। बताया गया कि कुछ बड़े साहब तो दोनों पार्टियों को बुला लेते हैं और दो टूक कहते हैं ये फैसला लिखवाना हो तो इतना, यह लिखवाना हो तो इतना। अब यहां पैसे का खेल शुरु हो जाता है। जो धनवान है वह जीत जाता है। यही वजह है कि अगर किसी चीज़ की 'वैल्यू` बढ़ी है तो वह पैसे की। कैसे आता है? किसी तरह आता है? ये सवाल ही नहीं बचे। सवाल यह है कि जल्दी से जल्दी कितना आता है।

रात के अंधेरे में बिस्तर पर लेटकर कभी-कभी ख्य़ाल आ जाता है कि इतना जीवन गुज़ारा क्या किया? मतलब क्या करना चाहता था और क्या किया? लेखक बनना चाहता था। अगर लेखक ही बन गया होता तो कुछ लिख-लिखाकर संतोष हो जाता। वह भी नहीं हो पाया। पत्रकार बन गया, लेकिन किया क्या? ग्रामीण क्षेत्रों के रिपोर्टें छपवाई, पर उनसे क्या हुआ? एक ज़माना था जब सोचता था कि पूरा संसार बदल जायेगा। अच्छा हो जायेगा। अब लगता है पूरा संसार और ज्यादा बिगड़ गया है। पहले सोचता था पूंजी का दबाव कम होगा. . .आदमी राहत की सांस ले पायेगा. . .पर हुआ इसका उलटा. . .सोचता था एशिया के देश खुशहाल होंगे. . .साम्राज्यवाद की गिरफ्त से छूटे देश आगे बढ़ेंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं दिखाई पड़ता। देश में क्या है आज? तरक्की और प्रगति के आंकड़े किसकी सम्पन्नता दर्शाते हैं क्योंकि बहुसंख्यक जनता तो उसी तरह चक्की के पाटों के बीच है जैसे पहले थी और सोने पर सुहागा यह कि धर्मान्धता और जातीयता ने मुद्दों को ढांक लिया है। अब सब कुछ साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रांतीयता के आधार पर नापा जाता है। यही वजह है कि मुख्य मुद्दों पर कोई बात नहीं करता। लोकतंत्र का विकास इस तरह हुआ कि आम आदमी की आवाज़ ज्यादा कमज़ोर पड़ी है। आज चुनावी लेख पैसा, सम्प्रदाय, जाति का खेल बन गया है। ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है? मैं क्या करूं? कुछ न करने से यह अच्छा है कि कुछ किया जाये, चाहे उसमें कमियां हों, चाहे गल़तियां हों,

चाहे 'लूपहोल` हों, लेकिन कुछ किया जाना चाहिए। क्या? क्या कोई बना बनाया रास्ता है? कोई राजनैतिक दल, कोई विचारधारा?

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“यार ये खेल तो तुम खतरनाक खेल रहे हो”, मैंने अहमद से कहा।

“खतरा तो कुछ नहीं. . .बस थोड़ी दिक्व़फ़त होती है”, वह बोला और शकील हंसने लगा।

“इससे संभल नहीं रही है”, शकील ने आंख मारी।

“बात सीरियस है यार. . .अबे तुझे मालूम है वह कैबनेट सेक्रेटरी की गर्लफ्रेण्ड है”, मैंने कहा।

“ये कौन नहीं, पूरी सरकार जानती है”, अहमद ने कहा।

“उसे पता चल गया तो तुम्हारा क्या होगा ?”

“क्या वो उसे सती-सावित्री मानता है?”

“फिर वही बेतुकी 'लाजिक`. . .अरे यार 'इगो` भी तो होता है

“देखो, मेरे सामने और कोई रास्ता है नहीं. . .मैं ये मानता हूं कि मेरी ज़िंदगी में हमेशा औरतें काम आयी हैं. . .और ये भी मानता हूं कि अब मतलब पचपन साल का हो जाने के बाद. . .या समझो. . . चार पांच साल बाद मेरी यू.एस.पी. खत्म हो जायेगी. . .समझे।”

हम तीनों हंसने लगे।

“शकील से कहो”, ये कुछ करेगा।``

“यार मेरी मिनिस्ट्री की बात होती तो जो कहते कर देता. . .पर मामला एम.ई.ए. का है”, वह बोला।

“कहीं से दबाव डालो।”

“मिनिस्टर तो उल्लू का पट्ठा है. . .सेक्रेटरी के आगे उसके एक नहीं चलती. . . वह क्या करेगा?”

“देखो. . .बात साफ है. . .शूज़ा दीवान मेरे बारे में कैबनेट सेक्रेटरी से बात करेगी. . .उनकी बात मेरा सेक्रेटरी टाल नहीं सकता. .यार मैं 'एम्बेस्डर` हो जाऊंगा तो तुम लोगों को भी ऐश करा दूंगा. . .

वैसे इस सरकार का कोई भरोसा नहीं है. . .जल्दी करना चाहिए।”

“सरकार की तुम फिक्र न करो. . .चलेगी. . .”, शकील बुरा मान कर बोला।

“ठीक है भई. . .

-''तो अब पोज़ीशन क्या है?”

“मैं शूज़ा से मिलता हूं. . .अभी तो मैंने कुछ कहा नहीं है।”

“कैसी है?”

“अरे यार खूब खेली खाई है. . .अब तुम समझ लो. . .करोड़ों की प्रापर्टी बनाई है इसने. . .और बस वैसे ही. . .इधर का माल उधर करने में।”

“तो आगे क्या करोगे?” मैंने पूछा।

“यार ये इस काम में माहिर हैं. . .अपने आप सेट कर लेगा। ये चाहे तो कोई भी औरत इसके लिए ख़ुदकुशी कर सकती है”, शकील ने कहा।

“ये न कहो यार. . .औरतों ने ही इसे चूना लगाया है. . .”

“इसने भी तो चूना लगाया है. . .बल्कि इसने इम्पोरटेड चूना लगाया है”, वह हंसने लगा।

“तीन साल का टिन्योर 'पोस्टिंग` होती है न एम्बेस्डर की?”

“हां. . .तीन साल. . .”

“तुम लोग भी जिस तरह 'टैक्स पेयर` का पैसा बरबाद करते हो वह 'क्रिम्नल` है”, मैंने अहमद से कहा।

“अब तुम कहते रहो. . .उससे क्या होता है. . .ये तो साले तुम अपने अखबार में भी नहीं लिख सकते” अहमद ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया।

“हां जानता हूं. . .ये सब अखबार में नहीं लिख सकता. . .अखबार में ये भी नहीं लिख सकता कि राष्ट्रपति तीन सौ कमरे के पैलेस में क्यों रहता है? हज़ारों एकड़ उपजाऊ जमीन पर बड़े-बड़े लॉन और मुगल़ गार्डेन बनाने की क्या ज़रूरत है. . .करोड़ों लोग लगातार अकाल, बाढ़ और सूखे से मरते रहते हैं और राजधानी में बारह महीने शहनाई बजती रहती है”, मैंने कहा।

“ये रूरल रिपोर्टिंग से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. . .जो तुम चाहते हो वो तो समाजवादी देशों में भी होता है. . .देखो यह तो देश के गौरव का सवाल है, प्रतिष्ठा का सवाल है, सम्मान की बात है. .हमें इस संसार में रहना है तो यहां. . .”

मैं शकील की बात काटकर बोला “ये बताओ ये देश किसका है?”

“सबका है।”

“उसका भी है जो अकाल में मर रहा है. . .उसका भी जो बाढ़ में बह गया. . .उसका भी जो. . . अगर यह देश उनका भी है तो उन्हें क्या मिल रहा है जिनका देश है. . .बहुसंख्यक जनता।”

“इन सब बहसों से कुछ नहीं होगा। अहमद बोला “चलो . . .खाना लगवाओ।”

शिप्रा को मेरे सख्त़ निर्देश हैं कि जब भी कोई मुझसे मिलने आये, उसे आने दिया जाये। लोग जानकारियों का ख़ज़ाना हैं और पता नहीं किसके पास क्या मिल जाये। मैंने यह भी कह रखा है कि ये सवाल भी न किए जायें कि क्या काम है? और कहां से आये हैं? मेरे ख्याल से ये सवाल मानवीय गरिमा के प्रतिकूल हैं। आदमी होना अपने आप में बहुत से सवालों का जवाब है।

आफिस में मैं जब तक रहता हूं मिलने वाले लगातार आते रहते हैं। दूरदराज इलाकों से आये लोग वहां के हालचाल बताते हैं मैं जानता हूं कि जिस तरह मैं अखबार में सब कुछ नहीं लिख सकता उसी तरह दूसरे अखबार भी बहुत कुछ नहीं छाप सकते। इसलिए आज भी जानकारी विश्वस्त जानकारी का सूत्र मनुष्य ही है। संचार क्रांति के इस युग में आदमी से आदमी का मिलना उतना ही ज़रूरी है जितना हज़ारों साल पहले था।

दूरदराज़ इलाकों से लोग, छात्र, स्वतंत्र लेखन करने वाले पत्रकार, एन.जी.ओ., राजनैतिक कार्यकर्ता, संगठनों और यूनियनों के लोगों से मिलता रहता हूँ। अखबार के दूसरे वरिष्ठ लोग यह देखकर मुंह बनाते हैं और ऐसी अटकलें लगाते हैं कि मेरा बड़ा मनोरंजन होता है। कहते हैं अली साब चुनाव लड़ना चाहते हैं या कोई कहता है अपनी पार्टी बनाना चाहते हैं। एक अफवाह यह भी उड़ाई थी कि सरकार में कोई बड़ा पद प्राप्त करना चाहते हैं। बहरहाल मैंने इनमें से किसी बात का खण्डन नहीं किया।

जहां तक अखबार की राजनीति मतलब अन्दरुनी उठा-पटक वाली राजनीति का सवाल है उससे मैं बहुत दूर हूं। पक्की नौकरी है कोई निकाल सकता नहीं। तरक्की मुझे चाहिए नहीं क्योंकि वह मेरे ख्याल से अर्थहीन है। मैं अगर एसोसिएट सम्पादक के रूप में रिटायर होता हूं या चीफ एडीटर के रूप में तो उससे क्या फ़र्क पड़ता है? मानता हूं कि अपना संतोष और अपने हिसाब से अपनी प्रसांगिकता से बड़ी कोई चीज़ नहीं है।

“आपको कल प्रधानमंत्री के साथ श्रीनगर जाना है”, शिप्रा ने ऑफिस में घुसते ही मुझे बिग-बॉस का आदेश सुना दिया।

“क्यों क्या और कोई नहीं है।”

“बड़े बॉस मिनिस्टर फॉर एक्सट्रनल अफेयर्स के साथ चीन गये हैं, त्रिवेदी जी छुट्टी पर हैं।”

“हां तो अब मैं ही बचता हूं. . .ठीक है पी.एम. ऑफिस फोन करके प्रोग्राम पूछ लो। घर फोन करके गुलशन से कहो सामान पैक कर दे और ड्राइवर से कह दो कि “लाइट टाइम पर घर जा जाये।”

“मैंने यह सब काम कर दिए हैं मिस्टर अली. . .ये देखिए प्रोग्राम. . .”, वह बोली।

“ओ गॉड शिप्रा. . .इतनी स्मार्ट नेस. . .तुम्हें मेरे जैसे आदमी की सेक्रेटरी नहीं किसी मल्टीनेशनल कारपोरेशन के सी.ई.ओ. की सेक्रेटरी होना चाहिए”, मैंने कहा और वह हंसने लगी। उसके सफेद दांत

गुलाबी होंठ। फिर मैंने सोचा कि वह बहुत सुंदर है. . .ताज़ा है. . .ताज़गी उसके व्यक्तित्व से पानी की गरम फुहार की तरह बरसती रहती है. . .वाह इस उम्र में खूबसूरती को 'एप्रीशिएट` करने का ये जज्ब़ा. . .सच पूछा जाये तो पचास साल का हो जाने के बाद ही यह पता चलता है कि औरतें कितनी सुंदर होती हैं उससे पहले तो आदमी जल्दी से होता है। सुंदरता को देखते और सराहने के लिए वक्त चाहिए, धैर्य चाहिए, अनुभव चाहिए, परिपक्वता चाहिए. . .कहीं ये न हो कि तुम बुढ़ापे में शायरी शुरू कर दो. . .।

प्रधानमंत्री के साथ श्रीनगर गया ऊब और निरर्थकता का भाव लेकर लौट आया। सोचा कि क्या दूसरे पत्रकारों को भी यही लगा होगा? हो सकता है लगा हो लेकिन जिस तरह मैं यह सब लिख नहीं सकता, कह नहीं सकता उसी तरह वे भी मजबूर होंगे। यह भी हो सकता है कि अपना महत्व बनाये रखना जरूरी होता है।

----२२----

मेरी टेरिस पार्टी में एक मेम्बर नहीं है। उसका फोन आया है कि वह बस आ ही रहा है। शकील के इसरार पर हम शुरू कर चुके हैं। गुलशन कबाब ले आया है।

“यार ये अहमद कह रहा था कि उसे दिल्ली पेरिस-दिल्ली दो कम्पलिमेण्ट्री टिकट दिला दूं।”

“क्यों?”

“शूजा के साथ एक हफ्ते को पेरिस जाना चाहता है।”

“लगता है अभी पूरी तरह काबू में नहीं आई है।”

“वो तो जो है जो है. . .मैं परेशानी में पड़ गया हूं।”

“क्या परेशानी?”

“यार टिकट तो मिल जायेंगे. . .लेकिन अगर कैबनेट सेक्रेटरी को यह पता चल गया तो पता नहीं उसका क्या 'रिएक्शन` हो?”

“क्या होगा?”

“कुछ भी हो सकता है।”

“फिर भी तुम क्या सोचते हो?”

“बहुत बुरा मानेगा. . .रिपोर्ट ये हैं कि दोनों में बहुत निकटता हो गयी है। अलवर के किसी 'रिज़ाट` में जाते हैं. . .”

“हां ये तो हो सकता है. . .”

अहमद आ गया और बातचीत में शामिल हो गया।

“देखो वैसा कुछ नहीं होगा. . .एक हफ्ते की बात है. . .शूजा ने उन्हें बता दिया है वह अपनी बहन से मिलने इंग्लैण्ड जा रही है... वहां से कुछ दिन के लिए पेरिस जायेगी. . .यार तुम्हें पेरिस में ठहरने का भी इंतिजाम करना होगा”, उसने शकील से कहा।

“लो सोने पर सुहागा. . .बहुत गड़बड़ हो जायेगी।”

“अमां तुम बेकार में डर रहे हो”, वह बोला।

“तुम तो जानते ही हो कि बड़े लोगों की बेटियों से 'स्प्रिचुअल` इश्क करने वालों का भी क्या हाल होता है. .. और यहां तुम्हारा मामला तो सौ फीसदी 'फिज़िकल` है।”

“देखा इसका एक सीधा रास्ता हो सकता है”, मैंने कहा।

“क्या?”

“तुम सीधे इस झंझट में पड़ते ही क्यों हो।”

“मतलब?”

“यार पैलेस इंटर कांटिनेण्टल वालों को इशारा करो. . .वे अपने आप सब इंतिज़ाम करा देंगे. . .तुम्हारी एयर लाइंस में 'केटरिंग` करते हैं. . .इतनी मदद भी न करेंगे।”

“हां ये तो हो सकता है।”

“यार साजिद के दिमाग में आइडिये खूब आते हैं. . .लेकिन खुद साला तरसता रहता है”, अहमद ने कहा।

“अपनी अपनी किस्मत है”, अहमद बोला।

“नहीं ये साला सोचता बहुत है. . .सोचने वाले 'इम्पोटेण्ट` हो जाते हैं।”

“वाह. . .ये कहां से खोज लाये?”

“देखो बेटा. . .आदमी की औरत के साथ और औरत की आदमी के साथ रहने की ख्वाहिश 'नेचुरल` है। अगर ये नहीं होता तो आदमी. . .”

“'अननेचुरल` हो जाता है?”

“नहीं नहीं ये बात नहीं है. . .लेकिन आदमी. . .तुम्हारे जैसा हो जाता है”, वह हंसकर बोला।

अहमद ने मज़ाक में ही सही पर सही बात कही है। सात साल हुए सुप्रिया को गये और उसके बाद से मैं अकेला हूं। साल में एक-दो बार या उससे ज्यादा वक्फ़े के बाद लंदन जाता हूं तो मुझे तन्नो अजनबी लगती है। उसे मैं भी शायद अजनबी लगता हूंगा। हद ये है कि हम एक दूसरे के सामने कपड़े नहीं बदलते। वैसे सब कुछ ठीक है। हम एक दूसरे को पसंद करते हैं। चाहते हैं, पर बस. . .हो सकता है उम्र की वजह से हो. . .हो सकता है कुछ और हो. . .

“क्या सोचने लगे”, अहमद ने बोला।

“तुम ठीक कहते हो यार।”

“तो अपनी सेक्रेटरी पर दांव लगाओ।”

“अरे यही यार. . .”, मैं घबरा गया।

“देख साले को।”

“इसका इलाज कराओ”, शकील ने कहा।

“देखो इसकी प्राब्लम यह है कि इसने अपने बारे में बहुत कम सोचा है।”

“बिल्कुल ठीक कहा तुमने।”

“इसकी जगह कोई ओर होता तो आज पता नहीं क्या हो गया होता।”

“वह बात अलग है. . .बात तो ये हो रही थी कि मैं 'अकेला` हूं।”

“यार तुम अपनी वजह से. . .अपनी 'चोवइस` से अकेले हो।“

“अब तुम भी कुछ बोल दो. . .खामोश क्यों बैठते हो”, शकील ने मुझसे कहा।

“अब मैं क्या बताऊं. . .सुप्रिया के बाद. . .”

“अरे छोड़ो सुप्रिया को. . .इतने साल हो गये. . .पता नहीं कहां होगी।”

“तुम लंदन क्यों नहीं चले जाते।”

अब मैं उन लोगों को क्या बताता कि पति और पत्नी होने के बावजूद समय ने हम दोनों के साथ क्या अन्याय किया है।

“नहीं यार. . .वहां मैं क्या करूंगा।”

“करने की ज़रूरत क्या है. . .ससुर साहब खरबों छोड़ गये हैं”, अहमद ने कहा।

“यार तुम पागल हो गये हो. . . मतलब मैं पड़ा पड़ा खाता रहूं।”

“तुम दरअसल 'रियल्टी` को 'फेस` नहीं करना चाहते”, अहमद बोला।

“देखो तुम और हम लोग सभी पचास से ऊपर हैं. . .अब इस उम्र में कोई 'ठिया` न हुआ तो मुश्किल हो जायेगी।”

“अहमद का क्या 'ठिया` है?”

“यार मैं बस साल दो साल में ही किसी अच्छी औरत से. . .”

“अरे छोड़ो. . .ये तुमने जिंद़गीभर नहीं किया।”

अभी तो रात के तीन बजे हैं। पता नहीं क्यों डियरपार्क से किसी मोर के बोलने की आवाज़ लगी। मैं उठकर खिड़की तक आया। अंधेरा है। रौशनी का इंतिज़ार बेकार है क्योंकि अभी उसमें समय है। एक बजे जब वे दोनों चले गये तो मैं स्टडी में आ गया था। जब कभी उकताहट बढ़ती है और 'डिप्रेशन` सा होने लगता है तो अपनी किताबें देख लेता हूं. . .चार किताबें. . .देश के नामी पब्लिशर्स ने छापी है। चारों ग्रामीण और आदिवासी भारत की विभिन्न समस्याओं पर आधारित है। इन किताबों पर सात 'एवार्ड` मिले हैं जो स्टडी में सजे हुए हैं। तस्वीरें हैं. . . .तो क्या जिंदगी के एक-एक पहल का हिसाब देना पड़ता है? कौन मांगता है यह हिसाब? शायद हम अपने आपसे ही मांगते हैं। अपने को संतुष्ट करना बहुत मुश्किल काम है। मैं तो काम बिल्कुल नहीं कर पाता। मैं सोचता हूं छोटा होते-होते, होते-होते अब ये 'सपना` क्या रह गया? मर तो नहीं गया? मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि 'सपने` के बिना भी मैं ज़िंदा हूं तो अब वह सपना क्या है? मैं दसियों साल देश के गांवों में घूमता रहा, लिखता रहा। 'सपने` की तलाश करता रहा। कभी बड़ी हास्यास्पद लेकिन आंखें खोल देने वाली परिस्थितियों से दो चार भी हुआ। एक बार बैतूल के एक आदिवासी गांव में मुझे और मेरे साथ एक दो और जो लोग थे उन्हें देखकर गांव में भगदड़ मच गयी थी। आदमी

अपना काम छोड़कर भागने लगे थे। औरतें बच्चों को बगल़ में दबाये भागने लगीं थीं। मैं हैरान था कि यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है? ये लोग हमें क्या समझ रहे हैं। तब साथ वाले एक स्थानीय कार्यकर्ता ने बताया था कि ये लोग हमें बैंक वाले समझ कर भाग रहे हैं। मेरी समझ में फिर भी बात नहीं आई थी। पहले तो कार्यकर्ता ने आवाज़ देकर इन लोगों को रोका था और उनकी भाषा में ही कहा था कि हम बैंक वाले नहीं हैं। ये सुनकर कुछ लोग पास आये थे।

पता चला कि कर्ज लेना भी विकास की एक पहचान माना जाता है। इसके अंतर्गत एक बैंक ने आदिवासियों को कर्ज देने के लिए एक राशि निश्चित की थी। आदिवासियों को कर्ज की कोई ज़रूरत न थी ओर न वे बैंक से कर्ज लेना जानते थे और न इसके अभ्यस्त थे। इस कारण बैंक का ब्रांच मैनेजर परेशान हो गया कि 'टारगेट` पूरा नहीं हो सकेगा तो उसकी तरक्की में अड़चन आयेगी। किसी ने सुझाया कि गांव ही जाकर कर्ज दे दो। वहीं कागज़ी कार्यवाही कर लो। वह दो तीन बिचौलियों के साथ आया और गांव के सबको पैसा दे दिया। उनसे अंगूठा निशान लगवा लिए। इन लोगों को कुछ पता नहीं था कि यह कैसा पैसा है? इसका क्या करना है? यह किस तरह लौटाया जायेगा? लौटाया भी जायेगा या नहीं। बैंक मैनेजर कर्ज देकर चला गया। इन लोगों ने पैसे की शराब पी डाली। अनाप-शनाप ख़र्च कर दिया। साल भर बाद दूसरा बैंक मैनेजर कर्ज की किश्त वसूल करने आया। कर्ज की किश्त वसूल हो जाना भी विकास की पहचान और बैंक मैनेजर के 'प्रोमोशन` के लिए आवश्यक माना जाता है। इस बैंक मैनेजर ने जब देखा कि आदिवासियों के पास किश्त देने के पैसे नहीं हैं तो इससे उन्हें और कर्ज दे दिया और उसमें से किश्त के पैसे काट लिए। फिर तो यह रास्ता ही निकल आया। कई साल तक यही होता रहा। हर बैंक मैनेजर अपना 'कैरियर` बनाता रहा है और आदिवासी भयानक कर्ज में डूबने लगे। होते-होते स्थिति थोड़ी स्पष्ट होने लगी। किसी ने इन्हें बताया कि तुम लोगों के तो जानवर, खेत, घर बिक सकते हैं। ये समझ में आते ही ये डर गये और अब बैंक वालों को आता देखकर जंगल में भाग जाते हैं।

विकास के लिए प्रेरणा देने वाले अटपटे किस्म के बोर्ड अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई पड़ते हैं। मैं सोचता हूं आदिवासी या पिछड़े वर्गों में गांव वालों को चाहिए कि एक बोर्ड लगवायें जिस पर लिखा हो “कृपया हमारा विकास न कीजिए. . .हमें जीवित रहने दीजिए।” त्रासदी यह है कि चालीस साल तक विकास का विनाश चलता रहा और आज भी जारी है।

मैं सोचता हूं कि लिखने से क्या होगा? इतना लिखा क्या हुआ? मेरा नाम हुआ। मेरा सम्मान किया गया। मुझे 'एवार्ड` मिले। मुझे पैसा मिला। लेकिन उनका क्या हुआ जिनके बारे में मैंने लिखा था। फिर क्या करूं? सागर साहब की तरह उनके बीच रहकर काम करूं? अब सुना है सागर साहब ने नौकरी छोड़ दी है और अपनी पत्नी के साथ गलहौटी गांव में ही बस गये हैं। उनका काम गलहौटी के आसपास के गांवों में भी फैल गया है। इसके साथ यह भी हुआ है स्थानीय माफिया उनसे बहुत नाराज़ हैं। उन्हें कई बार मार डालने की धमकियां दी जा चुकी हैं। क्या सागर साहब जैसा साहस मुझमें है?. . .वाह ये तो अजीब बात है, साहस है नहीं और इच्छाएं इतनी हैं? दोनों का कोई मेल भी है?

----२३----

अहमद ने मोर्चा मार लिया। शूजा के साथ पेरिस में एक सप्ताह रहा। लौटकर आया तो शूजा ने कैबनेट सेक्रेटरी पर ज़ोर डाला कि उसकी सिफारिश करें और अनंत: वह राजदूत हो गया। कहता है यार बड़ी 'मेहनत` करनी पड़ती है 'एम्बैस्डर` बनने के लिए।

यह भी मसला था कि किन-किन देशों में वह भेजा जा सकता है और उसमें से कौन-से देश ऐसे हैं जहां वह जाना चाहेगा या जहां जाने से फ़ायदा होगा। मैं और शकील ये समझ रहे थे कि वह योरोप के किसी सुंदर देश को पसंद करेगा लेकिन उसने कहा तुम लोग जानते नहीं योरोप में कहां वे मज़े हैं जो 'मिडिल ईस्ट` में हैं. . .मतलब यार तीन साल मरेंगे तो कुछ कमा लें। जहां सोना होगा- काला सोना वहां जाना चाहिए. . .योरोप के छोटे मोटे देशों में क्या है, कुछ नहीं, उसने बताया था कि एक 'आर्डर` को वह इधर से उधर खिसका देगा तो करोड़ों बन जायेगा। उसने भ्रष्ट राजदूतों के बड़े-बड़े किस्से सुनाये। एक राजदूत की पत्नी तो सुबह नाश्ते के लिए दूध, अण्डे और ब्रेड तक पर अपना पैसा नहीं खर्च करती थी। उसने ड्राइवर को आदेश दे रखा था कि वह नाश्ते का सामान लाया करे और बदले में उसका 'ओवर टाइम` मंजूर कर लिया जायेगा। ड्राइवर भी खुश रहता था क्योंकि इसमें उसे अच्छा खासा बच जाता था।

हमने अहमद से कहा कि यार ये काम राजदूतों की पत्नियां कर सकती हैं। अफसोस तुम कुंवारे हो. . .कैसे करोगे. ..उसने कहा था, यार इस तरह के टुच्चे काम तो मैं करूंगा भी नहीं। मैं तो बड़ा खेल खेलना चाहता हूं. . .ऊंचा दांव लगाऊंगा।``

“आमतौर पर 'एम्बैसडर` पत्नी या बच्चों के नाम पर धंध कर लेते हैं। तुम्हारे साले जोरू न जाता, दूसरी औरतों से नाता. . .क्या करोगे?”

“देखो रास्ता एक नहीं होता. . .”

“क्या मतलब हुआ इसका?”

“तुम दोनों को मज़ा आयेगा एक किस्सा सुनो. . .या बेचारे से हमदर्दी करोगे।”

किससे? तुमसे?”

“नहीं किसी और से. . .”

किससे यार?”

“सुन तो लो।”

“सुनाओ।”

“शूजा कह रही थी कि अपने सी.एस. के साथ उसके बड़े दिलचस्प संबंध हैं। वे शूजा को अपनी प्रेमिका मानते हैं और उसी तरह मिन्नतें करते हैं, ध्यान रखते हं नाज़ उठाते हैं, जैसे महबूबा के उठाये जाते हैं। शूजा भी उन्हें प्रेमी मानकर पूरा अधिकार जताती है, आदेश देती है, ज़िद करती है, रूठती, मनती है वगैऱा वगै़रा. . .लेकिन दोनों के बीच जिस्मानी रिश्ता नहीं बन पाता. . . र

“क्यों?”

“सुनो दिलचस्प है. . .शूजा के मुताबिक सी.एस. को यह यक़ीन है कि शूजा किसी 'क्लासिकल` प्रेमिका की तरह अब तक उन्हें जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाने दे रही। लेकिन शूजा को पक्का यक़ीन है कि सी.एस. जिस्मानी रिश्ता बना ही नहीं सकते, लेकिन इसका इल्ज़ाम भी अपने सिर नहीं लेना चाहते। वे दिल से चाहते हैं कि शूजा उन्हें जिस्मानी रिश्ता बनाने के लिए टालती रहे तो अच्छा है लेकिन ज़ाहिर ये करते हैं वे जिस्मानी रिश्ता बनाने के लिए बेचैन हैं. . .और नहीं बन पाता। तो इसके ज़िम्मेदार 'वो` नहीं शूजा है।”

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मैं चपरासी की कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था कि किसी की आवाज़ सुनी- “हम अली साहब से मिलना चाहते है।”

सिर उठाकर सामने देखा तो कांप गया। सामने सल्लो खड़ी थी। बिल्कुल सल्लो, सौ फीसदी सल्लो, वही रंग, वही नक्श, वैसे ही बाल और उसी तरह की ढीली ढाली सलवार कुर्ता और मोटा दुपट्टा. . .बिल्कुल सल्लो. . .मैं हैरान होकर उसे देखने लगा. . .ये कैसे हो सकता है. . .चालीस साल बाद सल्लो फिर आ गयी?

“हम अली साहब से मिलना चाहते हैं”, उसने कोई जवाब न पाकर मुझे फिर पूछा।

“आइये”, मैं उठा और ऑफिस के अंदर आ गया और अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया।

“बैठिये. . .”, वह बैठ गयी।

“आपका नाम क्या है?”

“हमारा नाम अनुराध है. . .सब अनु कहते हैं।”

“हां तो बताइये अनु जी मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं।”

“एक गिलास यानी मिल जायेगा?” वह संकोच करते हुए बोली।

“हां. . .हां क्यों नहीं”, मैं उठा जग में पानी उंडेलने लगा तो वह आ गयी और बोली “हम ही ले लेंगे।”

“नहीं, आप बैठिये. . .हमारे कल्चर में मेहमान के सामने पानी पेश किया जाता है. . .अमरीकी कल्चर में कहा जाता है, वो उधर पानी रखा है या चाय रखी है जाकर ले लो. . .लेकिन मैं तो अमरीकन नहीं हूं और न आप हैं।”

“शुक्रिया” वह पानी का गिलास लेकर हँसते हुए बोली।

उसके चेहरे पर पसीने की बूंदों और कपड़ों के इधर-उधर से कुछ गीले होने की वजह से मैं समझ गया था कि वह बस से आई हैं और इससे यह पता चल गया था कि वह किस वर्ग से संबंध रखती है लेकिन इतना काफी नहीं है। हम लोगों की अजीब आदत है कि नये आदमी के बारे में सब कुछ जानना चाहते हैं। गांव गिराव में तो साफ-साफ पूछ लेते हैं किस जाति के हो? या कौन लोग हो? लेकिन अखबार के दफ्त़र में तो यह सवाल नहीं किया जा सकता। इसलिए जाति जानने के लिए दसियों सवाल करने पड़ते हैं। जाति का पता लगते ही बहुत सी बातें साफ हो जाती हैं। लड़की ने अपना नाम अनुराध बताया है, फैमली नाम भी नहीं बताया। अनुराध वर्मा या शर्मा, यादव, पंत, जोशी. . .क्या?

“जी बताइये?”, जब उसने पानी पी लिया तो मैंने सवाल किया।

“पिछले सण्डे हमने आपका 'आरटिकल` पढ़ा था।”

“ब्राइड बर्निंग वाला. . .”

“जी हां।”

ओहो, 'जी हां` कह रही है। 'हां जी` नहीं कर रही है इसका मतलब पंजाब या हरियाणा की नहीं हैं।

“अच्छा तो फिर. . .”

“हम आपसे कहना चाहते हैं. . .”

हम, हमने, हमारा. . .इसका मतलब है उत्तर प्रदेश या बिहार की लगती है।

“जी आप क्या कहना चाहती हैं।”

“हमें आपका लेख पसंद आया. . .बहुत अच्छा लगा।”

“शुक्रिया।”

“हमने आपका लेख दो-तीन बार पढ़ा।”

लगभग पौने पांच फुट लंबी और चालीस किलो वज़न वाली यह लड़की जब हम, हमारी, हमें कहती है तो कितना अजीब लगता है। इसकी उम्र पच्चीस छब्बीस साल से ज्यादा क्या होगी।

“मुझे बहुत खुशी है. . .”, मैंने ऐसी नज़रों से देखा जैसा कह रहा हूं भई आगे बढ़ो. . .भूमिका काफी लंबी हो गयी है। लेकिन मैं उसे देखे जा रहा हूं उसमें सल्लो नज़र आ रही है। उसी तरह का जिस्म. . .वही सांवला रंग. . .उसी तरह के नाज़ुक हाथ. . .और चेहरा भी. . .

बस आंखें अलग हैं। सल्लो की आंखों में किसी हिरनी का भाव हुआ करता था। इसकी आंखों में गहरी उदासी ओर आत्मविश्वास की छींटे आपस में घुल मिल गये हैं।

“जला देना तो एक बात है. . .लेकिन रोज़ का जो जीवन है . . . उस पर कोई नहीं लिखता. . .आप. . .क्यों नहीं लिखते?”

“देखिए. . .यह सच्चाई है कि महिलाओं के दैनिक जीवन के दु:ख कितने बड़े और कैसे हैं. . .मैं नहीं जानता. . .अगर आप बतायें तो. . .”

“हां हम आपको बता सकते हैं”, वह उत्साह से बोली।

मैंने सोचा, वाह इससे बढ़िया क्या हो सकता है। पत्रकारिता में फलसफ़ा और सिद्धांत बघारने से कहीं अच्छा होता है मानवीय अनुभवों को सामने रखना इसी में पाठकों को मज़ा आता है. . .

“मैं आपका बड़ा आभारी हूंगा. . . अब बताइये. . .यह होगा कैसे?”

“हम आपके ऑफिस में . . यार

“ठीक है. . .तो क्यों न आज से ही शुरु कर दें।”

“जैसा आप कहें।”

“पहले चाय मंगाते हैं”, मैंने इंटरकाम पर शिप्रा को बुला लिया।

शिप्रा आई। “आधुनिक योरोपीय कपड़ों में सजी एक तेज़ तर्रार गोरी, लंबी, आत्मविश्वास में शराबोर लड़की. . .और अनुराध दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और दोनों ने एक दूसरे का नापसंद किया।

“देखो . . .करीब एक घण्टे मेरे पास किसी 'विज़ीटर` को न आने दो. . .और दो चाय. . .भिजवा दो।”

वह चली गयी।

अनु बताने लगी हमारी एक सहेली है। स्कूल में टीचर है। मैरीड है। उसके ससुराल वाले कहते हैं जो कुछ कमाती तो वह परिवार की 'इन्कम` है। उसका पति उससे एक-एक पेसा ले लेता है। फिर बस का पास बनवा कर दे देता है। लंच अपने साथ ले जाती है। वह स्कूल में चाय तक नहीं पी सकती। उससे कहा जाता है ज्यादा चाय पीना बुरी बात

है। सेहत खराब हो जाती है. ..कभी-कभी हमारी दोस्त को कापियां जांचने या इम्तिहान में ड्यूटी करने के कुछ पैसे मिल जाते हैं तो उन्हें छिपा लेती है। पति को नहीं बताती। उन्हीं पैसों से अपने लिए कुछ खरीदती है. . .पर डरती है कि पति ने देख लिया और पूछा कि कहां से आया? तो क्या जवाब देगी। अगर नहीं बता पायेगी तो सीधे चरित्र पर हमला करेगा. . .बता देगी तो पैसे देने पड़ेंगे. . .डांट-डपट अलग पिलायेंगे. . .एक दिन उसने हमें स्कूल से फोन किया और बोली “देख मैंने सैण्डिल ली है।” उसने बड़ी खूबसूरत सैण्डिल दिखाई। बोली “तू इसे ले जा. . .पहन ले. . .जब थोड़ी पुरानी पड़ जायेंगी तो मैं ले लूंगी. . .नयी सैण्डिल लेकर घर जाऊंगी तो सबकी निगाह पड़ेगी. . .पूछेंगे तो क्या बताऊंगी. . .कुछ दिन पहनी हुई कोई देखेगा नहीं. . .अगर पूछा भी तो कह दूंगी कि अनु की हैं. . .एक दिन के लिए बदल ली है।”

वह बताती रही और हैरत से उसे देखता रहा. . .ये कैसे संभव है? ये है क्या. . .अपनी मेहनत. . .अपना पैसा. . .लेकिन. . .

उसी दिन में एडीटर-इन-चीफ से मिला और 'वीकली कालम` शुरु कर दिया। मैं यह समझ रहा था कि अनु के अनुभव कहीं जल्दी ही चुक गये तो क्या होगा. . .लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कालम के बारे में 'वीमेन ग्रुप` उत्साहित हो गये। वहां से स्टोरीज़ आने लगीं।

अनु अक्सर बिना बताये, बिना फोन किये ऑफिस आ जाती थी और मैं घण्टों उससे बातचीत करता था। यह तय है कि यह एक नयी दुनिया थी जो मेरे ऊपर खुल रही थी। मेरे अपने कोई अनुभव न थे। हां इधर-उधर कभी कुछ कान में पड़ जाता था। वैसे अखबार दहेज के चक्कर में जला दी गयी लड़कियों से भरे रहते हैं लेकिन इससे यह पता न चलता था कि उनकी दुनिया कैसी है? या पैदा होते ही. . .होश संभालते ही उन्हें क्या झेलना पड़ता है, किस तरह के व्यवहार को सहने की आदतें डाली जाती हैं ताकि शादी के बाद सब कुछ सहन कर लें। हद ये है कि जलकर मर जाये और कुछ न बोले।

“अनुराध. . .तुमने अब तक अपना पूरा नाम नहीं बताया है।”

वह बच्चों की तरह खुश हो गयी और बोली “अरे ये कैसे हो गया. . . हमारा पूरा नाम अनुराध सिंह है।”

“तुम रहती कहां हो।”

“हम आर.के.पुरम में रहते हैं। पिताजी कृषि मंत्रालय में सेक्शन आफीसर हैं।”

“तुम लोग रहने वाले कहां के हो?”

“हम लोग इलाहाबाद के हैं. . .”

मैं चुप हो गया।

“और कुछ पूछिये?”, वह शरारत से बोली।

“तुम करती क्या हो?”

“मैं गणित के ट्यूशन करती हूं।”

किस क्लास के बच्चों को पढ़ाती हो?”

किसी भी क्लास के बच्चों को मैथ्स पढ़ा देती हूं।”

“क्या मतलब?”

“मतलब हम कक्षा एक से लेकर एम.एस.सी. को मैथ्स पढ़ा सकते हैं?”

-''ये कैसे? तुमने मैथ्स कहाँ तक पढ़ी है?``

“हमने इंटर तक पढ़ी है मैथ्स. . .हमें अच्छी लगती है. . .मैथ्स में हमने जितने भी इम्तिहान दिए हैं, हमारे सौ में सौ नंबर आये हैं।”

“लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम एम.एस.सी. को मैथ्स पढ़ा सको।”

“पढ़ाते हैं. .. हम बता रहे हैं न।”

मैंने सोचा ये हो कैसे सकता है। झूठ बोल रही है। लेकिन इसको मालूम नहीं कि पत्रकार से झूठ बोलने का क्या नतीजा होता है क्योंकि पत्रकार बेशर्म होता है।

मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में अपने दोस्त मैथ्स के प्रोफेसर लाल को फोन मिलाया और कहा कि ज़रा इस लड़की से फोन पर बात करके बताओ कि वह एम.एस.सी. को मैथ्स पढ़ा सकती है या नहीं।

मेरे इस फोन पर वह हंस रही थी। बुरा नहीं मान रही थी कि मैं उसकी परीक्षा लेना चाहता हूं।

“लो बात करो. . .”

“जी मेरा नाम अनुराध सिंह है. . .हम इंटर तक पढ़े है. . . .जी. . .”

मैं सिर्फ वह सुन रहा था जो अनुराध कर रही थी।

“जी रियल एनालिसिस और काम्पलेक्स एनालिसिस में मेरी रूचि है. . .जी? . . .जी.एच. हार्डी की किताब है न. ..'प्योर मैथमेटिक्स` वह पढ़ी है मैंने. . .किताब मेरे पास है. . .जी अपने आप . . .जी हां. . .कॉपसन की 'फन्कन्शस् ऑफ काम्पलेक्स वैरियेबुल्स`. . जी ट्यूशन करती हूं. . .और और कुछ तो मैं कर नहीं सकती. . .डिग्री नहीं है मेरे पास. .. ये लीजिए आपसे बात करेंगे”, उसने फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया. ..

“हां बताओ।”

“लड़की सच बोल रही है. . .”

“क्या?”

“हां।”

“यार ये कैसे. ..”

“सब कुछ हो सकता है. . .तुम्हारे बड़े-बड़े पत्रकार हाई स्कूल फेल नहीं थे?”

“लेकिन. . .”

“इसको शौक है. ..ये 'जीनियस` है. . .और क्या कह सकता हूं।”

मैंने फोन रख दिया वह हंसने लगी।

“देखिए हम झूठ नहीं बोलते”, वह आत्मविश्वास के साथ बोली। मैं सिर्फ उसकी तरफ देखने लगा। कायदे से मुझे अपने व्यवहार पर शर्म आनी चाहिए थी। मान लीजिए प्रोफेसर लाल कह देते कि लड़की 'फेक` है तब क्या होता?

“देखो मुझे अफसोस है. . . पर हमें इतना निमर्म होने की आदत पड़ जाती है।”

“हमने बुरा तो नहीं माना. . .आप की जगह हम होते तो यही करते”, वह बोली।

“चलो आज से मान लिया कि तुम झूठ नहीं बोलती हो. . .ये भी बताओ कि क्या तुमसे जो पूछा जाये सच-सच बताती भी हो।”

“हां क्यों नहीं. . .”, वह बोली।

मैंने घड़ी देखी शाम के सात बज गये हैं। गर्मी के दिनों में इस समय का अपना विशेष महत्व है। बाहर हवा ठंडी चल रही होगी। टेरिस पर गुलशन ने छिड़काव कर दिया होगा। पंखे लगा दिए होंगे. . .केन का सोफा बाहर निकाल दिया होगा। क्या मैं इस लड़की से घर चलने के लिए कहूं? नहीं पता नहीं क्या समझे. . .और फिर मेरे घर क्यों जायेगी? कोई बात नहीं टटोल कर तो देखा जा सकता है।

“ये बताओ तुम घर कितने बजे तक लौटती हो।”

“कोई तय नहीं है. ..कभी रात वाले ट्यूशन में देर हो जाती है तो दस साढ़े दस भी बज जाते हैं।”

“तुम्हारे पापा. . .”

“नहीं पापा मम्मी कुछ नहीं कहते वे जानते हैं।”

“तुम आर.के.पुरम में रहती हो न?”

“हां।”

“मैं सफदरजंग एन्क्लेव में रहता हूं. . .जानती हो अफ्रीका ऐवेन्यू से जो सड़क डियर पार्क की तरफ जाती है. . .उसी सड़क पर।”

“अरे तो सड़क के दूसरी तरफ वाले ब्लाक में तो हमारा घर है।”

“तो देखो. . .अगर तुम चाहो तो. . .मेरे साथ चलो. . .थोड़ी देर मेरे यहां बैठो. . .चाय पियो. . .फिर मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा।”

“अरे वहां से तो मैं पैदल चली जाऊंगी”, वह बोली।

मकान उसे पसंद आया। वह बच्चों की तरह 'रिएक्ट` करती है। उसका इसका डर नहीं रहता कि उसे लोग क्या समझेंगे। 'माइक्रोवेव` ओवन देखकर बोली “अरे ये तो मैंने पहले कभी नहीं देखा था।”

खरगोश पसंद आये। गुलशन के तोते को हरी मिर्च खिला दी।

हम टेरिस पर आकर बैठे। गुलशन मेरे लिए ड्रिंक्स की ट्राली ले अनु के लिए ट्रे में चाय लाया। वह दूर तक फैली हरियाली को देखने लगी।

“हरियाली नीचे से देखने और ऊपर से देखने में बड़ा फ़र्क़ होता है”, वह हसंकर बोली।

“हां. .. सिर्फ हरियाली ही नहीं बल्कि सब कुछ।”

“जहाज़ में बैठकर कैसा लगता होगा”, वह इतने उत्साह से बोली कि मैं समझ नहीं पाया।

“तुम कभी नहीं बैठी?”

“हम बैठना चाहते हैं।``

गुलशन पकौड़े ले आया। हमने पकौड़े लिए। अनु ने गुलशन से कहा फ् गुलशन भाई. . .फूल गोभी को छौंक कर पकौड़े बनाओ. . . बहुत अच्छे बनते हैं।”

“कैसे हमें नहीं आता।”

“चलो बताती हूं”, वह उठकर गुलशन के साथ चली गयी और मैं हैरत में उसे जाता देखता रहा।

यार ये लड़की बन रही है। इतनी सहजता दिखा रही है। इतनी 'रिलैक्स` लग रही है। ऐसा हो नहीं सकता। फिर ये इतनी खुश कैसे रहती है? मैं ये सब सोच ही रहा था कि अनु पकौड़े लेकर आ गयी। खाया मज़ा बहुत अच्छा था।

“मैंने गुलशन भइया को सीखा दिए हैं”, वह हंसकर बोली।

गुलशन आ गया और कहने लगा “अमीना को भी अच्छा लगा। अब इसी तरह बनाया करेंगे।”

“अनु दीदी हमें कटहल पकाना सिखा दो. . .कहते हैं हिन्दू कटहल बड़ा अच्छा बनाते हैं”, गुलशन ने कहा। मैंने हिंदू पर विशेष ध्यान दिया लेकिन अनु के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। वह सहज ढंग से बोली “ठीक है. . .किसी दिन सिखा दूंगी. . .आजकल तो मिलता

नहीं कटहल।”

कुछ देर बाद अहमद आ गया। मैंने अनु से मिलवाया और अनु को बताया “ये राजदूत हैं. . .जानती हो. . .भारत को विदेशों में 'रिप्रीजेंण्ट` करते हैं।”

उसने अपनी आंखें फाड़ते हुए कहा “अरे. . .राजदूत. . .हम ने तो आजतक कोई राजदूत नहीं देखा थार, वह आश्चर्य से बोली।

मैंने हंसकर कहा “हां देख लो. . .ऐसे होते हैं राजदूत।”

अहमद ने कुछ बुरा माना। वह अनु की तरफ भी नहीं देख रहा था। लगता था उसे अनु का वहां होना अच्छा नहीं लगा। अनु भी शायद समझ गयी और बोली ''हम अब जायेंगे।”

“तुम्हें गुलशन छोड़ देगा।”

वह तैयार हो गयी।

“यार तुम 'भी कहां-कहां से न जाने क्या क्या जमा कर लेते हो”, अहमद बुरा मानता हुआ बोला।

“अबे वो 'जीनियस` है।”

“होगी यार. . .हमसे क्या।”

“साले जिससे तुम्हारा मतलब न सधे. . .वो सब बेकार है।”

“पकौड़े अच्छे हैं”, वह पकौड़ा खोते हुए बोला।

“उसी ने बनाये हैं।”

किसने? उसी 'जीनियस` ने?”

“हां”, मैंने कहा और वह हंसने लगा।

 

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(क्रमशः जारी अगले अंकों में....)

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रचनाकार: असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 6)
असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 6)
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